आत्म-स्मरण
की दूसरी विधि--
‘’जहां-जहां,
जिस किसी कृत्य
में संतोष
मिलता हो, उसे
वास्तविक
करो।‘’
तुम्हें
प्यास लगी है,
तुम पानी पीते
हो, उससे एक
सूक्ष्म
संतोष प्राप्त
होता है। पानी
को भूल जाओ।
प्यास को भी
भूल जाओ और जो
सूक्ष्म
संतोष अनुभव
हो रहा है
उसके साथ रहो।
उस संतोष से
भर जाओ, बस
संतुष्ट
अनुभव करो।
लेकिन
मनुष्य का मन
बहुत उपद्रवी
है। वह केवल
असंतोष और अतृप्ति
अनुभव करता
है। वह कभी
संतोष को
अनुभव नहीं
करता। अगर तुम
असंतुष्ट हो
तो तुम उसे
अनुभव करोगे
और अंसतोष से
भर जाओगे।
जब
तुम प्यासे
हो तो तुम्हें
प्यास अनुभव
होती है। तुम्हारा
गला सूखता है।
और अगर प्यास
और बढ़ती है
तो वह पूरे
शरीर में
महसूस होने
लगती है। और
एक क्षण ऐसा
भी आता है जब
तुम्हें ऐसा
नहीं लगता कि
मैं प्यासा
हूं, तुम्हें
लगता है कि
मैं प्यास ही
हो गया। अगर
तुम किसी मरुस्थल
में हो और
पानी मिलने की
कोई भी आशा
नहीं हो तो तुम्हें
ऐसा नहीं
लगेगा कि मैं
प्यासा हूं,
तुम्हें
लगेगा की मैं
प्यास ही हो
गया हूं।
असंतोष
अनुभव में आता
है, दुःख और
संताप अनुभव
में आते है।
जब तुम दुःख
में होते हो
तो तुम दुःख
ही बन जाते
हो। यही कारण
है कि पूरा
जीवन नरक हो
जाता है।
तुमने कभी
विधायक को
नहीं अनुभव
किया। तुमने
सदा नकारात्मक
को अनुभव किया
है। जीवन वैसा
दुःख नहीं है
जैसा हमने उसे
बना रखा है। दुःख
हमारी महज व्याख्या
है।
बुद्ध यहीं
और अभी सुख
में है। इसी
जीवन में सुखी
है। कृष्ण
नाच रहे है और बांसुरी
बजा रहे है।
इसी जीवन में
यही और अभी ,
जहां हम दुःख
में है, वही
कृष्ण नाच
सकते है। जीवन
न दुःख है और न
जीवन आनंद है,
दुःख और आनंद
हमारी व्याख्याएं
है। हमारी
दृष्टियां
है, हमारे रुझान
है, हमारे
देखने के ढंग
है। यह तुम्हारे
मन पर निर्भर
है कि वह जीवन
को किस तरह लेता
है।
अपने ही
जीवन को स्मरण
करो। और विश्लेषण
करो। क्या
तुमने कभी
संतोष के,
परितृप्ति
के, सुख के,
आनंद के
क्षणों का
हिसाब रखा है?
