‘’छींक
के
आरंभ में, भय में,
खाई-खड्ड के
कगार पर, युद्ध से
भागने पर, अत्यंत
कुतूहल में, भूख के
आरंभ में और
भूख के अंत
में,
सतत बोध रखो।‘’
यह विधि
देखने में
बहुत सरल
मालूम पड़ती
है। छींक के आरंभ
में, भय
में, चिंता
में, भूख के पहले
या भूख के अंत
में सतत बोध
रखो।
बहुत
सी बातें
समझने जैसी
है। छींकने
जैसे बहुत सरल
कृत्य भी
उपाय की तरह
काम में लाए
जा सकते है।
क्योंकि वे
कितने ही सरल दिखे,
दरअसल वे बहुत
कठिन और जटिल
होते है। और
जो आंतरिक व्यवस्था
है, वह
बहुत नाजुक
चीज है।
जब भी तुम्हें
लगे कि छींक आ
रही है, सजग हो जाओ।
संभव है कि
सजग होने पर
छींक न आए,
चली जाए। कारण
यह है कि छींक
गैर-स्वैच्छिक
चीज है। अचेतन,गैर-स्वैच्छिक।
तुम स्वेच्छा
से, चाह कर नहीं
छींक सकते हो।
तुम जबरदस्ती
नहीं छींक
सकते हो। चाह
कर कैसे छींक
सकते हो?
मनुष्य
कितना असहाय
है। तुम चाह
कर एक छींक भी
नहीं ला सकते
हो। तुम कितनी
ही चेष्टा
करो। तुम छींक
नहीं ला सकते
हो। एक मामूली
सी छींक भी
तुम चाह कर
नहीं पैदा कर
सकते हो। यह
गैर-स्वेच्छा
से, चाह कर
नहीं आती। यह
तुम्हारे मन
के कारण नहीं
घटित होती। यह
तुम्हारे
समग्र संस्थान
से, समग्र
शरीर से घटित
होती है।
और
दूसरी बात कि
जब तुम छींक
के आने के
पूर्व सजग हो
जाते हो—तुम
उसे ला नहीं
रहे हो। लेकिन
जब वह अपने आप
ही आ रही हो।
तो केवल तुम
सजग हो जाते
हो। तो संभव
है कि वह न आए।
क्योंकि तुम
उसकी
प्रक्रिया
में कुछ नयी
चीज जोड़ रहे
हो। सजगता
जोड़ रहे हो।
वह खो जा सकती
है। लेकिन जब
छींक खो जाती
है। और तुम
सावचेत रहते हो,
तो एक तीसरी
बात घटित होती
है।
पहली
तो बात कि
छींक गैर-स्वैच्छिक
है। तुम उसमें
एक नयी चीज
जोड़ते हो,
सजगता जोड़ते
हो। और जब
सजगता आती है
तो संभव है कि
छींक न आए।
अगर तुम सचमुच
सजग होगे। तो
वह नहीं आएगी।
शायद छींक
एकदम खो जाए।
तब तीसरी बात
घटित होती है।
जो ऊर्जा छींक
की राह से
निकलने वाली
थी वह अब कहां
जाएगी।
वह
ऊर्जा तुम्हारी
सजगता से जुड़
जाती है।
अचानक बिजली
सी कौंधती है,
और तुम ज्यादा
सावचेत हो
जाते हो। जो
ऊर्जा छींक
बनकर बाहर
निकलने जा रही
थे वही ऊर्जा
तुम्हारी
सजगता में
जुड़ जाती है।
और तुम अचानक
अधिक सावचेत
हो जाते हो।
बिजली की उस
कौंध में बुद्धत्व
भी संभव है।
यही
कारण है कि
मैं कहता हूं
कि ये चीजें
इतनी सरल है
कि व्यर्थ
मालूम पड़ती
है। उनके
द्वारा होने
वाली उपलब्धियों
की चर्चा
असंभव सी लगती
है। सिर्फ
छींक के जरिए
कोई बुद्ध
कैसे हो सकता
है? लेकिन छींक
सिर्फ छींक ही
नहीं है;
तुम भी उसमें
पूरी तरह सम्मिलित
हो। तुम जो भी
करते हो या
तुम्हें जो
भी होता है, उसमें तुम
