दूसरे
सूत्र के साथ
भी यही तरकीब, वही
वैज्ञानिक
आधार, यही
प्रक्रिया
काम करती है:
अपने
पूरे अवधान को
अपने मेरुदंड
के मध्य में
कमल-तंतु सी
कोमल स्नायु
में स्थित
करो। और इसमे
रूपांतरित हो
जाओ।
इस
सूत्र के लिए, ध्यान
की इस विधि के
लिए तुम्हें
अपनी आंखे बंद
कर लेनी
चाहिए। और
अपने मेरुदंड
को, अपनी रीढ़
की हड्डी को
देखना चाहिए,
देखने का भाव
करना चाहिए।
अच्छा हो कि किसी
शरीर शास्त्र
की पुस्तक
में या किसी
चिकित्सालय
या मेडिकल
कालेज में
जाकर शरीर की संरचना
को देखो-समझ
लो, तब आंखे
बंद करो और मेरुदंड
पर अवधान
लगाओ। उसे
भीतर की आँखो
से देखो और
ठीक उसके मध्य
से जाते हुए
कमल तंतु जैसे
कोमल स्नायु
का भाव करो।
‘’और
इसमे
रूपांतरित हो
जाओ।‘’
अगर
संभव हो तो इस मेरुदंड
पर अवधान को
एकाग्र करो और
तब भीतर से,
मध्य से जाते
हुए कमल तंतु
जैसे स्नायु
पर एकाग्र
होओ। और यही
एकाग्रता
तुम्हें
तुम्हारे
केंद्र पर
आरूढ़ कर
देगी। क्यों?
मेरुदंड
तुम्हारी
समूची
शरीर-संरचना
का आधार है।
सब कुछ उससे
संयुक्त है, जुड़ा
हुआ है। सच तो
यह है कि तुम्हारा
मस्तिष्क
इसी मेरुदंड
का एक छोर है।
शरीर शास्त्री
कहते है कि
मस्तिष्क मेरुदंड
का ही विस्तार
है। तुम्हारा
मस्तिष्क मेरुदंड
को विकास है।
और तुम्हारी
रीढ़ तुम्हारे
सारे शरीर से
संबंधित है,
सब कुछ उससे
संबंधित है।
यही कारण है कि
उसे रीढ़ कहते
है। आधार कहते
है।
इस
रीढ़ के अंदर
एक तंतु जैसी
चीज है। लेकिन
शरीर शास्त्री
इसके संबंध
में कुछ नहीं
कह सकते। यह
इसलिए कि यह
पौदगलिक नहीं
है। इस मेरुदंड
में, इसके ठीक
मध्य में एक
रजत-रज्जु
है, एक बहुत
कोमल नाजुम स्नायु
है। शारीरिक अर्थ
में वह स्नायु
भी नहीं है।
तुम उसे
काट-पीट कर
नहीं निकाल
सकते। वह वहां
नहीं मिलेगा।
लेकिन गहरे ध्यान
में वह देखा
जाता है। यह
है, लेकिन वह
अपदार्थ है,
अवस्तु है।
वह पदार्थ
नहीं, उर्जा
है। और
यथार्थत: तुम्हारे
मेरुदंड की
वही ऊर्जा-रज्जु
तुम्हारा
जीवन है। उसके
द्वारा ही तुम
अदृश्य अस्तित्व
के साथ
संबंधित हो।
वही दृश्य और
अदृश्य के
बीच सेतु है।
उस तंतु के
द्वारा ही तुम
अपने शरीर से
संबंधित हो,
और उस तंतु के
द्वारा ही तुम
आत्मा से
संबंधित हो।
तो
पहल तो मेरुदंड
की कल्पना
करो, उसे मन की
आंखों से
देखो। और तुम्हें
अद्भुत अनुभव
होगा। अगर तुम
मेरुदंड का
मनोदर्शन
करने की कोशिश
करोगे, तो यह
दर्शन बिलकुल
संभव है। और
अगर तुम
निरंतर चेष्टा
में लगे रहे,
तो कल्पना
में ही नहीं,
यथार्थ में भी
तुम अपने शरीर
से संबंधित
हो, और उस तंतु
के द्वारा ही
तुम आत्मा से
संबंधित हो।
मैं
एक साधक को इस
विधि का
प्रयोग करवा
रहा था। मैंने
उसे शरीर-संस्थान
