‘’जहां
कहीं
तुम्हारा
मन भटकता है, भीतर या
बाहर,
उसी स्थान पर, यह।‘’
मन एक द्वार
है—यही मन
जहां कही भी
भटकता है, जो
कुछ भी सोचता
है। मनन करता
है। सपने
देखता है। यही
मन और यही क्षण
द्वार है।
यही एक अति
क्रांतिकारी
विधि है, क्योंकि
हम कभी नहीं
सोचते कि
साधारण मन
द्वार है। हम
सोचते है कि
कोई महान मन,
कोई बुद्ध या
जीसस का मन
प्रवेश कर
सकता है। हम
सोचते है कि
बुद्ध या जीसस
के पास कोई
असाधारण मन
है। और यह
सूत्र कहता है
कि तुम्हारा
साधारण मन ही
द्वार है। यही
मन जो सपने देखता
है। कल्पनाएं
करता है।
ऊलजलूल
सोच-विचार
करता है। यही
मन द्वार है
जो कुरूप
कामनाओं और
वासनाओं से क्रोध
और लोभ से
खचाखच भरा है।
जिसमें यह सब
है जो निंदित
है। जो तुम्हारे
बस के बाहर
है। जो तुम्हें
यहां सक वहां
भटकाता रहता
है। जो सतत एक
पागलखाना है।
यही मन द्वार
है।
‘’जहां कहीं
तुम्हारा मन
भटकता है.....।‘’
इस जहां
कहीं को स्मरण
रखो। भटकने का
विषय महत्वपूर्ण
नहीं है।
जहां कहीं
तुम्हारा मन
भटकता है।
भीतर या बाहर,
उसी स्थान पर,
यह।‘’
बहुत सी
बातें समझने
जैसी है। एक
कि साधारण मन
उतना साधारण
नहीं है जितना
हम समझते है।
साधारण मन
जागतिक मन से
असंबद्ध नहीं
है। वह उसका
ही अंश है।
उसकी जड़ें
अस्तित्व
के केंद्र तक
चली गई है।
अन्यथा तुम अस्तित्व
में नहीं हो
सकते हो। एक
पापी भी
परमात्मा
में आधारित है;
अन्यथा यह
अस्तित्व
में नहीं हो
सकता था। वह
जो शैतान है ह
भी परमात्मा
के सहारे के
बिना नहीं हो
सकता है। अस्तित्व
ही इसलिए संभव
है। क्योंकि
वह परमात्मा
में प्रतिष्ठित
है।
तुम्हारा
मन स्वप्न
देखता है। कल्पना
करता है, भटकता है; वह
तनावग्रस्त
है,
दुःखी है।
संताप में है।
वह जैसे भी
गति करता है,
जहां भी जाता
है, वह
समग्र से
जुड़ा रहता
है। अन्यथा
संभव नहीं है।
तुम अस्तित्व
से भाग नहीं
सकते। वह
असंभव है। इसी
क्षण तुम्हारे
जड़ें अस्तित्व
में गड़ी है।
तब क्या किया
जाएं?
अगर इसी
क्षण हमारी
जड़ें अस्तित्व
में गड़ी है
तो अहंकारी मन
को लगेगा कि
फिर तो कुछ
कना नहीं है।
हम तो परमात्मा
में ही है।
फिर इतनी आपा
धापी की क्या
जरूरत है।
तुम्हारी
जड़ें तो
परमात्मा
में है। लेकिन
तुम इस तथ्य
के प्रति
मूर्छित हो। जब मन
भटकता है तो
दो चीजें होती
है: मन और
भटकाव;मन
के विषय और मन;
आकाश में तैरते
बादल और आकाश।
वहां दो चीजें
है: बादल और
आकाश। कभी ऐसा
भी हो सकता है।
कि बादल इतने
हो जाते है कि
आकाश छिप जाता
है। तुम उसे
देख नहीं सकते
हो।
लेकिन
जब तुम नहीं
देख पाते हो
तब भी आकाश
विलीन नहीं
होता है। वह
विलीन नहीं हो
सकता है। आकाश
के विलीन होने
का कोई उपाय
नहीं है। वह
है; आच्छादित
या प्रकट, दृश्य
आ अदृश्य है।
अगर तुम
बादलों पर ही
ध्यान देते
हो तो आकाश
भूल जाता है।
और अगर तुम आकाश
पर ध्यान
देते हो तो
बादल गौण हो