भी पूरी तरह
मौजूद होते
हो। इसे फिर
से देखा,इसका
निरीक्षण करो।
जब भी छींक
आती है तो
उसमें तुम समग्रता:
होते हो—पूरे शरीर
से होते हो, पूरे मन से
होते हो। छींक
सिर्फ तुम्हारी
नाक में ही
घटित नहीं
होती। तुम्हारे
शरीर का
रोआं-रोआं
उसमे सम्मिलित
रहता है। एक
सूक्ष्म
कंपन, एक
सूक्ष्म
सिहरन पूरे
शरीर पर फैल
जाती है। और
उसके साथ पूरा
शरीर एकाग्र
हो जाता है।
और जब छींक तो
सारा शरीर एक
राहत महसूस
करता है। विश्राम
अनुभव करता
है।
लेकिन
छींक के साथ
सजगता रखनी
कठिन है। और
यदि तुम उसमें
सजगता जोड़
दोगे तो छींक
नहीं आएगी। और
यदि छींक आए
तो जानना कि
तुम सजग नहीं
हो।
तो
तुम्हें सजग
रहना पड़ेगा।
‘’छींक
के आरंभ में....।‘’
क्योंकि
छींक यदि आ ही
गयी तो कुछ
नहीं किया जा
सकता है। तीन
यदि चल चुका
तो तुम अब उसे
बदल नहीं सकते
हो। यंत्र
चालू हो गया।
ऊर्जा अब बाहर
जाने के रास्ते
पर है; उसे अब
रोका नहीं जा
सकता है। क्या
तुम छींक को
बीच में रोक
सकते हो। तुम
उसे बीच में
नहीं रोक सकते
हो।
आरंभ
में ही सजग हो
जाओ। जि क्षण
तुम्हें उतैजना
अनुभव हो,
लगे की छींक
आने वाली है।
तभी सावचेत हो
जाओ। अपनी
आंखे बंद कर
लो और ध्यानस्थ
हो जाओ। अपनी
समग्र चेतना
को उस बिंदू
पर ले जाओ
जहां छींक की
उत्तेजना
अनुभव होती
हो। ठीक आरंभ
में ही सजग हो जाओ।
छींक गायब हो
जायेगी। और
चूंकि छींक
में तुम्हारा
सारा शरीर सम्मिलित
है, पूरा
संयंत्र सम्मिलित
है—और तुम उसी
क्षण से सजग
हो—वहां मन
नहीं होगा।
विचार नही
होगा। ध्यान
नहीं होगा।
छींक में
विचार ठहर
जाते है।
यही
कारण है कि
अनेक लोग सुँघनी
पसंद करते
है। यह
उन्हें
निर्भार कर
देता है। उनका
मन ज्यादा
विश्राम पूर्ण
हो जाता है।
क्यों? क्योंकि
क्षण भर के
लिए विचार ठहर
जाते है। सुँघनी
उन्हें
निर्विचार की
एक झलक देती
है। सुँघनी
सूंघने से जो
छींक आती है।
उसमे वह मन नी
रह जाते है।
शरीर ही हो
जाते है। एक क्षण
के लिए सिर
विदा हो जाता
है। और उन्हें
बहुत अच्छा
लगता है।
अगर
तुम सुँघनी के
आदी हो जाओ तो
उसे छोड़ना
बहुत मुश्किल
होता है। यह
धूम्रपान से
भी ज्यादा गहरा
व्यसन है;
धूम्रपान
उसके सामने
कुछ भी नहीं
है। सुँघनी ज्यादा
गहरे जाती है।
क्योंकि
धूम्रपान
सचेतन है और
छींक अचेतन
हे। इसलिए धूम्रपान
छोड़ने से भी
ज्यादा कठिन सुँघनी
छोड़ना है। और
धूम्रपान को
बदलकर कोई
दूसरा व्यसन
ग्रहण किया जा
सकता है।
धूम्रपान के
पर्याय है,
लेकिन सुँघनी
के पर्याय
नहीं है। कारण
यह है कि छींक
सच में शरीर है, धूम्रपान
के पर्याय है।
लेकिन सुँघनी
के पर्याय
नहीं है। कारण
यह है कि छींक
सच में शरीर
की एक अनूठी
