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रविवार, 5 अगस्त 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—56 (ओशो)

आत्‍म-स्‍मरण की चौथी विधि—
            ‘’भ्रांतियां छलती है, रंग सीमित करते है, विभाज्‍य भी अविभाज्‍य है।‘’
     यह एक दुर्लभ विधि है। जिसका प्रयोग बहुत कम हुआ है। लेकिन भारत के एक महानतम शिक्षक शंकराचार्य ने इस विधि का प्रयोग किया है। शंकर ने तो अपना पूरा दर्शन ही इस विधि के आधार पर खड़ा किया है। तुम उनके माया के दर्शन को जानते हो। शंकर कहते है कि सब कुछ माया है। तुम जो भी देखते, सुनते या अनुभव करते हो, सब माया है। वह सत्‍य नहीं है। क्‍योंकि सत्‍य को इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता।

      तुम मुझे सुन रहे हो और मैं देखता हूं कि तुम मुझे सुन रहे हो, हो सकता है कि यह सब स्‍वप्‍न हो। यह स्‍वप्‍न है या नहीं, यह तय करने का कोई उपाय नहीं है। हो सकता है कि मैं स्‍वप्‍न देख रहा हूं। कि तुम मुझे सुन रहे हो। यह मैं कैसे जान सकता हूं कि यह स्‍वप्‍न नहीं, सत्‍य है। कोई उपाय नहीं है।
      च्‍वांगत्‍सु के बारे में कहा जाता है कि एक रात उसने स्‍वप्‍न देखा कि वह तितली हो गया है। सुबह जागने पर वह बहुत दुःखी था—और वह दुःखी होने वाला व्‍यक्‍ति नहीं था। लोगों ने कभी उसे दुःखी नहीं देखा था। उसके शिष्‍य इकट्ठे हुए और उन्‍होंने पूछा: गुरूदेव आप इतने दुःखी क्‍यों है?
      च्‍वांगत्‍सु ने बताया कि रात के सपने के कारण वह दुःखी है। उसके शिष्‍यों ने कहा कि हैरानी की बात है कि आप सपने के कारण दुःखी है। आपने तो हमें यही सिखाया कि यदि सारा संसार भी दुःख देने आए तो दुःखी मत होना। और एक सपने के कारण आप दुःखी है? आप क्‍या कहते है? च्‍वांगत्‍सु ने कहा कि यह सपना ही ऐसा है कि इसमे मैं बहुत उलझन में पड़ गया हूं और इसलिए दुःखी हूं। मैंने सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं।
      शिष्‍यों ने पूछा कि इसमें हैरानी की बात क्‍या है?
      च्‍वांगत्‍सु ने कहा कि दिक्‍कत यह है कह अगर च्‍वांत्‍सु सपना देख सकता है कि मैं तितली हो गया हूं। तो इससे उलटा भी हो सकता है। तितली सपना देख सकती है कि मैं च्‍वांगत्‍सु हो गयी हूं।  यही कारण है कि मैं परेशान हूं कि क्‍या ठीक है और क्‍या गलत है? क्‍या च्‍वांगत्‍सु ने सपना देखा था कि वह तितली हो गया है या कि तितली सोने चली गई और उसने सपना देखा कि वह च्‍वांगत्‍सु हो गई है। अगर एक बात हो सकती है तो दूसरी भी हो सकती है।
      और कहा जाता है कि च्‍वांगत्‍सु को जीवनभर एक पहेली का हल न मिला, यह सदा उसके साथ रही।
      यह कैसे तय हो कि में जो अभी तुमसे बात कर रहा हूं, वह सपने में नहीं कर रहा हूं? यह कैसे तय हो कि तुम सपना नहीं देख रहे हो कि मैं बोल रहा हूं? इंद्रियों से कोई निर्णय संभव नहीं है, क्‍योंकि सपना देखते हुए सपना यथार्थ मालूम पड़ता है—उतना ही यथार्थ जितना कुछ भी दूसरा यथार्थ मालूम पड़ता है। जब तुम सपना देखते हो तो तुम्‍हें वह सदा सच्‍चा मालूम पड़ता है। और जब सपने को सच की तरह देखा जा सकता है तो क्‍यों सच को सपने की तरह नहीं  देखा जा सकता है।
      शंकर कहते है कि इंद्रियों से यह जानना संभव नहीं है कि जो चीज तुम्‍हारे सामने है वह सच है या स्‍वप्‍न। और जब जानने का उपाय ही नहीं है कि वह सच है या झूठ तो शंकर उसे माया कहते है।
      माया का अर्थ झूठ नहीं है, माया का अर्थ है कि यह निर्णय करना असंभव है कि वह सच है या झूठ। इस बात को स्‍मरण रखो। पश्‍चिम की भाषाओं में माया का गलत अनुवाद हुआ है। पश्‍चिम की भाषाओं में माया शब्‍द अयथार्थ या झूठ का अर्थ रखता है। यह अर्थ सही नहीं है। माया का इतना ही अर्थ है कि यह निश्‍चित नहीं हो सकता है कि कोई चीज यथार्थ है कि अयथार्थ। यह उलझन माया है।
