यह विधि एकांत से संबंधित है:
किसी ऐसे स्थान पर वास करों जो अंतहीन रूप से विस्तीर्ण हो, वृक्षों, पहाड़ियों, प्राणियों से रहित हो। तब मन के भारों का अंत हो जाता है।
इससे पहले
कि हम इस विधि
में प्रवेश
करे, एकांत के
विषय में कुछ बातें
समझ लेने जैसी
है। एक: अकेले
होना मौलिक
है। आधारभूत
है। तुम्हारे
अस्तित्व
का यही स्वभाव
है। मां के
गर्भ में तुम
अकेले थे,
पूरी तरह
अकेले थे।
और
मनोवैज्ञानिक
कहते है कि
निर्वाण की,
बुद्धत्व की,
मुक्ति की यह
स्वर्ग की
आकांशा मां के
गर्भ की गहन स्मृति
है। पूर्ण
एकांत को और
उसके आनंद को
तुमने जाना
है। तुम अकेले
थे, तुम परमात्मा
थे वहां और
कोई न था।
जीवन सुंदर
था। हिंदू उसे
सतयुग कहते
है। तुम्हें
कोई परेशान
करने वाला
नहीं था। न ही
कोई बाधा डाल
रहा था। अकेले
तुम ही मालिक
थे। कोई संघर्ष
नहीं था, पूर्ण
शांति थे,
मौन था, कोई भाषा
नहीं थी। तुम
अपने अंतरात्मा
में थे। तुम्हें
पता नहीं था।
लेकिन वह स्मृति
तुम्हारे
गहन में, तुम्हारे
अचेतन में
अंकित है।
मनोवैज्ञानिक
कहते है, इसलिए सब
सोचते है कि
बचपन बहुत
सुंदर था। हर देश
हर जाति यह
सोचती है कि
अतीत में कभी
स्वर्ग था।
जीवन सुंदर
था। हिंदू उसे
सतयुग कहते
है। अतीत में,
बहुत पहले
इतिहास के भी
शुरू होने से
पूर्व सब कुछ
सुंदर और
आनंदपूर्ण
था। न कोई
झगडा था, न कोई फसाद,न कोई
हिंसा। केवल
प्रेम ही
प्रेम था। वह
स्वर्ण युग
था। ईसाई कहते
है, ‘आदम और
ईव अदन के बग़ीचे
में बड़ी
निर्दोषता और
आनंद से रहते
थे। फिर पतन हुआ।’ तो स्वर्ण
युग उस पतन से
पहले था। हर
देश हर जाति, हर धर्म यह
सोचता है कि
स्वर्ण युग
कहीं अतीत में
था। और बड़ी
अजीब बात यह है
कि तुम अतीत
में कितने ही
पीछे चले जाओ, हमेशा ऐसा
ही सोचा जाता
रहा है।
मैसोपोटामिया
में एक शिला
मिली है जो छ:
हजार वर्ष
पुरानी है। उस
पर एक लेख
खुदा हुआ है।
उसे यदि तुम
पढ़ो तो तुम्हें
तो तुम्हें
लगेगा कि तुम
आज के किसी
अख़बार का
संपादकीय पढ़
रहे हो। वह
शिलालेख कहता
है कि यह युग
पाप युग है।
सब कुछ गलत हो
गया है। बेटे
बाप की नहीं
मानते, पत्नी
पति का विश्वास
नहीं करती।
अंधकार छा गया
है। अतीत के
वे स्वर्णिम
दिन कहां गए? यह शिलालेख
छ: हजार साल
पुराना है।
लाओत्से
कहता है कि
अतीत में,
पूर्वजों के
जमाने में सब
ठीक था, तब
ताओ का
साम्राज्य
था, तब कोई
गलती नही थी।
और क्योंकि
कोई कम नहीं
थी इसलिए कोई
सिखाने वाला न
था; कोई
कमी न थी जिसे
सुधारना
पड़े। इसलिए
कोई पंडित
नहीं था। कोई
शिक्षक नहीं
था। कोई धर्म
गुरु नहीं था।
क्योंकि ताओ
का साम्राज्य
था और सभी इतने
धार्मिक थे कि
किसी धर्म की
जरूरत न थी।
उस समय कोई
संत न था,
कोई पापी नहीं
थे। हर कोई
इतना संत था
कि किसी को
खबर ही नहीं
थी कि कौन संत
है और कौन
पापी।
मनोवैज्ञानिक
कहते है कि यह
अतीत कभी नहीं
था। यह अतीत
तो हर व्यक्ति
के गहन में
छिपी गर्भ की
स्मृति है।
वह अतीत असल
में गर्भ में
था। ताओ गर्भ
में था, वहां
सब कुछ ठीक था, सुंदर था।
संसार से
पूर्णतया
अंजान, बच्चा
आनंद में तैर
रहा था।
गर्भ
में बच्चा
ऐसे ही था
जैसे शेषनाग
पर लेटे विष्णु।
हिन्दू
मानते है कि
विष्णु अपनी
नाग-शय्या पर
लेटे हुए आनंद
के सागर में
तैर रहे है।
गर्भ में बच्चा
ऐसे ही होता
है। बच्चा भी
तैरता है। मां
का गर्भ भी
सागर के जैसा
है। और तुम
हैरान होओगे।
कि मां के
गर्भ में बच्चा
जिस जल में
तैरता है उसके
सभी लवण वही
होते है। जो
सागर के जल
में होते है—वही
लवण, वही
अनुपात। वह
सागर का ही सुखद
जल होता है।
और
गर्भ में सदा
बच्चे के लिए
उचित तापमान
रहता है। मां
चाहे सर्दी से
कंप रही हो,
उससे कोई फर्क
नहीं पड़ता, बच्चे के
लिए गर्भ में
सदा एक सा
तापमान रहता
है। वह ऊषण
रहता है। आनंद
से तैरता रहता
है। कोई चिंता, कोई दुःख
उसे नहीं
होता। मां उसके
लिए जैसे होती
ही नहीं। वह
अकेला होता
है। उसे मां
का भी पता
नहीं होता।
मां उसके लिए
जैसे होती ही
नहीं।
यह
संस्कार,
यह छाप तुम्हारे
साथ रहती है।
यही मूल सत्य
है। समाज में
प्रवेश करने
से पहले तुम
ऐसे ही थे। और
मरकर जब तुम
समाज से बाहर
जाओगे तब भी यही
सत्य होगा।
तुम फिर अकेले
हो जाओगे। और
एकाकीपन के इन
दो छोरों के
बीच तुम्हारा
जीवन तमाम
घटनाओं से भरा
होता है।
लेकिन वे सब
घटनाएं
सांयोगिक है।
गहरे में तुम
अकेले ही रहते