का एक चित्र
देखने को
दिया। ताकि वह
उसके जरिए
अपने भीतर के मेरुदंड
को मन की
आंखों से
देखने में
समर्थ हो सके।
उसने प्रयोग
शुरू किया और
सप्ताह भर के
अंदर आकर उसने
मुझसे कहा,
आश्चर्य की
बात है कि
मैने आपके दिए
चित्र को देखने
की कोशिश की,
लेकिन अनेक
बार वह चित्र
मेरी आंखों के
सामने से गायब
हो गया और एक
दूसरा मेरुदंड
मुझे दिखाई
दिया। यह मेरुदंड
चित्र वाले मेरुदंड
जैसा नहीं था।
मैंने उस साधक
को कहां की अब
तुम सही रास्ते
पर हो। अब
चित्र को
बिलकुल भूल
जाओ। और उस मेरुदंड
को देखा करो
जो तुम्हारे
लिए दृश्य
हुआ है।
मनुष्य
भीतर से अपने
शरीर संस्थान
को देख सकता
है। हम इसको
देखने की
कोशिश नहीं
करते। क्योंकि
वह दृश्य
डरावना है,
वीभत्स है।
जब तुम्हें
तुम्हारे
रक्त मांस और
अस्थिपंजर
दिखाई
पड़ेंगे तो
तुम भयभीत हो
जाओगे। इसलिए
हमने अपने मन
को भीतर देखने
से बिलकुल रोक
रखा है। हम भी
अपने शरीर को
उसी तरह बहार
से देखते है
जैसे दूसरे
लोग देखते है।
वह
वैसा ही है
जैसे तुम इस
कमरे को इसके
बहार जाकर
देखो; तुम
सिर्फ इसकी
बहारी
दीवारों को देखोगें।
फिर तुम भीतर
आ जाओ और देखो,
तब तुम्हें
भीतरी
दीवारें
दिखाई देंगी।
तुम तो सिर्फ
बाहर से अपने
शरीर को इस
तरह देखते हो
जिस तरह कोई
दूसरा आदमी
उसे देखता हो।
भीतर से तुमने
अपने शरीर को
नहीं देखा है।
हम देख सकते
है। लेकिन इस
भय के कारण वह
हमारे लिए आश्चर्य
की चीज बना
है।
भारतीय
योग की पुस्तकें
शरीर के संबंध
में ऐसी बातें
बताती है। जो
नए वैज्ञानिक
शोध से हूबहू
सही है। लेकिन
विज्ञान यह
समझने में
असमर्थ है कि
योग को इनका पता
कैसे चला। वह
इन्हें कैसे
जान सका। शल्य-चिकित्सा
और मानव शरीर
का ज्ञान बहुत
हाल की घटनाएं
है। इस हालत
में योग इन
सारी स्नायुओं
को सभी
केंद्रों को,
शरीर के पूरी
आंतरिक संस्थान
को कैसे जान
गया। जो अत्यंत
हाल की खोज
है। आश्चर्य
कि वे उन्हें
भी जानते थे,
उन्होने
उसकी चर्चा भी
कि थी। उन पर
काम भी किया
था। योग को
शरीर की
बुनियादी और
महत्वपूर्ण
चीजों के विषय
में सब कुछ
मालूम रहा है।
लेकिन योग चीर
फाड़ नहीं
करता था। फिर
उसे उसकी इतनी
सारी बातें
कैसे मालूम हुई
थी।
सच
तो यह है कि
शरीर को देखने
जानने का एक
दूसरा ही रास्ता
है। वह उसे
अंदर से देखना
है। अगर तुम
भीतर एकाग्र
हो सको। तो तुम
अचानक अंदरूनी
शरीर को, उसके
भीतर रेखा
चित्र को
देखने लगोगे।
यह
विधि उन लोगो
के लिए उपयोगी
है जो शरीर से
जुडे है। अगर
तुम
भौतिकवादी हो,
अगर तुम सोचते
हो कि तुम
शरीर के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं हो,
तो यह विधि
तुम्हारे
बहुत काम की
होगी। अगर तुम
चार्वाक या मार्क्स