जाते है। वे
आते और जाते
है, तुम्हें
बादलों की
बहुत चिंता
लेने की जरूरत
नहीं लेनी
चाहिए। वे आते
जाते रहते है।
तुम्हें पता
होना चाहिए की
इन बादलों ने
रति भर भी
आकाश को नष्ट
नहीं किया है।
उन्होंने
आकाश को गंदा
भी नहीं
किया है। उन्होंने
उसका स्पर्श
भी नहीं
किया है।
आकाश तो सदा
कुंआरा है।
जब
तुम्हारा मन
भटकता है तो
दो चीजें होती
है। एक तो बादल
है, विचार है, विषय है,
बिंब है। और
दूसरी चेतना
है, खुद मन
है। जब तुम
बादलों पर
विचारों पर, बिंबों पर
बहुत ध्यान
देते हो तो
तुम आकाश को
भूल जाते हो।
तब तुम मेजबान
को भूल गए और
मेहमान में ही
बुरी तरह से
उलझ गये। वे
विचार, वे
बिंब, जो
भटक रहे है।
केवल मेहमान
है। अगर तुम
मेहमानों पर
सब ध्यान लगा
देते हो तो
तुम अपनी आत्मा
ही भूल बैठे।
अपने
ध्यान को
मेहमानों से
हटाकर मेजबान
पर लगाओ;
बादलों से
हटाकर आकाश पर
केंद्रित
करो। और इसे
व्यावहारिक
ढंग से करो।
कामवासना
उठती है। वह बादल
है। या बड़ा
घर पाने को
लोभ पैदा होता
है। यह भी
बादल है। तुम
इससे इतने
ग्रस्त हो जा
सकते हो कि
तुम भूल ही
जाओ कि यह किस
में उठ रहा
है। यह किसी
को घटित हो
रहा है। कौन इसके
पीछे है। किस
आकाश में यह
बादल उठ रहे
है। उस आकाश को
स्मरण करो; और अचानक
बादल विदा हो
जाएगा। सिर्फ
बदलने की
जरूरत है। परिप्रेक्ष्य
बदलने की
जरूरत है।
दृष्टि को
विषय से विषयी
पर, बाहर
से भीतर पर, बादल से
आकाश पर,
अतिथि से
आतिथेय पर ले
जाने की जरूरत
है। सिर्फ
दृष्टि को
बदलना है।
फोकस को बदलना
है।
एक
झेन सदगुरू
लिंची प्रवचन
कर रहा था।
भीड़ में से
किसी ने कहा:
मेरे एक प्रश्न
का उत्तर दें,
मैं कौन हूं?
लिंची ने
बोलना बंद कर
दिया। सब लोग
चौकन्ने हो
गए। लिंची क्या
उत्तर देने
जा रहा है। सब
यही सोच रहे
थे। लेकिन उसने
कोई उत्तर
नहीं दिया। वह
कुर्सी से
नीचे उतरा,
आगे बढ़ा और
उस आदमी के
पास पहुंचा।
पूरी भीड़
चकित और सजग
हो उठी। लोगों
की श्वासें तक
रूक गई। लिंची
क्या करने जा
रहा है। उसे
कुर्सी पर
बैठे-बैठे ही
जवाब देना था;
कुर्सी से
उठने की क्या
जरूरत थी? और
प्रश्नकर्ता
तो बहुत भयभीत
हो गया। लिंची
अपनी बेधक
दृष्टि उस व्यक्ति
पर जमाए पास
आया। उसने उस
आदमी का गला
पकड़ लिया,
उसे झकझोरा और
कहा;
आंखे बंद
करो और उसका
स्मरण करो जो
यह प्रश्न
पूछ रहा है।
उस आदमी ने
आंखें बंद की—हांलाकि
डरते-डरते। वह
अपने भीतर
खोजने गया कि
किसने यह
प्रश्न पूछा
था। और वह
वापस नहीं
आया। भीड़
प्रतीक्षा
करती रही।
प्रतीक्षा
करती रही,उस आदमी
का चेहरा मौन
और शांत हो
गया।
तब लिंची ने
उसे फिर
झकझोरा: ‘’अब
बहार आओ,
और सब को बताओ
कि तुम कौन
हो। वह आदमी
हंसने लगा और
कहा:
जवाब देने का
आपका खूब
अद्भुत ढंग
है। लेकिन यदि
कोई व्यक्ति
अभी मुझसे यही
पूछे तो मैं
भी वह भी वहीं
करूंगा। ‘’मैं
उत्तर नहीं दे सकता।‘’
यह