हो। क्योंकि
वहीं मूल सत्य
है। उस एकांत
के चारों तरफ
बहुत कुछ घटता
है। तुम्हारा
विवाह होता
है। तुम दो हो
जाते हो,
फिर तुम्हारे
बच्चे हो
जाते है। और
तुम कई हो
जाते हो। सब
कुछ होता रहता
है। लेकिन
केवल परिधि पर, गहन अंतरतम
अकेला ही रहता
है। वह तुम्हारी
वास्तविकता
है। तुम उसे
अपनी आत्मा
कह सकते हो।
अपना सार कह
सकते हो।
गहन
एकांत में इस
सार को दोबारा
प्राप्त कर
लेना है। तो
जब बुद्ध कहते
है कि उन्हें
निर्वाण
उपलब्ध हो
गया है तो असल
में उन्हें
यह एकांत,यह
आधारभूत सत्य
उपलब्ध हो
गया है।
महावीर कहते
है कि उन्हें
कैवल्य
उपलब्ध हो
गया है। कैवल्य
का अर्थ ही है
एकांत,
एकाकीपन।
घटनाओं के
झंझावात के
नीचे ही यह एकांत
मौजूद है।
यह
एकांत तुम में
ऐसे ही है
जैसे माला में
धागा। मनके
दिखाई पड़ते
है, धागा नहीं
दिखाई पड़ता है।
लेकिन मनके
धागे से ही
सम्हाले हुए
है। मनके तो
अनेक है लेकिन
धागा एक ही
है। वास्तव
में माला इस
सत्य का
प्रतीक है।
धागा है सत्य
और मनके है
घटनाएं जो
उसमें पिरोई
गई है। और जब
तक तुम भीतर
प्रवेश करके
इस मूलभूत
सूत्र तक नहीं
पहुंच जाओ,
तुम संताप में
रहोगे,
विषाद में ही
रहोगे।
तुम्हारा
एक इतिहास है,
संयोगों का इतिहास, और तुम्हारा
एक स्वभाव है
जो गैर-ऐतिहासिक
है। तुम किसी
तारीख को,
किसी स्थान
पर, किसी
समाज में,
किसी युग में
पैदा हुए।
तुम्हें एक
ढंग से पढ़ाया
गया, तुमने
कोई व्यवसाय
किया, किसी
स्त्री के
प्रेम में
पड़े, बच्चे
हुए—ये सब
नाटक के मनके
है, इतिहास
है। लेकिन
गहरे में तुम
हमेशा अकेले ही
हो। और यदि
तुम इन घटनाओं
में स्वयं को
भूल गए तो तुम यहां
होने के अपने
लक्ष्य से ही
चूक गए। तब
तुमने स्वयं
को इस नाटक
में खो दिया
और उस अभिनेता
को भूल गए जो
इस नाटक का
हिस्सा नहीं
था। केवल
अभिनय कर रहा
था—यह सब
अभिनय है।
इसी
कारण हमने
इतिहास नहीं
लिखा। असल में
यह निश्चित
कर पाना बड़ा
कठिन है। कि
कृष्ण कब
पैदा हुए और
कब राम पैदा
हुए, कब मरे;
या वे कभी
पैदा हुए भी
कि नहीं,
कि केवल
काल्पनिक
कथाएं है।
हमने इतिहास
नहीं लिखा,
और कारण यह है
कि हम धागे
में उत्सुक
है, मनकों
में नहीं,
वास्तव में, धर्म के जगत
में जीसस पहले
ऐतिहासिक व्यक्ति
है। लेकिन वह
अगर भारत में
पैदा हुए होते
तो ऐतिहासिक न
होते। भारत
में हम सदा
धागे की खोज
करते है।
मनकों को हमने
कोई खास महत्व
नहीं दिया।
लेकिन पश्चिम
शाश्वत की
अपेक्षा
घटनाओं में, तथ्यों
में, क्षण भंगुर
मे अधिक उत्सुक
है।
इतिहास
तो नाटक है।
भारत में हम
कहते है कि हम राम
और कृष्ण हर
युग में होते
है। बहुत बार
वे हो चुके है
और आगे भी
बहुत बार वे
होंगे। इसलिए
उनके इतिहास
को ढोने की
कोई जरूरत
नहीं है। वे
कब पैदा हुए
इसका कोई महत्व
नहीं है। यह
अप्रासंगिक
है। उनका अंतरतम
केंद्र क्या
है। वह धागा क्या
है। यह बात
अर्थपूर्ण
है। तो हमें
इस बात में रस
नहीं है। कि
वे ऐतिहासिक
थे या नहीं।
कि उनके साथ क्या-क्या
घटनाएं घटी।
हमारा रस तो
उनके प्राणों
के केंद्र में
है कि वहां क्या
घटा।
जब
तुम एकांत में
जाते हो तो
तुम धागे की
और जा रहे हो।
जब तुम एकांत
में जाते हो
तो तुम
प्रकृति में
जा रहे हो। जब
तुम वास्तव
में ही अकेले
हो, दूसरों के
बारे में सोच
भी नहीं रहे,तो पहली बार
तुम्हें
अपने चारों और
प्रकृति के
जगत का बोध
होता है,
तुम उसके साथ
जुड़ जाते हो।
अभी तो तुम
समाज से जुड़े
हुए हो। यदि
तुम समाज के
बंधन से छूट
जाओ तो प्रकृति
से जुड़
जाओगे। जब
वर्षा होती है—वर्षा
तो सदा से हो
रही है, लेकिन
तुम उसकी भाषा
नहीं समझ सकते
हो। तुम उसे
नहीं सुन सकते, तुम्हारे
लिए उसका कोई
अर्थ नहीं है।
अधिक से अधिक
तुम केवल उसके
जल के उपयोग
के बारे में
सोच पाते हो।
तो उपयोग तो
हो जाता है, लेकिन कोई
संवाद नहीं हो
पाता। तुम
वर्षा की भाषा
को नहीं समझ
पाते, तुम्हारे
लिए वर्षा का
कोई व्यक्तित्व
नहीं है।
लेकिन
कुछ समय के
लिए यदि तुम
समाज को छोड़
दो और अकेले
हो जाओ तो
तुम्हें नई
अनुभूति होने
लगेगी। वर्षा
आएगी तो तुम
से
गुनगुनाएगी,
तब तुम उसके
भावों को
समझने लगोगे।
किसी दिन वर्षा
बहुत गुस्से
में होगी।
किसी दिन बहुत
सुखद होगी।
किसी दिन
प्रेम बरसा
रही होगी।
किसी दिन पूरा
आकाश उदास
होगा। किसी
दिन नाच रहा
होगा। किसी
दिन सूर्य ऐसे
उगता है जैसे
बिना इच्छा के, जबरदस्ती
उग रहा हो। और