के मानने वाले
हो, अगर तुम
मानते हो कि
मनुष्य शरीर
के अलावा कुछ
नहीं है, तो
तुम्हें यह
विधि बहुत
सहयोगी होगी।
तो तुम जाओ और मनुष्य
के अस्थि
संस्थान को
देखो।
तंत्र
या योग की
पुरानी
परंपराओं में
वे अनेक तरह
की हड्डियों
का उपयोग करते
थे। अभी भी
तांत्रिक
अपने पास कोई
न कोई हड्डी
या खोपड़ी
रखता है।
दरअसल वह भीतर
से एकाग्रता
साधने का उपाय
है। पहले वह उस
खोपड़ी पर
एकाग्रता
साधता है। फिर
आंखें बंद
करता है। और
अपनी खोपड़ी
का ध्यान
करता है। वह
बाहर की
खोपड़ी की कल्पना
भीतर करता
जाता है। और
इस तरह
धीरे-धीर अपनी
खोपड़ी की प्रतीति
उसे होने लगती
है। उसकी
चेतना
केंद्रित
होने लगती है।
वह
बाहरी खोपड़ी
उसका
मनोदर्शन, उस
पर ध्यान, सब
उपाय है। और
अगर तुम एक
बार अपने भीतर
केंद्रीभूत
हो गए तो तुम
अपने अंगूठे
से सिर तक
यात्रा कर
सकते हो। तुम
भीतर चलो,
वहां एक बड़ा
ब्रह्मांड
है। तुम्हारा
छोटा शरीर एक बड़ा
ब्रह्मांड
है।
यह
सूत्र मेरुदंड
का उपयोग करता
है, क्योंकि मेरुदंड
के भीतर ही
जीवन रज्जु
छिपा है। यही
कारण है कि
सीधी रीढ़ पर
इतना जोर दिया
जाता है। क्योंकि
अगर रीढ़ सीधी
न रही तो तुम
भीतरी रज्जु
को नहीं देख
पाओगे। वह
बहुत नाजुक
है। बहुत
सूक्ष्म है।
वह ऊर्जा का
प्रवाह है।
इसलिए अगर
तुम्हारी
रीढ़ सीधी है,
बिलकुल सीधी,
तभी तुम्हें
उस सूक्ष्म
जीवन रज्जु
की झलक मिल
सकती है।
लेकिन
हमारे मेरुदंड
सीधे नहीं है।
हिंदू बचपन
सेही मेरुदंड
को सीधा रखने
का उपाय करते
है। उनके
बैठने, उठने
चलने सोने तक
के ढंग सीधी
रीढ़ पर
आधारित थे। और
अगर रीढ़ सीधी
नहीं है तो
उसके भीतर तत्वों
को देखना बहुत
कठिन बहुत
कठिन होगा। वह
नाजुम है,
सूक्ष्म है,
वास्तव में
पौदगलिक नहीं
है। वह अपौदगलिक
है, वह शक्ति
है। इसलिए जब मेरुदंड
बिलकुल सीधा
होता है तो वह
रज्जुवत शक्ति
देखने में आती
है।
‘’और
इसमे रूपांतरित
हो जाओ।‘’
और
अगर तुम इस
रज्जु पर
एकाग्र हुए,
तुमने उसकी अनुभूति
और उपलब्धि
की, तब तुम एक
नए प्रकाश से
भर जाओगे। वह
प्रकाश तुम्हारे
मेरुदंड से
आता होगा। वह
तुम्हारे
पूरे शरीर पर
फैल जाएगा। वह
तुम्हारे
शरीर के पास
भी चला जाएगा।
और
जब प्रकाश
शरीर के पार
जाता है तब
प्रभामंडल
दिखाई देते
है। हरेक आदमी
का प्रभामंडल
है। लेकिन
साधारणत: तुम्हारे
प्रभामंडल
छाया की तरह
है। जिनमे
प्रकाश नहीं होता।
वे तुम्हारे
चारों और काली
छाया की तरह
फैले होते है।
और वे
प्रभामंडल
तुम्हारे
प्रत्येक
मनोभाव को
अभिव्यक्त
करते है। तब
तुम क्रोध में
होते हो तो
तुम्हारा
प्रभामंडल
रक्त रंजित
जैसा हो जाता
है। उसमे
क्रोध लाल रंग
में अभिव्यक्त
होता है। जब
तुम उदास,
बुझे-बुझे
हतप्रभ होते
