सजग,शांत और
संतुलित बने रहो--प्रवचन-ग्याहरवां
मनुष्य
होने की कला--(The
bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से
हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा:
-
भिक्षु
जुईगन अपना प्रत्येक दिन स्वयं अपने आप मैं जोर-जोर से-
यह
कहते हुए ही शुरू करता था- ''मास्टर! क्या तुम हो वहां?’’
और
वह स्वयं ही उसका उत्तर भी देता था- '' जी हां श्रीमान? मैं हूं। ''
तब
वाह कहता- ''
अच्छा यही है- सजग, शांत और संतुलित बने रहो।''
और
वह लौट कर जवाब देता—‘’जी श्रीमान? मैं यही करूंगा
''
तब
वह कहता- ''और अब देखो वे कहीं तुझे बेवकूक न बना दें।‘’
और
वह ही उसका उत्तर देता- ''अरे नहीं श्रीमान? मैं नहीं
बगूंगा
मैं
हरगिज नहीं बनूंगा?
ध्यान
टुकड़ों में करने वाली चीज नहीं हो सकती, वह एक सतत प्रयास होना चाहिए।
प्रत्येक को हर क्षण सचेत, सजग और ध्यानपूर्ण होना चाहिए।
लेकिन मन एक चालबाजी करता है, तुम सुबह ध्यान करते हो और तब
उसे उठाकर बगल में रख देते हो अथवा तुम मंदिर जाकर प्रार्थना करते हो और तब भूल
जाते हो। तब तुम पूरी तरह बिना ध्यान इस संसार में वापस लौटते हरे, लगभग अचेत से जैसे तुम सम्मोहित निद्रा में चल रहे हो।
इस
टुकड़े-टुकड़े प्रयास से अधिक कुछ होने का नहीं। तुम एक घंटे के लिए ध्यानपूर्ण कैसे
हो सकते हो, जब तुम दिन के तेईस घंटे बिना ध्यान के रहते हो? यह असम्भव
है। अचानक एक घंटे के लिए ध्यानपूर्ण हो जाना सम्भव नहीं है। तुम अपने आपको सिर्फ
धोखा दे सकते हो।
चेतना
एक सतत प्रवाह है। यह एक नदी की भांति है, जो निरन्तर बह रही है। यदि तुम
दिन- भर के लिए उसके प्रत्येक क्षण ध्यानपूर्ण रहे? हो... और
जब तुम दिन- भर ध्यान पूर्ण रहे हो, खिलावट तभी हो सकती है।
इससे पहले कुछ होने का नहीं। यह झेन वृत्तान्त यों तो व्यर्थ जैसा दिखाई देता है,
लेकिन है बहुत अर्थपूर्ण। एक झेन सद्गुरु जो अपने को भिक्षु ही कहा
करता था, स्वयं अपने आपको ही पुकारता रहता था-यही है वह जिसे
ध्यान कहते हैं, स्वयं को पुकारना-वह अपना नाम लेकर स्वयं को
बुलाया करता था। वह कहा करता था-’‘ जुईगन क्या तुम वहां हो?
‘‘
वह
स्वयं ही उत्तर देता था-’‘जी हां श्रीमान! मैं यही हूं। ‘‘
यह
एक प्रयास ही नहीं,
शिखर प्रयास है सजग रहने का। तुम इसका प्रयोग कर सकते हो। यह बहुत
सहायक होगा ध्यान में। अचानक सड़क पर चलते हुए तुम स्वयं को पुकार सकते हो-’‘
क्या तुम हो वहां? ‘‘अचानक विचार-प्रक्रिया थम
जाएगी, क्योंकि तुम्हें उत्तर भी देना है-’‘जी हां श्रीमान! मैं यही हूं। ‘‘
जैसे
ही विचार प्रक्रिया रुकती है, यह तुम्हें केन्द्र बिंदु पर ले आती है और तुम सजग
और ध्यानपूर्ण हो जाते हो।
स्वयं
अपने को पुकारना एक विधि है। तुम सोने जा रहे हो, तुमने रात में जलने वाला
प्रकाश बुझा दिया है, अचानक तुम पुकारते हो-’‘ क्या तुम हो वहां? ‘‘
और
उस अंधेरे में ही सजगता आ जाती है। तुम अन्दर एक लपट बनकर उत्तर देते हो-’‘ हां! मैं
यहीं हूं। ‘‘
और
तब वह भिक्षु कहा करता था-सजग, शांत और संतुलित हो जाओ, ईमानदार
बनो, प्रामाणिक बनो, कोई खेल मत खेलो।
वह स्वयं को पुकारते हुए कहता था-‘‘ शांत और संतुलित हो जाओ।
‘‘और वह जवाब देता-’‘जी हां! जितना भी
किया जा सकता है, वह हर सम्भव प्रयास करूंगा।‘‘
हमारा पूरा जीवन
बेवकूफ बने हुए चारों ओर घूमते रहना ही है।
तुम
इसे कर सकते हो क्योंकि तुम इसके प्रति सजग नहीं हो कि तुम कैसे अपना समय बरबाद
करते हो, कैसे अपनी ऊर्जा व्यर्थ खोते हो और अंत में कैसे बिना सजग हुए अपना पूरा
जीवन बरबाद कर देते हो। सब कुछ नीचे नाली में व्यर्थ बह जाता है। हर चीज बरबाद
होकर नीचे नाली में बही जा रही है। केवल जब मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है,
तुम तभी सजग और सचेत हो सकते हो। तब तुम सोचते हो-' मैं अभी तक क्या करता रहा? मैंने अभी तक जीवन के साथ
क्या किया? मैंने एक महान अवसर खो दिया। मैं बेवकूफ बना
चारों ओर घूमता आखिर करता क्या रहा? 'तुम शांत और संतुलित
नहीं थे। तुम जो कुछ कर रहे थे उसके परिणाम को तुम कभी देखते नहीं रहे।
जीवन
यूं ही बस बिता देने के लिए नहीं है, वह अपने ही अन्दर कहीं गहराई में पहुंचने
के लिए है। जीवन केवल सतह पर नहीं है, वह परिधि भी नहीं
है-वह है केन्द्र तुम अभी तक अपने केन्द्र पर नहीं पहुंचे हो। सजग और संतुलित हो
जाओ।
काफी
समय पहले ही व्यर्थ बीत चुका है। सचेत हो जाओ और देखो, तुम क्या
कर रहे हो? क्या कर रहे हो तुम, क्या
धन की तलाश? जो अंतिम रूप से व्यर्थ सिद्ध होगी। यह फिर एक तरह
का खेल है, धन खेल। तुम्हारे पास दूसरे से कहीं अधिक
है-तुम्हें अच्छा लगता है, दूसरों के पास तुमसे अधिक है
तुम्हें बुरा लगता है। यह एक खेल है, लेकिन आखिर इसका अर्थ
क्या है? तुम इससे क्या प्राप्त करते हो? संसार- भर में जितना भी धन है, यदि वह सभी तुम्हारे
पास आ भी जाए तो भी मृत्यु के क्षण तुम भिखारी होकर ही मरोगे इसलिए संसार- भर का
धन भी तुम्हें धनी नहीं बना सकता। कोई भी खेल तुम्हें कभी भी धनी नहीं बना सकता।
सजग, शांत और संतुलित हो जाओ।
कोई
शक्ति और प्रतिष्ठा के पीछे भाग रहा है, कोई कामवासना के पीछे पागल है और
कोई किसी और के पीछे पड़ा है। यह सभी खेल हैं। जब तक तुम अपने अस्तित्व के केन्द्र
पर न पहुंच जाओ, यह सभी खेल ही हैं। खेलों का अस्तित्व बाहर केवल
परिधि पर है और बाहरी सतह ही वास्तविकता नहीं है। सतह पर तो केवल लहरें हैं और
लहरें तुम्हें हवा में उछाल कर किनारे पर पटक देगी और अपने आप में स्थिर नहीं हो
सकोगे तुम।
यही
वजह है-उसे आवाज देनी होती है-’‘ सचेत और शांत बने रहो। ‘‘ वह कह रहा है-’‘ काफी हो चुका। यह खेल खेलना बंद करो।
तुम बहुत खेल चुके। अब और अधिक बेवकूफ मत बनो। इस जीवन का उपयोग करो, अपने को मजबूती से स्थिर करने में। इस जीवन का उपयोग करो अपनी जड़ें जमाने
में और इसका उपयोग करो, एक अवसर की तरह जिससे परमात्मा तक
पहुंच सको। ‘‘
तुम
ठीक मंदिर के बाहर बैठे हुए हो, तुम सिर्फ सीढ़ियों पर बैठे हुए खेल खेले जा रहे
हो. और परमात्मा ठीक तुम्हारे पीछे बैठा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। जब तक दरवाजा
न खुले, उसे खटखटाते ही रहो, लेकिन
तुम्हें इन खेलों से वक्त मिलता ही नहीं।
'सजग, शांत और संतुलित हो जाओ। '(Sober Up) का अर्थ है यह याद करना कि तुम
क्या कर रहे हो और उसे क्यों कर रहे हो ए लेकिन यदि तुम खेल मैं सफल हो भी जाओ तो
तुम पहुंचोगे कहां? यही विरोधाभास है कि जब व्यक्ति इन
बेवकूफी-- भरे खेलों में सफल होता है कि पहली बार ही वह सजग होता है कि पूरी चीज
कितनी व्यर्थ और बकवास है। केवल वे ही लोग जो कभी सफल नहीं हुए यह खेल खेले चले
जाते हैं। पूछो किसी सिकन्दर से, पूछो नेपोलियन से- आखिर
उन्होंने प्राप्त क्या किया सिकन्दर के बारे में यह कहा जाता है कि जब वह मरने जा
रहा था तो उसने
अपने दरबारियों से कहा-’‘ जब तुम अपने दोनों हाथों से पकड़ कर मेरे जनाजे को सड़कों पर लेकर चलो तो मेरे दोनों हाथ शैया बाहर लटका देना और उन्हें कफन से ढकना मत।‘‘
अपने दरबारियों से कहा-’‘ जब तुम अपने दोनों हाथों से पकड़ कर मेरे जनाजे को सड़कों पर लेकर चलो तो मेरे दोनों हाथ शैया बाहर लटका देना और उन्हें कफन से ढकना मत।‘‘
यह
दुर्लभ बात थी। किसी के भी जनाने को इस तरह नहीं ले जाया जाता। दरबारी उसकी बात
समझ ही न सके,
इसलिए उन्होंने पूछा-’‘ आखिर आपके कहने का
मतलब क्या है? यह सामान्य तरीका तो है नहीं। पूरे शरीर को
कपड़े से ढक दिया जाता है। आप ऐसा क्यों चाहते हैं कि आपके दोनों हाथ शैया से बाहर
लटके रहें? ‘‘ सिकन्दर ने उत्तर दिया-’‘ इससे लोगों को यह बताना चाहता हूं कि मैं खाली हाथों मरा हूं। हर आदमी इसे
जरूर देखे, जिससे फिर कभी कोई सिकन्दर बनने की
कोशिश न करे। मैंने बहुत कुछ प्राप्त किया, फिर भी कुछ भी प्राप्त नहीं किया। मेरा साम्राज्य बहुत विशाल है, लेकिन फिर भी एक गरीब हूं मैं। ‘‘
कोशिश न करे। मैंने बहुत कुछ प्राप्त किया, फिर भी कुछ भी प्राप्त नहीं किया। मेरा साम्राज्य बहुत विशाल है, लेकिन फिर भी एक गरीब हूं मैं। ‘‘
तुम
भले ही एक सम्राट हो,
लेकिन तुम एक भिखारी की तरह ही मरते हो और तब पूरी चीज एक सपने जैसी
लगती है। ठीक वैसे ही जैसे सवेरे सपना टूट जाता है और सम्राट होने जैसे सभी सुख
गायब हो जाते हैं। सारा साम्राज्य विलुप्त हो जाता है इसलिए मृत्यु एक बोध है
जागने का। मृत्यु होने पर जो कुछ बचता है, वही वास्तविक सत्य
है और जो कुछ विलुप्त हो गया, वह एक सपना था यही इसकी कसौटी
है और जब भिक्षु स्वयं को हो पुकार कर कहता है-’‘ सजग शांत
संतुलित हो जाओ ‘‘ तो उसका अर्थ है-मृत्यु को याद रखो और
बेवकूफ बने इधर-उधर घूमो मत। तुम इस तरह जिए चले जाते हो, जैसे
तुम्हें कभी मरना नहीं है और हमेशा ही बने रहना है।
तुम्हारा
मन कहता है-मृत्यु तो हमेशा दूसरे की होती है, कभी भी मेरी नहीं। वह मेरे साथ
नहीं, वह तो हमेशा दूसरों के साथ घटने वाली एक घटना है। यदि
तुम कभी किसी मरते हुए व्यक्ति को देखते हो, तुम यह कभी नहीं
सोचते-उसके स्थान पर मैं मर रहा हूं। उसका मरना तो एक संकेत है। ऐसा ही मेरे साथ
भी तो होने जा रहा यदि तुम यह देख सको कि तुम भी मरने जा रहे हो तो क्या तुम इतनी
गम्भीरता से इन खेलों को खेलने में समर्थ हो सकोगे, क्या तुम
' कुछ नहीं ' के लिए अपने पूरे जीवन को
दांव पर लगा सकोगे?