तुमने उसका
कोई हिसाब
नहीं रखा है।
लेकिन तुमने
अपने दुःख,
पीड़ा और
संताप का खूब
हिसाब रख है।
और तुम्हारे
पास इसका बड़ा
संग्रह है।
तुम एक संग्रहीत
नरक हो और यह
तुम्हारा चुनाव
है। कोई दूसरा
तुम्हें इस
नरक में नहीं
ढकेल रहा है।
यह तुम्हारा
ही चुनाव है।
मन नरक को
पकड़ता है,
उसका संग्रह
करता है और
फिर खुद नकार
बन जाता है।
और फिर वह दुस्चक्र
हो जाता है।
तुम्हारे
चित में जितना
नकार इकट्टा
होता है। तुम उतने
ही नकारात्मक
हो जाते हो।
और फिर नकार
का संग्रह
बढ़ता जाता
है। समान-समान
को आकर्षित
करता है। और
यह सिलसिला
जन्मों-जन्मों
से चल रहा है।
तुम अपनी
नकारात्मक
दृष्टि के
कारण सब कुछ
चूक रहे हो।
यह विधि
तुम्हें
विधायक दृष्टि
देती है।
सामान्य मन
और उसकी
प्रक्रिया के
बिलकुल
विपरीत है यह
विधि। जब भी
संतोष मिलता हो,
जिस किसी कृत्य
में भी संतोष
मिलता हो। उसे
वास्तविक
करो। उसे
अनुभव करो,
उसके साथ हो
जाओ। यह संतोष
किसी बड़े
विधायक अस्तित्व
की झलक बन
सकता है।
यहां हर
चीज महज एक
खिड़की है।
अगर तुम किसी
दुःख के साथ तादात्म्य
करते हो तो
तुम दुःख की
खिड़की से
झांक रहे हो।
और दुःख और
संताप की
खिड़की नरक की
तरह ही खुलती
है। और अगर
तुम किसी
संतोष के क्षण
के साथ आनंद
और समाधि के
क्षण के साथ
एकात्म होते
हो तो तुम
दूसरी खिड़की
खोल रहे हो।
अस्तित्व
तो वही है,
लेकिन तुम्हारी
खिड़कियाँ
अलग-अलग है।
‘’जहां-जहां,
जिस किसी कृत्य
में संतोष
मिलता हो, उसे
वास्तविक
करो।‘’
बेशर्त,
जहां कही भी
संतोष मिले,
उसे जीओं। तुम
किसी मित्र से
मिलते हो और
तुम्हें
प्रसन्नता
अनुभव होती
है। तुम्हें
अपनी
प्रेमिका या
अपने प्रेमी
से मिलकर सुख
अनुभव होता
है। इस अनुभव
को वास्तविक
बनाओ, उस क्षण
सुख ही हो जाओ
और उस सुख को
द्वार बना लो।
तब तुम्हारा
मन बदलने
लगेगा। और तब
तुम सुख
इकट्ठा करने
लगोगे। तब
तुम्हारा मन
विधायक होने
लगेगा। और वही
जगह भिन्न
दिखने लगेगी।
झेन संत
बोकोजू ने कहा
है कि जगत वही
है, लेकिन कुछ
भी वही नहीं
है, क्योंकि
मन वही नहीं
है। सब कुछ
वही रहता है,
लेकिन कुछ भी
वहीं नहीं
रहता है, क्योंकि
मैं बदल जाता
हूं।
तुम संसार
को बदलने की
कोशिश करते
हो, लेकिन तुम
कछ भी करो।
जगत वही का
वही रहता है।
क्योंकि तुम
वही के वही
रहते हो। तुम
एक बड़ा घर बना
लेते हो, तुम्हें
एक बड़ी कार
मिल जाती है।
तुम्हें
सुंदर पत्नी
मिल जाती है।
लेकिन उससे
कुछ भी नहीं
बदलेगा। बड़ा
घर बड़ा नहीं
होगा। सुंदर
पत्नी सुंदर
नहीं होगी।
बड़ी कार भी
छोटी ही रहेगी।
क्योंकि तुम
वहीं के वहीं
हो। तुम्हारा
मन, तुम्हारा
रुझान, सब कुछ
वहीं के वही
है। तुम चीजें
तो बदल लेते
हो लेकिन अपने
को नहीं
बदलते। एक
दुःखी आदमी
झोपड़ी को
छोड़कर महल
में रहने लगता
है, लेकिन
अपने को नहीं बदलता,
तो पहले वह झोंपड़े
में दुःखी था,
अब वह महल में
दुःखी है।
उसका दुःख महल
का दुःख होगा,
