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शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-06


हैं साधारण होने का चमत्कार-प्रवचन-छठवां

मनुष्य होने की कला--(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा:
एक दिन झेन सदगुरू बांके अपने शिष्यों के साथ शांति से बैठा
कुछ चर्चा- परिचर्चा कर रहा था, तभी एक दूसरे पंथ के धर्माचार्य ने
उसकी बात चीत में विध्न डाल दिया, यह पंथ चमत्कारों की शक्ति में
विश्वास रखता था और उसका मानना था कि मुक्ति पवित्र मंत्री के
निरंतर उच्चारण से मिलती है बांके ने चचा-परिचर्चा रोककर उस
धर्माचार्य से पूछा- '' आप क्या कहना चाहते है?''
उस धर्माचार्य ने शेखी बधारते हुए कहा- '' उसके धर्म के संस्थापक
नदी के एक किनारे पर खड़े होकर अपने हाथ में लिए हुए बुश से?
नदी के दूसरे किनारे पर खड़े अपने शिष्य के हाथ में थमे कोरे कागज
पर पवित्र नाम लिख सकते हैं।''
फिर उस धर्माचार्य ने बांके से पूछा-- '' आप क्या चमत्कार कर सकते हें?''
बांके ने उत्तर दिया- '' केवल एक हुई चमत्कार में जानता हूं, जब
मुझे भूख लगती है? मैं भोजन करता हूं और जब मुझे कम लगती है? मैं पानी पीता है।''


केवल एक ही चमत्कार है, जो असंभव जैसा है और वह है बस सहज साधारण बनकर रहना। मन की कामना होती है- असाधारण बनना। अहंकार, पहचान बनाने के लिए प्यास और भूखा रहता है। अहंकार का भोजन है पहचान, लोग उसे जानें कि तुम कुछ हो। कोई अपने इस स्वप्न को धन द्वारा पूरा करता है, कोई दूसरा इस सपने को सत्ता, शक्ति और राजनीति के द्वारा और कोई अन्य इसे चमत्कारों और चालबाजियों द्वारा पूरा करता है, लेकिन स्वप्न वहीं-का-वहीं का रहता है। मैं अपने आपको कुछ नहीं होना बरदाश्त नहीं कर सकता और चमत्कार यही है, तब तुम अपने को कुछ नहीं होना स्वीकार कर लेते हो, जब तुम ठीक वैसे ही साधारण हो जाते हो, जैसे कि दूसरे हैं। जब तुम किसी पहचान की मांग नहीं करते, जब तुम यों रहते हो जैसे तुम हो ही नहीं।
यह कहानी बहुत सुंदर है, झेन के सबसे अधिक सुंदर वृत्तांतों में से एक, और बांके सर्वश्रैष्ठ झेन सद्‌गुरुओं में एक हैं। बांके वास्तव में एक साधारण मनुष्य है। एक बार ऐसा हुआ कि बांके अपने बगीचे में काम कर रहा था। कोई खोजी, सद्‌गुरु की तलाश में आया और उसने बांके से पूछा-’‘ माली! सदगुरु यहां कहां रहते हैं? ‘‘
बांके हंसा और उसने कहा-’‘ जरा प्रतीक्षा करें। उस दरवाजे के पास जाएं, अंदर तुम सद्‌गुरु को पाओगे। ‘‘
इसलिए वह व्यक्ति घूमता हुआ उस दरवाजे के अंदर पहुंचा, उसने देखा कि सद्‌गुरु की चौकी पर वही व्यक्ति बैठा हुआ है जो बाहर माली का काम कर रहा था। उस व्यक्ति ने कहा-’‘ क्या तुम मजाक कर रहे हो? फौरन इस सद्‌गुरु की चौकी से नीचे उतरो। इस पवित्र आसन पर आरूढ़ होकर तुम अधार्मिक कृत्य कर रहे हो। तुम अपने सद्‌गुरु के प्रति जरा भी सम्मान नहीं रखते। ‘‘
बाँके चौकी से उतरकर नीचे जमीन पर बैठ गया और कहा-’‘ अब तुम्हारा उनसे मिलना कठिन है। अब तुम यहां सद्‌गुरु को न खोज पाओगे, क्योंकि मैं ही सदगुरु हूं। ‘‘
उस व्यक्ति के लिए यह देख पाना बहुत कठिन था कि एक महान सद्‌गुरु बगीचे में माली जैसा साधारण काम भी कर सकता है। वह चुपचाप वापस चला गया। वह विश्वास ही नहीं कर सका कि यह साधारण-सा व्यक्ति ही सद्‌गुरु था। वह उससे चूक गया।
हम सभी किसी असाधारण की खोज मैं हैं, लेकिन तुम क्योंकि असाधारण की खोज में हो! यह इस कारण क्योंकि तुम भी असाधारण बनना चाहते हो। एक साधारण सद्‌गुरु के साथ तुम कैसे असाधारण और अद्वितीय बन सकते हो।
बांके चर्चा --परिचर्चा कर रहा था, उपदेश दे रहा था कि एक आदमी आकर खड़ा हो गया और उससे पूछा.।
वह व्यक्ति किसी दूसरे ऐसे पंथ का था, रहो पवित्र मंत्र जाप के द्वारा साधना करते
स्मरण रहे-मंत्र जाप अधिक शक्ति प्राप्त करने के लिए एक गुहा विधि है। मंत्र जाप, आध्यात्मिक प्रक्रिया न होकर राजीनतिक है, लेकिन यह राजनीति किसी बाहरी स्थान के लिए न होकर अंदर की शक्तियों के लिए हैं। मन शक्तिशाली बनना चाहता है, यदि तुम इसे संकरा करते हुए सिकोड़ते जाओ, मंत्रजाप वही विधि है। जितना अधिक संकरा और सिकुड़ा हुआ मन होगा, वह उतना ही शक्तिशाली बन जाता है। यह ठीक पृथ्वी पर पड़ती सूर्य की किरणों जैसा है, यदि तुम एक लैस के द्वारा इन किरणों को एक स्थान गर केंद्रित कर दो तो आग उत्पन्न हो सकती है। जो किरणें- चारों ओर गिरती हुई फैल गई थीं, वे ही अब लैंस के द्वारा संकरी और तंग होकर एक जगह इकट्ठी हो गई हैं। वे एक बिंदु पर सघन हो गई हैं और अब आग का प्रकट होना संभव है।
मन एक ऊर्जा है और वास्तव में ऐसी ही ऊर्जा सूर्य के द्वारा भी आती है, वैसी ही सूक्ष्म किरणों के द्वारा। भौतिक शास्त्रियों से पूछो, वे कहते हैं कि मन के पास भी एक विद्युत-शक्ति होती है, जो विद्युत ही है।
यदि तुम न को एक लैस द्वारा केंद्रित करो और एक मंत्र एक लैस ही है- और तुम राम, राम, राम अथवा ओर, ओम् या किसी भी चीज का कोई भी एक शब्द दोहराते जाओ, दोहराते ही जाओ.. .दोहराते और दोहराते ही जाओ तो मन की पूरी ऊर्जा उस शब्द पर केंद्रित हो जाती है और वह लैस बन जाता है। अब ऊर्जा की सभी किरणें उस लैस के द्वारा ही गुजरती हुई एक बिंदु पर संकरी व सघन हो जाती हैं। वे शक्तिशाली बन जाती हैं और अब तुम चमत्कार कर सकते हो। केवल सोचने मात्र से तुम चमत्कार कर सकते हो।
लेकिन स्मरण रहे -यह चमत्कार आध्यात्मिक नहीं है। कोई भी शक्ति आध्यात्मिक नहीं होती। शक्तिहीनता, असहायता, कुछ भी न होना ही आध्यात्मिक है, शक्ति कभी आध्यात्मिक नहीं होती। यही अंतर है जादू और धर्म में जादू है शक्ति की खातिर और धर्म है शून्यता की खातिर।
एकमंत्र भी एक जादू का ही एक भाग है, न कि धर्म का। धर्म का तो उससे कोई मतलब ही नहीं, लेकिन हर चीज इकट्ठी कर दी गई है, मिला दी गई है। जो लोग चमत्कार कर रहे हैं, वे केवल जादूगर हैं, अध्यात्म विरोधी हैं, क्योंकि वे धर्म के स्थान पर जादू का प्रसार कर रहे हैं, जो बहुत खतरनाक है।
मंत्र के द्वारा मन सीमित या संकीर्ण हो जाता है। वह जितना अधिक संकीर्ण होता जाता है, उतना ही अधिक शक्तिशाली होता जाता है, तब कुछ भी हो सकता है। तब वहां केवल एक चीज होती है कि तुम स्वयं से ही चूक जाते हो। अन्य सभी चमत्कार संभव है, लेकिन सर्वोच्च चमत्कार से तुम चूक जाओगे। तुम स्वयं से चूक जाओगे क्योंकि मन को संकीर्ण बनाते हुए किसी वस्तु को प्राप्त कर सकते हो। जितना अधिक संकुचित और सीमित हो जाएगा, मन उतना ही अधिक किसी वस्तु या पदार्थ पर स्थिर होकर पदार्थगत बन जाता है। तुम उसके पीछे छिप जाते हो और पदार्थ या वस्तु बाहर होती है।
इसलिए यदि तुम मंत्रसिद्ध मनुष्य हो तो तुम इस वृक्ष से कह सकते हो-’‘ सूख जाओ और वृक्ष मर जाएगा। ‘‘ तुम किसी व्यक्ति से कह सकते हो-’‘ स्वस्थ हो जाओ ‘‘ और बीमारी गायब हो जाएगी अथवा कह सकते हो, '' बीमार हो जाओ ‘‘ और बीमारी उसमें प्रविष्ट हो जाएगी। तुम बहुत-सी चीजें कर सकते हो। तुम कुछ बन सकते हो और लोग तुम्हें शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के रूप में पहचानेंगे, लेकिन तुम कभी परमात्मा को प्राप्त नहीं हो सकते।
परमात्मा को प्राप्त होने वाले व्यक्ति का तभी जन्म होता है, जब मन को बिकुल भी संकुचित किया ही नहीं जाता। जब मन एक ही दिशा की ओर प्रवाहित न होकर सभी दिशाओं में अतिरेक प्रवाह से छलकता हुआ बहता है। वहां न कोई मंत्र होता है और न लैस, केवल सभी दिशाओं में प्रवाहित ऊर्जा होती है। वह हर जगह अतिरेक से बहती हुई ऊर्जा ही तुम्हें, तुम्हारे स्वयं के प्रति सजग बनाती है। क्योंकि तब कोई वस्तु या पदार्थ नहीं होता। केवल तुम और केवल वैयक्तिता होती है और अपने स्वर्य के द्वारा ही तुम परमात्मा के प्रति सजग होते हो, न कि किसी. शक्ति के द्वारा।
इस व्यक्ति ने बांके से पूछा-’‘ आप किस तरह के चमत्कार हर सकते हैं? मेरे सद्‌गुरु तो मंत्रों और पवित्र नाम के जप द्वारा तमाम चमत्कार कर सकते हैं। वे नदी के एक किनारे पर खड़े होंगे और शिष्य अपने हाथों में कोरे कागज लिए नदी के दूसरे किनारे पर खड़े होंगे दोनों किनारे एक दूसरे से आधा मील दूर होंगे और वे इस किनारे से जो शब्द लिखेंगे, वह दूसरे किनारे पर खडे शिष्यों के कोरे कागजों पर अंकित हो जाएंगे। ऐसा हमारे सद्‌गुरु कर सकते हैं। आप क्या कर सकते हैं? ‘‘
