किसी
सरल मुद्रा
में दोनों
कांखों के मध्य–क्षेत्र
(वक्षस्थल)
में धीरे-धीरे
शांति व्याप्त
होने दो।
यह बड़ी सरल
विधि है।
परंतु चमत्कारिक
ढंग से कार्य
करती है। इसे
करके देखो। और
कोई भी कर
सकता है। इसमे
कोई खतरा नहीं
है। पहली बात
तो यह है कि
किसी भी
आरामदेह
मुद्रा में
बैठ जाओ, जो भी
मुद्रा तुम्हारे
लिए आसान हो।
किसी विशेष
मुद्रा या आसन
में बैठने की
कोशिश मत करो।
बुद्ध एक
विशेष मुद्रा
में बैठते है।
वह उनके लिए
आसान है। वह
तुम्हारे
लिए भी आसान
बन सकती है।
अगर कुछ समय
तुम उसका अभ्यास
करो, लेकिन
शुरू-शुरू में
यक तुम्हारे
लिए आसान न
होगी। पर इसका
अभ्यास करने
की कोई जरूरत
नहीं है। किसी
भी ऐसी मुद्रा
से शुरू करो
जो अभी तुम्हारे
लिए आसान हो।
मुद्रा के लिए
संघर्ष मत करो।
तुम आराम से
एक कुर्सी पर
बैठ सकते हो।
बस एक ही बात
का ध्यान
रखना है कि
तुम्हारा
शरीर एक
विश्रांत
अवस्था में
होना चाहिए।
तो बस अपनी
आंखें बंद कर
लो और सारे
शरीर को अनुभव
करो। पैरों से
शुरू करो,
महसूस करो कि
उनमें कहीं
तनाव तो नहीं
है। यदि तुम्हें
लगे कि तनाव
है तो एक काम
करो: उसे और
तनाव से भर
दो। यदि तुम्हें
लगे कि दाहिने
पाँव में तनाव
है तो उस तनाव
को जितना सघन
कर सको,उतना
सघन करो। उसे
एक शिखर तक ले
आओ, फिर अचानक
उसे जितना सघन
कर सको उतना
सघन करो। उसे
एक शिखर तक ले
आओ। फिर अचानक
उसे ढीला छोड़
दो। ताकि तुम
यह महसूस कर
सको कि कैसे
वहां विश्राम
उतर रहा है।
फिर पूरे शरीर
में देखते जाओ
कि कहां-कहां
तनाव है। जहां
भी तुम्हें
लगे कि तनाव
है उसे और
गहराओ, क्योंकि
तनाव सघन हो
तो विश्राम
में जाना सरल
है। आधे-अधूरे
तो यह बड़ा
कठिन है,
क्योंकि तुम
उसे महसूस ही
नहीं कर सकते।
एक अति से
दूसरी अति पर
जाना बहुत सरल
है। क्योंकि
एक अति स्वयं
ही दूसरी अति
पर जाने के
लिए परिस्थिति
पैदा कर देती है।
तो
चेहरे पर अगर
तुम कोई तनाव
महसूस करो तो
चेहरे की मांस
पेशियों को
जितना खींच सको
खीचों। तनाव
को एक शिखर पर
पहुंचा दो।
उसे ऐसे बिंदु
तक ले आओ जहां
और तनाव संभव
ही न हो। फिर
अचानक ढीला छोड़
दो। इस तरह से
देखो कि शरीर
के साथ अंग
विश्रांत हो
जाएं।
और
चेहरे की
मांस-पेशियों
पर विशेष ध्यान
दो, क्योंकि
वे तुम्हारे
नब्बे
प्रतिशत
तनावों को
ढोती है। बाकी
शरीर में केवल
दस प्रतिशत
तनाव है। सब
तनाव तुम्हारे
मस्तिष्क
में होता है।
इसलिए तुम्हारा
चेहरा उनका
भंडार बन जाता
हे। तो अपने
चेहरे पर
जितना तनाव
डाल सको डालों, शर्माओ मत।
चेहरे को पूरी