      यह सारा जगत माया है। तुम उसके संबंध में निशचित नहीं हो सकते। कुछ भी निर्णय पूर्वक नहीं कह सकते। यह जगत निरंतर तुमसे छूट-छूट जाता है, निरंतर बदल जाता है। कुछ से कुछ हो जाता है। यह इंद्रजाल सा लगता है। स्‍वप्‍नवत लगता है। और यह विधि इसी दृष्‍टि से संबधित है।
      ‘’भ्रांतियां छलती है।‘’
      या जो चीज छले वह भ्रांति है।
      ‘’रंग सीमित करते है, विभाज्‍य भी अविभाज्‍य है।‘’
      इस माया के जगत में कुछ भी निश्‍चित नहीं है। सारा जगत इंद्रधनुष के समान है, वह भासता है, लेकिन है नहीं। जब तुम उससे बहुत दूर होते हो तो वह है, जब करीब जाते हो तो वह खोता जाता है। जितना करीब जाओगे उतना ही वह खोता जाएगा। और अगर तुम उस बिंदू पर पहुंच जाओ जहां इंद्रधनुष दिखाई पड़ता था तो वह बिलकुल खो जायेगा।
      सारा जगत इंद्रधनुष के रंगों जैसा है। और सच्‍चाई यही है। जब तुम दूर होते हो, सब कुछ आशा पूर्ण दिखाई देता है; जब तुम करीब आते हो, आशा खो जाती है। और जब तुम मंजिल पर पहुंच जाते हो, तब तो राख ही राख बचती है। मृत इंद्रधनुष बचता है जिसके सब रंग उड़ जाते है। कुछ भी वैसा नहीं है जैसा दिखता था। जैसा तुमने चाहा था वैसा कुछ भी नहीं है।
      ‘’विभाज्‍य भी अविभाज्‍य है।‘’
      तुम्‍हारा सब गणित, तुम्‍हारा सब हिसाब-किताब, तुम्‍हारी सब धारणाएं, तुम्‍हारे सब सिद्धांत—सब कुछ व्‍यर्थ हो जाते है। अगर तुम इस माया को समझने की चेष्‍टा करोगे तो तुम्‍हारी चेष्‍टा ही तुम्‍हें और भ्रांत कर देगी। वहां कुछ भी निश्‍चित नहीं है। सब कुछ अनिश्‍चित है। जगत एक प्रवाह है, परिवर्तनों का प्रवाह है, और तुम्‍हारे लिए यह तय करने का कोई उपाय नहीं है कि क्‍या सच है और क्‍या नहीं है।
      इस हालत में क्‍या होगा? अगर तुम्‍हारी ऐसी दृष्‍टि हो तो क्‍या होगा? अगर यह दृष्‍टि तुममें गहरी उतर जाए कि जिस चीज के संबंध में निश्‍चित नहीं हो सके वह माया है तो तुम अपने ही आप, सहजता से अपनी तरफ मुड़ जाओगे। तब तुम्‍हें अपना केंद्र सिर्फ अपने भीतर खोजना होगा। वही एकमात्र सुनिश्‍चितता है।
      इसे इस तरह समझने की कोशिश करो। रात में मैं स्‍वप्‍न देख सकता हूं कि मैं तितली बन गया हूं। और मैं स्‍वप्‍न मैं स्‍वप्‍न में तय नहीं कर सकता कि यह सच है या झूठ है। और अगली सुबह मैं च्‍वांगत्‍सु की तरह उलझन में पड़ सकता हूं कि अब कहीं तितली ही यह सपना तो नहीं देख रही कि वह च्‍वांगत्‍सु हो गई है।
      अब ये दो सपने है और तुलना का कोई उपाय नहीं है। कि इनमें कौन सच है और कौन झूठ। लेकिन च्‍वांगत्‍सु एक चीज चूक रहा है—वह है स्‍वप्‍न देखने वाला। वह केवल सपनों की सोच रहा है, उसकी तुलना कर रहा , और स्‍वप्‍न देखने वाले को चूक रहा है। वह उसे चूक रहा है जो स्‍वप्‍न देख रहा है। कि च्‍वांगत्‍सु तितली बन गया है। और वह उसे चूक रहा है जो विचार करता है कि बात बिलकुल उलटी भी हो सकती है—कि तितली सपना देख रही हो कि सह च्‍वांगत्‍सु हो गई है। यह देखने वाला कौन है? द्रष्‍टा कौन है। कौन है वह जो साया हुआ था और अब जागा हुआ है?
      तुम मेरे लिए असत्‍य हो सकते हो। तुम मेरे लिए स्‍वप्‍न हो सकते हो। लेकिन मैं अपने लिए स्‍वप्‍न नहीं हो सकता।   क्‍योंकि स्‍वप्‍न के होने के लिए भी एक सच्‍चे स्‍वप्‍न देखने वाले की जरूरत है। झूठे स्‍वप्‍न के लिए भी सच्‍चे स्‍वप्‍नदर्शी की जरूरत है। स्‍वप्‍न भी सच्‍चे स्‍वप्‍नदर्शी के बिना नहीं हो सकता। तो स्‍वप्‍न को छोड़ो।