और बांके ने कहा-’‘ हम तो यहां केवल एक ही चमत्कार जानते हैं और वह यह है कि जब मुझे भूख लगती है, मैं भोजन कर लेता हूं और जब मुझे नींद आती है, मैं सो जाता हूं। केवल इतना ही-इससे अधिक और कोई चमत्कार नहीं मेरे पास। ‘‘ तुम्हारा मन कहेगा-’‘ यह किस तरह का चमत्कार है? .इस पर गर्व करने जैसा कुछ है ही नहीं। ‘‘ लेकिन मैं तुमसे कहता हूं बांके ने असली या वास्तविक बात कही। यही है वह जो एक बुद्ध ही कर सकता है, यही है वह जो महावीर और जीसस कर रहे हैं। केवल तभी वह सूली पर झूलने वाले क्राइस्ट हैं, अन्यथा नहीं। जो कुछ वह कह रहा है वह कितनी साधारण चीज है। जब मुझे भूख लगती है, मैं भोजन करता हूं। क्या यह इतना कठिन है कि इसे चमत्कार कहा जाए? मैं कहता हूं यह तुम्हारे लिए कठिन है मन के लिए तो यह सर्वाधिक कठिन है- अपने को रोकना मत। जब तुम्हें भूख लगती है, मन कहता है, नहीं, आज तो धार्मिक दिन है और मैं उपवास पर हूं। जब तुम्हें भूख लगती तो मन कहता है, खा लो, क्योंकि इसी समय तो तुम प्रतिदिन भोजन करते हो। जब पेट ऊपर तक भरा होता है तो मन कहता है, खाते चलो, भोजन बहुत स्वादिष्ट है। तुम्हारा मन हस्तक्षेप करता है।
बांके क्या कह रहा है? वह कह रहा है-’‘ मेरे मन ने हस्तक्षेप करना बंद कर दिया है। जब मुझे भूख लगती है, मैं भोजन करता हूं और जब मुझे भूख नहीं लगती, मैं नहीं खाता। ‘‘
भोजन करना एक स्वाभाविक चीज बन गया है। अब मन निरंतर हस्तक्षेप नहीं करता। जब मुझे नींद आती है, मैं सौ जाता हूं। नहीं, तुम ऐसा नहीं कर रहे हो। तुम सोने के लिए भी केवल संस्कार वश जाते हो, तब नहीं जाते जब नींद आ रही होती है। तुम जागते भी संस्कारण वश हो क्योंकि एक ब्रह्म मुहूर्त है और चूंकि तुम एक हिंदू हो इसलिए तुम्हें सूर्योदय से पहले उठ जाना चाहिए। तुम हिंदू हो तुम उठ जाते हो। यह हिंदू कौन है? यह तुम्हारा मन है। तुम न हिंदू हो सकते हो और न मुसलमान। वहां अस्तित्व में तुम्हारे लिए कोई सम्प्रदाय है ही नहीं, वहां केवल मन है। यह मन ही कहता है, '' तुम एक हिंदू हो, तुम्हें अब उठ जाना चाहिए। ‘‘ इसलिए तुम उठ जाते हो। जब मन कहता है, ‘‘ अब समय हो गया। जाओ, जाकर सो जाओ, ‘‘ तुम सोने चले जाते हो। तुम मन का अनुसरण करते हो, प्रकृति का नहीं।
बांके कह रहा है, मैं प्रकृति के साथ बहता हूं मेरा पूरा अस्तित्व जो भी अनुभव करता है, मैं वही करता हूं। वहां नियंत्रित करने वाला खण्डित मन नहीं है और नियंत्रण करना ही एक समस्या है। तुम नियंत्रण किए चले जाते हो और यह शोर, हस्तक्षेप और मन का यह नियंत्रण करना ही समस्या है।
सपनों को भी तुम नियंत्रित करते हो। मनोवैज्ञानिकों से पूछो, वे कहते हैं कि जब तुम जागते हो, तुम्हारा नियंत्रण करना जारी रहता है। मन तुम्हें यह देखने की आज्ञा नहीं देता, जो वहां है, मन तुम्हें वह सुनने की भी आज्ञा नहीं देता जो तुमसे कहा जा रहा है, वह व्याख्या करता है। सपनों में भी तुम नकली और झूठे होते हो, क्योंकि मन तुम्हारे साथ कपटपूर्ण खेल खेले जाता है। फ्रॉयड ने खोज की कि हमारे स्वप्न भी नकली हैं। यदि तुम अपने पिता की हत्या करना चाहते हो तो सपने में तुम अपने पिता को नहीं मारते, तुम किसी और व्यक्ति को मारते हो जो तुम्हारे पिता जैसा दिखाई देता हो। तुम अपने पत्नी को विष देना चाहते हो, लेकिन सपने में तुम अपनी पत्नी को जहर
न देकर किसी ऐसी स्त्री को जहर देते हो, जो तुम्हारी पत्नी से मिलती जुलती हो। मन निरंतर हस्तक्षेप किए चले जाता है।
मैंने सुना है, एक मित्र अपने दूसरे मित्र से कह रहा था-’‘ कल रात मैंने क्या गजब का सपना देखा। क्या शानदार सपना था। मैं सपने में कोनी द्वीप गया, वहां ऐसी स्वादिष्ट आइसक्रीम और स्वादिष्ट रात्रि भोज का मजा लिया.. .मैंने अपने पूरे जीवन में ऐसा स्वादिष्ट भोजन कभी किया ही नहीं था। ‘‘
दूसरे व्यक्ति ने कहा था-’‘ तुम चिढ़ा रहे हो। तुम इसे अद्‌भुत सपना कहते हो? पिछली रात मैंने सपने में देखा कि मेरी एक बगल में एलिजाबेथ टेलर थी और दूसरी बगल में मर्लिन मुनरो और दोनों एकदम नंगी। ‘‘
दूसरे मित्र ने उत्तेजित होकर-’‘ तब तुमने मुझे बुलाया क्यों नहीं? ‘‘
उसने उत्तर दिया-’‘ मैंने तुम्हें आवाज दी थी, लेकिन तुम्हारी पत्नी ने कहा कि तुम पहले ही कोनी द्वीप चले गए हो। ‘‘
सपनों में भी मन संसार निर्मित करता रहता है, कोनी द्वीप, एलिजाबेथ टेलर और तुम्हें दूसरे के सपने के बारे में ईर्ष्या भी होती है, तुमने मुझे बुलाया क्यों नहीं? बांके कह रहा है-’‘ हम केवल एक ही चमत्कार जानते हैं। हम प्रकृति को उसकी अपनी गति से आने देते हैं। ‘‘
उसमें हस्तक्षेप करने से अहंकार आ जाता है, जितना अधिक तुम हस्तक्षेप करते हो, जितना अधिक तुम नियंत्रण करते हो, उतना ही अधिक तुम्हें कुछ होने का अनुभव होता है।
साधु-संन्यासियों को देखो! उनके अहंकार इतने परिष्कृत और सूक्ष्म हैं, इतने चमकीले हैं क्यों? क्योंकि उन्होंने प्रकृति की गति में सबसे अधिक हस्तक्षेप किया है, उतना अधिक हस्तक्षेप तो तुमने भी नहीं किया है। उन्होंने अपनी कामवासना को मार ही दिया है, उन्होंने अपने प्रेम को नष्ट कर दिया है, उन्होंने अपने क्रोध का दमन किया
है, उन्होंने अपनी भूख को पूरी तरह मार ही दिया है और उनका शरीर संवेदनहीन बन गया है। उनके अहंकारी होने का यही कारण है कि वे कुछ विशिष्ट हैं। जरा उनकी आंखों में झांकों, वहां सिवाय अहंकार के और कुछ भी नहीं है। उनके शरीर लगभग मृत हो गए हैं, लेकिन उनका अहंकार सर्वोच्च शिखर पर है। वे अहंकार के गौरीशंकर शिखर बन गए हैं।
यह सा! और भिक्षु वह सब कुछ समझने में असमर्थ हैं, जो बांके का अर्थ है। वह कहता है, हम एक ही चमत्कार जानते हैं, हम प्रकृति को अपनी गति से स्वयं चलने देते हैं। हम उसमें हस्तक्षेप नहीं करते। यदि तुम हस्तक्षेप नहीं करते तो तुम अनुपस्थित हो जाते हो। संघर्ष करना, वहां बने रहने का एक तरीका है।
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं, अहंकार को कैसे छोड़ा जाए? मैं उनसे कहता हूं उसे छोड़ेगा कौन? यदि तुम उसे गिराने या छोड़ने का प्रयास करोगे तो किसी के सामने तुम यह दावा करोगे-' मैंने अहंकार गिरा दिया ' यह दावा करने वाला है कौन? कौन कर रहा है यह दावा? यह अहंकार ही है और सबसे अधिक सूक्ष्म अहंकार हमेशा अहंकार शून्य होने का बहाना करता है।
मैं केवल एक ही चमत्कार जानता हूं प्रकृति को अपनी गति से स्वयं चलने देता हूं जो कुछ होता है, उससे राजी हो जाता हूं। हस्तक्षेप मत करो, उसके रास्ते में मत आओ और अचानक तुम रहोगे ही नहीं। बिना प्रतिरोध, संघर्ष, आक्रमण और बिना हिंसा किए तुम वहां हो ही नहीं सकते। अहंकार प्रतिरोध के द्वारा ही अस्तित्व में बना रहता है। यह बहुत गहराई से समझ लेने जैसा है। तुम जितना अधिक संघर्ष करो, तुम उतना ही अधिक वहां होगे।
सैनिक युद्ध करते हुए क्यों इतनी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं? युद्ध करना कोई ऐसी सुंदर चीज नहीं है, युद्ध तो बहुत कुरूप है, लेकिन सैनिक लड़ते हुए इतने खुश क्यों बने रहते हैं? यदि तुमने कभी भी युद्ध में भाग लिया है तो फिर तुम शांति में कभी भी प्रसन्न नहीं रहोगे क्योंकि युद्ध करते समय अहंकार अपने शिखर पर होता है। प्रतियोगिता में तुम इतनी प्रसन्नता का अनुभव क्यों करते हो? यह इसलिए क्योंकि दूसरों को पछाड़ते हुए अहंकार उठ खड़ा होता है और संघर्ष करते हुए तुम
शक्तिशाली हो जाते हो।
लेकिन दूसरे से लड़ना इतना अधिक अहंकार की पूर्ति नहीं करता क्योंकि तुम हार भी सकते हो-वहां यह संभावना भी बनी रहती है-लेकिन अपने से स्वयं लड़ते हुए तुम कभी नहीं हार सकते। तुम हमेशा जीतने वाले रहते हो। तुम्हारे सिवाय वहां कोई दूसरा नहीं होता। दूसरे से लड़ते हुए वहां असफल होने का भय बना रहता है, लेकिन तुम्हें स्वयं से लड़ने में कोई भय होता ही नहीं, तुम अकेले ही होते हो वहां। तुम आज नहीं तो कल जीतोगे, लेकिन अंतिम रूप में तुम जीतोगे ही क्योंकि तुम अकेले हो।