हो तो तुम्हारा
प्रभामंडल
काले तंतुओं
से भरा होता
है। मानों तुम
मृत्यु के
निकट हो—सब
मृत और बोझिल।
और जब यह मेरुदंड
के भीतर का
तंतु उपलब्ध
होता है तब
तुम्हारा
प्रभामंडल
सचमुच में प्रभा
मंडित होता
है।
इस
लिए बुद्ध,
महावीर, कृष्ण
क्राइस्ट, महज
सजावट के लिए
प्रभामंडल से
नहीं चित्रित
किए जाते है।
वे प्रभामंडल
सच में होता
है। तुम्हारा
मेरुदंड
प्रकाश विकिरणित
करने लगता है।
भीतर तुम
बुद्धत्व को
प्राप्त
होते हो, बहार
तुम्हारा
सारा शरीर
प्रकाश,
प्रकाश शरीर
हो उठता है।
और तब उसकी प्रभा
बहार भी फैलने
लगती है।
इसलिए किसी बुद्ध
पुरूष के लिए
किसी से यह
पूछना जरूरी
नहीं है कि
तुम क्या हो।
तुम्हारा
प्रभामंडल सब
बता देगा। और
जब कोई शिष्य
बुद्धत्व
प्राप्त
करता है तो
गुरु को पता
हो जाता है।
क्योंकि
प्रभामंडल सब
प्रकट कर देता
है।
मैं
तुम्हें एक
कहानी बताऊ।
एक चीनी संत,
हुई नेंग, जब
पहले-पहल अपने
गुरु के पास
पहुंचा तो
गुरु ने कहा
कि तुम किस लिए
आए हो। तुम्हें
मेरे पास आने
की जरूरत नहीं
थी। हुई नेंग की
समझ में कुछ
नहीं आया।
उसने सोचा कि
अभी गुरु
द्वारा स्वीकृत
होने की उसकी
पात्रता नहीं
है। लेकिन
गुरु कुछ और
ही चीज देख
रहा था, वह द्वारा
स्वीकृत
होने की उसकी
पात्रता नहीं
है। लेकिन गुरु
कह रहा था कि
अगर तुम मेरे
पास नहीं भी
आओ तो भी
देर-अबेर यह
घटना घटने ही
वाली है। तुम
उसमे ही हो।
इसलिए मेरे
पास आने की
जरूरत नहीं है।
लेकिन
हुई नेंग ने
प्रार्थना की
कि मुझे अस्वीकार
न करें। तो
गुरु ने उसे
प्रवेश दिया
और कहा कि
आश्रम के
पिछवाड़े में
जो रसोईघर है
उसमे जाकर काम
करो। और फिर
दूसरी बार
मेरे पास मत
आना। जब जरूरत
होगी, मैं ही
तुम्हारे
पास आऊँगा।
हुई
नेंग को कोई
ध्यान करने
को नहीं बताया
गया न कोई
शास्त्र
पढ़ने को कहा
गया। उसे कुछ
भी नहीं
सिखाया गया।
उसे बस रसोईघर
में रख दिया
गया। वह एक
बहुत बड़ा
आश्रम था। जिसमें
कोई पाँच सौ
भिक्षु रहते
थे। उनमें पंडित
विद्घान ध्यानी
योगी सब थे।
और सब साधना
में लगे थे।
लेकिन हुई
नेंग केवल
चावल साफ
कतरा, या कुटता
था। और रसोई
के भीतर ही
काम करता रहा।
इस तरह से
बारह वर्ष बीत
गये। हुई नेंग
इस बीच गुरु के
पास दुबारा
नहीं गया। क्योंकि
इजाजत नहीं
थे। वह
प्रतीक्षा
करता रहा। वह
सिर्फ
प्रतीक्षा ही
करता रहा और
लोग उसे महज
नौकर समझते
थे। कोई उस पर
ध्यान भी
नहीं देता था।
उस आश्रम में
पंडितों और ध्यानियों
की कमी नहीं
थी। उनके बीच
एक चावल कूटनें
वाले की क्या
बिसात थी।
और
फिर एक
दिन गुरु ने
घोषणा की कि
मेरी मृत्यु
निकट हे और
मैं अब चाहता
हूं कि किसी
को अपना उत्तराधिकारी
बनाऊं। इसलिए
जो समझते हों
कि वे बुद्धत्व
