पहली
विधि:
‘वस्तुओं
और विषयों का
गुणधर्म
ज्ञानी वे
अज्ञानी के
लिए समान ही
होता है।
ज्ञानी की
महानता यह है
कि वह आत्मगत
भाव में बना
रहता है। वस्तुओं
में नहीं
खोता।’
यह बड़ी प्यारी
विधि है। तुम
इसे वैसे ही
शुरू कर सकते
हो जैसे तुम
हो; पहले कोई
शर्त पूरी
नहीं करनी है।
बहुत सरल विधि
है: तुम व्यक्तियों
से, वस्तुओं
से, घटनाओं से
घिरे हो—हर
क्षण तुम्हारे
चारों और कुछ
न कुछ है। वस्तुएं
है, घटनाएं है, व्यक्ति
है—लेकिन क्योंकि
तुम सचेत नही
हो, इसलिए तुम
भर नहीं हो।
सब कुछ मौजूद
है लेकिन तुम
गहरी नींद में
सोए हो। वस्तुएं
तुम्हारे
चारों तरफ
मौजूद है,
लोग तुम्हारे
चारों तरफ घूम
रहे है।
घटनाएं तुम्हारे
चारों तरफ घट
रही है। लेकिन
तुम वहां नहीं
हो। या, तुम सोए हुए
हो।
तो तुम्हारे
आस-पास जो कुछ
भी होता है
वहीं मालिक बन
जाता है, तुम्हारे
ऊपर हावी हो
जाती है। तुम
उसके द्वारा
खींच लिए जाते
हो। तुम केवल
उससे
प्रभावित ही
नहीं होते।
संस्कारित
भी हो जाते
हो। खींच लिए
जाते हो। कुछ
भी चीज तुम्हें
पकड़ ले सकती
है। और तुम
उसके पीछे
चलने लगोंगे।
कोई पास से
गुजरा, तुमने देखा
चेहरा सुंदर
है—और तुम
प्रभावित हो
गए। कोई सुंदर
पोशाक देखो,
उसका रंग,
उसका कपड़ा
सुंदर है—तुम
प्रभावित हो
गए। कोई कार
गुजरी—तुम
प्रभावित हो
गए। तुम्हारे
आस-पास जो कुछ
भी चलता है।
तुम्हें
पकड़ लेता है।
तुम बलशाली
नहीं हो। बाकी
सब कुछ तुमसे
ज्यादा
बलशाली है।
कुछ भी तुम्हें
बदल देता है।
तुम्हारी
भाव-दशा, तुम्हारा
चित, तुम्हारा
मन, सब दूसरी
चीजों पर
निर्भर है।
विषय तुम्हें
प्रभावित कर
देते है।
यह सूत्र
कहता है कि
ज्ञानी और
आज्ञानी एक ही
जगत में जीते
है। एक बुद्ध
पुरूष और तुम
एक ही जगत में
जीते हो—जगत
वही रहता है।
अंतर जगत में
नहीं पड़ता,अंतर
बुद्ध पुरूष
के भीतर घटित
हाता है: वह
अलग ढंग से
जीता है। वह
उन्हीं वस्तुओं
के बीच जीती
है। लेकिन अलग
ढंग से। वह अपना
मालिक है।
उसकी आत्मा
असंग और अस्पर्शित
बनी रहती है।
वही राज है।
उसको कुछ भी प्रभावित
नहीं कर सकता
है। बाहर से
कुछ भी उसको
संस्कारित
नहीं कर सकता;
कुछ भी उस पर हावी
नहीं हो सकता।
वह निर्लिप्त
बना रहता है।
स्वयं बना
रहता है। यदि
वह कहीं जाना
चाहेगा। लेकिन
मालिक बना
रहेगा। यदि वह
किसी छाया के पीछे
जाना चाहेगा
तो जाएगा,
लेकिन यह उसका
अपना निर्णय
होगा।
इस
भेद को समझ
लेना जरूरी
है। निर्लिप्त
से मरा अर्थ
उस व्यक्ति
से नहीं है
जिसने संसार
का त्याग कर
दिया—फिर तो
निर्लिप्त
होने में कोई
सार न रहा,
कोई अर्थ न
रहा।
निर्लिप्त
वह व्यक्ति
है जो उसी जगत