तरह से संताप युक्त, विषादयुक्त
बना डालों। और
फिर अचानक
ढीला छोड़ दो।
पाँच मिनट के
लिए ऐसा करो।
ताकि तुम्हारे
शरीर का हर
अंग विश्रांत
हो जाए। यह
तुम्हारे
लिए बड़ी सरल
मुद्रा है।
तुम इसे बैठकर, या बिस्तार
में लेटे हुए
या जैसे भी
तुम्हें
आसान लगे कर
सकते हो।
‘किसी
सरल मुद्रा
में दोनों
कांखों के मध्य-क्षेत्र
(वक्षस्थल)
में धीरे-धीरे
शांति व्याप्त
होने दो।’
दूसरी
बात: ‘जब तुम्हें
लगे कि शरीर
किसी सुखद
मुद्रा में
पहुंच गया है—इस
बात को अधिक
तूल मत दो—जब
महसूस करो कि
शरीर
विश्रांत है।
फिर शरीर को
भूल जाओ। क्योंकि
असल में,
शरीर को स्मरण
रखना एक
प्रकार का
तनाव है।’
इसीलिए
मैं कहता हूं,
कि इस विषय
में बहुत झंझट
मत करो। शरीर
को विश्रांत
हो जाने दो और
भूल जाओ। भूल
जाना ही विश्राम
है। जब भी तुम
बहुत याद रखते
हो तो वह स्मरण
ही शरीर को
तनाव से भर
देता है।
शायद
तुमने कभी इस
और ध्यान न
दिया हो।
लेकिन इसके
लिए एक बड़ा
सरल प्रयोग
है। अपना हाथ
अपनी नाड़ी पर
रखो और उसकी
धड़कनों को
गिनो। फिर
अपनी आंखों को
बंद कर लो और
सारे ध्यान
को पाँच मिनट
के लिए नाड़ी
पर ल आओ, फिर
उसे गिनो।
नाड़ी अब तेज
धड़केगी,
क्योंकि
पांच मिनट के
ध्यान ने उसे
तनाव दे दिया
है।
तो
वास्तव में
जब भी कोई
डाक्टर तुम्हारी
धड़कन को
मापता है। तो
वह माप कभी
असली नहीं होता।
वह माप हमेशा
डाक्टर के
माप शुरू करने
से पहले के
माप से अधिक
होता है। जब
भी डाक्टर
तुम्हारा
हाथ अपने हाथ
में लेता है
तो तुम उसके
प्रति सजग हो
जाते हो। और
यदि डाक्टर
महिला हो तो
तुम और भी सजग
हो जाते हो। धड़कन
और तेज चलने
लगेगी। तो जब
भी कोई महिला डाक्टर
तुम्हारी
धड़कन गिने तो
उसमें से दस
घटा लेना। तब वह
तुम्हारी
असली धड़कन
होगी। नहीं तो
दस धड़कने प्रति
मिनट अधिक
रहेंगी।
तो
जब भी तुम
अपनी चेतना को
शरीर के किसी
अंग पर ले
जाते हो। वह
अंग तनाव से
भर जाता है।
जब कोई तुम्हें
घूरता है तो
तुम तनाव से
भर उठते हो।
तुम्हारा
सारा शरीर
तनाव युक्त
हो जाता है।
जब तुम अकेले
होते हो तब
भिन्न होते
हो। जब कोई
कमरे में आ
जाता है तब
तुम वही नहीं
रहते। पूरे
शरीर की गति
तेज हो जाती
है। तुम तनाव
से भर जाते
हो। तो
विश्राम को
कोई बहुत अधिक
महत्व न दो।
वरना उसी के
साथ अटक
जाओगे। पाँच
मिनट के लिए
बस आराम करो
और भूल जाओ।
तुम्हारा
भूलना सहयोगी
होगा और शरीर
को और गहन विश्राम
में ले जाएगा।
‘दोनों
कांखों के मध्य
क्षेत्र
(वक्षस्थल)
में धीरे-धीरे
शांति व्याप्त
होने दो।’
अपनी
आंखें बंद कर
