दूसरा
सूत्र:
अपने वर्तमान रूप का कोई भी अंग असीमित रूप से विस्तृत जानो।
अपने वर्तमान रूप का कोई भी अंग असीमित रूप से विस्तृत जानो।
एक दूसरे
द्वारा से यह
वही विधि है।
मौलिक सार तो
वहीं है कि
सीमाओं को
गिरा दो, मन सीमाएं
खड़ी करता है।
यदि तुम सोचो
मत तो तुम
असीम में गति
कर जाते हो।
या, एक दूसरे
द्वार से,
तुम असीम के
साथ प्रयोग कर
सकते हो और मन
के पार हो
जाओगे। मन
असीम के साथ,
अपरिभाषित,
अनादि,अनंत
के साथ नहीं
रहा सकता।
इसलिए यदि तुम
सीमा-रहित के
साथ कोई
प्रयोग करो तो
मन मिट जाएगा।
यह
विधि कहती है।
‘अपने
वर्तमान रूप
का कोई भी अंग
असीमित रूप से
विस्तृत
जानो।’
कोई
भी अंग। तुम
बस अपनी आंखें
बंद कर ले
सकते हो और
सोच सकते हो
कि तुम्हारा
सिर असीम हो
गया है। अब
उसकी कोई सीमा
न रही। वह
बढ़ता चला जा
रहा है। और
उसकी कोई
सीमाएं न
रहीं। तुम्हारा
सिर पूरा
ब्रह्मांड बन
गया है,
सीमाहीन।
यदि
तुम इसकी कल्पना
कर सको तो
विचार नहीं
रहेंगे। यदि
तुम अपने सिर
की असीम रूप
में कल्पना
कर सको तो
विचार नहीं
रहेंगे।
विचार केवल एक
बहुत संकीर्ण
मन में हो
सकते है। मन
जितना
संकीर्ण हो,
उतना ही विचार
करने के लिए
बेहतर है।
जितना ही
विशाल मन हो, उतने ही कम
विचार होते
है। जब मन
पूर्ण आकाश बन
जाता है। तो
विचार बिलकुल
नहीं रहते।
बुद्ध
अपने
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठे हुए
है। क्या तुम
कल्पना कर
सकते हो कि वे
क्या सोच रहे
है। वे कुछ भी
सोच नहीं रहे।
उनका सिर पूरा
ब्रह्मांड है1
वे विस्तृत
हो गए है।
अनंत रूप से
विस्तृत हो
गए है।
यह
विधि उन्हीं
के लिए अच्छी
है जो कल्पना
कर सकते है।
सब के लिए यह
ठीक नहीं
रहेगी। जो कल्पना
कर सकते है और
जिनकी कल्पना
इतनी वास्तविक
हो जाती है।
कि यह भी नहीं
कह सकते कि यह
कल्पना है या
वास्तविकता
है, उनके लिए यह
विधि बहुत
उपयोगी होगी।
वरना यह अधिक
उपयोगी नहीं
होगी। लेकिन
डरो मत, क्योंकि
कम से कम तीस
प्रतिशत लोग
इस तरह की कल्पना
करने में
सक्षम है। ऐसे
लोगे बहुत शक्तिशाली
होते है।
यदि
तुम्हारा मन
बहुत शिक्षित
नहीं है तो
तुम्हारे
लिए कल्पना
करना बहुत सरल
होगा। यदि मन
शिक्षित है तो
सृजनात्मकता
खो जाती है,
तब तुम्हारा
मन एक तिजोरी, एक बैंक बन
जाता है। और
पूरी शिक्षा
व्यवस्था
एक बैंकिंग व्यवस्था
है। वे तुममें
चीजें डालते
जाते है ठूँसते
जाते है। उन्हें
जो भी तुममें
ठूंसने जैसा
लगता है,
ठूंस देते है।
वे तुम्हारे
मन का उपयोग
स्टोर की तरह
करते है। फिर
तुम कल्पना
नहीं कर सकते।
फिर तुम जो भी
करते हो वह बस उसकी
पुनरावृति
होती है। जो
तुम्हें
सिखाया गया
है।
तो
जो लोग
अशिक्षित है,
वे इस विधि का
बड़ा सरलता से
उपयोग कर सकते
है, और जो
लोग
युनिवर्सिटी
से बिना विकृत
हुए वापस आ गए
है, वे भी
इसे कर सकते
है। जो वास्तव
में अभी भी
जीवित है,
इतनी शिखा के
बाद भी जीवित
है, वे इसे
कर सकते है।
स्त्रियां
इसे पुरूषों की
अपेक्षा अधिक
सरलता से कर
सकती है। जो
लोग भी कल्पनाशील
है, स्वप्न-दृष्टा
है, वे लोग
इसे बहुत
आसानी से कर
सकते है।
लेकिन यह
कैसे पता चले
कि तुम इसे कर
सकते हो या
नहीं?
