साक्षित्व
की पहली विधि--
‘’तीव्र
कामना की
मनोदशा में
अनुद्विग्न
रहो।‘’
जब तुम्हें
कामना घेरती
है, चाहे
पकड़ती है, तो
तुम उत्तेजित
हो जाते हो, उद्विग्न
हो जाते हो।
यह स्वाभाविक
है। जब चाह
पकड़ती है तो
मन डोलने लगता
है। उसकी सतह
पर लहरें उठने
लगती है।
कामना तुम्हें
खींचकर कहीं
भविष्य में
ले जाती है;
अतीत तुम्हें
कहीं भविष्य
में धकाता है।
तुम उद्विग्न
हो जाते हो,
बेचैन हो जाते
हो। अब तुम
चैन में न रहे।
चाह बेचैनी
है, रूग्णता
है।
यह
सूत्र कहता
है: ‘’तीव्र
कामना की मनोदशा
में
अनुद्विग्न
रहो।‘’
लेकिन
अनुद्विग्न
कैसे रहा जाए?
कामना का अर्थ
ही उद्वेग है।
अशांति है;
फिर अनुद्विग्न
कैसे रहा जाए? शांत कैसे
रहा जाए?
और वह भी
कामना के
तीव्रतम
क्षणों में।
तुम्हें
कुछ प्रयोगों
से गुजरना
होगा। तो ही
तुम इस विधि
का अभिप्राय
समझ सकते हो।
तुम क्रोध में
हो; क्रोध ने
तुम्हें
पकड़ लिया है।
तुम अस्थायी
रूप से पागल
हो, आविष्ट
हो, अवश हो।
तुम होश में
नहीं हो। इस
अवस्था में
अचानक स्मरण
करो कि
अनुद्विग्न
रहना है—मानों
तुम कपड़े
उतार रहे हो।
नग्न हो रहे
हो। भीतर नग्न
हो जाओ, क्रोध
से निर्वस्त्र
हो जाओ। क्रोध
तो रहेगा,
लेकिन अब तुम्हारे
भीतर एक बिंदु
है जो
अनुद्विग्न
है, शांत है।
तुम्हें पता
होगा कि क्रोध
परिधि पर है;
बुखार की तरह
वह वहां है।
परिधि कांप
रही है। परिधि
अशांत है।
लेकिन तुम
उसके दृष्टा
हो। और यदि
तुम उसके
द्रष्टा हो
सके तो तुम
अनुद्विग्न
रहोगे। तुम
उसके साक्षी
हो जाओ, और तुम
शांत हो
जाओगे। वहाँ
शांत बिंदु ही
तुम्हारा
मूलभूत मन है मूलभूत
मन अशांत नहीं
हो सकता। वह
कभी अशांत नहीं
होता है।
लेकिन तुमने
उसे कभी देखा
नहीं है। जब
क्रोध होता है
तो तुम्हारा
उससे तादात्म्य
हो जाता है।
तुम भूल जाते
हो कि क्रोध
तुमसे भिन्न
है, पृथक है।
तुम उससे एक
हो जाते हो; और
तुम उसके
द्वारा
सक्रिय हो
जाते हो, कुछ
करने लगते हो।
और तब दो
चीजें संभव
है।
तुम
क्रोध में किसी
के प्रति,
क्रोध के विषय
के प्रति
हिंसात्मक
हो सकते हो;
लेकिन तब तुम
दूसरे की और
गति कर गए।
क्रोध ने तुम्हारे
और दूसरे के
बीच जगह ले
ली। यहां मैं
हूं जिसे
क्रोध हुआ है,
फिर क्रोध है
ओ वहां तुम हो, मेरे
क्रोध का
विषय। क्रोध
से मैं दो
आयामों में
यात्रा कर
सकता हूं। या
तो मैं तुम्हारी
तरफ जा सकता
हूं, अपने
क्रोध के विषय
की तरफ। तब
तुम जिसने
मेरा अपमान
किया, मेरी
चेतना के
केंद्र बन गए;
तब मेरा मन
तुम पर
केंद्रित हो
गया। यह ढंग
है क्रोध से