संन्यासी स्वयं अपने से ही संघर्ष कर रहा है, जबकि सैनिक दूसरों के विरुद्ध लड़ रहा है, व्यापारी भी दूसरों से संघर्ष कर रहा है, लेकिन संन्यासी स्वयं से ही लड़ रहा है। भिक्षु और संन्यासी अधिक चालाक होते हैं, उन्होंने ऐसा रास्ता चुना है, जहां उनकी जीत अनिवार्य है। तुम इतने हिसाबी-किताबी नहीं हो, तुम्हारा पथ जोखिम भरा है। तुम सफल भी हो सकते हो, तुम असफल भी हो सकते हो, और किसी भी क्षण तुम्हारी सफलता, असफलता में भी बदल सकती है, क्योंकि तुम्हारे चारों ओर वहां अनेक .लोग संघर्ष कर रहे हैं। तुम्हारा अस्तित्व इतना अधिक नगण्य और छोटा है कि तुम नष्ट भी हो सकते हो, लेकिन .जब तुम स्वयं से लड़ रहे हो तो, तुम अकेले हो, वहां
कोई प्रतियोगिता नहीं है। इसलिए वे लोग बहुत अधिक चालाक और बेईमान हैं, जिन्होंने संसार से पलायन कर स्वयं से लड़ना शुरूकर दिया है। जो लोग इतने चालाक नहीं हैं, वे लोग अधिक सरल हैं और संसार में दूसरों से लड़े जा रहे हैं, लेकिन मूलभूत आवश्यक चीज है-लड़ाई में बने रहना।
बांके कह रहा है-मैं संघर्ष करने वाला नहीं । मैं कभी भी लड़ता ही नहीं। जब मुझे भूख लगती है। मैं खा लेता हूं। जब मुझे नींद आती है, मैं सो जाता हूं। जब में जीवित हूं तो मैं जीवित हूं जब मौत आएगी मैं मर जाऊंगा। मैं रास्ते में आता ही नहीं। वह कहता है, ‘‘ केवल यही चमत्कार मैं जानता हूं। ‘‘
लेकिन इसे चमत्कार क्यों कहा जाए? सभी पशु इसे पहले ही से कर रहे हैं, वृक्ष भी इसे पहले ही से कर रहे हैं, पक्षी भी इसे पहले ही से कर रहे हैं और पूरा अस्तित्व इसे पहले ही से कर रहा है। इसे चमत्कार क्यों कहा जाए ' मनुष्य इसे नहीं कर सकता। यह पूरा अस्तित्व ही एक चमत्कार है, सिवाय मनुष्य के।
ईसाइयों की कहानी- आदम को ईडेन के बाग से बाहर निकाल दिया गया, बहुत अर्थपूर्ण दिखाई देती है, यह बहुत संगत और महत्वपूर्ण लगती है।
यह पूरा अस्तित्व एक निरंतर गतिशील चमत्कार है, यह एक अटूट अनुभूति है। प्रतिक्षण यहां चमत्कार होते ही रहते हैं। अस्तित्व अद्‌भुत है, लेकिन आदम उससे बाहर निकाल दिया गया है।
आदम उससे बाहर क्यों निकाला गया? कहानी कहती है क्योंकि उसने ज्ञान के वृक्ष का फल खा लिया था और परमात्मा ने उसके लिए मना किया था। परमात्मा ने कहा था, ‘‘ इस ज्ञान के वृक्ष का फल कभी मत खाना। सिवाय इसके सारे वृक्ष तुम्हारे उपयोग के लिए उपलब्ध हैं। ‘‘ लेकिन शैतान ने फुसलाया। वास्तव में उसने पहले ईव को ही फुसलाया, क्योंकि शैतान हमेशा स्त्री के द्वारा ही प्रवेश करता है। क्यों? क्योंकि स्त्री ही मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है वही सबसे कमजोर कड़ी है, जहां से शैतान प्रविष्ट हो सकता था, सीधे उसका पुरुष में प्रवेश करना कठिन है क्योंकि वह
उससे अच्छी खासी लड़ाई लड़ेगा और उसके लिए कठिनाई उत्पन्न करेगा, लेकिन स्त्री के द्वारा वह पुरुष को फुसला सकता है इसलिए शैतान ने ईव से कहा, ‘‘ केवल यही फल खाने जैसा है और यही वजह है कि परमात्मा ने इसे खाने से मना किया है। यदि तुम इस फल को खाओगी तो तुम भी परमात्मा जैसी हो जाओगी। वह तुमसे ईर्ष्या करता है, तुमसे डरता है। यदि तुमने इस फल को खा लिया तो तुम परमात्मा जैसी ही हो जाओगी। तुम स्वयं परमात्मा ही हो जाओगी। ‘‘
ईव अपने को रोकन सकी। प्रलोभन बहुत बड़ा था। उसने आदम को फुसलाया। आदम ने कहने का प्रयास भी किया-’‘यह ठीक नहीं होगा, क्योंकि परमात्मा ने इसे खाने से मना किया है। ‘‘
लेकिन जब परमात्मा और पत्नी के बीच चुनने की समस्या हो तो तुम अपनी पत्नी को ही चुनोगे। वास्तव में वहां कोई वास्तविक विकल्प है भी नहीं, क्योंकि वह चौबीस घंटे ऐसी मुसीबत खड़ी करेगी, जबकि परमात्मा इतनी अधिक मुसीबत खड़ी नहीं कर सकता।
इसलिए अंत में आदम को वह फल खाना ही पड़ा और जिस क्षण उसने फल खाया, वह अहंकार के प्रति सचेत हो गया, वह सजग. हो गया 'कि मैं हूं तुरंत ही वह-ईडेन के उद्यान से निष्कासित कर दिया गया।
यह बहुत सुंदर कहानी है और वास्तव में यह कहानी सभी रहस्यों की कुंजी है। ज्ञान ने ही तुम्हें इस अद्‌भुत संसार से निष्कासित कर दिया है, जो तुम्हारे अंदर ही है। इससे पहले आदम बने जैसा निर्दोष था-वह नंगा रहता था, लेकिन सजग नहीं था कि वह नंगा है, वह सजग नहीं था कि नंगे रहना कोई अपराध है। वह ईव से प्रेम करता था, लेकिन वह प्रेम स्वाभाविक था। वह कभी इसके प्रति सजग नहीं था कि वह कुछ भी गलत कर रहा है अथवा ऐसा करने में कोई पाप है।
ज्ञान से पहले वहां कोई पाप नहीं था। एक बच्चा कोई पाप कर ही नहीं सकता, केवल एक बूढ़ा आदमी ही पापी हो सकता है इसलिए सभी पापी बूढ़े ही होते हैं। एक बच्चा पापी नहीं हो सकता, वह स्वयं के प्रति भी सजग नहीं होता कि वह है भी। आदम एक बच्चे जैसा था। ईव भी एक बच्ची जैसी थी। वे आनंदित रहते थे, लेकिन वहां कोई और दूसरा था ही नहीं जो आनंद मना रहा हो।
वे इस रहस्य और चमत्कार के एक भाग थे। जब उन्हें भूख लगती थी, वे खा लेते थे, जब उन्हें नींद आती थी, वे सो जाते थे। वे जब प्रेम करने जैसा महसूस करते थे, प्रेम कर लेते थे। हर चीज एक प्राकृतिक घटना होती थी। तब वहां मन नहीं था, जो नियंत्रित करे। वे पूरे अस्तित्व के एक भाग थे, जो नदी की तरह बहे जा रहे थे, वृक्षों की तरह पुष्पित हो रहे थे, पक्षियों की भांति गीत गा रहे थे, वे एक दूसरे के मित्र नहीं थे। मित्रता का भाव तो ज्ञान के बाद आया कि मैं हूं।
आदम और ईव ने जो पहला काम किया, वह था अपनी नग्नता को छिपाने का प्रयास करना। वह बचपना अब खो गया था। जब एक बच्चे को यह अनुभव होना शुरू हो जाता है कि वह नंगा है और यही वह बिंदु था, जहां आदम और ईव को ईडेन के स्वर्गिक उद्यान से निष्कासित कर दिया गया।
मेरा हमेशा ही यह अहसास रहा है कि ईसाइयों की इस कहानी का उत्तर, जीसस में नहीं, महावीर में विद्यमान है। यदि ज्ञान का फल खाने से आदम सजग हुआ और अपने को नग्न देखकर उसे अपराध बोध हुआ तो इसका उत्तर तो महावीर में ही निहित है। जिस क्षण महावीर मौन हुए तो पहली चीज जो उन्होंने की, वह नग्न हो जाना था और मैं कहता हूं कि महावीर ने ईडेन के उद्यान में फिर से प्रवेश किया। वे फिर एक निर्दोष बच्चे बन गए। ईसाइयों की यह कहानी अधूरी है और यह जैनों की कहानी उसका दूसरा भाग है और दोनों को मिलाकर ही कहानी पूरी होती है। यह पूरा अस्तित्व एक चमत्कार है और तुम्हीं उस ईडेन उद्यान से निष्कासित किए गए हो।
बांके कहता है-' हम तो केवल एक चमत्कार जानते हैं। ' हम इस महान आश्चर्यजनक संसार में फिर प्रविष्ट हो गए हैं। हम अहंकार के कारण उससे जरा भी पृथक नहीं है और न हमारी कोई वैयक्तिकता है। वहां भूख है लेकिन वहां कोई है नहीं, जो भूखा हो। नींद आती है, लेकिन वहां कोई है नहीं, जिसे नींद' आ रही हो। वहां प्रतिरोध करने अथवा निर्णय करने के लिए अहंकार है ही नहीं, हम नदी की तरह बहते हैं, पक्षी की भांति आकाश में उड़ते हैं। न तो कुछ गलत है और न कुछ ठीक। यह द्वंद्व के पार की स्थिति है, यह सर्वश्रेष्ठ व्यवहार है, जहां न तो कुछ बुरा है और न कुछ
अच्छा। तुम निर्दोष बन गए हो। तुम्हारे साधु-संत निर्दोष नहीं बन सकते क्योंकि उनकी अच्छाई बलपूर्वक लाई गई है, उनकी अच्छाई पहले ही से कुरूप है। उनकी अच्छाई व्यवस्था करके लाई गई है, वह नियंत्रित और विकसित की गई है, वह निर्दोष नहीं है।
मैंने एक बूढ़ी स्त्री के बारे में सुना है। उसने एक बौद्ध भिक्षु की तीस वर्ष तक सेवा की। उसने उस भिक्षु के लिए सब कुछ किया। वह ठीक उसकी मां की तरह देखभाल करती थी और उसकी शिष्या भी थी। वह बौद्ध भिक्षु ध्यान बस ध्यान में ही डूबा रहता था। जिस दिन वह बूढ़ी स्त्री मरने जा रही थी, उसने शहर से एक वेश्या को बुलाया और उससे कहा- ‘‘ उस भिक्षु की झोपड़ी में जाओ। उसमें प्रविष्ट होकर उस भिक्षु के निकट जाओ, उसका आलिंगन करो और लौटकर उसकी प्रतिक्रिया के बारे में मुझे बताओ। क्योंकि आज की रात मैं मरने जा रही हूं और मैं निश्चित हो जाना चाहती हूं कि मैं प्रत्येक स्थिति में एक ऐसे व्यक्ति की सेवा कर रही थी जो निर्दोष है। मैं इस बाबत आश्वस्त नहीं हूं। ‘‘
वह वेश्या भयभीत हो गई। उसने कहा-’‘ वह इतने अच्छे व्यक्ति हैं, इतने बड़े संत है कि मैंने ऐसी साधुता कभी किसी में आज तक देखी ही नहीं। ‘‘
