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बुधवार, 22 जुलाई 2020

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-09

बिल्ली को बचाओ-प्रवचन-नौवां

मनुष्य होने की कला--(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा: -
नानसेन ने भिक्षओं के दो समूह, को, एक बिल्ली के स्वामित्व के
लिए आपस में शोर करते और झगड्‌ते हुए पाया नानसेन उस घर में
गया और एक तेज धार की छुरी लेकर लौटा उसने बिल्ली को हाथ
में उठाकर भिक्षओं से कहा- ''तुममें से कोई भी यदि कोई अच्छा
और भला शब्द कहे तो तुम इस बिल्ली को बचा सकते हो ''
कोई भी ऐसे शब्द को न कह सका इसलिए नानसेन ने बिल्ली के
दो टुकड़े कर दिए और आधा-आधा भाग प्रत्येक समूह को दे दिया
शाम को जब जोशू मठ में लौटा तब जो कुछ भी हुआ कु नानसेन
ने उसे उसकी बाबत बताया
जोशू ने कुछ भी नहीं कहा:
उसने बस अपनी चप्पलें अपने सिर पर रखीं और चला गया
नानसेन से कहा- '' यदि तुम वहां रहे होते तो तुमने बिल्ली को बचा लिया होता ''


जीवन की रक्षा, मन से, सोच-विचार से या तर्क के द्वारा नहीं की जा सकती। यदि तुम उसे तर्क द्वारा बचाने की कोशिश करोगे तो उसे खो दोगे। जीवन बचाया जा सकता है केवल एक बेतुकी छलांग के द्वारा, किसी ऐसी चीज के द्वारा जो बुद्धिगत न होकर समग्र हो, लेकिन यह पूरी कहानी बहुत अधिक निर्मम प्रतीत होती है। नानसेन के शिष्य एक बिल्ली के ऊपर आपस में झगड़ रहे थे। नानसेन का काफी बड़ा मठ था और उस मठ के दाएं बाएं दो भाग थे। यह बिल्ली एक भाग से दूसरे में घूमती रहती थी और दोनों भागों के भिक्षु यह दावा करते थे कि बिल्ली उन्हीं की है। यह बिल्ला बहुत सुन्दर थी। समझने योग्य जो पहली चीज है, वह है कि एक सच्चा संन्यासी किसी की मालकियत का कोई दावा ही नहीं करता। एक संन्यासी का अर्थ है जिसने अपने सारे अधिकार छोड़ दिए अथवा सभी सम्पत्ति, पद, प्रतिष्ठा और हर चीज का स्वामित्व छोड़ दिया और यही मूल और अधिक गहरा इसका अर्थ भी है। तुम धन-सम्पत्ति छोड़ सकते हो, जो आसान है लेकिन स्वामित्व या पकड़ छोड़ना कठिन है,  क्योंकि यह में चली गई है। तुम संसार छोड़ सकते हो, लेकिन मन उसके साथ लिपटा चला जाता है।
नानसेन के इन शिष्यों और भिक्षुओं ने अपने पीछे घर-संसार, अपनी पत्नी और बच्चे सभी कुछ छोड़ दिया था, लेकिन अब वे बिल्ली पर स्वामित्व के लिए आपस में झगड़ रहे थे। मन इसी तरह कार्य करता है। तुम एक चीज छोड़ दो तो मन दूसरी चीज का दावा करता है लेकिन आधारभूत चीज वही बनी रहती है और उससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। भले ही स्वामित्व की वस्तु बदल जाए उससे कोई अंतर पड़ता। अंतर तो तब पड़ता है, क्रांति तो तब घटित होती है, वास्तविक परिवर्तन तो तब होता है जब वैयक्तिकता बदल जाए जब स्वामी ही बदल जाए। समझने योग्य सबसे पहली चीज यही है। जो भिक्षु बिल्ली पर स्वामित्व का दावा कर रहे हैं, मूर्ख दिखाई देते हैं, लेकिन पूरे संसार में भिक्षु और संन्यासी यही सब कुछ कर रहे हैं। वे अपना घर छोड़ देते हैं तब वे मंदिर या चर्च पर अपने स्वामित्व का दावा करते हैं। वे सब कुछ छोड़ देते हैं, लेकिन अपना मन नहीं छोड़ सकते और मन ही उनके लिए निरन्तर नए-नए संसार निर्मित करता रहता है। इसलिए प्रश्न एक राज्य पर स्वामित्व जमाने या उसे पाने का नहीं है, इसे तो एक बिल्ली भी कर देगी। जहां कहीं भी स्वामित्व का भाव आता है तो उसके साथ वहां संघर्ष हिंसा और आक्रमण का होना निश्चित है। जब भी तुम किसी चीज पर अधिकार जमाते हो, तुम संघर्ष कर रहे होते हो, क्योंकि जिसे तुम अपने अधिकार में लेते हो, वह पूर्ण अस्तित्व का ही एक भाग है। तुम किसी चीज के स्वामी नहीं हो सकते तुम बस उसका उपयोग कर सकते हो। हम कैसे आकाश के स्वामी हो सकते हैं और पृथ्वी को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं? लेकिन हम सभी पर अधिकार जमाते हैं, उसे नियंत्रित करना चाहते हैं और इसी से सभी तरह के संघर्ष युद्ध, लड़ाई, हिंसा और प्रत्येक चीज उत्पन्न होती है।
मनुष्य निरन्तर लड़ाई और लड़ाइयां ही लड़ता चला आ रहा है। इतिहासकार कहते हैं कि पिछले तीन हजार वर्षों से लगभग निरन्तर ही कहीं-न-कहीं पृथ्वी के किसी-न-किसी भाग में युद्ध होता ही रहा है। इन तीन हजार वर्षों में हमने कम-से- कम चौदह हजार युद्ध लड़े हैं। आखिर इतने अधिक युद्ध क्यों? यह केवल अपना अधिकार जमाने और नियंत्रण के कारण ही लड़े गए हैं। यदि तुम किसी वस्तु को अपने अधिकार में लेते हो तो तुम पूर्ण अस्तित्व से एक संघर्ष की शुरुआत कर देते हो।
बुद्ध, महावीर और जीसस सभी यही कहते हैं, यदि तुम परिग्रही होकर किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर अधिकार जमाकर उसके स्वामी बनते हो तो तुम परमात्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। जीसस कहते हैं-’‘ एक ऊंट भी सुई के छेद से एक बार बाहर निकल सकता है लेकिन एक धनी व्यक्ति स्वर्ग के द्वार में प्रविष्ट नहीं हो सकता। ''यह असम्भव है क्योंकि जैसे तुम कुछ भी अपने अधिकार में लेते हो निरन्तर परमात्मा से लड़ रहे होते हो। जब तुम अपने स्वामित्व का दावा करते हो तो तुम किस पर अपनी मालकियत का दावा कर रहे हो, क्योंकि पूर्ण तो पूर्ण के ही अधिकार में है और पूर्ण का एक भाग पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता। प्रत्येक दावा एक आक्रामकता है इसलिए जिन लोगों के अधिकार यानि यंत्रणा में कुछ भी है, उनका गहराई में परमात्मा से सम्बन्ध नहीं हो सकता।
अपरिग्राही होने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें घर में नहीं रहना चाहिए। रहो घर में ही, लेकिन उस अखण्ड सत्ता या परमात्मा के प्रति अहोभाव और धन्यवाद प्रकट करते रहो। उपयोग करो उस वस्तु का, पर उस पर अधिकार मत जाओ। यदि तुम बिना परिग्रह या पकड़ के वस्तुओं का उपयोग कर सकते हो तो तुम एक संन्यासी ही हो जाते हो।
नानसेन के इन शिष्यों ने संसार छोड़ दिया था, लेकिन उनके मन एक छाया की तरह अभी वस्तुओं के पीछे ही भाग रहे थे। अब वे एक बिल्ली पर अपने स्वामित्व का दावा कर रहे थे। यह पूरी चीज ही एक बेवकूफी से भरी हुई है, लेकिन मन छू ही है। मन हमेशा लड़ने के बहाने खोजता रहता है। यदि तुम्हारे पास मन है तो तुम्हारे अन्दर एक छिपा हुआ लड़ाका है जो हमेशा किसी-न-किसी से लड़ने का बहाना छूता रहता है। मन सदा लड़ने का बहाना क्यों खोजता रहता है? क्योंकि लड़ने से अहंकार पुष्ट होता है। लड़ते हुए अहंकार उत्पन्न होता है और यदि तुम नहीं लड़ते हो तो अहंकार होता ही नहीं।
महावीर और बुद्ध दोनों ही अहिंसा पर जोर देते हैं। मूल कारण न लड़ने का ही है। यदि एक बार तुमने लड़ना बंद कर दिया तो अहंकार रह ही नहीं सकता। लड़ने में ही अहंकार का अस्तित्व है, यह लड़ने का ही प्रतिफलन है। तुम जितना अधिक लड़ते हो, उतना ही अधिक अहंकार का अस्तित्व होता है। यदि तुम पृथ्वी पर अकेले छोड़ दिए जाओ, तुम्हारे साथ लड़ने को कोई हो ही नहीं, तो क्या तुम्हारे पास कोई अहंकार होगा? तुम्हारे पास कोई अहंकार होगा ही नहीं। उसे उत्पन्न करने के लिए दूसरे का होना जरूरी है, दूसरा होना ही चाहिए। स्मरण रहे, तुम्हारे अन्दर अहंकार नहीं है, तुम्हारे अन्दर वह स्थित नहीं है। वह हमेशा तुम्हारे और दूसरे के बीच रहता है, जहां लड़ने का अस्तित्व है।
यहां दो ही तरह के रिश्ते हैं-एक है संघर्ष का, भय और घृणा का-जो अहंकार उत्पन्न करता है और दूसरा है-प्रेम, करुणा और सहानुभूति का। ये दो ही तरह के सम्बन्ध हैं। जहां प्रेम है, वहां संघर्ष समाप्त हो जाता है, अहंकार विसर्जित हो जाता है। यही कारण है कि तुम प्रेम नहीं कर सकते। यह कठिन है क्योंकि प्रेम का अर्थ है अहंकार को गिराना, स्वयं के 'मैं' को विसर्जित करना। प्रेम का अर्थ है-स्वयं की अनुपस्थिति।
