पहली
विधि:
अपने
शरीर,
अस्थियों
मांस और रक्त
को
ब्रह्मांडीय
सार से भरा
हुआ अनुभव
करो।
सरल
प्रयोगों से
शुरू करो, सात
दिन के लिए एक
सरल सा प्रयोग
करो। अपने खून
अपनी हड्डी
अपने
मांस, अपने शरीर
को उदासी से
भरा अनुभव
करो। तुम्हारे
शरीर का
रोआं-रोआं
उदास हो जाए।
एक काली रात
तुम्हारे
चारों और छा
जाए, बोझिल और
विषादयुक्त
हो जाओ। जैसे
कि प्रकाश की
एक किरण भी
दिखाई न पड़ती
हो कोई आशा न
बचे, घनी उदासी
हो, जैसे कि तुम
मरने वाले हो।
तुममें जीवन
नहीं है। तुम
बस मरने की
प्रतीक्षा कर
रहे हो। जैसे
कि मृत्यु आ
गई हो। या
धीरे-धीरे आ
रही है।
सात दिन
तक भार करते
रहो कि मृत्यु
पूरे शरीर से
हड्डी-मांस
मज्जा तक
प्रवेश कर गई
हो। बिना इस
भाव को तोड़े,
इसी तरह सोचते
रहो। फिर सात
दिन के बाद देखो
कि तुम कैसे
अनुभव करते
हो।
तुम
केवल एक मृत
बोझ रह जाओगे।
सब संवेदनाएं
समाप्त हो
जाएंगी, शरीर में
कोई जीवन
अनुभव नहीं
होगा। और
तुमने किया क्या
है? तुमने खाना
भी खाया और
तुमने सब भी
किया जो तुम
हमेशा से करते
रहे हो।
एकमात्र अंतर
वह कल्पना ही
थी—तुम्हारे
चारो और कल्पना
की एक नई शैली
खड़ी हो गई
है।
यदि तुम
इसमें सफल हो
जाओ......आर तुम
सफल हो जाओगे,
असल में तुम
इसमे सफल हो
ही चुके हो।
तुम ऐसा कर ही
रहे हो, अनजाने ही
तुम इसे करने
में निष्णात
हो। इसीलिए
मैं कहता हूं
कि निराशा से
शुरू करो। यदि
मैं कहूं कि
आनंद से भर
जाओ तो वह
बहुत कठिन हो
जाएगा। तुम
ऐसा सोच भी
नहीं सकते।
लेकिन यदि
निराशा के साथ
तुम यह बहुत
कठिन हो
जाएगा। तुम
ऐसा सोच भी
नहीं सकते।
लेकिन यदि
निराशा के साथ
तुम यह प्रयोग
करते हो तुम्हें
पता चलेगा। कि
इस तरह यदि
निराशा आ सकती
है। तो सुख क्यों
नहीं आ सकता।
यदि तुम अपने
चारों और एक
निराशापूर्ण
मंडल तैयार
करक एक मृत
वस्तु हो
सकते हो तो
तुम जीवित
मंडल तैयार
करके जीवंत
मंडल तैयार
करके जीवंत और
नृत्य पूर्ण
क्यों नहीं
हो सकते।
दूसरे
तुम्हें इस
बात का पता
चलेगा कि जो
दुःख तुम भोग
रहे थे वह
वास्तविक
नहीं था।
तुमने उसे
पैदा किया था।
अनजाने में
तुम उसे पैदा
कर रहे थे।
रचा था, अनजाने में
तुम उसे पैदा
कर रहे थे। इस
पर विश्वास
करना बड़ा
कठिन है। कि
तुम दुःख तुम्हारी
ही कल्पना है, क्योंकि
उससे सारा
उतरदायित्व
तुम पर ही आ
जाता है। तब
दूसरा कोई
उतरदायी नहीं
रह जाता। और
तुम कोई
उतरदायित्व
किसी परमात्मा
पर भाग्य पर,
लोगों पर,
समाज पर, पत्नी पर
या पति पर
नहीं फेंक
सकते; किसी अन्य
पर उत्तर
दायित्व
नहीं लाद
सकते। तुम ही
निर्माता हो, जो
कुछ भी तुम्हारे
साथ हो रहा है
वह तुम्हारा
ही निर्माण
है।
तो सात
दिन के लिए
सजगता से इसका
प्रयोग करो।
आर कहता हूं
उसके बाद तुम
कभी भी दुःखी
नहीं होओगे। क्योंकि
तुम्हें
तरकीब कापता
लग जाएगा।
फिर सात
दिन के लिए
आनंद की धारा
में होने का प्रयास
करो, उसमे बहो,
