‘चित को
ऐसी अव्याख्य
सूक्ष्मता
में अपने
ह्रदय के ऊपर, नीचे
और भीतर रखो।’
तीन बातें। पहली,यदि
ज्ञान महत्वपूर्ण
है तो मस्तिष्क
केंद्र होगा।
यदि बच्चों
जैसी
निर्दोषिता
महत्वपूर्ण
है तो ह्रदय
केंद्र होगा।
बच्चा ह्रदय
में जीता है।
हम मस्तिष्क
में जीते है।
बच्चा अनुभव
करता है। हम
विचार करते
है। जब हम कहते
है कि हम
अनुभव कर रहे
है। तब भी हम
विचार करते
है। कि हम
अनुभव कर रहे
है। सोचना
हमारे लिए
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
और अनुभव गौण
हो जाता है। विचार
विज्ञान का
ढंग है। और
अनुभव धर्म
का।
तुम्हें
फिर से अनुभव
करना शुरू
करना चाहिए।
और दोनों ही
आयाम बिलकुल
अलग है। जब
तुम विचार
करते हो, तुम
अलग बने रहते
हो। जब तुम
अनुभव करते हो, तुम पिघलते
हो।
एक
गुलाब के फूल
के बारे में
सोचो। जब तुम
सोच रहे हो तो
तुम अलग हो;
दोनों के बीच
एक दूरी है।
सोचने के लिए
दूरी की जरूरत
है। विचारों
को गति करने
के लिए दूरी
चाहिए। फूल को
अनुभव करो और
अलगाव समाप्त
हो जाता है
दूरी विदा हो
जाती है। क्योंकि
भाव के लिए
दूरी बाधा है।
जितने ही तुम किसी
चीज के निकट
आते हो,
उतना ही अधिक उसे
अनुभव कर सकते
हो। एक क्षण
आता है कि जब
निकटता भी एक
तरह की दूरी
लगती है—और तब
तुम पिघलते
हो। तब तुम
अपनी ओर फूल
की सीमाओं को
अनुभव नहीं कर
सकते, तुम
नहीं कह सकते
कि तुम कहां
समाप्त होते
हो और फूल
कहां शुरू
होता है। तब
सीमाएं एक
दूसरे में
विलीन हो जाती
है। फूल एक
तरह से तुम
में प्रवेश कर
जाता है और
तुम एक तरह से
फूल में
प्रवेश कर
जाते हो।
भाव
है सीमाओं का
खो जाना;
विचार है सीमाओं
का बनना। यही
कारण है कि
विचार सदा
परिभाषाएं
मांगता है;
क्योंकि
परिभाषाओं के
बिना तुम
सीमाएं नहीं
खड़ी कर सकते।
विचार कहता है
पहले परिभाषा
कर लो; और
भाव कहता है
परिभाषा मत
करो। यदि तुम
परिभाषा करते
हो तो भाव
समाप्त कर
जाते हो।
बच्चा
अनुभव करता है;
हम विचार करते
है। बच्चा
अस्तित्व
के निकट आता
है, वह
पिघलता है और
अस्तित्व
को स्वयं में
पिघलने देता
है। हम अकेले, अपने मस्तिष्क
में बंद है।
हम ऐसे है
जैसे द्वीप।
यह
सूत्र कहता है
कि ह्रदय के
केंद्र पर लौट
आओ। चीजों को
अनुभव करना
शुरू करो। यदि
तुम अनुभव
करना शुरू करो
तो अद्भुत
अनुभव होगा। जो
भी कुछ तूम
करो अपनी
थोड़ा समय और
थोड़ी ऊर्जा
भाव को दो।
तुम यहां बैठे
हो, तुम मुझे
सुन सकते हो—लेकिन
वह सोच-विचार
का हिस्सा
होगा। तुम
मुझे यहां
महसूस भी कर
सकते हो। लेकिन
वह सोच-विचार
का हिस्सा
नहीं होगा। यदि
तुम मेरी उपस्थिति
को महसूस कर
सको तो
परिभाषाएं खो
जाती है। तब
वास्तव में
यदि तुम भाव
की सम्यक स्थिति
में पहुंच जाओ
तो तुम्हें
पता नहीं रहता
कि कौन बोल
रहा है, और
कौन सुन रहा
है। तब वक्ता
श्रोता बन
जाता है,
श्रोता वक्ता
बन जाता है।
तब वास्तव
में वे दो
नहीं रहते।
बल्कि एक ही
घटना के दो
ध्रुव है,
अलग-अलग। वास्तविक
चीज तो दोनों
के मध्य में
है—जो कि जीवन
है, प्रवाह
है।
जब
भी तुम अनुभव
करते हो तो
तुम्हारे
अहंकार को
अतिरिक्त
कुछ और महत्वपूर्ण
हो जाता है।
विषय और विषयी
अपनी परिभाषाएं
खो देते है। एक
प्रवाह एक
तरंग बचती है—एक
और वक्ता और
दूसरी और
श्रोता,लेकिन
मध्य में
जीवन की धारा।
मस्तिष्क
तुम्हें व्याख्या
देता है। और
इस व्याख्या
के कारण बहुत
भ्रांति पैदा
हुई है। क्योंकि
मस्तिष्क
साफ-साफ
परिभाषा करता
है, सीमा बाँधता
है। नक्शे
बनाता है।
तर्क से सब
सुस्पष्ट
हो जाता है।
किसी प्रकार
की अनिश्चतता, किसी रहस्य
की कोई
संभावना नहीं
रह जाती। हर अनिश्चितता
अस्वीकृत हो
जाती है। केवल
जो स्पष्ट
है वही वास्तविक
है। तर्क तुम्हें