को प्राप्त
है, वे चार
पंक्तियों
की एक कविता रचे।
जिसमे वह सब
व्यक्त कर
दें जो उन्होंने
जाना है। गुरु
ने यह भी कहा
कि जिसकी कविता
में सच में
बुद्धत्व व्यक्ति
होगा, उसे में
अपना
उतराधिकारी
चुनूंगा।
उस
आश्रम में एक
महापंडित था।
इसलिए उस प्रतियोगिता
में किसी ने
भाग नहीं
लिया। सब यही
सोचते थे कि
महापंडित
जीतेगा। वह
शास्त्रों
का बड़ा
ज्ञाता था। सो
उसने चार पंक्तियां
लिखी। उन चार
पंक्तियों
में उसने
लिखा-
मन
एक दर्पण है,
जिस पर धूल जम
जाती है।
धूल
को साफ कर दो,
सत्य अनुभव
में आ जाता
है।
बुद्धत्व
प्राप्ति हो
जाती है।
लेकिन
वह महापंडित
भी डरता था।
क्योंकि
गुरु को पता
था कि कौन
ज्ञान को उपल्बध
है। कौन नहीं।
यद्यपि
महापंडित ने
जो लिखा था वह बहुत सुंदर
था। सब शास्त्रों
का सार-निचोड
था। यही तो सब
वेदों का सार
था। लेकिन
पंडित डरता था
कि यह उसने
शास्त्रों
से लिया था।
इसमे उसका
अपना कुछ भी
नहीं है। इस
लिए वह सीधा
गुरु के पास
नहीं गया। वह
रात के अंधेरे
में गुरु की
झोपड़ी पर
गया, और उनकी
दीवार पर वे
चार पंक्तियां
लिख दी। उसने
नीचे हस्ताक्षर
भी नहीं किया।
उसने सोचा कि
अगर गुरु ने
उन्हें स्वीकृति
दी तो मैं
कहूंगा कि
मैंने लिखा
है। और अगर
गुरु ने ठीक नहीं
कहां तो चुप
रहूंगा।
लेकिन
गुरु ने स्वीकृति
दे दी। सुबह उन्होंने
कहां कि जिस
व्यक्ति ने
ये पंक्ति
लिखी है वह
ज्ञानी है।
समूचे आश्रम
में उसकी
चर्चा होने
लगी। सब तो
जानते थे कि
किसने लिखा
है। वे चर्चा
करने लगे कि
पंक्तियां
तो सुंदर है। सचमुच
सुंदर थी।
इसी
चर्चा में लगे
कुछ भिक्षु
रसोईघर में
पहुंचे। ये
चाय पीते थे।
और चर्चा करते
थे। हुई नेंग
उन्हें चाय
पील रहा था।
उसने सह बात
सुनी। जब वे चार
पंक्तियां
उसने सुनी तब
वह हंसा। इस
पर किसी ने उससे
पूछा कि तुम
क्यों हंस
रहे हो। तुम
तो कुछ जानते
भी नहीं हो। बारह
वर्षों से तुम
तो चोंके से
बहार भी नहीं
निकले हो।
तुम्हें किस
बात को पता
है। तुम क्यों
हंस रहे हो।
किसी
ने इससे पहले
उस भिक्षु को
हंसते नहीं देखा
था। वह तो महा
मूढ़ समझा
जाता था। जिसे
बात करनी भी
नहीं आती थी।
उसने कहा कि
मैं लिखना
नहीं जानता हूं
और मैं ज्ञानी
भी नहीं हूं। लेकिन
वे चार पंक्तियां
गलत है। अगर
कोई व्यक्ति
मेरे साथ आये
तो मैं चार पंक्तियां
बना सकता हूं।
और वह उसे
दीवार पर लिख
दे। मैं लिखना
नहीं जानता
हूं।
एक
भिक्षु मजाक
में उसके साथ
चल दिया। उसने
पीछे ऐ भीड़
भी वहां पहूंच
गई। सब के लिए
ये कुतूहल भर
बात थी कि एक
चावल कूटनें
वाला, ब्रह्म
ज्ञान की चार लाईनें
बातयेगा।
नेंग ने
लिखवाया:
कैसा
दर्पण, कैसी
धूल।
न
कोई मन है,
न
कोई दर्पण,
फिर
धूल जमेगी
कहां?