अनुभव करो कि
हर श्वास
तुम्हें
आनंद विभोर कर
रही है। सात
दिन के लिए
दुःख से शुरू
करो और फिर
सात दिन के लिए
उसके विपरीत
चले जाओ। और
जब तुम बिलकुल
विपरीत ध्रुव
पर प्रयोग
करोगे तो तुम
उसे बेहतर अनुभव
करोगे। क्योंकि
उसमें स्पष्ट
अंतर नजर
आएगा। उसके
बाद ही तुम यह
प्रयोग कर
सकते हो। क्योंकि
यह सुख से भी
गहन है। दुःख
परिधि है,
सुख मध्य में
है। और यह
अंतिम तत्व
है, अंतरतम
बिंदु है—ब्रह्मांडीय
सार।
‘अपने
शरीर, अस्थियों, मांस आर रक्त
को
ब्रह्मांडीय
सार से भरा
हुआ अनुभव
करो।’
शाश्वत
जीवन दिव्य
ऊर्जा
ब्रह्मांडीय
सार से भरा
हुआ अनुभव करो।
लेकिन इसे
सीधे ही मत
शुरू करो,
नहीं तो तुम
इतने गहरे स्पर्श
न कर पाओगे। दुःख
से शुरू करो,
फिर सुख पर आओ,
उसके बाद ही
जीवन के स्त्रोत,
ब्रह्मांडीय
सार, पर जाओ। और
स्वयं को
उससे भरा हुआ
अनुभव करो।
शुरू
में तो
बार-बार तुम्हें
लगेगा कि तुम
केवल कल्पना
कर रहे हो,
लेकिन रुको
नहीं। कल्पना
करना भी अच्छा
ह। यदि तुम
किसी मूल्यवान
बात की कल्पना
भी कर सको ता
अच्छा है।
तुम कल्पना
कर रहे हो। और
कल्पना करने
से ही तुम
बदलने लगते
हो। तुम ही तो
कल्पना कर
रहे हो। कल्पना
करते रहो; और
धीरे-धीरे तुम
भूल जाओगे कि
तुम इसकी कल्पना
कर रहे हो। यह
एक वास्तविकता
बन जाएगी।
बौद्ध
ग्रंथ
लंकावतार
सूत्र महानतम
ग्रंथों में
एक है।
बार-बार बुद्ध
अपने शिष्य
महापती से
कहते है कि वे
कहे चले जाते
है। ‘महामति
यह केवल मन
है। नर्क भी
मन है और स्वर्ग
भी मन है।
संसार मन है,
बुद्धत्व मन
है। महापती बार-बार
पूछते है, ‘मन है?
केवल मन है? यहां तक कि
निर्वाण,
जागरण,
केवल मन?
और बुद्ध कहते
है, केवल
मन, महामति।’
और जब
तुम समझते हो
कि सब कुछ मन
ही है। तुम
मुक्त हो
जाते हो। तब
कोई बंधन
नहीं। तब कोई
कामना नहीं।
लंकावतार
सूत्र में
बुद्ध कहते है
कि पूरा संसार
गंधर्व-नगरी
है, जादू-नगरी
है। जैसे किसी
जादूगर ने एक
संसार रचा हो।
हर चीज ऐसे
भासती है।
लेकिन वह
विचार के कारण
ही है।
लेकिन
बाह्म सत्य
से प्रारंभ मत
करो, वह बहुत दूर
है। वह भी मन
है। लेकिन
बहुत दूर है।
बहुत पास से,
अपनी ही भाव दशा
से शुरू करो।
और यदि तुम
देख लो, जान लो कि वे
तुम्हारा ही
निर्माण है तो
तुम उनके
मालिक हो गए।
जब भी
तुम दुःख की
भाषा में
सोचने लगते हो
तुम दुःखी हो
जाते हो और
चारों और के
दुःख के प्रति
ग्रहणशील हो
जाते हो। फिर
हर कोई तुम्हें
दुःखी होने
में सहयोग
देने लगता है।
हर कोई सहयोग
देता है, पूरा संसार
तुम्हें
सहयोग देने को
तैयार रहता
है। तुम चाहे
जो भी करो। जब
तुम दुःखी
होना चाहते हो
तो पूरा संसार
तुम्हें
सहयोग देने को
तैयार रहता
है। तुम चाहे
जो भी करो। जब
तुम दुःखी
होना चाहते हो
तो पूरा संसार
दुःखी होने में
तुम्हारी मदद
करता है।
सहयोग करता
है। तुम सब और
से दुःख ग्रहण
करने लगते हो।
असल में तुम