एक स्पष्टता
देता है। और
इस स्पष्टता
के कारण भ्रम
पैदा होता है।
वास्तविकता
का स्पष्टता
से लेना-देना
नहीं है। सत्य
सदा बेबूझ है।
धारणाएं सुस्पष्ट
होती है। सत्य
रहस्यमय
होता है।
धारणाएं संगत
होती है। सत्य
असंगत होता
है।
शब्द
स्पष्ट
होते है, तर्क
स्पष्ट
होता है।
परंतु जीवन
अनिश्चित
रहता है।
ह्रदय तुम्हें
एक तरल अनिश्चिता
देता है।
ह्रदय सत्य
के अधिक निकट
पहुंचता है।
परंतु तर्क की
सुस्पष्टता
नहीं होती। और
क्योंकि
हमने सुस्पष्टता
को लक्ष्य
बना लिया है।
इसलिए हम सत्य
को चूकते चले
जाते है। सत्य
में दोबारा
प्रवेश करने
के लिए तुम्हें
आंखें चाहिए।
तुम्हें तरल
होना चाहिए, तुम्हें
धारणा-शुन्य, अतर्क्य, विस्मयकारी
और जीवंत सत्य
में प्रवेश
करने के लिए
तैयार रहना
चाहिए।
सुस्पष्टता
तो मृत है।
उसमें बदलाहट
नहीं है। जीवन
एक बहाव है,
उसमें कुछ भी
ठहरा हुआ नहीं
है। अगले क्षण
कुछ भी वैसा
नहीं रहता। तो
जीवन के प्रति
तुम कैसे सुस्पष्ट
हो सकते हो।
यदि तुम सुस्पष्टता
का अधिक ही
आग्रह करोगे
तो जीवन में
तुम्हारा
संबंध टूट
जाएगा। यही
हुआ है।
यह
सूत्र कहता है
कि पहली बात
है। अपने
ह्रदय के
केंद्र पर
वापस लौट आओ।
लेकिन वापस
कैसे लोटे।
‘चित
को ऐसी अव्याख्य
सूक्ष्मता
में अपने
ह्रदय के ऊपर, नीचे और
भीतर रखो।’
मन
का अर्थ है
मानसिक
प्रक्रिया,
सोच-विचार। और
चित का अर्थ है
वह पृष्ठभूमि
जिस पर विचार
तैरते है—ऐसे
ही जैसे आकाश
में बादल
तैरते है।
बादल है विचार
और आकाश है वह
पृष्ठभूमि
जिस पर वे तैरते
है। उस आकाश
उस चेतना को
चित कहा गया
है। तुम्हारा
मन विचार-शून्य
हो सकता है; तब वह चित है, तब वह शुद्ध
मन है। जब
विचार होते है
तो मन अशुद्ध
होता है।
विचार
शून्य मन अस्तित्व
की सूक्ष्मतम
घटना है। इससे
अधिक सूक्ष्म
संभावना की
तुम कल्पना
भी नहीं कर
सकते। चेतना
अस्तित्व
की सबसे
सूक्ष्म
घटना है। तो
जब मन में कोई
विचार नहीं
होते तब तुम्हारा
मन शुद्ध होता
है। शुद्ध मन
ह्रदय की और
गति कर सकता
है। अशुद्ध मन
नहीं कर सकता।
अशुद्धता से
मेरा अर्थ मन
में अशुद्ध
विचारों का
होना नहीं है,
अशुद्धता से
मेरा अर्थ है
सारे विचार—विचार
मात्र ही
अशुद्धि है।
यदि
तुम परमात्मा
के बारे में
सोच रहे हो तो
भी यह
अशुद्धता है, क्योंकि
बादल तो तैर
ही रहे है।
बादल बहुत
शुभ्र है,
लेकिन फिर भी
है और आकाश
निर्मल नहीं
है। आकाश
निरभ्र नहीं
है। बादल काला
हो सकता है।
मन में कोई कामुक
विचार गुजर
जाए,या
बादल सफेद हो
सकता है—मन
में कोई सुंदर
प्रार्थना
गुजर सकती है।
लेकिन दोनों
ही स्थितियों
में मन शुद्ध
नहीं है। मन
अशुद्ध है,
बादलों से
घिरा है। और
मन यदि बादलों
से घिरा हो तो
तुम ह्रदय की
और नहीं बढ़
सकते।
यह
समझ लेने जैसा
है, क्योंकि
विचारों के
रहते तुम मस्तिष्क
से जुड़े रहते
हो। विचार
जड़ें है,
और जब तक तुम
उन जड़ों को
ही काट डोलो
तुम वापस ह्रदय
पर नहीं लौट
सकते। बच्चा
उस क्षण तक
ह्रदय में
रहता है जिस
क्षण तक विचार
उसके मन में
पैदा होने
शुरू नहीं
होते। फिर वे
जड़ें जमाते
है; फिर
शिक्षा;
संस्कृति और
सभ्यता से
विचार जमते
हे। फिर
धीरे-धीरे
चेतना ह्रदय
से मस्तिष्क
की और मुड़ने
लगती है।
चेतना मस्तिष्क
में केवल तभी
रह सकती है जब
विचार हों।
यही आधार है।
जब विचार नहीं
होते तो चेतना
तत्क्षण
ह्रदय में
अपनी वास्तविक
निर्दोषता पर
वापस लौट आती
है।
इसीलिए
ध्यान पर
निर्विचार
अवस्था पर,
विचार-शुन्य
सजगता पर,
चुनाव-रहित
बोध पर इतना
जोर दिया गया
है। या बुद्ध
के ‘सम्यक
चित’ पर
इतना जोर दिया
गया है। जिसका
अर्थ है विचार
शून्य चित का
होना, केवल
होश पूर्ण
होना। तब क्या
होता है?