यात्रा करने
का।
दूसरा
ढंग है कि तुम
अपनी और स्वयं
की और यात्रा करो।
तुम उस व्यक्ति
की और नहीं
गति करते
जिसने तुम्हें
क्रोध करवाया।
बल्कि उस व्यक्ति
की तरफ जाते
हो जो क्रोध
अनुभव करता
है। तुम विषय
की और न जाकर
विषयी की और
गति करते हो।
साधारणत:
हम विषय की और
ही बढ़ते है।
और विषय की और बढ़ने
से मन का
धूल-भरा हिस्सा
उत्तेजित और
अशांत हो जाता
है। और तुम्हें
अनुभव होता है
की मैं अशांत
हूं। अगर तुम भीतर
की और मुड़ो
अपने केंद्र
की और मुड़ो,
तो तुम धूल
वाले हिस्से
के साक्षी हो
जाओगे। तब तुम
देख सकोगे। कि
धूल वाला हिस्सा
तो अशांत है,
लेकिन मैं
अशांत नहीं
हूं। और तुम किसी
भी इच्छा के
साथ किसी भी
अशांति के साथ
यह लेकर
प्रयोग कर सकते
हो।
तुम्हारे
मन में
कामवासना
उठती है; तुम्हारा
सारा शरीर
उससे अभिभूत
हो जाता है।
अब तुम काम
विषय की और
अपनी वासना के
विषय की और जा
सकते हो। चाहे
वह वास्तव
में वहां हो
या न हो। तुम
कल्पना में
भी उसकी तरफ
यात्रा कर
सकते हो।
लेकिन तब तुम
और ज्यादा
अशांत होते
जाओगे। तुम
अपने केंद्र
से जितनी दूर
निकल जाओगे
उतने ही अधिक
अशांत होते जाओगे।
सच तो यह है कि
दूरी और
अशांति होगे
और केंद्र के
जितनी करीब
होगे उतने कम
अशांत होगे।
ओर अगर तुम
ठीक केंद्र पर
हो तो कोई
अशांति नहीं
है।
हर
तूफान के बीचो
बीच एक केंद्र
होता है। जो बिलकुल
शांत रहता है;
वैसे की क्रोध
के तूफान के
केंद्र पर,
काम के तूफान
के केंद्र पर,
किसी भी वासना
के तूफान के
केंद्र—ठीक
केंद्र पर कोई
तूफान नहीं
होता। और कोई
भी तूफान शांत
केंद्र के
बिना नहीं हो
सकता; वैसे ही
क्रोध भी तुम्हारे
उस अंतरस्थ
के बिना नहीं
हो सकता जो
क्रोध के पार
है।
यह
स्मरण रहे,
कोई भी चीज
अपने विपरीत
तत्व के बिना
नहीं हो सकती।
विपरीत जरूरी
है; उसके बिना
किसी भी चीज होने
की संभावना
नहीं है। यदि
तुम्हारे
भीतर कोई स्थिर
केंद्र न हो
तो गति असंभव
है। यदि तुम्हारे
भीतर शांत
केंद्र न हो
तो अशांति
असंभव है।
इस
बात का विश्लेषण
करो, इसका
निरीक्षण
करो। अगर तुम्हारे
भीतर परम
शांति का कोई
केंद्र न होता
तो तुम कैसे
जानते कि मैं
अशांत हूं?
तुम्हें
तुलना करनी
चाहिए, तुलना
के लिए दो
बिंदू चाहिए।
मान
लो कि कोई व्यक्ति
बीमार है। वह
व्यक्ति
बीमारी अनुभव
करता है; क्योंकि
उसके भीतर
कहीं कोई
बिंदू है,
जहां परम स्वास्थ
विराजमान है।
इससे ही वह
तुलना कर सकता
है। तुम कहते
हो कि मुझे
सिरदर्द है;
लेकिन तुम कैसे
जानते हो कि यह
दर्द है,
सिरदर्द है?