      यह विधि कहती है: स्‍वप्‍न को भूल जाओ। सारा जगत माया है, तुम माया नहीं हो। तुम जगत के पीछे मत भागों। क्‍योंकि वहां सुनिश्‍चित होने की कोई संभावना नहीं है। कि क्‍या सत्‍य है और असत्‍य। और अब तो वैज्ञानिक शोध से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है।
      पिछले तीन सौ वर्षों तक विज्ञान सुनिश्‍चित था और शंकर एक दार्शनिक, एक कवि मालूम पड़ता था। तीन सदियों तक विज्ञान असंदिग्‍ध था, सुनिश्‍चित था, लेकिन पिछले दो दशकों से विज्ञान का निश्‍चय अनिश्‍चय में बदल गया है। अब बड़े से बड़ा वैज्ञानिक कहते है कि कुछ भी निश्‍चित नहीं है। और पदार्थ के साथ हम कभी निश्‍चित नहीं हो सकते। सब कुछ पुन: संदिग्‍ध हो गया है। सब कुछ प्रवाहमान, बदलता हुआ मालूम पड़ता है। बाहरी रूप-रंग ही निश्‍चित मालूम पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे तुम उसमे गहरे जाते हो सब अनिश्‍चित होता  जाता है। सब धुंधला-धुंधला होता जाता है।
      शंकर कहते है—और तंत्र ने सदा कहा है—कि जगत माया है। शंकर के जन्‍म के पहले भी तंत्र इस विधि का उपयोग करता था जगत माया है। उसे स्‍वप्‍नवत समझो। और अगर तुमने इसे माया समझा—और यदि तुमने जरा ध्‍यान दिया तो तुम जानोंगे ही कि यह माया है। तो तुम्‍हारी चेतना का पूरा तीन भीतर की और मुड़ जाएगा। क्‍योंकि सत्‍य को जानने की अभीप्‍सा प्रगाढ़ है।
      अगर सारा जगत अयथार्थ है, असत्‍य है, तो उससे कोई आश्रय नहीं मिल सकता है। तब तुम छायाओं के पीछे भाग रहे हो। अपने समय, शक्‍ति और जीवन का अपव्‍यय कर रह हो। अब भी तर की तरफ चलो। क्‍योंकि एक बात तो निश्‍चित है कि मैं हूं। यदि सारा जगत भी माया है तो भी एक चीज निश्‍चित है कि कोई है जो जानता है कि यह माया है। ज्ञान भ्रांत हो सकता है, ज्ञेय भ्रांत हो सकता है, लेकिन ज्ञाता भ्रांत नहीं हो सकता। वही एक मात्र  निश्‍चय है, एकमात्र चट्टान है, जिस पर तुम खड़े हो सकते हो।
      यह विधि कहती है: ‘’संसार को देखो; यह स्‍वप्‍नवत है, माया है, वैसा बिलकुल नहीं है जैसा भासता है। यह बस इंद्रधनुष जैसा है। इस भाव की गहराई में उतरो और तुम अपने पर फेंक दिए जाओगे। और अपने अंतस पर आने के साथ-साथ तुम निश्‍चय को, सत्‍य को, असंदिग्‍ध को, परम को उपलब्‍ध हो जाते हो।
      विज्ञान कभी परम तक नहीं पहुंच सकता, वह सदा सापेक्ष रहेगा। सिर्फ धर्म परम को उपलब्‍ध हो सकता है। क्‍योंकि धर्म स्‍वप्‍न को नहीं, स्‍वप्‍नदर्शी को खोजता है। धर्म दृश्‍य को नहीं, द्रष्‍टा को खोजता है। धर्म उसे खोजता है जो चिन्‍मय है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-3
प्रवचन—35

3 टिप्‍पणियां:

  1. Swamiji, Is pravachan ki audio cd / cassette bahut khoj raha hoon par Osho ki pui library mein Hindi mein VBT par pravachan nahin mil rahe hai. English mein VBT par " Book Of Secrets " hai par usme vo maza kahan jo unki Hindi mein hai. Kripya kare aur batatye ki kya ye pravachan mala Hindi mein kisi title mein uplabdh hai ! Aabhar aur prem.

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  2. कुछ प्रवचन माला केवल अंग्रेजी में ही है, इसमें बुक ओफ सीकरेट भी एक है, इनकी प्रवचन माला केवल अंग्रेजी में ही है, विज्ञान भेरव तंत्र, अल्‍फा दा ओमेगा आदि आप इनकी पूस्‍तके तो हिन्‍दी में पढ़ सकेगे परंतु प्रवचन हिन्‍दी में कौन बोले....आभार

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  3. Dhanyavaad to kripya VBT ki Hindi pustak ka Title bataye ( mera guess hai Tantra Sutra ) abhi hi online kharidney ki koshish karta hoon... Aabhar

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