वहां जाने और उस भिक्षु की परीक्षा लेने के लिए भी उस वेश्या को अपराध बोध होने लगा, लेकिन उस बूढ़ी स्त्री ने उसे प्रलोभन देकर राजी कर लिया। वह गई उसने झोपड़ी का दरवाजा खोला। वह भिक्षु अगन कर रहा था। वह मध्यरात्रि का समय था और उस एकांत भाग में कोई आस-पास था भी नहीं।
भिक्षु ने अपनी आंखें खोली, उस वेश्या की ओर देखा और एक साथ उछलकर खड़ा हो गया। उसने स्त्री से कहा-’‘ तुम अंदर आई क्यों? तुरंत बाहर निकल जाओ। ‘‘ यह कहते हुए उसका पूरा शरीर कांप रहा था। वह वेश्या उसके और निकट गई। भिक्षु कूदकर झोपड़ी से बाहर आकर चिल्लाने लगा-’‘ यह स्त्री मुझे पथभ्रष्ट करना चाहती है। ‘‘
वह वेश्या वापस चली गई। उसने उस बूढ़ी स्त्री को पूरी बात बताई। उस स्त्री ने अपने सेवकों को उस भिक्षु की झोपड़ी में आग लगाने के लिए भेजा। उसने कहा- ‘‘यह व्यक्ति किसी काम नहीं यह अभी तक निर्दोष नहीं हुआ है। वह एक संत हो सकता है, पर यह ओढ़ा गया संतत्व कुरूप है, यह नियंत्रित है। इतने अचानक उसे स्त्री में वेश्या क्यों दिखाई दी? एक स्त्री प्रवेश कर रही थी झोपड़े में, वेश्या नहीं। उसने यह कैसे सोच लिया कि वह उसे पथभ्रष्ट करने आई है? उसे उसके साथ कम-से- कम सज्जनता का तो व्यवहार करना चाहिए था। उसने उससे कहा होता, आओ बैठो।
तुम क्यों आई हो? कम-से-कम उसमें थोड़ी सी भी करुणा दिखाई होती। यदि उसने उसे आलिंगन में भी लिया था तो क्या उसे भयभीत हो जाना चाहिए था  नहीं, उसका संतत्व विकसित किया गया एक ओढ़ी गई मुद्रा है। यह अंदर से नहीं आया। यह बाहर से लाया गया है। उसने इसकी व्यवस्था कर सब कुछ ठीक-ठाक किया है, लेकिन अंदर से वह निर्दोष नहीं है। एक बच्चे जैसा सरल नहीं है।
जब तक संतत्व बच्चे जैसा निर्दोष नहीं होता, वह किसी भी तरह संतत्व है ही नहीं, वह बाहर से ओढ़े गए मुखौटे के पीछे ठीक एक पापी को छिपाने जैसा है।
बांके ने कहा-’‘ मैं एक ही चमत्कार जानता हूं। ‘‘ क्या है वह चमत्कार? वह है एक बच्चे जैसा बन जाना। जब एक बच्चे को भूख लगती है, वह रोना-चीखना शुरू कर देता है और बताता है कि वह भूखा है। जब उसे नींद आती है वह सो जाता है। हम एक बच्चे को भी व्यवस्थित करने की कोशिश करते हैं और उसकी निर्दोषता नष्ट कर देते हैं।
अब पश्चिम में मां के लिए वहां पुस्तकें और गाइड उपलब्ध हैं। यह किस तरह का संसार होने जा रहा है, जब एक मां को बच्चे को पालने के लिए पथ प्रदर्शिका पुस्तक की जरूरत होती है। वे निर्देश देते हुए कहते हैं-’‘ तीन घंटे बाद ही दूध. दो, कभी भी उससे पहले नहीं, लेकिन प्रत्येक तीन घंटे बाद। बना रो रहा है, चिल्लाए जा रहा है, लेकिन यह बात जरूरी है ही नहीं कि बच्चा भूखा है, जरूरी बात यह है कि गाइड पुस्तक कहती है, केवल तीन घंटे के बाद ही.। मां प्रतीक्षा कर रही है कि कब तीन घंटे पूरे हों वह बच्चे को दूध पिलाएं। जैसे मातृत्व यथेष्ट नहीं है, किसी दिशा निर्देश की जरूरत है। और एक बच्चे के प्रामाणिक रूप से चीखने-होने पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता है। जैसे कि बच्चा धोखा देने की कोशिश कर रहा है, लेकिन बच्चा धोखा क्यों देगा? यदि वह भूखा है तो वह रो रहा है।
हम बचपन को भी नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। देर-सवेर वह भी हमारा अनुसरण करेगा ही, वह भी घड़ी देखता रहेगा और जैसे ही तीन घंटे पूरे होते हैं वह चीख के द्वारा कहेगा, ' मैं भूखा हूं। ' यह भूख नकली होगी और जब भूख भी नकली हो जाती है तो हर चीज नकली हो जाती है।
हम बच्चे को सो जाने के लिए विवश किए जा रहे हैं, जब हम सोचते हैं कि उसके सोने का समय हो गया लेकिन नींद को समय के द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। नींद अंदर स्वत: आने वाली कोई चीज है। जब बच्चा नींद का अनुभव करता है, वह सो जाएगा, लेकिन मां-बाप बच्चे पर बल प्रयोग कर रहे हैं, ‘‘ जाओ जाकर सो जाओ। ‘‘ जैसे मानो नींद को भी आदेश दिया जा सकता है। बच्चे जरूर सोचते होंगे तुम बेवकूफ हो, वे सोचते होंगे, तुम्हारा दिमाग खराग हो गया है। बच्चे को सोने के लिए कैसे विवश किया जा सकता है? वह बहाना बना सकता है, इसलिए जब तुम
वहां हो, वह अपनी आंखें बंद कर सकता है। जब तुम चले जाते हो, वह अपनी आंखें खोल सकता है, क्योंकि नींद को आने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। कोई भी या तुम भी नींद को विवश नहीं कर सकते। यदि नींद नहीं आ रही हो तो तुम कैसे सो सकते हो?
लेकिन इसी तरह यह सम नष्ट होता है। इसी तरह से शैतान फुसलाता है और इसी तरह से हम बच्चे को स्वर्ग के ईडेन उद्यान से बाहर ले आते हैं। स्मरण रहे, केवल न और ईव ही स्वर्ग के उद्यान में नहीं जन्में, प्रत्येक बच्चा भी वहीं जन्म लेता है क्रम वही प्रत्येक का जन्म स्थल है और समाज ही बच्चे को उससे बाहर ले जाता है। इसलिए समाज ही शैतान है। समाज ही फुसलाता है कि यह करो, वह करो और बच्चा उससे बाहर हो जाता है। समाज ही उसमें अहंकार को निर्मित करता है और वही उसे नियंत्रण करने वाला बनाता है।
केवल यही चमत्कार संभव है कि तुम ईडेन के उद्यान में फिर से प्रविष्ट हो जाओ, बच्चे जैसे बन जाओ और प्रकृति को अनुमति दो कि वह तुममें प्रवाहित हो। उसे रोको मत, उसके रास्ते में रोड़े बनकर खड़े मत हो, उसे धकेलो मत, बस उसके साथ बहो। तुम्हीं प्रकृति हो, तुम्हीं ताओ हो तुम्हीं एक अविराम रहस्य के एक भाग हो, जो निरंतर घट रहा है।
बांके ठीक कहता है। हमारे लिए यह कठिन है क्योंकि हम मन और उसके-द्वारा किए जाने वाले नियंत्रण के बहुत अधिक आदी हो चुके हैं और जब मैं तुमसे कहता हूं स्वाभाविक बन जाओ तो तुम स्वाभाविक होने का प्रयास करोगे और चूक जाओगे क्योंकि कोई कैसे स्वाभाविक बनने की कोशिश कर सकता है? यदि मैं कहता हूं कि कोई भी काम मत करो, तुम कोई भी काम न करने की कोशिश करते हो, यदि मैं निष्किय होने की बात कहता हूं तो तुम निष्किय होने के लिए हर प्रयास करते हो। लेकिन प्रयास करना ही सक्रियता है इसलिए यह बात समझ लेने जैसी है कि किसी
प्रयास की आवश्यकता ही नहीं है। तुमने अपनी ओर से कोई भी प्रयास किया तो तुम इस चमत्कार से चूक जाओगे।
तब आखिर किया क्या जाए? कुछ करना ही नहीं है। बस यह अहसास बना रहे। प्रकृति से राजी हो जाना है। प्रारंभ में यह कठिन लगेगा क्योंकि तुम हमेशा बीच रास्ते में कूदते रहे हो, सदा हस्तक्षेप करते रहे हो। शुरू में यह कठिन लगेगा, लेकिन बस तीन सप्ताह में ही तुम प्रकृति से राजी होने लगोगे। जब तुम्हें भूख लगे, तभी खाना, जब तुम्हें नींद आए तभी सोना। जब तुम्हें भूख न लगी हो, हरगिज मत खाना और यह कोई उपवास नहीं है, इसे याद रखना क्योंकि उपवास मन से ही आता है, तुम्हें भूख लगी है, लेकिन तुम उपवास कर रहे हो। इसमें कोई नुकसान नहीं है कि तुम्हें नींद नहीं आ रही है, कोई नुकसान इसलिए नहीं है क्योंकि शरीर को उसकी जरूरत ही नहीं है इसलिए उसे विवश मत करो। जागे रहो, आनंद लो, टहलने निकल जाओ, कमरे में बैठकर कोई गीत गा, नाचो, या ध्यान करो, लेकिन सोने के लिए शरीर को विवश मत करो। जब तुम्हें नींद आने जैसा लगे, जब आंखें कहने लगे कि अब जाकर सो जाओ... और फिर सुबह बिस्तर से बाहर आने को अपने को विवश मत करो, अपने आंतरिक अस्तित्व को एक अवसर दो, उसे अनुमति दो। वह तुम्हें उसका संकेत देगा और आंखें स्वमेव खुल जाएंगी।
कुछ दिनों तक तो कठिनाई होगी, लेकिन तीन सप्ताह में और मैं कहता हूं तीन सप्ताह तक यदि तुमने हस्तक्षेप न किया तो और यदि तुमने बीच में हस्तक्षेप किया तो तीन जन्म भी काफी नहीं है। हस्तक्षेप मत करो और प्रतीक्षा करो चीजों को स्वयं घटने दो। तीन सप्ताह के अंदर तुम फिर से प्रकृति के साथ एक हो जाओगे और अचानक तुम देखोगे कि तुम ईडेन के उद्यान में रह रहे हो और आदम को कभी भी वहां से निष्कासित नहीं किया गया-वह सिर्फ उसका ख्याल है कि वह बाहर कर दिया गया है। ज्ञान के फल का यही अर्थ है कि तुम महज यह सोचने लगो कि तुम्हें वहां से निष्कासित कर दिया गया है। निष्कासित होने के बाद तुम रहोगे कहां? पूरी प्रकृति ही ईडेन का उद्यान है। संपूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा का घर है इसलिए निष्कासित होने के बाद तुम अन्यत्र कहां हो सकते हो?