घटना है। इसके
जैसी दूसरी चीज
केवल काम कृत्य
है, संभोग
है।
शरीर
शास्त्र की
भाषा में जो
लो सोचते है
वे कहते है, कि
संभोग कमेंद्रिय
द्वारा
छींकने जैसा
ही है। और
दोनों में
समानता है।
यद्यपि यह
शत-प्रतिशत
सही नहीं है।
क्योंकि
संभोग में और
भी बहुत सी
बातें सम्मिलित
है। लेकिर
आरंभ में,सिर्फ
आरंभ में
समानता है।
तुम कुछ चीज
नाक से बाहर
निकलते हो और
राहत महसूस
करते हो। वैसे
ही कुछ चीज कमेंद्रिय
से बाहर निकालते
हो और राहत
अनुभव करते
हो। दोनों ही
कृत्य गैर-स्वैच्छिक
है।
तुम संभोग में
संकल्प के
द्वारा नहीं उतर
सकते हो। अगर
कोशिश करोगे
तो निष्फलता
हाथ आयेगी।
विशेषकर
पुरूष तो जरूर
निष्फल
होगे। क्योंकि
उनकी कमेंद्रिय
को कुछ करना
पड़ता है।
पुरूष की कमेंद्रिय
सक्रिय है।
लेकिन तुम चाह
कर उसे सक्रिय
नहीं कर सकते
हो। तुम जितनी
चेष्टा
करोगे,
उतना ही असंभव
होता जायेगा।
यह अपने आप
होता है। इसे
तुम सचेत होकर
नहीं कर सकते
हो।
यही
कारण है कि
पश्चिम में
संभोग एक समस्या
बन गया है। पिछली
आधी सदी के
दौरान पश्चिम
में काम
संबंधी ज्ञान
बहुत विकसित
हुआ है। और हर
एक आदमी इसके
संबंध में
इतना सचेत है
कि संभोग
अधिकाधिक
असंभव हो रहा
है।
अगर
तुम सचेत हो
तो संभोग
असंभव हो
जाएगा। अगर
कोई व्यक्ति
संभोग के समय
सचेत रहे,
तो वह जितना
सचेत होगा
उतना ही उसके
लिए संभोग
कठिन होगा।
उसकी
जननेंद्रिय
में उत्तेजना
ही नहीं होगी।
उसे प्रयास से
नहीं किया जा
सकता है। और
तुम जितना
अधिक प्रयास
करोगे उतनी ही
मुश्किल हो
जाएगी।
इस
विधि का उपयोग
काम-संभोग में
भी किया जा सकता
है। आरंभ में
हीं, जब तुम्हें
उतैजना आती
मालूम हो,
लेकिन वह अभी
आयी नहीं हो, सिर्फ उसकी
तरंगें मालूम
पड़ती हो। तभी
तुम सावचेत हो
जाओ। तरंगें
खो जायेगी। और
वही ऊर्जा
सजगता में गति
कर जाएगी।
तंत्र
ने इसका उपयोग
किया है।
तंत्र ने इसका
कई ढंग से
उपयोग किया
है। एक सुंदर
नग्न स्त्री
ध्यान के
विषय में रूप
में बैठी होगी।
और साधक उन
नग्न स्त्री
के सामने
बैठकर उसके
शरीर उसके रूप
और अंग-सौष्ठव
पर ध्यान
करेगा। और
अपने
काम-केंद्र पर
उतैजना उठने
की प्रतीक्षा
करेगा। और ज्यों
ही जरा सी उत्तेजना
महसूस होगी।
वह अपनी आंखें
बद कर लेगा। और
उस स्त्री को
भूल जायेगा।
वह साध आंखें
बंद कर लेगा
और उत्तेजना
के प्रति सजग
हो जायेगा। और
तब काम उर्जा
सजगता में
रूपांतरित हो
जाती है। उसे
नग्न स्त्री
पर तभी तक ध्यान
करना है जहां
उत्तेजना
महसूस हो।
उसके बाद उसे
आँख बद कर
अपनी उत्तेजना
पर आ जाना है।
और वहीं सजग
रहना है। ठीक
वैसे ही जैसे
छींक के प्रति
किया जा सकता
है।
और
यह कौंध सी क्यों
घटित होती है?