जरा देखें इस अजीब घटनाक्रम को, प्रेमी निरन्तर लड़ते ही रहते हैं। प्रेमी लड़ कैसे सकते हैं? यदि वहां प्रेम है-लड़ाई होनी ही नहीं चाहिए और अहंकार भी नहीं होगा, वह विसर्जित हो जाएगा। तुम्हारा पूरा अस्तित्व प्रेम का प्यासा होता है, तुम्हारा पूरा मन अहंकार का प्यासा होता है, इसलिए तुम एक समझौता करते हो। तुम प्रेम भी करते हो और लड़ते भी हो। प्रेमी एक-दूसरे के घनिष्ट शत्रु बन जाते हैं और यह शत्रुता बनी रहती है। सभी प्रेमी एक-दूसरे से लड़ते भी रहते हैं और प्रेम भी करते रहते हैं। उन्होंने एक समझौता कर रखा है, कुछ क्षणों तक वे केवल प्रेम करते हैं और तब उनके
अहंकार गिर जाते हैं, लेकिन फिर मन को बेचैनी होने लगती है और मन फिर लड़ना शुरू कर देता है। इसलिए सुबह वे लड़ते हैं और शाम को प्रेम करते हैं। अगली सुबह वे फिर लड़ते हैं, तब युद्ध और प्रेम की एक ताल या लय निर्मित हो जाती है।
सच्चे प्रेम का अर्थ है जहां लड़ाई रही ही नहीं, जहां दो, एक हो गए। उनके दो शरीर अलग- अलग अस्तित्व में जरूर हैं, लेकिन उनका होना एक मिश्रण है। उनके बीच सीमाएं खो गई हैं और कहीं कोई विभाजन नहीं है। वहां अब ' मैं ' और ' तुम ' नहीं रह गए अब केवल एक ही रह गया।
नानसैन के इन भिक्षुओं ने सभी कुछ छोड़ रखा है, लेकिन उनके मन अभी भी वहां हैं, जहां पकड़ है, परिग्रह है। वे चाहते हैं लड़ाई-झगड़ा हो, अहंकार निर्मित हो। बिल्ली तो मात्र एक बहाना बन गई।
नानसेन ने सभी भिक्षुओं और शिष्यों को बुलाया, बिल्ली को अपने हाथों से पकड़ा और कहा-’‘ कुछ ऐसा कहो जिससे इस बिल्ली की जान बच जाए। ‘‘ उसके कहने का क्या अर्थ था, जब उसने कहा-’‘ कोई बात ऐसी कहो जिससे इस बिल्ली की जान बच सके। ‘‘ कुछ चीज झेन जैसी कहो, कुछ चीज ध्यान से भरी हुई कहो, कुछ बात दूसरे संसार की कहो, कोई चीज परमानंद की कहो, कुछ बात
ऐसी कहो जो मन के पार की हो। यह बिल्ली तभी बच सकती है। यदि तुम कुछ ऐसा कहो जो मन से उद्‌भूत न हो, जो तुम्हारे आंतरिक मौन से आए। उसने असम्भव की मांग की। यदि उन भिक्षुओं में आंतरिक मौन ही घटा होता तो वे बिल्ली पर स्वामित्व का दावा ही नहीं करते। यदि उनके पास आंतरिक मौन ही होता तो यह असम्भव था कि वे आपस में लड़े होते।
भिक्षुओं के लिए सद्‌गुरु का वचन एक पहेली बन गया। वे जानते थे कि यदि वे कुछ भी कहेंगे तो वह मन से ही कहेंगे और बिल्ली मार दी जाएगी इसलिए वे मौन ही रहे, लेकिन वह मौन वास्तविक मौन नहीं था, अंदर तो बिल्ली को बचाने की ही बात चल रही थी। वे इसलिए मौन रहे क्योंकि वे कुछ ऐसा खोज ही न सके जो अमन से आता, जो उनके आंतरिक स्रोत और उनके अपने अस्तित्व से आता अथवा जो उनके केन्द्र से आता। उनका मौन रहना उनकी सोची-समझी एक चाल या योजना थी, मौन रहना इसलिए अच्छा था जिससे सद्‌गुरु को धोखा दिया जा सके कि उनका मौन ही उनका उत्तर है और वे मौन द्वारा उसे अभिव्यक्त कर रहे हैं।
लेकिन तुम एक सद्‌गुरु को धोखा नहीं दे सकते। यदि तुम एक सद्‌गुरु को धोखा दे सकते हो, तब वह सद्‌गुरु वास्तव में एक सच्चा सद्‌गुरु है ही नहीं। उनका मौन नकली था। उनके अंदर तो कौलाहल हो रहा था, उनके अंदर तो निरन्तर चटर-पटर चल ही रही थी। वे बस सोचे ही जा रहे थे, सोचे ही जा रहे थे और एक ऐसा उत्तर खोज रहे थे जिससे बिल्ली की जान बचाई जा सके। वे सभी अंदर बहुत उद्विग्न थे और उनका मन बहुत तीव्र गति से क्रियाशील था। सद्‌गुरु ने उनकी ओर देखा होगा। उनके मन निष्किय नहीं थे। वे भी निष्किय नहीं थे, वहां उनके अन्दर कोई ध्यान न था और न था मौन। उनका मौन बस उनका एक नकली मुखौटा था। तुम अन्दर से मौन हुए बिना भी मौन बैठ सकते हो और तुम अंदर से मौन होते हुए भी बातचीत भी कर सकते हो, तुम निष्क्रिय बनकर चल भी सकते हो और तुम प्रस्तर मूर्ति की तरह बैठे हुए भी सक्रिय हो सकते हो। यह मन बहुत जटिल चीज है। तुम दौड़ सकते हो, गतिशील होकर चल सकते हो और अपने अंदर गहराई में तुम्हारा केन्द्र फिर लव भी हो सकता है।
मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूं और मैं मौन हूं। तुम मुझसे बातचीत नहीं कर रहे हो, लेकिन तुम मौन नहीं हो। तुम्हारे मन में निरन्तर विचार चल रहे हैं। तुम्हारे अन्दर व्यर्थ की बकवास निरन्तर चल रही है। यह मन एक बन्दर की तरह है। यह कभी शांत बैठ ही नहीं सकता। डार्विन ने खोज की कि बन्दर से ही मनुष्य का विकास हुआ है, लेकिन पूरब के ध्यानी सदा से इस बात के प्रति सजग रहे हैं, कि यदि मनुष्य बन्दर से विकसित नहीं भी हुआ हो, फिर भी निश्चित रूप से उसका मन तो बन्दर के मन से ही विकसित हुआ है। वह ठीक बन्दर जैसा ही है-वैसे ही उछलता, कूदता और किकियाता रहता है, कुछ-न-कुछ काम निरन्तर करता ही रहता है और कभी शांत बैठता ही नहीं।
नानसेन ने अपने शिष्यों से कहा था-’‘ यदि तुम लोग बन्दरों की तरह व्यवहार नहीं करते तो बिल्ली बच सकती थी। तुम कुछ भी सहायता नहीं कर सकते, क्योंकि यदि वहां मन है तो तुम कर भी क्या सकते हो? यदि तुम उसे निष्किय बनाने की कोशिश करते हो तो वह और अधिक सक्रिय हो जाता है। यदि तुम उसे शांत होने के लिए विवश करते हो तो वह और भी अधिक बातें करता है। यदि तुम उसे दबाते हो तो वह विद्रोह करता है। तुम उसे दबा नहीं सकते, तुम उसे फुसला नहीं सकते। तुम इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकते, क्योंकि जिस क्षण तुम कुछ भी करते हो तो करने वाला तुम्हारा मन ही होता है और यही समस्या है।‘‘ वे सभी बिल्ली को बचाना चाहते थे, वे सभी बिल्ली पर अपना अधिकार चाहते थे और बिल्ली वास्तव में बहुत सुंदर थी, लेकिन वह मन जो परिग्राही हो, कैसे शांत हो सकता है?
जो मन किसी को नियंत्रण में लेकर उस पर अधिकार जमाना चाहता है वह कैसे किसी को बचा सकता है? वह केवल उसे मार ही सकता है। स्मरण रहे वह नानसैन नहीं था जिसने बिल्ली को मारा। वे सभी भिक्षु ही थे जिन्होंने उसे मारा। यही इस कहानी की गुप्त कुंजी है। नानसेन ने उन्हें अवसर दिया और कहा- ‘‘तुम इस बिल्ली को बचा सकते हो। कुछ ऐसा कहो, जो अमन से आए जो तुम्हारे अपने अस्तित्व से प्रकट हो। यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो मैं बिल्ली को काट कर दोनों समूहों में उसे वि भाजित कर दूंगा, जिससे दोनों उस पर अपना अधिकार जमा सकें। ‘‘
वह नानसेन नहीं था जिसने बिल्ली को मारा। यद्यपि लगता ऐसा ही है कि उसी ने बिल्ली को मारा, लेकिन वास्तव में वे सभी भिक्षु ही थे जिन्होंने उसे मारा। जब भी तुम किसी जीवित प्राणी को अपने अधिकार या नियंत्रण में लेते हो, तुम उसे पहले ही से मार देते हो। जब भी तुम यह दावा करते हो कि तुम्हारा किसी व्यक्ति पर स्वामित्व और कब्जा है तुमने उसकी हत्या कर दी क्योंकि जीवित को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। वह बिल्ली बाएं भाग से दाएं भाग में आती-जाती थी और पूरी तरह जीवन्त थी, बल्कि उन सभी भिक्षुओं से भी कहीं अधिक जीवन्त। उसका कोई घर नहीं था, वह किसी की भी सम्पत्ति न थी। वह ठीक हवा के द्ग्ल झोंके की तरह थी-कभी वह बाएं भाग से होकर गुजरती थी और कभी दाएं भाग से। उस बिल्ली ने कभी यह दावा नहीं किया था वे भिक्षु उसके अधिकार में हैं या उसकी सम्पत्ति हैं। वह कभी भी परिग्रही न थी। सभी पशु अपरिग्रही हैं सभी वृक्ष अपरिग्रही हैं केवल मनुष्य ही परिग्रही है और इस परिग्रह के कारण ही जो कुछ भी जीवन्त है मनुष्य उससे चूक गया है। तुम केवल एक मृत वस्तु को ही अपन अधिकार या नियंत्रण में रख सकते हो।
जिस क्षण तुम किसी व्यक्ति को अपने नियंत्रण में लेते हो तुम उसे मारकर मृत बना देते हो। तुम एक स्त्री से प्रेम करते हो और तब उसे अपने अधिकार में लेने की कोशिश करते हो, ऐसा कर तुम उसे मार ही देते हो जैसे पत्नी एक व्यक्ति न होकर एक वस्तु हो, एक पति जैसे व्यक्ति न होकर एक निर्जीव वस्तु हो।