एक अद्भुत
घटना घटती है।
क्योंकि
जड़ें कट जाती
है तो चेतना
तत्क्षण
ह्रदय पर,अपने
मूल स्त्रोत
पर लौट आती
है। तुम फिर
बच्चे बन
जाते हो।
जीसस
कहते है, ‘केवल
वे ही मेरे
प्रभु के राज्य
में प्रवेश कर
पाएंगे जो बच्चों
जैसे है।’
वह
ऐसे ही लोगों
की बात कर रहे
है जिनकी
चेतना अपने
ह्रदय पर लौट
आई है; जो
निर्दोष हो गए
है। बच्चों
जैसे हो गए
है। लेकिन
पहली आवश्यकता
है चित को अव्याख्य
सूक्ष्मता
में ले जाना।
विचारों
को अभिव्यक्त
किया जा सकता
है। ऐसा कोई
भी विचार नहीं
है जिसे अभिव्यक्त
न किया जा
सके। यदि उसे
अभिव्यक्त
न किया जा सके
तो तुम उसे
सोच भी नहीं
सकते। यदि तुम
उसे सोच सकते
हो तो उसे
अभिव्यक्त
भी कर सकते
हो। ऐसा एक भी
विचार नहीं
है। जैसे तुम
अनिर्वचनीय
कह सको। जिस
क्षण तुमने
उसे सोचा,वह
वचनीय हो गया—तुमने
उसे अपने से
तो कह ही
दिया।
चेतना
शुद्ध चैतन्य,
अव्याख्य
है। इसीलिए तो
संत कहते है
कि वे जो
जानते है उसे
अभिव्यक्त
नही कर सकते।
तार्किक सदा
यह प्रश्न
उठाते है कि
अगर तुम जानते
हो तो कह क्यों
नहीं सकते। और
उनके तर्क में
अर्थ है,
बल है। अगर
तुम सच में कह
सकते हो कि
तुम जानते हो
तुम अभिव्यक्त
क्यों नही कर
सकते?
तार्किक
के लिए ज्ञान
व्याख्या
होना चाहिए—जिसे
जाना जा सकता
है, उसे
दूसरों को
जनाया भी जा
सकता है।
उसमें कोई
समस्या नहीं
है। यदि तुमने
जान ही लिया
है तो फिर क्या
समस्या है? तुम उसे
दूसरों को भी
जना सकते हो।
लेकिन संत का
ज्ञान विचारों
को नहीं होता।
उसने विचार की
भांति नहीं जाना
है। एक
अनुभूति की
भांति जाना
है। तो वास्तव
में यह कहना
ठीक नहीं है, ‘मैं
परमात्मा को
जानता हूं।’ यह कहना
बेहतर है, ‘मैं अनुभव
करता हूं।’
यह कहना ठीक
नहीं है,
परमात्मा को
जाना है। यह
कहना अच्छा
है। मैंने उसका
अनुभव किया
है। यह उस
घटना की ज्यादा
उचित अभिव्यक्ति
है। क्योंकि
ज्ञान ह्रदय
के द्वारा
होता है। वह अनुभूति
की तरह है।
जानने की तरह
नहीं।
‘चित
को ऐसी अव्याख्य
सूक्ष्मता
में रखो.......।’
चित
अव्याख्य
है। यदि कोई
विचार चल रहा
हो तो वह व्याख्या
है। इसलिए मन
को ऐसी अव्याख्य
सूक्ष्मता
में रखने का
अर्थ है ऐसी
स्थिति में
पहूंच जाना
जहां तुम
चैतन्य तो हो,
पर किन्हीं
विचारों के
प्रति नहीं; तुम पूरी
तरह सजग तो हो, पर तुम्हारे
मन में कोई
विचार नहीं चल
रहे। यह बहुत
सूक्ष्म और
बहुत कठिन बात
है—तुम आसानी
से इसे चूक
सकते हो।
हम
मन की दो अवस्थाओं
को जानते है।
एक अवस्था तो
वह जब विचार
होते है। जब
विचार होते है
तो तुम ह्रदय
की और नहीं जा
सकते। फिर हम
मन की एक
दूसरी अवस्था
जानते है—जब
विचार नहीं
होते। जब
विचार नहीं
होते तुम सो
जाते हो। हर
रात कुछ क्षणों
कुछ घंटों के
लिए तुम विचार
से बाहर हो जाते
हो। विचार खो
जाते हो। पर
तुम ह्रदय तक
नहीं पहुंचते
क्योंकि तुम
अचेतन हो। तो
एक बड़े
सूक्ष्म
संतुलन की
जरूरत है।
विचार ऐसे ही
खो जाने चाहिए
जैसे वे गहरी
नींद में खो
जाते है। जब
कोई सपने नहीं
चलते—और तुम्हें
उतना सजग होना
चाहिए जितना
तुम जागते हुए
होते हो। मन
उतना विचार
रहित होना
चाहिए जितना
गहरी नींद में
होता है।
लेकिन तुम्हें
सोया हुआ नहीं
होना चाहिए।
तुम्हें
पूरी तरह
जाग्रत, होश
पूर्ण होना
चाहिए।
जब
जागरण और इस
विचार शून्यता
का मिलन होता
है तो ध्यान
घटित होता है।
इसीलिए पतंजलि
कहते है कि
समाधि सुषुप्ति
की तरह है।
परम आनंद
गहनत्म नींद
की तरह है,
बस एक ही भेद
है; इसमें
तुम सोये नहीं
होते। लेकिन
