केंद्रित
होने की
पांचवी विधि:
‘’मन को
भूलकर मध्य
में रहो—जब
तक।‘’
यह सूत्र
इतना ही है।
किसी भी
वैज्ञानिक
सूत्र की तरह यह
छोटा है,
लेकिन ये थोड़
से शब्द
भी तुम्हारे
जीवन को समग्ररतः:
बदल सकते है।
‘’मन को
भूल कर मध्य
में रहो—जब
तक।‘’
‘’मध्य
में रहो।‘’—बुद्ध
ने अपने ध्यान
की विधि इसी
सूत्र के आधार
पर विकसित की।
उनका मार्ग मज्झम
निकाय या मध्य
मार्ग कहलाता
है। बुद्ध
कहते है, सदा
मध्य में
रहो, प्रत्येक
चीज में।
एक
बार राजकुमार
श्रोण
दीक्षित हुआ,
बुद्ध ने उसे
सन्यास में
दीक्षित
किया। वह
राजकुमार
अद्भुत व्यक्ति
था। और जब वह
संन्यास में
दीक्षित हुआ
तो सारा राज्य
चकित रह गया।
लोगों को यकीन
नहीं हुआ कि
राजकुमार
श्रोण संन्यासी
हो
गया। किसी ने
स्वप्न में
भी नहीं सोचा
था। क्योंकि
श्रोण पूरा
सांसारिक था।
भोग-विलास में
सर्वथा लिप्त
रहता था। सारा
दिन सूरा और
सुंदरी ही
उसका संसार
थी।
तभी
अचानक एक दिन
बुद्ध उसके
नगर में आए।
राजकुमार
श्रोण उनके
दर्शन को गया।
वह बुद्ध के
चरणों में
गिरा और बोला
कि मुझे
दीक्षित कर
लें, मैं
संसार छोड़ दूँगा।
जो
लोग उसके साथ
आए थे उन्हें
भी इसकी खबर
नहीं थी। ऐसी
अचानक घटना थी
यह। उन्होंने
बुद्ध से पूछा
कि यह क्या
हो रहा है। यह
तो चमत्कार
है। श्रोण उस
कोटि का व्यक्ति
नहीं है। वह
तो भोग विलास
में रहा है।
यह तो चमत्कार
है। हमने तो
कल्पना भी
नहीं की थी कि
श्रोण संन्यासी
होगा। यह क्या
हो रहा है। आपने
कुछ कर दिया
है।
बुद्ध
ने कहा कि
मैंने कुछ
नहीं किया है।
मन एक अति से
दूसरी अति पर
जा सकता है।
वह मन का ढंग है।
एक अति से
दूसरी अति पर
जाना। श्रोण
कुछ नया नहीं कर रहा
है। यह होना
ही था। क्योंकि
तुम मन के
नियम नहीं
जानते, इसलिए
तुम चकित हो
रहे हो।
मन
एक अति से
दूसरी अति पर
गति करता रहता
है। मन का यही
ढंग है। यह
रोज-रोज होता
है। जो आदमी धन
के पीछे पागल
था वह अचानक
सब कुछ छोड़कर
नंगा फकीर हो
जाता है। हम
सोचते है कि
चमत्कार हो
गया। लेकिन यह
सामान्य
नियम के सिवाय
कुछ नहीं है।
जो आदमी धन के
पीछे पागल
नहीं है। उसके
यह उपेक्षा
नहीं की जा
सकती है कि वह
त्याग
करेगा। क्योंकि
तुम एक अति से
ही दूसरी अति
पर जा सकेत हो।
वैसे ही जैसे
घड़ी का पैंडुलम
एक अति से
दूसरी अति पर
डोलता रहता
है।
इसलिए