यही सबसे बड़ी पीड़ा है-तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो, तब उस पर अधिकार जमाना शुरू कर देते हो और ऐसा कर अनजाने ही में तुम उस व्यक्ति को जहर देकर पूरी तरह मार रहे हो। देर-सवेर वह दिन भी आएगा, जब तुम उस व्यक्ति को विष देकर पूरी तरह उसकी हत्या कर दोगे और तब उसे अपने अधिकार में ले लोगे लेकिन तुम एक वस्तु को कैसे प्रेम कर सकते हो। प्रेम घटने के लिए पहली जरूरी बात तो यह है कि वह व्यक्ति जीवन्त हो। अब उसका प्रवाह ही रुक गया है, अब उसमें जीवन गतिशील ही नहीं है और अब उसकी स्वतंत्रता के सारे द्वार बंद हैं। अब वह जैसे एक जमी हुई चीज है। जब नदी जमकर बर्फ बन जाती है, तब उसमें कोई गति नहीं रह जाती। निश्चित रूप से अब यह व्यक्ति दूसरे के निकट नहीं जा सकता। तुम पूरी तरह उसे अपने नियंत्रण में रखते हो, लेकिन तुम एक मृत व्यक्ति से कैसे प्रेम कर सकते हो? प्रेम की यही पीड़ा है। तुम एक मृत व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते, फिर भी जब तुम प्रेम करते हो तुम अधिकार जमाना शुरू कर देते हो। सभी तरह की पकड़ और नियंत्रण, मृत्यु ही लाती है। केवल वस्तुओं को अधिकार में रखा जा सकता है।
इन भिक्षुओं ने बिल्ली को पहले ही मार डाला। नानसेन उसे मारने नहीं जा रहा था, जो कुछ पहले ही हो चुका था, वह तो उसे सभी को दिखाना चाह रहा था। यह कहानी झेन भिक्षुओं और झेन सद्‌गुरुओं के विरुद्ध यह दिखाने के लिए प्रयुक्त की जाती है कि वे कितने हिंसक हैं। एक ईसाई धर्मशास्त्री के सम्बन्ध में जरा विचार करें, जो इस कहानी को पढ़कर कहेगा-’‘ यह नानसेन किस तरह का धार्मिक व्यक्ति है? उसने बिल्ली को मार डाला, एक बेचारी निरीह बिल्ली को। वे भिक्षु जो उस पर अपना दावा कर रहे थे, वे उससे कहीं अच्छे थे। कम-से-कम वे उसे मार तो नहीं रहे थे। यह किस तरह का सद्‌गुरु है? ‘‘
इस व्यक्ति के तौर-तरीके कैसे हैं? महावीर के अतिरिक्त यदि जैनियों ने पढ़ा होता इस कहानी को तो वे नानसेन को नर्क में फेंक देते, जिसने एक बिल्ली को जान से मार दिया।
देखने में नानसेन केवल उन्हीं लोगों के लिए हिंसक है, जो उसे समझ नहीं सकते। उन लोगों के लिए जो उसे समझ सकते हैं, वह केवल उस चीज को दिखा रहा है जो पहले ही घट चुकी है। वह बिल्ली तो उसी क्षण मर गई थी, जब उस पर अधिकारों के दावे किए गए थे। नानसेन ने तो उन्हें एक अवसर दिया लेकिन वे उस अवसर का उपयोग नहीं कर सके। वे खामोश रहे, लेकिन यदि उनका मौन वास्तविक होता तो बिल्ली जीवित बच जाती। यह मौन झूठा था, वह मौन केवल ऊपर ही ऊपर था, परिधि पर था, चेहरे पर था लेकिन शरीर के अन्दर पागल मन तेजी से सक्रिय था। वह चक्कर खा रहा था, चरखे की तरह विचारों को बुन रहा था। उन भिक्षुओं ने अवश्य ही कई उत्तरों पर सोचा होगा, लेकिन उन्हें कोई उत्तर मिला ही नहीं। इसलिए नान-सेन को उसे मारना ही पड़ा। उसने बिल्ली के दो टुकड़े कर दिए एक टुकड़ा बाएं भाग के दावेदारों को और दूसरा टुक डा दूसरे भाग के दावेदारों को दे दिया। वे भिक्षु अवश्य ही खुश हुए होंगे-खुश उस अर्थ में कि कम-से-कम बिल्ली का आधा भाग तो उनके कब्जे में आया।
ऐसा ही सब कुछ तुम सभी के साथ भी हो रहा है। तुम जब कभी भी लड़ते हो, जीवन मृत में विभाजित हो जाता है। माता-पिता आपस में पुत्र के लिए लड़ते हैं- वहां बच्चों की खातिर निरन्तर लड़ाई होती ही रहती है। पिता कहता है कि पुत्र पर उसका अधिकार है और उसे उसका अनुसरण करना चाहिए और मां सोचती है कि पुत्र पर उसका अधिकार है और उसे उसका ही अनुसरण करना चाहिए। वे दोनों यह दावा कर बच्चे को मार रहे हैं। देर सवेर वह पुत्र दो भागों में विभाजित हो जाएगा। उसका आधा भाग पिता का अनुसरण करेगा और आधा भाग मां का। उसका पूरा जीवन
बरबाद हो जाएगा, क्योंकि अब उसका अखण्ड या पूर्ण हो पाना बहुत कठिन हो जाएगा। उसका आधा हृदय हमेशा मां के अधिकार में रहेगा और आधा भाग पिता के। उसका आधा भाग मां के विरुद्ध होगा और आधा भाग पिता के। अब वह विभाजित जीवन पर उसका पीछा करेगा। वह दो खण्डों में कटकर बंट चुका है।
बिल्ली को दो भागों में काटकर नानसेन तुम्हें यही बता रहा है-किसी व्यक्ति के लिए लड़ी मत और न उस पर आधिपत्य जमाओ, क्योंकि ऐसा कर तुम उसे दो टुकड़ों में बांट दोगे। ऊपर से देखने पर वह एक ही दिखाई देगा, लेकिन गहराई में अपने हृदय में विभाजित होकर वह दो हो जाएगा और अब उसमें निरन्तर संघर्ष होगा।
पहले माता-पिता, पुत्र के लिए झगड़ रहे थे, अब भले ही माता-पिता दोनों मर गए हों, लेकिन वे उस पुत्र के अंदर निरन्तर झगड़ रहे हैं। कभी उसे मां की आवाज सुनाई देती है तो कभी पिता की और पुत्र के लिए यह तय कार पाना एक पहेली बन जाता है कि वह किसका अनुसरण करे ताकि वह कभी अखण्ड नहीं हो पाए। तुम यहां मेरे पास पूर्ण या अखण्ड बनने के लिए ही आए हो और मैं हमेशा कहता हूं-पूर्ण बनना ही धार्मिक होना है। धार्मिक बनने का और कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं, बस अखण्ड हो जाओ। तुम्हारे अंदर का विभाजन गिरना जरूरी है। तुम्हें एक इकाई बनना आवश्यक है, लेकिन तुम अंदर-हीं- अंदर संघर्ष कर रहे हो। तुम्हारे अन्दर तुम्हारे पिता लड़ रहे हैं, माता लड़ रही है, भाई लड़ रहे हैं, तुम्हारे शिक्षक और गुरु झगड़ रहे हैं। प्रत्येक पर तुम अपना अधिकार जमाने के लिए लड् रहे हो। यहां तुम्हारे बहुत से दावेदार हैं। उन्होंने तुम्हें खण्डित कर दिया है। उन्होंने तुम्हें काटकर कई टुकड़ों में बांट दिया है। तुम अनेक हो गए हो। तुम एक इकाई नहीं रह गए हो तुम एक भीड़ बन गए हो। इसी से मानसिक रोग उत्पन्न होते, इसी से मूर्च्छा और पागलपन उत्पन्न होता है। क्या तुमने कभी निरीक्षण किया है कि तुम्हारे अन्दर कितनी आत्माएं
और कितने स्वार्थ काम कर रहे हैं, तुम एक नहीं हो, इतना तो निश्चित है।
जब मैं विश्वविद्यालय में पड़ता था तो उन दिनों मैं एक लड़के के साथ रहा करता था। वह कभी सुबह पांच बजे नहीं उठता था, लेकिन हर दिन पांच बजे का अलार्म लगाकर सोता था। इसलिए मैंने उससे पूछा-’‘ तुम यह अलार्म घड़ी लगाते ही क्यों हो, व्यर्थ का झंझट करने से फायदा क्या, क्योंकि तुम कभी पांच बजे उठते ही नहीं तुम अलार्म बजते ही उसे बंद कर फिर सो जाते हो इसलिए हर सुबह इतनी परेशानी उठाकर इतनी मुसीबत उठाने की जरूरत क्या है? ‘‘
वह हंस पड़ा, लेकिन उसकी हंसी खोखली थी। वह स्वयं यह भली- भांति जानता था कि वह अलार्म बजने पर उठेगा नहीं, लेकिन शाम उसके अंदर मौजूद कोई दूसरी आत्मा उससे कहती थी-’‘ नहीं! कल सुबह तुझे जल्दी उठना ही है। ‘‘
मैंने कहा-’‘ ठीक है, कोशिश करते रहो। ‘‘ और जब वह अलार्म भरता था तो उस समय उसे यह पक्का विश्वास होता था कि वह सुबह पांच बजे जरूर उठेगा। उसमें उसे जरा भी संदेह होता ही नहीं था लेकिन यह उसके अन्दर का एक खण्ड था जो उससे कहता था-' अब तुझे उठना ही है। तू काफी सो लिया। अब बहुत कम समय बचा है, परीक्षा पास आ रही है। '
सुबह पांच बजे मैं उसके उठने की प्रतीक्षा करता था। जब अलार्म बज रहा था तो उसने मेरी ओर देखा। जब वह मुझे देख रहा था, मैं पूर्ण सजग था और अपने बिस्तरे पर बैठा था। मुझे देखकर वह मुस्कराया, अलार्म बंद किया और करवट बदलकर सो गया।
बाद में जब सुबह आठ बजे वह हमेशा की तरह सोकर उठा, तब मैंने उससे पांच बजे उठने की बाबत पूछा।
उसने उत्तर दिया-’‘ मैंने सोचा, कुछ मिनट और सो लूं.. और बस कुछ मिनट अधिक सो जाने में हर्ज क्या है? मुझे उस वक्त बहुत नींद आ रही थी और रात भी बहुत ठंडी थी, लेकिन तुम देखना कल मैं जल्दी उठ बैठूंगा। ‘‘
ये उसके दो विभिन्न खण्ड हैं और वह इसके प्रति सजग नहीं था। जब उसके एक खण्ड ने उससे कहा था-' सुबह पांच बजे उठना है। ' और उससे अलग उसके दूसरे खण्ड ने जिसके प्रति वह पूरी तरह भूला हुआ था, उससे कहा था-' अभी और सो लो। रात बहुत ठंडी है। '