ऐसी भाव दशा
में पहूंच जात
हो जहां केवल
दुःख ही ग्रहण
किया जा सकता
है।
तो यदि
कोई तुम्हें
प्रसन्न
करने के लिए
भी आता है, वह
तुम्हें और
दुःखी कर
जाएगा। वह
तुम्हें
मित्रवत नहीं
दिखाई
पड़ेगा।
समझदार नहीं
लगेगा। तुम्हें
लगेगा कि वह
तुम्हारा
अपमान कर रहा
है। क्योंकि
तुम दुःखी हो
और वह तुम्हें
प्रसन्न
करने की कोशिश
कर रहा है। वह
सोच रहा है कि
तुम्हारा
दुःख व्यर्थ
है। वह तुम्हें
गंभीरता से
नहीं ले रहा
है।
और जब
तुम सुखी होने
को तैयार होते
हो तो तुम एक
अलग भाव दशा
में पहूंच
जाते हो। अब तुम
सारे सुख के
प्रति खुल
जाते हो जो
संसार दे सकता
है। हर और फूल खिलनें
लगते है। हर
ध्वनि हर
कोलाहल
संगीतमय हो
जाता है। और
हुआ कुछ भी
नहीं है। पूरा
संसार वही का
वही है। पर
तुम बदल गये
हो। तुम्हारा
देखने का ढंग,
तुम्हारा
दृष्टिकोण,
तुम्हारा
नजरिया अलग हो
गया; उस दृष्टि
कोण से एक अलग
ही संसार तुम्हारे
सामने प्रकट
होता है।
लेकिन
दुःख से शुरू
करो, क्योंकि
उसमे तुम निष्णात
हो। मैं एक
प्राचीन हसीद
संत का एक वाक्य
पढ रहा था।
मुझे वह बहुत
अच्छा लगा।
वह कहता है कि
ऐसे लोग होते
है। जिनका पूरा
जीवन भी अगर
फूलों की सेज
हो जाए तो वह
तब तक खुश
नहीं होंगे।
जब तक कि उन्हें
फूलों से कोई
पीड़ा न होने
लगे। गुलाब
उन्हें खुश
नहीं कर सकता, जब
तक उन्हें
उनसे एलर्जी
न हो
जाए। अगर उनसे
कोई पीड़ा
होने लगे केवल
तभी वे जीवित
अनुभव
करेंगे। वे
केवल दुःख पीड़ा
और रोग ही
ग्रहण कर सकते
है। कुछ और
नहीं। वे दुःख
ही खोजते रहते
है। वे कोई
गलती, कोई दुख,
कोई विशाद या
अंधकार ही
खोजने में लगे
रहते है। वे
मृत्यु उन्मुख
होते है।
मैं
सैकड़ों-सैंकड़ो
लोगो से बहुत गहराई
से, बहुत आत्मीयता
से, बहुत निकट
से मिला हूं, जब
वे अपने दुःख
के बारे में
बताने लगते है
तो मुझे गंभीर
होना पड़ता
है। नहीं तो
उन्हें
लगेगा कि मैं
सहानुभूतिपूर्ण
नहीं हूं। यह
उन्हें अच्छा
नहीं लगता।
फिर वे लौटकर
मेरे पास न आएँगे।
मुझे उनके
दुःख के साथ
दुःखी और उनकी
गंभीरता के
साथ गंभीर
होना पड़ता
है। ताकि वे
उससे बाहर
निकल सकें। और
यह सब उनका ही
निर्माण है,
उसे निर्मित
करने के लिए
वे हर संभव
प्रयास कर रह
है। और जब मैं
उन्हें दुःख
से बाहर निकालने
की कोशिश करता
हूं तो वे हर
तरह की बाधा
खड़ी करते है।
निश्चित ही, वे
जानते है कि
बाधा खड़ी कर
रहे है।
जान-बूझकर तो
कोई भी ऐसा
नहीं करेगा।
इसे ही
उपनिषाद
अज्ञान कहते
है। अनजाने ही
तुम अपने जीवन
को अस्तव्यस्त
किए जाते हो।
समस्याएं और
संताप खड़े
करते हो, चाहे कुछ भी
हो जाए उससे
तुममें कोई
अंतर नहीं
पड़ता, क्योंकि
तुम्हारा एक
ढर्रा बन गया
है। मेरे पास
लोग आत है,
कहते है, हम अकेले
है। इसलिए वे
दुःखी है।
अगले ही क्षण
कोई और आता
है। और कहता ह
कि उसे ऐसी
जगह नहीं मिल
रही जहां वह
अक्ल हो सके।
इसलिए वह
दुःखी है। फिर