लो और दोनों
कांखों के बीच
के स्थान को
महसूस करो;
ह्रदय
क्षेत्र को, अपने
वक्षस्थल को
महसूस करो।
पहले केवल
दोनों कांखों
के बीच अपना
पूरा अवधान
लाओ,पूरे
होश से महसूस
करो। पूरे
शरीर को भूल
जाओ और बस
दोनों कांखों
के बीच
ह्रदय-क्षेत्र
और वक्षस्थल
को देखो। और
उसे अपार
शांति से भरा
हुआ महसूस
करो।
जिस
क्षण तुम्हारा
शरीर
विश्रांत
होता है तुम्हारा
ह्रदय में स्वत:
ही शांति उतर
आती है। ह्रदय
मौन, विश्रांत
और लयबद्ध हो
जाता है। और
जब तुम अपने
सारे शरीर को
भूल जाते हो
और अवधान को
बस वक्षस्थल
पर ले आते हो
और उसे शांति
से भरा हुआ
महसूस करते हो
तो तत्क्षण
अपार शांति
घटित होगी।
शरीर
में दो ऐसे स्थान
है, विशेष
केंद्र है,
जहां होश
पूर्वक कुछ
विशेष
अनुभूतियां
पैदा की जा
सकती है।
दोनों कांखों
के बीच ह्रदय
का केंद्र है।
और ह्रदय का
केंद्र
तुममें घटित
होने वाली
सारी शांति का
केंद्र है। जब
भी तुम शांत
हो, वह
शांति ह्रद से
आती है। ह्रदय
शांति विकीरित
करता है।
इसीलिए
तो संसार भर
में हर जाति
ने, हर वर्ग,
धर्म, देश
और सभ्यता ने
महसूस किया है
कि प्रेम कहीं
ह्रदय के पास
से उठता है।
इसके लिए कोई
वैज्ञानिक व्याख्या
नहीं है। जब
भी तुम प्रेम
के संबंध में
सोचते हो तुम
ह्रदय के
संबंध में
सोचते हो। असल
में जब भी तुम
प्रेम में
होते हो तुम
विश्रांत होते
हो। और क्योंकि
तुम विश्रांत
होते हो,
तुम एक विशेष
शांति से भर
जाते हो। वह
शांति ह्रदय
से उठती है।
इसलिए प्रेम
और शांति आपस
में जुड़ गए
है। जब भी तुम
प्रेम में
होते हो तुम शांत
होते हो। जब
भी तुम प्रेम
में नहीं होते
तो परेशान
होते हो।
शांति के कारण
ह्रदय प्रेम
से जुड़ गया
है।
तो
तुम दो काम कर
सकते हो, तुम
प्रेम की खोज
कर सकते हो:
फिर कभी-कभी
तुम शांत
अनुभव करोगे।
लेकिन यह
मार्ग खतरनाक
है, क्योंकि
जिस व्यक्ति
को तुम प्रेम
करते हो वह
तुमसे अधिक
महत्वपूर्ण
हो गया है। और
दूसरा तो
दूसरा ही है।
तुम एक तरह से
पराधीन हो गए।
तो प्रेम तुम्हें
कभी-कभी शांति
देगा, पर
सदा नहीं। कई
व्यवधान आएँगे, संताप और
विषाद के कई
क्षण आएँगे।
क्योंकि
दूसरे से तुम
केवल परिधि पर
ही मिल सकते
हो। परिधि
विक्षुब्ध
हो जाएगी।
केवल कभी-कभी,जब तुम
दोनों बिना
किसी संघर्ष
के गहन प्रेम
में होओगे,
केवल तभी तुम
विश्रांत
होओगे। और
तुम्हारा
ह्रदय शांति
से भर सकेगा।
तो
प्रेम तुम्हें
केवल शांति की
झलकें दे सकता
है। लेकिन कोई
स्थाई गहरी
शांति नहीं दे
सकता है। इससे
किसी शाश्वत
शांति की
संभावना न ही