बांके कहता है-’‘ मैं उद्यान में फिर से प्रविष्ट हो गया हूं। ‘‘ बांके मरने जा रहा है। उसके शिष्य बहुत चिंतित हैं और उन्होंने पूछा, हम लोगों को क्या करना चाहिए? हम लोग आपके मृत शरीर की क्या व्यवस्था करें? क्या उसे सुरक्षित रखा जाए?‘‘हमें हिंदुओं और बौद्धों की तरह क्या उसे जला देना चाहिए अथवा हम उसे जमीन में दफन कर दें, जैसा कि मुसलमान और ईसाई करते हैं? क्योंकि शिष्यों ने कहा-’‘ हम लोग यह नहीं जानते कि आप हिंदू हैं, बौद्ध या मुसलमान? आपने हम
सभी को इतना अधिक भ्रमित कर दिया है कि हम लोगों को कुछ भी नहीं मालूम कि आप कौन हैं और हम लोगों को क्या करना चाहिए? ‘‘
बांके ने कहा-’‘ जरा प्रतीक्षा करो, पहले मुझे मर जाने दो। तुम लोग इतनी जल्दबाजी में क्यों हों? ‘‘
मन हमेशा उछलकर आगत भविष्य के बारे में सोचने लगता है।
तुम लोग इतनी जल्दबाजी में क्यों हो? तुम लोग अपने को मेरा शिष्य कहते हो। पहले मुझे मरने दो। फिर तुम लोग जो चाहो करना, क्योंकि फिर मैं तो वहां हूंगा ही नहीं। चाहे तुम गाडो, चाहे जलाओ या तुम उसे सुरक्षित रखा, इससे बांके को क्या फर्क पड़ता है? बांके तो वहां होगा ही नहीं, लेकिन उछलकर आगे की बात सोचना मन की प्रवृत्ति है। वह हमेशा आगत भविष्य में छलांग लगा देता है।
एक मंत्री ने अपने उद्यान के रात्रिभोज के जलसे में लोगों को आमंत्रित किया। वह एक बूढ़ी महिला को निमंत्रित करना भूल गया। दावत शुरू होने से ठीक पहले उसे उसका ख्याल आया, इसलिए उसने उस महिला को फोन किया क्योंकि वह महिला बहुत धार्मिक और बहुत खतरनाक थी और अधिक धार्मिक लोग ही हमेशा खतरनाक होते हैं। उसे भय था कि वह महिला कोई मुसीबत या झंझट खड़ा कर सकती है। वह उसकी सभा की सबसे पुरानी सदस्य थी और उसने गिरजाघर के लिए अनुदान में बड़ी धनराशि देकर उसके लिए बहुत कुछ किया था। इसलिए उसने फोन पर उस महिला से कहा- ‘‘मुझे माफ करें मैं गलती से आपको बुलाना भूल गया और कृपया आप जरूर आने का कष्ट करें। ‘‘
उस बूढ़ी महिला ने कहा- ‘‘ अब तो काफी देर हो चुकी है। मैं तो पहले ही वर्षा हो जाने की प्रार्थना कर चुकी हूं। ‘‘
वहां खुले में गार्डेन पार्टी होने जा रही थी और उस धार्मिक महिला को चूंकि आमंत्रित नहीं किया गया इसलिए उसने वर्षा होने की पहले ही परमात्मा से प्रार्थना कर दी। उसे बुलाने में काफी देर हो चुकी थी। अब फोन करने का कोई लाभ न था। अब कुछ भी नहीं किया जा सकता था।
मन हमेशा आगत भविष्य में छलांग लगा देता है उसका यही तरीका है।
कम-से- कम छलांगें भरो और यदि ऐसा करना तुम्हारे लिए कठिन हो, मन को एक ही स्थान पर उछलने के लिए कहो लेकिन कूदकर छलांग मत लगाओ। एक ही स्थान पर जोगिंग करना या उछलना एक ध्यान है। जोगिंग है जमीन के एक ही स्थान पर बार-बार उछलना। मन को आगे कूद पड़ने की आदत होती है। उसे पूरी तरह रोकना कठिन हो सकता है इसलिए आधा- आधा करो। उछलो लेकिन आगे की ओर न उछलकर एक ही स्थान पर उछलो। आधी क्रिया को काट दो। तब आहिस्ता-
आहिस्ता उछलने की गति करते जाओ, धीमे और धीमे फिर खड़े रहो बिना हिले हुले और तब बैठ जाओ। जब तुम यहीं होते हो आगे की ओर उछलते नहीं पूरी तरह शांत बैठ जाते हो, चमत्कार अपने आप घटित होता है। इस क्षण में बने रहना ही चमत्कार
लेकिन मैं जानता हूं बांके तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। तुम्हें साईं बाबा अच्छे लगेंगे क्योंकि साईं बाबा के साथ तुम्हारे मन के तर्क की संगति बैठ जाती है। बांके के साथ तुम्हारा मन तालमेल नहीं बैठा सकता, उसे विसर्जित ही होना होगा। केवल तभी उसके साथ लयबद्धता घट सकती है। साईं बाबा के साथ तुम चीजों को समझ सकते हो, वे तर्क के साथ वैसी ही हैं। जो तुम्हारा मन कहता है कि वहां चमत्कार घट रहे हैं लेकिन यह धर्म तो है ही नहीं-यह तो जादू का खेल है और हुडनी जादूगर तथा साईं बाबा में कोई भी अंतर नहीं है। अंतर केवल इतना है यदि कोई है तो सिर्फ इतना कि
हुडनी साईं बाबा से अधिक ईमानदार था क्योंकि वह कहता था, मैं एक जादूगर हूं और सभी चमत्कार मेरी हाथ की सफाई है। जो कुछ साईं बाबा कर रहे हैं उसे कोई भी जादूगर कर सकता है लेकिन तुम एक जादूगर को अधिक सम्मान नहीं दोगे क्योंकि वह ईमानदार और सच्चा है और वह कहता है- ‘‘ यह केवल चालबाजी और हाथ की सफाई है, ‘‘इसलिए तुम कहते हो- '' ठीक है, तो यह सिर्फ चालबाजियां हैं, चमत्कार नहीं। ‘‘
जब कोई दूसरा कहता है-’‘ यह चालबाजिया न होकर चमत्कार है और परमात्मा की शक्ति मेरे द्वारा प्रकट हो रही है। ‘‘ तब तुम्हारा मन उछलना शुरू हो जाता है। तब तुम सोचते हो, यदि मैं इस व्यक्ति का निकट शिष्य बन जाऊं तो मैं कोई कुछ बन सकता हूं और मैं भी कुछ ऐसा ही कर सकता हूं।
यदि तुम मेरे पास ऐसे ही किसी चमत्कार की खोज में आए तो तुम एक गलत व्यक्ति के पास आए हो। मैं तो फिर से जन्म लेने वाला बांके ही हूं। मैं केवल एक ही चमत्कार जानता हूं। अभी और यहीं बने रहने का। जब भूख लगे तो भोजन कर लो, जब नींद आए -सो जाओ, बस सहज साधारण बनो और अस्तित्व का बस एक भाग बन जाओ।
यदि तुम ऐसे चमत्कार की खोज में हो तो मेरे निकट बहुत कुछ हो सकता है, लेकिन यदि तुम ऐसी खोज में नहीं हो तो मेरे निकट कुछ भी नहीं घट सकता। स्मरण रहे, तुम ही इसके लिए जिम्मेदार होंगे, क्योंकि तुम्हारी पूरी खोज ही गलत है। तब वहां मेरे साथ तुम्हारी कोई लयबद्धता नहीं हो सकती इसलिए अपने मन में स्पष्ट रूप से निर्णय कर एक समझ तक पहुंचो कि तुम किस तरह का चमत्कार खोज रहे हो? मैं तुम्हें अति साधारण बना सकता हूं मैं तुम्हें एक सहज साधारण मनुष्य बना सकता हूं मैं तुम्हें वृक्षों और पक्षियों के समान बना सकता हूं। यहां मेरे चारों ओर कोई
बाजीगिरी या जादू नहीं है केवल धर्म है, लेकिन यदि तुम देख सकते हो तो यह सबसे बड़ा चमत्कार है।

क्या कुछ?
प्रश्न : करे ओशो? आप भोजन के बारे में अभी बता रहे थे
और अब पश्चिम में भोजन, एक महान धार्मिक आराधना बन गया है।
आध्यात्मिकता के आधार पर जो चीजें सामने-रही, यह उनमें से
एक है, आपने कहा कि यदि हम लोग सहज स्वाभाविक होकर जीएं?
हम लोग जानना चाहते हैं कि इसके लिए हमें क्या खाना चाहिए और
कब खाना चाहिए? लेकिन अब हम बच्चे जैसी प्रकृति से बहुत दूर हो
चुके है  साथ ही कई लोग कहते हैं कि जो भी भोजन तुम करते
हो? उससे तुम्हारे आध्यात्मिक पथ पर चलने और उस' आध्यात्मिक
तल पर प्राप्त करने में बहुत फर्क पड़ता है। क्या आप हम लोगों को
भोजन के बारे में कोई ऐसी चीज बता सकते हैं तो हम पश्चिमी लोगों
का पथ प्रदर्शन करें?