तो
इसमें प्रवेश
करने से पहले
तुम एक छोटा
सा प्रयोग कर
सकते हो। अपने
दोनों हाथों
को एक दूसरे
में फंसा लो
और आंखें बंद
कर लो। किसी
भी समय, पाँच
मिनट के लिए
किसी कुर्सी
पर आराम से
बैठ जाओ।
दोनों हाथों
को आपस में
फंसा लो और
कल्पना करो
कि हाथ इतने
जुड़ गए है कि
तुम कोशिश भी
करो तो उन्हें
नहीं खोल
सकते।
यह
बड़ी बेतुकी
बात लगेगी क्योंकि
वे जुड़े हुए
नहीं है,
लेकिन तुम
सोचते रहो कि
वे जुड़े हुए
है। पाँच मिनट
तक ऐसे सोचते
रहो और फिर
तीन बार अपने
मन से कहो, ‘अब मैं अपने
हाथ खोलने की
कोशिश
करूंगा।
लेकिन मैं
जानता हूं कि
यह असंभव है।
ये जुड़ गए है
और मैं इन्हें
खोल नहीं
सकता।’
फिर
उन्हें
खोलने की
कोशिश करो।
तुममें से तीस
प्रतिशत लोग
उन्हें नहीं
खोल पाएंगे।
वे सच में
जुड़ जाएंगे और
जितनी तुम
खोलने की
कोशिश करोगे
उतना ही तुम्हें
लगेगा कि यह
असंभव है।
तुम्हें
पसीना आने
लगेगा—फिर भी
अपने हाथ नहीं
खोल पाओगे। तो
यह विधि तुम्हारे
लिए है। तब
तुम इस विधि
का उपयोग कर
सकते हो।
यदि
तुम आसानी से
अपने हाथ खोल
सको और कुछ भी
न हो तो
यह विधि तुम्हारे
लिए नहीं है।
तुम इसे न कर
पाओगे। लेकिन अगर
तुम्हारे
हाथ न खुले तो
डरो मत और ज्यादा
प्रयास मत करो,
क्योंकि
जितना ही तुम
प्रयास करोगे
उतना ही कठिन
होता जायेगा।
बस फिर से
अपनी आंखें
बंद कर लो और
सोचो कि तुम्हारे
हाथ अब खुल गए
है। तुम्हें
फिर से सोचने
के लिए पाँच
मिनट लगेंगे
कि अब जब तुम
हाथों को
खोलोगे तो वे
खुल जाएंगे। और
वे एकदम से
खुल जाएंगे।
जैसे
तुमने उन्हें
कल्पना
द्वारा बंद
किया था, वैसे
ही खोलों। यदि
यह संभव है कि
तुम्हारे
हाथ बस कल्पना
द्वारा जुड़ जाते
है और तुम उन्हें
खोल नहीं सकते
तो यह विधि
तुम पर चमत्कारिक
रूप से कार्य
करेगी। और इन
एक सौ बारह विधियों
में कई
विधियां है जो
कल्पना पर
कार्य करती
है। उन सब
विधियों के
लिए यह हाथ
बांधने वाली
विधि अच्छी
रहेगी। बस
इतना याद रखो, पहले
प्रयोग करके
देख लो कि यह
विधि तुम्हारे
लिए है या
नहीं।
‘अपने
वर्तमान रूप
का कोई भी अंग
असीमित रूप से
विस्तृत
जानो।’
कोई
भी अंग....तुम
पूरे शरीर की
कल्पना भी कर
सकते हो। अपनी
आंखें बंद कर
लो और कल्पना
करो कि तुम्हारा
पूरा शरीर फैल
रहा है, फैल रहा
है, फैल
रहा है। और सब
सीमाएं खो गई
है। शरीर असीमित
हो गया है। तो
क्या होगा? क्या होगा
इसकी तुम कल्पना
भी नहीं कर
सकते हो। यदि
तुम इसकी कल्पना
कर सको कि तुम
ब्रह्मांड हो