लेकिन वह
दुःखी होगा।
तुम अपने
साथ अपने दुःख
लिए चल रहे हो
और तुम जहां
भी जाओगे अपने
साथ रहोगे।
इसलिए
बुनियादी तौर
पर बाहरी
बदलाहट नहीं
है। वह बदलाहट
का आभास है।
तुम्हें
लगता है कि
बदलाहट हुई,
लेकिन दरअसल
बदलाहट नहीं
होती है। केवल
एक बदलाहट,
केवल एक क्रांति,
केवल एक आमूल
रूपांतरण
संभव है और वह
यह कि तुम्हारा
चित नकारात्मक
से विधायक हो
जाए। अगर तुम्हारी
दृष्टि दुःख
से बंधी है तो
तुम नरक में
हो और
अगर तुम्हारी
दृष्टि सुख
से जुड़ी है
तो वही नरक स्वर्ग
हो जाता है।
इसे प्रयोग
करो, यह तुम्हारे
जीवन की
गुणवता को
रूपांतरित कर
देगा।
लेकिन तुम
तो गुणवता में
नहीं, परिमाण
में उत्सुक
हो कि कैसे ज्यादा
धन हो जाए।
तुम धन का की
गुणवता में
नहीं, उसके
परिणाम में,
मात्रा में
उत्सुक हो और
एक अमीर आदमी
दरिद्र हो
सकता है। सच्चाई
यही है, क्योंकि
जो व्यक्ति
जीजों और जीजों
के परिमाण में
उत्सुक है वह
इस बात में सर्वथा
अपरिचित है कि
उसके भीतर एक और
आयाम है, यह
गुणवत्ता का
आयाम है। और यह
आयाम बदलता है
जब तुम्हारा
मन विधायक
होता है।
तो
कल सुबह से दिन
भर यह स्मरण
रहे: जब भी कुछ
सुंदर और संतोषजनक
हो, जब भी कुछ
आनंददायक
अनुभव आए, उसके
प्रति
बोधपूर्ण
होओ। चौबीस घंटों
में ऐसे अनेक
क्षण आते है—सौंदर्य,
संतोष और आनंद
के क्षण—ऐसे अनेक
क्षण आते है
जब स्वर्ग
तुम्हारे
बिलकुल करीब
होता है।
लेकिन तुम नरक
से इतने आसक्त
हो, इतने बंधे
हो कि उन
क्षणों को
चूकते चले जाते
हो। सूरज उगता
है, फूल खिलते
है, पक्षी
चहचहाते है,
पेड़ों से
होकर हवा
गुजरती है। वैसे
क्षण घटित हो
रहे है। एक
बच्चा
निर्दोष
आंखों से तुम्हें
निहारता है। और
तुम्हारे भी
एक सूक्ष्म
सुख का भाव
उदित हो जाता
है। या किसी की
मुस्कुराहट
तुम्हें
आह्लाद से भर
देती है।
अपने चारों
ओ देखो ओ उसे खोजों
जो आनंददायक
है और उससे
पूरित हो जाओ,
भर जाओ। उसका
स्वाद लो,
उससे भर जाओ और
उसे अपने पूरे
प्राणों पर छा
जाने दो, उसके
साथ एक हो
जाओ। उसकी
सुगंध तुम्हारे
साथ रहेगी। वह
अनुभूति पूरे
दिन तुम्हारे
भीतर गूँजती
रहेगी। और वह अनुगूँज
तुम्हें ज्यादा
विधायक होने में
सहयोगी होगी।
यह
प्रक्रिया भी और-और
बढ़ती जाती
है। यदि सुबह शुरू
करो तो शाम तक
तुम सितारों
के प्रति, चाँद
के प्रति, रात
के प्रति, अंधेर
के प्रति, ज्यादा
खुले होगे।
इसे एक चौबीस
घंटे प्रयोग
की तरह करो और देखो
कि कैसा लगता
है। और एक बार
तुमने जान
लिया कि
विधायकता
तुम्हें
दूसरे ही जगत में
ले जाती है।
तो तुम उससे
कभी अलग नहीं होगे।
तब तुम्हारा
पूरा दृष्टिकोण
नकार से
विधायक में बदल
जाएगा। तब तुम
संसार को एक
भिन्न दृष्टि
से, एक नयी
दृष्टि से देखोगें।
मुझे एक
कहानी याद आती
है। बुद्ध का
एक शिष्य
अपने गुरु से
विदा ले रहा
है। शिष्य का
नाम था पूर्ण
काश्यप। उसने
बुद्ध से पूछा
कि मैं आपका
संदेश लेकिर
कहां जाऊं?