किसी दिन
सूर्य ऐसे
उगता है जैसे
खेल रहा हो।
तुम अपने
चारों और सभी
भाव दशाएं
अनुभव करोगे।
प्रकृति की
अपनी भाषा है, लेकि नवह
मौन है और जब
तक तुम मौन
नहीं हो जाते, तुम उसे
नहीं समझ
सकते।
लयबद्धता
की पहली सतह
समाज से जूड़ी
है। दूसरी
प्रकृति के
साथ, और तीसरी गहनत्म
सतह ताओ या
धर्म के साथ।
वह शुद्ध अस्तित्व
है। फिर वृक्ष
ओर वर्षा और
मेध भी पीछे
छूट जाते है।
तब केवल अस्तित्व
बचता है। अस्तित्व
में भाव कि
कोई तरंगें
नहीं है। अस्तित्व
सदा एक सा
रहता है—सदा
उत्सव में
लीन, उर्जा
से प्रस्फुटित।
लेकिन
पहले समाज से
प्रकृति की और
मुड़ना होगा।
फिर प्रकृति
से अस्तित्व
की और। जब तुम
अस्तित्व
से जुड़ जाते
हो तो बिलकुल
अकेले होते
हो। लेकिन वह
एकांत गर्भ के
बच्चे के
एकांत से भिन्न
होता है। बच्चा
अकेला होता है,
लेकिन वास्तव
में वह अकेला
नहीं होता,
उसे तो किसी और
की खबर ही
नहीं होती। वह
अंधकार से
ढंका होता है।
इसलिए अकेला
अनुभव करता
है। सारा
संसार उसके
चारों और होता
है। लेकिन उसे
खबर नहीं
होती। उसका
एकांत तो
अज्ञान के
कारण है। जब
तुम चैतन्य
होकर मौन होते
हो, अस्तित्व
के साथ एक
होते हो,
तो तुम्हारा
एकांत अंधकार
से नहीं
प्रकाश से
घिरा होता है।
गर्भ
में बच्चे के
लिए संसार
नहीं होता,
क्योंकि उसे
उसकी खबर नहीं
होती। और तुम्हारे
लिए संसार
नहीं होगा,
क्योंकि तुम
संसार के साथ
एक हो जाओगे।
जब तुम गहनत्म
अस्तित्व
में प्रवेश
करते हो तो
अकेले हो जाते
हो, क्योंकि
अहंकार समाप्त
हो जाता है।
अहंकार समाज
द्वारा दिया
गया है। जब
तुम प्रकृति
से जुड़ते हो
तो भी अहंकार
थोड़ा-बहुत रह
सकता है।
लेकिन उतना
नहीं जितना समाज
में होता है।
जब तुम अकेले
होते हो तो अहंकार
मिटने लगता
है। क्योंकि
वह सदा
संबंधों से ही
पैदा होता है।
इसे
थोड़ा विचार
करो, हर व्यक्ति
के साथ तुम्हारा
अहंकार बदल
जाता है। जब
तुम अपने नौकर
से बात कर रहे
हो तो भीतर
अपने अहंकार
को देखो कि कैसे
काम कर रहा
है। यदि अपने
मित्र से बात
कर रहे हो तो
भीतर देखो कि
अहंकार कैसा
है, जब
अपनी
प्रेमिका से
बात कर रहे हो
तो देखो कि अहंकार
है भी या
नहीं। और जब
तुम एक मासूम
बच्चे से बात
कर रहे हो तो
भीतर झांको, तब अहंकार
है भी या
नहीं। क्योंकि
छोटे बच्चे
के सामने
अहंकार
दिखाना
मूढ़ता होगी।
तुम्हें पता
है कि यह बात
मूढ़ता की हो जाएगी।
छोटे बच्चे के
साथ खेलते हुए
तुम बच्चे ही
बन जाते हो।
बच्चा
अहंकार की
भाषा नहीं
जानता। और बच्चे
के सामने
अहंकार
दिखाकर तुम
बिलकुल मूढ़
लगोगे।
तो
जब तुम बच्चों
के साथ खेलते
हो, वे तुम्हें
तुम्हारे
बचपन में लौटा
लाते है। जब
तुम एक कुत्ते
से बात करते
हो, खेलते
हो, तो
समाज ने जो
अहंकार तुम्हें
दिया है वह
विदा हो जाता
है। क्योंकि
कुत्ते के
साथ अहंकार का
प्रश्न ही
नहीं उठता।
लेकिन
अगर तुम बड़े
सुंदर और
कीमती कुत्ते
के साथ टहल
रहे हो और कोई
तुम्हारे
पास से सड़क
पार कर जाता
है तो कुत्ता
भी तुम्हारा
अहंकार जगा
देता है।
लेकिन तुम्हारा
अहंकार कुत्ते
ने नहीं उस
आदमी ने जगाया
है। तुम तनकर
चलने लगते हो,
तुम्हें
गर्व महसूस
होता है। तुम्हारे
पास इतना
सुंदर कुत्ता
है। और वह आदमी
ईर्ष्या
करता दिखाई
पड़ता है। तो
अहंकार है।
परंतु जब तुम
बन में चले
जाते हो तो
अहंकार मिटने
लगता है।
इसीलिए तो सभी
धर्मों का जोर
है कि चाहे
थोड़े समय के
लिए ही सही, प्रकृति के
जगत में चले
जाओ।
यह
सूत्र सरल है: ‘किसी
ऐसे स्थान पर
वास करो जो
अंतहीन रूप से
विस्तीर्ण
हो।’
किसी
पहाड़ी पर चले
जाओ जहां से
तुम अंतहीन
दूरी तक देख
सको। यदि तुम
अंतहीन रूप से
देख सको, तुम्हारी
दृष्टि कहीं
रूक नहीं,
तो अहंकार मिट
जाता है।
अहंकार के लिए
सीमा चाहिए। सीमाएं
जितनी सुनिश्चित
हो। अहंकार के
लिए उतना ही
सरल हो जाता
है।
किसी
ऐसे स्थान पर
वास करो जो
अंतहीन रूप से
विस्तीर्ण
हो, वृक्षों, पहाड़ियों, प्राणियों
से रहित हो।
तब मन के
भारों का अंत हो
जाता है।
मन
बहुत सूक्ष्म
है। तुम एक
पहाड़ी पर हो
जहां और कोई
नहीं है।
लेकिन नीचे
कहीं,तुम्हें
कोई झोपड़ी
दिखाई दे जाए
तो तुम उस
झोपड़ी से
बातें करने
लगोंगे,
उससे संबंध
जोड़ लोगे—समाज
आ गया। तुम
नहीं जानते कि
वहां कौन रहता
है। लेकिन कोई
रहता है,
और वही सीमा
बन जाती है।
तुम सोचने
लगते हो,
वहां कोन रहता
है। रोज तुम्हारी