वह
भिक्षु सुबह उठते ही ठीक ही आवाज देता है-’‘ शांत और समझ दारबनो। ‘‘ जब भी तुम उस खेल को फिर से खेलना शुरू करते हो- अपनी पत्नी के साथ,
दुकान, बाजार या राजनीति में- अपनी आंखें बंद
कर लो। अपने आपको पुकारो और कहो-‘‘सजग, शांत और संतुलित हो जाओ। ‘‘ और वह भिक्षु उसका उत्तर
भी दिया करता था-’‘ जी हां श्रीमान! जितना भी कर सकता हूं
मैं हर सम्भव प्रयास करूंगा। ‘‘ दूसरी चीज जो वह सुबह याद
किया करता था- और सुबह ही क्यों? सुबह,.
दिन- भर के कार्यों को एक सांचे में ' सैट ' कर देती है और सुबह जो पहला ख्याल, आता है, वही द्वार बन जाता है इसीलिए सभी धर्म कम-से-कम दो प्रार्थनाओं पर जोर देते हैं। यदि तुम दिन- भर प्रार्थनापूर्ण बन सको तो बहुत अच्छा है, लेकिन यदि ऐसा न कर सको तो कम-से-कम दो प्रार्थनाएं-एक सुबह और दूसरी रात में।
दिन- भर के कार्यों को एक सांचे में ' सैट ' कर देती है और सुबह जो पहला ख्याल, आता है, वही द्वार बन जाता है इसीलिए सभी धर्म कम-से-कम दो प्रार्थनाओं पर जोर देते हैं। यदि तुम दिन- भर प्रार्थनापूर्ण बन सको तो बहुत अच्छा है, लेकिन यदि ऐसा न कर सको तो कम-से-कम दो प्रार्थनाएं-एक सुबह और दूसरी रात में।
सुबह
उठते ही जब तुम ताजगी से भरे हो और नींद विदा होकर जब चेतना का उदय हो रहा होता, पहला
ख्याल, प्रार्थना, ध्यान और सम्यक
स्मृति तुम्हारे दिन- भर के क्रिया कलाप के ढांचे को ' सैट '
कर देते हैं। वे द्वार बन जाएंगे क्योंकि सभी चीजें एक शृंखला में
घूमती हैं। यदि सुबह तुम्हारी क्रोध से शुरू हुई है तौ पूरे दिन तुम अधिक-से- अधिक
क्रोध में बने रहोगे। पहला क्रोध ही ' चेन ' निर्मित करता है और दूसरा क्रोध आसानी से उसका अनुकरण करता है तीसरा
स्वचालित बन जाता है और तब उसकी गिरफ्त में होते हो तुम। तब तुम्हारे चारों ओर जो.
कुछ -होता है, वह ही क्रोध उत्पन्न करता है। सुबह
प्रार्थनापूर्ण होने से या सजग बने रहने से, अपने आपको पुकारने
से या सावधान बने रहने से दिन- भर का ढांचा निश्चित हो जाता है।
रात
में भी जब तुम सोने जाते हो, तुम्हारा आखिरी विचार ही पूरी नींद का ढांचा बन
जाता है। यदि अंतिम विचार ध्यानपूर्ण है तो पूरी नींद ध्यानपूर्ण होगी। यदि आखिरी विचार
सेक्स का है तो पूरी नींद कामुक सपनों से अस्त-व्यस्त होगी। यदि अंतिम विचार धन का
है तो सारी रात तुम बाजार में खरीदते-बेचते रहोगे। कोई विचार आकस्मिक रूप से नहीं
होता। वह एक शृंखला निर्मित करता है तब चीजें ठीक उसी तरह उसका अनुसरण करती हैं।
इसलिए
कम-से- कम दो बार प्रार्थना करो। मुसलमान कम-से-कम पांच बार नमाज पढ़ते हैं। यह
सुन्दर है, क्योंकि यदि एक व्यक्ति दिन में पांच बार प्रार्थना करता है तो वह लगभग एक
निरन्तर बनी रहने वाली भावदशा बन जाती है। अब सुबह आ गई, अब
दोपहर, अब शाम और अब रात आ गई है.. .वहां अंतराल है लेकिन दो
प्रार्थनाएं इतनी निकट नहीं हैं कि वे एक दूसरे से जुड़ जाएं। जरा देखो मुसलमानों
को नमाज पढ़ते हुए वे लोग प्रार्थना करते हुए सबसे सुन्दर मनुष्य लगते हैं। हिन्दू
इतने अधिक प्रार्थनापूर्ण नहीं हैं। वे सुबह करेंगे प्रार्थना, लेकिन एक मुसलमान को पांच
बार प्रार्थना करनी होती है, केवल तभी वह मुसलमान है। यह एक साधारण नियम है और पांच बार निरन्तर याद करने से ' उसे याद करना ' एक ढांचे को निश्चित कर देता हैं। वह एक आंतरिक प्रवाह बन जाता है। तुम्हें बार-बार उस तक आना होता है। दो प्रार्थनाओं के मध्य क्रोध करना कठिन है, दो प्रार्थनाओं के मध्य लोभ में गिरकर लालची बनना कठिन है और दो प्रार्थनाओं के बीच बहुत कठिन होगा आक्रामक और हिंसक होना।
बार प्रार्थना करनी होती है, केवल तभी वह मुसलमान है। यह एक साधारण नियम है और पांच बार निरन्तर याद करने से ' उसे याद करना ' एक ढांचे को निश्चित कर देता हैं। वह एक आंतरिक प्रवाह बन जाता है। तुम्हें बार-बार उस तक आना होता है। दो प्रार्थनाओं के मध्य क्रोध करना कठिन है, दो प्रार्थनाओं के मध्य लोभ में गिरकर लालची बनना कठिन है और दो प्रार्थनाओं के बीच बहुत कठिन होगा आक्रामक और हिंसक होना।
आधारभूत
चीज यह है कि जो भी ऐसा करता है तो उससे एक निरन्तरता बनी रहती है और फिर पांच
प्रार्थनाओं की भी जरूरत नहीं रह जाती, लेकिन फिर भी अंतराल तो आएंगे ही
और तुम इतने बेईमान हो कि तुम इन अंतरालों को गलत चीजों से भर सकते हो और तब
तुम्हारी प्रार्थनाएं उनसे प्रभावित हो जाएंगी। तब वह एक सच्ची प्रार्थना होगी ही
नहीं, बल्कि अंदर गहराई में एक गलत धारा बहती रहेगी। सुबह-सुबह
यह भिक्षु स्वयं को आवाज देकर पुकारा करता था, क्योंकि बौद्ध
प्रार्थना में नहीं, ध्यान करने में विश्वास करते हैं। यह विशेषता और भेद समझ लेने जैसा है। मैं स्वयं भी प्रार्थना पर विश्वास नहीं करता और मेरा जोर भी ध्यान पर है। यहां दो तरह के धार्मिक लोग हैं, पहली तरह के लोग प्रार्थना करने वाले और दूसरी टाइप के लोग ध्यान करने वाले। बौद्ध कहते हैं-प्रार्थना करने की जरूरत ही नहीं है, लेकिन बरन सजग और सचेत बने रहना है क्योंकि सजगता ही तुम्हें प्रार्थना पूर्ण चित्तवृत्ति देती है। वहां परमात्मा की भी, प्रार्थना करने की कोई जरूरत नहीं है। जब तक तुम परमात्मा को जानते ही नहीं, तब तुम उसकी प्रार्थना कर कैसे सकते हो? तुम्हारी प्रार्थना अंधेरे में टटोलने जैसी हैं तुम परमात्मा को जानते ही नहीं। यदि तुमने उसे जान लिया है तो फिर प्रार्थना करने की कोई जरूरत है ही नहीं। इसलिए तुम्हारी प्रार्थना अंधेरे मैं टटोलने जैसी है। तुम उसे सम्बोधित कर रहे हो जिसे तुम जानते ही नहीं, इसलिए तुम उसे सम्बोधित करोगे कैसे? तुम्हारा सम्बोधन कैसे प्रामाणिक और सच्चा हो सकता है, वह कैसे तुम्हारे हृदय से निकल सकता है? वह मात्र एक विश्वास है और उसकी गहराई में एक सन्देह छिपा है। अपनी गहराई में तुम निश्चित नहीं हो कि परमात्मा का अस्तित्व है भी अथवा नहीं, अपनी गहराई में तुम निश्चित नहीं कि यह प्रार्थना आत्मप्रलाप है अथवा संवाद? क्या वास्तव में वहां कोई है, जो उसे सुन रहा है और उसका उत्तर देगा अथवा तुम अकेले ही स्वयं ही से बात किए जा रहे हो। यह अनिश्चितता पूरी चीज को बरबाद कर देती है।
प्रार्थना में नहीं, ध्यान करने में विश्वास करते हैं। यह विशेषता और भेद समझ लेने जैसा है। मैं स्वयं भी प्रार्थना पर विश्वास नहीं करता और मेरा जोर भी ध्यान पर है। यहां दो तरह के धार्मिक लोग हैं, पहली तरह के लोग प्रार्थना करने वाले और दूसरी टाइप के लोग ध्यान करने वाले। बौद्ध कहते हैं-प्रार्थना करने की जरूरत ही नहीं है, लेकिन बरन सजग और सचेत बने रहना है क्योंकि सजगता ही तुम्हें प्रार्थना पूर्ण चित्तवृत्ति देती है। वहां परमात्मा की भी, प्रार्थना करने की कोई जरूरत नहीं है। जब तक तुम परमात्मा को जानते ही नहीं, तब तुम उसकी प्रार्थना कर कैसे सकते हो? तुम्हारी प्रार्थना अंधेरे में टटोलने जैसी हैं तुम परमात्मा को जानते ही नहीं। यदि तुमने उसे जान लिया है तो फिर प्रार्थना करने की कोई जरूरत है ही नहीं। इसलिए तुम्हारी प्रार्थना अंधेरे मैं टटोलने जैसी है। तुम उसे सम्बोधित कर रहे हो जिसे तुम जानते ही नहीं, इसलिए तुम उसे सम्बोधित करोगे कैसे? तुम्हारा सम्बोधन कैसे प्रामाणिक और सच्चा हो सकता है, वह कैसे तुम्हारे हृदय से निकल सकता है? वह मात्र एक विश्वास है और उसकी गहराई में एक सन्देह छिपा है। अपनी गहराई में तुम निश्चित नहीं हो कि परमात्मा का अस्तित्व है भी अथवा नहीं, अपनी गहराई में तुम निश्चित नहीं कि यह प्रार्थना आत्मप्रलाप है अथवा संवाद? क्या वास्तव में वहां कोई है, जो उसे सुन रहा है और उसका उत्तर देगा अथवा तुम अकेले ही स्वयं ही से बात किए जा रहे हो। यह अनिश्चितता पूरी चीज को बरबाद कर देती है।
बुद्ध
ने ध्यान पर जोर दिया। वे कहते हैं-वहां दूसरे की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि
तुम भली- भांति जानते हो कि तुम अकेले हो। कम-से-कम यह तो निश्चित है कि तुम हो।
अपने जीवन को किसी ऐसी चीज का आधार दो, जो पूरी तरह निश्चित हो...