कारण यह है कि
वहां मन नहीं
है। बुनियादी
बात यह है कि
अगर मन नहीं
है। और
तुम सजग हो, तो सतोरी
घटित होगी;तुम्हें
समाधि की पहली
झलक मिलेगी।
विचार
ही बाधा है।
किसी भी ढंग से
यदि विचार
विलीन हो जाए
तो बात बन
जाती है। लेकिन
सजगता के लिए
विचार का विदा
होना जरूरी
है। विचार नींद
में भी विलीन
हो जाते है।
तुम्हारे मूर्छित
हो जाने पर भी
विचार ठहर
जाते है। इन हालातों
में भी विचार
विदा हो जाता
है। लेकिन तब
विचार के पीछे
जो तत्व छिपा
है उसके प्रति
सजगता नहीं
रहती है। इसलिए मैं
ध्यान को
निर्विचार
चेतना कहता
हूं। तुम
निर्विचार और
मूर्च्छित
एक साथ हो
सकते हो।
लेकिन उसका
कोई मूल्य
नहीं है। और
तुम विचार के
साथ सचेतन भी
हो सकते हो;
वह तुम हो ही।
इन दो चीजों
को, चेतना
और निर्विचार
को इकट्ठा करो; जब वे मिलते
है तो ध्यान
घटित होता है,ध्यान का
जन्म होता
है।
और
तुम इसका
प्रयोग
छोटी-छोटी
चीजों के साथ
भी कर सकते
हो। सच तो यह
है कि कोई भी
चीज छोटी नहीं
है। एक छींक
भी अस्तित्वगत
घटना है। अस्तित्व
में कुछ भी
बड़ा नहीं है,
कुछ भी छोटा
नहीं है। एक
नन्हा सा
परमाणु भी
पूरे जगत को
मिटा सकता है।
और वैसे ही
छींक है। जो
कि अत्यंत
छोटी चीज है।
तुम्हें
रूपांतरित कर
सकती है।
तो
चीजों को छोटी
बड़ी की तरह
मत देखो। न
कुछ बड़ा है
और न कुछ
छोटा। अगर
तुम्हारे
पास गहरे
देखने की दृष्टि
है तो बहुत छोटी
चीजें भी महत्वपूर्ण
हो सकती है।
परमाणुओं के बीच में
ब्रह्मांड
छिपे है। और
तुम नहीं कह
सकते हो कि
परमाणु और
बह्मांड़ में
कौन बड़ा है।
और कौन छोटा
है। एक अकेला
परमाणु अपने
आप में ब्रह्मांड
है, और बड़े से
बड़ा
बह्मांड़ भी
परमाणुओं के
अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
है।
‘’छींक
के आरंभ में, भय में......।‘’
जब
तुम भयभीत
अनुभव करते हो
और भय प्रवेश
करता है, जब
तुम भय को
प्रवेश करते
देखो, ठीक
उसी क्षण सजग
हो जाओ। और भय
विलीन हो जाएगा।
बोध के साथ भय
नहीं रह सकता
है। जब तुम
सावचेत हो तो
भय भीत कैसे
हो सकते?
तुम तभी भयभीत
होते हो जब
होश खो देते हो।
सच में कायर
वह नह है जो
डरा हुआ है; कायर वह है
जो सोया हुआ
है। और बहादुर
वह है जो भय के
क्षणों में
बोध को जगा
लेता है। और
तब भय विदा हो
जाता है।
जापान
में वे योद्धा
ओर को सजगता
का प्रशिक्षण
देते है। उनका
बुनियादी
प्रशिक्षण
सजगता है। शेष
सब चीजें गौण
है। तलवार
चलाना, तीर
चलाना, सब
गौण है।
झेन
सदगुरू रिंझाई
के संबंध में
कहा जाता है
कि वह कभी भी
तीर चलाने में,
तीन को ठीक
निशाने पर
मारने में सफल
नहीं हुआ।
उनका तीर सदा
ही चूकता रहा।
और वह महान
धनुर्विद
माने जाते थे।
तो
पूछा जाता है
कि रिंझाई
सबसे महान धनुर्विद
कैसे कहलाए।
जब कि वे कभी
लक्ष्य पर
नहीं पहुंचे
और सदा निशाना
चूकते रहे।
रिंझाई को
मानने वाले
कहते है: ‘’अंत
नहीं आरंभ
महत्वपूर्ण
है। हम इसमे उत्सुक
नहीं है कि
तीर लक्ष्य
पर पहुंच जाए।
हम उसमें उत्सुक
है जहां से
तीन अपनी
यात्रा शुरू
करता है। हम
रिंझाई में
उत्सुक है।
जब तीन धनुष
से निकलता है
तो वे सजग है; बस पर्याप्त
है। परिणाम से
कोई लेना-देना
नहीं है।‘’
यह
सूत्र कहता
है: ‘’भय में
चिंता में.....।‘’
जब
तुम चिंता
अनुभव करो,
बहुत
चिंताग्रस्त
होओ। तब इस विधि
का प्रयोग
करो। इसके लिए
क्या करना
होगा? जब
साधारणत: तुम्हें
चिंता घेरती
है। तब तुम क्या
करते हो?