में जी रहा है
जिसमें कि तुम—जगत
में कोई भेद
नहीं है। जो
व्यक्ति
संसार का त्याग
करता है। वह
केवल परिस्थिति
को बदल रहा है, स्वयं को
नहीं। और यदि
तुम स्वयं को
नहीं बदल सकते
तो परिस्थिति
को बदलने पर
ही जोर दोगे।
यह कमजोर व्यक्तित्व
का लक्षण है।
एक
शक्तिशाली
व्यक्ति है,
जो सतर्क और
सचेत है। स्वयं
को बदलना शुरू
करेगा। उस
परिस्थिति
को नहीं
जिसमें वह है।
क्योंकि
वास्तव में
परिस्थिति
को तो बदला ही
नहीं जा सकता; अगर तुम एक
परिस्थिति
को बदल दो तो
फिर दूसरी परिस्थितियां
होगीं। हर
क्षण परिस्थिति
बदलती रहती
है। तो हर
क्षण समस्या
तो बनी ही
रहने वाली है।
धार्मिक
और अधार्मिक
दृष्टिकोण
के बीच यही
अंतर है।
अधार्मिक
दृष्टिकोण
है परिस्थिति
को , परिवेश को
बदलने का। वह
दृष्टिकोण
तुममें भरोसा
नहीं करता,
परिस्थितियों
में भरोसा
करता हे। जब
परिस्थिति
ठीक हो जाती
है। तुम परिस्थिति
पर निर्भर हो:
अगर परिस्थिति
ठीक न हुई तो
तुम स्वतंत्र
इकाई नहीं हो।
कम्युनिस्टों, मार्क्स
वादियों, समाज
वादियों,
और उन सबके
लिए जो परिस्थितियों
के बदलने में
भरोसा करते
है। तुम महत्वपूर्ण
नहीं हो। असल
में तुम्हारा
अस्तित्व
ही नहीं है।
केवल परिस्थिति
है और तुम बस
एक दर्पण हो, लेकिन यह
तुम्हारी
नियति नहीं है—तुम
कुछ और हो
सकते हो,
वह हो सकते हो
जो किसी पर
निर्भर नहीं
है।
विकास
के तीन चरण
है।
पहला:
परिस्थिति
मालिक है और
तुम बस
पीछे-पीछे
घिसटते हो।
तुम मानते हो
कि तुम हो,
लेकिन तुम हो
नहीं।
दूसरा:
तुम होते हो,
और परिस्थिति
तुम्हें
घसीट नहीं
सकती,
परिस्थिति
तुम्हें
प्रभावित नहीं
कर सकती। क्योंकि
तुम एक संकल्प
बन गए हो। तुम
केंद्रित और क्रिस्टलाइजेशन
हो गए हो।
तीसरा:
तुम परिस्थिति
को प्रभावित
करने लगते हो—तुम्हारे
होने मात्र से
ही परिस्थिति
बदलने लगती
है।
पहली
अवस्था
अज्ञानी की है;
दूसरी अवस्था
उस व्यक्ति
कि है जो सतत
सजग है। लेकिन
अभी है
अज्ञानी ही—उसे
सजग रहना
पड़ता है। सजग
रहने के लिए कुछ
करना पड़ता
है। उसका
जागरण अभी स्वाभाविक
नहीं हुआ है।
इसलिए उसे
संघर्ष करना पड़ता
है। यदि वह एक
क्षण के लिए
भी होश या जागरण
खोता है तो वह
वस्तु के
प्रभाव में आ
जाएगा। तो उसे
सतत होश रखना
पड़ता है। वह
साधक है,
जो साधना कर
रहा है।
शक्ति
स्मरण रखने
जैसी चीज है।
तुम कमजोर हो
इसीलिए कोई भी
चीज तुम पर
हावी हो सकती
हे। और शक्ति
आती है सजगता
से, होश से।
जितने ज्यादा
सजग, उतने
ही शक्तिशाली; जितने कम
सजग उतने कम
शक्तिशाली।
देखो:
जब तुम सोए
होते हो तो एक
सपना भी शक्तिशाली
हो जाता है।
क्योंकि तुम