दृष्टि की,
परिप्रेक्ष्य की
बदलाहट थी।
तुम पूछते हो
कि मैं कौन हूं।
और तुम्हारा
मन प्रश्न पर
केंद्रित है, जब कि उत्तर
प्रश्न के
ठीक पीछे
प्रश्न
कर्ता में
छिपा है। दृष्टि
को बदलों;
अपने पर लौट
आओ।
यह
सूत्र कहता
है: ‘’जहां-जहां
तुम्हारा मन भटकता
है, भीतर
या बाहर,
उसी स्थान पर
यह।‘’
तुम
सोचते हो कि
बादल मेरी
संपदा है। तुम
सोचते हो कि
जितनी ज्यादा
बादल होंगे,
मैं उतना ही
बेहतर,
उतना ही ज्यादा
समृद्ध हो जाऊँगा। और तुम्हारा
सारा आकाश
सारा आंतरिक
आकाश उनसे
आच्छादित है, ढंका है। एक
अर्थ में,
बादलों में
आकाश खो गया
है। और बादल
ही तुम्हारा
जीवन है। और
बादलों का
जीवन ही संसार
है।
यह
बात एक क्षण
में घट सकती
है। यह दृष्टि
सदा अचानक ही
घटती है। में
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम कुछ भी मत
करो और अचानक
घटेगी। तुम्हें
बहुत कुछ करना
होगा। लेकिन
यह क्रमिक ढंग
से नहीं
घटता। तुम्हें
बहुत कुछ करना
होगा। तब
करते-करते एक
दिन वह क्षण
आता है जब तुम
भाप बनने के
सही तापमान पर
पहुंच जाते
हो। अचानक
पानी-पानी नहीं
रहता है; वह
भाप बन गया।
अचानक तुम
विषय से बाहर
हो गए।
तुम्हारी
आंखें अब
बादलों पर
नहीं अटकती
है। अब अचानक
तुम आंतरिक
आकाश की तरफ
भीतर मुड़
जाते हो।
ऐस
कभी क्रमिक
रूप से नहीं
होता। तुम्हारी
आँख का एक अंश
भी तर की और
मुड़ जाता है
और उसका दूसरा
अंश बाहर
बादलों पर लगा
रहता है। नहीं,
यह अंशों में
नहीं घटित
होता। कि तुम
अस दस प्रतिशत
भीतर हो और
नब्बे
प्रतिशत बाहर, कि बीस
प्रतिशत भीतर
हो और अस्सी
प्रतिशत
बाहर। नहीं जब
यह घटित होता
है तो शत
प्रतिशत होता
है। क्योंकि
तुम अपनी दृष्टि
को खंड-खंड
नहीं कर सकते
हो। या तो तुम
विषयों को
देखते हो या
अपने को;
या तो संसार
को या ब्रह्म
को।
फिर
तुम संसार में
वापस आ सकते
हो। तुम फिर
अपनी दृष्टि
बदल सकते हो।
अब तुम मालिक
हो। सच तो यह
है कि तुम तभी
मालिक होते हो
जब स्वेच्छा
से अपनी दृष्टि
बदल सकते हो।
मुझे
एक तिब्बती
संत मारपा का
स्मरण आता
है। जब वह
ज्ञान को
उपलब्ध हुआ—(जब
वह बुद्ध हुआ,
जब वह अंतस की
और मुड़ गया, जब उसने
अंतराकाश का, अनंत का
साक्षात्कार
किया—तो किसी
ने उससे पूछा:
मारपा अब कैसे
हो? तो मारपा ने
अत्तर दिया
वह अपूर्व है,
अप्रत्याशित
है। अब तक
किसी बुद्ध ने
वैसा उत्तर
नहीं दिया था।
मारपा ने कहा:
पहले जैसा ही
दुःखी।
वह आदमी तो
भौचक्का रह
गया;
उसने पूछा:
पहले जैसा ही
दुखी? लेकिन
मारपा हंसा,
उसने कहा: हां,
लेकिन एक फर्क
के साथ। और
फर्क यह है कि
अब मेरा दुःख
स्वैच्छिक
है। अब मैं
कभी-कभी बस
संसार का स्वाद
लेने के लिए
अपने से बहार
लौट सकता हूं।
लेकिन मैं
मालिक हूं।
मैं किसी भी
क्षण भीतर लौट
सकता हूं। और
दोनों
ध्रुवों के
बीच गति कर
सकता हूं। तभी
कोई जीवित रह
सकता है। कभी
में दुखों में
