दूसरी
विधि:
‘’हे
दयामयी,
अपने रूप के
बहुत ऊपर और
बहुत नीचे,
आकाशीय उपस्थिति
में प्रवेश
करो।‘’
यह
दूसरी विधि
तभी प्रयोग की
जा सकती है,
जब तुमने पहली
विधि पूरी कर
ली है। यह
प्रयोग अलग से
भी किया जा
सकता है।
लेकिन तब यह
बहुत कठिन
होगा। इसलिए
पहली विधि
पूरी करके ही
इसे करना अच्छा
है। और तब यह
विधि बहुत सरल
भी हो जायेगी।
जब
भी ऐसा होता
है—कि तुम
हलके-फुलके
अनुभव करते हो,
जमीन से उठते
हुए अनुभव
करते हो,मानों
तुम उड़ सकते
हो—तभी अचानक
तुम्हें बोध
होगा कि तुम्हारा
शरीर को चारों
और एक नीली
आभा मंडल घेरे
है।
लेकिन
यह अनुभव तभी
होगा जब तुम्हें
लगे कि मैं
जमीन से ऊपर
उठ सकता हूं,
कि मेरा शरीर
आकाश में उड़
सकता है। कि
यह बिलकुल
हलका और निर्भार
हो गया है। कि
वह पृथ्वी के
गुरूत्वाकर्षण
से बिलकुल
मुक्त हो गया
है।
ऐसा
नहीं है कि
तुम उड़ सकते
हो; वह प्रश्न
नहीं है।
हालांकि
कभी-कभी यह भी
होता है। कभी-कभी
ऐसा संतुलन
बैठ जाता है।
कि तुम्हारा
शरीर ऊपर उठ
जाता है।
लेकिन यह
प्रश्न ही
नहीं है। उसकी
सोचो ही मत।
बंद आंखों से
इतना महसूस
करना काफी है
कि तुम्हारा
शरीर ऊपर उठ
गया है। जब
तुम आँख
खोलोगे तो
पाओगे कि तुम
जमीन पर ही
बैठे हो। उसकी
चिंता मत करो।
अगर तुम बंद
आंखों से
महसूस कर सके
कि शरीर ऊपर
उठ गया है,
कि उसमें कोई
वज़न रहा,
तो इतना काफी
है।
ध्यान
के लिए इतना
काफी है।
लेकिन अगर
आकाश में उड़ना
सीखने की चेष्टा
कर रहे हो तो
यह काफी नहीं
है। लेकिन मैं
उसमें उत्सुक
नहीं हूं,और
मैं तुम्हें
उसके संबंध
में कुछ नहीं
बताऊंगा।
इतना पर्याप्त
है कि तुम्हें
महसूस हो कि
तुम्हारे
शरीर पर कोई
भार नहीं है, वह निर्भार
हो गया है।
और
जब भी यह
हलकापन महसूस
हो तो आंखें
बंद रखे हुए
ही अपने शरीर
के आकार के
प्रति
बोधपूर्ण होओ।
आंखों को बंद
रखते हुए अँगूठों
को और उनके
आकार को महसूस
करो, पैरों को और
उनके आकार को
महसूस करो।
अगर तुम बुद्ध
की भांति
सिद्धासन में
बैठे हो तो
बैठे ही बैठे
अपने शरीर के
आकार को अनुभव
करो। तुम्हें
अनुभव होगा, स्पष्ट
अनुभव होगा।
और उसके साथ
ही साथ तुम्हें
बोध होगा कि
उस आकार के
चारों और नीला
सा प्रकाश
फैला है।
आरंभ
में यह प्रयोग
आंखों को बंद
रख कर करो। और
जब यह प्रकाश
फैलता जाए और
तुम्हें
आकार के चारों
और नीला
प्रकाश मंडल
महसूस हो,
तब कभी यह
प्रयोग रात
में,
अंधेरे कमरे
में करते समय
आंखें खोल लो, और तुम अपने
शरीर के चारों
और एक नीला
प्रकाश, एक
नीला आभा मंडल
देखोगें। अगर
तुम इसे बंद
आंखों से नहीं, खुली आंखों
से देखना
चाहते हो तो
इसे सचमुच
देखना चाहते