सामान्यत: क्या
करते हो?
तुम उसका हल ढूंढते
हो; तुम
उसके उपाय
ढूंढते हो।
लेकिन ऐसा
करके तुम और
भी
चिंताग्रस्त
हो जाते हो, तुम उपद्रव
को बढ़ा लेते
हो। क्योंकि
विचार से
चिंता का समाधान
नहीं हो सकता।
विचार के
द्वारा उसका
विसर्जन नहीं
हो सकता। कारण
यह है कि
विचार खुद एक
तरह कि चिंता
है। विचार
करके दलदल और
भी धँसते
जाओगे। यह
विधि कहती है।
कि चिंता के
साथ कुछ मत
करो;सिर्फ
सजग होओ। बस
सावचेत रहो। मैं
तुम्हें एक
दूसरे झेन
सदगुरू
बोकोजू के
संबंध मे एक
पुरानी कहानी
सुनाता हूं।
वह एक गुफा
में अकेला रहता
था। बिलकुल
अकेला लेकिन
दिन में या
कभी-कभी रात
में भी, वह
जोरों से कहता
था, ‘’बोकोजू।‘’ यह उसका
अपना नाम था
और फिर वह खुद
कहता, ‘’हां
महोदय, मैं
मौजूद हूं।‘’ और वहां कोई
दूसरा नहीं
होता था। उसके
शिष्य उससे
पूछते थे, ‘’क्यों आप
अपना ही नाम
पुकारते हो।
और फिर खुद कहते
हो, हां
मौजूद हूं?
बोकोजू
ने कहा, जब भी
मैं विचार में
डूबने लगता
है। तो मुझे सजग
होना पड़ता
है। और इसीलिए
मैं अपना नाम
पुकारता है।
बोकोजू। जिस
क्षण मैं
बोकोजू कहता
हूं,और
कहता हूं कि
हां महाशय,
मैं मौजूद हूं, उसी क्षण
विचारण,
चिंता विलीन
हो जाती है।
फिर
अपने अंतिम
दिनों में,
आखरी दो-तीन
वर्षों में
उसके कभी अपना
नाम नहीं
पुकारा, और
न ही यह कहा कि
हां, मैं
मौजूद हूं। तो
शिष्यों ने
पूछा,
गुरूदेव,
अब आप ऐसा क्यों
करते है।
बोकोजू ने
कहा: ‘’ अब
बोकोजू सदा
मौजूद रहता
है। वह सदा ही
मौजूद है।
इसलिए
पुकारने की
जरूरत रही।
पहले मैं खो
जाया करता था।
और चिंता मुझे
दबा लेती थी।
आच्छादित कर
लेती थी।
बोकोजू वहां
नहीं होता था।
तो मुझे उसे
स्मरण करना
पड़ता था। और
स्मरण करते
ही चिंता विदा
हो जाती है।
इसे
प्रयोग करो।
बहुत सुंदर
विधि है। अपने
नाम का ही
प्रयोग करो। जब
भी तुम्हें
गहन चिंता
पकड़े तो अपना
ही नाम पुकारों—बोकोजू
या और कुछ,
लेकिन अपना ही
नाम हो—और फिर
खुद ही कहो कि
हां महोदय,
मैं मौजूद हूं।
और तब देखो कि
क्या फर्क
है। चिंता नही रहेगी।
कम से कम एक
क्षण के लिए
तुम्हें
बादलों के पार
की एक झलक
मिलेगी। और
फिर वह झलक
गहराई जा सकती
है1 तुम एक बार
जान गए कि सजग
होने पर चिंता
नहीं रहती।
विलीन हो जाती
है। तो तुम स्वयं
के संबंध में, अपनी
आंतरिक व्यवस्था
के संबंध में
गहन बोध को
उपलब्ध हो
गए।
‘’खाई-खड्ड
के कगार पर, युद्ध से
भागने पर,
अत्यंत
कुतूहल में, भूख के आरंभ
में और भूख के अंत
में। सतत बोध
रखो।‘’
किसी
भी चीज का
उपयोग कर सकते
हो। भूख लगी
है, सजग हो जाओ।
जब तुम्हें
भूख महसूस