कुछ ऐसे लोग
है जो इस बात
से दुःखी है कि
उनके पास करने
को कुछ नहीं
है। कोई विवाह
करके दुःखी
है। तो कोई
विवाह न होने
से दुःखी है।
ऐसा लगता है
कि तुम दुःखी
होने के उपाय
खोजने में माहरथ
है, मनुष्य को
सुखी होना
असंभव है।
इसीलिए
मैं कहता हूं
कि तुम दुःखी
होने के उपाय
खोजने में
निष्णात हो।
और हमेशा तुम सफल
होते हो। तो
दुःख से शुरू
करो और सात
दिन के लिए
पहली बार पूरी
सजगता से
दुःखी हो जाओ।
यह प्रयोग
तुम्हें
पूर्णतया
रूपांतरित कर
देगा। एक बार
तुम जान जाओ
कि होश पूर्णाक
तुम दुःखी हो
सकते हो। और
जब तुम दुःखी
होओगे तभी तुम
जाग पाओगे।
फिर तुम्हें
पता होगा कि तुम
क्या कर रहे
हो। यह तुम्हारा
ही कृत्य है।
और यदि तुम
अपनी मर्जी से
दुःखी हो सकते
हो तो सुखी क्यों
नहीं हो सकते।
उसमें कोई
अंतर नहीं है।
विधि तो वहीं
है। फिर तुम
इस विधि का
प्रयोग करो।
‘अपने
शरीर, अस्थियों
मांस और रक्त
को
ब्रह्मांडीय
सार से भरा हुआ
अनुभव करो।’
ऐसे
अनुभव करो
जैसे कि
परमात्मा
तुम में बह
रहा हो: तुम
नहीं हो, बल्कि
ब्रह्मांडीय
तत्व तुममें
भरा हुआ है।
परमात्मा
तुममें
विराजमान है।
जब तुम्हें
भूख लगती है
तो उसे भूख
लगती है—फिर
शरीर को भोजन
देना पूजा बन
जाता है। जब
तुम्हें प्यास
लगती है तो
तुममें
विराजमान
ब्रह्मांडीय
तत्व को प्यास
लगती है। जब
तुम्हें
नींद आती है।
तो उसे नींद
आती है। वह
सोना, आराम करना
चाहता है। जब
तुम युवा हो
तो तुममें वही
युवा है। जब
तुम प्रेम में
पड़ते हो तो वही
प्रेम में
पड़ता है।
उससे
भरा और पूरी
तरह उससे भर
जाओ। कोई भेद
न करो। अच्छा
या बुरा जो भी
हो रहा है वह
उसे ही हो रहा
है। तुम तो बस
एक और हट जाओ।
अब तुम नहीं
हो, वही है। तो
अच्छा या
बुरा स्वर्ग
या नर्क, जो भी होता
है। उसको ही
होता है। सारा
उतरदायित्व
उस पर आ गया
है। तुम तो
रहे ही नहीं।
यह तुम्हारा
न होना, धर्म की परम
अनुभूति है।
यह विधि
तुम्हें
पहुंचा सकती
है। लेकिन
तुम्हें
उससे बिलकुल
भर जाना होगा।
और तुम्हें
तो किसी
प्रकार भरने
का पता ही
नहीं है। तुम्हें
लगता है तुम्हारे
शरीर में खुले
हुए श्वास
छिद्र है और
महान
जीवन-ऊर्जा
तुम्हारे
शरीर में बह
रही है। तुम्हें
तो लगता है कि
तुम ठोस हो,
बंद हो।
जीवन
केवल तभी घटित
हो सकता है जब
तुम बंद नहीं
हो, बल्कि
खुले और
संवेदनशील
हो।
जीवन-ऊर्जा
तुमसे बहती
है। और जो भी
होता है वह
जीवन ऊर्जा के
साथ ही होता
है। तुम्हारे
साथ नहीं होता—तुम
तो बस एक अंश हो।
और जात भी
सीमाएं तुमने
अपने चारों और
बना ली है वे
वास्तविक
नहीं है, झूठी है।
तुम
अकेले जीवित
नहीं रह सकते।
यदि तुम पृथ्वी
पर अकेले हो
जाओ तो क्या
तुम जी सकोगे।
तुम अकेले
नहीं जी सकते।
तुम तारों के
बिना नहीं जी
सकते।
एडिंगटन ने
कहीं कहा है
कि पूरा अस्तित्व
मकड़ी के जाले
की तरह है।
मकड़ी के जाले
को तुम कहीं
से भी छुओ तो