है। बस झलकों
की संभावना
है। और दो
झलकों के बीच
कलह की, हिंसा
की, घृणा
और क्रोध की
गहरी घाटियाँ
होगी।
शांति
को खोजने का
दूसरा उपाय है—उसे
प्रेम के
द्वारा नहीं,
सीधे ही
खोजना। यदि
तुम शांति को
सीधे ही पा सको—और
उसी की यह
विधि है। तो
तुम्हारा
जीवन प्रेम से
भर जाएगा।
लेकिन अब
प्रेम का
गुणधर्म
अलग-अलग होगा।
उसमें मालकियत
नहीं होगी। वह
किसी एक पर
केंद्रित नहीं
होगा। न तो वह
स्वयं
पराधीन होगा, न किसी को
अपने आधीन
बनाएगा। तुम्हारा
प्रेम बस एक
भाव, एक
करूणा, एक
गहन
समानुभूति बन
जाएगा। और अब
कोई भी,
कोई भी प्रेमी
भी, तुम्हें
अशांत नहीं कर
पाएगा। क्योंकि
शांति की
जड़ें गहरी है
और तुम्हारा
प्रेम आंतरिक
शांति की छाया
की भांति है।
पूरी बात उलटी
हो गई है।
तो
बुद्ध भी
प्रेमपूर्ण
है, पर उनका
प्रेम एक
विषाद नहीं
है। यदि तुम
प्रेम करो तो
कष्ट भोगोगे
और प्रेम न
करो तो भी कष्ट
भोगोगे। यदि
तुम प्रेम न
करो तो प्रेम
की अनुपस्थिति
से कष्ट
होगा। और
प्रेम करो तो
प्रेम की उपस्थिति
से कष्ट
होगा। क्योंकि
तुम परिधि पर
हो। इसलिए तुम
कुछ भी करो,वह तुम्हें
क्षणिक तृप्ति
देगा, फिर
अंधेरी घाटियाँ
आ जाएंगी।
पहले
अपनी स्वयं
की शांति में
स्थिर हो जाओ,
फिर तुम स्वतंत्र
हो। फिर प्रेम
तुम्हारी
जरूरत नहीं
है। फिर तुम
जब भी प्रेम
में होओगे तो
बंधन अनुभव
करोगे। तुम्हें
कभी यह नहीं
लगेगा कि
प्रेम एक तरह
की परतंत्रता
है। एक गुलामी
है, एक
बंधन बन गया
है। तब प्रेम
बस एक दान होगा।
तुम्हारे पास
इतनी शांति है
कि तुम उसे
बांटना चाहते
हो। फिर वह बस
देना मात्र
होगा,जिसमे
वापस पाने का
कोई विचार
नहीं होगा;
वह बेशर्त
होगा। और यह
एक राज है कि
जितना तुम देते
हो उतना ही
तुम्हें
मिलता हे।
जितना ही तुम
देते हो और
बांटते हो
उतना ही तुम
पर बरस जाता
है। जितना तुम
इस खजानें में
गहरे प्रवेश
करते हो,
जो कि अनंत है, उतना ही तुम
सबको लुटा
सकते हो। यह
कभी समाप्त
नहीं हो सकता।
लेकिन
प्रेम आंतरिक
शांति की छाया
की भांति घटित
होना चाहिए।
साधारणत: इससे
उलटा होता है,
शांति तुम्हारे
प्रेम की छाया
की भांति आती
है। प्रेम शांति
की छाया होना
चाहिए, तब
प्रेम सुंदर
होता है। वरना
तो प्रेम भी
कुरूपता
निर्मित करता
है, एक रोग, एक ज्वर बन
जाता है।
‘दोनों
कांखों के मध्य–क्षेत्र
(वक्षस्थल)
में धीरे-धीरे
शांति व्याप्त
होने दो।’
कांखों
के मध्य
क्षेत्र के
प्रति जागरूक
हो जाओ और
महसूस करो कि
वह अपार शांति
से भर रहे है।
बस शांति को अनुभव
करो। और तुम पाओगे