अगर तुम ही
सिरदर्द होते
तो तुम इसे
कैसे जान सकते
थे। अवश्य ही
तुम कुछ और
हो। कोई और
हो। तुम द्रष्टा
हो। साक्षी
हो। जो कहता
है कि मुझे
सिरदर्द है।
इस दर्द को
वही अनुभव कर
सकता है जो
खुद दर्द नहीं
है। अगर तुम
बीमार हो,
ज्वर ग्रस्त हो
तो तुम उसे
अनुभव कर सकते
हो। क्योंकि
तुम ज्वर
नहीं हो। खुद
ज्वर को नहीं
अनुभव कर सकता
है; कोई चाहिए
जो उसके पार
हो। विपरीत
जरूरी है।
जब
तुम क्रोध में
हो और अगर तुम
महसूस करते हो
कि मैं क्रोध
में हूं तो
उसका अर्थ है
कि तुम्हारे
भीतर कोई
बिंदू है जो
अब भी शांत है
और जो साक्षी
हो सकता है।
यह बात दूसरी
है कि तुम इस
बिंदू को नहीं
देखते हो। तुम
इस बिंदू पर
अपने को कभी
नहीं देखते
हो। यह एक अलग
बात है। लेकिन
वह सदा अपनी
मौलिक शुद्धता
में वहां
मौजूद है।
यह
सूत्र कहता
है: ‘’तीव्र
कामना की
मनोदशा में अनुद्विग्न
रहो।‘’
तुम
क्या करते हो?
यह विधि दमन
के पक्ष में
नहीं है। यह
विधि यह नहीं
कहती है कि जब
क्रोध आए तो
उसे दबा दो और
शांत हो जाओ।
नहीं, अगर दमन
करोगे तो तुम
ज्यादा
अशांति
निर्मित
करोगे। अगर
क्रोध हो और उसे
दबाने का
प्रयत्न भी
साथ-साथ हो तो
उससे अशांति
दुगुनी हो जाएगी।
नहीं; जब क्रोध
आए तो द्वार
दरवाजे बंद कर
लो और क्रोध
पर ध्यान
करो। क्रोध को
होने दो; तुम
अनुद्विग्न
रहो और क्रोध
का दमन मत
करो।
दमन
करना आसान है;
प्रकट करना भी
आसान है। और हम
दोनों करते
है। अगर स्थिति
अनुकूल हो तो
हम क्रोध को
प्रकट कर देते
है। अगर उसकी
सुविधा हो,
अगर तुम्हें
खुद कोई खतरा
नहीं हो तो
तुम क्रोध को
अभिव्यक्त
कर दोगे। अगर
तुम दूसरे को
चोट पहुंचा
सकते हो और
दूसरा बदले
में तुम पर
चोट कर सकता
है। तो तुम
अपने क्रोध को
खुली छूट दे
दोगे। और अगर क्रोध
को प्रकट करना
खतरनाक हो,
अगर दूसरा तुम्हें
ज्यादा चोट
कर सकने में
समर्थ हो, अगर
वह तुम्हारा
मालिक हो या
तुमसे ज्यादा
बलवान हो, तो
तुम क्रोध को
दबा दोगे।
अभिव्यक्ति
और दमन सरल है;
साक्षी कठिन
है। साक्षी न
अभिव्यक्ति
है और न दमन; वह
दोनों में कोई
नहीं है। वह
अभिव्यक्ति
नहीं है। क्योंकि
तुम उसे दूसरे
पर नहीं प्रकट
कर रहे हो।
तुम उसका दमन
भी नहीं करते।
तुम उसे शून्य
में विसर्जित
कर रहे हो।
तुम उस पर ध्यान
कर रहे हो।
किसी
आईने के सामने
खड़े हो जाओ
और अपने क्रोध
को प्रकट करो—और
उसके साक्षी
बने रहो। तुम
अकेले हो,
इसलिए तुम उस
पर ध्यान कर
सकते हो। तुम
जो भी करना
चाहो करो,
लेकिन शून्य
में करो। अगर
तुम किसी को
मारना पीटना
चाहते हो तो
खाली आकाश के
साथ मार-पीट
करो। अगर क्रोध
करना चाहते हो
तो क्रोध करो;
अगर चीखना
चाहते हो तो
चीखो। लेकिन
सब अकेले में
करो। और अपने
को उस केंद्र
बिंदू की
भांति स्मरण
रखे जो यह सब
नाटक देख रहा
है। तब यह एक साइको
ड्रामा बन