गहरी नींद में
खोए हो,
तुमने सारा
होश खो दिया
है। एक सपना
भी शक्तिशाली
हो गया। और
तुम इतने
कमजोर हो कि
तुम उस पर
संदेह नहीं कर
सकते।
बेतुके
से बेतुके स्वप्न
में भी तुम
संदेह नहीं कर
सकते, तुम्हें
उसे मानना ही
होगा। और जब
तक वह चलता है, तब तक वास्तविक
लगता है। सपने
में भले ही
तुम बेतुकी
चीजें देखो, लेकिन सपना
देखते समय तुम
उस पर संदेह
नहीं कर सकते।
तुम ऐसा नहीं
कह सकते कि यह
वास्तविक
नहीं है;
तुम ऐसा नहीं
कह सकते कि बस
एक सपना है, कि यह असंभव
है। तुम ऐसा
कह ही नहीं
सकते हो,
क्योंकि तुम
गहरी नींद में
हो।
जब
होश नहीं होता
तो एक सपना भी
तुम्हें
कितना
प्रभावित
करता हे। जाग
कर तुम हंसोगे
और कहोगे, ‘वह सपना
बेतुका था,
असंभव था,
ऐसा हो ही
नहीं सकता। वह
केवल भ्रम था।’ लेकिन जब वह
चल रहा था तो
यह बात तुम्हारे
ख्याल में
नहीं आई थी और
तुम उसमें
उलझे ही रहे। उससे
प्रभावित हो
गये। उसमें खो
गये। सपना इतना
शक्ति शाली
क्यों था?
सपना शक्तिशाली
नहीं था,
तुम शक्तिहीन
थे।
इसे
स्मरण रखो:
जब तुम शक्तिहीन
होते हो तो एक
सपना भी शक्तिशाली
हो जाता है।
जब तुम जागे
होते हो तो
कोई सपना तुम
पर प्रभावी
नहीं हो सकता,
लेकिन यथार्थ, तथाकथित
यथार्थ
प्रभावी हो
जाता है। जागा
हुआ व्यक्ति
बुद्ध पुरूष
इतना सजग होता
है कि तुम्हारा
यथार्थ भी उसे
प्रभावित
नहीं कर सकता।
यदि कोई स्त्री
कोई सुंदर
सत्री पास से
गुजर जाए तो
तुम्हारा मन
उसके पीछे हो
लेता है। एक
कामना उठ गई, उसे पाने की
कामना। तुम
अगर सजग हो तो
स्त्री गुजर
जाएगी लेकिन
कोई कामना
नहीं उठेगी।
तुम प्रभावित
नहीं हुए,
तुम प्रभावित
नहीं होओगे।
तो तुम
प्राणों में
एक सूक्ष्म
आनंद का अनुभव
करोगे। पहली
बार तुम्हें
लगेगा कि तुम
हो; कुछ भी
तुम्हें
तुमसे बाहर
नहीं घसीट
सकता। तुम यदि
पीछे जाना
चाहो तो वह
दूसरी बात है, वह तुम्हारा
निर्णय है।
लेकिन
स्वयं को
धोखा मत दो।
तुम धोखा दे
सकते हो। तुम
कह सकते हो, ‘हां, स्त्री
शक्तिशाली
नहीं है।
लेकिन मैं
उसके पीछे जाना
चाहता हूं।
मैं उसे पाना
चाहता हूं,
तुम धोखा दे
सकते हो। बहुत
से लोग धोखा
दिए चले जाते
हो। लेकिन तुम
किसी और को
नहीं स्वयं
को ही धोखा दे
रहे हो। फिर
यह व्यर्थ
है। जरा गौर
से देखा: तुम
कामना को वहां
पाओगे। कामना
पहले आती है।
फिर तुम उसी
व्याख्या
करते हो।’
ज्ञानी
व्यक्ति के
लिए चीजें भी
है और वह भी
है। लेकिन
उसके और चीजों
के बीच कोई
सेतु नहीं है।
सेतु टूट गया
है। वह अकेला
चलता है।
अकेला जीता
है। वह अपना
ही अनुसरण
करता है। कुछ
और उसे आविष्ट
नहीं कर सकता।
इस अनुभव के कारण