कि वह भरी जा
रही है। शांति
तो सदा से भरी
है। पर इस का
तुम्हें कभी
पता नहीं
चलता। यह केवल
तुम्हारे
होश को बढ़ाने
के लिए,तुम्हें
घर की और लौटा
लाने के लिए
है। और जब
तुम्हें यह
शांति अनुभव
होगी, तुम
परिधि से हट
जाओगे। ऐसा
नहीं कि वहां
कुछ नहीं होगा, लेकिन जब
तुम इस प्रयोग
को करोगे और
शांति से भरोंगे
तो तुम्हें
एक दूरी महसूस
होगी। सड़क से
शोर आ रहा है, पर बीच में
अब बहुत दूरी है।
सब चलता रहता
है, पर
इससे कोई
परेशानी नहीं
होती; बल्कि
इससे मौन और
गहरा होता है।
यह
चमत्कार है।
बच्चे खेल
रहे होंगे।
कोई रेडियों
सुन रहा होगा।
कोई लड़ रहा
होगा, और पूरा
संसार चलता
रहेगा। लेकिन
तुम्हें
लगेगा कि तुम्हारे
और सब चीजों
के बीच में एक
दूरी आ गई है।
यह दूरी इसलिए
पैदा हुई है
कि तुम परिधि
से अलग हो गए
हो। परिधि पर
घटनाएं होंगी
और तुम्हें
लगेगा कि वे
किसी और के
साथ हो रही
है। तुम सम्मिलित
नहीं हो। तुम्हें
कुछ परेशान
नहीं करता
इसलिए तुम सम्मिलित
नहीं हो। तुम
अतिक्रमण कर
गए हो। यह अतिक्रमण
है।
और
ह्रदय स्वभावत:
शांति का स्त्रोत
है। तुम कुछ
भी पैदा नहीं
कर रहे। तुम तो
बस उस स्त्रोत
पर लौट रहे हो
जो सदा से था।
यह कल्पना
तुम्हें इस
बात के प्रति जागने
में सहयोगी
होगी कि ह्रदय
शांति से भरा हुआ
है। ऐसा नहीं
है कि यह कल्पना
शांति पैदा
करेगी।
तंत्र
और पाश्चात्य
सम्मोह न के
दृष्टिकोण
से यही अंतर
है। सम्मोहनविद
सोचते है कि
वे कल्पना के
द्वारा कुछ
पैदा कर रहे
हे। पर तंत्र
का मानना है
कि कल्पना के
द्वारा तुम
कुछ पैदा नहीं
करते। तुम तो
बस उस चीज के
साथ लयवद्ध हो
जाते हाँ जो
पहले से ही
है। क्योंकि
कल्पना से
तुम जो भी
पैदा कर सकते
हाँ वह स्थाई
नहीं हो सकता:
यदि कोई चीज
वास्तविक
नहीं है तो वह
झूठी है, नकली
है, तुम एक
भ्रम निर्मित
कर रहे हो।
तो
शांति के भ्रम
में पड़ने से
तो वास्तविक
रूप से परेशान
होना बेहतर
हे। क्योंकि
वह कोई विकास
नहीं है। बस
तुमने अपने को
उसमें भुला
दिया है। देर
अबेर तुम्हें
उससे बाहर
निकलना होगा।
क्योंकि जल्दी
ही वास्तविकता
भ्रम को तोड़
देगी। सच्चाई
भ्रमों को नष्ट
करेगी ही।
केवल उच्चतर
वास्तविकता
को नष्ट नहीं
किया जा सकता।
उच्चतर वास्तविकता
उस यथार्थ को
नष्ट कर देगी
जो कि परिधि
पर है।
इसीलिए
शंकर तथा
दूसरे कई
बुद्ध पुरूष
कहते है कि
संसार माया
है। ऐसा नहीं
है कि संसार
माया है।
लेकिन उन्हें
एक उच्चतर
वास्तविकता
का बोध हो गया
है। उस ऊँचाई
से संसार स्वप्नवत
प्रतीत होता
है। वह शिखर