क्योंकि तुम उस चीज को जीवन का आधार कैसे बना सकते हो, जो
अनिश्चितता है, संदेहपूर्ण है, जिसका
अस्तित्व केवल विश्वास में है, जानने में नहीं? लेकिन जीवन में निश्चित क्या है? केवल एक ही चीज
निश्चित है और वह तुम हो। इसके अतिरिक्त हर चीज अनिश्चित है।
मैं
यहां तुमसे बात कर रहा हूं तुम यहां नहीं भी हो सकते हो, यह ठीक एक
सपना भी हो सकता है। तुम मुझे यहां सुन रहे हो, मैं यहां
नहीं भी हो सकता हूं यह भी एक सपना हो सकता है... क्योंकि कई बार तुमने सपनों में
मुझे सुना है और जब स्वप्न शुरू होता है तो वह वास्तविक दिखाई देता है। तुम उनमें
भेद कैसे कर सकते हो कि उनमें यह सपना है अथवा नहीं? तुम
कैसे एक सपने और वास्तविकता में भेद कर सकते हो? इसका कोई
उपाय है ही नहीं। दूसरे के बारे में तुम कभी निश्चित हो ही नहीं सकते। तुम केवल
अपने बारे में ही निश्चित हो सकते हो और केवल यही सुनिश्चित हो सकता है कि तुम हो।
क्यों? क्योंकि स्वयं पर ही संदेह करने के लिए तुम्हें तो
वहां होना ही होगा।
आधुनिक
पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के पिता डेस्कार्ट्स ने संदेह से ही प्रारम्भ किया है। वह
प्रत्येक वस्तु पर सन्देह करता है, क्योंकि वह किसी ऐसी चीज की खोज
में है जिस पर कोई भी सन्देह न किया जा सके। केवल वही वास्तविक और प्रामाणिक जीवन
का आधार बन सकता है, लेकिन फिर उस पर भी सन्देह किया जा सकता
है। वह जिस पर विश्वास करना पड़े, वह सच्चा आधार नहीं बन सकता।
यह नींव ही खिसक रही है और तुम रेत पर मकान बना रहे हो इसलिए उसने प्रत्येक चीज पर
सन्देह किया। परमात्मा पर तो आसानी से सन्देह किया जा सकता है। संसार पर भी सन्देह
किया जा सकता है। वह एक सपना भी हो सकता है और दूसरों पर भी-उसने प्रत्येक वस्तु पर सन्देह किया। तभी अचानक वह सजग हुआ और स्वयं पर सन्देह न कर सका क्योंकि यह विरोधाभास होता। यदि तुम कहते हो कि मैं स्वयं पर ही सन्देह करता हूं तो इसका अर्थ है कि तुमको यह विश्वास करना पड़ेगा कि वहां तुम हो, जो संदेह कर रहे हो। तुम कह सकते हो कि तुम्हारे होने के बारे में भी तुम्हें धोखा दिया जा सकता है, लेकिन वहां कोई तो होना ही चाहिए जो तुम्हें धोखा दे रहा है। स्वयं होने पर संदेह नहीं किया -जा सकता।
किया जा सकता है। वह एक सपना भी हो सकता है और दूसरों पर भी-उसने प्रत्येक वस्तु पर सन्देह किया। तभी अचानक वह सजग हुआ और स्वयं पर सन्देह न कर सका क्योंकि यह विरोधाभास होता। यदि तुम कहते हो कि मैं स्वयं पर ही सन्देह करता हूं तो इसका अर्थ है कि तुमको यह विश्वास करना पड़ेगा कि वहां तुम हो, जो संदेह कर रहे हो। तुम कह सकते हो कि तुम्हारे होने के बारे में भी तुम्हें धोखा दिया जा सकता है, लेकिन वहां कोई तो होना ही चाहिए जो तुम्हें धोखा दे रहा है। स्वयं होने पर संदेह नहीं किया -जा सकता।
इसीलिए
महावीर ने परमात्मा पर विश्वास नहीं किया, उन्होंने केवल आत्मा पर विश्वास
किया, क्योंकि केवल आत्मा का होना निश्चित है। तुम सुनिश्चित
होने पर ही विकसित हो सकते हैं, अनिश्चित होने की दशा में
तुम्हारा विकास नहीं हो सकता। जहां सुनिश्चितता होती है, वहीं
विश्वास होता है और जहां अनिश्चितता होती है, वहां विश्वास
तो हो सकता है, लेकिन विश्वास हमेशा सन्देह को छिपाता है।
मेरे
पास ऐसे बहुत से लोग आते हैं, जो आस्तिक हैं। वे परमात्मा में विश्वास करते
हैं, लेकिन उनका विश्वास बस उथला है। उन्हें हल्का-सा धक्का
दो, थोड़ा-सा धकेलो या हिलाओ-वे भयभीत होकर सन्देह करने लगते
हैं। किस तरह के धर्म की सम्भावना है। यदि तुम इतने अधिक संदेहशील हो, कोई चीज ऐसी आवश्यक है, जिस पर संदेह न किया जा सके।
महावीर
और बुद्ध दोनों ने ध्यान पर जोर दिया। उन्होंने प्रार्थना समाप्त कर दी और कहा-’‘ तुम
प्रार्थना कैसे कर सकते हो? तुम परमात्मा को जानते तक नहीं,
इसलिए तुम वास्तव में उस पर विश्वास नहीं कर सकते। ‘‘ तुम एक विश्वास के साथ बल प्रयोग नहीं कर सकते, जब कि
विवशता से किया गया विश्वास एक झूठ विश्वास है। तुम तर्क के द्वारा अपने को समझा
सकते हो, लेकिन इससे कोई सहायता नहीं मिलेगी, क्योंकि तुम्हारे तर्क, तुम्हारे अपराध हमेशा
तुम्हारे हैं और मन डोलता रहता है इसलिए बुद्ध और महावीर दोनों ने ध्यान करने पर
बल दिया।
ध्यान
करना पूरी तरह से एक भिन्न विधि है। इसमें विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं और न
जरूरत है दूसरे तक जाने की। तुम वहां अकेले ही हो, लेकिन तुम्हें अपने को जगाए
रखना है और यही वह भिक्षु कर रहा था। वह राम या अल्लाह का नाम नहीं पुकार रहा है।
वह अपना ही नाम लेकर स्वयं को पुकार रहा है। केवल अपने आपको, क्योंकि दूसरे के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं। वह अपना पूरा नाम लेकर पुकार
रहा है-’‘ क्या तुम हो वहां? ‘‘और वह
किसी परमात्मा के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं करता। वह स्वयं ही उत्तर देता है-’‘
हां श्रीमान! मैं यहां हूं। ‘‘
यह
बौद्धों का व्यवहार या तरीका है कि यहां तुम अकेले हो, यदि तुम
सोए हुए हो तो तुम स्वयं को ही पुकारते हुए स्वयं ही उसका उत्तर दो। यह एक
आत्म-संवाद है। किसी परमात्मा की प्रतीक्षा मत करो वह उत्तर देगा, वहां
उत्तर देने को कोई दूसरा है ही नहीं। तुम्हारे प्रश्न खाली आकाश में सो जाएंगे,
तुम्हारी प्रार्थनाएं नहीं सुनी जाएंगी-वहां उन्हें सुनने को कोई
दूसरा है ही नहीं इसलिए यह भिक्षु बेवकूफ लगता है, लेकिन
वास्तव में, वे सभी लोग जो प्रार्थना कर रहे हैं, इस भिक्षु से भी कहीं अधिक बेवकूफ हो सकते हैं। यह भिक्षु एक अधिक निश्चित
चीज कर रहा है, स्वयं को
पुकारते हुए स्वयं ही उत्तर दे रहा है।
पुकारते हुए स्वयं ही उत्तर दे रहा है।
तुम
अपने को सजग बना सकते हो। मैं कहता हूं तुम्हारा नाम ही एक मंत्र है। मत पुकारो
राम को, मत पुकारो अल्लाह को, अपना ही नाम लेकर स्वयं को
पुकारो। दिन में कई बाद, जब तुम्हें नींद जैसी लगे, जब कभी तुम्हें अनुभव हो कि कोई भी खेल तुम पर हावी हो रहा है और तुम
उसमें हार रहे हो, स्वयं को आवाज दो-’‘ क्या तुम हो वहां? और स्वयं उसका उत्तर दो। किसी और
के द्वारा उत्तर देने की प्रतीक्षा मत करो, वहां कोई है ही
नहीं उत्तर देने के लिए। ‘‘
उत्तर
दो-’‘ हां श्रीमान! मैं हूं यहां। ‘‘ और उत्तर जबानी ही न
हो, उस उत्तर को महसूसो-’‘ हां,
में यहां हूं। ‘‘ और वहां रहो पूर्ण सजग। इसी
सजगता में चलते हुए विचार रुक जाते हैं। इसी सजगता में मन विसर्जित हो जाता है,
भले ही क्षण- भर के लिए। जब मन नहीं होता, तभी
वहां ध्यान होता है, जब मन रुक गया है, ध्यान अस्तित्व में आ गया है।
स्मरण
रहे, ध्यान कुछ ऐसी चीज नहीं जिसे मन के द्वारा करना है, वह
मन की अनुपस्थिति है। जब मन विदा हो जाता है, ध्यान घटता है।
यह कोई चीज ऐसी नहीं है, जो मन के बाहर हो, यह तो कुछ ऐसी चीज है जो मन के पार है, और जब तुम
सजग होते हो, मन नहीं होता इसलिए सार स्वरूप हम कह सकते हैं
कि सोई दशा ही तुम्हारा मन है, तुम्हारी असजगता तुम्हारा
मन्त्र है, सोते हुए चलकर सभी कार्य करने वाला तुम्हारा ही
मन है, तुम यों चलते हो जैसे तुमने शराब पी लो हो, तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो। यह भी नहीं जानते कि तुम्हें कहां जाना है
और तुम्हें यह भी पता नहीं कि तुम क्यों जा रहे हो वहां।
और
तीसरी चीज जो वह भिक्षु कह रहा है, उसे भी याद रखना-दूसरों के द्वारा बेवकूफ
मत बनो। दूसरे तुम्हें निरन्तर बेवकूफ बना रहे हैं। केवल इतना ही नहीं कि तुम अपने
को बेवकूफ बना रहे हो, दूसरे भी तुम्हें बेवकूफ बना रहे हैं।
दूसरे तुम्हें किस तरह बेवकूफ बना रहे हैं? पूरे समाज,
पूरी सभ्यता और संस्कृति इन सभी की सामूहिक साजिश है। यही कारण है
कि कोई भी समाज विद्रोही लोगों से राजी नहीं होता, प्रत्येक
समाज चाहता है- आज्ञापालन., सुनिश्चितता। कोई भी समाज
विद्रोही विचारों की अभिव्यक्ति की इजाजात नहीं देता। क्यों? क्योंकि विद्रोही विचार लोगों को सचेत करते हैं कि यह पूरी चीज एक खेल है
और जब लोग सचेत बनकर इस पूरे खेल को समझ जाते हैं तो वे खतरनाक बन जाते हैं। वे
समाज के पार जाना शुरू कर देते हैं।
समाज
का अस्तित्व लोगों के सम्मोहित दशा में रहने में ही है सम्मोहन दशा उत्पन्न करने
के लिए भीड़ उसका एक भाग है। जब तुम्हारा जन्म हुआ, तब न तो तुम हिन्दू थे,
न मुसलमान या पारसी, हो भी नहीं सकते थे,
क्योंकि चेतना किसी वर्ग से संबंधित नहीं है। वह तो अखण्ड है। वह
किसी खण्ड की हो भी नहीं सकती। एक बच्चा तो निर्दोष है, हिन्दू
बौद्ध या जैन इन सभी धर्मों की बकवास से मुक्त। बच्चा तो एक निर्मल दर्पण की भांति
होता है, लेकिन समाज बच्चे पर तुरन्त काम करना शुरू कर देता
है, उसे एक ढांचा दिया जाने लगता है। बच्चा जन्म से ही
स्वतंत्र होता है, लेकिन तुरन्त समाज उसकी स्वतंत्रता को
मिटाने में जुट जाता है और उसे एक सांचे में डालना
शुरू कर देता है।
शुरू कर देता है।
यदि
तुमने हिन्दू परिवार में जन्म लिया है तो तुम्हारे माता-पिता तुम्हें सिखाना शुरू कर
देंगे कि तुम एक हिन्दू हो। अब वे एक सम्मोहित दशा उत्पन्न कर रहे हैं। कोई भी
हिन्दू नहीं है-लेकिन यह बच्चा निर्दोष है, उसे बेवकूफ बनाया जा सकता है। बच्चा
सरल है, अब वह -दिए .ढांचे पर विश्वास करेगा कि वह हिन्दू
है-न केवल हिन्दू है, वरन् ब्राहाण है, न केवल ब्राहाण, वरन् कान्यकुब्ज है। वर्ग के अन्दर
वर्ग, ठीक चीनी संदूकों की तरह, सन्दूकों
के अंदर सन्दूक। जितना वह सिकुड़ता जाता है, वह उतना ही अधिक
कैदी बनता जाता है। संदूक छोटा और छोटा होता जाता है। जब
उसका जन्म हुआ तब वह आकाश जैसा था। तब वह हिन्दू बना- आकाश का एक छोटा-सा भाग, तब वह ब्राह्मण बना, एक छोटा बक्सा। यह चलता ही चला जाता है। समाज उसे छोटे बक्सों में रहने के लिए विवश करता है और तब उसे कान्यकुब्ज ब्राह्मण बन के रहना होगा। अपने पूरे जीवन वह इसी बक्से में रहेगा और वह इस बक्से को लिए हुए ही चारों ओर घूमेगा। यह बक्सा एक कब की तरह है। उसे इन सभी बक्सों से बाहर आना जरूरी है, केवल तभी वह जान सकेगा कि वास्तविक चेतना है
क्या?