जो
यह जान गया
वह
उपल्बध हो
गया धर्म को।
लेकिन
जब गुरु आया
तो उसने कहा
की ये गलत है।
हुई नेंग ने
गुरु के पैर
छुए और वह
रसोई घर में लोट
गया।
रात
में जब सब सोए
थे, गुरु नेंग
के पास आया।
और चुप से
कहां, तुम सही
हो, लेकिन मैं
तुम्हारी
बात को उन
मूर्खों के
सामने सही
नहीं कह सकता।
वे विद्घान मूर्ख
है। और अगर
मैं कहता हूं
कि मेरे उत्तराधिकारी
तुम हो तो वह
तुम्हें मार
देंगे। और यह
बात दूसरों को
मत कहाना। तुम
यहां से भाग
जाओ। जिस दिन
तुम यहां आये
थे। उसी दिन
मैं जान गया
था तुम्हारे
प्रभामंडल को
देख कर। कि
तुम ही मेरे
उतराधिकारी
हो। और बारह
वर्ष के मौन
ने, जिसमे
तुम्हारा
प्रभामंडल
पूर्ण हो चला।
तुम पूर्ण
चंद्र हो गए
हो। लेकिन
यहां से निकल
जाओ वरना वे
लोग तुम्हें
मार देंगे।
तुम यहां बारह
वर्ष से हो,
निरंतर तुम्हारे
प्रकाश विकिरण
हो रहा है।
लेकिन कोई उसे
देख नहीं सका।
यद्यपि हर दिन
कोई न कोई तुम्हें
दो या तीन बार
दिन में देखता
है। इसी लिए मेंने
तुम्हें
रसोई घर में
रखा था। कोई
तुम्हारे
प्रभामंडल को
नहीं देख सका।
इस लिए तुम यहां
से भाग जाओ।
जब
मेरुदंड का यह
तंतु देख लिया
जाता है,
उपलब्ध होता
है, तब तुम्हारे
चारों और एक
प्रभामंडल
बढ़ने लगता
है। इसमें
रूपांतरित हो
जाओ। उस
प्रकाश से भर
जाओ और रूपांतरित
हो जाओ। यह भी
केंद्रित
होना है, मेरुदंड
में केंद्रित
होना।
अगर
तुम शरीर वादी
हो तो यह तुम्हारे
काम आयेगी।
अगर नहीं तो
यह कठिन है। तब
भीतर से शरीर
को देखना कठिन
होगा। यह विधि
पुरूषों की बजाएं
स्त्रियों
के लिए ज्यादा
कारगर होगी।
स्त्रियां
ज्यादा शरीवादी
होती है। वे
शरीर में अधिक
रहती है। और कल्पनाशील
भी होती है।
शरीर का
मनोदर्शन
उनके लिए आसान
है। स्त्रियां
पुरूषों से ज्यादा
शरीर
केंद्रित
होती है।
लेकिन जो कोई
भी शरीर को
महसूस कर सकता
है। जो कोई भी आँख
बंद कर अंदर
शरीर को देख
सकता है। उसके
लिए यह विधि
बहुत सहयोगी
है।
पहले
अपने मेरुदंड
को देखो, फिर
उसके बीच से
जाती हुई रजत-रज्जु
को। पहले तो
वह कल्पना ही
होगी। लेकिन
धीरे-धीरे तुम
पाओगे कि कल्पना
विलीन हो गई
है। और जिस
क्षण तुम
आंतरिक तत्व
को देखोगें,
अचानक तुम्हें
तुम्हारे
भीतर प्रकाश
का विस्फोट
अनुभव होगा।
कभी-कभी
यह घटना
प्रयास के
बिना भी घटती
है। यह होता
है। फिर तुम्हें
कहुं, किसी
गहरे संभोग के
क्षण में यह
होता है।
तंत्र जानता
है कि गहरे
काम-कृत्य में
तुम्हारी
सारी ऊर्जा
रीढ़ के पास इकट्ठी
हो जाता है।
असल में गहरे
काम कृत्य में
रीढ़ बिजली
छोड़ने लगती
है। कभी-कभी
तो ऐसा होता
है। कि रीढ़
को छूने से
तुम्हें धक्का
लगता है। और अगर
संभोग गहरा
हो,
प्रेमपूर्ण
हो, लंबा हो, अगर
दो प्रेमी
प्रगाढ़
प्रेमालिंगन में
हों, शांत और निश्चल,
एक दूसरे को
भरते हुए। तो
घटना घटती है।
कई बार ऐसा