गुण वही है—विचार
शुन्य, स्वप्न
शुन्य,शांत
कोई तरंग
नहीं। एकदम
शांत और मौन, लेकिन
जागरूक।
जब
तुम होश में
होते हो और
कोई विचार
नहीं होता तो
तुम अपनी चेतना
में अचानक एक
रूपांतरण
अनुभव करते
हो। केंद्र
बदल जाता है।
तुम वापस फेंक
दिए जाते हो।
तुम ह्रदय पर
वापस फेंक दिए
जाते हो। और
ह्रदय से जब
तुम संसार को
देखते हो तो
संसार नहीं होता।
बस परमात्मा
होता है।
बुद्धि से जब
तुम अस्तित्व
को देखते हो
तो परमात्मा
नहीं होता है,
बस भौतिक अस्तित्व
होता है।
पदार्थ,
भौतिक अस्तित्व, संसार और
परमात्मा दो
चीजें नहीं
है। देखने के
दो ढंग है,
दो
परिप्रेक्ष्य
है। वि एक ही
अस्तित्व
को दो अलग-अलग
केंद्रों से
देखी गई
घटनाएं है।
‘चित
को ऐसी अव्याख्य
सूक्ष्मता
में अपने
ह्रदय के ऊपर, नीचे और
भीतर रखो।’
पूरी
तरह से उसमें
डूब जाओ।
विलीन हो जाओ।
ह्रदय के ऊपर,
नीचे और भीतर
एक चैतन्य
मात्र रह जाए—पूरा
ह्रदय बस एक
चेतना से घिर
जाए, किसी
बारे में भी
मत सोचो,
बस सजग रहो।
बिना किसी शब्द
के, बिना
किसी विचारा
के बस होओ।
चित
को ह्रदय के
ऊपर नीचे और
भीतर रखो और
तुम्हारे
लिए सब कुछ
संभव हो
जाएगा। देखने
के सब द्वार
स्वच्छ हो
जाएंगे। और
रहस्यों के
सब द्वार खुल
जाएंगे।
अचानक कोई
समस्या न
रहेगी। अचानक
कोई दुःख न
रहेगा। जैसे
अंधकार पूरी
तरह मिट गया
हो।
एक
बार तुम इसे
जान लो तो तुम
वापस बुद्धि
पर जा सकते हो,
पर तुम अब
वहीं नहीं
होओगे। अब तुम
बुद्धि का एक
यंत्र की तरह
उपयोग कर सकते
हो। उससे काम
ले सकते हो।
पर तुम उसके
साथ तादात्म्य
नहीं बनाओगे।
उससे काम लेते
समय भी जब तुम
संसार को देखोगें
तो तुम्हें
पता होगा कि
जो भी तुम देख
रहे हो वह
बुद्धि के
कारण है। अब
तुम एक उच्चतर
अवस्था,
एक गहन तर
दृष्टिकोण
से परिचित हो—और
जिस क्षण तुम
चाहो तुम वापस
लौट सकते हो।
एक
बार तुम्हें
मार्ग का पता
लग जाए और ख्याल
आ जाए कि कैसे
चेतना वापस लौटती
है, कैसे तुम्हारी
आयु, तुम्हारा
अतीत, तुम्हारी
स्मृति और
तुम्हारा
ज्ञान समाप्त
हो जाता है।
और तुम दोबारा
एक नवजात शिशु
हो जाते हो।
एक बार तुम्हें
इस रहस्य का
पता चल जाए—तो
तुम जब चाहे
केंद्र की
यात्रा कर सके
हो और पुन:
जीवंत,
ताजे,
प्राणवान हो
सकते हो। यदि
तुम्हें फिर
बुद्धि में
लौटना पड़े तो
तुम उसका उपयोग
कर सकते हो।
तुम सामान्य
संसार में जा
सकते हो। तुम
उसमे कार्य
करोगे पर उससे
तादात्म्य
नहीं करोगे।
क्योंकि
गहरे में तुम
जानते हो कि
बुद्धि के द्वारा
जो भी जाना
जाता है वह
आंशिक है,
वह पूर्ण सत्य
नहीं है। और
आंशिक सत्य
झूठ से भी
खतरनाक होता
है। क्योंकि
वह सत्य जैसा
प्रतीत होता
है तुम उससे
धोखा खा सकते हो।
कुछ
और बातें। जब
तुम ह्रदय पर
लौटते हो तो
तुम अस्तित्व
को एक पूर्ण
इकाई की तरह
देखते हो।
ह्रदय विभाजित
अंग नहीं है।
ह्रदय तुम्हारा
एक हिस्सा
नहीं है।
ह्रदय का अर्थ
है तुम्हारी
संपूर्ण
समग्रता। मन
एक हिस्सा है,
पाँव एक हिस्सा
है, पेट एक
हिस्सा है।
पूरे शरीर को
अगर हम
अलग-अलग लें
तो वह हिस्सों
में बंट जाता
है। पर ह्रदय
एक हिस्सा एक
नहीं है। यही
कारण है कि
अगर मेरा हाथ
काट दिया जाए
तो भी मैं
जीवित
रहूंगा। मेरा
मस्तिष्क
भी निकाल दिया
जाए भी में
जीवित
रहूंगा। लेकिन
मेरा ह्रदय
गया कि मैं
गया।
वास्तवमें
मेरा पूरा
शरीर अलग किया
जा सकता है।
लेकिन अगर
मेरा ह्रदय
धड़क रहा है
तो मैं जीवित हूं।
ह्रदय का अर्थ
है। तुम्हारी
पूर्णता। तो
जब तुम्हारा
ह्रदय बंद
होता है, तुम
नहीं रहते। और
दूसरी सब