उसका जन्म हुआ तब वह आकाश जैसा था। तब वह हिन्दू बना- आकाश का एक छोटा-सा भाग, तब वह ब्राह्मण बना, एक छोटा बक्सा। यह चलता ही चला जाता है। समाज उसे छोटे बक्सों में रहने के लिए विवश करता है और तब उसे कान्यकुब्ज ब्राह्मण बन के रहना होगा। अपने पूरे जीवन वह इसी बक्से में रहेगा और वह इस बक्से को लिए हुए ही चारों ओर घूमेगा। यह बक्सा एक कब की तरह है। उसे इन सभी बक्सों से बाहर आना जरूरी है, केवल तभी वह जान सकेगा कि वास्तविक चेतना है
क्या?
तब
समाज उसे सामान्य विचार और धारणाएं देता है, तब समाज उसे सिद्धान्त, तत्व ज्ञान, व्यवस्था, रीति-रिवाज
और धर्म देता है। तब वह कभी भी कोई चीज सीधे देखने में समर्थ न हो सकेगा उसकी
व्याख्या करने को हमेशा समाज वहां रहेगा। जब तुम कहते हो, कोई
चीज अच्छी है तो तुम उसके प्रति सजग नहीं हो। क्या तुम हो वहां और उसे स्वतंत्र
रूप से देख रहे हो? क्या यह तुम्हारा अनुभव है कि वह चीज
अच्छी है अथवा केवल समाज की व्याख्या है? कोई चीज खराब है,
क्या तुमने उसके अंदर झांककर देखा और तब इस निर्णय पर पहुंचे कि वह
खराब है अथवा तुम्हें समाज द्वारा यह सिखाया गया कि वह चीज खराब है।
जरा
देखें! एक हिन्दू गाय के गोबर को देखकर सोचता है कि वह संसार की शुद्धतम और
पवित्रतम चीज है। संसार में अन्य कोई भी गाय के गोबर को शुद्ध और पवित्र चीज नहीं
मानता। गाय का गोबर मात्र मल है-लेकिन एक हिन्दू उसे संसार की शुद्धतम चीज के रूप
में मानता है। वह उसे प्रसन्नता से खायेगा। वह खाता है। संसार- भर में कोई भी यह
विश्वास नहीं कर सकता कि अस्सी करोड़ हिन्दू इस तरह बेवकूफ बनाए जा सकते हैं, लेकिन वे
बेवकूफ हैं। जब एक हिन्दू बच्चे को दीक्षा ( जनेऊ) दी जाती है, उसे पंचामृत पीने को दिया जाता है जो पांच खास चीजों का मिश्रण है। इन
पांच चीजों में गाय का गोबर भी एक है और गाय का मूत्र दूसरा है। यह कठिन है-कोई इस
पर विश्वास नहीं कर सकता कि यह ठीक है, लेकिन उनकी अपनी
धारणाएं। अपनी धारणाओं को अलग रखकर जरा इसे प्रत्यक्ष रूप से देखें, लेकिन कोई भी धर्म या समाज तुम्हें सीधे प्रत्यक्ष देखने की इजाजत नहीं
देता। वह हमेशा आकर उसकी व्याख्या करता है और तुम उससे बेवकूफ बन जाते हो।
यह
भिक्षु हर सुबह पुकारते हुए कहा करता था-’‘ दूसरों के द्वारा बेवकूफ मत बनना।
‘‘ और वह उसका उत्तर भी देता था-’‘ जी
श्रीमान! मैं दूसरों के द्वारा बेवकूफ नहीं बनूंगा। ‘‘
यह
हमेशा याद रखना है,
क्योंकि तुम्हारे चारों ओर घिरे दूसरे लोग बहुत सूक्ष्म शिष्टाचार
और रीतियों से तुम्हें बेवकूफ बना रहे हैं। अब तो दूसरे लोग इतने अधिक
शक्तिशाली हैं, जितने पहले कभी न थे। विज्ञापनों के द्वारा, रेडियो, समाचारपत्रों और
दूरदर्शन के द्वारा दूसरे लोग तुम्हें नियंत्रित कर रहे हैं।
शक्तिशाली हैं, जितने पहले कभी न थे। विज्ञापनों के द्वारा, रेडियो, समाचारपत्रों और
दूरदर्शन के द्वारा दूसरे लोग तुम्हें नियंत्रित कर रहे हैं।
अमेरिका
में पूरा बाजार इसी बात पर निर्भर है कि तुम कैसे ग्राहक को बेवकूफ बना सकते हो, तुम कैसे
दूसरों के मनों में विचार उत्पन्न कर सकते हो? अब अमेरिका में
दो कारों का गैरेज और दो कारें एक जरूरी चीज हैं। वे तुम्हें चाहिए ही-यदि तुम प्रसन्न
रहना चाहते हो तो तुम्हें दो कारें चाहिए ही। यह कोई नहीं पूछता-यदि तुम एक कार से
खुश नहीं हो, तो दो कारों से कैसे खुश हो सकते हो? यदि एककार से तुम पचास प्रतिशत खुश हो तो दो कारों से सौ प्रतिशत
प्रसन्नता कैसे मिल सकती है? इसका अर्थ यह भी है कि तुम एक
कार पाकर अप्रसन्न हो तो दो कारों से तुम्हारी अप्रसन्नता दुगुनी हो जाएगी। गणित
सीधा साफ है, लेकिन पूरा समाज विज्ञापन, प्रचार और दूसरों के द्वारा नियंत्रित होकर जी रहा है। जैसे प्रसन्नता भी
कोई बाजारू चीज बन गई है, जिसे तुम जाओ बाजार और खरीद लाओ।
प्रसन्नता कैसे खरीदी जा सकती है? वह कोई पदार्थ नहीं है,
वह कोई वस्तु नहीं है। वह जीने की गुणात्मकता है और सजग जीवन का सहज
परिणाम है। किसी भी तरीके से तुम उसे खरीद नहीं सकते।
जरा
अमरीकन अखबारों पर एक नजर डालो उन्हें पढ़कर लगेगा जैसे तुम चूके जा रहे हो
प्रसन्नता से और वह धन के द्वारा सहज ही खरीदी जा सकती है। वे तुम्हारे अन्दर यह
अहसास उत्पन्न करते हैं कि तुम किसी चीज से चूक रहे हो., तब वे
उसके लिए काम करना शुरू करते हैं, तब तुम धन कमाओ और फिर उसे
खरीदो। तुम्हें अनुभव होता है कि तुम ठगे गए लेकिन यह अनुभव बहुत गहरा नहीं जाता
क्योंकि इस ठगे जाने के अनुभव से पहले ही कुछ और नई चीजें नए-नए प्रलोभन मन में प्रविष्ट
हो जाते हैं और वे अब तुम्हें आगे की ओर खींचने लगते हैं।
तुम्हारा
एक फ्लैट हिल स्टेशन पर होना चाहिए या तुम्हारे पास गर्मियों के लिए एक नया
आश्रयस्थल होना बहुत जरूरी है अथवा तुम्हारे पास समुद्र में सैर करने के लिए अपना
एक याट ( बड़ी मोटर बोट) होना चाहिए-कोई-न-कोई हमेशा वहां प्राप्त करने के लिए
विज्ञापनों में होता ही है। वे तुम्हें आश्वस्त करते हैं कि केवल उन्हें पाकर ही
तुम खुश हो सकोगे। वे तुम्हें तुम्हारी मृत्यु होने तक अपनी ओर खींचते ही रहेंगे।
जब तक तुम मर ही न जाओ,
यह विज्ञापन और प्रचार तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करता ही रहेगा।
यह
भिक्षु बिलकुल ठीक कहता है। यह तुम्हारी सजगता का एक भाग बन जाना चाहिए कि तुम्हें
दूसरों के द्वारा बेवकूफ नहीं बनना है। तुम्हारा शोषण करने के लिए पूरा समाज मौजूद
है, जो दूसरों का शोषण ही करता है। यहां हर कोई शोषण कर रहा है और यह शोषण
केवल बाजार में ही न होकर, मंदिरों, चर्चों,
सिनेगॉग और सभी पूजागृहों में है.. .क्योंकि पुरोहित भी एक व्यापारी
है, और पोप तो सर्वश्रेष्ठ व्यापारी है। तुम्हें शांति की
जरूरत है और तुम पूछते हो-हमें शांति कैसे मिले? इसलिए यहां
ऐसे बहुत से लोग हैं जो कहते हैं-’‘ हमारे पास आओ हम तुम्हें
शांति देंगे। ‘‘ तुम आध्यात्मिक आनन्द चाहते हो और वहां ऐसे
लोग हैं, जो तुम्हें आध्यात्मिक आनन्द भी बेचने को
पहले से तैयार बैठे हैं।
पहले से तैयार बैठे हैं।
यदि
महर्षि महेशयोगी जैसे लोग पश्चिम में सफल हैं, लेकिन वे पूरब में सफल नहीं हो
सकते। भारत में कोई उन्हें सुनता ही नहीं और न कोई उनकी चिंता करता है। लेकिन
अमेरिका में हर तरह की बकवास सुनी जाती है। एकबार तुम प्रचार का ठीक रास्ता पकड़ लो।
एक बार तुम ठीक से प्रचार करने वाले लोगों की सेवाएं प्राप्त कर लो, तब कोई समस्या रहती है नहीं। महर्षि महेश योगी यों बात करते हैं जैसे तरिक-शांति
भी तुरन्त खरीदी जा सकती है, जैसे केवल सप्ताह- भर में केवल
पन्द्रह मिनट बैठकर तुम ध्यान प्राप्त कर सकते हो और एक मंत्र दोहराते रहने से तुम
हमेशा-
हमेशा शांत रहोगे। अमरीकी चित्त जो विज्ञापनों से विषाक्त हो रहा है, तुरन्त ही एक भीड़ उसकी ओर आकर्षित हो जाती है। भीड़ में लोग बदलते रहते हैं, लेकिन रहती है हमेशा भीड़ ही और ऐसा लगता है जैसे चीजें घट रही हैं। यहां तक कि मंदिर और गिरजाघर भी दुकानें बन गए हैं।
हमेशा शांत रहोगे। अमरीकी चित्त जो विज्ञापनों से विषाक्त हो रहा है, तुरन्त ही एक भीड़ उसकी ओर आकर्षित हो जाती है। भीड़ में लोग बदलते रहते हैं, लेकिन रहती है हमेशा भीड़ ही और ऐसा लगता है जैसे चीजें घट रही हैं। यहां तक कि मंदिर और गिरजाघर भी दुकानें बन गए हैं।
ध्यान
न तो खरीदा जा सकता है और न कोई तुम्हें ध्यान दे सकता है। तुम्हें ही उस तक
पहुंचना होगा। वह ऐसी कोई चीज नहीं जो तुम्हारे बाहर है। वह तुम्हारे ही अन्दर है, वह एक
विकास है और विकास सजगता से होता है। सुबह, दोपहर, शाम या जब कभी तुम मूर्च्छा का अनुभव करो, अपने को
नाम लेकर पुकारो। न केवल पुकारों, उसका उत्तर जोर से कहते
हुए दो। दूसरों से डरी मत। तुम दूसरों से काफी डरे हुए हो उन्होने तुम्हें भय के
द्वारा पहले -ही से मार दिया है। भयभीत मत हो। बाजार तक में भी, अपना नाम लेकर पुकारो-’‘ तीर्थ! क्या तुम यहां हो?