तुम भी यही कर रहे हो। तुम एक चीज तय करते हो और अगले ही क्षण तुरन्त यह भुला बैठते हो कि तुमने क्या तय किया था। तुम कहते हो कि अब तुम कभी क्रोध नहीं करोगे और जैसे आने वाला क्षण तुमसे बहुत दूर हो। यदि कोई तुमसे सतर्क यह कहना शुरू करता है कि नहीं, तुम जरूर क्रोध करोगे तो तुम नाराज हो जाओगे। तुम क्रोधित भी हो सकते हो क्योंकि वह तर्क कर रहा है-तुरन्त तुम्हें क्रोध आ सकता है और तुमने कभी भी क्रोध न करने की बाबत कुछ ही क्षण पहले निश्चय किया था। तुम्हारा घर बंटा हुआ है। तुम्हारे घर में बहुत से कमरे हैं, जो एक-दूसरे से जुड़े नहीं हैं। उनके बीच संबंध टूटे हुए हैं और उनके बीच पुल भी नहीं है। तुम्हारे अंदर जैसे कई आत्माएं और कई मन एक साथ रह रहे हों इसलिए जो भी तुम्हें अपने अधिकार में-ले लेता है, तुम्हें काट देता है। तुम पहले ही से खण्ड-खण्ड कर दिए गए हो।
ये भिक्षु उस बिल्ली को बचा न सके, क्योंकि वे खण्डित और विभाजित थे। नानसेन कह रहा था-’‘ कुछ ऐसा करो, कुछ ऐसा कहो, तो समग्र हो, धार्मिक हो और अविभाजित हो। एक इकाई की तरह काम करो, ताकि यह बिल्ली बचाई जा सके। ‘‘ उनमें से कोई भी ऐसा न कर सका और बिल्ली काट दी गई।
यहां एक प्रश्न उठता है-नानसेन कैसे काट सका बिल्ली को? क्या यह ठीक एक नीति कथा या एक प्रतीकात्मक कहानी है अथवा क्या वास्तव में उसने बिल्ली को काट दिया? जहां ऐसे भी लोग हैं जो नानसेन को बचाना चाहते हैं। मैं उनमें से नहीं हूं। उसने वास्तव में बिल्ली को काट दिया। यह कोई नीति कथा नहीं है, यह कोई काल्पनिक वृत्तान्त, प्रतीकात्मक या अलंकारिक बोध कथा भी नहीं है। नहीं, वास्तव में ठीक सब कुछ वैसा ही हुआ, जिस रूप में वह कहा जाता है। उसने बिल्ली को दो टुकड़ों में काट दिया। क्या कोई संत ऐसा कर सकता है? मैं तुमसे कहता हूं कि एक संत ही ऐसा कर सकता है।
यही है वह-जिसे गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-’‘ कोई चिंता करो ही मत। इन लोगों को, जो तुम्हारे सामने खड़े है, काट डालो, जान से मार दो। केवल एक ही चीज याद रहे, उनके भीतर जो छिपा हुआ है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। केवल शरीर ही नष्ट हो सकता है, शरीर पहले से ही मरा हुआ है। केवल मृत ही नष्ट हो सकता है। जीवन्त सदा जीवित रहता है, वह शाश्वत है, उसका कुछ भी नहीं बिगड़ सकता। आग उसे जला नहीं सकती, शस्त्र उसे काट नहीं सकते। ' नैन छिदन्ति शस्त्राणि '-कोई शस्त्र उसे काट नहीं सकता, कोई आग उसे जला नहीं सकती। केवल रूप.. लेकिन रूप या आकृति की चिंता मत करो क्योंकि रूप तो झूठा है, अवास्तविक है, वह माया या भ्रम का एक भाग है। ‘‘
यह नानसेन कृष्ण जैसी मनःस्थिति में अवश्य रहा होगा, उसकी कृष्ण जैसी ही चेतना रही होगी। उसने बिल्ली को काट दिया। वह जानता है कि बिल्ली की आत्मा नष्ट नहीं की जा सकती, वह जानता है कि केवल रूप या आकृति बदल सकती है। एक चीज और जिसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि नैतिक नियम मानने वाले नीतिज्ञों ने, चारों ओर बहुत अधिक भ्रम और धुआ उत्पन्न कर दिया है। जब नानसेन द्वारा एक बिल्ली को काटा जाता है, वह बिल्ली के लिए एक वरदान और आशीर्वाद जैसा है। यह बिल्ली दुर्लभ या अनूठी जरूर होनी चाहिए और अब यह बिल्ली फिर से बिल्ली के रूप में जन्म न लेगी, उसका जन्म अब एक मनुष्य के रूप में होगा। नानसेन जैसे सद्‌गुरु के द्वारा काटा जाना एक दुर्लभ अवसर है और बिल्ली इसी क्षण की प्रतीक्षा करते हुए ही मठ में चारों ओर इसीलिए घूमा करती थी।
नानसेन ने उसकी आकृति बदल दी। अब उस बिल्ली का किसी उच्च योनि में जन्म होगा, क्योंकि नानसेन ने उसे काटा है। उन क्षणों में उन भिक्षुओं की अपेक्षा बिल्ली कहीं अधिक शांत थी, उन भिक्षुओं की अपेक्षा बिल्ली कहीं अधिक आनंदित थी। नानसेन द्वारा उसका काटा जाना कोई हिंसक कृत्य न था। वह एक प्रेम से भरा कृत्य था। नानसेन ने उस बिल्ली को उसकी बिल्ली की आकृति और रूप से मुक्त कर दिया। अब वह एक उच्च योनि में जन्म लेगी, लेकिन इसे समझना और इसका अनुसरण करना कठिन है। मैं तुमसे यह कहने नहीं जा रहा हूं कि जाओ और दूसरे लोगों को उनके रूप और आकृति से इसलिए मुक्त करो जिससे वे उच्च योनियों में जन्म ले सकें।
किसी को काटो मत-तुम जैसे चाहो, आनन्द मनाओ, लेकिन नानसेन के लिए वह कृत्य एक गहरी प्रार्थना थी। वह अवश्य ही इस बिल्ली का निरीक्षण करता रहा होगा। यह बिल्ली कोई साधारण बिल्ली न थी। यहां ऐसे भी पशु हैं, जो अपनी आकृति से मुक्त होने के लिए चिल्लाते और पुकारते हैं।
माथेरान शिविर में कुछ ऐसा ही हुआ। मैं शिविर स्थल से काफी दूर ठहरा हुआ था। पहली ही शाम जब मैं बंगले से बाहर जा रहा था, एक कुत्ते ने मेरा पीछा किया- वह वास्तव में एक- दुर्लभ कुत्ता था।
वह कुत्ता तब से निरन्तर मेरे साथ ही बना रहा। मैं शिविर संचालन के लिए तीन बार जाता था और तीन बार वहां से लौटता था। वह आधे घंटे की यात्रा थी। तीनों बार कुत्ता शिविर स्थल तक मेरी गाड़ी का अनुसरण करता था और तीनों बार वह मेरे साथ ही अनुसरण करता हुआ लौटता था। जब मैं सोता था तो वह बंगले के बाहर बरामदे में ही बैठा रहता था। पूरे शिविर- भर उसकी यही दिनचर्या थी। जब भी वह कोई चीज खाने के लिए भी कहीं जाता था तो कभी उसने मुझे छोड़ा नहीं। वह मेरे आस-पास ही बना रहता था। वह मेरे साथ रोज शिविर स्थल तक जाता था और जब दूसरे लोग ध्यान करते थे तो वह भी शांत बैठा रहता था। जो लोग उस शिविर में भाग ले रहे थे, वह उनसे भी अधिक गहराई से शांत बैठा रहता था और तब मेरे साथ ही वापस लौट आता था।
आखिरी दिन जब मैं माथेरान छोड्‌कर रेलगाड़ी में बैठा, उसने रेल का भी पीछा किया। वह ट्रेन के साथ-साथ ही दौड़ रहा था। यहां ऐसे कई लोग हैं, जो इस घटना के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। चूंकि वह ट्रेन के साथ-साथ ही दौड़ रहा था, गार्ड ने करुणा कर उसे ट्रेन में चढ़ा लिया। नरेल स्टेशन तक वह साथ आया। वह छोटी लाइन की बहुत धीमी गति से चलने वाली खिलौना रेलगाड़ी थी, जो माथेरान से नरेल तक जाती थी और सात मील का सफर दो घंटों में पूरा करती थी इसलिए कुत्ता उस रेलगाड़ी का पीछा कर सका, लेकिन नरेल से दूसरी तेज रेलगाड़ी थी। जब मैंने नरेल से मुम्बई जाने वाली दूसरी गाड़ी पकड़ी तो प्लेटफार्म पर खड़े बहुत से लोग रुदन और विलाप कर
रहे थे और पास ही खड़ा कुत्ता भी आंसू बहा रहा था।
मैं जानता हूं कि वह बिल्ली निश्चित रूप से असाधारण रही होगी, अन्यथा नानसेन उसे काटने के लिए इतनी मुसीबत मोल लेता ही नहीं। उसने अपने शिष्यों के लिए एक अवसर अथवा स्थिति उत्पन्न की और उस अवसर का प्रयोग उसने बिल्ली के लिए भी किया। उसने एक ही पत्थर से दो निशाने साधे। यह सम्भव है। यदि तुम तैयार हो तो तुम्हारा रूप और आकृति नष्ट होकर उच्च योनि प्राप्त कर लेती है, क्योंकि तुम्हारी उच्च योनि की आकृति उस क्षण की चित्त दशा पर निर्भर करती है जब तुमने प्राण छोड़े थे। वह बिल्ली नानसेन के हाथों द्वारा मरी-जो एक बहुत दुर्लभ अवसर
था। इतना शांत और मौन नानसेन जैसा सद्‌गुरु-बिल्ली ने निश्चित रूप से उस मौन और आनन्द को पिया होगा, वह परम आनन्द से भर गई होगी और तब उसे काट दिया गया। वह बिल्ली जरा भी भयभीत नहीं थी, उसने इस खेल का आनन्द अवश्य लिया होगा। वह जैसे एक शल्यक्रिया का कृत्य था। बिल्ली का अवश्य ही जो नया जन्म हुआ होगा, उसमें उसकी आत्मा अधिक उच्च स्थिति में होगी, लेकिन यह अंदर की छिपी कहानी है, जिसे साधारण नैतिकता से नहीं समझा जा सकता और नानसेन जैसे व्यक्ति साधारण नैतिक नियमों का पालन न कर अंदर के नियमों और कानून का अनुसरण करते हैं। साधारण नैतिकता सामान्य मनुष्यों के लिए ही होती है।
और तब शाम के समय एक दूसरा भिक्षु बाहर से आया, जो मठ में ही रहने वाला दूसरा शिष्य था। वह घटना के समय मठ में नहीं था। नानसेन ने उसे पूरी कहानी सुनाते हुए कहा-’‘ यही सब कुछ हुआ और मुझे बिल्ली को काटना ही पड़ा। मुझे दो टुकड़ों में उसे विभाजित करना पड़ा क्योंकि दूसरा और कोई रास्ता ही नहीं था.. .यह बेवकूफ लोग उस बिल्ली को बचा नहीं सके। वे उस एक शब्द का भी उच्चारण न कर सके, वे झेन के समान किसी विधि का प्रयोग करते हुए कोई कृत्य भी न कर सके। यह लोग अपने को झेन होना सिद्ध न कर सके। झेन के अलावा कुछ और उस बिल्ली को बचा ही न सकता था। ‘‘