हो तो यह
प्रयोग
अंधेरे कमरे में
करो जहां कोई
रोशनी न हो।
यह
नीला प्रकाश,
यह नीला आभा
मंडल तुम्हारे
आकाश शरीर की
उपस्थिति
है। तुम्हारे
शरीर एक द्वार
है। यह विधि
आकाश-शरीर से
संबंध रखती
है। और तुम
आकाश शरीर के
द्वारा ऊंची
से ऊंची समाधि
में प्रवेश कर
सकते हो।
सात
शरीर है और
भगवत्ता में
प्रवेश के लिए
प्रत्येक
शरीर का उपयोग
हो सकता है।
प्रत्येक
शरीर एक द्वार
है। यह विधि
आकाश शरीर का
उपयोग करती
है। और आकाश
शरीर को
प्राप्त
करना सबसे सरल
है। शरीर के
तल पर जितनी
ज्यादा
गहराई होगी
उतनी ही उसकी
उपलब्धि
कठिन होगी।
लेकिन आकाश
शरीर तुम्हारे
बहुत निकट है,
स्थूल शरीर
के बहुत निकट
है। आकाश शरीर
तुम्हारा
दूसरा शरीर
है। जो तुम्हारे
चारों और है—तुम्हारे
स्थूल शरीर
के चारों और।
यह तुम्हारे
शरीर के भीतर
भी है और यह
शरीर को चारों
और से एक धुँधली
आभा की तरह, नीले
प्रकाश को तरह
ढीले परिधार
की तरह घेर हुए
है।
‘हे
दयामयी,
अपने रूप के
बहुत ऊपर और
बहुत नीचे,
आकाशीय उपस्थिति
में प्रवेश
करो।’
बहुत
ऊपर, बहुत नीचे—तुम्हारे
चारों और
सर्वत्र। यदि
तुम अपने सब
और उस नीले
प्रकाश को देख
सको तो विचार
तुरंत ठहर
जाएगा। क्योंकि
आकाश शरीर के
लिए विचार
करने की जरूरत
नही है। और यह
नीला प्रकाश
बहुत शांति
दायी है। क्यों? क्योंकि
वह तुम्हारे
आकाश शरीर का
प्रकाश है।
नीला आकाश ही
कितना
विश्रामपूर्ण
है। क्यों? क्योंकि
वह तुम्हारे
आकाश शरीर का
रंग है। और
आकाश-शरीर स्वयं
बहुत
विश्रामपूर्ण
है।
जब
भी कोई व्यक्ति
तुम्हें
प्रेम करता है,
जब भी कोई व्यक्ति
तुम्हें
प्रेम से स्पर्श
करता है,
तब वह तुम्हारे
आकाश शरीर को
स्पर्श करता
है। इसीलिए
तुम्हें वह
इतना सुखदायी
मालूम पड़ता
है। इसका तो फोटोग्राफ
भी लिया जा चुका
है। जब दो
प्रेमी में
संभोग में
उतरते है,
और यदि उनका
संभोग एक खास
अवधि तक चले, चालीस मिनट
से ऊपर चले और
स्खलन न हो, तो गहन
प्रेम में
डूबे उन दो
शरीरों के
चारों ओर एक
नीला प्रकाश
छा जाता है। उनका
फोटो भी लिया
जा सकता है।
और
कभी-कभी तो
बहुत अजीब
घटनाएं घटती
है। क्योंकि
यह प्रकाश
बहुत ही
सूक्ष्म विद्युत
शक्ति है।
सारे संसार
में बहुत सी
ऐसी घटनाएं
घटी है। नए
प्रेमियों का
एक जोड़ा
हनीमून मनाने
के लिए नए
कमरे में ठहरा
है; पहली रात है
और वे एक
दूसरे के शरीर
से परिचित
नहीं है,
वे नहीं जानते
है कि क्या
संभव है। अगर
दोनों के शरीर
प्रेम के
आकर्षण के लगाव
और हार्दिकता
के एक विशेष
तरंग से
तरंगायित है।
एक दूसरे के
प्रति खुले है, ग्रहणशील
है कि उनके
शरीर इतने विद्युत्मय
हो गया है।
उनके आकाश