सारा जाला
हिलता है। अस्तित्व
को तुम कहीं
से भी छुओ,
पूरा अस्तित्व
तरंगायित
होता है। पूरा
अस्तित्व
एक है। अगर
तुम एक फूल को
छुओ तो तुमने
सारे ब्रह्मांड
को छू लिया।
तुमने अपने
पड़ोसी की आंखों
में झाँका तो
तुमने
ब्रह्मांड
में झांक लिया, क्योंकि
पूरा अस्तित्व
एक है। तुम
पूर्ण को छुए
बिना अंश को
नहीं छू सकते
और अंश पूर्ण
के बिना नहीं
हो सकता।
जब तुम्हें
यह अनुभव होने
लगेगा तो
अहंकार समाप्त
हो जाएगा।
अहंकार तभी
पैदा होता है।
जब तुम अंश को
पूर्ण की तरह
लेते हो। जब
तुम्हें
ठीक-ठीक पता
लगना शुरू
होता है। कि
अंश-अंश है और
पूर्ण-पूर्ण
है। तो अहंकार
गिर जाता है।
अहंकार केवल
एक नासमझी है।
और स्वयं
को
ब्रह्मांडीय
तत्व से भरा
हुआ है। यह
विधि तो बहुत
अद्भुत है। सुबह
से ही जब तुम्हें
लगे कि जीवन
जाग रहा है,
नींद समाप्त
हो चुकी है, तो
यह पहला विचार
होना चाहिए कि
तुम नहीं परमात्मा
जाग रहा है। परमात्मा
नींद से वापस
आ रहा है।
इसीलिए
तो हिंदू जो
कि संसार में
धर्म के आयाम
में सर्वाधिक
गहरे उतरने
वाली जाती है,
सुबह अपनी
पहली श्वास
परमात्मा के
नाम के साथ
लेते है। अब
तो यह मात्र
एक औपचारिकता
रह गई है। और
असली बात खो
गई है। लेकिन
इसका मूल भाव
यही था कि
सुबह जिस क्षण
तुम जागों तो
स्वयं को
नहीं परमात्मा
को स्मरण
करो। परमात्मा
तुम्हारा
पहला स्मरण
बन जाए। और
रात जब सोने
लगो तो तुम्हारा
अंतिम स्मरण
भी वही हो।
परमात्मा का
स्मरण बना
रहे: वही पहला
हो ओर वही अंतिम
हो। और यदि सच
में ही यह
सुबह सबसे
पहले और रात
सबसे अंतिम स्मरण
हो तो दिन भर
भी वह तुम्हारे
साथ रहेगा।
रात
सोते समय तुम्हें
उसी से भरे
हुए सोना
चाहिए। तुम
हैरान होओगे
कि तुम्हारी
नींद का
गुणधर्म ही
बदल गया। आज
रात सोते हुए
कृपया स्वयं
मत सोओ, परमात्मा
को ही सोने
दो। जब बिस्तर
बिछाओ तो
परमात्मा के
लिए ही बिछाओ,
अतिथि की तरह
सत्कार करो।
ओर नींद
आते-आते यही
अनुभव करते
रहो कि परमात्मा
ही है। हर श्वास
उससे भरी हुई
है। वहीं
ह्रदय में धडक
रहा है। अब वह
पूरे दिन काम
करके थक गया
है। और सोना
चाहता है।
और सुबह
तुम अनुभव
करोगे। कि रात
तुम अलग ही ढंग
से सोए हो।
नींद का पूरा
गुणधर्म ही
ब्रह्मांडीय
हो जाएगा। क्योंकि
उससे गहरे तल
पर मिलन होगा।
जब तुम
स्वयं को
दिव्य अनुभव
करते हो। तो
तुम अतल
गहराइयों में
डूब जाते हो, क्योंकि
तब कोई भय
नहीं रहता।
वरना तो रात
जब तुम सो भी
रहे होते हो
तब भी गहरे
जाने से डरते
हो। कई लोग
अनिद्रा से
पीडित है।
इसलिए नहीं कि
उन्हें कोई
तनाव है, बल्कि
इसलिए कि वे
सोने से भयभीत
है। क्योंकि
नींद उन्हें
गहरी खाई की
तरह प्रतीत
होती है।
जिसकी कोई थाह
नहीं दिखती
है। मैं ऐसे
लोगों को
जानता हूं,जो सोने
से डरते है।
एक
वृद्ध मेरे
पास आए और
कहने लगे कि
वे भय के कारण
सो नहीं सकते।
मैंने पूछा,
आप डरते क्यों
है।