ही हमने इस
उपलब्धि को
मोक्ष कहा है।
मुक्ति कहा
है। वह परम
मुक्त है।
संसार
में हर जगह
मनुष्य ने
मुक्ति की
खोज की है।
तुम ऐसा एक भी
मनुष्य नहीं
खोज सकते जो
अपने ढंग से
मुक्ति न
खोज
रहा हो।
अगल-अलग रास्तों
से मनुष्य सह
अवस्था
खोजने की
कोशिश करता
है। जहां वह
मुक्त हो
सके। और ऐसी
किसी भी चीज
को वह घृणा
करता है जो
उसे बंधन में बांधे।
कोई भी चीज जो
उसे रोकती है, बाँधती
है, उससे
वह लड़ता है।
उससे संघर्ष
करता है।
इसीलिए
तो इतने
राजनीतिज्ञ
संघर्ष है,
इतने युद्ध है, इतनी
क्रांतियां
है। इसीलिए तो
इतने पारिवारिक
संघर्ष है—पति
और पत्नी,
बाप और बेटा,सभी एक
दूसरे से लड़
रहे हे। लड़ाई
बुनियादी है।
लड़ाई है मुक्ति
के लिए। पति
बंधन अनुभव
करता है। पत्नी
ने उसे बाँध
लिया है—अब
उसकी स्वतंत्रता
कट गई। और पत्नी
को भी ऐसा ही
लगता है।
दोनों एक
दूसरे से खिन्न
है। दानों
बंधन को
तोड़ने की
कोशिश करते
है। बाप बेटे
से लड़ता है। क्योंकि
बेटे के विकास
के हर कदम का
अर्थ है उसके
लिए और स्वतंत्रता।
और बाप को
लगता है कि वह
कुछ खो रहा है।
अपनी शक्ति, अपना
अधिकार। तो
परिवारों में, देशों में, सभ्यताओं
में मनुष्य
केवल एक ही
चीज के पीछे
भाग रहा है—मुक्ति।
लेकिन
राजनीतिक
लड़ाइयों से,
क्रांतियों
से,
युद्धों से
कुछ भी नहीं
मिलता, कुछ
भी हाथ नहीं
आता। क्योंकि
अगर तुम स्वतंत्रता
पा भी लो,
तो वह ऊपर-ऊपर
है—भीतर गहरे
में तुम बंधन
में ही रहते
हो। तो हर स्वतंत्रता
एक मोह भंग
सिद्ध होती
हे।
मनुष्य
धन की इतनी
कामना करता है,
लेकिन जहां तक
मैं समझता हूं, यह धन की
कामना नहीं
है। मुक्ति
की कामना है।
धन तुम्हें
स्वतंत्रता
का एक भाव
देता है। अगर
तुम गरीब हो तो
तुम सीमित हो, तुम्हारे
साधन सीमित
हो। तुम यह
नहीं कर सकते, वह नहीं कर
सकते। वह सब
करने के लिए
तुम्हारे
पास धन ही
नहीं है।
जितना धन तुम्हारे
पास हो उतना
ही तुम्हें
लगता है कि
तुम्हारे
पास स्वतंत्रता
हे। तुम जो
करना चाहो कर
सकते हो।
लेकिन
जब धन खूब
तुम्हारे
पास इकट्ठा हो
जाता हे और
तुम वह सब कर
सकते हो जो
तुम करना
चाहते थे,जिसकी
कल्पना करते
थे। या जिसका
सपना लेते थे—तो
अचानक तुम
पाते हो कि यह
स्वतंत्रता
ऊपर-ऊपर है।
क्योंकि
भीतर से तुम्हारे
प्राण अच्छी
तरह जानते है
कि तुम शक्तिहीन
हो और कुछ भी
तुम्हें
प्रभावित कर
सकता है। तुम
वस्तुओं और
व्यक्तियों
द्वारा
प्रभावित हो
जाते हो,
सम्मोहित हो
जाते हो।
यह
सूत्र कहता है
कि तुम्हें
चेतना की ऐसी
अवस्था पर
आना है जहां
कुछ भी तुम्हें
प्रभावित न
करे। तुम
निर्लिप्त
बने रह सको।
यह कैसे हो?