बुद्ध ने कहा
कि तुम खुद ही
चुन लो। पूर्ण
काश्यप ने कहा
कि मैं बिहार
के एक सुदूर
हिस्से की
तरफ जाऊँगा—उसका
नाम सूखा था—उसका
नाम सूख था—मैं
सूखा प्रांत
की तरफ जाऊँगा।
बुद्ध ने
कहा कि अच्छा
हो कि तुम
अपना निर्णय
बदल लो, तुम किसी
और जगह जाओ क्योंकि
सूखा प्रांत
के लोग बड़े
क्रूर, हिंसक, और
दुष्ट है। और
अब तक कोई व्यक्ति
वहां उन्हें
अहिंसा, प्रेम
और करूणा का
उपदेश सुनाने नहीं
गया है। इसलिए
अपना चुनाव
बदल डालों। पर
पूर्ण काश्यप
ने कहा: मुझे
जाने की आज्ञा
दें, क्योंकि
वहां कोई नहीं
गया है और किसी
को तो जाना ही
चाहिए।
बुद्ध ने
कहा की इससे
पहले मैं तुम्हें
वहां जाने की
आज्ञा दूँ।
मैं तुमसे तीन
प्रश्न
पूछना चाहता
हूं। अगर उस
प्रांत के लोग
तुम्हारा
अपमान करें तो
तुम्हें
कैसा लगेगा? पूर्ण
काश्यप ने
कहा: मैं
समझूंगा कि वे
बड़े अच्छे
लोग है। जो
केवल मेरा
अपमान कर रहे
है, वे मुझे
मार भी सकते
थे। बुद्ध ने
कहा अब दूसरा
प्रश्न, अगर
वे लोग तुम्हें
मारें-पीटें
भी तो तुम्हें
कैसा लगेगा? पूर्ण
काश्यप ने
कहा: मैं
समझूंगा कि वे
बड़े अच्छे
लोग है। वे
मेरी हत्या
भी कर सकते
थे। लेकिन वे
सिर्फ मुझे
पीट रहे है।
बुद्ध ने कहा:
अब तीसरा
प्रश्न, अगर
वे लोग तुम्हारी
हत्या कर दें
तो मरने के
क्षण में तुम
कैसा अनुभव
करोगे। पूर्ण
काश्यप ने
कहा: ‘’ मैं आपको और
उन लोगों को
धन्यवाद दूँगा।
अगर वे मेरी
हत्या कर
देंगे तो वे मुझे
उस जीवन से
मुक्त कर
देंगे जिसमें
न जाने कितनी
गलतियां हो
सकती थी। वे
मुझे मुक्त
कर देंगे
इसलिए मैं अनुगृहीत
अनुभव करूंगा।
तो बुद्ध
ने कहा: ‘’ अब तुम
कहीं भी जा
सकते हो, सारा
संसार तुम्हारे
लिए स्वर्ग
है। अब कोई
समस्या नहीं है।
सारा जगत तुम्हारे
लिए स्वर्ग
है। तुम कहीं
भी जा सकते
हो।
ऐसे चित के
साथ जगत में
कहीं भी कुछ भी
गलत नहीं हो
सकता। और तुम्हें
चित के साथ
कुछ भी सम्यक
नहीं हो सकता।
ठीक नहीं हो
सकता।
सकारात्मक
चित के साथ सब
कुछ गलत हो
जाता है।
इसलिए नहीं क्योंकि
कुछ गलत है,
बल्कि इसलिए
क्योंकि
नकारात्मक
चित को गलत ही
दिखाई देता
है।
‘’जहां-जहां जिस
किसी कृत्य में
संतोष मिलता
हो, उसे वास्तविक
करो।‘’
यह एक बहुत
ही नाजुक
प्रक्रिया है,
लेकिन बहुत
मीठी भी है। और
तुम इसमें
जितनी गति
करोगे, उतनी
मीठी होती जाएगी।
तुम एक नयी
मिठास और सुगंध
से भर जाओगे।
बस सुंदर को खोजों,
कुरूप भी सुंदर
हो जाता है।
खुशी क्षण की
खोज करो, और तब
एक क्षण आता
है जब कोई दुःख
नहीं रह जाता।
आनंद की फ्रिक
करो, और देर-अबेर
दुःख तिरोहित
हो जाता है।
विधायक चित के
लिए सब कुछ
सुंदर है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-3
प्रवचन—35
Bahot hi sundar updesh. Aapka kori koti vandan jo aapne is vidhi ke bare me bataya. Thank you
जवाब देंहटाएंनमन प्रिय ओशो प्रेम
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