‘‘ और जवाब दो-
‘‘ हां श्रीमान, मैं यहां हूं। ‘‘
‘‘ हां श्रीमान, मैं यहां हूं। ‘‘
लोगों
को हंसने दो। उनके द्वारा बेवकूफ मत बनो। केवल एक ही चीज पाने जैसी है और वह
है-सजगता न सम्मान और न दूसरों से आदर। क्योंकि यह भी उन लोगों की एक चाल है, वे सम्मान
देकर तुम्हें आज्ञाकारी बनाते हैं। वे कहते हैं-हम तुम्हारा सम्मान करेंगे,
तुम झुको और आज्ञाकारी बनो। वहां ' तुम '
रहो ही मत, बस समाज का किसी के साथ अनुसरण करो
और उसके लिए समाज तुम्हें सम्मानित करेगा।
यह
एक आपसी समझौता है। तुम जितने अधिक मृत हो, समाज तुम्हारा उतनाही अधिक सम्मान
करता है। तुम जितने अधिक जीवन्त हो, समाज तुम्हारे लिए उतनी ही
अधिक मुसीबतें खड़ी करेगा।
जीसस
को कुस पर क्यों लटकाया गया क्योंकि वे एक जीवन्त मनुष्य थे। उन्होंने बचपन में
अपने को जरूर पुकारते हुए कहा होगा-’‘ जीसस! दूसरों के द्वारा बेवकूफ मत
बनो। ‘‘ और वह बेवकूफ नहीं बने इसलिए दूसरों को उन्हें सूली
पर चढ़ाना ही पड़ा क्योंकि वे उनके खेल के भाग नहीं बने। सुकरात को जहर देकर मार दिया
गया, मंसूर का कत्ल किया गया। ये सभी वे लोग थे जो समाज की
कैद से भाग निकले और कुछ भी कहकर कैदखाने में वापस आने के लिए तुम उन लोगों को
राजी न कर सके। वे कैदखाने में वापस लौटेंगे नहीं क्योंकि उन्होंने मुक्त आकाश में
स्वतंत्रता
का स्वाद पाया, उसे जाना और महसूस किया।
का स्वाद पाया, उसे जाना और महसूस किया।
स्मरण
रहे-सजग और होशपूर्ण बने रहो। यदि तुम सजग बने रहे, यदि तुम्हारे कृत्य
अधिक-से-अधिक होशपूर्ण होते गए फिर तुम जो भी करोगे, सोए-सोए
न कर सकोगे। समाज का पूरा प्रयास यही है कि तुम्हें स्वचालित एक यंत्र जैसा बना
दिया जाए जो बटन दबाते ही यांत्रिक कुशलता से ठीक-ठीक काम करने लगे।
जब
तुम कार चलाना सीखते हो,
तुम सजग होते हो, लेकिन कुशल नहीं, क्यों? सजगता ऊर्जा लेती है और वह ऊर्जा तुम्हें
बहुत-सी चीजों के प्रति सजग होने में लगानी होती है-जैसे, गेयर,
स्टेयरिंग ह्वील, ब्रेक, एक्सीलेटर, क्लच आदि। बहुत- सी अन्य चीजों के प्रति
सजग होने के कारण तुम ड्राइविंग में उतने कुशल नहीं हो सकते और तुम अधिक तेज नहीं
जा सकते, लेकिन धीमे- धीमे जब तुम ज्यों-ज्यों कुशल होते
जाते हो, फिर तुम्हें सजग होने की जरूरत नहीं होती। फिर तुम
कोई गीत गुनगुनाते हुए और मन-ही-मन किसी पहेली को सुलझाते हुए ड़ाइव करते हो और कार
अपने आप चलती रहती है। शरीर स्वचालित हो जाता है। तुम जितने अधिक यांत्रिक और
स्वचालित बन जाते हो, तुम उतने ही अधिक योग्य हो जाते हो।
समाज
कुशलता चाहता है इसलिए तुम्हें अधिक-से- अधिक स्वचालित बनाता है। हर चीज तुमसे
अपने आप होने लगे। समाज तुम्हारी सजगता की फिक्र नहीं करता, क्योंकि
वह समाज के लिए एक समस्या बन जाएगा। तुमसे अधिक योग्य या कुशल बनने को कहा जाता है,
अधिक-से- अधिक-उपजाऊ, जो अधिक-से- अधिक उत्पादन
करे। मशीनें तुम्हारी अपेक्षा और तेजी से उत्पादन करती हैं। समाज तुम्हें मनुष्य
बने रहना नहीं देखना चाहता, उसे जरूरत है तुम यांत्रिक बन
जाओ इसलिए वे तुम्हें कम सजग और अधिक कुशल बनाते हैं। यह स्वचालित है। यही वह
तरीका है जिससे समाज तुम्हें बेवकूफ बनाता है। तुम कुशल तो बन जाते हो, लेकिन अपनी आत्मा खो
देते हो।
देते हो।
यदि
तुम मुझे समझ सकते हो तो मेरी ध्यान विधियों का पूरा प्रयास ही तुम्हें स्वचालित
बनने से रोकते हुए तुम्हें फिर से सजग बनाना है। तुम्हें फिर मशीन से मनुष्य बनाना
है। शुरू-शुरू में तुम कम कुशल होगे, लेकिन इसकी कोई फिक्र नहीं लेना है।
शुरू-शुरू में हर चीज एक गड़बड़झाला लगती है, क्योंकि हर चीज
को इस तरह बिठाया गया है कि वह बिना सक्रिय बुद्धि के स्वयँ चालू हो जाए। शुरू में
तुम कोई भी -काम कुशलता से करने में सक्षम नहीं होते। तुम्हें कठिनाई का अनुभव
होगा, क्योंकि तुम अब तक अपनी अचेतन योग्यता के साथ समायोजन
कर तैयार हुए हो। होशपूर्वक कुशल बनने में एक लम्बे प्रयास की जरूरत होगी, लेकिन धीरे- धीरे तुम सजग और कुशल साथ-साथ होते जाओगे।
वहां
भविष्य में किसी प्रामाणिक मनुष्य-समाज की यदि कोई सम्भावना है तो उसकी आधारभूत
पहली चीज होगी कि वे बच्चों को स्वचालित न बनने दें। भले ही उन्हें कुशल और योग्य
बनाने में थोड़ा समय अधिक लगे लेकिन उन्हें योग्य बनाना है सजगता के साथ। उन्हें
मशीन या यंत्र मत बनाना। इसमें समय अधिक लगेगा, क्योंकि दो चीजें साथ-साथ सीखनी
हैं-योग्यता और सजगता। एक वास्तविक प्रामाणिक मनुष्य-समाज तुम्हें सजगता देगा,
लेकिन योग्यता कम, यह योग्यता धीरे- धीरे आएगी।
तब जब तुम सजग होगे तुम सजगता के साथ योग्य होने में भी समर्थ हो सकोगे।
ध्यान
है-स्वचालित बनने की प्रक्रिया से उल्टी विधि। तब तुम एकनई सजगता से काम शुरू कर
सकोगे-कुशलता रहे शरीर में और चेतना सजग बनी रहे। तुम एक यंत्र की भांति बनना ही
मत, एक मनुष्य ही बने रहना। यदि तुम एक मशीन बन गए तो तुम्हें अपनी मनुष्यता
खोनी होगी।
यह
भिक्षु स्वचालित न बनने का ही काम कर रहा है। तड़के सुबह ही वह स्वयं को ही पुकारता
है-’‘ सजग बने रहो। ‘‘ वह कहता है-’‘ अपने को बेवकूफ मत बनाओ। ‘‘ वह साथ में यह भी कहता
है-’‘ दूसरों के द्वारा बेवकूफ मत बनी। ‘‘ समझ की यह तीन पर्तें हैं जिन्हें प्राप्त करना है।
मैंने
सुना है, एकबार ऐसा हुआ किएक युवा जो बहुत सम्पन्न और धनी परिवार का था, एकझेन सद्गुरु के पास आया। वह हर चीज जान चुका था, अपनी
हर कामना की तुष्टि कर चुका था और उसके पास काफी धन था, इसलिए
उसकी कोई समस्या थी ही नहीं, लेकिन तब वह हर चीज से ऊब
गया-वह ऊब गया सेक्स से, स्त्री से, वह
बुरी तरह ऊब गया शराब पीने से भी। तब वह झेन सद्गुरु के पास आकर बोला- ‘‘ अब मैं इस संसार से ही' ऊब गया हूं। क्या कोई ऐसा
रास्ता है जिससे में रूपान्तरित हो सकूं? क्या कोई ऐसा
रास्ता है जिससे मैं स्वयं को जान सकूं कि मैं हूं कौन? ‘‘
फिर उस युवा ने कहा-’‘ इससे पूर्व कि आप कुछ कहें, मैं अपने बारे में आपको कुछ और भी बताना चाहता हूं। मैं कोई भी निर्णय नहीँ ले पाता किसी भी चीज में और न किसी चीज को लम्बी अवधि तक निरन्तर कर सकता हूं इसलिए यदि आप मुझे कोई विधि देते हैं अथवा मुझसे ध्यान करने के लिए कहते हैं तो मैं उसे कुछ दिनों तक कर सकता हूं और फिर मैं उससे पीछा छुड़ाकर भाग जाऊंगा। यह भली- भांति जानते हुए भी कि इस संसार में है कुछ भी नहीं, वहां दुःख और मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन यह मेरा मन कुछ इसी तरह का है कि मैं कोई भी चीज निरन्तर जारी नहीं रख
सकता। मैं संकल्पपूर्वक कुछ कर ही नहीं सकता, इसलिए मेरे लिए कोई चीज या विधि चुनने से पूर्व कृपया इसका स्मरण रखें। ‘‘
फिर उस युवा ने कहा-’‘ इससे पूर्व कि आप कुछ कहें, मैं अपने बारे में आपको कुछ और भी बताना चाहता हूं। मैं कोई भी निर्णय नहीँ ले पाता किसी भी चीज में और न किसी चीज को लम्बी अवधि तक निरन्तर कर सकता हूं इसलिए यदि आप मुझे कोई विधि देते हैं अथवा मुझसे ध्यान करने के लिए कहते हैं तो मैं उसे कुछ दिनों तक कर सकता हूं और फिर मैं उससे पीछा छुड़ाकर भाग जाऊंगा। यह भली- भांति जानते हुए भी कि इस संसार में है कुछ भी नहीं, वहां दुःख और मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन यह मेरा मन कुछ इसी तरह का है कि मैं कोई भी चीज निरन्तर जारी नहीं रख
सकता। मैं संकल्पपूर्वक कुछ कर ही नहीं सकता, इसलिए मेरे लिए कोई चीज या विधि चुनने से पूर्व कृपया इसका स्मरण रखें। ‘‘
सद्गुरुने
कहा-’‘ यदि तुम दृढतापूर्वक कुछ भी निरन्तर नहीं कर सकते, फिर
तो यह बहुत कठिन होगा, क्योंकि अतीत में तुमने जो कुछ किया
है, उसे अनकिया करने के लिए एक लम्बे प्रयास की आवश्यकता
होगी। तुम्हें पीछे लौटकर फिर से यात्रा शुरू करनी होगी, निष्क्रमण
विधि की जरूरत होगी तुम्हें। तुम्हें पीछे लौटकर उस क्षण को जीना होगा जब तुम्हारा
जन्म हुआ था। जब तुम नए और ताजे थे। वही ताजगी, वही
निर्दोषता तुम्हें फिर से प्राप्त करनी होगी। आगे के लिए नहीं, बल्कि पीछे जाकर तुम्हें अपना बचपन एक बार फिर जीना होगा, लेकिन यदि तुम कहते हो कि तुम दृढ़ता पूर्वक इसे निरंतर जारी नहीं रख सकते
और तुम पीछा छुड़ाकर भाग जाओगे तो फिर यह सब कुछ करना कठिन होगा। लेकिन -मैं तुमसे
एक प्रश्न पूछना चाहता हूं-क्या तुम्हारी गहरी दिलचस्पी किसी ऐसी चीज में रही है
कि तुम उसमें पूरी तरह डूब जाओ? ‘‘
उस
युवा मनुष्य ने सोचा और फिर कहा-’‘ हां! केवल शतरंज में, यदि
कोई खेल है तो मैं शतरंज में ही सबसे अधिक दिलचस्पी लेता हूं। मैं इसी खेल से
प्रेम करता हूं और केवल यही एक चीज ऐसी है जो मुझे बचाए हुए है। हर दूसरी चीज तो
आकर चली गई, केवल शतरंज ही मैं अब भी साथ रखता हू और इसी के
साथ किसी तरह अपना समय गुजारता हूं। ‘‘
सद्गुरु
ने कहा-’‘ तब कुछ चीज की जा सकती है। तुम जरा प्रतीक्षा करो। ‘‘ उन्होंने एक शिष्य को बुलाकर कहा-’‘ तुम अपने साथ
फलां भिक्षु को लेकर यहां आओ, जो इस मठ -में बारह वर्षों से
ध्यान कर रहा है और उससे कहना कि वह अपने साथ शतरंज लेकर आए। ‘‘
शतरंज
लाई गई। वह भिक्षु आया। वह थोड़ा बहुत शतरंज खेलना जानता था, लेकिन
बारह वर्षों से वह अपनी कोठरी में ध्यान ही कर रहा था। वह शतरंज को ही नहीं,
बाहर के पूरे संसार और यहां तक कि प्रत्येक चीज को भूल चुका था।
सद्गुरु
ने उससे कहा-’‘
मेरी बात ध्यान से सुनो। तुम इस युवा के साथ अब यह खतरनाक खेल खेलने
जा रहे हो। यदि तुम इस युवा से हार गए तो यहां जो तलवार मेरे पास रखी है, उससे मैं तुम्हारा सिर काट दूंगा, क्योंकि मैं यह
नहीं चाहूंगा कि एक ध्यानी भिक्षु जो यहां बारह वर्षों से ध्यान कर रहा है,
वह एक साधारण युवक से हार जाए लेकिन मैं तुमसे यह वायदा करता हूं कि
यदि तुम मेरे हाथ से मारे गए तो तुम सर्वोच्च स्वर्ग पहुंचोगे इसलिए तुम्हे परेशान
होने की कोई जरूरत नहीं। ‘‘
वह
युवा मनुष्य भी यह सुनकर बेचैन हो उठा और तब सदगुरू उसकी ओर घूमकर बोला- ‘‘ देखो,
तुम कहते हो कि तुम शतरंज खेलते हुए इसमें डूब जाते हो, इसलिए अब तुम्हें इस खेल में पूरी तरह डूब जाना होगा-क्योंकि यह जीवन और मृत्यु
का प्रश्न है। यदि तुम हार गए तो मैं तुम्हारा सिर काट दूंगा और याद रहे मैं
तुम्हारे लिए स्वर्ग का वायदा नहीं कर सकता। यह भिक्षु तो ठीक है-वह तो किसी तरह
वहां चला जाएगा, लेकिन मैं तुम्हारे लिए स्वर्ग का वायदा
नहीं कर सकता। यदि तुम मरते हो तो तुम्हारे लिए सीधा नर्क है, तुम सातवें नर्क में ही जाओगे। ‘‘
एक
क्षण के लिए उस युवक ने पीछा छुड़ाकर भाग जाने की बात सोची। यह एक खतरनाक खेल होने जा
रहा था और वह यहां इसके लिए आया भी न था। लेकिन तब उसे यह असम्मानजनक लगा, आखिर वह
एक समुराई योद्धा का पुत्र था और केवल आसन्न मृत्यु की वजह से भाग जाना उसके रक्त
में नहीं था, इसलिए उसने कहा-’‘ फिर
ठीक है। ‘‘
बाजी
शुरू हुई। वह युवा मनुष्य पहले तो तेज हवा में एक पत्ते की तरह तेजी से काँपने लगा।
उसका पूरा शरीर कांप रहा था। उसे पसीने आ रहे थे। सिर से लेकर पांव तक वह ठंडे