नजरें उसे
खोजने लगती
है। झोंपड़ी
मनुष्यों की
प्रतीक बन जाएगी।
तो
सूत्र कहता
है: ‘प्राणियों
से रहित हो।’
वृक्ष
भी न हों, क्योंकि
जो लोगे अकेले
होते हो वे
वृक्षों से बोलना
शुरू कर देते
है। उनसे
मित्रता कर
लेते है,
बात-चीत करने
लगते है। तुम
उस व्यक्ति
की कठिनाई को
नहीं समझ सकते
जो अकेला होने
के लिए चला
गया है वह
चाहता है कि
कोई उसके पास हो।
तो वह वृक्षों
को ही नमस्कार
करना शुरू कर
देगा। और
वृक्ष भी
प्राणी है,
यदि तुम
ईमानदार हो तो
वे भी जवाब
देना शुरू कर
देंगे। वहां
प्रति संवेदन
होगा। तो तुम
समाज खड़ा कर
सकते हो।
तो
इस सूत्र का
अर्थ यह हुआ
कि किसी स्थान
पर रहो और
सचेत रहो कि
कोई दोबारा समाज
न खड़ा कर लो।
तुम एक वृक्ष
से भी प्रेम करना
शुरू कर सकते
हो। तुम्हें
लग सकता है कि
वृक्ष प्यासा
है तो कुछ
पानी ले आऊं,
तुमने संबंध
बनाना शुरू कर
दिया। और
संबंध बनाते
ही तुम अकेले
नहीं रह जाते।
इसीलिए इस बात
पर जोर है कि
ऐसे स्थान पर
चले जाओ लेकिन
यह बात याद
रखो कि तुम कोई
संबंध नहीं
बनाओगे।
संबंध और
संबंधों के संसार
को पीछे छोड़
जाओ और अकेले
ही वहां जाओ।
शुरू-शुरू
में तो यह
बहुत कठिन
होगा। क्योंकि
तुम्हारा मन
समाज द्वारा
निर्मित है।
तुम समाज को तो
छोड़ सकते हो
लेकिन मन को
कहां
छोड़ोगे। मन
छाया की तरह
तुम्हारा
पीछा करेगा।
मन तुम्हें
डराएगा, मन
तुम्हें
सताएगा। तुम्हारे
सपनों में ऐसे
चेहरे आएँगे, जो तुम्हें
खींचने का
प्रयास
करेंगे। तुम
ध्यान करने
का प्रयास
करोगे। लेकिन
विचार बंद नहीं
होंगे। तुम
अपने घर की, अपनी पत्नी
की अपने बच्चों
की सोचने
लगोंगे।
यह
मानवीय है। और
ऐसा केवल तुम्हें
ही नहीं होता,
ऐसा बुद्ध और
महावीर को भी
हुआ। ऐसा हर
किसी को हुआ
है। एकांत के
छ: लंबे
वर्षों में
बुद्ध भी यशोधरा
के बारे में
सोचेंगे ही।
शुरू-शुरू में
जब मन उनका
पीछा कर रहा
था, तब वह
यदि किसी
वृक्ष के नीचे
ध्यान करने
बैठते होंगे
तो यशोधरा
पीछा करती
होगी। उस स्त्री
से वह प्रेम
करते थे,
और उन्हें
जरूर ग्लानि
हुई होगी कि
बिना कुछ बताए
उसे वे पीछे
छोड़ आए थे।
इसका
कही उल्लेख
नहीं है, कि
कभी यशोधरा के
बारे में उन्होने
सोचा,
लेकिन मैं
कहता हूं,कि
उसके बारे में
उन्होंने
निश्चित ही
सोचा होगा। यह
तो बिलकुल
मानवीय,
बिलकुल स्वाभाविक
बात है। यह
सोचना बहुत
अमानवीय हो
गया कि यशोधरा
की याद उन्हें
फिर कभी नहीं
आई, और यह
बुद्ध के लिए
उचित भी न
होगा।
धीरे-धीरे,
बड़े संघर्ष
के बाद ही वह
मन को समाप्त
कर पाए होंगे।
लेकिन
मन चलता ही
रहता है, क्योंकि
मन और कुछ
नहीं समाज ही
है। आंतरिक
समाज है। समाज
जो तुम में
प्रवेश कर गया
है, तुम्हारा
मन है। तुम
बाह्म समाज, बाह्म वास्तविकता
से भाग सकते
हो, लेकिन
आंतरिक समाज
तुम्हारा
पीछा करेगा।
तो कई
बार बुद्ध
यशोधरा से बात
किए होंगे,
अपने पिता से
बात किए होंगे, अपने बच्चे
से बात किए
होंगे पीछे
छोड़ आये थे।
उस बच्चे का
चेहरा उनका
पीछा करता
होगा जब वे घर
छोड़कर आए थे।
तो वह उनके मन
में ही था।
जिस रात उन्होंने
घर छोड़ा,
वे उस बच्चे
को देखने के
लिए ही यशोधरा
के कमरे में
गए थे। बच्चा
केवल एक ही
दिन का था।
यशोधरा सो रही
थी और बच्चा
उसकी छाती से
लगा हुआ था, उन्होंने
बच्चे की और
देखा, वह
बच्चे को गोद
में लेना
चाहते थे,
क्योंकि यह
अंतिम अवसर
था। अभी तक उस
बच्चे को उन्होंने
छुआ भी नहीं
था। और हो
सकता था,
कि वह कभी
वापस न लौटे
और कभी उससे
मिलना न हो। वह
संसार छोड़
रहे थे।
तो
वह बच्चे को
छूना और चूमना
चाहते थे।
लेकिन फिर डर
गए, क्यों कि यदि
उसे गोद में
लेते तो
यशोधरा जाग
सकती थी। और
तब उनके लिए
जाना बहुत
कठिन हो जाता।
क्योंकि पता
नहीं वह
रोना-चिल्लाना
शुरू कर दे।
उनके पास एक
मानवीय ह्रदय
था। यह बहुत
सुंदर है कि
उन्होंने यह
बात सोची कि
यदि वह रोने
लगी तो उनके लिए
जाना कठिन हो
जाएगा। तब जो
भी उनके मन
में था कि
संसार व्यर्थ
है। सब समाप्त
हो जाता। वह
यशोधरा को
रोते हुए न
देख पाते,
वह उस स्त्री
को प्रेम करते
थे। तो यह
बिना कोई आवाज
किए कमरे से
बाहर आ गए।
अब
यह व्यक्ति
सरलता से
यशोधरा और बच्चे
को नहीं छोड़
सका था, कोई
भी न छोड़
पाता। तो जब
वह भिक्षा
मांगते थे तो
उनके मन में
अपने महल और
साम्राज्य
का विचार उठता
होगा। वह अपनी
मर्जी से
भिखारी हुए
थे। अतीत जोर
मारता होगा, चोट करता