लौट सकता हूं,
लेकिन अब दुख
मुझे नहीं
घटित होते है,
मैं ही उन्हें
घटित होता
हूं। और मैं
उनसे अछूता रह
सकता हूं।
निश्चित
ही, जब
तुम स्वेच्छा
से गति करते
हो एक बार
तुमने जान
लिया कि दृष्टि
को अंतर्मुखी
कैसे किया जाए,तुम
संसार में
वापस आ सकते
हो। सभी बुद्ध
पुरूष संसार
में वापस आए
है। वे दृष्टि
को फिर संसार
में ले जाते
है। लेकिन अब
आंतरिक मनुष्य
की गुणवता
भिन्न है। वह
जानता है कि
यह उसकी स्वतंत्र
दृष्टि है;
वह बादलों को
भी गति करने
की इजाजत दे
सकता है। अब
बादल मालिक न
रहे। वे तुम
पर हावी नहीं
हो सकते है।
वे अब तुम्हारी
मर्जी से
घूमते है।
और
यह सुंदर है।
कभी-कभी
बादलों से भरा
आकाश सुंदर
होता है।
बादलों की
हलचल सुंदर
होती है। अगर
आकाश-आकाश बना
रहे तो बादलों
को तैरने दिया
जा सकता है।
समस्या तो तब
खड़ी होती है।
जब आकाश अपने
को भूल जाता
है। और वहां बादल
ही बादल रह
जाते है। तब
सब कुछ कुरूप
हो जाता है।
क्योंकि स्वतंत्रता
खो गई।
यह
सूत्र सुंदर
है: ‘’जहां कहीं
तुम्हारा मन
भटकता है,
भीतर या बाहर, उसी स्थान
पर, यह।‘’
झेन
परंपरा में इस
सूत्र का गहरा
उपयोग हुआ है।
झेन कहते है
कि साधारण मन
ही बुद्ध-मन
है। भोजन करते
हुए तुम बुद्ध
हो; सोते हुए
तुम बुद्ध हो।
कुएं से पानी
ले जाते हुए
तुम बुद्ध हो।
तुम हो,
कुएं से पानी
ले जाते हुए।
भोजन करते
हुए। विस्तर
पर लेटे हुए
तुम बुद्ध
हो। यह
पहेली जैसा
लगता है।
लेकिन यह सच
है। अगर पानी
ढोते हुए तुम
सिर्फ पानी
ढोते हो। तुम
उसे समस्या
नहीं बनाते और
सिर्फ पानी
ढोते हो। अगर
तुम्हारा मन
बादलों से
मुक्त है। और
आकाश खाली है।
अगर तुम केवल
पानी ढोते हो, तो तुम
बुद्ध हो। तब
भोजन करते हुए
तुम सिर्फ
भोजन करते हो
और कुछ नहीं
करते।
लेकिन
हम जब भोजन
करते है तो
उसके साथ
हजारों चीजें
करते-रहते है।
हो सकता है
तुम्हारा मन
भोजन में
बिलकुल न हो;
तुम्हारा
शरीर यंत्र की
भाती भोजन कर
रहा हो। तुम्हारा
मन कहीं और हो
सकता है।
किसी
विश्वविद्यालय
का एक छात्र
कुछ दिन पहले
आया था। उसकी
परीक्षा करीब
थी। इसलिए वह
कुछ पूछने आया
था। उसने कहा:
में बहुत उलझन
में हूं। समस्या
यह है कि मैं
एक लड़की के
प्रेम में पड़
गया हूं। तो
परीक्षा की
सोचता रहता
हूं और जब
पढ़ता रहता
हूं तो लड़की
के विषय में
सोचता रहता
हूं। पढ़ते
समय मैं वहां
नहीं होता।
मैं कल्पना
में अपनी
प्रेमिका के
साथ होता हूं।
और जब
प्रेमिका के
साथ होता हूं
तो कभी उसके
साथ नहीं होता
हूं। मैं अपनी
समस्याओं के
बारे में,
नजदीक आती परीक्षा
के बारे में
चिंता करता
रहता हूं।
नतीजा यह है
किसब कुछ गुड-मुड़
हो गया है।
यह
लड़का ही नहीं
ऐसे ही हर कोई
गुड़-मुड़ है।
जब तुम दफ्तर
जाते हो तो
तुम्हारा मन
घर में होता
है। तुम जब घर
में होते हो तो
तुम्हारा मन
दफ्तर में
होता है। और
तुम ऐसा जादुई
करिश्मा कर
