केंद्रित
होने की नौवीं
विधि:
‘’अपने
अमृत भरे शरीर
के किसी अंग
को सुई से भेदो,
और भद्रता के
साथ उस भेदन
में प्रवेश
करो, और आंतरिक
शुद्धि को
उपलब्ध
होओ।‘’
यह
सूत्र कहता
है: ‘’अपने अमृत
भरे शरीर के
किसी अंग को
सुई से
भेदों.....।‘’
तुम्हारा
शरीर मात्र
शरीर नहीं है,
वह तुमसे भरा
है, और यह तुम
अमृत हो। अपने
शरीर को भेदों,
उसमें छेद करो।
जब तुम अपने
शरीर को
छेदते, सिर्फ
शरीर छिदता
है। लेकिन
तुम्हें
लगता है कि
तुम ही छिद
गए। इसी से
तुम्हें
पीड़ा अनुभव
होती है। और
अगर तुम्हें
यह बोध हो कि
सिर्फ शरीर
छिदा है, मैं
नहीं छिदा
हूं, तो पीड़ा
के स्थान पर
आनंद अनुभव
करोगे।
सुई
से भी छेद
करने की जरूरत
नहीं है। रोज
ऐसी अनेक
चीजें घटित होती
है। जिन्हें
तुम ध्यान के
लिए उपयोग में
ला सकते हो।
या कोई ऐसी स्थिति
निर्मित भी कर
सकते हो।
तुम्हारे
भीतर कहीं कोई
पीड़ा हो रही
है। एक काम करो।
शेष शरीर को
भूल जाओ, केवल
उस भाग पर मन
को एकाग्र करो
जिसमे पीड़ा
है। और तब एक
अजीब बात
अनुभव में
आएगी। जब तुम पीड़ा
वाले भाग पर
मन को एकाग्र
करोगे तो देखोगें
कि वह भाग
सिकुड़ रहा
है, छोटा हो
रहा है। पहले तुमने
समझा था कि
पूरे पाँव में
पीड़ा है, लेकिन
जब एकाग्र
होकर उसे देखोगें
तो मालूम होगा
कि दर्द पाँव
में नहीं है।
वह तो
अतिशयोक्ति
है, दर्द
सिर्फ घुटने
में है।
और
ज्यादा
एकाग्र होओ और
तुम देखोगें
कि दर्द पूरे
घुटने में
नहीं है। एक
छोटे से बिंदु
में है। सिर्फ
उस बिंदु पर
एकाग्रता
साधो, शेष
शरीर को भूल जाओ।
आंखें बंद रखो
और एकाग्रता
को बढ़ाए जाओ।
और खोजों कि
पीड़ा कहां
है। पीड़ा का
क्षेत्र सिकुड़ता
जाएगा। छोटे
से छोटा हो
जाएगा। और एक
क्षण आएगा जब
वह मात्र सुई
की नोक पर रह
जाएगा। उस सुई
की नोक पर भी
एकाग्रता की
नजर गड़ाओ, और
अचानक वह नोक
भी विदा हो
जाएगी। और तुम
आनंद से भर जाओगे।
पीड़ा की बजाएं
तुम आनंद से भर
जाओगे।
ऐसा
क्यों होता
है। क्योंकि
तुम और तुम्हारे
शरीर एक नहीं
है। वे दो है।
अलग-अलग है। वह
जो एकाग्र
होता है। वह
तुम हो।
एकाग्रता शरीर
पर होती है।
शरीर विषय हे।
जब तुम एकाग्र
होते हो तो
अंतराल बड़ा
होता है।
तादात्म्य टूटता
है। एकाग्रता
के लिए तुम
भीतर सरक
पड़ते हो। और
यह दूर जाना
अंतराल पैदा
करता है।
जब तुम
पीड़ा पर
एकाग्रता
साधते हो तो तुम
तादात्म्य
भूल जाते हो।
तुम भूल जाते
हो कि मुझे
पीड़ा हो रही
है। अब तुम
द्रष्टा हो
और पीड़ा कहीं
दूसरी जगह है।
तुम अब पीड़ा
को देखने वाले
हो, भोगने
वाले नहीं।
भोक्ता के
द्रष्टा में
बदलने के कारण
अंतराल पैदा
होता है। और
जब अंतराल
बड़ा होता है
तो अचानक तुम
शरीर को बिलकुल
भूल जाते हो।
तुम्हें
सिर्फ चेतना
का बोध होता
है।
तो
तुम इस विधि
का प्रयोग भी
कर सकते हो।
‘’अपने
अमृत भरे शरीर
के किसी अंग
को सुई से भेदों,
और भद्रता के
साथ उस भेदन
में प्रवेश
करो......।‘’
अगर
कोई पीड़ा हो
तो पहले तुम्हें
उसके पूरे
क्षेत्र पर
एकाग्र होना
होगा। फिर
धीरे-धीर वह
क्षेत्र घटकर
सुई की नोक के
बराबर रह
जाएगा। लेकिन
पीड़ा की
प्रतीक्षा क्या
करनी। तुम एक
सुई से काम ले
सकते हो। शरीर
के किसी
संवेदनशील
अंग पर सुई
चुभोओ। पर शरीर
में ऐसे भी कई
स्थल है जो
मृत है, उनसे
काम नहीं
चलेगा।
तुमने
शरीर के इन
मृत स्थलों
के बारे में
नहीं सूना
होगा, किसी