शरीर इतने
आविष्ट और
जीवंत हो गए
है कि उनके
प्रभाव से
कमरे की चीजें
गिरने लगी है।
बहुत
अजीब घटनाएं
घटी है। मेज
पर एक मूर्ति
रखी है। वह
जमीन पर गिर
जाती है। मेज
का शीशा अचानक
टूट जाता है।
वहां कोई
तीसरा व्यक्ति
नही है। मात्र
वह जोड़ा है
वहां। उन्होंने
मेज या शीशे
को स्पर्श भी
नहीं किया और
ऐसा भी हुआ है
कि अचानक कुछ
जलने लगता है।
दुनियाभर में
ऐसे मामलों की
खबरें पुलिस
चौकियों में
दर्ज हुई है।
उन पर खोजबीन
की गई है ओर
पाया गया है
कि गहन प्रेम
में संलग्न
दो व्यक्ति
ऐसी विद्युत
शक्ति का
सृजन कर सकते
है कि उससे
उनके आस-पास
की चीजें
प्रभावित हो
सकती है।
वह
शक्ति भी
आकाश शरीर से
आती है। तुम्हारा
आकाश शरीर
तुम्हारा
विद्युत शरीर
है। जब भी तुम
ऊर्जा से भरे
होते हो तब
तुम्हारा
आकाश-शरीर
बड़ा हो जाता
है। और जब तुम
उदास,बुझे-बुझे
होते हो तो
तुम्हारा
आकाश शरीर
सिकुड़कर
शरीर के भीतर
सिमट जाता है।
इसीलिए उदास
और दुःखी व्यक्ति
के पास तुम भी
उदास और दुःखी
हो जाते हो।
अगर कोई दुःखी
व्यक्ति इस
कमरे में
प्रवेश करे तो
तुम्हें
लगेगा कि कुछ
गड़बड़ हो रही
है, क्योंकि
उसका आकाश
शरीर तुम्हें
तुंरत
प्रभावित
करता है। वह
शक्ति चूसता
है; क्योंकि
उसकी अपनी शक्ति
इतनी
बुझी-बुझी है
कि वह दूसरों
की शक्ति
चूसने लगता
है।
उदास
आदमी तुम्हें
उदास बना देता
है। दुःखी
आदमी तुम्हें
दुःखी कर देता
है। बीमार व्यक्ति
तुम्हें
बीमार कर
देगा। क्यो?
क्योंकि वह
उतना ही नहीं
है जितना तुम
देखते हो,
उसके भीतर कुछ
छिपा है जो
काम कर रहा
है। हालांकि
उसने कुछ नहीं
कहा है।
हालांकि वह
बाहर से मुस्कुरा
रहा है; तो
भी यदि वह
दुःखी है तो
वह तुम्हारा
शोषण करेगा, तुम्हारे
आकाश शरीर की
ऊर्जा क्षीण
हो जाएगी। वह
तुम्हारी
उतनी शक्ति
खींच लेगा,
वह तुम्हें
उतना चूस लगा।
और जब कोई
सुखी व्यक्ति
कमरे में
प्रवेश करता है
तो तुम भी तत्क्षण
सुख महसूस
करने लगते हो।
सुखी व्यक्ति
इतनी आकाशीय
शक्ति
बिखेरता है कि
वह तुम्हारे
लिए भोजन बन
जाता है। वह
तुम्हारा
पोषण बन जाता
है। उसके पास
अतिशय ऊर्जा उससे
बह रही है।
जब कोई
बुद्ध, कोई
क्राइस्ट, कोई कृष्ण
तुम्हारे
पास से गुजरते
है तो वह तुम्हें
निरंतर एक
सूक्ष्म
भोजन दे रहे
है। और तुम
निरंतर उनके
मेहमान हो। और
जब तुम किसी
बुद्ध के
दर्शन करके
लौटते हो तो
तुम अत्यंत पुन
जीवित, अत्यंत
ताजा,अत्यंत
जीवंत अनुभव
करते हो। हुआ
क्या?
बुद्ध कुछ
बोले भी न हों; मात्र
दर्शन से तुम्हें
लगता है कि
मेरे भीतर कुछ
बदल गया है।
मेरे भीतर कुछ
प्रविष्ट हो
गया है। क्या
प्रविष्ट हो
गया है?