दिन भर इसके
लिए अवसर है।
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
यह विधि तुम्हारे
लिए अच्छी
है। किसी भी
क्षण तुम सजग
हो सकते हो।
कुछ तुम्हें
आविष्ट कर
रहा है। तब एक
गहरी श्वास
लो, गहरी
श्वास भीतर
खींचो,
गहरी श्वास
बाहर छोड़ो, और उस चीज को
फिर से देखो।
जब तुम श्वास
को बाहर छोड़
रहे हो तो उस
चीज को फिर से
देखो,
लेकिन देखो एक
साक्षी की
तरह। एक द्रष्टा
की तरह।
यदि
तुम एक क्षण
के लिए भी मन
की साक्षी-दशा
को पा सको तो
अचानक तुम
पाओगे कि तुम
अकेले हो,
कुछ भी तुम्हें
प्रभावित
नहीं कर सकता।
कम से कम उस
क्षण में तो
कुछ भी तुममें
कामना पैदा
नहीं कर सकता।
जब भी तुम्हें
लगे कि कोई
चीज तुम्हें
प्रभावित कर
रही है। तुम
पर हावी हो
रही है। तुम्हें
तुमसे दूर ले
जा रही है।
तुमसे ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो रही है—तो
गहरी श्वास
लो और छोड़ा।
और श्वास
बाहर छोड़ने
से पैदा हुए
उस छोटे से
अंतराल में उस
चीज की और
देखो—कोई
सुंदर चेहरा, कोई सुंदर
शरीर,कोई
सुंदर मकान या
कुछ भी। यदि
तुम्हें यह
कठिन लगे,
अगर श्वास
बाहर छोड़ने
भर से ही तुम
अंतराल पैदा न
कर पाओ। तो एक
कदम और करो।
श्वास बाहर
छोड़ो। और एक
क्षण का भीतर
लेना रोक लो।
ताकि पूरी
वायु बाहर
निकल जाए। रूक
जाए। श्वास
भीतर मत लो।
फिर उस चीज की
और देखो। जब
पूरी वायु
बाहर है। या
भीतर है। जब
तुमने श्वास
लेना बंद कर
दिया है तो
कुछ भी तुम्हें
प्रभावित
नहीं कर सकता।
उस क्षण में
तुम सेतु हीन
हो जाते हो।
सेतु टूट जाता
है। श्वास ही
सेतु है।
इसे
करके देखो।
केवल एक क्षण
के लिए ऐसा
होगा कि तुम
साक्षी को
महसूस करोगे।
लेकिन उससे तुम्हें
स्वाद मिल
जाएगा। उससे
तुम्हें यह
अनुभव हो
जाएगा कि साक्षित्व
क्या है। फिर
तुम उसकी खोज
में बढ़ सकते
हो। दिन भर
में जब भी कभी
कोई चीज तुम्हें
प्रभावित
करती है और
कोई कामना
उठती है, श्वास
बाहर छोड़ो, उस अंतराल
में रुको,
और फिर उस चीज
की और देखो।
चीज की और
देखो। चीज वहीं
होगी, तुम
वहां होओगे, लेकिन बीच
में कोई सेतु
नहीं होगा। श्वास
ही सेतु है।
अचानक तुम्हें
लगेगा कि तुम
शक्तिशाली
हो,
प्राणवान हो।
और जितने शक्तिशाली
तुम अनुभव
करोगे उतने ही
तुम केंद्रित
होओगे। जितनी
चीजें गिरती
जाएंगी,
जितनी चीजों
की शक्ति तुम
पर से हटती जाएगी, उतने ही
अधिक
केंद्रित तुम
होते जाओगे।
अब तुम्हारा
व्यक्तित्व
शुरू हुआ। अब
तुम्हारे
पास एक केंद्र
है और किसी भी
क्षण तुम केंद्र
पर सरक सकते
हो। और वहां
संसार मिट
जाता है। किसी
भी क्षण तुम
अपने केंद्र
में स्थिर हो
सकते हो। और
तब संसार शक्तिहीन
हो जाता है।
यह
सूत्र कहता है, ‘वस्तुओं और
विषयों का
गुणधर्म
ज्ञानी और
अज्ञानी के लिए
समान ही होता
है। ज्ञानी की
महानता यह है
कि वह आत्मगत
भाव में बना
रहता है। वस्तुओं
में नहीं
खोता।’
यह
आत्मगत भाव
में बना रहता है।
वह स्वयं में
बना रहता है।
वह चेतना में
केंद्रित
रहता है। इस
आत्मगत भाव
में बने रहने
को साधना पड़ेगा।
जितने भी अवसर