जाएगा। और तुम
उस पर हंस
सकते हो। वह
तुम्हारे
लिए गहरा रेचन
बन जाएगा। और
न केवल तुम्हारा
क्रोध
विसर्जित हो
जाएगा, बल्कि
तुम उससे कुछ
फायदा उठा
लोगे। तुम्हें
एक प्रौढ़ता
प्राप्त
होगी; तुम एक
विकास को
उपलब्ध होओगे।
और अब तुम्हें
पता होगा कि
जब तुम क्रोध
में भी थे तो
कोर्इ था जो
शांत था। अब
इस केंद्र को
अधिकाधिक उघाड़ते
जाओ। और वासना
की अवस्थ में
इस केंद्र को
उघाड़ना आसान
है।
इसीलिए
तंत्र वासना
के विरोध में नहीं
है। वह कहता
है: वासना में
उतरो, लेकिन उस
केंद्र को स्मरण
रखो जो शांत
है। तंत्र
कहता है कि इस
प्रयोग के लिए
कामवासना का
भी उपयोग किया
जा सकता है।
काम-कृत्य
में उतरो
लेकिन
अनुद्विग्न
रहो, शांत
रहो। और साक्षी
रहो। गहरे में
दृष्टा बने
रहो। जो भी हो
रहा है वह
परिधि पर हो
रहा है और तुम
केवल देखने
वाले हो,
दर्शक हो।
वह
विधि बहुत
उपयोगी हो
सकती है, और इससे
तुम्हें
बहुत लाभ हो
सकता है।
लेकिन यह कठिन
होगा। क्योंकि
जब तुम अशांत होते
हो तो तुम सब
कुछ भूल जाते
हो। तुम यह भूल
जाते हो कि
मुझे ध्यान
करना है। तो
फिर इसे इस
भांति प्रयोग
करो। उस क्षण
के लिए मत रुको
जब तुम्हें
क्रोध होता
है। उस क्षण
के लिए मत रुको।
अपना कमरा बंद
करो और क्रोध
के किसी अतीत
अनुभव को स्मरण
करो जिसमें
तुम पागल ही
हो गए थे। उसे
स्मरण करो और
फिर से उसका
अभिनय करो।
यह
तुम्हारे
लिए सरल होगा।
उस अनुभव को
फिर से अभिनीत
करो, उसे फिर
से जाओ। शायद
तुम्हें पता
न हो कि मन
टेप-रिकार्डिंग
यंत्र जैसा
है। अब तो
वैज्ञानिक
कहते है, अब तो
यह वैज्ञानिक
तथ्य है कि
अगर तुम्हारे
स्मृति
केंद्रों को इलेक्ट्रोड्स
से छुआ जाए तो
वे केंद्र फिर
से संग्रहीत अनुभवों
को दोहराने लगते
है। उदाहरण के
लिए तुमने कभी
क्रोध किया और
वह घटना तुम्हारे
मन में टेप-रिकार्डर
पर रिकार्ड
है; ठीक उसी
अनुक्रम में वह
रिकार्ड है
जिस अनुक्रम में
वह घटित हुई
थी। अगर उसे इलेक्ट्रोड्स
से छूओगे तो
वह घटना पुन:
जीवंत होकर दोहराने
लगेगी। तुम्हें
वही-वहीं भाव
फिर से होंगे
जो क्रोध करते
समय हुए थे।
तुम्हारी
आंखे लाल हाँ जाएगी।
तुम्हारा
शरीर कांपने
लगेगा। ज्वरग्रस्त
हो जाएगा।
पूरी कहानी
फिर दोहरेगी। और
ज्यों ही
इलेक्ट्रोड
को वहां से
हटाओगे, नाटक
बंद हो
जायेगा। पूरी
कहानी फिर
दोहरेगी। यदि
तुम उसे फिर
ऊर्जा देते
हो, वह फिर
बिलकुल शुरू
से चालू हो
जाता है।
अब
वे कहते है कि
मन एक
रिकार्डिंग
मशीन है और तुम
किसी भी अनुभव
को दोहरा सकते
हो।
लेकिन
स्मरण ही मत
करो, उसे फिर
से जीओं।
अनुभव को फिर
जीना शुरू करो
और मन उसे
पकड़ लेगा। वह
घटना वापस लौट
आयेगी। और तुम
उसे फिर जीओगे।
और इसे पुन:
जीते हुए
अनुद्विग्न
रहो, शांत
रहो। अतीत से
शुरू करो। और यह
सरल है। क्योंकि
अब यह नाटक
है। यह यथार्थ