होती है। तो
तुम क्या
करते हो। तुम्हें
क्या होता है? जब तुम्हें
भूख लगती है तो तुम
उसे कभी ऐसे
नहीं देखते कि
तुम्हें कुछ
हो रहा है;
तुम भूख ही हो
जाते हो। तब
तुम समझते हो
कि मैं भूख
हूं। ऐसा ही
लगता है कि
मैं भूख हूं।
लेकिन तुम भूख
नहीं हो। तुम्हें
सिर्फ भूख का
बोध होता है।
भूख कहीं परिधि
पर घटित होती
है। और
तुम केंद्र
हो; तुम्हें
भूख घटित हो
रही है। तुम
तब भी थे जब
भूख नहीं थी।
और तुम जब भी
रहोगे जब भूख
नहीं होगी। भूख
एक घटना है; वह तुम्हें
घटित हो रही
है।
उसके
प्रति सजग
होओ। तब तुम
भूख से तादात्म्य
नहीं करोगे।
अगर तुम्हें
भूख लगी है तो
उसके प्रति
सजग होओ। भूख
उतनी ही तुम्हें
दूर मालूम
पड़ेगी। और
जितनी सजगता
कम होगी भूख
उतनी ही पास
मालूम पड़ेगी।
और अगर तुम
बिलकुल सजग
नहीं हो तो
तुम ठीक
केंद्र पर
अनुभव करोगे
कि मैं भूख
हूं। सजग होते
ही भूख तुम से
दूर हट जाती है।
भूख वहां है
और तुम वहां
हो। भूख विषय
है; तुम साक्षी
हो।
इसी
विधि के लिए
उपवास का
प्रयोग किया
जा सकता है।
और जैन सिर्फ
उपवास कर रहे
है, इस विधि के
बिना ही उपवास
कर रहे है। तब यह
मूढ़ता है। तब
तुम सिर्फ भूखे
मर रहे हो। और इससे
कोई लाभ नहीं मिल
सकता है। तुम महीनों
भूखे रह सकते
हो। और भूख से जुड़े
रह सकते हो। कि
मैं भूख हूं। तब
वह व्यर्थ है, हानिकर है।
उपवास
करने की कोई जरूरत
नहीं है। तुम रोज
ही भूख को अनुभव
कर सकते हो। लेकिन
कठिनाइयां है।
और इसीलिए उपवास
उपयोगी हो सकता
है। सामान्यत:
हम भूख लगने के
पहले ही अपने को
भोजन से भर लेते
है। आधुनिक संसार
मे भूख लगने की
जरूरत ही नहीं
पड़ती है। तुम्हारे
भोजन के समय निश्चित
है। और तुम भोजन
कर लेते हो। तुम
कभी नहीं पूछते
कि शरीर को भूख
लगी है। या नहीं; निश्चित
समय पर तुम भोजन
कर लेते हो। नहीं
तुम कहोगे की जब
एक बजता है तो मुझे
भूख लग जाती है।
वह झूठी भख हो सकती
है। वह इसलिए लगती
है क्योंकि यह
तुम्हारे खाने
का समय है, एक
बजा है। किसी
दिन एक खेल करो; अपनी पत्नी
या अपने पति को
कहो कि घड़ी का
समय बदल दे। अभी
बाहर बजा है और
घड़ी एक का समय
बता रही है। तुम्हें
तुरंत भूख लग जाती
है। तुम्हें घड़ी
देख कर भूख लगती
है। यह कृत्रिम
भूख है। झूठी भूख
है; यह भूख सच्ची
नहीं है।
इसीलिए
उपवास सहयोगी हो
सकता है। अगर
तुम उपवास करोगे
तो दो तीन दिन तक
झूठी भूख मालूम
होगी। तीसरे या
चौथे दिन के बाद
ही सच्ची भूख
का पता चलेगा।
तब वह मांग तुम्हारे
शरीर की होगी।
मन की नहीं। जग
मन मांग करता
है। तो वह झूठी
मांग है, शरीर की
मांग ही सच्ची
होती है। और जब