गए हो—असीमित
का यही अर्थ
है—तो जो कुछ
भी तुम्हारे
अहंकार के साथ
जुड़ा है,
खो जाएगा।
तुम्हारा
नाम, तुम्हारा
परिचय। सब खो
जाएंगे। तुम्हारी
अमीरी या
गरीबी,
तुम्हारा स्वास्थ
या बीमारी,
तुम्हारे
दुःख—सब खो
सकते है। क्योंकि
वे तुम्हारे
सीमित शरीर के
अंग है।
असीमित शरीर
के साथ वे
नहीं रह सकते।
और एक बार
तुम्हें यह
पता लग जाए तो
अपने सीमित
शरीर में लौट
आओ। लेकिन अब
तुम हंस सकते
हो। और सीमित
में भी
तुम असीमित का
स्वाद ले
सकते हो। तब
तुम इस झलक का
साथ लिए चल सकते
हो।
इसे
अनुभव करके
देखो। और अच्छा
होगा कि पहले
तुम सिर से
शुरू करके
देखो;क्योंकि
वहीं सब
बीमारियों की
जड़ है। अपनी
आंखें बंद कर
लो, जमीन
पर लेट जाओ या
किसी कुर्सी
पर आराम से बैठ
जाओ। और सिर
के भीतर देखो।
सिर की
दीवारों को
फैलते,
विस्तृत
होते अनुभव
करो। यदि
घबराहट मालूम
हो तो धीरे-धीरे
करो। पहले
सोचो कि तुम्हारा
सिर पूरे कमरे
में फैल गया
है। तुम्हें
सच में लगेगा की तुम्हारा
सर दीवारों को
छू रहा है।
अगर तुम अपने
हाथों को बाँध
सकते हो तो
ऐसा स्पष्ट
अनुभव होगा।
तुम्हें
दीवारों की
शीतलता महसूस
होगी। जिन्हें
तुम्हारी त्वचा
छू रही है।
तुम्हें
दबाव महसूस
होगा।
बढ़ते
जाओ। तुम्हारा
सिर पार चला
गया है—अब घर
सिर के भीतर
समा गया है,
फिर पूरा शहर
सिर में समा
गया है। फैलते
चले जाओ। तीन
महीने के
भीतर-भीतर
धीरे-धीर तुम
ऐसी स्थिति
पर पहुंच
जाओगे। जहां
सूर्य तुम्हारे
सिर में उदित
होगा। तुम्हारे
भीतर ही चक्कर
लगाएगा। तुम्हारा
सिर अनंत हो
गया। इससे तुम्हें
इतनी स्वतंत्रता
मिलेगी जितनी
तुमने पहले
कभी नहीं
जानी। और सब दुःख
जो इस संकीर्ण
मन से संबंधित
है, समाप्त
हो जाएंगे।
ऐसी स्थिति
में ही उपनिषद
के ऋषियों ने
कहा होगा, ‘अहं
ब्रह्मास्मि—मैं
ब्रह्म हूं।’ ऐसे ही आनंद
के क्षण ने अनलहक़
की उदधोषणा
हुई होगी।
मंसूर
परम आनंद से
चिल्लाया, ‘अनलहक़, अनलहक़—मैं
परमात्मा
हूं।’
मुसलमान उसे
समझ नहीं
पाये। असल में
कोई भी परंपरावादी
ऐसी चीजें
नहीं समझ
पाएगा। उन्होंने
सोचा कि वह
पागल हो गया
है। लेकिन वह
पागल नहीं था।
वह तो परम स्वस्थ
आदमी था। उन्होंने
सोचा कि वह
अहंकारी हो
गया। वह कहता है, ‘मैं
परमात्मा
हूं।’ उन्होंने
उसे मार डाला।
जब उसे मारा
जा रहा था और उसके
हाथ पाँव काटे
जा रहे थे। तब
वह हंस रहा
था। और कह रहा
था, ‘अनलहक़’, अहं
ब्रह्मास्मि—मैं
परमात्मा
हूं। किसी ने
पूछा, ‘मंसूर, तू हंस रहा
क्यों रहा है?