स्थिति नहीं है। और अगर
तुम यह करने में
समर्थ हो गए
तो जब सच ही
क्रोध की स्थित
पैदा होगी।
तुम उसे भी कर
सकोगे। और यह
प्रत्येक
कामना के साथ
किया जा सकता
है। प्रत्येक
कामना के साथ
किया जाना
चाहिए।
अतीत
के अनुभवों को
फिर से जीना
बड़े काम का
है। हम सब के
मन में घाव है;
ऐसे घाव है जो
अभी भी हरे
है। अगर तुम
उन्हें फिर
से जी लोगे तो
तुम निर्भार
हो जाओगे। अगर
तुम अपने अतीत
में लोट सके और
अधूरे
अनुभवों को जी
सके तो तुम
अपने अतीत के बोझ
से मुक्त हो
जाओगे। तुम्हारा
मन ताजा हो
जाएगा। धूल
झड़ जायेगी।
अपने
अतीत में से
कोई अनुभव स्मरण
करो जो तुम्हारे
देखे अधूरा पडा
है। तुम किसी
की हत्या
करना चाहते
थे। तुम किसी
को प्रेम करना
चाहते थे। तुम
यह या वह करना
चाहते थे। लेकिन
वे सारे काम
अपूर्ण रह गए
अधूरे रह गये।
ओ वह अधूरी चीज
तुम्हारे मन
के आकाश में
बादल की भांति
मँडराती रहती
है। वह तुम्हें
और तुम्हारे
कृत्यों को
सदा प्रभावित
करती रहती है।
उस बादल को विसर्जित
करना होगा। तो
उसके काल पथ
को पकड़कर मन में
पीछे लोटों और
उन कामनाओं को
फिर से जीओं
जो अधूरी रह
गई है। उन
घावों को फिर से
जीओं जो अभी
भी हरे है। वे
घाव भर
जाएंगे। तुम
स्वस्थ हो
जाओगे। और इस
प्रयोग के
द्वारा तुम्हें
एक झलक
मिलेगी। कि कैसे
किसी अशांत स्थिति
में शांत रहा
जाए।
‘’तीव्र
कामना की
मनोदशा में
अनुद्विग्न
करो।‘’
गुरजिएफ
ने इस विधि का
खूब प्रयोग किया
है। वह इसके
लिए परिस्थितियां
निर्मित करता
था। लेकिन परिस्थितियां
निर्मित करने
के लिए समूह
जरूरी है।
आश्रम जरूरी
है। तुम अकेले
यह नहीं कर
सकते। फाउंटेन
ब्लू में गुरजिएफ
ने एक आश्रम
बनाया था और वह
बड़ा कुशल गुरु
था जो जानता था
कि स्थिति
कैसे निर्मित
की जाती है।
तुम
किसी कमरे में
प्रवेश करते
हो जहां एक
समूह पहले से बैठा
है। तुम कमरे में
प्रवेश करते
हो और तभी कुछ
किया जाता है।
जिससे तुम
क्रोधित हो जाते
हो। और वह चीज
इस स्वाभाविक
ढंग से की
जाती है कि
तुम्हें कभी
कल्पना भी नहीं
होती कि यह परिस्थिति
तुम्हारे
लिए निर्मित
की जा रही है।
यह एक उपाय था। कोई
व्यक्ति
कुछ कहकर तुम्हें
अपमानित कर
देता है। और तुम
अशांत हो जाते
हो। और फिर हर
कोई उस अशांति
को बढ़ावा
देता है। और तुम
पागल हो जाते
हो। और जब तुम
ठीक विस्फोट
के बिंदू पर
पहुंचते हो तो
गुरूजिएफ
चिल्लाकर
कहता है: स्मरण
करो और अनुद्विग्न
रहो।
ऐसी
परिस्थिति
निर्मित की जा
सकती है।
लेकिन केवल
वहीं जहां
अनेक लोग अपने
ऊपर काम कर
रहे हो। और जब
गुरूजिएफ
चिल्लाकर
कहता कि स्मरण
करो और अनुद्विग्न
रहो; तो तुम
जान जाते हो
कि यह परिस्थिति
पहले से तैयार
कि गई थी।
लेकि अब तुम्हारा
उद्विग्न,
तुम्हारी
अशांति इतनी
शीध्रता से,
इतनी जल्दी
मिटने नहीं वाली
है। इस अशांति