इतनी दूर है,
इतनी दूर है
कि यह संसार
वास्तविक
नहीं लग सकता।
तो
सड़क पर आता
हुआ शोर ऐसे
लगेगा जैसे
तुम अपना सपना
देख रहे हो,
वह वास्तविकता
नहीं है। वह
कुछ नहीं कर
सकता बस आता
है और गूजर
जाता है। और
तुम अस्पर्शित
रह जाते हो।
और जब तुम
वास्तविक से
अस्पर्शित
रह जाओ तो
तुम्हें
कैसे लगेगा।
कि यह वास्तविक
है, वास्तविकता
तुम्हें
केवल तभी
महसूस होती है
जब वह तुममें
गहरी प्रवेश
कर जाए। जितनी
गहरी वह
प्रविष्ट
होगी उतनी ही
वास्तविक
लगेगी।
शंकर
कहते है, पुरा
संसार मिथ्या
है। वह ऐसे
बिंदु पर
पहुंच गए
होंगे जहां से
दूरी इतनी बढ़
जाती है कि
संसार में जो
भी हो रहा है।
सपना सा ही
प्रतीत होता
हे। उसकी प्रतीति
होती है।
लेकिन उसके
साथ कोई वास्तविकता
की प्रतीति
नहीं होती। क्योंकि
वह भीतर
प्रवेश नहीं
कर पाती।
प्रवेश ही वास्तविकता
का अनुपात है।
यदि मैं तुम्हें
पत्थर मारू
और तुम्हें
चोट लगे तो
उसकी चोट तुम्हारे
भीतर प्रवेश
करती है। और
चोट का प्रवेश
करना ही पत्थर
को वास्तविक
बनाता है। यदि
मैं एक पत्थर
फेंकूं और वह
तुम्हें छुए, पर चोट भीतर
प्रवेश न करे।
तो गहरे में
कही तुम्हें
अपने पर पत्थर
गिरने की आवाज
सुनाई देगी।
पर उससे कोई
व्यवधान
पैदा नहीं
होगा। तुम्हें
वह झूठ लगेगी।
मिथ्या
लगेगी। माया
लगेगी।
लेकिन
तुम परिधि से
इतने करीब हो
कि यदि मैं तुम्हें
पत्थर मारू
तो तुम्हें
चोट लगेगी।
अगर मैं बुद्ध
पर पत्थर
फेंकूं तो
उनके शरीर को
भी उतनी ही
चोट लगेगी
जितनी तुम्हारे
शरी को लगेगी।
लेकिन बुद्ध
परिधि पर नहीं
है। केंद्र
में स्थित
है। और दूरी
इतनी अधिक है
कि उन्हें
पत्थर की
आवाज तो सुनाई
देगी पर चोट
नहीं लगेगी। अंतस
अस्पर्शित
रह जाएगा। उस
पर खरोंच भी न
आएगी। इस निर्विचार
अंतस को लगेगा
कि जैसे सपने
में कुछ फेंका
गया। यह माया
है। तो बुद्ध
कहते है, किसी
चीज में कोई
सार नहीं है।
सब कुछ असार
है। संसार
असार है। यह
बही बात है
जैसे शंकर
कहते है कि
संसार माया
है।
इसे
करके देखो। जब
भी तुम्हें
अनुभव होगा कि
तुम्हारी
दोनों कांखों
के बीच, तुम्हारे
ह्रदय के
केंद्र पर
शांति व्याप्त
हो रही है तो
संसार तुम्हें
भ्रामक
प्रतीत होगा।
यह इस बात का
संकेत है कि
तुम ध्यान
में प्रवेश कर
गए—जब संसार
माया लगने
लगे। ऐसा सोचो
मत कि संसार
माया है। ऐसा
सोचने की कोई
जरूरत नहीं
है। तुम्हें
ऐसा महसूस
होगा। अचानक
तुम्हारे मन
में आएगा,
संसार को क्या
हो गया है? अचानक
संसार स्वप्नवत
हो गया है। एक
स्वप्न की
तरह से सारहीन
हो गया है। बस