चीजें हिस्से
है। दूसरी
लगाई जा सकती
है। यदि ह्रदय
धड़क रहा तो
तुम सुरक्षित
होगे। ह्रदय
का केंद्र तुम्हारे
अस्तित्व
का अंतरतम
केंद्र बिंदु
है।
मैं
अपने हाथ से
तुम्हें छू
सकता हूं। वह
स्पर्श मुझे
तुम्हारे
बारे में एक
जानकारी
देगा। तुम्हारी
त्वचा के
बारे में
जानकारी देगा
कि वह चिकनी
है या नहीं।
हाथ मुझे कुछ
जानकारी
देगा। लेकिन वह
जानकारी बस
आंशिक होगा क्योंकि
हाथ मेरी
समग्रता नहीं
है। मैं तुम्हें
देख सकता हूं।
मेरी आंखें
तुम्हारे
बारे में एक
अलग जानकारी
देंगी। लेकिन
वह भी पूरी नहीं
होगा। मैं
तुम्हारे
बारे में सोच
सकता हूं—फिर
वह बात। लेकिन
मैं तुम्हें
हिस्सों में
महसूस नहीं कर
सकता। यदि मैं
तुम्हें
महसूस करता
हूं तो तुम्हारी
पूरी समग्रता
में ही महसूस
करता हूं। यही
कारण है कि जब
तक तुम प्रेम
के द्वारा न
जानो,तुम
किसी व्यक्ति
को उसकी
संपूर्णता
में नहीं जान
सकते। केवल
प्रेम से ही
पूर्ण व्यक्तित्व,समग्र अस्तित्व
तुम्हारे
सामने प्रकट
होता है। क्योंकि
प्रेम का अर्थ
है ह्रदय से
जानना। ह्रदय
से अनुभव
करना। तो मेरे
देखे अनुभव
करना और जानना, तुम्हारे
अस्तित्व
के दो हिस्से
नहीं है।
अनुभव है तुम्हारी
पूर्णता और
जानकारी बस
उसका एक हिस्सा
है।
धर्म
के लिए प्रेम
परम ज्ञान है।
इसीलिए धर्म की
अभिव्यक्ति
वैज्ञानिक
ढंग के बजाय
काव्यात्मक
शैली में अधिक
हुई है।
वैज्ञानिक
भाषा का उपयोग
नहीं हो सकता,क्योंकि
उसका संबंध
जानकारी के
जगत से है।
काव्य का
उपयोग हो सकता
है। काव्य का
उपयोग हो सकता
है। और जो
प्रेम के
द्वार सत्य
तक पहुंचे है।
वे जो भी कहते
है काव्य हो
जाता है।
उपनिषद,
वेद, जीसस
या बुद्ध या
कृष्ण के वचन
से सब काव्यात्मक
वक्तव्य
है।
यह
संयोग ही नहीं
है कि पुराने
सभी
धर्म-ग्रंर्थ
काव्य में
लिखे गए है।
इसमें बड़ा
अर्थ है। इससे
पता चलता है
कि कवि के जगत
में और ऋषि के
जगत में एक
तरह की समानुभूति
है। ऋषि भी
ह्रदय का भाषा
का उपयोग करता
है।
कवि
केवल कुछ
क्षणों की
उड़ान में ऋषि
बन जाता है।
ऐसे ही जैसे
जब तुम कूदते
हो तो पृथ्वी
के गुरूत्वाकर्षण
से दूर हो
जाते हो।
लेकिन फिर
वापस लौट आते
हो। कवि का
अर्थ है जो
कुछ क्षणों के
लिए संतों के
जगत में उड़ान
भर आया हो।
उसे कुछ झलकें
मिली है। संत
वह है जो
गुरूत्वाकर्षण
के बिलकुल पार
चला गया है।
जो प्रेम के
संसार में
जीता है, जो
ह्रदय से जीता
है। ह्रदय
जिसका निवास
बन गया है।
कवि के लिए तो
यह बस एक झलक
भर है।
कभी-कभी वह
बुद्धि से
ह्रदय में उतर
आता है। लेकिन
ऐसा बस कुछ
क्षणों के लिए
घटता है—वह
फिर बुद्धि
में वापस लौट
जाता है।
तो
अगर तुम कोई
सुंदर कविता
देखो तो उस
कवि से मिलने
मत चले जाना
जिसने उसे
लिखा हे। क्योंकि
तुम उसी व्यक्ति
से नहीं मिलोंगे।
तुम बहुत
निराश होओगे।
क्योंकि
तुम्हारा एक
बहुत साधारण
आदमी से मिलना
होगा। उसे एक
झलक मिली है।
कुछ क्षणों के
लिए सत्य उस
पर प्रकट नहीं
हुआ है। वह
ह्रदय पर उतर
आया जरूर है।
लेकिन उसे मार्ग
का पता नहीं
है। वह उसका
मालिक नहीं
है। यह तो बस
एक आकस्मिक
घटना है। और
वह अपनी मर्जी
से इस आयाम
में गति नहीं
कर सकता।
जब
कूलरिज मरा तो
चालीस हजार
अधूरी
कविताएं छोड़कर
मरा। उसने
अपने पूरे
जीवन में बस
सात ही कविताएं
पूरी की। वह
महान कवि था।
संसार के महानतम
कवियों में से
एक था। लेकिन
कई बार उससे पूछा
गया, ‘’तुम
अधूरी
कविताओं को
ढेर क्यों
लगाये जा रहे
हो। और तुम
उन्हें कब
पूरा करोगे?‘ वह कहता है, मैं कुछ
नहीं कर सकता।