की जड़ें तुम्हारे
शरीर में है।
तुम्हारी
ग्रंथियों ने
तुम्हारे
रक्त में जहर
छोड़ दिया है।
तुम्हारा
शरीर उससे
प्रभावित है।
क्रोध इतनी
शीध्रता से नहीं
जाने वाला है।
अब जबकि तुम्हें
पता हो गया है
कि मुझे धोखा
दिया गया है।
कि किसी ने सच
ही मुझे
अपमानित नहीं किया
है। तो भी तुम
कुछ नहीं कर
सकते। क्रोध जहां
का तहां है;
तुम्हारे
शरीर क्रोध की
स्थिति में है।
लेकिन
एक बात होती
है। कि अचानक
तुम्हारा ज्वर
भीतर शांत
होने लगता है।
क्रोध अब
सिर्फ शरीर पर
परिधि पर है।
केंद्र पर तुम
अचानक शीतल होने
लगते हो। और अब
तुम जानते हो
कि मेरे भीतर
एक बिंदू है
जो अनुद्विग्न
है, शांत है। और
तुम हंसने लगते
हो। अभी भी तुम्हारी
आंखें क्रोध
से लाल है,
तुम्हारा
चेहरा पशुवत
हिंसक बना हुआ
है। लेकिन तुम
हंसने लगते
हो। अब तुम्हें
दो चीजें पता
है; एक
अनुद्विग्न
केंद्र और दूसरी
उद्विग्न
परिधि।
तुम
एक दूसरे के
लिए सहयोगी हो
सकते हो। तुम्हारा
परिवार ही
आश्रम बन सकता
है; तुम एक दूसरे
की मदद कर सकते
हो। मित्र
अपने परिवार
से बात करके
तय कर सकते हो
कि पिता के लिए
या मां के लिए
एक परिस्थिति
पैदा की जाए; और
पूरा परिवार
उस परिस्थिति
के पैदा करने में
हाथ बँटाता
है। जब मां या
पिता पूरी तरह
विक्षिप्त
हो जाते है तब
सब हंसने लगते
है। और कहते
है: बिलकुल
अनुद्विग्न
रहो।
तुम
परस्पर एक
दूसरे की मदद
कर सकते हो।
और
यह अनुभव बहुत
अद्भुत है। जब
तुम्हें
किसी उतेजित
परिस्थिति
के भीतर एक
शीतल केंद्र
का पता चल जाए
तो तुम उसे
भूल नहीं सकते।
और तब तुम
किसी भी तरह
की अशांत
परिस्थिति में
उसे स्मरण कर
सकते हो,
उसे पुन:
उपलब्ध कर
सकते हो।
पशिचम
में अब एक
विधि का,
चिकित्सा
विधि का
प्रयोग हो रहा
है। जिसे वे
साइकोड्रामा
कहते है। वह सहयोगी
है और इसी तरह
की विधियों पर
आधारित है। इस
साइकोड्रामा में
तुम एक अभिनय
करते हो, एक
खेल खेलते हो।
शुरू में तो
वह खेल ही है;
लेकिन देर
अबेर तुम उसके
वशीभूत हो
जाते हो। और जब
तुम वशीभूत
होते हो,
आविष्ट होते
हो तो तुम्हारा
मन सक्रिय हो
जाता है। क्योंकि
तुम्हारे
शरीर और मन स्वचलित
ढंग से काम
करते है। वे
स्वचलित व्यवहार
करते है।
तो
साइकोड्रामा में
व्यक्ति
क्रोध की स्थिति
में सचमुच
क्रोधित हो
जाता है। तुम
सोच सकते हो
कि वह अभिनय
कर रहा है।
लेकिन ऐसी बात
नहीं है। संभव
है कि वह सच में
ही क्रोधित हो
गया हो; केवल
अभिनय ही न कर
रहा हो। वह
कामना के वश में
है, उद्वेग के
वश में है, भाव
के वश में है। और
जब वह सच में उनके
आविष्ट होता
है तभी उसका
अभिनय यर्थाथ
मालूम पड़ता है।
तुम्हारे
शरीर को नहीं पता
हो सकता कि
तुम अभिनय कर
रहे हो या सच में
कर रहे हो।
तुमने अपने
जीवन में कभी
देखा होगा कि
तुम क्रोध का
केवल अभिनय कर