पसीने से नहा गया। वह जीवन और मृत्यु का प्रश्न था। उसकी विचार प्रक्रिया रुक गई
क्योंकि जब भी ऐसी आपातकालीन संकट की घड़ी होती है तुम सोचना गंवारा नहीं कर सकते।
सोच-विचार तो फुरसत में होता है। जब कोई भी समस्या न हो, तुम सोच
सकते हो, लेकिन जब वास्तव में कोई समस्या आती है तो सोच-विचार
स्वत: रुक जाता है क्योंकि मन समय चाहता है, लेकिन जब आपात संकट
की घड़ी होती है तो वहां समय होता ही नहीं। तुम्हें कुछ काम तुरन्त करना होता है। प्रत्येक
क्षण मृत्यु निकट आ रही थी। उस भिक्षु ने जब खेलना शुरू किया तो उसे निर्द्वंद्व
और शांत देखकर उस युवक ने सोचा, आज मौत तो निश्चित है। लेकिन
जब धीरे- धीरे उसके विचार तिरोहित होते गए फिर वह पूरी तरह उस क्षण में ही डूब गया।
जब विचार ही जाते रहे तो वह यह भी भूल गया कि मृत्यु उसकी प्रतीक्षा कर रही
है-क्योंकि
मृत्यु भी तो एक विचार है। वह मृत्यु के बारे में ही भूल गया, वह अपने जीवन
के बारे में भी भूल गया, वह बस खेल का एक भाग बनकर रह गया और
उसमें पूरी तरह डूब गया।
जैसे-जैसे
मन पूरी तरह विसर्जित हुआ,
उसने बहुत सुंदर खेलना शुरू कर दिया। वह इस तरह से आज तक कभी न
खेरना था। शुरू में वह भिक्षु जीत रहा था, लेकिन कुछ ही
मिनटों में जब वह युवा खेल में पूरी तरह
गया तो उसने कुछ चालें बहुत लाजवाब चली और उस भिक्षु के कुछ मोहरे पिट गए।
उसके लिए केवल वर्तमान में उस क्षण का ही अस्तित्व रह गया। तब उसके लिए कोई समस्या
रही ही नहीं। शरीर बिलकुल ठीक हो गया, कांपना रुक गया। पसीना
भाप बनकर उड़ गया। वह एक भाररहित हल्के पंख जैसा हो गया। पसीने ने भी उसकी सहायता
की-वह भारहीन बन गया, उसके पूरे शरीर को यों लग रहा था कि
जैसे वह उड़ सकता है। उसका मन तो वहां रहा ही नहीं। उसका बोध पूरी तरह स्पष्ट और
पारदर्शी हो गया और अब वह आगे चलने वाली पांच चालों को भली- भांति देख सकता था। वह
इतनी सुंदर और कलात्मक शतरंज आज तक न खेला था। भिक्षु का खेल अब बिगड़ना शुरू हो
गया था और कुछ मिनटों में ही वह हारने ही वाला था। उस युवा की जीत जैसे निश्चित थी।
तभी अचानक जब उसकी दृष्टि निर्मल और पारदर्शी हुई, जब बोध
गहरा और
गूढ़ हुआ, उसने उस भिक्षु की ओर देखा, जो बिल्कुल निर्दोष था। बारह वर्षों के ध्यान और कष्टसाध्य जीवन बिताते हुए वह एक पुष्प की भांति खिला हुआ, पूरी तरह शुद्ध और पवित्र हो गया था। न कोई कामना, न कोई विचार, न कोई लक्ष्य और न जीवित रहने के लिए कोई कारण उसके पास रह गया था। जितना निर्दोष होना सम्भव है, अच्छे के वह उतना ही भोला लग रहा था, यहां तक कि एक छोटे बच्चे से भी अधिक निर्दोष। उसका सुन्दर चेहरा, उसकी पारदर्शी आकाश जैसी नीली आंखें. .उन्हें देखकर उस युवा के चित्त में उसके प्रति अपार करुणा का अनुभव होना शुरू हो गया.. .देर-सवेर
उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। जिस क्षण उसने इस करुणा का अनुभव किया, उसके लिए अज्ञात द्वार खुल गए और कोई पूरी तरह अनजानी चीज उसके हृदय में प्लावित होने लगी। वह जैसे परमानन्द में डूब गया। उसके आंतरिक अस्तित्व की खिलावट से जैसे चारों ओर पुष्प बरसने लगे। वह इतने अधिक परमानन्द का अनुभव कर रहा था जिसे उसने आज तक न जाना था और उस पर जैसे चारों ओर से आशीर्वाद बरस रहे थे।
गूढ़ हुआ, उसने उस भिक्षु की ओर देखा, जो बिल्कुल निर्दोष था। बारह वर्षों के ध्यान और कष्टसाध्य जीवन बिताते हुए वह एक पुष्प की भांति खिला हुआ, पूरी तरह शुद्ध और पवित्र हो गया था। न कोई कामना, न कोई विचार, न कोई लक्ष्य और न जीवित रहने के लिए कोई कारण उसके पास रह गया था। जितना निर्दोष होना सम्भव है, अच्छे के वह उतना ही भोला लग रहा था, यहां तक कि एक छोटे बच्चे से भी अधिक निर्दोष। उसका सुन्दर चेहरा, उसकी पारदर्शी आकाश जैसी नीली आंखें. .उन्हें देखकर उस युवा के चित्त में उसके प्रति अपार करुणा का अनुभव होना शुरू हो गया.. .देर-सवेर
उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। जिस क्षण उसने इस करुणा का अनुभव किया, उसके लिए अज्ञात द्वार खुल गए और कोई पूरी तरह अनजानी चीज उसके हृदय में प्लावित होने लगी। वह जैसे परमानन्द में डूब गया। उसके आंतरिक अस्तित्व की खिलावट से जैसे चारों ओर पुष्प बरसने लगे। वह इतने अधिक परमानन्द का अनुभव कर रहा था जिसे उसने आज तक न जाना था और उस पर जैसे चारों ओर से आशीर्वाद बरस रहे थे।
तब
उसने जान-बूझकर गलत चालें चलना शुरू कर दीं, क्योंकि उसके मन में यह विचार आया,
' यदि मैं मरा तो कुछ भी बरबाद न होगा, मेरे
जीवन का मूल्य ही क्या है, लेकिन यदि यह भिक्षु मरा तो कोई
बहुत ही सुन्दर चीज नष्ट हो जाएगी, जबकि मेरे लिए मेरा
अस्तित्व निरर्थक है।'
उसने
होशपूर्वक उस भिक्षु को जिताने के लिए गलत चालें चलनी शुरू कर दीं। इसी क्षण सद्गुरु
ने मेज पर बिछी शतरंज को उलट दिया और हंसना शुरू कर दिया। उसने कहा-’‘ यहां कोई
भी हारने नहीं जा रहा है। तुम दोनों ही जीत गए। ‘‘ यह भिक्षु
तो पहले ही से स्वर्ग में था, वह वहां पहुंच ही गया था,
उसका सिर काटने की कोई जरूरत थी ही नहीं। उसके लिए उस समय भी
परेशानी की कोई बात न थी, जब सद्गुरु ने कहा था-’‘ बाजी हारने पर तेरा सिर काट दिया जाएगा। ‘‘ उसके मन
में तब भी कोई विचार उठा ही न था-उसके लिए चुनाव करने का कोई प्रश्न ही न था-यदि
सद्गुरु कहता है-ऐसा होने जा रहा है तो ठीक है। उसने अपने पूरे हृदय से ' हां ' कहा था। इसी वजह से शतरंज खेलते हुए न तो वह
कांपा, और न उसके पसीने छूटे। वह बस शतरंज खेल रहा था,
मृत्यु उसके लिए कोई समस्या न थी। सद्गुरु ने उस युवा से कहा-’‘
तुम जीत गए और तुम्हारी विजय इस भिक्षु से भी अधिक महान है। अब मैं
तुम्हें दीक्षा दूंगा। तुम यहां रह सकते हो और शीघ्र ही तुम
बुद्धत्व को प्राप्त हो जाओगे। ‘‘
बुद्धत्व को प्राप्त हो जाओगे। ‘‘
दोनों
आधारभूत चीजें घट गईं,
ध्यान और करुणा। बुद्ध ने कहा-दो ही चीजें
सारभूत हैं-प्रज्ञा और करुणा।
सारभूत हैं-प्रज्ञा और करुणा।
उस
युवा ने कहा-’‘
कृपया मुझे स्पष्ट करें। मुझे कुछ तो घटा है जिसके बारे में मैं कुछ
भी नहीं जानता। मैं अब बदल गया हूं। मैं अब वह मनुष्य नहीं रहा, जो आपके पास कुछ घंटों पहले. आया था। वह आदमी अब मर चुका है। कुछ चीज घटी
है- आपने तो चमत्कार कर दिया। ‘‘
सद्गुरु
ने कहा.-’‘क्योंकि मृत्यु इतनी आसन्न थी कि तुम कुछ भी सोच न सके। विचार-प्रक्रिया
रुक गई। मृत्यु इतनी निकट थी कि सोच--विचार करना सम्भव था ही नहीं। मृत्यु इतनी
अधिक पास थी कि तुममें और मृत्यु के बीच कोई अंतराल न रहा, जबकि
विचारों को गतिशील होने के. लिए स्थान और समय की जरूरत होती है, वहां कोई स्थान बचा ही न था इसीलिए सोच-विचार रुक गया और स्वाभाविक रूप से
ध्यान घटित हो गया, लेकिन यह काफी न था, क्योंकि इस तरह का ध्यान आपात संकट की घड़ी के कारण घटता है, जो शीघ्र ही खो जाता है। जब वह घड़ी गुजर जाती है, ध्यान
खो जाता है। इसलिए उस क्षण मैं शतरंज के बोर्ड को उलट न सका, मैं उसके लिए प्रतीक्षा करता रहा। ‘‘
यदि
वास्तव में ध्यान घटता है,
उसका कोई भी कारण हो, करुणा उसका अनुसरण करती
है। करुणा, खिलावट है ध्यान की। यदि करुणा नहीं आ रही तो
तुम्हारा ध्यान कहीं गलत है, वह तुम्हें घटा ही नहीं।
तब
मैंने तुम्हारे चेहरे की ओर देखा। तुम परमानन्द से भरे हुए थे और तुम्हारे नेत्र बुद्ध
के नेत्रों की तरह हो गए थे। तुमने उस भिक्षु की ओर देखा और तुमने महसूस करते हुए
सोचा-' इस भिक्षु के जीवन की अपेक्षा, अच्छा होगा यदि मैं
ही अपने को बलिदान कर दूं क्योंकि अपने जीवन से तुम्हें भिक्षु का जीवन अधिक
मूल्यवान लगा। '
यही
करुणा है-जब तुमसे अधिक मूल्यवान दूसरा हो जाता है। जब तुम दूसरे के लिए अपने को
बलिदान कर सकते हो-यही प्रेम है। जब तुम साध्य बन जाते हो और दूसरे का प्रयोग जब
एक साधन की तरह किया जाता है, तब वह वासना होती है। वासना सदा निर्दयी होती
है और प्रेम हमेशा करुणामय।
तब
मैंने तुम्हारी आंखों में उदय होती हुई करुणा देखी और तुमने स्वयं हार जाने के लिए
गलत चालें चलना शुरू कर दीं, जिससे यह भिक्षु बच जाए और तुम मार दिए जाओ।
उसी क्षण मुझे शतरंज के बोर्ड को उलट देना पड़ा। तुम जीत गए। अब तुम यहां रह सकते
हो। मैंने तुम्हें ध्यान और करुणा दोनों सिखा दीं। अब तुम इसी लीक का अनुसरण करो,
ताकि वे तुममें सहज रूप से घटने लगें-वे परिस्थितिजन्य न हो,
किसी आपात संकट की घड़ी पर आश्रित न हों, बल्कि
वे तुम्हारे अस्तित्व का एक गुण हों। ‘‘
अपने
हृदय में अपने साथ इस कहानी का बोध सदा साथ लिए चलो। इसे अपने हृदय की धड़कन बना लो।
तुम्हारी जड़ें ध्यान में हों तो तुम्हें करुणा के पंख मिलेंगे ही। इसी वजह से मैं
कहता हूं कि मैं तुम्हें दो चीजें देना चाहता हूं। इस पृथ्वी में जमाने के लिए
जड़ें और स्वर्ग के लिए पंख। ध्यान यह पृथ्वी है, वह यहां और अभी है और इसी क्षण
तुम उसमें अपनी जड़ें फैला सकते हो। इसे करना ही है। एक बार जब वहां जड़ें जम जाएंगी,
तुम्हारे पंख जितनी अधिक ऊंचाई तक ले जाना सम्भव होगा, तुम्हें आकाश में ले जाएंगे। करुणा ही वह आकाश है और ध्यान ही वह पृथ्वी
है। जब ध्यान तथा करुणा दोनों मिल जाते हैं, एक नए बुद्ध का
जन्म जोता है।
ध्यान
में गहरे और गहरे उतरते जाओ, जिससे तुम करुणा के आकाश में अधिक- से- अधिक
ऊंचाइयों तक जा सको। वृक्ष की जड़ें जितनी गहराई में जाती हैं, वह उतनी ही ऊंचाई के शिखर तक जाता है। तुम वृक्ष को देख सकते हो, तुम उसकी जड़ों को नहीं देख सकते, लेकिन वे हमेशा इसी
अनुपात में होती हैं। यदि वृक्ष आकाश तक पहुंच रहा हो तो जड़ें भी पृथ्वी के अंत
में पाताल तक पहुंच रही हैं। अनुपात वही है। जितने गहरे तुम ध्यान में जाओगे,
वही गहराई करुणा में भी उपलब्ध होगी। इसलिए माप दण्ड है-करुणा। यदि
तुम सोचते हो कि तुम ध्यान कर रहे हो और वहां कोई
करुणा-नहीं है, तब तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो और वहां कोई करुणा नहीं है, तब तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो। करुणा घटना ही चाहिए क्योंकि वही वृक्ष की खिलावट है। ध्यान करुणा की ओर ठीक एक साधन है और करुणा यही लक्ष्य का साध्य है।
करुणा-नहीं है, तब तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो और वहां कोई करुणा नहीं है, तब तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो। करुणा घटना ही चाहिए क्योंकि वही वृक्ष की खिलावट है। ध्यान करुणा की ओर ठीक एक साधन है और करुणा यही लक्ष्य का साध्य है।
अपने
को अधिक-से- अधिक सजग बनाओ। अपना ही नाम लेकर स्वयं को आवाज दो और अधिक सजगता उत्पन्न
करते हुए उसका उत्तर भी दो। जब वास्तव में तुम सजग बन -जाओगे, तुम्हें
एक नई ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन का अनुभव .होगा। तुममें करुणा घटेगी।
-करुणा के साथ परमानन्द बरसता है।
-करुणा के साथ आशीर्वाद बरसते हैं।
-करुणा के साथ दृढ़ विश्वास आता है।
क्या
कुछ और...?