यह आचरण करने की ठीक दूसरी विधि है। भोजन तुम्हें आध्यात्मिक नहीं बना सकता, लेकिन यदि तुम आध्यात्मिक हो तो तुम्हारे भोजन करने की आदतें स्वयं बदल जाएंगी। किसी भी चीज को खाने से कुछ विशेष अंतर नहीं पड़ता। तुम शाकाहारी होकर भी बहुत अधिक निर्दय, क्रुर और हिंसक हो सकते हो। तुम मांसाहारी होकर दयावान और प्रेमपूर्ण हो सकते हो। भोजन से कुछ विशेष अंतर न पड़ेगा।
भारत में ऐसे समाज हैं, जो पूरी तरह से केवल शाकाहारी भोजन पर ही जीवित हैं। जैन समाज पूरी तरह से शाकाहार पर ही जीता है, बहुत से ब्राह्मण भी केवल शाकाहारी भोजन ही करते हैं, लेकिन न तो वे अहिंसक हैं। न आध्यात्मिक। भारत में जैन समाज सबसे अधिक भौतिकवादी है, वे धन सम्पत्ति के संग्रह करने की ओर सबसे अधिक आकर्षित हैं और इसी कारण वे सबसे अधिक धनी और समृद्ध हैं। वे जैसे भारत में रहने वाले यहूदी हैं।
पश्चिम का मांसाहारी संसार भारत के इन शाकाहारी समाजों से किसी तरह भिन्न नहीं है, वस्तुत: स्थिति उल्टी है। एक बहुत महत्वपूर्ण चीज याद रखने की है। यदि तुम हिंसक हो तो तुम्हारा भोजन शाकाहारी है। तुम्हारी हिंसा प्रकट होने के लिए कोई मार्ग खोजेगी। एक स्वाभाविक है, क्योंकि मांसाहारी भोजन खाने से, भोजन तुम्हारी हिंसा जो मुक्त कर देता है।
इसलिए यदि तुम कुछ शिकारियों को जानते हो तो तुमने अनुभव किया होगा कि शिकारी बहुत ही प्रेमपूर्ण होते हैं। उनकी पूरी हिंसा शिकार करने में मुक्त हो जाती है और वे बहुत मित्रतापूर्ण और प्रेमपूर्ण होते हैं, लेकिन एक शाकाहारी व्यापारी के लिए अपनी हिंसा को मुक्त करने का कोई मार्ग नहीं है इसलिए उसकी पूरी हिंसा धन और शक्ति की खोज बन जाती है, वह संकुचित हो जाती है।
लेकिन यह व्यवहार और आचरण के रूप में दूसरे तरीके से भी घटित होता है-ऐसा महावीर के साथ हुआ। महावीर योद्धाओं के क्षत्रिय परिवार से आए जिसमें हिंसा करना उनके लिए एक आसान बात थी। तब बारह वर्षों के लंबे मौन और ध्यान की गहराइयों में डूबने का प्रयास करते हुए उनका आंतरिक सार तत्व ही बदल गया।
जब सार तत्व बदल गया, अभिव्यक्ति बदल गई। जब आंतरिक अस्तित्व बदल गया, उनका चरित्र ही बदल गया, लेकिन चरित्र का बदलना बुनियादी न था, वह प्रतिफलन था। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि जितने ध्यान पूर्ण बनोगे, तुम अपने आप अधिक से अधिक शाकाहारी होते जाओगे। तुम्हें इस बारे में फिक्र करने की जरूरत ही नहीं। यदि यह होता कि ध्यान के द्वारा तुम्हारा भोजन शाकाहारी भी हो जाता है और मन द्वारा नियंत्रित करने पर नहीं, तो यह अच्छा है, लेकिन मन के द्वारा नियंत्रित करने से तर्क- वितर्क और कारण जुटाने से कि शाकाहारी भोजन ही अच्छा है और वह तुम्हें आध्यात्मिक होने में सहायता करेगा, तुम्हें कोई भी मदद मिलने की नहीं। तुम्हारे वस्त्र, तुम्हारा भोजन, तुम्हारे जीवन की आदतें, तुम्हारा रंग-ढंग सब कुछ बदल जाएगा, लेकिन यह
परिवर्तन बुनियादी नहीं होगा, बुनियादी परिवर्तन तो तुममें होने जा रहा है और तब प्रत्येक चीज उसका अनुसरण करती है।
यदि तुमने लंबी अवधि तक काफी गहराई तक ध्यान किया है तो यह तुम्हारे लिए असंभव है कि तुम भोजन के लिए किसी को भी सताओ। यह तर्क-वितर्क प्रश्न नहीं है, यह शास्त्रों का भी प्रश्न नहीं है। यह भी नहीं कि- कोई क्या कहता है और यह गणना करने का भी प्रश्न नहीं है कि यदि तुम शाकाहारी भोजन ले रहे हो तो तुम आध्यात्मिक बन जाओगे, यह जो होता है, अपने आप होता है।
यह प्रश्न किसी तरह की कोई चालबाजी करने का भी नहीं है। तुम बस आध्यात्मिक बन जाते हो। यह पूरी चीज ही मूर्खता पूर्ण दिखाई देती है कि केवल भोजन के लिए पशुओं और पक्षियों की हत्या की जाए। यह इतना मूर्खता पूर्ण दिखाई देने लगता है कि मांसाहारी भोजन स्वयं छूट जाता है। तुम्हारे वस्त्र भी स्वत: बदल जाते हैं, धीरे:- धीरे तुम ढीले से ढीले वस्त्र पहनेने लगते हो। तुम अंदर से जितने अधिक विश्रामपूर्ण होने जाते हो, वस्त्र ढीले हो जाते हैं। अपने आप ही। मैं बलना हुं कि तुम्हारी, ओर से कोई निर्णय होगा ही नहीं। धीरे- धीरे यदि तुम कसे हुए तंग वस्त्र पहनते हो, तुम्हें असुविधा का अनुभव होने लगेगा, क्योंकि कसे वस्त्र तनाव पूर्ण मन की सम्पत्ति है और ढीले वस्त्र विश्रामपूर्ण मन की।
लेकिन आंतरिक परिवर्तन ही पहली चीज है, अन्य सब कुछ तो केवल उसका परिणाम है। यदि तुम यह क्रम उलट दोगे तो तुम चूक जाओगे, तब तुम भोजन के व्यसनी हो जाओगे। वहां ऐसे भी लोग हैं, जो अब...।
एक व्यक्ति मेरे पास आया। वह तब दुबला-पतला था, चेहरा पीला हो रहा था और वह किसी क्षण मर सकता था। उसने कहा-’‘ मैं केवल पानी पीकर ही जीवित रहना चाहता हूं। ‘‘
मैंने पूछा-’‘ क्यों? ‘‘
उसने जवाब दिया-’‘ क्योंकि इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु आध्यात्मिकता में बाधा है। अब मैं केवल जल लेकर ही जीवित रहना चाहता हूं। ‘‘
यह व्यक्ति मरने जा रहा हैं। वहां कुछ थोड़े-से ऐसे लोग हैं, जो केवल पानी पीकर ही जीवित रहे, लेकिन यह उन्हें स्वाभाविक रूप से घटा। इसका अभ्यास नहीं किया सकता। ऐसे लोग किसी दुर्घटनावश असाधारण रूप से विकसित हो जाते हैं और उनके शरीर की यांत्रित व्यवस्था और रसायन भिन्न रूप से कार्य करने लगते हैं। ऐसा हुआ है-कोई व्यक्ति केवल पानी पीकर ही जीवित रह सकता है, पर इसका अभ्यास नहीं किया जा सकता। कोई केवल वायु पर ही जीवित रह सकता है, लेकिन
कोई इसका अभ्यास नहीं कर सकता। एक दिन विज्ञान, मूल रासायनिक परिवर्तन को खोजने में सफल हो सकता है और तब प्रत्येक ऐसा कर सकेगा...। तब विज्ञान तुम्हारे शरीर के रसायन बदल देगा और तुम केवल वायु पर ही जीवित रह सकोगे। यह संभव है लेकिन तुम इसका अभ्यास नहीं कर सकते। और यह पूरा प्रयास ही अर्थहीन है और शरीर को दुख देना अनावश्यक है, लेकिन वहां ऐसे पागल आदमी भी है जो इस तरह की चीजों का प्रयास करते हैं। प्रयास करके ऐसा कभी किसी को घटा नहीं।
वहां बंगाल में एक स्त्री थी जो बिना भोजन किए चालीस वर्ष तक जीवित रही, लेकिन यह साधारण रूप से हुआ। उसके पति की मृत्यु हुई और वह कुछ दिनों तक भोजन कर ही न सकी। वेदना और दुख के कारण वह कुछ खा ही न सकी, लेकिन अचानक उसे अनुभव हुआ कि बिना भोजन किए वह हमेशा ही अच्छा महसूस कर रही थी। तब उसने महसूस किया कि अतीत में जब भी भोजन करती थी, तब हमेशा बीमार हो जाती थी और अचानक वह इतनी स्वस्थ हो गई, जितना पहले कभी न थी। तब वह कुछ भी भोजन किए बिना चालीस वर्ष तक जीवित रही। बस वायु ही उसका भोजन था और ऐसा कई मामलों में हुआ।
ऐसी एक स्त्री योरोप में भी थी-बिना भोजन किए वह तीस वर्ष तक जीवित रही। वह एक संत बन गई क्योंकि ईसाइयों ने उसे एक चमत्कार माना। उन्होंने वैज्ञानिक उपकरणों से यह देखने के लिए उसका हर परीक्षण किया कि आखिर ऐसा क्योंकर हो रहा है पर वे कुछ भी न खोज सके और तब वह एक चमत्कार लगा। पर यह चमत्कार नहीं है।
योग कहता है कि शरीर को परिवर्तन की ऐसी संभावना है कि शरीर का रसायन हो बदल जाए। ठीक अभी भी तुम ऐसा ही कर रहे हो, पर किसी अन्य माध्यम के द्वारा। तुम सूर्य की किरणें सीधे ही नहीं खा सकते क्योंकि तुम्हारे शरीर का रसायन इस स्थिति में नहीं है। उसकी यांत्रिक व्यवस्था होती नहीं है कि शरीर सीधे ही सूर्य किरणों का अवशोषण कर सके। इसलिए वृक्षों के फल सबसे पहले सूर्य किरणों को अवशोषित कर लेते हैं और वह फलों में विटामिन सी बन जाता है, तब तुम उस फल को खाकर अपने शरीर में विटामिन सी पहुंचाते हो। फल ठीक एक माध्यम है। फल तुम्हारे लिए काम करने वाला एक एजेंट है, जो सूर्य किरणों को सोखकर तुम्हें दे देता है। तुम उसे
फल के द्वारा अवशोषित कर लेते हो, पर इसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकते। यदि फल सीधे ही सूर्य किरणों को सोख सकता है तो तुम क्यों नहीं