बुद्ध इतने
आप्तकाम है, इतने
आपूरित है,
इतने लबालब
भरे है। कि वे
ऊर्जा का सागर
बन गए है। और
उनकी ऊर्जा
बाढ़ की भांति
बहा रही है।
जो
भी व्यक्ति
स्वास्थ
होता है, शांत
होता है,
वह सदा बाढ़
बन जाता है।
क्योंकि अब
उसकी ऊर्जा उन
व्यर्थ की
बातों में उन
ना समझियों
में व्यय
नहीं होती
जिनमें तुम
अपनी ऊर्जा
गंवा रहे हो।
उसके साथ उसके
चारों और सदा
ऊर्जा की बाढ़
चलती है। और
जो भी उसके
संपर्क में
आता है। वह उसका
लाभ ले सकता
है।
जीसस
कहते है: ‘मेरे
पास आओ,
अगर तुम बहुत
बोझिल हो तो
मेरे पास आओ।
मैं तुम्हें
निर्बोझ कर दूँगा।’
असल
में जीसस कुछ
नहीं करते है,
बस उनकी उपस्थिति
में कुछ होता
है। कहते है
कि जब कोई
भगवता को
उपलब्ध
पुरूष, कोई
तीर्थंकर,
कोई अवतार,
कोई क्राइस्ट
पृथ्वी पर
चलता है तो
उसके चारो और
एक विशेष
वातावरण,
एक
प्रभाव-क्षेत्र
निर्मित होता
है। जैन योगियों
ने तो इसका माप
भी लिया है।
वे कहते है कि
यह
प्रभाव-क्षेत्र
चौबीस मील
होता है।
तीर्थंकर के चारों
और चौबीस मील
की परिधि होती
है। चाहे उसे
इसका बोध हो या
न हो, चाहे
वह मित्र हो
या शत्रु हो, अनुयायी हो
या विरोधी हो, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता है।
हां,यदि
तुम अनुयायी
हो तो तुम खूब
भर जाते हो।
क्योंकि तुम
खुले हुए हो।
विरोधी भी
भरता है,
लेकिन उतना
नहीं। क्योंकि
विरोधी बंद
होता है।
लेकिन ऊर्जा
तो सब पर बरसती
है। एक अकेला
व्यक्ति
यदि
अनुद्विग्न
है, शांत
है, मौन है, आनंदित है, तो वि शक्ति
का पुंज बन
जाता है—ऐसा
पुंज कि उसके
चारों और
चौबीस मील में
एक विशेष
वातावरण बन
जाता है। और
उस वातावरण
में तुम्हें
एक सूक्ष्म
पोषण मिलता
है।
यह
घटना
आकाश-शरीर के
द्वारा घटती
है। तुम्हारा
आकाश शरीर
विद्युत शरीर
है। जो शरीर
हमें दिखाई
पड़ता है। वह
भौतिक है,
पार्थिव है।
यह सच्चा
जीवन नहीं है।
इस शरीर में
विद्युत शरीर
आकाश शरीर के
कारण जीवन आता
है। वहीं तुम्हारा
प्राण है।
तो
शिव कहते है: ‘हे
दयामयी, आकाशीय
उपस्थिति में
प्रवेश करो।’
पहले
तुम्हें अपने
भौतिक शरीर को
घेरने वाले आकाश
शरीर के प्रति
बोधपूर्ण होना
होगा। और जब तुम्हें
उसका बोध होने
लगे तो उसे बढ़ाओं।
बड़ा करो, फैलाओ।
इसके लिए तुम क्या
कर सकते हो?