जो आदमी धन के
लिए पागल था
वह पागल होकर धन
के खिलाफ जाएगा।
लेकिन उसका
पागलपन कायम
रहेगा। वही मन
है। जो आदमी
कामवासना के
लिए जीता था
वह ब्रह्मचारी
हो जा सकता
है। एकांत में
चला जा सकता
है। लेकिन
उसका पागलपन
कायम रहेगा।
पहले वह कामवासना
के लिए जीता
था अब वह
कामवासना के
खिलाफ
होकर जिएगा।
लेकिन उसका
रूख उसकी दृष्टि
वहीं की वहीं
रहेगी। इसलिए
ब्रह्मचारी
सच में
कामवासना के
पार नहीं गया
है। उसका पूरा
चित काम-वासना
प्रधान हे। वह
सिर्फ
विरूद्ध हो गया
है। उसने काम
का अतिक्रमण
नहीं किया है।
अतिक्रमण का
मार्ग सदा मध्य
में है। वह
कभी अति में
नहीं है।
तो
बुद्ध ने कहा
कि यह होना ही
था। यह कोई
चमत्कार
नहीं है। मन
ऐसे ही व्यवहार
करता है।
श्रोण
भिक्खु बन
गया, संन्यासी
हो गया। शीध्र
ही बुद्ध के
दूसरे शिष्यों
ने देखा कि वह
दूसरी अति पर
जा रहा था।
बुद्ध ने किसी
को नग्न रहने
को नहीं कहा
था, लेकिन
श्रोण नग्न
रहने लगा।
बुद्ध नग्नता
के पक्ष में
नहीं थे। उन्होंने
कहा कि यह
दूसरी अति है।
लोग है जो कपड़ों
के लिए ही
जीते है,
मानों वही
उनका जीवन हो।
और ऐसे लोग भी
है जो नग्न
हो जाते है।
लेकिन दोनों
वस्त्रों
में विश्वास
करते है।
बुद्ध
ने कभी नग्नता
की शिक्षा
नहीं दी।
लेकिन श्रोण
नग्न हो गया।
वह बुद्ध का
अकेला शिष्य
था जो नग्न
हुआ। श्रोण
आत्म उत्पीड़न
में भी गहरे
अतर गया।
बुद्ध ने अपने
संन्यासियों
को दिन में एक
बार भोजन की
व्यवस्था
दी थी। लेकिन
श्रोण दो
दिनों में एक
बार भोजन लेने
लगा। वह बहुत
दुर्बल हो
गया। दूसरे भिक्षु
पेड़ की छाया
में ध्यान
करते। लेकिन
श्रोण कभी
छाया में नहीं
बैठता था। वह
सदा कड़ी घूप
में रहता था।
वह बहुत सुंदर
आदमी था, उसकी
देह बहुत
सुंदर थी।
लेकिन छह
महीने के भीतर
पहचानना मुश्किल
हो गया कि यह
वही आदमी है।
वह कुरूप,
काला, झुलसा-झुलसा
दिखने लगा।
एक
रात बुद्ध
श्रोण के पास
गए और उससे
बोले: श्रोण
मैंने सूना है
कि जब तुम
राजकुमार थे,
तब तुम्हें
वीणा बजाने का
शोक था। और
तुम एक कुशल
वीणावादक और
बड़े
संगीतज्ञ थे।
तो मैं तुमसे
एक प्रश्न
पूछने आया
हूं। अगर वीणा
के तार बहुत ढीले
हो तो क्या
होता है? अगर तार
ढीले होंगे तो
कोई संगीत
संभव नहीं है।
और
फिर बुद्ध ने
पूछा कि अगर
तार बहुत कसे
हों तो क्या
होगा?