इतना ही वास्तविक
प्रतीत होता
है। जैसे
पर्दे पर फिल्म।
भले ही
थ्री-डायमेंशनल
हो, पर ऐसा
लगता है जैसे
कोई
प्रक्षेपण
हो। हालांकि
संसार
प्रक्षेपण
नहीं है।
संसार वास्तव
में माया नहीं
है। नहीं,संसार
तो वास्तविक
है, लेकिन
तुम दूरी पैदा
कर लेते हो।
और दूरी बढ़ती ही जाती
है। और दूरी
बढ़ रही है।
या नहीं,
यह तुम इस बात
से पता लगा
सकते हो कि
संसार अब तुम्हें
कैसा लगता है।
यही
कसौटी है। यह
एक ध्यान की
कसौटी है। यह
सच नहीं है।
कि संसार मिथ्या
है। पर साथ तो
कई बार ऐसा
होता है कि
पहले ही प्रयास
में तुम इसके
सौंदर्य और
चमत्कार को
अनुभव करोगे।
तो इसे करके
देखो। लेकिन पहले
प्रयास में
अगर तुम्हें
कुछ अनुभव न
हो तो निराश
मत होना।
प्रतीक्षा
करो, और करते
रहो। और यह
इतनी सरल विधि
है कि तुम किसी
भी समय इसे कर
सकते हो। रात
अपने विस्तर
पर लेटे-लेटे
कर कसते हो।
सुबह जब तुम्हें
लगे कि तुम्हारी
नींद खुल गई
है। उस समय
तुम इसे कर
सकते हो। पहले
इसे करो फिर
उठो। दस मिनट
भी पर्याप्त
होंगे।
रात
सोने से पहले
दस मिनट इसे
करो। संसार को
मिथ्या बना
दो। और तुम्हारी
नींद इतनी
गहरी हो जाएगी
जितनी पहले
कभी नहीं थी।
यदि सोने से
ठीक पहले
संसार मिथ्या
हो जाए तो
सपने कम आएँगे।
क्योंकि यदि
संसार ही कल्पना
बन जाए तो
सपने नहीं चल
सकते। और यदि
संसार मिथ्या
हो जाए तो तुम
बिलकुल
विश्रांत हो
जाओगे। क्योंकि
संसार की वास्तविकता
तुम पर चोट
नहीं करेगी।
असर नहीं
करेगी।
यह
विधि में उन
लोगों को
सुझाता हूं जो
अनिद्रा से
पीड़ित है।
इससे बड़ी मदद
मिलेगी। यदि
संसार मिथ्या
है तो तनाव
समाप्त हो
जाते है। और
यदि तुम परिधि
पर हट सको तो
तुम स्वयं ही
नींद की गहरी
अवस्था में
चले गए। इससे
पहले कि नींद
आए तुम उसमें
गहरे चले गए।
और फिर सुबह
बहुत अच्छा
लगेगा। क्योंकि
तुम बहुत ताजा
हो गए हो और
युवा हो गए हो।
तुम्हारी
ऊर्जा तरंगायित
है, क्योंकि
तुम केंद्र से
परिधि पर लौट
रहे हो।
और
जिस क्षण तुम्हें
लगे कि नींद
जा चुकी है तो आंखें
मत खोलों।
पहले इस
प्रयोग को दस
मिनट करो,
फिर अपनी
आंखें खोलों।
शरीर पूरी रात
के बाद
विश्राम में
है। और ताजा
तथा जीवंत
अनुभव कर रहा
है। तुम पहले
ही विश्रांत
हो तो अब अधिक
समय नहीं
लगेगा। बस
विश्राम करो।
अपने चेतना को
दोनों कांखों
के बीच ह्रदय
पर ले आओ। उसे
गहन शांति से
भरा हुआ अनुभव
करो। दस मिनट
तक उस शांति
में रहो। फिर
आंखें खोल लो।
संसार
अलग ही नजर
आयेगा। क्योंकि
शांति तुम्हारी
आंखों में भी
झलकेगी। और