बस
चुपचाप बैठना है
और उसे देखना है।
कुछ करना नहीं
है; बस अपने चारो
और फैले इस नीले
आकार को देखते
रहना है। और देखते-देखते
तुम पाओगे कि वह
बढ़ रहा है। बड़ा
हो रहा है। सिर्फ
देखने से वह बड़ा
हो रहा है। क्योंकि
जब तुम कुछ नहीं
करते हो तो पूरी
ऊर्जा आकाश शरीर
को मिलती है। इसे
स्मरण रखो। और
जब तुम कुछ करते
हो तो आकाश शरीर
से ऊर्जा बाहर
जाती है।
लाओत्से
कहता है: ‘मैं कुछ
नहीं करता हूं
और मुझसे शक्तिशाली
कोई नहीं है। मैं
कभी कुछ नहीं करता
है। और कोई मुझसे
शक्तिशाली नहीं
है। जो कुछ करने
के कारण शक्ति
शाली है, उन्हें
हराया जा सकता
है। लाओत्से कहता
है; ‘मुझे
हराया नहीं जा
सकता क्योंकि
मेरी शक्ति कुछ
न करने से आती है।
तो असली बात कुछ
न करना है।’’
बोधिवृक्ष
के नीचे बुद्ध
क्या कर रहे थे? कुछ
नहीं कर रहे थे।
वे उस क्षण कुछ
भी नहीं कर रहे
थे। वे शून्य
हो गया थे। और मात्र
बैठे-बैठे उन्होंने
परम को पा लिया।
यह बात बेबूझ लगती
है। यह बात बहुत
हैरानी की लगती
है। हम इतना प्रयत्न
करते है और कुछ
नहीं होता है।
और बुद्ध बोधिवृक्ष
के नीचे बैठे-बैठे
बिना कुछ किये
परम को उपलब्ध
हो जाते है।
जब
तुम कुछ नहीं करते
हो तब तुम्हारी
ऊर्जा बाहर गति
नहीं करती है।
तब वह ऊर्जा आकाश-शरीर
को मिलती है। और
वहां इकट्ठी होती
है। फिर तुम्हारा
आकाश-शरीर विद्युत
शक्ति का भंडार
बन जाता है। और
वह भंडार जितना
बढ़ता है। फिर
तुम्हारी शक्ति
उतनी ही बढ़ती
है। और तुम जितना
ज्यादा शांत होते
हो उतनी ही ऊर्जा
का भंडार भी बढ़ता
है। और जिस क्षण
तुम जान लेते हो।
कि आकाश शरीर जो
ऊर्जा कैसे दी
जाए और कैसे ऊर्जा
को व्यर्थ नष्ट
न किया जाए, उसी
क्षण गुप्त कुंजी
तुम्हारे हाथ
लग गई।
और
तब तुम आनंदित
हो सकते हो। वस्तुत:
तभी तुम आनंदित
हो सकते हो। उत्सव
मना सकते हो। तुम
अभी जैसे हो ऊर्जा
से रिक्त, तुम
कैसे उत्सवपूर्ण
हो सकते हो? तुम कैसे उत्सव
मना सकते हो? तुम कैसे फूल
की तरह खिल सकते
है। फूल तो अतिरिक्त
ऊर्जा का वैभव
है। वृक्ष ऊर्जा
से लबालब होते
हो तो उसमें फूल
खिलते है। वृक्ष
यदि भूखा हो तो
उसमे फूल नहीं
आएँगे। क्योंकि
पत्तों के लिए
भी पर्याप्त पोषण
नहीं है। जड़ों
के लिए भी पर्याप्त
भोजन नहीं है।
उनमें
भी एक क्रम है।
पहले जड़ों को
भोजन मिलेगा। क्योंकि
वे बुनियादी है।
अगर जड़ें ही सूख
गईं तो फूल की संभावना
कहां रहेगी? तो
पहले जड़ों को
भोजन दिया जाएगा।
फिर शाखाओं को।
अगर सब ठीक-ठाक
चले और फिर भी ऊर्जा
शेष रह जाए, तब पत्तों को
पोषण दिया जाएगा।
और उसके बाद भी
भोजन बचे और वृक्ष
समग्रत: संतुष्ट
हो, जीने के
लिए और भोजन की
जरूरत न रहे, तब अचानक उसमें
फूल लगते है। ऊर्जा
का अतिरेक ही फूल
बन जाता है। फूल
दूसरों के लिए
दान है। फूल भेंट
है। फूल वृक्ष
की तरफ से तुम्हें
भेंट है।
और
यही घटना मनुष्य
में भी घटती है।
बुद्ध वह वृक्ष
है जिसमें फूल
लगे। अब उनकी ऊर्जा
इतनी अतिशय है
कि उन्होंने सबको
पूरे अस्तित्व
को उसमे सहभागी
होने के लिए आमंत्रित
किया है।
पहले
पहली विधि को प्रयोग
करो और फिर दूसरी
विधि को। तुम दोनों
को अलग-अलग भी प्रयोग
कर सकते हो। लेकिन
तब आकाश-शरीर के
नीले आभा मंडल
को प्राप्त करना
थोड़ा कठिन होगा।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-चार
प्रवचन-63
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