तुम्हें
मिले सकें,
इसे करके
देखो। और हर
क्षण अवसर है।
एक-एक क्षण
अवसर है। कुछ
न कुछ तुम्हें
प्रभावित कर
रहा है। बुला
रहा है। बाहर
खींच रहा है।
भीतर धकेल रहा
है।
मुझे
एक पुरानी
कहानी याद आती
है। एक महान
राजा,
भर्तृहरि ने
संसार का त्याग
कर दिया। उसने
संसार का त्याग
कर दिया। क्योंकि
उसने पूरी तरह
उसे जीया था
और पाया था कि
वह व्यर्थ
है। यह उसके
लिए कोई
सिद्धांत
नहीं था। यह
उसकी जीया हुआ
सत्य था।
अपने स्वयं
के जीवन से वह इस
निष्कर्ष पर
पहुंचा था। वह
शक्तिशाली
आदमी था। जीवन
में जितना हो
सकता था गहरे
गया था। फिर
अचानक उसने
पाया कि यह व्यर्थ
है, बेकार
है। तो उसने
संसार को त्याग
दिया। सब त्याग
दिया और जंगल
में चला गया।
एक
दिन वह एक
वृक्ष के नीचे
बैठा ध्यान
कर रहा था। सूर्य
उग रहा था।
अचानक उसने
देखा कि वृक्ष
के पास से जो
छोटी सी पगडंडी
गुजरती थी उस
पर एक बहुत
बड़ा हीरा पडा
है। उगते हुए
सूरज की
किरणें उससे
टकरा कर वापस
लौट रही थी। भर्तृहरि
ने भी ऐसा
हीरा पहले
नहीं देखा था।
अचानक,
बेहोशी के एक क्षण
में, उसे
उठा लेने की एक
कामना मन में
जगी। शरीर तो
अचल बना रहा।
लेकिन मन चल
पडा। शरीर ध्यान
की मुद्रा में,सिद्धासन
में था। लेकिन
ध्यान अब
वहां नहीं था।
केवल मृत शरीर
ही वहां था।
मन जा चुका था—वह
हीरे की और
चला गया था।
लेकिन
इससे पहले कि
राजा हिल भी
पाता, दो आदमी
आने-अपने घोड़ों
पर सवार
अलग-अलग
दिशाओं से आए
और एक साथ ही दोनों
की नजर राह पर
पड़े हीरे पर
पड़ी। दोनों
ने हीरे को
पहले देखने का
दावा करते हुए
तलवार निकाल
ली। निर्णय का
और तो कोई
उपाय नहीं था।
वे दोनों जूझ
पड़े और एक
दूसरे को
समाप्त कर
डाला। कुछ ही
क्षणों में
हीरे के निकट
ही दो लाशें
पड़ी थी।
भर्तृहरि
हंसा, अपनी
आंखें बद कर
ली। और फिर ध्यान
में डूब गया।
क्या
हुआ? उसे फिर से
व्यर्थता का
बोध हुआ। और
उन दो आदमियों
को क्या हुआ।
हीरा उनके
जीवन से भी ज्यादा
मूल्यवान हो
गया। मालकियत
का यह अर्थ है:
एक पत्थर को
पाने के लिए
उन्होंने
अपनी जान गंवा
दी। जब कामना
होती है तो तुम
नहीं होते।
कामना तुम्हें
आत्मघात तक
ले जा सकती
है। असल में
हर कामना तुम्हें
आत्मघात की
और ले जा रही
है। जब तुम
किसी कामना के
वश में होते
हो तो अपनी
सुध-बुध खो
देते हो। पागल
हो जाते हो।
मालकियत
की कामना
भर्तृहरि के
मन में भी उठी,
एक क्षणांग के
लिए कामना
उठी। और वह
उसे लेने के
लिए उठ भी गया
होता। लेकिन
इससे पहले कि
वह हिलता भी, दो दूसरे व्यक्ति
वहां आए,
आपस में लड़े
और अगले ही
क्षण सड़क पर
दो लाशें उस
पत्थर के पास
पड़ी थी। जो
अपनी जगह पर
वैसा का वैसा
पडा था।
भर्तृहरि
हंसा, और
उसने अपने
आंखें बंद कर
ली। और ध्यान
में डूब गया।
एक क्षण के
लिए उसका
केंद्र खो गया
था। एक पत्थर
एक हीरा,
एक वस्तु ज्यादा
शक्तिशाली
हो गई थी।
लेकिन केंद्र
फिर लौट आया।
हीरे के खोते
ही पूरा संसार
मिट गया। और
उसने अपने आंखें
बंद कर ली।
सदियों
से ध्यानी
अपनी आंखें
बंद करते रहे
है। क्यों?