नहीं सकते;घर
में होकर तुम
घर में ही हो
सकते हो,
दफ्तर में
नहीं हो सकते।
और अगर तुम
दफ्तर में हो
तो तुम्हारा
दिमाग ठीक
नहीं है,
तुम पागल हो।
तब हर चीज
दूसरी चीज में
उलझ जाती है।
गुत्थमगुत्था
हो जाती है।
तब कुछ भी स्पष्ट
नहीं है। और
यही मन समस्या
है।
कुएं
से पानी
खींचते हुए,
कुएं से पानी
ढोते हुए तुम
अगर मात्र यही
काम कर रहे हो
तो तुम बुद्ध
हो। अगर तुम
झेन सदगुरूओं
के पास जाओ और
उसने पूछो कि
आप क्या करते
है? आपकी साधना
क्या है? ध्यान
क्या है? तो
वे कहेंगे: जब
नींद आती है
तो हम सो जाते
है। जब भूख
लगती है तो हम
भोजन करते है।
बस यही हमारी
साधना है और
कोई साधना
नहीं है।
लेकिन यह बहुत
कठिन है।
हालांकि आसान
मालूम होती
है। अगर भोजन
करते हुए तुम
सिर्फ भोजन करो,अगर
बैठे हुए तुम
सिर्फ बैठो और
कुछ न करो। कोई
विचार न हो,
अगर तुम
वर्तमान क्षण
के साथ रह सको,उससे हटो
नहीं,अगर तुम
वर्तमान क्षण
में डूब सको,न कोई अतीत
हो, न कोई
भविष्य हो, अगर
वर्तमान क्षण
ही एकमात्र
अस्तित्व
हो, तो तुम
बुद्ध हो। तब
यही मन बुद्ध
मन बन जाता है।
तो
जब तुम्हारा
मन भटकता है
तो उसे रोकने
की चेष्टा मत
करो, बल्कि आकाश
को स्मरण
करो। जब मन भटकता
है तो उसे
रोको मत। उसे
किसी बिंदु पर
लाने की,
एकाग्र करने
की चेष्टा मत
करो। नहीं,
उसे भटकने दो।
लेकिन भटकाव
पर बहुत अवधान
मत दो—न पक्ष में,ने विपक्ष
में, क्योंकि
तुम चाहे उसके
पक्ष में रहो
या विपक्ष में, तुम उससे
बंधे रहते हो।
आकाश को स्मरण
करो। भटकन को
चलने दो। और
इतना ही कहो; ठीक है,
पर चलती हुई
राह है;
अनेक लोग
इधर-उधर चले
जा रहे है। मन
एक चलती हुई
राह है। मैं आकाश
हूं बादल नहीं
।
इसी
स्मरण को याद
रखो। इस भाव
में उतरो ; इसमें
ही स्थिर
रहो। देर अबेर
तुम देखोगें
कि बादलों की
गति बंद पड़
गई है। बादलों
के बीच में
अंतराल आने
लगा है। वे अब
उतने घने नहीं
रहे है। उनकी
गति मंद पड़
गई है। उनके
पीछे का आकाश
दिखाई पड़ने लगा
है। अपने को आकाश
की भांति अनुभव
करते रहो;
बादलों की
भांति नहीं।
देर-अबेर किसी
दिन, किसी
सम्यक क्षण
में,जब
तुम्हारी
दृष्टि
सचमुच भीतर
लौट गई है।
बादल विलीन हो
जाएंगे। और तब
तुम शुद्ध
आकाश हो,
सदा से शुद्ध,सदा से अस्पर्शित
आकाश हो।
और
एक बार तुमने
इस कुंआरी पन
को जान लिया
तो फिर बादलों
में, बादलों के
संसार में
वापस आ सकते हो।
तब संसार का
अपना ही
सौदर्य है,
तब तुम इसमे
रह सकते हो।
लेकिन अब तुम
मालिक हो।
संसार
बुरा नहीं है।
मालिक की तरह
संसार समस्या
नहीं है। जब
तुम ही मालिक
हो तो तुम
उसमें रह सकते
हो। तब संसार का
अपना ही सौदर्य
है; वह सुंदर है।
प्यारा है। लेकिन
तुम उसे सौंदर्य
को, उस माधुर्य
को अपने भीतर मलिक
होकर ही जान सकते
हो।
ओशो
विज्ञान
भैरव
तंत्र,
भाग-तीन
प्रवचन-39
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