कभी-कभी कुछ
पंक्तियां मुझे
उतरती है और फिर
वह रूक जाती
है। तो मैं
उन्हें कैसे पूरा
कर सकता हूं।
मैं
प्रतीक्षा
करूंगा। मुझे
प्रतीक्षा
करनी ही होगी।
यदि दोबारा
मुझे झलक
मिलती है और
दोबारा अस्तित्व
मुझ पर सत्य
को प्रकट करना
है,तो फिर
मैं उसे पूरा
करूंगा।
लेकिन अपने आप
तो मैं कुछ
नहीं कर सकता।
वह
बड़ा ईमानदार
कवि था। इतने
ईमानदार कवि
खोज पाना कठिन
है। क्योंकि
मन की प्रवृति
है पूर्ति
करना। यदि तीन
पंक्तियां
उतरती है तो
तुम चौथी जोड़
लोगे। और बस
चौथी बाकी तीन
की भी हत्या
कर देगी। क्योंकि
वह मन की बड़ी
निम्न अवस्था
से आएगी। जब
तुम पृथ्वी
पर वापस लौट
चुके होओगे।
जब
तुम उछले तो
कुछ क्षणों के
लिए तुम
गुरूत्वाकर्षण
से मुक्त हो
गए। तुम अस्तित्व
के एक अलग ही
आयाम में चले
गये। कवि धरती
पर रहता है पर
कभी-कभी ऊंची
छलांग लेता
है। उस छलांग
में उसे झलकें
मिलती है। संत
ह्रदय में रहता
है। वह धरती
पर नहीं चलता,
ह्रदय उसका
निवास बन गया
होता है। तो
वास्तव में
वह कविता रचता
नहीं,
लेकिन वह जा
भी कहता है, कविता बन
जाता है। वास्तव
में संत गद्य
का प्रयोग ही
नहीं करता,
क्योंकि
उसका गद्य भी
कविता है। वह
उसके ह्रदय से
आ रहा है।
उसके प्रेम से
आ रहा है।
‘चित को
ऐसी अव्याख्य
सूक्ष्मता
में ह्रदय के
ऊपर, नीचे
और भीतर रखो।’
ह्रदय
तुम्हारा
संपूर्ण अस्तित्व
है। और जब तुम
समग्र को केवल
तभी तुम समग्र
को जान सकते
हो—इसे याद
रखना। केवल
समान ही समान
को जान सकता है।
जब तुम आंशिक
हो तो समग्र
को नहीं जान
सकते। जैसा भीतर
होता है वैसा
ही बाहर होता
है। यदि भीतर तुम
समग्र हो तो
बाहर की समग्र
वास्तविकता
तुम पर प्रकट
होगी, तुम उसे
जानने में
सक्षम हो गए, तुमने उसे
जानने की
पात्रता
अर्जित कर ली।
जब तुम भीतर
बंटे होते हो
तो बाहर सत्य
भी बंटा दिखता
है। जो भी तुम
भीतर हो वही तुम्हारे
लिए बाहर का
जगत होगा।
ह्रदय
की गहराइयों
में पूरा
संसार भिन्न
है, एक अलग ही
गेस्टाल्ट
है। मैं तुम्हें
देख रहा हूं।
यदि मैं तुम्हें
मस्तिष्क
से देखू,बुद्धि
से देखू,
जानने के अपने
एक हिस्से से
देखू, तो
यहां कुछ
मित्र है,
व्यक्ति है, अहंकार है—अलग-अलग।
लेकिन
यदि मैं तुम्हें
ह्रदय से देखू
तो यहां व्यक्ति
नहीं होंगे।
फिर बस यहां
एक सागरीय
चेतना है और
व्यक्ति बस
उसकी लहरें
है। यदि मैं
तुम्हें
ह्रदय से देखू
तो तुम और
तुम्हारा
पड़ोसी दो
नहीं होंगे;
तब तुम्हारे
और तुम्हारे
पड़ोसी के बीच
सत्य है। तुम
बस दो ध्रुव
हो और बीच में
सत्य है। तो
फिर यहां
चेतना का एक
सागर है।
जिसमें तुम
लहरों की तरह
हो। लेकिन
लहरें अलग-अलग
नहीं है। वे
एक साथ जुड़ी
हुई है। और
तुम हर क्षण
एक दूसरे में
मिल रहे हो।
चाहे तुम्हें
इसका पता हो
या न हो।
जो
श्वास कुछ
क्षण पहले
तुममें थी अब
तुमसे निकल
चुकी थी—अब
तुम्हारे
पड़ोसी में
प्रवेश कर रही
है। कुछ ही
क्षण पहले यह
तुम्हारा
जीवन थी और
इसके बिना तुम
मर गए होते,और
अब यह तुम्हारे
पड़ोसी में जा
रही है। अब यह
उसका जीवन है।
तुम्हारा
शरीर लगातार
कंपन विकीरित
कर रहा है।
तुम एक
रेडिएटर हो, तुम्हारी
जीवन-ऊर्जा
सतत तुम्हारे
पड़ोसी में
प्रवेश कर रही
है और उसकी
जीवन ऊर्जा
तुममें
प्रवेश कर रही
है।
यदि
मैं तुम्हें
अपने ह्रदय से
देखू यदि मैं
तुम्हें
प्रेमपूर्ण
आंखों से देखू,
यदि मैं तुम्हें
समग्रता से देखू, तो तुम सब
ऊर्जा के पुंज
हो, ऊर्जा
के सघन बिंदू
हो और जीवन
सतत तुमसे दूसरों
में और दूसरों
से तुममें गति
कर रहा है।
और