श्रोण ने कहा
कि तब भी
संगीत नहीं
पैदा होगा। तारों
को मध्य में
होना चाहिए।
वे न ढीले हो
और न कसे हुए,
ठीक मध्य में
हो। और श्रोण
ने कहा कि
वीणा बजाना तो
आसान है।
लेकिन एक परम
संगीतज्ञ ही
तारों को मध्य
में रख सकता
है।
तो
बुद्ध ने कहा
कि छह महीनों
तक तुम्हारा
निरीक्षण
करने के बाद
मैं तुमसे यही
कहने आया हूं,
कि जीवन में
भी संगीत तभी
जन्मता है जब
उसके तार न
ढीले हो और न
कसे हुए ठीक
मध्य में
हों। इसलिए त्याग
करना आसान है,
लेकिन परम
कुशल ही मध्य
में रहना
जानता है।
इसलिए श्रोण,
कुशल बनो और
जीवन के तारों
को मध्य में,
ठीक मध्यम
में रखो। इस
या उस अति पर
मत जाओ। और
प्रत्येक
चीज के दो छोर
है, दो अतियां
है। लेकिन तुम्हें
सदा मध्य में
रहना है।
लेकिन
मन बहुत बेहोश
है। इसलिए
सूत्र में कहा
गया है: ‘’मन को भूलकर।‘’
तुम यह बात
सुन भी लोगे,
तुम इसे समझ
भी लोगे,
लेकिन मन उसको
नहीं ग्रहण
करेगा। मन सदा
अतियों को
चुनता है। मन
में अतियों के
लिए बड़ा आकर्षण
है। मोह है।
क्यों? क्योंकि
मध्य में मन
की मृत्यु हो
जाती है।
घड़ी
के पैंडुलम को
देखो। अगर
तुम्हारे
पास कोई
पुरानी घड़ी
हो तो उसके पैंडुलम
को देखो। पैंडुलम
सारा दिन चलता
रहता है। यदि
वह अतियों तक
आता जाता रहे।
जब वह बांए
जाता है तब
दांए जाने के
लिए शक्ति
अर्जित कर रहा
है। जब वह
दांए जा रहा
है तो मत सोचो
की वह दांए जा
रहा है। वह
बांए जाने के
लिए ऊर्जा इकट्ठी
कर रहा है।
अतियां ही
दांए-बांए है।
पैंडुलम को
बीच में ठहरने
दो और सब गति
बंद कर दो, तब पैंडुलम
में उर्जा
नहीं रहेगी। क्योंकि
उर्जा तो एक
अति से आ रही
थी। एक अति से
दूसरी अति उसे
दूसरी अति की
और फेंकती है।
उससे एक वर्तुल
बनता है। और पैंडुलम
गतिमान होता
है। उसको बीच
में होने दो
और तब सब गति
ठहर जाएगी।
मन
पैंडुलम की
भांति है। और
अगर तुम इसका
निरीक्षण करो
तो रोज ही
इसका पता
चलेगा। तुम एक
अति के पक्ष में
निर्णय लेते
हो और तब तुम
दूसरी अति की
और जाने लगते
हो। तुम अभी
क्रोध करते
हो, फिर पश्चाताप
करते हो। तुम
कहते हो, नहीं,
बहुत हुआ, अब मैं
कभी क्रोध न
करूंगा।
लेकिन तुम कभी
अति को नहीं
देखते।
यह
‘’कभी नहीं’’ अति
है। तुम कैसे निशचित
हो सकते हो कि
तुम कभी नहीं
क्रोध करोगे।
तुम कह क्या
रहे है? एक बार और
सोचो। कभी
नहीं?
अतीत में जाओ
और याद करो कि
कितनी बार
तुमने निश्चय
किया है। कि
मैं कभी क्रोध
नहीं करूंगा।
जब तुम कहते
हो कि मैं कभी
क्रोध नहीं
करूंगा। तो
तुम नहीं
जानते हो कि
क्रोध करते
समय। ही तुमने
दूसरे छोर पर
जाने की ऊर्जा
इकट्ठी कर ली थी।
अब तुम पश्चाताप
कर रहे हो। अब
तुम्हें
बुरा लग रहा
है। तुम्हारी
आत्म छवि हिल
गई है। गिर गई
है। अब तुम