तुम सच्ची भूख
के प्रति सजग
होते हो तो अपने
शरीर से सर्वथा
भिन्न हो जाते
हो। भूख एक शारीरिक
घटना है। और जब
एक बार तुम जान
लेते हो कि भूख
मुझसे भिन्न है, मैं उसका साक्षी
हूं, तो तुम
शरीर के पार चले
गए।
लेकिन
तुम किसी भी चीज
का उपयोग कर सकते
हो। ये तो उदाहरण
मात्र है। यह विधि
अनेक ढंगों से
प्रयोग में लाई
जा सकती है। तुम
अपना अलग ढंग भी
निर्मित कर सकते
हो। लेकिन किसी
एक ही चीज पर सतत
प्रयोग करते रहो।
अगर तुम भूख
के साथ प्रयोग
कर रह हो तो कम से
कम तीन महीने तक
भूख के साथ प्रयोग
करो। तो ही तुम
किसी दिन शरीर
से तादात्म्य
तोड़ सकेत हो।
रोज-रोज विधि मत
बदलों, क्योंकि
विधि का गहरे जाना
जरूरी है। तीन
महीने के लिए
किसी विधि को चुन
लो और उससे लगन
से लगे रहो। विधि
का प्रयोग करो; और प्रयोग जारी
रखो।
और
सदा स्मरण रखो
कि आरंभ में बोधपूर्ण
होना है। बीच में
बोधपूर्ण होना
बहुत कठिन होगा।
क्योंकि इस तादात्म्य
के स्थापित होते
ही कि मैं भूखा
हूं। तुम उसे फिरा
बदल नहीं सकोगे।
मन के तल पर तुम
बदलाहट कर सकत
हो, तुम कह सकते हो
कि नहीं , मैं
भूख नहीं हूं, साक्षी हूं।
लेकिन वह झूठ होगा।
वह मन ही बोल रहा
है। वह तुम्हारे
प्राण नहीं बोल
रहे हे। और यह भी
स्मरण रहे कि
तुम्हें यह कहना
नहीं है कि मैं
भूख नहीं हूं।
यह भी मन का धोखा
देने का ढंग है।
तुम कह सकते हो:
‘’भूख है, लेकिन मैं भूखा
नहीं हूं। मैं
शरीर नहीं हूं।
मैं ब्रह्म हूं।‘’
तुम्हें
कुछ भी कहना नहीं
है। तुम जो भी कहोगे
गलत होगा। क्योंकि
तुम गलत हो। यह
दोहराना कि मैं
शरीर हूं। किसी
काम का नह है। तुम
कहते रहो कि मैं
शरीर हूं, क्योंकि
तुम जानते हो कि
मैं शरीर हूं।
किसी काम का नहीं
है। अगर तुम सच
ही जानते हो कि
मैं शरीर नहीं
हूं, तो यह
कहने की क्या
जरूरत है। कोई
जरूरत नहीं है, यह मूढ़ता मालूम
होगी। बोधपूर्ण
होओ,और तब उस
बोध में यह भाव
प्रगाढ़ होगा
कि मैं शरीर नहीं
हूं। यह विचार
नहीं होगा,
भाव होगा। यह
तुम्हारे सिर
की नहीं, तुम्हारे
पूरे प्राणों
की अनुभूति होगी।
तुम दूरी महसूस
करोगे। कि शरीर
बहुत दूर है। और
मैं उससे बिलकुल
भिन्न हूं। और
दोनों के मिश्रण
की संभावना भी
नहीं है। तुम दोनों
को मिला नह सकते
हो। शरीर-शरीर
है, पदार्थ
है; और तुम चैतन्य
हो। वे दोनों साथ
रह सकते है1 लेकिन
एक दूसरे में घुल
मिल नहीं सकते
है। उनका मिश्रण
नहीं हो सकता है।
ओशो
विज्ञान
भैरव
तंत्र,
भाग-तीन
प्रवचन-41
OSHO TUMEHEN NAMAN ! Tumhari Karuna Apar hai ....
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