हुआ है कि अँधेरा
कमरा अचानक
रोशनी से भर
जाता है। और दोनों
शरीरों काक एक
नीली प्रभामंडल
घेर लेता है।
ऐसी
अनेक घटनाएं
हुई है। तुम्हारे
अनुभव में भी
ऐसा हुआ होगा।
कि अंधेरे
कमरे में गहरे
प्रेम में उतरने
पर तुम्हारे
दो शरीरों के
चारों और एक
रोशनी सी हो
गई है। और फैल कर
पूरे कमरे में
भर गई हो। कई
बार ऐसा हुआ
है कि किसी
दृश्य कारण
के बिना ही
कमरे की मेज
पर से अचानक चीजें
उछल कर नीचे
गिर गई है। ओर
अब मानस्विद
बताते है कि
गहरे काम-कृत्य
में बिजली की
तरंगें छूटती
है। और उसके
कई प्रभाव और परिमाण
हो सकते है।
चीजें अचानक
गिर सकती है। हिल
सकती है। टूट
सकती है। ऐसे
प्रकाश के
फोटो भी लिए
गए है। लेकिन
यह प्रकाश सदा
मेरुदंड के
इर्द-गिर्द
इकट्ठा होता
है।
तो
कभी-कभी काम-कृत्य
के दौरान भी
तुम जाग सकते
हो। अगर तुम
अपने मेरुदंड
के बीच से जाती
हुई रजत-रज्जु
को देख सको।
तंत्र को यह
बात भलीभंति
पता है और उसने
इस पर काम भी
किया है।
तंत्र नपे इस
उपलब्धि के लिए
संभोग का भी
उपयोग किया
है। लेकिन
उसके लिए काम
कृत्य को
सर्वथा भिन्न
ढंग का होना
पड़ेगा। उसका
गुण धर्म भिन्न
होगा। उस हालत
में काम कृत्य
किसी तरह निबट
लेने की, महज
स्खलन क
द्वारा
छुट्टी पा
लेने की, झट-पट
उससे गुजर
जाने की बात नहीं
रहेगी। तब वह
एक शारीरिक
कर्म नहीं रहेगा।
तब वह एक गहरा
आध्यात्मिक
मिलन होगा। तब
यथार्थ में वह
दो देहों के
द्वारा दो
आंतरिकताओं
का, दो आत्माओं
का एक दूसरे में
प्रवेश होगा।
इसलिए
मेरा सुझाव है
कि जब तुम
गहरे काम कृत्य
में होओ तो इस
विधि को
प्रयोग में लाओ।
यह आसान हो
जायेगी। यौन
को भूल जाओ।
जब गहरे आलिंगन
में उतरो बस
भीतर रहो। और दूसरे
व्यक्ति को
भूल जाओ। भीतर
जाओ और अपने मेरुदंड
को देखो। उस
समय मेरू दंड
के पास अधिक
उर्जा प्रवाहित
होती है। क्योंकि
तुम शांत होते
हो और तुम्हारा
शरीर विश्राम में
होता है। प्रेम
गहरे से गहरा
विश्राम है,
लेकिन हमने
उसे भी तनाव
बना लिया है।
हमने उसे एक
चिंता एक बोझ में
बदल लिया है।
प्रेम
की ऊष्मा
में, जब तुम
भरे-भरे और शिथिल
हो, आंखें बंद
कर लो। सामान्यत:
पुरूष आंखें
बंद नहीं करते।
स्त्रियां
करती है।
इसलिए मैंने
कहा कि पुरूषों
की बजाएं स्त्रियां
अधिक शरीर वादी
है। काम-कृत्य
के गहरे
आलिंगन में उतरने
पर स्त्रियां
आंखें बंद कर
लेती है।
दरअसल वे खुली
आंखों से
प्रेम नहीं कर
सकती। आंखों
के बंद रहने
पर वे भीतर से
शरीर को अधिक
महसूस कर पाती
है।
तो
आंखें बंद कर
लो और शरीर को
महसूस करो।
विश्राम में
उतर जाओ और मेरूदंड
पर चित एकाग्र
करो। और यह
सूत्र बहुत
सरल ढंग से
कहता है: ‘’इसमें
रूपांतरित हो
जाओ।‘’ तुम
इसके द्वारा
रूपांतरित हो
जाओगे।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-9
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