सारा दिन तुम्हें
अलग ही अनुभव
होगा। न केवल
तुम्हें अलग
अनुभव होगा।
बल्कि तुम्हें
लगेगा कि लोग
भी तुमसे अलग
तरह से व्यवहार
कर रहे हे। हर
संबंध में तुम
कुछ सहयोग देते
हो। यदि तुम्हारा
सहयोग न हो तो
लो तुमसे अलग
तरह से व्यवहार
करेंगे। क्योंकि
उन्हें
लगेगा कि अब
तुम भिन्न व्यक्ति
हो गए हो। हो
सकता है उन्हें
इसका पता भी न हो,
पर जब तुम
शांति से भर
जाओगे तो हर
कोई तुमसे अलग
तरह से व्यवहार
करेगा। लोग
अधिक
प्रेमपूर्ण
और अधिक विनम्र
होंगे। कम
बाधा
डालेंगे।
खुले होंगे, समीप
होंगे। एक
चुंबकत्व
पैदा हो गया।
शांति
एक चुंबक है।
जब तुम शांत
होते हो तो लोग
तुम्हारे
अधिक निकट आते
है। जब तुम
परेशान होते
हो तो सब पीछे
हटते है। और
यह इतनी भौतिक
घटना है कि
तुम इसे सरलता
से देख सकते
हो। जब भी तुम
शांत हो, तुम्हें
लगेगा सब तुम्हारे
करीब आना
चाहते है। क्योंकि
शांति
विकीरित होने लगती
है। चारों और
एक तरंग बन
जाती है। तुम्हारे
चारों और
शांति के स्पंदन
होते है और जो
आता है तुम्हारे
करीब होना चाहता
है। जैसे तुम
किसी वृक्ष की
छाया के नीचे
जाकर विश्राम
करना चाहते
हो।
शांति
व्यक्ति के
चारों और एक
छाया होती है।
वह जहां भी
जाएगा सब उसके
पास जाना चाहेंगे।
खुले होंगे।
जिस व्यक्ति
के भीतर
संघर्ष है,
विषाद है,
संताप है,
तनाव है,
वह लोगों को
दूर हटाता है।
जो भी उसके
पास जाता है
घबड़ाता है।
तुम खतरनाक
हो। तुम्हारे
करीब होना
खतरनाक है। क्योंकि तुम
वहीं दोगे जो
तुम्हारे
पास है।
लगातार तुम
वही दे रहे
हो।
तो
हो सकता है
तुम किसी को
प्रेम करना
चाहो;पर यदि
तुम भीतर से
परेशान हो तो
तुम्हारा
प्रेम भी
तुमसे दूर
हटेगा। तुमसे
भागना चाहेगा।
क्योंकि तुम
उसकी ऊर्जा को
चूस लोगे। और
वह तुम्हारे
साथ
सुखी नहीं
होगा। और जब
तुम उसे
छोड़ोगे
बिलकुल थका
हुआ हारा
छोड़ोगे। क्योंकि
तुम्हारे
पास कोई
जीवनदायी स्त्रोत
नहीं है। तुम्हारे
भीतर विध्वंसात्मक
ऊर्जा है।
तो
न केवल तुम्हें
लगेगा कि तुम
भिन्न हो गए
हो। दूसरों को
भी लगेगा कि
तुम बदल गये हो।
यदि तुम थोड़ा
सा केंद्र के
करीब सरक जाओ
तो तुम्हारी
पूरी जीवन
शैली बदल जाती
है। सारा दृष्टिकोण
सारा
प्रतिफलन
भिन्न हो
जाता है। यदि
तुम शांत हो
तो तुम्हारे
लिए सारा
संसार शांत हो
जाता है। यह
केवल एक
प्रतिबिंब
है। तुम जो हो
वही चारों और
प्रतिबिंबित
होता है। हर
कोई एक दर्पण
बन जाता है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-71
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