होगा, वापस
आ जाओ। कई बार
वह सोचते
होंगे। मैंने
भूल की है। ऐसा
होना निश्चित
ही है। कहीं
इस बात का उल्लेख
नहीं है। और
कई बार मैं
सोचता हु कि
एक डायरी बनाई
जाए कि उन छ:
वर्षों में
बुद्ध के मन
को क्या हुआ।
उनके मन में
क्या चलता
रहा।
तुम
कहीं भी जाओ,
मन छाया की
तरह पीछा
करेगा। तो यह
सरल नहीं होगा, यह किसी के
लिए सरल नहीं
रहा। अपने को
सचेत रखने के
लिए बड़ा
संघर्ष करना
पड़ेगा।
बार-बार संघर्ष
करना पड़ेगा।
ताकि मन के
शिकार न हो
जाओ। और मन
अंत तक पीछा
करता है,
जब तक तुम हार
ही न जाओ।
तुम्हारे
लिए कोई उपाय
नहीं बचा। कुछ
भी कर न सको। मन
तुम्हारा
पीछा करता ही
रहेगा। मन रोज
प्रयास करेगा, कल्पनाएं
और स्वप्न
खड़े करेगा।
सब तरह के लोभ
और भ्रम पैदा
करेगा।
सब
संतों का
कथाओं में उल्लेख
है कि शैतान
उन्हें भर
माने के लिए
आया। कोई और
नहीं आता। केवल
तुम्हारा मन
ही आता है।
तुम्हारा मन
ही शैतान है।
और कोई नहीं।
वह रोज प्रयास
करेगा। वह
तुमसे कहेगा, ‘मैं तुम्हें
सारा संसार दे
दूँगा। तुम
वापस आ जाओ।’तुम्हें
निराश करेगा। ‘तुम मूर्ख
हो, सारा
संसार मजा ले
रहा है। और
तुम यहां इस
पहाड़ी पर आ
गए। हो पागल
हो तुम। यह
धर्म-वर्म सब
बेकार की
बातें है।
वापस लौट आओ।
देखो, सारा
संसार पागल
नहीं है। जो
मजा कर रहा
है।‘ और
तुम्हारा मन
उन लोगों के
सुंदर-सुंदर
चित्र बनाएगा
जा मजा, कर
रहे है। और
सारे संसार
पहलेसे ही
अधिक आकर्षक
लगने लगेगा।
जो भी तुम
पीछे छोड़ आए
हो तुम्हें
खींचेगा।
यही
मूल संघर्ष
है। यह संघर्ष
इसलिए है कि
तुम्हारा मन
आदतों का और
पुनरावृति का
यंत्र है। पहाड़ी
पर तुम्हारे
मन को नर्क
जैसा लगेगा।
कुछ भी अच्छा
नहीं लगेगा।
सब गलत ही
लगेगा। मन
तुम्हारे
चारों और
नकारात्मकता
पैदा कर देगा।
तुम यहां कर
क्या रहे हो।
पागल हो गए हो?
जिस संसार को
तुम छोड़ आए
हो वह तुम्हारे
लिए और सुंदर
हो उठेगा और
जिस स्थान पर
तुम हो एक दम
बेकार लगने
लगेगा।
लेकिन
यदि तुम दृढ़
रहो और सचेत
रहो कि मन यह सब
कर रहा है। मन
यह सब करेगा।
और यदि तुम मन
के साथ तादात्म्य
न बनाओ तो एक
क्षण आता है
कि मन तुम्हें
छोड़ देगा। और
उसके साथ ही
सारे भर खो
जाते है। जब
मन तुम्हें
छोड़ देता है
तुम बोझ से
मुक्त हो
जाते हो। क्योंकि
मन ही एकमात्र
बोझ है। तब कोई
चिंता कोई
विचार कोई
संताप नहीं
रहता, तुम आस्तित्व
के गर्भ में
प्रवेश कर
जाते हो।
निशिंचत होकर
तुम बहते हो।
तुम्हारे
भीतर एक गहन
मौन प्रस्फुटित
होता हे।
यह
सूत्र कहता
है: ‘तब मन के
भारों का अंत
हो जाता है।’
उस
निर्जन में,
उस एकांत में
एक बात और स्मरण
रखने जैसी है।
भीड़ तुम पर
एक गहरा दबाव
डालती है।
चाहे तुम्हें
पता हो या न
पता हो।
अब
पशुओं पर
कार्य करते
हुए
वैज्ञानिकों
ने एक बड़े
आधारभूत नियम
की खोज की है।
वे कहते है कि
हर पशु का अपना
एक निश्चित
क्षेत्र होता
है। यदि तुम
उस क्षेत्र
में प्रवेश
करो तो वह पशु
तनाव से भर
जाएगा। और तुम
पर आक्रमण
करेगा। हर पशु
का अपना-अपना
क्षेत्र होता
है। वह किसी
और को उसमें
प्रवेश नहीं करने
नहीं देता। क्योंकि
जब कोई दूसरा
उसके क्षेत्र
में प्रवेश
करता है, वह
बेचैनी महसूस
करने लगता है।
वृक्षों
पर तुम कई
पक्षियों को
गीत गाते हुए
सुनते हो। तुम
नहीं जानते वे
क्या कर रहे
है। वर्षों के
अध्यन के बाद
वैज्ञानिक अब
कहते है कि जब
वृक्ष पर
बैठकर कोई
पक्षी गीत
गाता है, तो वह
कई चीजें कर
रहा है। एक तो
वह अपनी मादा
को बुला रहा
है। दूसरे,
वह बाकी सब नर
प्रतियोगियों
को सावधान कर
रहा है कि यह
मेरा क्षेत्र
है। इसमें
प्रवेश मत करना।
और यदि फिर भी
कोई उस
क्षेत्र में
प्रवेश कर
जाता है तो
लड़ाई शुरू हो
जाती है। और
मादा आराम से
बैठकर देखती
रहती है कि
कौन जीत रहा
है। क्योंकि
जो भ उस
क्षेत्र को
जीत लेगा,
वहीं उसे पा
लेगा। वह
प्रतीक्षा
करती है। जो जीत
जाएगा वह वहां
ठहरेगा और जा
हार जायेगा वह
चला जायेगा।
हर
पशु किसी न किसी
तरह से अपना क्षेत्र
बना लेता है—आवाज
से, गाने से,
शरीर की गंध
से, उसे
क्षेत्र में
कोई और
प्रतियोगी
प्रवेश नहीं
कर सकता।
तुम
ने कुत्तों
को हर जगह
पेशाब करते
देखा होगा।
वैज्ञानिक
कहते है कि
कुत्ता
पेशाब करके
अपना क्षेत्र
बना रहा है।
कुत्ता एक
खंभे पर पेशाब
करेगा। दूसरे
खंभे पर पेशाब
करेगा। वह
किसी एक जगह
पर पेशाब नहीं
करता। क्यो?