यह केवल
प्रतीकात्मक
है कि संसार
मिट गया,
कि देखने को
कुछ न रहा। कि
किसी चीज का
कोई मुल्य
नहीं है—देखने
योग्य भी
नहीं। तुम्हें
यह सतत स्मरण
रखना पड़ेगा
कि जब भी
कामना उठती
है। तुम अपने
केंद्र से
बाहर निकल
जाते हो। यह
बाहर जाना ही
संसार है। फिर
वापस लौट आओ, फिर से
केंद्रित हो
जाओ।
यह
तुम कर पाओगे,
इसकी क्षमता
हर किसी के
पास हे।
आंतरिक संभावना
तो कोई भी कभी
नहीं खोता। वह
हमेशा रहती है।
तुम वापस लौट
सकत हो। अगर
तुम बाहर जा
सकते हो तो
भीतर भी जा
सकते हो। अगर
मैं अपने घर
से बाहर जा
सकता हूं तो
वापस भीतर क्यों
नहीं लौट सकता? वहीं रास्ता
तय करना है; वही पैर काम
में लाने है।
अगर मैं बाहर
जा सकता हूं
तो भीतर भी आ
सकता हूं।
हर
क्षण तुम बाहर
जा रहे हो।
लेकिन जब भी
तुम बाहर जाओ।
स्मरण करो—और
अचानक वापस लौट
आओ। केंद्रित हो
जाओ। अगर शुरू
में थोड़ा कठिन
लगे तो एक गहरी
श्वास लो। श्वास
बाहर छोड़ो। और
रूक जाओ। इस क्षण
में उस चीज की और
देखो जो तुम्हें
आकर्षित कर रही
है।
असल
में तुम्हें कुछ
आकर्षित नहीं कर
रहा था। तुम आकर्षित
हो रहे थे। उस निर्जन
वन में रहा पर पडा
हीरा किसी को आकर्षित
नहीं कर रहा था, वह
तो बस वहां पडा
हुआ था। हीरे को
पता भी नहीं था
कि भर्तृहरि आकर्षित
हो रहा है। कि कोई
अपने ध्यान से, अपने केंद्र
से विचलित हो गया।
हीरे को पता भी
नहीं था कि दो लोग
उसके लिए लड़े
और अपनी जान गांव
बैठे।
तो
कुछ भी तुम्हें
आकर्षित नहीं कर
रहा—तुम आकर्षित
हो रहे हो। जाग
जाओ और सेतु टूट
जाएगा। और तुम
भीतर का संतुलन
वापस पा लोगे।
इसे जब भी ख्याल
आ जाए करते रहो।
जितना करो उतना
अच्छा। और एक
क्षण आएगा जब तुम्हें
इसे करना ही जरूरत
नहीं पड़ेगी। क्योंकि
तुम्हारी आंतरिक
शक्ति तुम्हें
इतना बल देगी कि
चीजों का आकर्षण
खो जाएगा। यह
तुम्हारी कमजोरी
ही है जो आकर्षित
होती है। अधिक
शक्ति शाली बनो।
और कुछ भी तुम्हें
आकर्षित नहीं करेगा।
केवल तभी तुम पहली
बार अपने प्राणों
के मालिक होते
हो।
और
उससे तुम्हें
वास्तविक मुक्ति
मिलेगी। कोई राजनैतिक
स्वतंत्रता, कोई
आर्थिक स्वतंत्रता, कोई सामाजिक
स्वतंत्रता बहुत
सहयोगी नहीं होगी।
ऐसा नहीं कि उनमें
कुछ खराबी है।
वे अच्छी है।
अपने आप में अच्छी
है। लेकिन वे स्वतंत्रताएं
तुम्हें यह सब
न दे पाएंगी जिसके
लिए तुम्हारा
अंतरतम अभीप्सा
कर रहा हे। चीजों
से, वस्तुओं
से स्वतंत्रता, किसी वस्तु
या व्यक्ति से
मोहित होने की
किसी भी संभावना
से मुक्त स्वयं
होने की स्वतंत्रता।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र,
भाग-5, प्रवचन-73
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