इस कमरे में
ही नहीं, यह
पूरा जगत
जीवन-ऊर्जा का
सतत प्रवाह
है। यह सतत
गतिमान है।
यहां कोई
वैयक्तिक
इकाइयां नहीं
है। यह एक ब्रह्मांडीय
समग्रता है।
लेकिन बुद्धि
के द्वारा
अखंड
ब्रह्मांड कभी
प्रकट नहीं
होता, केवल
हिस्से,
आणविक हिस्से
ही दिखाई
पड़ते है। और
यह कोई प्रश्न
नहीं है। जिसे
बुद्धि से
समझा जा सके।
यदि तुम इसे बुद्धि
से समझने का
प्रयास करते
हो तो इसे समझना
असंभव ही
होगा। यह अस्तित्व
के एक बिलकुल
अलग बिंदु से
देखा गया,
एक बिलकुल
भिन्न दृष्टिकोण
है।
अगर
तुम भीतर
समग्र हो तो
बाहर की
समग्रता तुम
पर प्रकट हो
जाती है। किसी
ने उसे परमात्मा
का साक्षात्कार
कहा है। किसी
ने उसे मोक्ष
कहा है, किसी
ने उसे
निर्वाण कहा
है। अलग-अलग
शब्द है,
बिलकुल भिन्न
शब्द है,
लेकिन वे एक
ही अनुभव एक
ही सत्य को
दर्शाते है।
एक बात उन सभी
अभिव्यक्तियों
में आधारभूत
है—कि व्यक्ति
मिट जाता है।
तुम इसे
परमात्मा का
साक्षात्कार
कह सकते हो, तब तुम व्यक्ति
की तरह न रह
जाओगे; तुम
इसे मोक्ष कह
सकते हो,
फिर तुम एक स्व
की भांति नहीं
रह जाओगे;
तुम इसे
निर्वाण कि
सकते हो—जैसे
बुद्ध ने कहा
है—कि जैसे
दीए की ज्योति
बुझ जाती है।
खो जाती है।
तुम दोबारा
उसे कहीं खोज
नहीं सकते,
पा नहीं सकते, वह अनस्तित्व
में चली गई, ऐसे ही व्यक्ति
समाप्ति हो
जाता है।
लेकिन
यह बात सोचने
जैसी है। सभी
धर्म यह क्यों
करते है कि जब
तुम सत्य को
साक्षात्कार
करते हो तो व्यक्ति,
स्वय,
अहंकार मिट
जाता है। यदि
सभी धर्म इस
पर जोर देते
है तो इसका
अर्थ है कि यह
स्व जरूर
मिथ्या होगा—बरना
तो वह मिट
कैसे सकता है।
यह
विरोधाभासी लग
सकता है लेकिन
ऐसा ही है,
जो नहीं है
केवल वही मिट
सकता है;
जो है वह तो
अस्तित्व
में रहेगा ही, वह मिट नहीं
सकता।
मस्तिष्क
के कारण एक
झूठी इकाई का
आभास होता है—व्यक्ति।
यदि तुम ह्रदय
में उतर जाओ
तो झूठी इकाई
खो जाती है।
वह बुद्धि की
रचना थी।
ह्रदय में तो
बस ब्रह्मांड
रह जाता है।
व्यक्ति
नहीं; पूर्ण
रह जाता है। अंश
नहीं। और स्मरण
रहे। जब तुम
नहीं हो तो
तुम नर्क
निर्मित नहीं
कर सकते। जब
तुम नहीं हो
तो तुम दुःख
नें नहीं हो सकते।
जब तुम नहीं
हो तो कोई
पीड़ा नहीं हो
सकती। सब
संताप, सब
पीड़ाएं तुम्हारे
कारण है। छाया
की भी छाया।
स्व झूठ है
और उस झूठे स्व
के कारण बहुत
सी झूठी
छायाएं
निर्मित हो गई
है। वे तुम्हारा
पीछा करती है।
तुम उनके साथ
लड़ते रहते हो।
लेकिन तुम कभी
जीत न पाओगे।
क्योंकि
उनका आधार तो
तुम्हीं में
छिपा रहता है।
स्वामी
रामतीर्थ ने
कहीं कहा है
कि वह एक गरीब
ग्रामीण के घर
ठहरे हुए थे।
उस ग्रामीण को
छोटा बच्चा झोंपड़े
के सामने खेल
रहा था। और
सूरज उग रहा
था और बच्चे
को अपनी छाया
दिखाई दी। वह
उसे पकड़ने की
कोशिश करने
लगा। लेकिन
जितना वह
बढ़ता, छाया
उतनी ही आगे
बढ़ जाती। बच्चा
रोने लगा।
असफलता उसके
हाथ लगी थी।
उसने हर तरह
से पकड़ने की
कोशिश की,
पर पकड़ पाना
असंभव था।
छाया
को पकड़ना
असंभव है—इसलिए
नहीं कि छाया
को पकड़ना
बड़ा कठिन है।
यह असंभव
इसलिए है क्योंकि
बच्चा उसे
पकड़ने के लिए
दौड़ रहा था।
जब वह दौड़ रहा
था तो छाया भी
दौड़ रही थी।
तुम छाया को
नहीं पकड़
सकते। क्योंकि
छाया में कोई
सार नहीं है। और
सार को ही
पकड़ा जा सकता
है।
रामतीर्थ
वहां बैठे हुए
थे। वह हंस
रहे थे और बच्चा
रो रहा था। और
मां हैरान थी
कि क्या करे।
बच्चे को
कैसे सांत्वना
दे। तो उसने
रामतीर्थ से
पूछा, ‘स्वामी
जी, क्या
आप कुछ मदद कर
सकते है?’