नहीं कह सकते
कि मैं अच्छा
आदमी हूं।
धार्मिक आदमी
हूं। मैंने
क्रोध किया और
धार्मिक व्यक्ति
क्रोध नहीं
करता। है। अच्छा
आदमी क्रोध
कैसे करेगा? तो तुम अपनी
अच्छाई को
वापस पाने के
लिए पश्चाताप
करते हो। कम
से कम अपनी
नजर में तुम्हें
लगेगा कि
मैंने पश्चाताप
कर लिया, चैन
हो गया और अब
फिर क्रोध नहीं
होगा। इससे
तुम्हारी
हिली हुई आत्म-छवि
पुरानी अवस्था
में लौट आएगी।
अब तुम चैन
महसूस करोगे।
क्योंकि अब
तुम दूसरी अति
पर चले गए।
लेकिन
जो मन कहता है
कि अब मैं फिर
कभी क्रोध नहीं
करूंगा। वह
फिर क्रोध
करेगा। अब जब
तुम फिर क्रोध
में होगें तो
तुम अपने पश्चाताप
को, अपने
निर्णय को, सब
को बिलकुल भूल
जाओगे। और
क्रोध के बाद
फिर वह निर्णय
लौटेगा। और
पश्चाताप
वापस आएगा। और
तुम कभी उसके
धोखे को नहीं
समझ पाओगे।
ऐसा सदा हुआ
है। मन क्रोध
से पश्चाताप
और पश्चाताप
से क्रोध के
बीच डोलता
रहता है।
बीच
में रहो। न
क्रोध करो, न
पश्चाताप
करो। और अगर
क्रोध कर गए
तो कृपा कर
क्रोध ही करो।
पश्चाताप मत
करो। दूसरी
अति पर मत
जाओ। बीच में
रहो। कहो कि
मैंने क्रोध
किया है। मैं
बुरा आदमी
हूं। हिंसक
हूं। मैं ऐसा
ही हूं। लेकिन
पश्चाताप मत
करो। दूसरी
अति पर मत
जाओ। मध्य
में रहो। और
अगर तुम मध्य
में रह सके तो
फिर तुम क्रोध
करने के लिए
ऊर्जा इकट्ठी
नहीं कर
पाओगे।
इसलिए
यह सूत्र कहता
है: ‘’मन को
भूलकर मध्य
में रहो—जब
तक।‘’
इस
‘’जब तक’’ का क्या
मतलब है? मतलब यह है
कि जब तक तुम्हारा
विस्फोट न हो
जाए। मतलब यह
है कि तब तक
मध्य में रहो
जब तक मन की
मृत्यु न हो
जाए। तब तक
मध्य में रहो
जब तक मन अ-मन न
हो जाए। अगर
मन अति पर है
तो अ-मन मध्य में
होगा।
लेकिन
मध्य में
होना संसार
में सबसे कठिन
काम है। दिखता
तो सरल है।
दिखता तो यह
आसान है। तुम्हें
लगेगा कि मैं
कर सकता हूं,
और तुम्हें
यह सोचकर
लगेगा कि पश्चाताप
की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन प्रयोग
करो। और तब
तुम्हें पता
चलेगा। कि जब
क्रोध करोगे
तो मन पश्चाताप
करने पर जोर
देगा।
पति-पत्नियों
का झगड़ा सदा
से चलता आया
है। और सदियों
से महापुरुष
और सलाहकार
समझा रहे है
कि कैसे रहें
और प्रेम
करें। और यह
झगड़ा जारी
है। पहली बार
फ्रायड को इस
तथ्य को बोध
हुआ। कि जब भी
तुम प्रेम,
तथाकथित प्रेम
में होओगे।
तुम्हें
धृणा में भी
होना पड़ेगा।
सुबह प्रेम
करोगे और श्याम
घृणा करोगे।
और इस तरह पैंडुलम
हिलता रहेगा।
प्रत्येक
पति-पत्नी को
इसका पता है।
लेकिन फ्रायड
की अनंतदृष्टि
बड़ी अद्भुत
है। वह कहता
है कि अगर
किसी दंपति ने
झगड़ा बंद कर
दिया है तो
समझो कि उनका
प्रेम मर गया।
घृणा और
लड़ाई। के साथ
जो प्रेम है,
वह मर गया।
अगर
किसी जोड़े का