उस शिष्य ने पूरी कहानी सुनी। अपने जूते अपने सिर के ऊपर रखे और वहां से चल दिया। नानसेन ने उसे बुलाकर उससे कहा-’‘ यदि तुम यहां रहे होते तो बिल्ली बच गई होती। ‘‘
यह व्यक्ति ही ठीक था। उसने किया क्या? यह किस तरह का आचरण था? उसने अपने जूते उतारे, उन्हें अपने सिर पर रखा और वहां से चल दिया। उसने बिना कुछ कहे हुए बहुत कुछ कह दिया। पहली चीज तो यह कि उसने पूरी कहानी सुनकर कोई टिप्पणी नहीं की। बन्दर खामोश रहा। उसके मन में कोई भी व्यर्थ के विचार नहीं चल रहे थे। उसने सोचकर कोई उत्तर देने का प्रयास ही नहीं किया, उसने सिर्फ कृत्य किया। वह कृत्य मन से नहीं आया था, वह कृत्य उसके पूरे अस्तित्व से प्रकट हुआ था। उसने किया क्या? उसने अपने जूते अपने सिर पर रख लिए। बिल्कूल ही असंगत
कार्य, लेकिन ऐसा करते हुए उसने जैसे कह दिया-मन या सिर जूतों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान नहीं है। जूते, जो सबसे तुच्छ चीज हैं, उसने उन्हें अपने सिर पर रख लिया। इस कृत्य के द्वारा उसने जैसे कह दिया-' मन कोई चीज है ही नहीं, बल्कि जूते ही कुछ हैं। मन मूल्यहीन है और सोच-विचार से कुछ सहायता मिलती ही नहीं। मन को वहीं फेंक देना चाहिए जहां जूते रखे जाते हैं। यहां तक कि जूते अधिक कीमती हैं, मन की अपेक्षा वह अधिक सम्मान देने योग्य हैं। ‘‘
अपने कृत्य के द्वारा उसने यही सब कुछ कहा और वहां से चला गया।
नानसेन ने कहा-’‘ यदि आज सुबह तुम यहां रहे होते तो तुमने बिल्ली को बचा लिया होता।‘‘
यहां एक ऐसा व्यक्ति था जो मन पर विश्वास करता ही न था, जिसका शब्दों द्वारा उत्तर देने में कोई विश्वास न था। यहां एक ऐसा व्यक्ति था, जो सहजता और स्वाभाविकता से कृत्य कर सकता था। जीवन केवल तभी बचाया 'जा सकता है यदि तुम स्वाभाविक रूप से कृत्य कर सको-न केवल बिल्ली के जीवन के लिए तुम अपने जीवन के लिए भी। अपने मन को जूतों की ओर फेंक दो। किसी भी तरह से इससे अधिक उसकी कीमत ही नहीं। जूते तुम्हें इतनी अधिक तकलीफ देते भी नहीं। कभी-कभी वे काटते जरूर हैं, लेकिन कभी-कभी ही और यदि वे ठीक नाप के हैं तो हमेशा ठीक ही रहते हैं।
लेकिन मन तुम्हें अनेकानेक जन्मों से काटता रहा है और वह कभी ठीक नाप का होता ही नहीं, उसका कद और आकार हमेशा गलत ही होता है। मन कभी सही आकार का होता ही नहीं। जूते हो सकते हैं ठीक नाप के, लेकिन मन का आकार हमेशा गलत ही होता है। वह हमेशा चुभता रहता है। मन का आकार गलत है ही। तुम एक अच्छा मन बना ही नहीं सकते। उसकी कोई सम्भावना है ही नहीं। तुम कोई सुन्दर कुरूपता नहीं बना सकते। तुम कोई स्वस्थ बीमारी नहीं बना सकते। ऐसा करना असम्भव है। मन हमेशा ही गलत होता है। वह निरन्तर काटता और चुभता ही रहता है। चाहे तुम सोच-विचार करो अथवा तुम प्रार्थना करो। यदि वहां मन है तो हर चीज गलत ही हो जाती है। मन ही वह भाग है जो हमेशा जीवन में गलत रास्ता निर्मित करता है। यही स्रोत है- भूलों, विकारग्रस्तता और पागलपन का। जीवन केवल तभी बचाया जा सकता है, जब तुम मन को गिरा दो।
इस शिष्य ने किया क्या? मन या खोपड़ी को गिराना तो कठिन है पर उससे आसान है सिर पर जूते रखना, लेकिन यह प्रतीकात्मक है। वह कह रहा है-' मैंने सिर या मन गिरा दिया है। मुझसे बेवकूफी भरे प्रश्न पूछो ही मत। ' और उसने कृत्य किया, यही चीज सही उत्तर था।
ध्यान कोई गहन विचार नहीं, वह एक कृत्य है-एक ऐसा कृत्य जो पूरे अस्तित्व से आए। पश्चिम में विशेष रूप से ईसाइयत ने एक झूठी छाप उत्पन्न की है कि ध्यान एक गहन विचार की भांति ही है, जो वास्तव में है नहीं। ईसाइयत के कारण ही पश्चिम बहुत सी चीजों से चूक गया है और उनमें से एक चीज है ध्यान! जो मनुष्य के अस्तित्व की एक दुर्लभ खिलावट है, लेकिन उन लोगों ने उसे गहन विचार-चिंतन के समतुल्य बना दिया है। गहन-चिंतन भी सोच-विचार ही है, जबकि ध्यान है निर्विचार होना। ध्यान या झेन के समतुल्य अंग्रेजी भाषा में कोई शब्द है ही नहीं, क्योंकि' मेडीटेशन ' का स्वयं का अर्थ है-विचार करना, किसी पर विचार एकाग्र करना। एकाग्र करने के लिए कोई वस्तु वहां होनी चाहिए। स्मरण रहे- ध्यान ही मूल शब्द है। ध्यान, बोधिधर्म के साथ ही यात्रा करता हुआ चीन गया और ध्यान ही चीनी भाषा में ' चान ' बन गया। चीन से ही यात्रा करता हुआ ध्यान जापान गया और जापानी भाषा में वह पहले ' झेन ' और फिर ' झेन ' बन गया, लेकिन मूल जड़ है ' ध्यान चान, झेन, झेन। अंग्रेजी में इसके समतुल्य कोई शब्द है ही नहीं। ' मेडीटेशन ' -शब्द का अर्थ है सोचना, नियमित रूप से सोचना। ' कनटेम्प्रेशन ' का अर्थ भी सोचना ही है। भले ही वह परमात्मा के बारे में गहन विचार या चिंतन हो, जबकि ध्यान या झेन है निर्विचार स्थिति। यह निर्विचार कृत्य है। विचार-विमर्श को समय की जरूरत होती है।
सुबह के समय भिक्षु बैठे हुए सोच रहे थे कि क्या किया जाए। वह सोचे और सोचे चले जा रहे थे और कुछ भी उपाय नहीं खोज पा रहे थे।
विचार को कभी ठीक उत्तर मिलेगा ही नहीं। बिल्ली को काटना ही पड़ा। जीवन मृत्यु बन गई क्योंकि विचार प्रक्रिया जहरीली है, वह मृत्यु की ओर ही ले जाती है, न कि जीवन की ओर। बिल्ली को काटना ही पड़ा। नानसेन कोई सहायता न कर सका-उन भिक्षुओं ने ही बिल्ली को मार डाला।
इस व्यक्ति, इस शिष्य ने जो शाम को लौटा था मठ में, जब इस कहानी को सुना, तो उसने कोई टीका टिप्पणी नहीं की, एक शब्द भी नहीं कहा। उसने अपने जूते, उतारे, उन्हें अपने सिर पर रखा और चला गया। उसने कृत्य किया-उसने अपने कृत्य द्वारा ही कुछ कहा, अपने मन के द्वारा नहीं। उसने शब्दों का प्रयोग न कर स्वयं का ही उपयोग किया। उसने प्रतीक्षा नहीं की, उसने गहन चिंतन नहीं किया, उसने उस उत्तर को खोजने की चेष्टा नहीं की कि कैसे बिल्ली को बचाना चाहिए।
यदि उस शाम तुम वहां हुए होते और तुमने यह कहानी सुनी होती तो तुमने निश्चित रूप से सोचना शुरू कर दिया होता: कैसे? और जब ' कैसे ' आता है तो मन आ जाता है। उस शिष्य ने बिना ' कैसे ' पर विचार किए केवल कुछ किया, कुछ ऐसा कृत्य किया, जो सहज और स्वाभाविक था और था बहुत प्रतीकात्मक-जूतों को अपने सिर पर रखकर उसने जैसे संकेत से कहा-यह सिर मूल्यहीन है।
यह सद्‌गुरु नानसेन लोगों से पूछा करता था-’‘ इस संसार में सबसे अधिक निर्मूल्य चीज कौन-सी है? वह शिष्यों से इस वाक्य पर ध्यान करने के लिए कहता था। सोचो, संसार में सबसे अधिक निर्मूल्य चीज क्या है? उसके भी सद्‌गुरु ने उसे ध्यान करने को यही ' कुआन ' दी थी। उसने ध्यान और बस ध्यान किया और तब एक दिन आकर उसने अपने सद्‌गुरु से कहा-यह सिर या यह खोपड़ी।
‘‘खोपड़ी ‘‘उसके सद्‌गुरु ने पूछा-’‘आखिर क्यों? ‘‘
नानसेन ने कहा-’‘ सिर को काटकर बाजार में ले जाओ और उसे बेचने की कोशिश करो। कोई भी उसे खरीदेगा नहीं। ‘‘
नानसेन के उस शिष्य ने यही किया। जूतों को अपने सिर पर रखकर उसने कहा-यह सिर निर्मूल्य है। तुम चाहे कितना ही सोच-विचार किए जाओ, इस सिर से प्रश्न पूछते ही जाओ, इसके पास उस प्रश्न का उत्तर है ही नहीं। जूते कैसे दे सकते हैं उत्तर? और वह चल भी दिया तब नानसेन ने उसे बुलाकर कहा-यदि तुम रहे होते वहां तो तुमने बिल्ली को बचा लिया होता। तुम इस सुबह थे कहां? तुम हुए होते तो बिल्ली जीवित उमंग से उछल रही होती, क्योंकि कुछ ऐसे ही निरर्थक कृत्य की जरूरत थी, जो सहज स्वाभाविक हो, तर्कपूर्ण नहीं, कोई अतर्क पूर्ण कृत्य ही आवश्यक था, क्योंकि कारण से अकारण कहीं अधिक गहरा होता है। यही कारण है कि यदि तुम बुद्धि प्रधान हो तो तुम प्रेम में डूब नहीं सकते, क्योंकि प्रेम अतर्क और निरर्थक है। सिर या बुद्धि कहे चले जाती है-’‘ यह व्यर्थ है। तुम्हें इससे मिलेगा क्या? इसमें कोई लाभ नहीं है। तुम इस कारण मुसीबत में पड़ सकते हो। जरा सोचो इस बारे में। ‘‘ सबसे महान पाश्चात्य दर्शनशास्त्र को एक व्यवस्था देने वाले इमेनुएल कांट के बारे में यह कहा जाता है कि एक लड़की ने उससे विवाह करने का प्रस्ताव किया।