रहे थे और तुम्हारे
अनजाने ही
क्रोध सच बन
गया। या कि
तुम उतेजित नहीं
थे, सिर्फ पत्नी
या प्रेमिका
के साथ खेल कर
रहे थे। कि
अचानक और अनजाने
सारा खेल सच
हो गया। शरीर
उसे पकड़ लेता
है। और शरीर को
धोखा दिया जा
सकता है। शरीर
नहीं जान
सकता, विशेषकर
कामवासना के
प्रसंग में कि
वह सच है या
अभिनय। तुम
कल्पना भी
करते हो तो
शरीर सोचता है
कि वह सच है।
काम
केंद्र शरीर
का सबसे अधिक
कल्पनात्मक
केंद्र है।
सिर्फ कल्पना
से तुम काम के
शिखर अनुभव को
आर्गाज्म को
उपलब्ध हो
सकते हो। शरीर
नहीं जान सकता
कि क्या सच
है और क्या
झूठ। जब तुम
कुछ करने लगते
हो तो शरीर
सोचता है कि
यह सच ओर वह
वैसा व्यवहार
करने लगता है।
साइकोड्रामा
ऐसी विधियों
पर आधारित है।
तुम क्रोधित नहीं
हो, सिर्फ
क्रोध का
अभिनय कर रहे
हो। और फिर उससे
आविष्ट हो
जाते हो।
लेकिन
साइकोड्रामा
सुंदर है। क्योंकि
तुम जानते हो
कि मैं महज
अभिनय कर रहा
हूं। और तब
परिधि पर
क्रोध यथार्थ
हो जाता है और ठीक
उसके पीछे तुम
छिपकर उसका
निरीक्षण कर
रहे होते हो।
तुम जानते हो
कि मैं
उद्विग्न
नहीं हूं।
लेकिन क्रोध है,
उद्वेग है,
अशांति है। यह
दो ऊर्जाओं का
युगपत काम
करने का अनुभव
तुम्हें
उनके
अतिक्रमण में ले
जाता है। और फिर
असली क्रोध में
भी तुम उसे अनुभव
कर सकते हो।
जब तुमने जान
लिया कि उसे
कैसे अनुभव
किया जाए तुम
वास्तविक स्थितियों
में भी अनुभव
कर सकते हो।
इस
विधि का
प्रयोग करो;
यह तुम्हारे
समग्र जीवन को
बदल देगी। और जब
तुमने
अनुद्विग्न
रहना सीख लिया
तो संसार तुम्हारे
लिए दुःख न
रहा। तब कुछ
भी तुम्हें
भ्रांत नहीं
कर सकता है।
तब कुछ भी
तुम्हें सच में
पीड़ित नहीं कर
सकता। अब तुम्हारे
लिए कोई दुःख न
रहा।
और
तब तुम एक और काम
कर सकत हो।
गुरजिएफ यह
करता था। वह
किसी भी क्षण
अपना चेहरा,
अपनी मुख
मुद्रा बदल
सकता था। वह
हंस रहा है, मुस्कुरा
रहा है। तुम्हारे
साथ बैठकर
प्रसन्न है। और
अचानक वह बिना
किसी कारण के
ही क्रोधित हो
जाएगा। और कहते
है कि हव इस कला
में इतना निष्णात
हो गया था कि
वह एक साथ
अपने आधे
चेहरे से
क्रोध और दूसरे
आधे चेहरे से
मुस्कुराहट
प्रकट कर सकता
था। अगर उनके
दोनों चेहरे
के आस पास व्यक्ति
बैठे हो तो वह
उसे अलग-अलग
ही रूप में देखेंगे।
एक व्यक्ति
कहेगा कि
गुरजिएफ
कितना सुंदर
आदमी है। और दूसरा
व्यक्ति
कहेगा कि वह
बहुत खराब है।
वह एक साथ एक
को हंसकर
देखता था और दूसरे
को गुस्से
से।
एक
बार तुम अपने
केंद्र को
परिधि से पूरी
तरह पृथक करने
की विधि का
अनुभव कर लो।
दोनों अतियां
वहां है—विपरीत
अतियां। एक
बार तुम्हें
इन अतियों को
बोध हो जाए तो
पहली दफा तुम
अपने मालिक
हुए। अन्यथा
दूसरे मालिक
है। तुम खुद
गुलाम हो।
तुम्हारी
पत्नी जानती
है तुम्हारा
बाप जानता है।
तुम्हारे बेटे
जानते है।