जब एक जगह पर
कर सकते हो तो
बेकार में क्यों
घूमना?
लेकिन वह अपना
क्षेत्र बना
रहा है। उसके
पेशाब में एक
गंध होती है
जिससे उसका
क्षेत्र
निर्मित हो जाता
है। अब उसमे
कोई प्रवेश न
करे। यह
खतरनाक है।
अपने क्षेत्र
में वह अकेला
मालिक है।
इस
संबंध में कई
अध्ययन चल
रहे है। उन्होंने
कई पशुओं को
एक ही पिंजरे
में रखकर देखा,
जहां सब
जरूरतें पूरी की
गई—और जंगलों
में वे जैसे
अपनी जरूरतें
पूरी कर सकत
थे, उससे
बेहतर ढंग से
पूरी की गई—लेकिन
वे पागल हो
जाते है। क्योंकि
उनके पास अपना
क्षेत्र नहीं
होता। जब
हमेशा ही कोई
न कोई पास
होता है तो वे
तनाव से भर
जाते हे।
भयभीत लड़ने
को तैयार हो
जाते है। हर
समय लड़ने की
तत्परता उन्हें
इतना तनाव से
भर देती है कि
या तो उनकी
ह्रदय गति रूक
जाती है या वे
पागल हो जाते
है। कई बार तो
पशु आत्महत्या
भी कर लेते
है। क्योंकि उनके
मन पर दबाब
बहुत बढ़ जाता
है। और कई तरह
की विकृतियां
उनमें पैदा हो
जाती है। जो
जंगल में रहने
पर नहीं होती।
जंगल मे बंदर बिलकुल
भिन्न होते
है। जब वे
चिड़ियाघर के
पिंजरे में
बंद होते हो
तो बड़ा असामान्य
व्यवहार
करने लगते है।
पहले
ऐसा सोचा जाता
था कि बंधन के कारण
यह समस्या पैदा
हो रही है। पर
अब पता लगा है
कि इसका कारण
बंधन नहीं है।
यदि तुम
पिंजरे में उन्हें
उतनी जगह दे
दो जितनी उन्हें
चाहिए तो वे
प्रसन्न
रहेंगे। फिर
कोई समस्या न
होगी। लेकिन
खुली जगह उनकी
आंतरिक जरूरत
है। जब कोई
उसमें प्रवेश
करता है तो
उसके मन पर
दबाव पड़ने लगता
है। उनका मन
तनाव से भर
जाता है। न वे
ठीक से सो
सेते है, न खा
सकते है, न
प्रेम कर सकते
है।
इन सब
अध्ययनों के
कारण अब
वैज्ञानिक
कहते है कि
जनसंख्या
में अत्यधिक
वृद्धि के
कारण मनुष्य
विक्षिप्त
होता जा रहा
है। दबाव बहुत
अधिक हो गया
है। तुम कहीं
भी अकेले नहीं
हो पा रहे।
ट्रेन में,
बस में,
दफ्तर में,
हर जगह भीड़
ही भीड़ है।
मनुष्य को भी
खुली जगह की
जरूरत है,
अकेले होने की
जरूरत है।
लेकिन कहीं
कोई जगह ही
नहीं है। तुम
कभी भी अकेले
नहीं हो। जब
तुम घर आते हो
तो वहां पत्नी
है, बच्चे
है,
सगे-संबंधी
है। और अभी भी
वे समझते है
की अतिथि
भगवान का रूप
है। पहले ही
इतने दबाव के
कारण तुम
विक्षिप्त
हो रहे हो। तुम
पत्नी को यह
नहीं कह सकते, ‘मुझे
अकेला छोड़
दो।’ वह
गुस्से से
कहेगी, क्या
मतलब है?