पहली बात तो यह, एक लड़की के लिए यह गलत है कि वह विवाह का प्रस्ताव करे, हमेशा लड़का ही प्रस्ताव करता है, लेकिन लड़की जरूर प्रतीक्षा और प्रतीक्षा ही करती रही होगी और कांट प्रस्ताव कर ही न सका, यह विचार उसके मन में कभी उठा हो नहीं। वह इतना अधिक दर्शनशास्त्र में उलझा था कि वह प्रेम में हो कैसे सकता था? उसके जीवन -की जडें खोपड़ी या बुद्धि में ही इतनी गहरे उतर गई थीं कि उसने जैसे हृदय के द्वार बंद कर दिए थे। इसलिए यह अनुभव करते हुए कि काफी समय व्यर्थ बरबाद हो गया, लड़की ने कांट के सामने विवाह का प्रस्ताव किया। कांट ने उत्तर दिया-’‘ मैं इस पर विचार करूंगा। ‘‘
तुम प्रेम के बारे में कैसे सोच सकते हो? या तो वह होता है या नहीं होता। यह कोई हल किए जाने वाला प्रश्न नहीं है। यह तो एक स्थिति है जो प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। या तो तुम्हारा हृदय ' हां ' कहता है अथवा ' ' और बात खत्म हो जाती है। तुम इस पर विचार क्या करोगे? यह कोई व्यापारिक प्रस्ताव नहीं है, लेकिन कांट के लिए वह व्यापार करने जैसा ही प्रस्ताव था। बहुत अधिक बुद्धि प्रधान होने से हर चीज व्यापार जैसी ही हो जाती है। उसने उसके प्रस्ताव पर विचार किया और न केवल विचार किया, उसने लाइब्रेरी जाकर प्रेम और विवाह के बारे में लिखी गई सभी पुस्तकों का अध्ययन किया, तब उसने अपनी नोटबुक में जो कुछ विवाह के पक्ष में था और जो कुछ उसके विपक्ष में था, सभी कुछ नोट किया। फिर उसने सभी पहलुओं पर एक-एक कर विचार किया, उसके पक्ष और विपक्ष में, आगे-पीछे की सभी बातों पर गौर करते हुए उसने विवाह के पक्ष में अपना निर्णय दिया, क्योंकि विवाह के विरोध की अपेक्षा उसके पक्ष में अधिक तर्क थे। इसलिए उसका निर्णय तर्कपूर्ण था।
तब उसने उस लड़की के घर जाकर उसका दरवाजा खटखटाया और उसके पिता ने कहा-’‘ उसकी तो शादी काफी पहले ही हो चुकी है और अब वह तीन बच्चों की मां है। काफी समय गुजर गया और तुम थोड़ी देर से आए। ‘‘
पर मन को समय की जरूरत होती है। मन हमेशा ही देर लगाता है, क्योंकि समय लगेगा और वह स्थिति ही जाती रहेगी जब तुम दरवाजा खटखटाते हो तब जो लड़की सामने आती है, वह पहले ही से तीन बच्चों की मां होती है। और ऐसा ही हर क्षण घट रहा है स्मरण रहे, यदि कोई स्थिति वहां है, तो तुरन्त कुछ करो, सोचो मत, क्योंकि यदि तुम सोचते हो तो वह परिस्थिति तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं करेगी। वह लड़की किसी और के पास चली जाएगी और जब तुम प्रत्युत्तर देने को तैयार होते हो, तब वहां उत्तर पाने को कुछ भी नहीं रहता। कांट तैयार था, लेकिन उसके मन ने समय लिया
और परिस्थिति बदल गई।
जीवन एक प्रवाह है उसमें बातचीत की जैसे बाढ़ आई हुई है। वह रुका हुआ स्थिर नहीं है, अन्यथा मन ने उत्तर पा लिया होता। यदि लड़की वैसी ही बनी रहती.. .लेकिन उसकी उस बढ़ती जा रही थी, वह जीवन से चूके जा रही थी। वह प्रतीक्षा न कर सकी, उसे आगे बढ़ जाना पड़ा, निर्णय लेना ही पड़ा।
जीवन स्थिर नहीं है। यदि जीवन स्थिर ही होता, तब ध्यान करने की कोई आवश्यकता होती ही नहीं। मन से ही हो जाता सब। तब तुम सोच सकते थे और कई जन्मों के बाद भी तुम जब भी दरवाजा खटखटाते, लड़की तुम्हें प्रतीक्षा करती हुई मिलती, लेकिन जीवन एक बाढ़ग्रस्त नदी की भांति तेजी से गतिशील है। प्रति क्षण सब कुछ बदले जा रहा है और नया होता जा रहा है। यदि तुम एक क्षण से भी चूक गए तो हमेशा के लिए चूक गए।
यह शिष्य एक क्षण के लिए भी नहीं चूका। उसने कहानी सुनी, अपने जूते उतारे, उन्हें अपने सिर पर रखा और आगे बढ़ गया। यदि उसने एक क्षण भी सोचने में लगाया होता तो नानसेन ने उसे डंडे से पीटा होता, क्योंकि वह बिल्ली अब वहां थी ही नहीं, नानसेन ने इस शिष्य को भी काट दिया होता, लेकिन वह कृत्य में उतर गया। बिना मन के स्वत : उपजा कृत्य सभी सम्भव सुंदर चीजों में से एक है, लेकिन तुम डरे हुए हो क्योंकि तुम सोचते हो कि यदि तुमने बिना मन की सहायता के कोई भी कार्य किया तो वह गलत भी हो सकता है। यह भय वहां है इसीलिए मन उसका शोषण करता है वह कहता है-पहले विचार करो और तभी कुछ करो। लेकिन तुम जीवन की रेलगाड़ी से चूके जा रहे हो। इस भय को छोड़ो, अन्यथा तुम कभी ध्यानी न हो सकोगे। कृत्य करो। प्रारम्भ में तुम करते हुए बहुत कांपोगे क्योंकि अभी तक तुम हमेशा सोच विचार कर ही सब कुछ करते रहे हो।
यह ठीक उस आदमी की तरह है, जो कई वर्षों तक जेल की अंधेरी कोठरी में रहता रहा हो। उसकी आखें अंधेरे में रहने की अभ्यस्त हो जाती हैं। यदि उसे कोठरी के बाहर लाओ तो वह तुरन्त अपनी आखें खोलने में समर्थ नहीं हो पएगा। उसके लिए सूर्य का प्रकाश सहन कर पाना बहुत कठिन होगा। उसका पूरा शरीर कांपने लगेगा और कहेगा-’‘ मुझे वापस मेरी कोठरी में ले चलो। ‘‘
ऐसा ही तुम्हारे साथ और प्रत्येक के साथ हुआ है। हम सभी लोग जन्म-जन्म से मन की ही. अंधेरी कोठरी में रहे हैं .और हम उसके अंधेरे, उसकी बदसूरती और उसकी व्यर्थता के अभ्यस्त हो गए हैं। जब तुम बिना मन के कुछ भी करते हो तुम्हारा पूरा अस्तित्व कांपने लगता है। मन कहता है-' तुम एक खतरनाक मार्ग पर चल रहे हो। सावधान हो जाओ। पहले विचार करो और तब कोई काम करो। ' लेकिन यदि तुम पहले सोचो ने और तब उसके बाद कुछ करोगे, तो करना हमेशा ही मृत होगा, बासी जैसा होगा। जो भी कृत्य विचार से जमेगा, वह सच्चा और प्रामाणिक नहीं होगा। तब
तुम न तो प्रेम कर सकते हो और न ध्यान, तब तुम. न तो जी सकते हो और न मर सकते हो। तुम एक छाया पुरुष या प्रेम की भांति एक प्रक्षेपित व्यक्तित्व की तरह जीते हो। प्रेम तुम्हारे हृदय के द्वार पर दस्तक देता है और तुम कहते हो-प्रतीक्षा करो, मैं इस बारे में सोचूंगा। जीवन तुम्हारे द्वारों को खटखटाता है और तुम कहते हो-प्रतीक्षा करो, मैं इस बारे में विचार करूंगा।
यह शिष्य गहरे ध्यान में जरूर उतरा होगा। उसने कुछ किया, वह सहजता से कृत्य में उतर गया। वह ही बचा सकता था बिल्ली को। इसका अर्थ है कि उसने उसे पहले ही बचा लिया था-उसने पहले ही वह सब कुछ बचा लिया था, जो जीवन्त था। कहानी के बारे में सोचो ही मत, अन्यथा मुझे बिल्ली को फिर से काटना होगा। तुम उसे बचा सकते हो, अन्यथा बिल्ली को फिर से काटना पड़ेगा और तुम ही उसके जिम्मेदार होगे। इसलिए सहज स्वाभाविक बनो और जो भी कृत्य होता हो, उसे
होने दो। लेकिन यह कहानी तुम्हारी कोई सहायता नही करेगी। अपने जूते उतार कर उन्हें अपने सिर पर रखने की कोशिश मत करो। उससे कु
भी मिलने का नहीं। इससे उस शिष्य को तो मदद मिली लेकिन तुम्हें न मिलेगी। यदि तुम अपने जूते उतार कर अपने सिर पर रखते हुए आगे बढ़ गए तो बिल्ली को फिर भी काटना पड़ेगा, क्योंकि यह कृत्य नकली होगा, मन से ही उत्पन्न होगा। तुम यह कहानी जानते हो। मन तुम्हें सच्चाई नहीं दे सकता। तुम जो कुछ भी करो, पर कभी भी अनुकरण मत करो।
मैंने सुना है कि चीन के नगर में एक बहुत बड़ा रेस्तरां था। बहुत समृद्ध, बहुत सुंदर और शहर का सबसे महंगा रेस्तरां और उसी रेस्तरां के निकट एक गरीब चीनी रहता था। वह रेस्तरां में तो नहीं जा सकता था क्योंकि वह बहुत महंगा था, लेकिन वह उसके भोजन की गंध, मधुर मीठी महक-को प्राय: सशब्द और नासा पुटों से अंदर खींचा करता था। जब वह दोपहर या रात भोजन करने बैठता था तो अपनी कुर्सी को अपने घर के बाहर उस रेस्तरां के अधिक-से-अधिक निकट रखकर बैठता था, जहां से वह वहां के भोजन की मीठी मधुर और मादक गंध को अपने अंदर अपने नासापुटों से खींच सके। वह उस रेस्तरां से बाहर आती भोजन की गंध का पूरा आनन्द लेता था। उसकी एक छोटी-सी लाउन्डरी थी।
लेकिन एक दिन वह आश्चर्यचकित रह गया। उसके पास उस रेस्तरां का मालिक आया और उसके पास उसे देने को भोजन की गंध का बिल था। वह गरीब आदमी घर के अंदर भागकर गया और अपनी एक छोटी-सी संदूकची के साथ लौटा। उस संदूकची में रखे सिक्कों को उस रेस्तरां मालिक के कानों के निकट वह खनखनाता और बजाता हुआ बोला-’‘ मैं आपको आपके रेस्तरां के भोजन की गंध का पैसा, अपने सिक्कों की खनखनाने की आवाज से चुका रहा हूं। ‘‘