मित्र के हाथ
में एक सुई दे
दो और तुम बैठ
जाओ और मित्र
से कहो कि वह
तुम्हारी
पीठ में कई स्थलों
पर सुई चुभाएं।
कई स्थलों पर
तुम्हें
पीड़ा का
एहसास नहीं
होगा। तुम
मित्र से कहोगे
कि तुमने सुई
अभी नहीं
चुभोई है,
मुझे दर्द
नहीं हो रहा
है। वे ही मृत
स्थल है।
तुम्हारे
गाल पर ही ऐसे
दो मृत स्थल
है जिनकी जांच
की जा सकती
है।
अगर
तुम भारत के
गांव में जाओ
तो देखोगें कि
धार्मिक त्योहारों
के समय कुछ
लोग अपने
गालों को तीन
से भेद देते
है। वह चमत्कार
जैसा मालूम
होता है।
लेकिन चमत्कार
है नहीं । गाल
पर दो मृत स्थल
है। अगर तुम
उन्हें
छेदों तो न
खून निकलेगा।
और न पीडा ही
होगी। तुम्हारी
पीठ में तो
ऐसे हजारों
मृत स्थल है।
वहां पीड़ा
नहीं होती।
तो
तुम्हारे
शरीर में दो
तरह के स्थल
है—संवेदनशील,
जीवित स्थल
और मृत स्थल।
कोई
संवेदनशील स्थल
खोजों जहां
तुम्हें जरा
से स्पर्श का
भी पता चल
जायेगा। तब
उसमे सुई
चुभोकर चुभन
में प्रवेश कर
जाओ। वही असली
बात है। वही
ध्यान है। और
भद्रता के साथ
भेदन म प्रवेश
कर जाओ।
जैसे-जैसे सुई
तुम्हारी
चमड़ी के भीतर
प्रवेश करेगी
और तुम्हें
पीड़ा होगी,
वैसे-वैसे तुम
भी उसमे
प्रवेश करते
जाओ। यह मत
देखो कि तुम्हारे
भीतर पीड़ा
प्रवेश कर रही
है। पीड़ा को
मत देखो, उसके
साथ तादम्यता
करो। सुई के
साथ, चुभन के
साथ तुम भी
भीतर प्रवेश
करो। आंखें
बंद कर लो।
पीड़ा का
निरीक्षण
करो। जैसे
पीड़ा भीतर
जाए वैसे तुम
भी अपने भीतर
जाओ। चुभाती
हुई सुई के
साथ तुम्हारा
मन आसानी से
एकाग्र हो
जाएगा। पीड़ा
के तीव्र
पीड़ा के उस
बिंदु को गोर
से देखो, वही
भद्रता के साथ
भेदन म प्रवेश
करना हुआ।
‘’और
आंतरिक
शुद्धि को
उपलब्ध
होओ।‘’
अगर
तुमने
निरीक्षण
करते हुए,
तादात्म्य
ने करते हुए
अलग दूर खड़
रहते हुए,
बिना यह समझे
हुए कि पीड़ा
तुम्हें भेद
रही है। बल्कि
यह देखते हुए
कि सुई शरीर
को भेद रही
है। और तुम
द्रष्टा हो
प्रवेश किया
तो तुम आंतरिक
शुद्धता को उपल्बध
हो जाओगे। तब
आंतरिक
निर्दोषता
तुम पर प्रकट
हो जाएगी। तब
पहली बार तुम्हें
बोध होगा कि
मैं शरीर नहीं
हूं।
और
एक बार तुमने
जाना कि मैं
शरीर नहीं
हूं, तुम्हारा
सारा जीवन
आमूल बदल
जाएगा। क्योंकि
तुम्हारा
सारा जीवन
शरीर के
इर्द-गिर्द
चक्कर काटता
रहता है। एक
बार जान गए कि
मैं शरीर नहीं
हूं, तुम फिर
इस जीवन को
नहीं ढो सकते।
उसका केंद्र
ही खो गया। जब
तुम शरीर नहीं
रहे तो तुम्हें
दूसरा जीवन
निर्मित करना पड़ेगा।
वही जीवन संन्यासी
का जीवन है।
यह और ही जीवन
होगा। क्योंकि
अब केंद्र ही
और होगा। अब
तुम संसार में
शरीर की भांति
नहीं, बल्कि
आत्मा की
भांति रहोगे।
जब
तक तुम शरीर
की तरह रहते
हो तब तक तुम्हारा
संसार भौतिक
उपलब्धियों
का, लोभ, भोग,
वासना और
कामुकता का
संसार होगा। और
वह संसार शरीर
प्रधान संसार
होगा। लेकिन
जब जान लिया
है कि मैं
शरीर नहीं हूं
तो तुम्हारा
सार संसार
विलीन हो जाता
है। तुम अब
उसे सम्हालकर
नहीं रख सकते
हो। तब एक
दूसरा संसार
उदय होगा जो
आत्मा के
इर्द-गिर्द
होगा। वह
संसार करूणा
प्रेम,
सौंदर्य, सत्य,
शुभ और
निर्दोषता का
संसार होगा। केंद्र
हट गया वह अब
शरीर में नहीं
है। अब केंद्र
चेतना में है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-13
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