तुम देखो कि
वह कभी लड़ता
नहीं है तो यह
मत समझो कि यह
आदर्श जोड़ा
है। उसका इतना
ही अर्थ है कि
यह जोड़ा ही
नहीं है। वे समांतर
रह रहे है।
लेकिर साथ-साथ
नहीं रहते। वे
समांतर रेखाएं
है। जो कहीं
नहीं मिलती।
लड़ने के लिए
भी नहीं। वे
दोनों साथ
रहकर भी
अकेले-अकेले
है—अकेले-अकेले
और समांतर।
मन
विपरीत पर गति
करता है।
इसलिए अब
मनोविज्ञान
के पास
दंपतियों के
लिए बेहतर
निदान है—बेहतर
और गहरा। वह
कहता है। कि
अगर तुम सचमुच
प्रेम-इसी मन
के साथ—करना
चाहते हो तो
लड़ने झगड़ने
से मत डरों।
सच तो यह है कि
तुम्हें
प्रामाणिक
ढंग से लड़ना
चाहिए। ताकि
तुम प्रामाणिक
प्रेम के
दूसरे छोर को
प्राप्त कर
सको। इसलिए
अगर तुम अपनी
पत्नी के लड़
रहे हो तो
लड़ने से चूको
मत। अन्यथा
प्रेम से भी
चूक जाओगे।
झगड़े से बचो
मत। उसका मौका
आए तो अंत तक लड़ों।
तभी संध्या
आते-आते तुम
फिर प्रेम
करने योग्य
हो जाओगे। मन
तब तक शक्ति
जुटा लेगा।
सामान्य
प्रेम संघर्ष
के बिना नहीं
जी सकता। क्योंकि
उसमे मन की
गति संलग्न
है। सिर्फ वही
प्रेम संघर्ष
के बिना जिएगा
जो कि मन का
नहीं है।
लेकिन वह बात
ही और है।
बुद्ध का
प्रेम और ही बात
है।
लेकिन
अगर बुद्ध
तुम्हें
प्रेम करें तो
तुम बहुत अच्छा
नहीं महसूस करोगे।
क्यों? क्योंकि
उसमें कुछ दोष
नहीं रहेगा।
वह मीठा ही मीठा
होगा। और उबाऊ
होगा। क्योंकि
दोष तो झगड़े
से आता है।
बुद्ध क्रोध नहीं
कर सकते। वे
केवल प्रेम कर
सकते है। तुम्हें
उनका प्रेम
पता नहीं
चलेगा। क्योंकि
पता तो विरोध
में विपरीतता
में चलता है।
जब
बुद्ध बाहर
वर्षों के बाद
अपने नगर वापस
आए तो उनकी
पत्नी उनके
स्वागत को
नहीं आई। सारा
नगर उनके स्वागत
के लिए इकट्ठा
हो गया, लेकिन
उनकी पत्नी
नहीं आई।
बुद्ध हंसे।
और उन्होंने
अपने मुख्य
शिष्य आनंद
से कहा कि यशोधरा
नहीं आई, मैं
उसे भली-भांति
जानता हूं।
ऐसा लगता है
कि वह मुझे
अभी भी प्रेम
करती है। वह
मानिनी है, वह
आहत अनुभव कर
रही है। मैं
तो सोचता था
बाहर वर्ष का
लम्बा समय
है, वह अब
प्रेम में न
होगी। लेकिन
मालूम होता है
कि यह अब भी
प्रेम में है।
अब भी क्रोध
में है। वह
मुझे लेने
नहीं आई, मुझे
ही उसके पास
जाना होगा।
और
बुद्ध गए। आनंद
भी उनके साथ
था। आनंद को
एक वचन दिया
हुआ था। जब
आनंद ने
दीक्षा ली थी
तो उसने एक
शर्त रखी—और
बुद्ध ने मान
ली। कि मैं
सदा आपके साथ
रहूंगा। वह बुद्ध
का बड़ा चचेरा
भाई था। इसलिए
उन्हें
मानना पडा था।
सो आनंद
राजमहल तक
उनके साथ गया।
वहां बुद्ध ने
उनसे कहां। कि
कम से कम यहां
तुम मेरे साथ
मत चलो। क्योंकि
यशोधरा बहुत
नाराज होगी।
मैं बाहर
वर्षों के बाद
लौट रहा हूं।
और उसे खबर
किए बिना यहाँ
से चला गया था।
वह अब भी
नाराज है। तो