मन तो बस गंध और ध्वनि- भर है। इसमें असली कुछ भी नहीं है। तुम जो कुछ भी करते हो, मन केवल उसकी गंध और ध्वनि- भर है और उसमें प्रामाणिक कुछ भी नहीं। वही पूरी कृत्रिमता और झूठ का स्रोत है।
इसलिए तुमने यह कहानी तो सुन ली-लेकिन अब इसका अनुकरण करने की कोशिश मत करना। अब तुम इसे आसानी से कर सकते हो। अब रहस्य तुमने जान लिया। तुम अपने जूते अपने सिर पर रखकर चलते हुए यहां से जा सकते हो, लेकिन बिल्ली को फिर भी काटना पड़ेगा। यह कृत्य उसे बचा न सकेगा और न उससे कुछ भी मदद मिलेगी। कृत्य को सहज स्वाभाविक होना चाहिए। मन को एक ओर रखकर ही कुछ करना होगा। ऐसा करने पर ही तुम जान पाओगे कि बिल्ली कभी काटी ही नहीं गई क्योंकि बिल्ली कभी मर ही नहीं सकती। मन को एक ओर रखकर ही तुम अपनी शाश्वतता को जान पाओगे और उसी क्षण तुम बिल्ली के भी शाश्वत होने का रहस्य जान पाओगे। मन मृत्युधर्मा है, तुम नहीं, तुम अमर हो। मन की ही मृत्यु होती है। उसी की प्रतीक्षा करो। तुम नहीं मरते। तुम तो शाश्वत हो। मन को एक ओर अलग रखकर तुम हंसोगे और कहोगे यह नानसेन ने एक चालाकी भरा खेल खेला, बिल्ली को मारा ही नहीं जा सकता था। यही है वह जिसे कृष्ण अर्जुन से कहे जाते हैं-तुम फिक्र करो ही मत। इन सभी सगे-संबंधियों को काट फेंको, क्योंकि कोई भी मारा ही नहीं जा सकता। गीता बहुत खतरनाक है। पृथ्वी पर कहीं भी ऐसी खतरनाक दूसरी धार्मिक पुस्तक है ही नहीं, इसलिए कोई भी उसका अनुसरण नहीं करता। लोग उसे रटते हैं, लेकिन कोई भी उसका अनुसरण नहीं करता। वह बहुत खतरनाक है, फिर भी जो लोग उसे बहुत प्रेम करते हैं, उसका बहुत आदर करते हैं, कभी यह सुनते ही नहीं कि वह क्या कह रही है। महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति भी जो गीता को अपनी मां कहता था, उसे कभी सुनता नहीं। महात्मा गांधी उसे सुन भी कैसे सकते हैं? वह तो अहिंसा में विश्वास रखते हैं और कृष्ण कहते हैं-’‘ इन लोगों को काटकर फेंक दो। किसी चीज का अस्तित्व रहता ही नहीं। यह सभी कुछ सपने जैसा है और मैं तुमसे कहता हूं कि कोई भी मरता ही नहीं, इसलिए इस बारे में फिक्र करो ही मत। ‘‘
इस पर गांधीजी कैसे विश्वास कर सकते हैं? इसलिए उन्होंने एक चाल खेली- मन इसी तरह से चाल बाजियां दिखाता है। उन्होंने कहा-’‘ गीता तो एक नीति-कथा है, यह तो अलंकारिक है, उसे अक्षरश: मत लो। लड़ाई कोई असली लड़ाई थोड़े ही है। कौरव और पाण्डव ये योद्धों के दो वर्ग ठीक एक कहानी है। कौरव बुराई का और पाण्डव अच्छाई का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। यह युद्ध अच्छाई और बुराई के बीच, परमात्मा और शैतान के बीच हो रहा है, यह कोई असली लड़ाई थोड़े ही है। ‘‘ लेकिन यह गांधीजी के मन की ही चालबाजी भरी व्याख्या है।
वहां नानसेन की इस कहानी के बौद्ध व्याख्याकार भी हैं। वे कहते हैं-यह तो ठीक एक नीति कथा है। वहां कोई असली बिल्ली थी ही नहीं और उसे कभी काटा ही नहीं गया, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि ऐसा ही हुआ। बिल्ली भी उतनी असली थी जितना वास्तविक नानसेन था, और बिल्ली केदो टुकड़े भी किए गए। ऐसा नानसेन ही कर सकता था। नानसेन कृष्ण जैसा ही था, वह जानता था-यहां कुछ भी नष्ट नहीं
होता।
अंग्रेजी में यह शब्द desteruction ( डेस्ट्क्यान-बरबादी) बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण है। इस शब्द desteruction का अर्थ होता है- de-desteruction-कुछ भी नष्ट होता ही नहीं। केवल ढांचा या आकृति बदलती है और नया रूप प्रकट होता है। पुराना शरीर या ढांचा मरता है और नया शरीर या आकृति का जन्म होता है। डेस्टूक्यान का अर्थ (de-desteruction) पुनर्निर्माण होना चाहिए। केवल रूप बदलता है। जो बिल्ली यहां बैठी हुई है, यह सम्भव है कि कहीं और जन्म ले रही हो। जब तुम घर लौटो और शीशे में अपना चेहरा देखो तो तुम बिल्ली भी हो सकते हो और तुम्हें यहां फिर लौटकर आना है। कुछ करो, अन्यथा मैं तुम्हें फिर काट दूंगा। स्मरण रहे- अब कोई भी तुम्हें बचा नहीं सकता। उस समय तो भिक्षु तुम्हें बचा भी सकते थे। इस समय तुम स्वयं एक भिक्षु हो, इसलिए तुम्हारे सिवा तुम्हें कोई और नहीं बचा सकता।
स्व:स्फूर्त तुरन्त अंदर स्वाभाविकता से उत्पन्न होने वाला कृत्य ही तुम्हारा जीवन बचा सकता है। केवल वही तुम्हें बचा सकता है, उसके अतिरिक्त कोई बचाने वाला
है ही नहीं वहां।

क्या अन्य कोई चीज और?

करे ओशो! टैन कमांडमैर्ट्स दस पवित्र आदेशों के स्थान पर
जिनके साथ मैं बड़ा हुआ था, अब मैंने स्वयं के लिए नए नियमों को
निश्चित किया है, सजग बनना, धैर्य रखना, सहज स्वाभाविक होना
और स्वयं को स्वीकार करना।

सभी प्रश्न मन के ही प्रश्न हैं। अमन से कोई प्रश्न आता ही नहीं और सभी उत्तर अमन के ही उत्तर हैं। इसलिए प्रश्नों और उत्तरों का कभी मिलन नहीं होता। तुम एक प्रश्न पूछते हो और मैं तुम्हें उत्तर देता हूं। वे कभी मिलते नहीं, वे मिल भी नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारे प्रश्न मन की पटरी पर दौड़ते हैं और मेरे उत्तर अमन की पटरी पर। वे दोनों एक दूसरे के समानान्तर दौड़ सकते हैं, लेकिन वे कभी मिलते नहीं। या तो मुझे अपना अमन छोड़ देना चाहिए तब वहां वे मिल सकते हैं अथवा तुम्हें अपना मन गिरा देना चाहिए तब भी मिलना हो सकता है। स्मरण रहे, मैं अपने अमन को गिराने नहीं जा रहा हूं उसे गिराया ही नहीं जा सकता, क्योंकि तुम कैसे उस चीज को गिरा सकते हो, जो कोई वस्तु है ही नहीं। तुम एक वस्तु को तो गिरा सकते हो, लेकिन जो वस्तु है ही नहीं, जो ' कुछ नहीं ' है, उसे तुम कैसे गिरा सकते हो? इसलिए तुम्हें ही अपना मन गिराना होगा। तभी उत्तर सुने और समझे जा सकेंगे। वे तभी तुम्हारे अंदर उतरेंगे।
और मन है नए प्रश्नों, नई उलझनों और नई पहेलियों का गहरा स्रोत। इसीलिए तुम दस पवित्र आदेशों को बदल सकते हो-तुम दस नए नियम बना सकते हो। उससे काम चलने का नहीं, क्योंकि यदि वे मन के द्वारा ही निर्मित किए गए हैं, तो कुछ भी नहीं बदलने का। अब वे दस दैवी आदेश बहुत अधिक पुराने हो गए हैं। समय से बाहर हो चुके हैं। वे अतीत की भाषा में कहे गए थे। उस समय वह भाषा संगत थी, लेकिन अब वे संगत प्रतीत नहीं होते। तुम उन्हें बदल सकते हो। तुम नए नियम बना सकते हो, लेकिन ये नए नियम, यदि इन्हें मन के ही साथ रखा गया तो किसी काम के नहीं होंगे। तुम्हारा मन विचार कर सकता है, उन्हें अपने साथ रख सकता है और वे सुंदर भी लग सकते हैं, लेकिन वे नकली ही होंगे। तुम ' तथाता ' और ' सर्व स्वीकार ' का नियम बना सकते हो, लेकिन यदि वे मन के द्वारा ही रखे गए तो वे अर्थहीन होंगे। क्यों? क्योंकि मन अपने को पूर्ण तथाता में बने रहने की कभी अनुमति दे ही नहीं सकता। वह बहाना बना सकता है, लेकिन वह वास्तव में अपने को तथाता में जाने की अनुमति नहीं देगा। मन स्वीकार कर ही नहीं सकता क्योंकि अस्वीकार करने में ही मन जीवित रहता है, इसीलिए मन हमेशा ' हां ' कहने के स्थान पर ' ' कहना पसन्द करता है।
जब भी तुम ' ' कहते हो, तुम्हें अहंकार का अनुभव होता है और जब भी तुम ' हां ' कहते हो, तुम्हें अहंकार का अनुभव नहीं होता। यही कारण है कि लोग हां कहने के स्थान पर ' ' कहे जाते हैं। वे हां केवल तभी कहते हैं जब ऐसा कहना पूरी तरह आवश्यक हो जाता है, अन्यथा वे न ही कहते हैं।
जब भी किसी चीज के बारे में तुमसे पूछा जाता है तो तुम्हारे मन में जो पहली चीज उठती है वह ' ' ही है-क्योंकि जब तुम अस्वीकार करते हो, ' तुम ' होते हो, और जब तुम स्वीकार करते हो तो तुम्हारा ' तुम ' वहां नहीं होता। हां कहने से अमन उत्पन्न होगा इसलिए जो एक आस्तिक है वह ' हां ' कहने वाला है, और जो नास्तिक है, वह है-न कहने वाला है-वह ' ' कहता है। जब तुम कहते हो कि वहां कोई परमात्मा नहीं है, तब तुम्हारे अहंकार को बहुत अधिक ऊर्जा का अनुभव होता है, तब तुम्हारा ' तुम ' पुष्ट होता है।