रामतीर्थ बच्चे
के पास गए,
बच्चे का हाथ
पकड़ा और उसके
सिर पर रख
दिया। छाया पकड़ी
गई। अब जब बच्चे
ने अपने ही
सिर पर हाथ रख
दिया तो छाया
पकड़ में आ
गई। बच्चा
हंसने लगा। अब
वह देख सकता
था कि उसके
हाथ ने छाया
को पकड़ लिया
है।
तुम
छाया को तो नहीं
पकड़ सकते पर स्वयं
को पकड़ सकते हो।
और जिस क्षण तुम
स्वयं को पकड़
लेते हो छाया पकड़
में आ जाती है।
पीड़ा
अहंकार की ही छाया
है। हम सब उसे बच्चे
की तरह पीड़ा संताप
और विषाद के साथ
लड़ रहे है। और
उन्हें मिटाने
का प्रयास कर रहे
है। हम इसमे कभी
जीत नहीं सकते।
यह तो कोई ताकत
का प्रश्न नही
है। सारा प्रयास
ही व्यर्थ है।
असंभव है। तुम्हें
स्वयं को, अहंकार
को पकड़ना चाहिए।
और जैसे ही तुम
इसे पकड़ लेते
हो, सारी पीड़ा
मिट जाती है। वह
बस छाया थी।
ऐसे
लोग है जो स्वयं
से लड़ने लगते
है। यह सिखाया
गया है, ‘स्व
को मिटा दो, अहंकार-शून्य
हो जाओ। और तुम
आनंदित हो जाओगे।’ तो वह स्व से, अहंकार से लड़ने
लगते है। लेकिन
यदि तुम लड़ रहे
हो तो इतना तो
तुम मान ही रहे
हो कि स्व हे।
तुम्हारी लड़ाई
उसके लिए भोजन
बन जाएगी। उसके
लिए ऊर्जा का एक
स्त्रोत बन जाएंगी, तुम उसका पोषण
करने लगोगे।
यह
विधि कहती है
कि अहंकार के बारे
में सोचो मत, बस
बुद्धि पर उतर
आओ। और अहंकार
मिट जाएगा। अहंकार
बुद्धि का प्रक्षेपण
है। उससे लड़ो
मत। तुम जन्मों-जन्मों
तब उससे लड़ते
रहे सकते हो। पर
यदि बुद्धि में
ही बने रहे तो उसे
जीत नहीं सकते।
अपने
दृष्टिकोण का
बदल डालों। बुद्धि
से उतर कर एक दूसरे
तल पर, अस्तित्व
के एक गहरे पर उतर
आओ। और सब कुछ बदल
जाता है। क्योंकि
अब तुम एक अलग दृष्टि
कोण से देख सकते
हो। ह्रदय से कोई
अहंकार नहीं पैदा
कर सकता। इसी
कारण हम ह्रदय
से भयभीत हो
गए है। हम कभी उसे
अपने आप नहीं चलने
देते, उसमें
सदा हस्तक्षेप
करते रहते है।
सदा मन को बीच में
ले आते है। हम ह्रदय
को मन से नियंत्रित
करने का प्रयास
करते है। क्योंकि
हम भयभीत हो गए
है—यदि तुम ह्रदय
की और गए तो स्वयं
को खो दोगे। और
यह खोना बिलकुल
मृत्यु जैसा लगता
है।
इसीलिए
प्रेम कठिन लगता
है। इसीलिए प्रेम
में पड़ने में
भय लगाता है। क्योंकि
तुम स्वयं को खो देते हो।
तुम नियंत्रण में
नहीं रहते। कोई
तुमसे बड़ी चीज
तुम्हें अपने
प्रभाव पकड़ में
ले लेती है। और
तुम्हें वशीभूत
कर लेती है। फिर
तुम्हें कुछ निश्चित
नहीं रहता और कुछ
पता नहीं होता
कि तुम कहां जा
रहे हो। तो बुद्धि
कहती है, ‘मुर्ख
मत बनो, समझ
से काम लो। पागल
मत बनो।’
जब
भी कोई प्रेम में
होता है तो सब सोचते
है वह पागल हो गया
है। वह स्वयं
ही समझता है
कि वह पागल हो गया
है। ‘मैं अपने होश
में नहीं हूं,’ ऐसा क्या होता
है? क्योंकि
अब कोई नियंत्रण
न रहा। कुछ ऐसा
हो रहा है जिसे
वह नियंत्रण नहीं
कर सकता। जिसे
वह चला नहीं सकता।
वश में नहीं
कर सकता है। बल्कि
कुछ और उसे चला
रहा है। एक बड़ी
शक्ति ने उसे
बस में कर लिया
है। वह वशीभूत
है......।
लेकिन
जब तक तुम वशीभूत
होने के लिए तैयार
नहीं हो, तब तक
तुम्हारे लिए
कोई परमात्मा
नहीं है। जब
तक तुम वशीभूत
होने के लिए राज़ी
नहीं हो, तब
तक तुम्हारे लिए
कोई रहस्य, कोई आनंद कोई
अहोभाव नहीं है।
जो प्रेम से, प्रार्थना से
विराट से वशीभूत
होने को राज़ी
है, उसका मतलब
है कि वह अहंकार
की तरह मरने के
लिए राज़ी है।
केवल वही जान सकता
है कि वास्तव
में जीवन क्या
है। कि जीवन के
पास देने के लिए
क्या संपदा है।
जो संभव है वह तत्क्षण
साकार हो जाता
है। लेकिन तुम्हें
स्वयं को दांव
पर लगाना होगा।
यह
विधि सुंदर है।
यह तुम्हारे अहंकार
के बारे में कुछ
नहीं कहती है।
यह उस संबंध में
कुछ कहती ही नहीं।
यह बस तुम्हें
एक विधि देती है।
और यदि तुम विधि
का अनुसरण करो
अहंकार समाप्त
हो जाएगा।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-65
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