वह सारे दिन
से तुम्हारी प्रतीक्षा
कर रही है।
मन
को विश्रांत
होने के लिए
अवकाश चाहिए।
यह
सूत्र बहुत ही
सुंदर है,
और वैज्ञानिक
भी। ‘तब मन
के भारों का
अंत हो जाता
है।’
जब
तुम अकेले
किसी निर्जन
पहाड़ी पर चले
जाते हो, तो
तुम्हारे
चारों और एक
खुलापन अनंत
विस्तार
होता है। भीड़ का, दूसरों का
भार तुम नहीं
होता। तुम्हें
अधिक गहरी
नींद आएगी। सुबह
तुम्हारे
जागने में और
ही बात होगी।
तुम मुक्त
अनुभव करोगे।
भीतर से कोई
दबाव नहीं
होगा। तुम्हें
लगेगा जैसे
तुम किसी
कारागृह से
बाहर आ गए,
किन्हीं ज़ंजीरों
से मुक्त हो
गए।
यह
अच्छा है।
लेकिन हम भीड़
के इतने आदी
हो गए है कि कुछ
ही दिन, तीन
या चार दिन
तुम्हें अच्छा
लगेगा। फिर
भीड़ में वापस
जाने का मन
होने लगेगा।
हर छुटियों
में तुम कहीं
जाते हो। और
तीन दिन बाद
लौटने का मन
होने लगता है।
आदत के कारण
तुम अपने को
ही बेकार लगने
लगते हो।
अकेले तुम्हें
बेकार लगाता
हे। तुम कुछ
कर नहीं सकते।
और यदि तुम
कुछ करते भी
हो तो किसी को
पता नहीं चलेगा
कोई उसकी
सराहना नहीं
करेगा। अकेले
तुम कुछ भी
नहीं कर सकते, क्योंकि
जीवन भर तुम
दूसरों के लिए
ही कुछ करते रहे
हो। तुम बेकार
अनुभव करते
हो।
याद
रखो, यदि तुम कभी
भी इस एकाकी
पागलपन का
प्रयास करो तो
उपयोगिता का
विचार छोड़
दो। अनुपयोगी
हो जाओ। तभी
तुम अकेले हो
सकते हो। क्योंकि
असल में
उपयोगिता तो
समाज द्वारा
तुम्हारे मन
पर थोपी गई
है। समाज कहता
है: ‘उपयोगी
बनो।’ अनुपयोगी
नहीं। समाज
चाहता है कि
तुम एक निपुण
आर्थिक इकाई,एक कुशल और
उपयोगी वस्तु
बनो। समाज
नहीं चाहता कि
तुम बस एक फूल
बनो। नहीं,
तुम अगर एक
फूल भी बनते
हो तो तुम्हें
बिकने योग्य
होना चाहिए।
संसार तुम्हें
बाजार में
रखना चाहता
है। ताकि कुछ
उपयोग हो सके।
केवल बाजार
में ही तुम
उपयोगी हो
सकते हो। अन्यथा
नहीं, समाज
सिखाता है कि
उपयोगिता ही
जीवन का लक्ष्य
है। जीवन का
उद्देश्य
है। यह व्यर्थ
की बात हे।
मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम अनुपयोगी
हो जाओ। मैं
यह कह रहा हूं
कि उपयोगी
होना लक्ष्य
नहीं है। तुम्हें
समाज में रहना
है, उसके लिए
उपयोगी रहना
है, लेकिन
साथ ही
कभी-कभी
अनुपयोगी
होने के लिए भी
तैयार रहना है
यह क्षमता
बचाकर रखनी
चाहिए,
वरना तुम व्यक्ति
नहीं वस्तु
बन जाते हो।
जब तुम एकांत
में निर्जन
में जाओगे तो
यह समस्या
आएगी, तुम
बेकार अनुभव
करोगे।
मैं
कई लोगों के
साथ प्रयोग
करता रहा हूं।
कभी-कभी मैं
उन्हें
सुझाव देता
हूं कि वे तीन
सप्ताह के
लिए या तीन
महीने के लिए
एकांत और मौन
में चले जाए।
और मैं उन्हें
कहता हूं कि
सात दिन के
बाद वे वापस
लौटना चाहेंगे
और उनका मन
वहां न रहने
के सभी कारण
खोजेगा ताकि
वे वापस आ
सके। मैं उन्हें
कहता हूं कि
वे उन तर्कों
को न सुनें और
वह दृढ़ संकल्प
कर लें कि
जितने दिनो का
निर्णय लिया
है उससे पहले
वापस नहीं आएँगे।
वे
मुझसे कहते है
कि हम अपनी
मर्जी से जा
रहे है तो भला
वापस क्यों आएँगे।
मैं उनसे कहता
हूं कि वे स्वयं
को नहीं
जानते। तीन से
सात दिन के
भीतर-भीतर यह
मर्जी समाप्त
हो जाएगी।
उसके बाद वापस
आने की इच्छा
होगी। क्योंकि
समाज तुम्हारा
नशा बन गया
है। शांत
क्षणों में
तुम अकेले
होने की बात
सोच सकते हो,
लेकिन जब तुम
अकेले होओगे
तो सोचने
लगोगे, मैं
क्या कर रहा
हूं, यह सब
तो व्यर्थ
है। तो मैं
उनसे कहता हूं
कि अनुपयोगी
हो जाओ और
उपयोगिता की
भाषा भूल जाओ।
कभी-कभी
ऐसा होता है
कि वे तीन सप्ताह
या तीन महीने
तक वहां रह
जाते है तो वे
आकर मुझसे
कहते है, ‘बहुत
सुंदर अनुभव
हुआ। मैं बहुत
खुश था,
लेकिन यह
विचार सतत तंग
करता रहा कि
इसका उपयोग क्या
है? मैं
सुखी था,
शांत था,
आनंदित था,
लेकिन भीतर ही
भीतर यह विचार
भी चल रहा था
कि इसका उपयोग
क्या है?
मैं कर क्या
रहा हूं?’