विज्ञान की खोजों से एक दिन ऐसा आने को है, जब शरीर में किए कुछ परिवर्तनों से तुम सीधे उन्हें अवशोषित कर सकोगे। तब फल की कोई आवश्यकता नहीं होगी। निकट भविष्य में और मेरा ख्याल है कि अधिक लम्बे समय में न होकर पचास वर्षों में ही विज्ञान यह खोज करने के लिए बाध्य होगी। उसे वह खोज करनी होगी अन्यथा मनुष्यता मर जाएगी क्योंकि सभी को भोजन देना संभव न होगा और संतति नियमन भी सहायक नहीं हो रहा है। कुछ भी सहायक नहीं हो पा रहा है, क्योंकि जनसंख्या निरंतर तेजी से बढ़ रहा है। कुछ ऐसा रास्ता खोजना ही होगा .जिससे भोजन छोड्‌कर सीधे सूर्य किरणों का अवशोषण करना संभव हो सके। कुछ व्यक्तिगत मामलों में ऐसा हुआ भी है, पर किसी दुर्घटना वश। यदि ऐसा एक व्यक्ति के साथ हो सकता है तो प्रत्येक के साथ भी हो सकता है-लेकिन किसी दुघर्टना घटने पर नहीं, वह होगा, वैज्ञानिक परिवर्तन के कारण।
तुम ऐसी चीजें करने का प्रयास मत करो, यह आध्यात्मिक नहीं है। भले ही तुम सूर्य किरणों को सीधे अवशोषित भी कर लो, फिर भी इसमें कुछ भी आध्यात्मिक नहीं है। फिर आध्यात्मिकता क्या है? क्या फल के माध्यम को हटा देने से तुम आध्यात्मिक बन जाओगे? यदि केवल पानी पर ही जीवित रहते हो तो भी इसमें कोई आध्यात्मिकता नहीं है। तुम जो भी हो, यह पूरी तरह से भिन्न बात है।
जब तुम बदलते हो तो हर चीज बदल जाएगी, लेकिन वह परिवर्तन मन के द्वारा न होगा, वह होगा तुम्हारे सबसे अधिक के अंदर अस्तित्व से। तब चीजें स्वत: बदल जाएंगी। धीरे- धीरे सेक्स तिरोहित हो जाएगा। मैं यह नहीं कहता कि तुम ब्रह्मचारी बनो, ब्रह्मचर्य का पालन करो। यह बेवकूफी है क्योंकि यदि बलपूर्वक दान करके ब्रह्मचारी बनोगे तो मन अधिक-से- अधिक कामुक होता जाएगा और तुम्हारा मन कुरूप और गंदा हो जाएगा। तुम केवल कामवासना के बारे में ही सोचोगे और कुछ भी नहीं। यह कोई मार्ग नहीं है। तुम सनकी और पागल बनते जाओगे। फ्रॉयड कहता है
कि नब्बे प्रतिशत पागल, सेक्स का दमन करने की वजह से ही पागल है।
मैं नहीं कहता कि सेक्स करने की आदत बदलो, मैं नहीं कहता कि भोजन बदलो, मैं कहता हूं कि अपने अस्तित्व को बदली और तब चीजें स्वयं बदलना शुरू हो जाएंगी।
सेक्स की इतनी अधिक क्यों आवश्यकता है? क्योंकि तुम तनाव पूर्ण हो और सेक्स द्वारा ऊर्जा मुक्त हो जाती है। तुम्हारे सारे तनाव उसके द्वारा मुक्त हो जाते हैं। तुम विश्रामपूर्ण हो जाते हो, तुम चैन से सो सकते हो। यदि तुम उसका दमन करोगे तो तुम तनाव में रहोगे और यदि तुमने सेक्स का दमन किया तो उसके विकास की केवल संभावना तुम्हारे पागलपन में होगी। दमन से होगा क्या, तुम पागल हो जाओगे। तुम अपना तनाव फिर मुक्त करोगे कैसे?
तुम खाना खाते हो? शरीर को उसकी आवश्यकता होती है और उन चीजों से शरीर इनकार कर देता है जिनकी उसे आवश्यकता नहीं होती। जो कुछ भी तुम खाते हो किसी-न-किसी रूप में शरीर को उसकी आवश्यकता होती है। यदि तुम भोजन में किसी पशु का मांस ले रहे हो, मांसाहारी भोजन कर रहे हो, तो तुम्हारा मन, तुम्हारा शरीर और तुम्हारा पूरा शरीर हिंसक है और उसकी तुम्हें आवश्यकता है। उसे बदलो मत, अन्यथा तुम्हारी हिंसा फिर दूसरा निकास खोजेगी।
तुम अपने आपको बदलो और भोजन बदल जाएगा, वस्त्र बदल जाएंगे, सेक्स बदल जाएगा, लेकिन परिवर्तन तुम्हारी गहराई में स्थित आंतरिक केंद्र से आना चाहिए वह बाहर परिधि से न आए। सारा कौलाहल परिधि पर है, अंदर गहराई में कोई शोर है ही नहीं। तुम ठीक एक सागर के समान हो। जाओ और जाकर सागर को देखो। सारा शोर सभी लहरों के टकराने से बस सतह पर है, तुम जितने गहरे उतरो सागर में, वहां अधिक-से- अधिक शांति हैं। समुद्र के सबसे गहरे तल में न तो एक भी लहर है और न कोई कौलाहल है।
पहले अपने ही गहरे सागर में डुबकी लगाओ, जिससे तुम शांत चेतना के एकीकरण को सघन रूप में प्राप्त कर सको, जिससे तुम उस बिंदु या केंद्र पर पहुंच सकी, जहां कोई व्यवधान और शोर कभी पहुंचता ही नहीं। वहीं स्थिर खड़े रही। वहीं से हर परिवर्तन आता है, प्रत्येक रूपान्तरण वहीं से होता है। एक बार तुम वहां पहुंच गए फिर तुम मालिक हो गए मन के। अभी तो जो भी अनावश्यक है, उसे तुम बिना किसी संघर्ष और लड़ाई के सरलता से छोड़ सकते हो।
जब भी तुम कोई चीज लड़कर छोड़ते हो, वह. कभी नहीं छूटती। तुम संघर्ष के द्वारा सिगरेट पीना छोड़ सकते हो और तब तुम कोई और चीज करना शुरू कर दोगे, जो उसका प्रतिस्थापन बन जाएगा, उसकी जगह ले लेगा। तुम चूंगम चूसना शुरू कर सकते हो, जो है वही, तुम पान चबाना शुरू कर सकते हो, जो है वही, वहां उसमें कोई भी अंतर नहीं।
अपने मुंह के लिए तुम्हें किसी चीज की जरूरत है-वह सिगरेट पीना हो, कुछ चबाना हो या कुछ और हो। जब तुम्हारा मुंह चलता रहता है, तुम सुविधा या आराम का अनुभव करते हो, क्योंकि मुंह के द्वारा तनाव मुक्त होते रहते हैं। इसलिए जब भी कोई व्यक्ति तनाव का अनुभव करता है तो सिगरेट पीना शुरू कर देता है। ऐसा क्यों है कि सिगरेट पीने च्यूंगम अथवा तंबाकू चबाने से तनाव मुक्त हो जाता है वह? जरा एक छोटे बच्चे की ओर देखो। जब कभी वह तनाव का अनुभव करता है, अपना अंगूठा मुंह में रखकर उसे चूसना शुरू कर देता है। यह सिगरेट पीने का विकल्प है उसके पास। उसे क्यों अच्छा लगता है जब वह मुंह में अपना अंगूठा रख कर उसे चूस रहा होता है? बच्चे को क्यों अच्छा लगता है ऐसा करना और वह क्यों सो जाता है? यही रणनीति लगभग सभी बच्चों की होती है। जब उन्हें लगता है कि नींद नहीं आ रही, वे अपना अंगूठा अपने मुंह में रख लेते हैं और वे आराम का अनुभव करते हुए गहरी नींद सो जाते हैं। क्यों? क्योंकि अंगूठा मां के स्तन का स्थान ले लेता है। भोजन के बाद आराम चाहता है शरीर। तुम खाली पेट भूखे नहीं सो सकते, नींद आना कठिन हो जाता है। जब पेट पूरा भरा हो, तुम्हें नींद आने लगती है, शरीर को आराम की जरूरत होती है। इसलिए जब भी बच्चा मुंह में स्तन लेता है, प्रेम और उष्णता भरा तरल भोजन प्रवाहित होने लगता है। वह वि श्रामपूर्ण हो जाता है, उसका तनाव मिट जाता है, फिर उसे कोई फिक्र ही नहीं रहती। हाथ का अंगूठा तो स्तन के स्थान पर उसका विकल्प होता है, वह दूध ही नहीं होता है, वह एक नकली विकल्प नहीं है, लेकिन फिर भी वह स्तनपान करने जैसी अनुभूति देता है।
जब यह बच्चा बड़ा होता है और यदि सभी के मध्य वह अपना अंगूठा चूसता है तो वह बेवकूफ कहा जाएगा, इसलिए वह सिगरेट पीता है। सिगरेट पीना बेवकूफी नहीं माना जाता, उसे स्वीकार कर लिया गया है। वह ठीक अंगूठे जैसा है और अंगूठा चूसने से कहीं अधिक हानिप्रद है। इससे तो अच्छा है कि यदि तुम अपने अंगूठे को ही सिगरेट की तरह पीयो। अपनी कब में जाने तक धुआं उड़ाते रहो, वह हानिप्रद है ही नहीं। लेकिन तब लोग सोचते हैं कि युवा होते हुए तुममें बचपना है, लोग तुम्हें मूर्ख समझते हैं। तुम कर क्या रहे हो? लेकिन वहां उसकी जरूरत है इसलिए उसके स्थान पर कोई दूसरा विकल्प तो चाहिए ही।
उन देशों में जहां स्तनों द्वारा बच्चों को दूध पिलाना बंद कर दिया गया है, अधिक धुम्रपान अपने आप बढ़ गया है। यही कारण है कि पूरब की अपेक्षा पश्चिम में धूम्रपान अधिक किया जाता है-क्योंकि वहां कोई मां बच्चे को स्तनपान कराने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि इससे स्तनों की आकृति खराब हो जाती है। इसलिए पश्चिममें धुम्रपान अधिक-से- अधिक बढ़ता जाता है, और छोटे बच्चे भी धुम्रपान कर रहे हैं।
मैंने सुना है, एक मां अपने बच्चे से कह रही थी-’‘ मैं नहीं चाहती कि पड़ोसी मुझसे कहें कि तुमने सिगरेट पीना शुरू कर दिया है। हमेशा सच बोलो और जब तुम धुम्रपान करना शुरू करो मुझे बता देना। ''
बच्चे ने कहा-’‘ मम! चिंता मत करो। मैंने पहले ही से धुम्रपान करना बंद कर दिया है। इसे एक साल हो गया। अब अगर फिक्र करें ही मत, आपको परेशान होने की जरा भी जरूरत नहीं। ''