प्रश्न
: प्यारे ओशो!
शिविर प्रारम्भ होने पर आपने कहा था-
''तुम लोग मेरे कार्य के विकास की एक नई स्थिति की ओर गतिशील
हो
रहे हो हम लोगों ने ध्यान में इसका अनुभव कि यार लेकिन सबसे
अधिक
महत्वपूर्ण तो यह है कि जैसा आपने हम लोगों से कहा था,
वह
तरीका ही बदल दिया आपने
एक
समय आपने उदाहरण के लिए हम लोगों से कहा था- तुम
कभी
मुझे बुद्धत्व को प्राप्त एक सदगुरू की भांति स्वीकार मन करो
और
अब आप ऐसा करने को कहते है
क्या
आप हमें अपने कार्य के इस नए आयाम के बारे में बताने की कृपा करेंगे ''
मैं
केवल उन चीजों के सम्बन्ध में ही बात कर सकता हूं जिन्हें तुम सुनने और समझने में
समर्थ हो। यह तुम पर ही निर्भर करता है। यदि तुम एक शिष्य बन गए हो तो मैं बहुत
सरलता से कह सकता हूं कि मैं एक सद्गुरु हूं लेकिन यदि तुम शिष्य नहीं हो तो
तुमसे यह कहना कि मैं एक सद्गुरु हूं केवल व्यर्थ ही होगा।
यदि
कोई ऐसा व्यक्ति आता है जिसमें मेरे लिए केवल कौतूहल ही है तो मैं उससे यह बात
नहीं कहूंगा,
क्योंकि वैसा कहना जरूरी न होगा। वह उसे समझेगा ही नहीं, वस्तुत : वह उसे गलत समझेगा। जब तुम लेने के लिए तैयार हो, केवल त भी मैं तुम्हें दे सकता हूं। अब जब तुम तैयार हो तो मैं बहुत-सी उन
बातों को कह सकता हूं जो आकस्मिक रूप से आने वाले दर्शनार्थियों से नहीं कही जा
सकतीं। उनमें उत्सुकता है लेकिन वह उथली है, वे कुछ भी ग्रहण
करने के लिए नहीं आए हैं। उनकी बुद्धि बच्चे की तरह क्रियाशील है वे बस हर चीज के
बारे में जानना चाहते हैं और -वे उसे
अपने अंदर गहराई में नहीं ले जाना चाहते।
अपने अंदर गहराई में नहीं ले जाना चाहते।
अब
मैं तुमसे बहुत- सी चीजों पर बात कर सकता हूं क्योंकि मैं जानता -हूं कि तुम उसे
गलत नहीं समझोगे। यदि तुम नहीं भी समझते हो तो इतना तो निश्चित है. तुम उसे गलत नहीं समझोगे। यह तुम लोगों को
विकसित करने की एक नई स्थिति है जो पहले ही से प्रारम्भ हो चुकी है। मैं उन्हीं
लोगों के साथ कार्य कर रहा हूं जो सजग संतुलित और समझदार हैं जो बेवकूफ बने नहीं
घूम रहे हैं। मैं उन्हीं लोगों पर कार्य कर रहा हूं जो वास्तव में उस बिंदु पर आ
गए हैं जहां वे रूपान्तरण चाहते हैं-जो वास्तव में ईमानदार और प्रामाणिक खोजी हैं
और वह सब कुछ करने को तैयार हैं जो मैं उनसे कहता हूं। उन लोगों के लिए में कह
सकता हूं-मैं बुद्धत्व को प्राप्त हूं। उन लोगों से मैं कह सकता हूं- ' मैं सद्गुरु
हूं। '
उनसे
मैं कह सकता हूं- '
मेरे पास आओ और मुझे पीयो, तुम्हारी प्यास
हमेशा- हमेशा के लिए बुझ जाएगी। '
यह
प्रत्येक से नहीं कहा जा सकता। यह उससे नहीं कहा जा सकता जो बस इधर से केवल गुजर
रहा हो या तुम्हें सड़क पर मिल जाता हो। तुम जितने अधिक तैयार होते जाओगे मैं
तुममें उतना ही अधिक अपने को उड़ेल सकता हूं। इससे पहले वहां तुम्हारे पात्र तो थे, लेकिन वे
औंधे रखे हुए थे। यदि मैंने उनमें उड़ेला भी होता तो वह व्यर्थ बरबादी ही होती। अब
तुममें से बहुत से इस स्थिति में हैं जहां तुम्हारे पात्र औंधे न रखे होकर सीधे
रखे हैं। अब मैं उनमें उड़ेल सकता हूं अब मैं यह विश्वास कर सकता हूं कि तुम उन्हें
खजाने की तरह सहेज कर रखोगे तुम उसे छिपाओगे, तुम उसे केवल
उन्हीं लोगों के साथ बांटोगे जो ईमानदार हैं जो खोजी हैं। बहुत से अन्य रहस्य भी
इसके बाद अनावृत्त किए जाते है लेकिन जैसे-जैसे तुम अधिक तैयार होते जाओगे वे इनका
अनुसरण करेंगे।
तुम्हारे
विकसित होने का एक नया दौर शुरू हो चुका है। अब मैं भीड़ या समूह पर कार्य नहीं
करूंगा और मैं उन सभी को छोड़ता जाऊंगा जो अन्य- अन्य कारणों से मुझे चारों ओर से
घेरे हुए हैं और जो आध्यात्मिक विकास के लिए आए ही नहीं हैं। वहां कई तरह के लोग
हैं और वे स्वयं इसके प्रति सजग नहीं हैं कि वे क्यों मेरे आस-पास मंडरा रहे
हैं-लेकिन मैं जानता हूं। मैं उन्हें अलग हटाता जाऊंगा और अब केवल थोड़े-से लोग ही
मुझे स्वीकार्य होंगे। यदि मैं तुम्हें अपने पास से हटा दूंगा
तो तुम इसे जानने में समर्थ न हो सकोगे कि मैंने ही तुम्हें हटाया है बल्कि तुम यही सोचोगे कि तुमने ही मुझे छोड़ दिया। अज्ञानी मन हमेशा इसी तरह से अपने को आश्वस्त करता है।
तो तुम इसे जानने में समर्थ न हो सकोगे कि मैंने ही तुम्हें हटाया है बल्कि तुम यही सोचोगे कि तुमने ही मुझे छोड़ दिया। अज्ञानी मन हमेशा इसी तरह से अपने को आश्वस्त करता है।
अब
मैं केवल थोड़े से चुने लोगों पर ही काम करूंगा और तुम जैसे-जैसे तैयार होते जाओगे
बहुत से रहस्य तुम्हें दिए जा सकते हैं और मैं उन पर आसानी से बातचीत करने मैं
समर्थ हो सकूंगा। तब मैं सच, केवल सच बोल सकता हूँ और तब मुझे झूठ बोलने की
जरूरत नहीं होगी। मैं वह नहीं कहूंगा जो तुम सुनना चाहते हो। नहीं, में वही कहूंगा जो वास्तव में मुझे तुमसे कहना चाहिए। अब भविष्य की
प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि भविष्य के बारे में कोई भी नहीं
जानता। यही है वह क्षण, जब तुम अपने को अधिक-से- अधिक खोल
सकते हो, जिससे तुम मुझे ग्रहण कर सको।
मैं
तुम्हें एक वृत्तान्त बताना चाहता हूं। यह घटना योरोप के समृद्धतम और सबसे अधिक
हरनी परिवार के एक प्रमुख बैरेन रोप्सचाइल्ड के साथ घटी। एक दिन वह अपने उद्यान
में खड़ा हुआ था और एक व्यक्ति जो भिखारी और फेरीवाले की तरह दिखाई देता था, उसके पास
आया और उससे एक लॉटरी टिकट खरीदने का आग्रह करते हुए बोला-’‘ कृपया आगे बढ़िए और इस संयोग का लाभ उठाइए। ‘‘
बैरेन
उससे पीछा छुड़ाना चाहता था। उसने कहा-’‘ मैं -इस लॉटरी टिकट का करूंगा
क्या? मेरे पास पहले से काफी धन है और मुझे इसकी जरूरत नहीं
है। ‘‘ उस भिखारी ने कहा- ‘‘ काफी किसी
के भी पास नहीं है। एक अवसर लीजिए। कौन जानता है- आप जीत ही जाएं। ‘‘
इसलिए
उस बकवास से छुटकारा पाने के लिए उसने एक टिकट खरीद लिया। अगली सुबह उसी व्यक्ति
ने दरवाजा खटखटाते हुए कहा-’‘ देखिए! आप दस लाख डालर जीत गए। ‘‘
बैरेन
बहुत खुश हुआ। आभार व्यक्ति करने के लिए उसने कहा-’‘ मैं सोचता हूं तुम्हें
इसका पुरस्कार मिलना चाहिए। ‘‘
तब
बैरेन ने सोचकर कहा-’‘मैं तुम्हें पच्चीस हजार डालर ठीक अभी इसी क्षण दे सकता हूं अथवा तुम्हें
आजीवन दस हजार डालर प्रति वर्ष दे सकता हूं। तुम इन दोनों में किसे चुनना चाहोगे?‘‘
वह
व्यक्ति तीस-पैंतीस वर्ष से अधिक आयु का न था। उसका स्वास्थ्य भी ठीक था और उसके
कम-से-कम तीस चालीस वर्ष या उससे भी अधिक जीने की सम्भावना थी। चालीस वर्ष तक दस
हजार डालर प्रति वर्ष के हिसाब से चार सौ हजार डालर होते हैं और अभी केवल पच्चीस
हजार डालर। उस भिखारी ने केवल एक क्षण सोचकर कहा-’‘ आप कृपया मुझे अभी पच्चीस
हजार डालर ही दे दीजिए। ‘‘
यह
सुनकर बैरेन भी उलझन में पड़ गया। उसने कहा-’‘ तुम फिर से विचार करो। तुम क्या
कर रहे हो? मैं कहता हूं तुम अपने जीवन- भर दस हजार डालर
प्रति वर्ष पाते रहोगे। ‘‘
उस
व्यक्ति ने कहा-’‘
मैं ठीक अभी पच्चीस हजार डालर का ही विकल्प चुनना चाहूंगा क्योंकि
रोप्सचाइल्ड के पास जैसा भाग्य है, उसे देखते हुए यदि मैं दूसरा
विकल्प चुनता तो मैं छ: महीने से अधिक
जीवित न रह सकूंगा। आप कृपया मुझे अभी दे दीजिए। अगला क्षण तो अनिश्चित है। कृपया
समय नष्ट मत कीजिए। ‘‘
यही
मैं तुमसे कहना चाहता हूं। अभी इसी क्षण मैं यहां उपलब्ध हूं। भविष्य की प्रतीक्षा
मत करें, क्योंकि कौन जानता है.. अपना हृदय खोलें, अधिक-से-
अधिक ग्राह्यता उत्पन्न करें और मेरे साथ लयबद्ध हो जाएं। हर चीज सम्भव है। इसी
क्षण मैं तुम्हें पूरे रहस्य की कुंजी दे सकता हूं।
तुम्हें
विकसित करने का यह नया दौर शुरू हो चुका है। अब इसके लिए तैयार हो जाए क्योंकि यह