स्मरण
रखो, उपयोग समाज
के लिए है।
समाज तुम्हारा
उपयोग करता
है। और तुम
समाज का उपयोग
करते हो। यह
पारस्परिक संबंध
है। लेकिन जीवन
किसी उपयोग के
लिए नहीं है।
जीवन निष्प्रयोजन
है,
उद्देश्य
विहीन है। यह
तो एक लीला
है। उत्सव
है। तो जब इस
विधि को करने
के लिए तुम
एकांत में जाओ
तो शुरू से ही
अनुपयोगी
होने की
तैयारी रखो
उसका आनंद लो, उससे दुःखी
मत होओ।
तुम
सोच भी नहीं
सकते कि मन
कैसे-कैसे
तर्क
जुटाएगा। मन
कहेगा, ‘संसार
इतनी समस्याओं
से घिरा है।
और तुम यहां
मौन बैठे हो।
देखो वियतनाम
में क्या हो
रहा है, और
पाकिस्तान
में, चीन
में क्या हो
रहा है। तुम्हारा
देश मरा जा
रहा है। न
भोजन है, न
पानी है,
यहां बैठे ध्यान
करके तुम क्या
कर रहे हो।
इसका क्या
उपयोग है। क्या
इससे देश में
समाजवाद आ
जाएगा।’
मन
सुंदर तर्क
जुटाएगा, मन
बहुत तार्किक
है। मन शैतान
है; तुम्हें
फुसलाने का, विश्वास
दिलाने का
प्रयास करेगा
कि तुम समय
नष्ट कर रहे
हो। लेकिन मन
की मत सुनो, शुरू से ही
तैयार रहो कि
मैं समय नष्ट
करूंगा। मैं
तो बस यहां
होने का आनंद लूँगा।
और
संसार की
चिंता न लो,
संसार चलता
रहता है। यहां
सदा ही समस्याएं
रहेंगी। यह
संसार का ढंग
है, तुम
कुछ नहीं कर
सकते हो।
इसलिए कोई
महान विश्व
प्रवर्तक
क्रांतिकारी
या मसीह बनने
का प्रयास मत
करो। तुम बस
स्वयं ही बनो
और किसी पत्थर, या नदी,
या वृक्ष की
तरह अपने
एकांत में
आनंद लो। अनुपयोगी।
अब एक पत्थर
का क्या
उपयोग है। जो
वर्षा में,
सुर्य की
रोशनी में,
तारों की छांव
में पडा है।
इस पत्थर का
क्या
प्रयोजन है।
काई भी उपयोग
नहीं। उसे कोई
चिंता नहीं वह
सदा ध्यान
मग्न है।
जब
तक तुम सच में
अनुपयोगी
होने को तैयार
न हो जाओ, तुम
अकेले नहीं हो
सकते, तुम
एकांत में
नहीं रह सकते।
और एक बार तुम
इसकी गहराई को
जान लो तो तुम
वापस समाज में
आ सकते हो।
फिर तुम्हें
लौटना ही
चाहिए। क्योंकि
एकाकीपन जीवन
का ढंग नहीं
है। बस एक प्रशिक्षण
है। यह जीवन
जीने का ढंग
नहीं बल्कि
परिप्रेक्ष्य
बदलने के लिए
लिया गया एक
गहन विश्राम
हे। एकांत तो
बस समाज से
हटने के लिए
है, ताकि
तुम स्वयं को
देख सको कि
तुम कौन हो।
तो
ऐसा मत सोचो
कि यह जीवन
शैली है। कई
लोगों ने इसे
जीने का ढंग
ही बना लिया
है। वे गलती
कर रहे है।
उन्होंने
औषधि को भोजन
बना लिया है।
यह जीवन का ढंग
नहीं, बस एक
औषधि है। कुछ
समय के लिए
थोड़ा अलग हट
जाओ, ताकि
एक दूरी से
देख सको कि
तुम क्या हो, और समाज
तुम्हारे
साथ क्या कर
रहा है। समाज
से बाहर होकर
तुम बेहतर ढंग
से देख सकते
हो। तुम द्रष्टा
हो सकते हो।
समाज से बिना
जुड़े बिना
उसमें हुए,
तुम पर्वत
शिखर पर बैठे
एक द्रष्टा
एक साक्षी हो
सकते हो। तुम
इतनी दूर हो—बिना
विचलित हुए, पक्षपात
रहित तुम देख
सकते हो।
तो
यह बात समझ लो
कि यह जीवन का
ढंग नहीं है।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम संसार
छोड़ दो और हिमालय
में कहीं साधु
बनकर बैठ जाओ।
नहीं। लेकिन
कभी-कभी वहां
जाओ, विश्राम
करो, पत्थर
की तरह निष्प्रयोजन, अकेले हो
जाओ। संसार से
स्वतंत्र, मुक्त
होकर प्रकृति
के हिस्से बन
जाओ। तुम्हारा
कायाकल्प हो
जाएगा। तुम पुनरुज्जीवित
हो जाओगे। फिर
समाज में और
भीड़ में वापस
लौट आओ और उस
सौंदर्य,
उस मौन को
अपने साथ लाने
का प्रयास करो, जो तुम्हें
एकांत में
घटित हुआ था।
अब उसे अपने
साथ ले लाओ।
उससे संबंध मत
तोड़ो। भीड़
में गहरे जाओ।
लेकिन उसका
हिस्सा मत
बनो। भीड़ को
अपने बाहर ही
रहने दो,
तुम अकेले
रहो।
और
जब तुम भीड़
में भी अकेले
होने में
सक्षम हो जाते
हो, तब तुम अपने
वास्तविक
एकांत को
उपलब्ध हो
जाते हो।
पहाड़ पर
अकेले होना तो
सरल है,
कोई बाधा नहीं
होती। सारी
प्रकृति तुम्हारी
मदद करती है।
बाजार में
वापस आकर
दुकान में,
दफ्तर में,
घर में रहकर
अकेले होना, यह एक उपलब्धि
है। फिर तुमने
उसे उपलब्ध
किया, वह
मात्र पहाड़
पर होने का
संयोग भर न
रहा। अब चेतना
का गुणधर्म ही
बदल गया है।
तो
भीड़ में
अकेले हो रहो।
भीड़ तो बाहर
रहेगी ही,
उसे भीतर मत
आने दो। जो भी
तुमने उपलब्ध
किया है उसे
बचाओ। उसकी
रक्षा करो।
उसे डांवाडोल
मत होने दो।
और जब भी तुम्हें
लगे कि यह अनुभूति
थोड़ी क्षीण
हो रही है। अब
तुम चूक रहे
हो। कि समाज
ने उसे विचलित
कर दिया है।
तो दोबारा चले
जाओ। उस अनुभव
को नया करने
के लिए,
जीवंत करने के
लिए समाज से
बाहर हो जाओ।
फिर
एक क्षण आएगा
कि यह वसंत
सदा ताजा
रहेगा। और कोई
भी उसे
प्रदूषित
नहीं कर
पायेगा। संदूषित
नहीं कर
पाएगा। फिर
कहीं जाने की
जरूरत नहीं
है।
तो
यह बा एक विधि
है। जीने के
लिए रहने चले
जाओ। जीने की
शैली नहीं है।
न तो साधु बन
जाओ। न साध्वी
बन जाओ। न ही
किसी मठ में
सदा-सदा के
लिए रहने चले
जाओ। क्योंकि
तुम सदा-सदा
के लिए मठ में
रहने चले गये तो
तुम कभी नहीं
जान पाओगे कि
जो तुम्हें
मिला हुआ है,
वह तुम्हारी उपलब्धि
है या मठ ने
तुम्हें
दिया है। हो
सकता है वह
उपलब्धि
वास्तविक न
हो,
सांयोगिक हो।
वास्तविक को
कसौटी पर सकना
होता है। वास्तविक
अनुभव को समाज
की कसौटी पर
परखना पड़ता है1
और जब यह अनुभव
कभी न टूटे, तुम उस पर
भरोसा कर सको।
कुछ भी उसे
डांवाडोल न कर
सके, तो यह
सच्चा है,
प्रामाणिक
है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-69
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