तो
वे बोले, मुझे
डर है कि कहीं
मैं सोते हुए
ही मर गया तो मुझे
तो पता ही
नहीं चलेगा।
और मैं नींद
में मरना नहीं
चाहता। कम से
कम मुझे होश
तो रहे कि मुझे
क्या हो रहा
है।
तुम
कुछ पकड़े
रहते हो जिसके
तो तुम सो
नहीं सकते,
लेकिन जब तुम्हें
लगता है कि अब
तो परमात्मा
ही है तो तुम
स्वीकार कर
लेते हो। फिर
तो अतल
गहराइयां भी
दिव्य है,
फिर तुम अपनी
आत्मा के मूल
स्त्रोत में
गहरे उतर जाते
हो। और सारा
गुणधर्म बदल
जाता है। और
जब तुम सुबह उठते
हो और तुम्हें
लगता है कि
नींद जा रही
है तो स्मरण
रखो कि परमात्मा
ही उठ रहा है।
तुम्हारा
पूरा दिन भी
बदल जाएगा।
और
पूरी तरह उसी
से भरे रहो।
जो भी तुम करो,
या न करो।
परमात्मा को
ही करने दो।
जो हो बस उसे
होने दो। खाओ,सोओ, काम
करो, लेकिन
सब परमात्मा
को ही करने
दो। केवल तभी
तुम पूरी तरह
उससे भर सकते
हो, उससे
एक हो सकते
हो। और एकबार
तुम्हें
अनुभव हो जाए
एक क्षण के
लिए भी—मैं
कहता हूं एक
क्षण के लिए
भी—कि ऐसा
शिखर का क्षण
आ गया कि तुम न
बचे। दिव्य
ने तुम्हें
पूरी तरह से
भर दिया। तभी
तुम बुद्ध हो
जाते हो। उस
एक समयातित
क्षण में तुम्हें
जीवन के रहस्य
का ज्ञान होता
है। फिर न तो
कोई भय है,
न कोई मृतयु।
जब तुम स्वयं
जीवन ही हो
गए। फिर यह एक
अनंत प्रवाह
है, न इसका
कोई अंत है, न आदि। तब
जीवन परम आनंद
हो जाता है।
मोक्ष
और स्वर्ग की
धारणाएं तो
एकदम बचकानी
है। क्योंकि
वे कोई
भौगोलिक स्थान
नहीं है। वे
तो उस अवस्था
के लिए प्रतीक
है जब व्यक्ति
ब्रह्मांड
में डूब जाता
है। अथवा
ब्रह्मांड
को स्वयं
में डूब जाने
देता ह। जब दा
एक हो
जात है, जब मन
और पदार्थ
दोनों ही
अभिव्यक्तियां
तीसरे पर मूल
स्त्रोत पर लौट
आती है। सारी
खोज ही उसके
लिए है। यही
एकमात्र खोज
है, और जब
तक तुम इसको न
पा लो,
तृप्त नहीं होओगे।
इसका कोई
विकल्प नहीं
हो सकता। चाहे
जन्मों–जन्मों
तक तुम भटकते
रहो। पर जब तक
यह न पा लो,
तुम्हारी
खोज पूरी नहीं
होगी। तुम
विश्राम नहीं
कर सकते।
यह
विधि बहुत
सहयोगी हो
सकती है। और
इसमें कोई खतरा
नहीं ह। इसको
तुम बिना किसी
गुरु क कर सकते
हाँ। इस स्मरण
रखो। वे सब
विधियां जो
शरीर से शुरू
होती है। बिना
गुरु के
खतरनाक हो
सकती है। क्योंकि
शरीर
बहुत-बहुत
जटिल संरचना
है। शरीर एक
जटिल यंत्र ह
और इसके साथ
कुछ भी शुरू
करना खतरनाक
हो सकता है।
जब तक कि कोई
ऐसा व्यक्ति
न हो जा कि
जानता हाँ कि
क्या हो रहा
है। हो सकता
है तुम यंत्र
का खराब कर दो
और उसे ठीक
करना कठिन हो
जाए।
वे
सब विधियां जो
सीधे मन से
शुरू होती है,
कल्पना पर
आधारित होती
है। और खतरनाक
नहीं होती। क्योंकि
उनमें शरीर का
बिलकुल भी
सहयोग नहीं होता।
वे बिना किसी
सदगुरू क भी
कि जा सकती
है। निश्चित
ही, यह
थोड़ा कठिन
होगा, क्योंकि
तुममें आत्म
विश्वास
नहीं है।
सदगुरू कुछ
करता नहीं है।
लेकिन एक उत्प्रेरक