नीत्शे ने कहा है, ‘‘ यदि परमात्मा है तो मैं नहीं बना रहना चाहता और यदि ' मैं ' हूं है तो मैं परमात्मा को बने रहने की अनुमति नहीं दे सकता, क्योंकि दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते। ‘‘ और वह ठीक कहता है। तुम और परमात्मा दोनों एक साथ कैसे अस्तित्व में हो सकते हो? यदि तुम हो वहां तो तुम ही परमात्मा हो। परमात्मा वहां हो ही नहीं सकता। यदि ' वह ' है तो तुम कैसे अस्तित्व में बने रह सकते हो। अंतिम नकार मन से ही आती है-’‘ कोई परमात्मा है ही नहीं। ‘‘ मन उसे अस्वीकार करता है, वह स्वीकार कर ही नहीं सकता।
इसलिए तुम उसके बारे में विचार कर सकते हो, तुम उसे बदल सकते हो, तुम दस पुराने पवित्र नियमों को बदलकर दस नए नियम बना सकते हो, लेकिन यदि वे मन ही से जन्मे हैं तो वे व्यर्थ हैं। यदि वे मन से नहीं उपजे हैं तो उनकी जरूरत क्या है? यदि अमन घट जाता है और तुम उसे महसूस करते हो, फिर नियमों की जरूरत क्या है? नियम तो मन के लिए होते हैं। वे मन से ही आते हैं और मन के ही लिए होते हैं। मन के लिए ही नियम जरूरी हैं क्योंकि मन बिना नियमों के रह ही नहीं सकता। यह सबसे अधिक आधार भूत चीजों में से एक है। नियमों का अस्तित्व झूठ या नकली के लिए ही होता है, वास्तविक सत्य के लिए नहीं। वास्तविक या असली चीज तो बिना नियमों के ही अस्तित्व में है, लेकिन झूठी या नकली चीज तो उनके बिना रह ही नहीं सकती, उसे कोई अवलम्बन चाहिए सहायता चाहिए नियमों का समर्थन चाहिए।
तुम ताश का खेल खेलते हो। क्या तुम बिना नियमों के ताश खेल सकते हो? उसकी कोई सम्भावना हो ही नहीं सकती। यदि तुम कहो-मैं अपने नियमों का अनुसरण करूंगा और तुम अपने नियमों का अनुसरण करो और आओ हम लोग मिलकर ताश खेलें तो वहां खेल होगा ही नहीं। हमको नियमों का अनुसरण करना ही होगा और हम दोनों यह भली- भांति जानते हैं कि नियम तो बस नियम हैं, उनकी वास्तविकता कुछ भी नहीं। हम लोग उन पर सहमत हो गए हैं और इसीलिए वे अस्तित्व में हैं। कोई भी खेल आगे जारी रह ही नहीं सकता, यदि नियमों का अनुसरण न किया जाए लेकिन बिना नियमों के जीवन सहज रूप से चलता रहेगा। यह वृक्ष किन नियमों का पालन कर रहे हैं? सूरज किस नियम का अनुसरण करता है? आकाश किन नियमों को मानता है? मनुष्य का मन ऐसा है कि वह सोचता है कि वे सभी नियमों का अनुसरण करते हुए ही, नियमानुसार परिभ्रमण कर रहे हैं। सूरज घूम रहा है, वह एक नियम का अनुसरण कर रहा है, इसलिए कोई नियमों का नियंता या शासक होना चाहिए-वह मान लो परमात्मा है जो हर चीज का नियंत्रण कर रहा है। परमात्मा जैसे सर्वोच्च प्रबन्धक है वह हर एक के पीछे लगा जैसे जासूसी करता रहता है कि कौन उसके नियमों का अनुसरण कर रहा है और कौन अनुसरण नहीं कर रहा है।
यह सब कुछ मन की ही सृष्टि और कल्पना है। जीवन बिना नियमों के ही अस्तित्व में है, जबकि बिना नियमों के खेलों को नहीं खेला जा सकता। इसलिए सच्चा धर्म हमेशा बिना नियमों के होता है, केवल नकली धर्म को ही नियमों की जरूरत होती है क्योंकि नकली धर्म एक खेल है।
मैंने सुना है कि एक युवा -स्त्री अपने छोटे पुत्र के साथ एक नाई की दुकान पर गई। उसका लड़का सिपाही के कपड़े पहने सिपाही जैसा ही खतरनाक लग रहा था और उसके हाथ में छ: गोलियों को एक साथ चलाने वाली एक खिलौना पिस्तौल भी थी। वह लड़का तुरन्त उछल कर कुर्सी पर चढ़ गया और उसने आवाज निकाली- ' बांग-बांग। ' और उस स्त्री ने नाई से कहा-’‘ मै आधा घंटे के लिए अपनै लड़के को तुम्हारे पास छोड़े जा रही हूं जिससे मैं कुछ शॉपिंग या खरीददारी कर लूं। ‘‘
वह नाई बहुत बेचैन होकर बोला-’‘ यदि आपके यह साहबजादे ज्यादा धमा- चौकड़ी मचाएं तो मुझे क्या करना होगा? '.... और वे हजरत कुर्सी पर सिपाही की तरह छ: गोलियां दागने वाले पिस्तौल को लिए मुस्तैद खड़े खतरनाक दिखाई दे रहे थे।
उस युवा स्त्री ने कहा-’‘ यदि वह अधिक शोर करे तो तुम्हें बस मुर्दा बनकर थोड़ी देर के लिए जमीन पर लेट जाना है। यदि वह कहता है-बांग, बांग, तुम मुर्दा बनकर गिर जाओ। इस नियम का अनुसरण करना-तब वह शांत रहेगा और शोर नहीं करेगा। इसलिए तुम्हें बस चार-छ: बार कुछ देर के लिए मुर्दा बन गिर जाना होगा और तब वह खुश हो जाएगा और फिर कोई मुसीबत नहीं होगी।‘‘
सभी दैवी या पवित्र कहे जाने वाले नियम भी ' बांग बांग ' की तरह हैं। बस मुर्दा बनकर गिर जाओ। वास्तविक जीवन के लिए किन्हीं नियमों की कोई जरूरत नहीं। तुम बिना नियमों के उसके साथ बहो, तुम बिना नियमों के उसके साथ बने रही। तुम बस जियो। नियमों का अनुसरण करने की जरूरत क्या? तुम्हारे अस्तित्व से, तुम्हारे होने से हर चीज स्वत: होगी। यदि तुम बिना किसी नियम का अनुसरण किए वहां बस जी रहे हो तो जिन्हें तुम चीजों का घटना कहते हो, वे स्वत: होंगी। तब आएगा स्वीकार भाव, तभी आएगा तथाता और तभी मन विसर्जित हो जाएगा। इसलिए सजगता, स्वीकार भाव को नियम नहीं बनाया जा सकता। वे समग्रता, सहजता और स्वाभाविकता से जीवन जीते हुए उसके सहज परिणाम हैं। वे स्वयं प्रकट होते हैं। यदि कोई उनका अनुसरण करता है और उसे नियम बना लेता है कि उसे हर चीज और हर नियम का पालन करना ही है तो उनको मानना नकली है क्योंकि उनको स्वीकार करते हुए उसने उन्हें पहले ही अस्वीकार कर दिया था। यदि तुम्हें किसी चीज को केवल इसीलिए स्वीकार करना है क्योंकि वह दैवी आदेश है तो तुमने उसे पहले ही अस्वीकार कर दिया है। तुम्हारा मन कहता है-उसे स्वीकार करो। क्यों स्वीकार करो? उसने स्वीकार
करने से पूर्व ही अस्वीकार कर दिया उसे? और कह दिया- अस्वीकार। तब स्वीकार से पहले अस्वीकार आया। लेकिन यदि वहां अस्वीकार न होता तो तुम उसे स्वीकार करने के प्रति सजग कैसे होते? तुम बस सहजता से उसे स्वीकार करोगे और उसके साथ बहने लगोगे।
नदी के ही समान बन जाओ। आसामान में तैरते हुए एक सफेद बादल बन जाओ और हवा तुम्हें जहां ले जाना चाहे, ले जाने दो। कभी भी, किसी भी नियम का अनुसरण ही मत करो। मेरे कहने का यही तात्पर्य है। जब मैं कहता हूं एक संन्यासी बनो, बस जीयो, तुम्हारे गेरुवा वस्त्र, तुम्हारी माला-ये सभी नियम हैं। यह एक खेल हैं। ये वह सब नहीं हैं जिसे मैं वास्तविक संन्यास कहता हूं लेकिन तुम सभी खेलों के इतने अधिक अभ्यस्त हो चुके हो कि इससे पूर्व मैं तुम्हें नियमविहीन जीवन जीने के लिए पथ प्रशस्त करूं, इसी क्षाणिक अवधि में तुम्हें नियमों की जरूरत होगी। नियमों और खेलों के इस संसार से, खेल विहीन और नियमविहीन संसार की ओर गतिशील होने के लिए, एक पुल पार करना है। तुम्हारे गेरुवे वस्त्र, तुम्हारी माला ठीक इसी अंतरिम अवधि के लिए पुल पार करने की अवधि के लिए ही हैं। तुम तुरन्त ही नियमों को छोड़ नहीं सकते इसलिए मैं तुम्हें नए नियम देता हूं।
लेकिन तुम पूरी तरह सजग बने रहो कि तुम्हारे वस्त्र तुम्हारा संन्यास नहीं है। तुम्हारी माला तुम्हारा संन्यास नहीं है तुम्हारा नया नाम तुम्हारा संन्यास नहीं है। संन्यास तो तब होगा, जब वहां कोई नाम न होगा, तुम अनाम हो जाओगे। तब वहां कोई नियम भी नहीं होंगे। जब तुम इतने साधारण बन जाओगे कि तुम्हें पहचाना भी न जा सकेगा, केवल तभी...।
लेकिन यह मत सोचो कि अभी तो सब ठीक ठाक है इसलिए न संन्यास लेने की कोई आवश्यकता है और न गेरुवे वस्त्र पहनने की। यह फिर एक चालबाजी होगी। तुम्हें इससे होकर गुजरना है-तुम इसे दरगुजर नहीं कर सकते और यदि तुम इससे गुजरे बिना आगे बढ़ने की कोशिश करोगे तो तुम दूसरे किनारे पर कभी पहुंचन सकोगे। पहले हैं संसार के नियम, तब आते हैं संन्यास के नियम और तभी नियम विहीन होने की स्थिति आती है। किन्हीं तथा कथित दैवी आदेशों की कोई जरूरत नहीं। पुराने आदेशों को बदलो मत-वे जहां हैं, वहां वे ठीक हैं। तुम सहज साधारण बनो, अनुसरण
करो और अपने अस्तित्व के साथ ही बहो।

आज के लिए इतना बहुत है।



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