तुम मेरे साथ
मत चलो, अन्यथा
वह समझेगा कि
मैंने उसे कुछ
कहने का भी
अवसर नहीं
दिया। वह बहुत
कुछ कहना
चाहती होगी।
तो उसे क्रोध
कर लेने दो,
तुम कृपा इस
बार मेरे साथ
मत आओ।
बुद्ध
भीतर गए।
यशोधरा ज्वालामुखी
बनी बैठी थी।
वह फूट पड़ी।
वह रोने चिल्लाने
लगी। बकने
लगी, बुद्ध
चुपचाप बैठे
सुनते रहे।
धीरे-धीरे वह
शांत हुई और
तब वह समझी कि
उस बीच बुद्ध
एक शब्द भी
नहीं बोले।
उसने अपनी
आंखें पोंछी
और बुद्ध की
और देखा।
बुद्ध
ने कहा कि मैं
यह कहने आया
हूं कि मुझे कुछ
मिला है,
मैंने कुछ
जाना है।
मैंने कुछ
उपल्बध किया
है। अगर तुम
शांत होओ तो
मैं तुम्हें
वह संदेश, वह
सत्य दूँ, जो मुझे
उपलब्ध हुआ
है। मैं इतनी
देर इसलिए रुका
रहा कि तुम्हारा
रेचन हो जाए।
बारह साल लंबा
समय है। तुमने
बहुत घाव इकट्ठे
किए होंगे। और
तुम्हारा
क्रोध समझने
योग्य है।
मुझे इसकी
प्रतीक्षा
थी। उसका अर्थ
है कि तुम अब
भी मुझे प्रेम
करती हो।
लेकिन इस प्रेम
के पार भी एक
प्रेम है, और
उसी प्रेम के
कारण मैं तुम्हें
कुछ कहने वापस
आया हूं।
लेकिन
यशोधरा उस
प्रेम को नहीं
समझ सकी। इसे
समझना कठिन
है। क्योंकि
यह इतना शांत
है। यह प्रेम
इतना शांत है।
कि
अनुपस्थित
सा लगता है।
जब
मन विसर्जित
होता है तो एक
और ही प्रेम
घटित होता है।
लेकिन उस
प्रेम का कोई
विपरीत पक्ष
नहीं है।
विरोधी पक्ष
नहीं है। जब
मन विसर्जित
होता है तब जो
भी घटित होता
है उसका
विपरीत पक्ष
नहीं रहता। मन
के साथ सदा
उसका विपरीत
खड़ा रहता है।
और मन एक पैंडुलम
की भांति गति
करता है।
यह
सूत्र अद्भुत
है। उससे चमत्कार
घटित हो सकता
है।
‘’मन
को भूलकर मध्य
में रहो—जब
तक।‘’
इस
प्रयोग में
लाओ। और यह
सूत्र तुम्हारे
पूरे जीवन के
लिए है। ऐस
नहीं है कि उसका
अभ्यास
यदा-कदा किया
और बात खत्म
हो गई। तुम्हें
निरंतर इसका
बोध रखना
होगा। होश
रखना होगा।
काम करते हुए
चलते हुए,
भोजन करते
हुए। संबंधों
में, सर्वत्र
मध्य में
रहो। प्रयोग
करके देखो और तुम
देखोगें कि एक
मौन, एक शांति
तुम्हें
घेरने लगी है और
तुम्हारे
भीतर एक शांत
केंद्र
निर्मित हो
रहा है।
अगर
ठीक मध्य में
होने में सफल
न हो सको तो भी
मध्य में होने
की कोशिश करो।
धीरे-धीरे
तुम्हें मध्य
की अनुभूति
होने लगेगी।
जो भी हो, घृणा
या प्रेम,
क्रोध या पश्चाताप,
सदा ध्रुवीय
विपरीतताओं
को ध्यान में
रखो और उनके
बीच मे रहो। और
देर अबेर तुम
ठीक मध्य को
पा लोगे।
और
एक बार तुमने
इसे जान लिया
तो फिर तुम
उसे नहीं भूलोगे।
क्योंकि मध्य
बिंदू मन के
पार है। और वह
मध्य बिंदु
अध्यात्म
का सार सूत्र
है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-9
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