माध्यम,
कैटालिस्ट
बन जाता है।
वह कुछ भी
नहीं करता—और
सच में तो कुछ
किया भी नहीं
जा सकता—लेकिन
मात्र उसकी
उपस्थिति स
ही तुम्हारा
आत्मविश्वास
और श्रद्धा जग
जाती है। और
इससे मदद
मिलती है।
केवल इस भाव
से ही कि गुरु
साथ है।
तुममें भरोसा
आ जाता है। क्योंकि
वह साथ ह तो
तुम अज्ञात
में प्रवेश कर
सकते हो।
लेकिन
शारीरिक
विधियों में
गुरु नितांत
आवश्यक है,
क्योंकि
शरीर एक यंत्र
है और उसके
साथ तुम ऐसा कुछ
कर ले सकते हो
जिसे अनकिया
नहीं किया जा
सकता है। तुम
स्वयं को
नुकसान पहुंचा
सकते हो।
मेरे
पास एक युवक
आया, वह
शीर्षासन कर
रहा था। घंटों
अपने सिर के
बल खड़ा रहता
था। शुरू-शुरू
में तो सब
बिलकुल ठीक था
और सारे दिन
वह विश्रांति
और शांति और
शीतलता अनुभव
करता रहा।
लेकिन फिर
मुसीबत होने लगी।
क्योंकि जब
शीतलता समाप्त
होती ता सारे
शरीर में
गर्मी लगने
लगती। जो उसे
बेचैन कर
देती। वह
करीब-करीब
पागल सा हो
गया। और फिर
उसने सोचा कि शीर्षासन
से शुरू-शुरू
में उसे इतनी
शीतलता,
इतनी शांति, इतना आराम
मिला था तो वह
और शीर्षासन
करने लगा।
उसने सोचा कि
और शीर्षासन
से उसे मदद
मिलेगी। जब कि
शीर्षासन ही
उसे बीमार
किया जा रहा था।
मस्तिष्क
के यंत्र में
केवल एक निश्चित
मात्रा में ही
रक्त संचार
की जरूरत होती
है। यदि रक्त
संचार कम हो
तो तुम्हें
कठिनाई होगी।
यदि रक्त
संचार अधिक हो
तो कठिनाई
होगी। और हर
एक व्यक्ति
के लिए यह
मात्रा अलग
होती है। वह
व्यक्ति-व्यक्ति
पर निर्भर
करती है।
इसीलिए तो तुम
तकिए के बिना
नहीं सो पाते
हो। यदि तुम
तकिए के बिना
सोने की कोशिश
करो तो यह तो
सो ही नहीं
पाओगे या कम
सो पाओगे। क्योंकि
सिर की और
अधिक रक्त
दौड़ेगा।
तकिए मदद देते
है। तुम्हारा
सिर ऊँचा हाँ
जाता है।
इसलिए कम रक्त
सिर की और
दौड़ता है।
इससे नींद आ
जाती है। यदि
अधिक रक्त
दौड़ता रहे तो
मस्तिष्क
जागा रहेगा।
विश्राम नहीं
कर पाता।
यदि
तुम बहुत अधिक
शीर्षासन करो
तो हो सकता है
कि तुम्हारी
नींद पूरी तरह
से उड़ जाये।
हो सकता है कि
तुम बिलकुल भी
सो नहीं सको।
फिर और भी
खतरे है। अभी
खोजों से पता
चला है कि
अधिक से अधिक
सात दिन तक
तुम बिना सोए
रह सकते हो।
सात दिन के
बाद तुम पागल
हो जाओगे। क्योंकि
मस्तिष्क
की बहुत सूक्ष्म
कोशिकाएं है,
जो कि टूट
जाएंगी। फिर
आसानी से वे
जुड़ नहीं
सकती। जब तुम
शीर्षासन में
सिर के बल
खड़े होते हो
तो सारा रक्त
सिर की और
दौड़ने लगता
है। मैंने ऐसा
एक भी
शीर्षासन करने
वाला नहीं
देखा जो किसी
भी तरह से
प्रतिभाशाली
हो। यदि कोई
व्यक्ति
बहुत
शीर्षासन
करता है तो वह
जड़बुद्धि हो जाएगा।
क्योंकि मस्तिष्क
की सूक्ष्म
कोशिकाएं नष्ट
हो जाएंगी।
अत्यधिक रक्त-संचार
के कारण वे को मन
कोशिकाएं नही
बच सकती है।
तो
यह सब एक गुरु ही
निर्धारित कर सकता
है, जो जानता है
कि कौन सी विधि
कितना समय तुम्हारे