तेरी तो हत्या
हो रही है।’ वह बोला, ‘तुम मुझे
नहीं मार
सकते। मैं तो
संपूर्ण हूं।’
तुम
बस एक हिस्से
को मार सकते
हो। संपूर्ण
को तो तुम
कैसे मार सकते
हो। तुम उसके
साथ कुछ भी
करो, उसके कोई
अंतर नहीं
पड़ने वाला।
कहते
है कि मंसूर
ने कहा, ‘यदि
तुम मुझे
मारना चाहते
थे तो तुम्हें
कम से कम दस
साल पहले आना
चाहिए था। तब
मैं था। तब तुम
मुझे मार सकते
थे। लेकिन अब
तुम मुझे नहीं
मार सकते हो।
क्योंकि अब
मैं नहीं हूं।
मैंने स्वयं
ही उस अहंकार
को मार दिया
है। जिसे तुम
मार सकते थे।’
मंसूर
कुछ इसी तरह
की सूफी
विधियों का
अभ्यास कर
रहा था। जिसमें
व्यक्ति तब
तक फैलता चला
जाता है जब तक
कि विस्तार
इतना असीम न
हो जाए कि व्यक्ति
रह ही न। फिर
बस पूर्ण ही
रहता है। व्यक्ति
नहीं।
इन
पिछले दो तीन
दशकों में पश्चिम
में नशीली
दवाएं बहुत
प्रचलित हो गई
है। और उनका
आकर्षण विस्तार
का आकर्षण ही
है, क्योंकि
उन दवाओं के
असर में तुम्हारी
संकीर्णता, तुम्हारी
सीमाएं खो
जाती है।
लेकिन यह बस
एक रासायनिक
परिवर्तन है, इससे कुछ
आध्यात्मिक
रूपांतरण नही
हो पाता। यह
व्यवस्था
पर लादी गई एक
हिंसा है—तुम
व्यवस्था
को टूटने के
लिए बाध्य
करते हो।
इससे
तुम्हें शायद
एक झलक मिले
कि तुम अब
सीमित न रहे।
कि तुम असीम
हो गए मुक्त
हो गए। लेकिन
यह रासायनिक
दबाव के कारण
है। एक बार
वापस लौटे कि
फिर से तुम
संकीर्ण शरीर में
पहुंच जायेगे।
और अब शरीर
पहले से भी ज्यादा
संकीर्ण
लगेगा। तुम
फिर से उसी
कारागृह में
कैद हो जाओगे।
लेकिन अब
कारागृह और
असह्य हो
जाएगा। क्योंकि
तुम उसके
मालिक नहीं
हो। तुम एक
झलक उस रसायन
के द्वारा
प्राप्त हुई
थी। इसलिए तुम
उसके गुलाम ही
हो। तुम आदी हो
जाओगे उस रसायन
के। अब तुम्हें
और भी अधिक
जरूरत महसूस होगी।
यह
विधि एक अध्यात्मिक
मस्ती है।
यदि तुम इसका
अभ्यास करो
तो एक आध्यात्मिक
रूपांतरण
होगा जो
रासायनिक
नहीं होगा। और
जिसके तुम
मालिक होओगे।
इसे
कसौटी समझो।
यदि तुम मालिक
हो तो वह चीज आध्यात्मिक
है। अगर तुम
गुलाम हो तो
सावधान—भले ही
वह दिखाई आध्यात्मिक
पड़े। लेकिन
हो नहीं सकती।
जो भी चीज तुम्हें
आदी करने वाली,
शक्तिशाली, गुलाम बनने
वाली,बंधन
बन जाए,वह
तुम्हें और
गुलामी ओर
परतंत्रता की
और ले जा रही है।
तो
इसे एक कसौटी
समझना कि तुम
जो भी करो।
उससे तुम्हारी
मलकियत बढ़नी
चाहिए। तुम्हें
और-और उसका मालिक
बनना चाहिए। ऐसा
कहा गया है और में
इसे जोर-जोर से
बार-बार दोहराता
हूं। कि जब ध्यान
तुम्हें वास्तव
में घटित होगा
तो तुम्हें उसे
करने की जरूरत
नहीं पड़ेगी। यदि
अभी भी तुम्हें
करना पड़ता है
तो ध्यान अभी
हुआ ही नहीं है।
क्योंकि वह भी
एक गुलामी बन गई
है। ध्यान को
भी जाना चाहिए।
एक ऐसा क्षण आना
चाहिए जब तुम्हें
कुछ भी करना न पड़े।
जब तुम जैसे
ही दिव्य हो; तुम
जैसे हो, तुम
आनंद हो, परमानंद
हो।
लेकिन
यह विधि विस्तार
के लिए, चेतना
के विस्तार के
लिए अच्छी है।
लेकिन इसे करने
से पहले हाथ बांधने
वाला प्रयोग करो।
ताकि तुम अनुभव
कर सको। यदि तुम्हारे
हाथ बंध जाते
है तो तुम्हारी
कल्पना बहुत सृजनात्मक
है, नपुंसक
नहीं है। फिर तुम
इस विधि से चमत्कार
घटा सकते हो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-65
द्रव्य के गुण, द्रव्यों में परस्पर संयोग के नियम, ऊष्मा आदि ऊर्जाओं का द्रव्य पर प्रभाव, यौगिकों का संश्लेषण, जटिल व मिश्रित पदार्थों से सरल व शुद्ध पदार्थ अलग करना आदि का अध्ययन भी रसायन विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है।
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