तुम्हारे
दोस्त जानते
है। कि तुम्हें
कब हिलाया जा
सकता है। तुम्हें
कैसे अंशत
किया जा सकता
है, तुम्हें
कैसे खुश किया
जा सकता है।
और
जब दूसरा तुम्हें
सुखी और दुःखी
कर सकता है तो
तुम मालिक नहीं
हो सकते। तुम
गुलाम ही हो।
कुंजी दूसरे
के हाथ में है;
बस उसकी एक
भाव भंगिमा
तुम्हें दुःखी
बना सकती है;
उसकी एक मुस्कुराहट
तुम्हें सुख
से भर सकती
है। तो तुम दूसरे
की मर्जी पर
हो; दूसरा
तुम्हारे
साथ कुछ भी कर
सकता है।
और
अगर यही स्थिति
है तो तुम्हारी
सब प्रतिक्रियाएँ
बसा प्रतिक्रियाएँ
है। उन्हें
क्रियाएं नहीं
कहा जा सकता
है। तुम सिर्फ
प्रतिक्रियाँ
करते हो,
क्रिया नहीं।
कोई तुम्हारा
अपमान करता है
और तुम
क्रोधित हो
जाते हो। कोई
तुम्हारी
प्रशंसा करता
है और तुम
मुस्कुराने
लगते हो। फूकर
कुप्पा हो
जाते हो। तो
यह
प्रतिक्रिया
है, क्रिया नहीं।
बुद्ध
एक गांव से गुजर
रहे थे। कुछ
लोग उनके पास
इकट्ठे हो गए;
वे सब उनके
विरोध में थे।
उन्होंने
बुद्ध का
अपमान किया,
उन्हें
गालियां दीं।
बुद्ध ने सब
सुना। और फिर
कहा; मुझे समय
पर दूसरे गांव
पहुंचना है।
तो क्या मैं
अब आगे जा
सकता हूं। अगर
तुमने वह सब
कह लिया जा
कहने वाले थे।
अगर बात खत्म
हो गई तो में
जाऊं। और यदि
कुछ कहने को
शेष रह गया हो
तो मैं लोटते
हुए यहां रूकुंगा,
तब तुम आ जाना और
कह देना।
वे
लोग तो चकित
रह गए। उन्हें
कुछ समझ में नहीं
आया1 वे तो
उनका अपमान कर
रहे थे। उन्हें
गालियां दे
रहे थे। तो
उन्होंने
कहा कि हमें
कुछ कहना नहीं
है। हम तो बस
आपका अपमान कर
रहे है। आपको
गालियां दे
रहे है।
बुद्ध
ने कहा: तुम वह
कर सकते हो।
लेकिन यदि
तुम्हें
मेरी
प्रतिक्रिया
की अपेक्षा है
तो तुम देरी
करके आए। दस
वर्ष पूर्व
तुम अगर ये
शब्द लेकर आए
होते तो मैं
प्रतिक्रिया
करता। लेकिन
अब में क्रिया
करना सीख गया
हूं। मैं अब
अपना मालिक हो
गया हूं। अब
तुम मुझे कुछ
करने को मजबूर
नहीं कर सकते
हो। तुम लौट
जाओ। तुम अब
मुझे विचलित नहीं
कर सकते हो।
मुझे अब कुछ
भी अशांत नहीं
कर सकता है।
मैनें अपने
केंद्र को जान
लिया है।
केंद्र
का यह ज्ञान या
केंद्र में
प्रतिष्ठित
होना तुम्हें
अपना मालिक
बना देता है।
अन्यथा तुम
गुलाम हो। एक
ही मालिक के
नहीं, अनेक मालिकों
के गुलाम। तब
हर कोई तुम्हारा
मालिक है, और तुम
सारे जगत के
गुलाम हो।
निश्चित ही
तुम पीड़ा
में, दुःख में
रहोगे। इतने
मालिक और वे
इतनी दिशाओं में
तुम्हें खिंचेंगी।
कि तुम अखंड न
रह सकोगे। एक
न रह सकोगे। और इतने
आयामों में खींचे
जाने के कारण
तुम संताप में
रहोगे। वही व्यक्ति
संताप का
अतिक्रमण कर
सकता है जो
अपना स्वामी
है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-तीन
प्रवचन-37
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