लिए सहयोगी होगी।
कुछ सेकेंड या
कुछ मिनट। और यह
तो केवल एक उदाहरण
हे। सारी शारीरिक
मुद्राएं, आसन
विधियां, गुरु
की देख-रेख में
ही करनी चाहिए।
कभी भी उन्हें
अकेले नहीं करना
चाहिए। क्योंकि
तुम अपने शरीर
को नहीं जानते।
तुम्हारा शरीर
इतनी बड़ी घटना
है कि तुम उसकी
कल्पना भी नहीं
कर सकते। तुम्हारे
छोटे से मस्तिष्क
में सात करोड़
तंतु आपस में एक
दूसरे से संबंधित
है। जुड़े हुए
है। वैज्ञानिक
कहते है कि उनका
आपसी संबंध इस
ब्रह्मांड जितना
ही जटिल है।
प्राचीन
हिंदू ऋषियों ने
कहा है कि पूरा
ब्रह्मांड लधु
रूप से मस्तिष्क
में विराजमान है।
जगत की सारी जटिलता
लधु रूप से मस्तिष्क
में है। यदि इन
सारे तंतुओं का
संबंध तुम्हें
समझ आ जाए तो पूरे
जगत की जटिलता
समझ में आ जाए।
न तो तुम्हें
किन्हीं तंतुओं
का पता है, न ही
उनके किसी आपसी
संबंधों का। और
अच्छा है कि तुम्हें
पता नहीं है, नहीं तो इतने
महत कार्य को चलते
देख तुम तो पागल
ही हो जाओ। यह सब
केवल बिना पता
लगे ही हो सकता
है।
रक्त
दौड़ता रहता है, लेकिन
तुम्हें पता नहीं
लगता। केवल तीन
शताब्दी पहले
ही यह पता चल पाया
कि शरीर में रक्त
दौड़ता है। इससे
पहले ऐसा माना
जाता था कि रक्त
दौड़ता नहीं,भरा हुआ है। रक्त
संचार तो बहुत
नई धारणा है। और
लाखों वर्षों से
मनुष्य है, लेकिन किसी को
नहीं लगा
कि रक्त दौड़ता
है। तुम इसे महसूस
नहीं कर सकते।
भीतर बहुत गति
से बहुत सा काम
चल रहा है। तुम्हारा
शरीर एक बहुत बड़ी
और बहुत नाजुक
फैक्टरी है। शरीर
हर समय स्वयं
को ताजा और नया
करने में लगा
है। यदि तुम कोई
उपद्रव न खड़ा
करो तो सत्तर
वर्ष तक यह आराम
से चलेगा। अभी
तक हम कोई ऐसा यंत्र
नहीं बना पाए है
जो सत्तर वर्ष
तक अपनी देख-भाल
कर सके।
तो
जब भी तुम अपने
शरीर पर कोई कार्य
शुरू करो तो इस
बात का स्मरण
रखो कि ऐसे गुरु
के पास होना जरूरी
है जो जानता हो
कि वह तुम्हें
क्या करवा रहा
है। वरना कुछ मत
करो। लेकिन कल्पना
में तो कोई कठिनाई
नहीं है। यह बड़ी
सरल बात है। इसे
तुम शुरू कर सकते
हो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-67
सर आप ने बहुत अच्छा किया हिंदी मई अनुबाद करके | क्यौकी विज्ञानं भैरव तंत्र इंग्लिश मई ही उपलब्ध है | मैंने यह सोचा है की क्यों न इसका हिंदी ऑडियो भी बनाया जाये और youtube ब्लोगेर मे शेयर किया जाये | आप का क्या कहना है | आप ने अनुबाद कर मेरा काम आसान कर दिया | आपकी अनुमति हो तो मे आपके अनुबाद की ऑडियो रिकॉर्डिंग करू | हिंदी अनुबाद करने से हमारे वो मित्र जो इंग्लिश नहीं समझ पते है वो भी हिंदी ऑडियो का लाभ ले सकेंगे | धन्यवाद आप की अनुमति का इन्तजार | कृपया आपना email address भी बताये |
जवाब देंहटाएंहां। संपूर्ण ब्रह्मांड को अपने भीतर समाने दो। और उसे बहने दो।
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