प्रश्न मुझसे संबंधित न होकर तुमसे ही संबंधित है। तुम उतना ही प्राप्त कर सकते हो
जितनी तुम्हारी क्षमता और सीमा है। यदि तुम पूरी तरह खुले हुए हो तो वह असीमित है।
पूरा सागर ही तुम्हारी बूंद में गिरने के लिए तैयार है, लेकिन बूंद
भयभीत है। वह अपने को बचाने की कोशिश कर रही है।
अभी
तक जितने महान रहस्यदर्शी जन्मे हैं, उनमें से एक कबीर ने दो बातें कहीं
हैं। उन्होंने कहा है-’‘ प्रारम्भ में जब मैं परमात्मा को
खोज रहा था, मैं यह सोचता था कि मेरे जीवन के पानी की बूंद
परमात्मा के सागर में गिरकर खो जाए लेकिन जब वास्तव में ऐसा घटा तो वह बिलकुल
अन्यथा अनुभव था-सागर ही मेरी छोटी-सी बूंद पर गिर पड़ा। ‘‘
हमेशा
अन्यथा ही घटता है। तुम परमात्मा से मिलने नहीं जा रहे हो, परमात्मा ही
तुमसे मिलने आ रहा है। तुम उसे कैसे खोज सकते हो? तुम उसके
बारे में उसका अता-पता ठिकाना कुछ भी तो नहीं जानते। वह निरन्तर तुम्हारी ही खोज
में है और तुम जब भी तैयार होगे, सागर तुममें गिर पड़ेगा।
ध्यान
तुम्हें तैयार बनाएगा,
करुणा तुम्हें विकसित करते हुए निर्दोष बनाएगी। इसलिए अपने साथ इन
दो मंत्रों प्रज्ञा ( ध्यान) और करुणा को साथ लिए हुए चलो। इन दोनों को ही अपना
लक्ष्य बना लो। तुम्हारा पूरा जीवन इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता रहे और बहुत शीघ्र
तुम इनके साथ लयबद्ध हो जाओगे। तब मैं अपने को तुममें उड़ेल सकता हूं।
क्या
कोई बात और?
प्रश्न
: प्यारे ओशो!
आपने कहा- ध्यान खिलावट है और हम
लोगों
के लिए इस पुष्प की सुवास ही कृतज्ञता और अहोभाव हैं क्या
वहां
कोई चीज ऐसी भी है?
जिसे हम आपके लिए कर सकते है
हां!
ध्यान, करुणा और अहोभाव जब भी तुम ध्यानपूर्ण होते हो, जब
भी तुम करुणा से भरे होते हो, तुम परम आनन्द का अनुभव करते
हो और तब कृतज्ञता और अहोभाव का जन्म होता है। किसी एक विशेष व्यक्ति के लिए नहीं
बस अहोभाव होता है। वह मेरे प्रति, जीसस या जरथुस्त के प्रति
या बुद्ध के प्रति नहीं है, वह बस अहोभाव है। तुम कृतज्ञता
का इसलिए अनुभव करते हो क्योंकि इस क्षण तुम यहां हो, इसी
क्षण अपनी जीवन्तता के साथ ध्यानपूर्ण होने में समर्थ हो और साथ-ही- साथ करुणावान
भी हो रहे हो। तुम इसीलिए कृतज्ञता का अनुभव कर रहे हो। यह कृतज्ञता
और अहोभाव किसी एक के प्रति न होकर अखण्ड अस्तित्व के प्रति है।
और अहोभाव किसी एक के प्रति न होकर अखण्ड अस्तित्व के प्रति है।
यदि
तुम मेरे प्रति कृतज्ञता का अनुभव करते हो तो यह मन की ही कृतज्ञता है। यदि तुम
ध्यान करोगे और यदि करुणा का फूल खिलेगा तो तुम्हें अनुभव होगा कि यह कृतज्ञता और
अहोभाव मेरे प्रति न होकर मात्र कृतज्ञता है। तब यह किसी के भी प्रति नहीं
होती-तुम बस सभी के प्रति अहोभाव से भरे होते हो। जब तुम सभी के प्रति कृतज्ञता का
अनुभव करते हो,
तब वास्तव में वह कृतज्ञता मेरे ही प्रति होती है, जैसे पहले कभी नहीं हुई। तब वह एक चुनाव होता है। तुम मुझे चुनते हो। तब तुम्हारे
लिए सद्गुरु ही दिशा-निर्देशक बन जाता है, पूरा अस्तित्व
नहीं।
हर
कहीं यही सब कुछ हो रहा है। शिष्य गुरु के साथ तालमेल बैठा लेते हैं और गुरु
उन्हें जमने में सहायता करता है। यह ठीक नहीं है। यह यही व्यवस्था है।
जब
वास्तव में तुम्हारी खिलावट होती है, तब तुम्हारी खुशबू किसी एक के लिए
नहीं होती जब वास्तविक खिलावट होती है तो उसकी सुवास सभी दिशाओं में फैल जाती है।
वह सुवास सभी ओर चतुर्दिक छा जाती है और जो भी उसके निकट से होकर गुजरता है,
वह उस सुवास से भर जाता है और तुम्हारी सुवास को अपने-साथ लिए चलता
है। यदि उधर से कोई भी नहीं गुजरता तो उस शांत अकेले पथ पर तुम्हारी सुवास आगे
फैलती ही जाती है, पर वह किसी विशेष नाम पते वाले व्यक्ति के
लिए नहीं होती। सदा स्मरण रहे, मन का संदेश हमेशा किसी
व्यक्ति को सम्बोधित होता है। अस्तित्व कभी किसी विशेष व्यक्ति की ओर उम्मुख न
होकर सभी के लिए होता है। मन हमेशा किसी वस्तु या व्यक्ति की ओर गतिशील होता है,
अस्तित्व सभी ओर गतिशील होता है। उसका परिभ्रमण बिना किसी लक्ष्य के
है। लक्ष्य होता है, गति प्रदान करने वाले साधन के कारण। तुम
किसी वस्तु की ओर गतिशील होते हो क्योंकि वहां कामना है। जब वहां कोई कामना ही
नहीं होती तो तुम कैसे किसी वस्तु या व्यक्ति की ओर जाओगे? वहां
गति तो होती है, पर कोई उद्देश्य नहीं होता। तब तुम सभी दिशाओं
में परिभ्रमण करते हो, तब तुम अतिरेक से बहते हो। तब
तुम्हारा सद्गुरु हर
कहीं सर्वच्च होता है तब मैं भी हर जगह हूं। और केवल जब तुम इस बिंदु तक आते हो तुम सद्गुरु से भी मुक्त हो जाते हो, तब तुम सभी सम्बन्धों से मुक्त होते हो, तुम सभी की उपस्थिति से और सभी बन्धनों से मुक्त हो जाते हो। यदि कोई सद्गुरु तुम्हें स्वयं से अलग और स्वतंत्र नहीं कर सकता तो वह सद्गुरु है ही नहीं।
कहीं सर्वच्च होता है तब मैं भी हर जगह हूं। और केवल जब तुम इस बिंदु तक आते हो तुम सद्गुरु से भी मुक्त हो जाते हो, तब तुम सभी सम्बन्धों से मुक्त होते हो, तुम सभी की उपस्थिति से और सभी बन्धनों से मुक्त हो जाते हो। यदि कोई सद्गुरु तुम्हें स्वयं से अलग और स्वतंत्र नहीं कर सकता तो वह सद्गुरु है ही नहीं।
इसलिए
तुम्हें मेरे लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं। तुम अपने ही लिए कुछ करो। मेरे लिए इतना
ही करो- ध्यान और करुणा। जब सुवास आएगी, मन के विचारों द्वारा नहीं.. .ठीक
अभी तुम अनुभव करते हुए सोच रहे हो, हमें क्या करना चाहिए?
सद्गुरु को कैसे कुछ अर्पित करना चाहिए-उसने हमारे लिए इतना कुछ
किया है, अब हमें उसके लिए क्या करना चाहिए….तब यह मन ही है,
जो लेने और देने की भाषा में सोच रहा है। नहीं, इस मन से कुछ भी मदद न मिलेगी। तुम मेरे लिए बस एक ही चीज कर सकते हो,
अपने इस मन को गिरा दो, अपने अस्तित्व को
खिलने दो, तब तुम महक उठोगे। तब सभी दिशाएं और सभी आयाम और
पूरा अस्तित्व आनन्दित होगा।
तुम परमानंद से भर उठोगे और तब तुम्हारा अहोभाव संकुचित न होगा। वह किसी बिंदु की ओर न होकर, वह हर कहीं सर्वत्र परिभ्रमण करेगा। केवल तभी तुम प्रार्थना को उपलब्ध होगे। यह अहोभाव ही प्रार्थना है।
तुम परमानंद से भर उठोगे और तब तुम्हारा अहोभाव संकुचित न होगा। वह किसी बिंदु की ओर न होकर, वह हर कहीं सर्वत्र परिभ्रमण करेगा। केवल तभी तुम प्रार्थना को उपलब्ध होगे। यह अहोभाव ही प्रार्थना है।
जब
तुम किसी मंदिर में जाकर प्रार्थना करते हो, वह प्रार्थना नहीं होती। जब करुणा
के बाद अहोभाव उत्पन्न होता है तो पूरा अस्तित्व ही एक मंदिर बन जाता है। तुम
जिसको भी स्पर्श करते हो, वह प्रार्थना ही हो जाता है,
तुम जो भी करते हो वह प्रार्थना पूर्ण बन जाता है। तुम अन्यथा नहीं
हो सकते। गहराई तक तुम्हारी जड़ें जमी हैं, तुम ध्यान में
स्थिर हो गए हो और तुम्हारे ही अंतर की गहराई से करुणा प्रवाहित हो रही है,
फिर तुम अन्यथा हो ही नहीं सकते। तुम प्रार्थना बन जाते हो। तुम ही
अहोभाव बन जाते हो।
लेकिन
स्मरण रहे, मन हमेशा किसी-न-किसी ओर उत्सुख है। उसके पास एकलव्य होता है, उसे प्राप्त करने की कामना होती है। अस्तित्व न किसी ओर उन्मुख होता है,
न उसका कोई लक्ष्य होता है और न उसे कुछ प्राप्त करना होता है। अपने
होने का साम्राज्य उसने पहले ही से प्राप्त कर लिया है, सम्राट
पहले ही से सिंहासन पर विराजमान है। तुम गतिशील होते हो क्योंकि गतिशीलता ही जीवन
है, लेकिन किसी लक्ष्य की ओर गतिशील नहीं होना है और जब कोई
लक्ष्य नहीं होता, तब कोई तनाव भी नहीं होता। तब वह गतिशीलता
सुन्दर और अनुग्रहपूर्ण होती है।
आज
बस इतना ही...!
(समाप्त)
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