छोटे-छोटे बच्चे धुम्रपान कर रहे हैं और मां इसके प्रति सजग नहीं है। क्योंकि उसने स्तनपान कराना बंद कर दिया है। सभी आदिम समाजों में सात साल का बच्चा और यहां तक कि आठ और नौ साल के बच्चे भी स्तनपान करते रहते हैं। तब वहां संतुष्टि होती है और धुम्रपान करना इतना जरूरी नहीं होता। यही कारण है कि आदिम समाजों में पुरुषों की दिलचस्पी स्त्रियों के स्तनों में अधिक नहीं होती। उन्होंने काफी ले लिया है, उन्हें जरूरत हीं नहीं है। स्त्रियां अपने वक्ष बिना ढके आती-जाती हैं, उन्हें यह समस्या नहीं है कि कोई उन पर आक्रमण करेगा। कोई भी उनके स्तनों की ओर देखता तक नहीं।
यदि तुम्हें निरंतर दस वर्षों तक स्तनपान करने दिया जाए तुम उनसे ऊब जाओगे और कहोगे, ' अब बंद करो ' लेकिन प्रत्येक बच्चे को स्तनों से समय से पहले ही दूर कर दिया जाता है और उसके अंदर एक घाव रह जाता है इसलिए सभी सभ्य देशों में लोगों के मस्तिष्क में स्तन ही घूमते रहते है। यहां तक कि एक मरते हुए बूढ़े आदमी के मन में भी स्तन घूम रहे हैं और वह उन्हीं को खोजता रहता है। यह पागलपन लगता है लेकिन यह है। वहां मूल कारण यही है। बच्चों को अधिक समय तक स्तनपान कराना चाहिए अन्यथा वे उनके नशे में जीवन- भर उनकी ही खोज करते रहेंगे। तुम किसी भी रूप से धुम्रपान नहीं रोक सकते क्योंकि इससे संबंधित बहुत-सी चीजें हैं
और कई उलझाव है, तुम तनाव में हो और यदि तुम धुम्रपान करना बंद कर दो तो तुम कोई अन्य चीज शुरू कर दोगे जो उससे अधिक हानिप्रद होगी।
समस्याओं से पलायन मत करो, उनका सामना करो। समस्या यह है कि तुम तनाव ग्रस्त हो इसलिए लक्ष्य यह होना चाहिए कि तनाव कैसे दूर हो, धुम्रपान करके या बिना धुम्रपान के। ध्यान करो। आकाश में बिना किसी वस्तु के अपने तनावों को मुक्त करो। रेचन करो। जब सारे तनाव दूर हो जाएंगे तो ये चीजें अर्थहीन और बेवकूफी भरी लगेगी और स्वयं छूट जाएंगी। भोजन भी बदलेगा, तुम्हारे जीने का ढंग बदल जाएगा।
लेकिन मेरा जोर तुम पर है। चरित्र बाद की बात है, आधारभूत चीज और सारभूत तुम हो। जो कुछ तुम करते हो, उसकी ओर अधिक ध्यान मत दो, अधिक ध्यान यह जानने में दो कि तुम क्या हो? केंद्र बिंदु होना चाहिए तुम्हारा होना, तुम्हारा अस्तित्व और कृत्य को उसी पर छोड़ देना चाहिए। जब अस्तित्व बदलता है? कृत्य उसका अनुसरण करते हैं।

क्या कुछ और...?
प्रश्न : प्यारे ओशो, जब आप हम लोगों की असफलताओं की
चर्चा करते हे तो आप प्राय: क्रोध सेक्स और ईर्ष्या का उल्लेख करते
है क्रोध और सेक्स तो सामान्यत? स्वयं अपनी बाबत स्पष्ट रूप से
बता ही देते है? लेकिन ठीक ईर्ष्या क्या है? '' इस बाबत हम लोगों को
कुछ भ्रम है और उसके केंद्र पर पहुंचना कठिन लगता है। क्या हम
लोगों को ईर्ष्या के बारे में आप बताने की कृपा करेंगे ‘‘

हां! मैंने क्रोध और सेक्स का अधिक और ईर्ष्या का बहुत कम उल्लेख किया है, क्योंकि ईर्ष्या प्राथमिक वस्तु नहीं है, यह दूसरे स्थान पर है। यह सेक्स का ही दूसरा हिस्सा है। जब तुम्हारे मन में सेक्स की प्रवृत्ति उभरती है, तुम्हारे अस्तित्व में काम का वेग उठने लगता है, जब कभी सेक्स के लिए ही तुम किसी स्त्री के प्रति आकर्षण का अनुभव करते हो और उसे किसी अन्य से संबंधित पाते हो तो ईर्ष्या का प्रवेश होता है। क्योंकि तुम प्रेम नहीं कर रहे हो। यदि तुम प्रेमपूर्ण हो, प्रेम कर रहे हो तो ईर्ष्या कभी होती हीं नहीं।
इस पूरी चीज को समझने की कोशिश करो। जब कभी तुम किसी से सेक्स तल पर जुड़े होते हो, तुम भयभीत रहते हो, क्योंकि सेक्स वास्तव में कोई आतंरिक रिश्ता न होकर एक शोषण है। यदि तुम किसी स्त्री या पुरुष के प्रति सेक्स तल पर ही आकर्षित हो तो तुम्हें सदा यह भय बना रहता है कि स्त्री किसी और के साथ भी जा सकती है अथवा यह पुरुष किसी अन्य स्त्री के पास भी जा सकता है। वास्तव में वहां प्रेमपूर्ण संबंध हैं ही नहीं, वह केवल एक दूसरे का आपसी शोषण है। तुम एक दूसरे का शोषण कर रहे हो, लेकिन प्रेम नहीं कर रहे हो और तुम इसे जानते हो, इसलिए तुम भयभीत हो। यह भय ही ईर्ष्या बन जाता है, जिससे तुम चीजों को होने से रोकते हो, तुम चौकसी
करोगे, तुम सुरक्षा के हर संभव प्रयास करोगे। जिससे यह स्त्री या पुरुष किसी अन्य की ओर देख भी न सके। देखना मात्र ही खतरे का संकेत होगा। इस पुरुष को दूसरी स्त्री से बात भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि बातचीत करना भी... और तुम्हें भय लगता है कि वह कहीं तुम्हें छोड़ न दे। इसलिए तुम सभी रास्ते बंद कर दोगे जिससे यह पुरुष उस स्त्री के पास न जाए अथवा वह स्त्री दूसरे पुरुष के पास न जा सके, तुम सभी रास्ते और सभी दरवाजे बंद कर दोगे।
लेकिन तब दूसरी समस्या उठ खड़ी होती है। जब सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं वह पुरुष या स्त्री मृत हो जाते हैं, एक कैदी या गुलाम हो जाते हैं और तुम एक मृत अस्तित्व से प्रेम नहीं कर सकते। तुम उससे प्रेम नहीं कर सकते, जो स्वतंत्र न हो क्योंकि प्रेम केवल तभी सुंदर होता है, जब उसे स्वतंत्रता दी जाए। जब वह लिया नहीं जाता, न मांगा जा सकता है और न उसे विवश किया जाता है।
पहले तुम सुरक्षा प्रबंध करते हो, तभी वह व्यक्ति मृतप्राय एक वस्तु की भांति हो जाता है। एक प्रेमिका जीवन्त व्यक्ति हो सकती है, एकपत्नी तो वस्तु बन जाती है। एक प्रेमी एक जीवन्त व्यक्ति हो सकता है, पति तो ऐसी वस्तु बन जाता है, जो सम्पत्ति समझकर चौकसी करता है और नियंत्रण रखता है, लेकिन तुम जितना अधिक नियंत्रण करते हो, तुम उसे उतना ही अधिक मारते जाते हो क्योंकि स्वतंत्रता ही खो जाती है। दूसरा व्यक्ति प्रेम के कारण नहीं दूसरे कारणों से ही वहां होता है क्योंकि तुम उस सेक्स को भी नहीं छोड़ सकते। प्रश्न केवल यही है कि सेक्स को कैसे प्रेम में रूपान्तरित किया जाए! ईर्ष्या स्वयं मिट जाती है।
यदि तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो तो वास्तविक प्रेम ही यथेष्ट गारंटी है, सच्चा प्रेम ही पर्याप्त सुरक्षा है। यदि तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो, तुम जानते हो कि वह किसी अन्य के पास नहीं जा सकता और यदि वह जाता है तो जाता है, इसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम कर ही क्या सकते हो? तुम उस व्यक्ति को मार सकते हो, लेकिन एक मृत व्यक्ति का कोई उपयोग नहीं होता।
जब तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो, तुम विश्वास करते हो कि वह अन्य किसी और के पास नहीं जाएगा। यदि वह जाता है तो वहां प्रेम है ही नहीं और कुछ भी नहीं

किया जा सकता। प्रेम यही समझ उत्पन्न करती है कि वहां ईर्ष्या नहीं होती। इसलिए यदि वहां ईर्ष्या है तो भली- भांति जान लेना, वहां प्रेम नहीं है। तुम एक खेल खेल रहे हो। तुम प्रेम की आड़ में अपनी कामवासना को छिपा रहे हो। प्रेम तो केवल रंग-रोगन किया हुआ एक शब्द है और वास्तविक रूप से वह सेक्स की चाह ही है।
भारत में चूंकि प्रेम करने की अधिक अनुमति नहीं है या कहें बिलकुल भी अनुमति नहीं है विवाह आयोजित होता है-यहां जबर्दस्त ईर्ष्या है। एक पति भयभीत रहता है। उसने कभी प्रेम किया ही नहीं, इसलिए वह जानता है, पत्नी भी सदा भयभीत रहती है क्योंकि उसने भी कभी प्रेम किया नहीं, इसलिए वह भी जानती है। यह एक जुटाई गई व्यवस्था है। यह व्यवस्था, माता-पिता ने की, ज्योतिषियों ने की, समाज ने की, लेकिन पति और पत्नी से कभी पूछा ही नहीं गया। कई मामलों में तो वे एक दूसरे को जानते तक न थे, उन्होंने एक दूसरे को कभी देखा तक न था। इसलिए भय बना रहता है। पत्नी भयभीत है, पति डरा हुआ है और दोनों एक दूसरे की जासूसी कर रहे हैं। वास्तविक संभावना ही खो गई। भय के रहते प्रेम कैसे उत्पन्न हो सकता है? वे साथ-साथ रह सकते हैं। वे एक दूसरे को बरदाश्त कर सकते हैं। वे किसी-न-किसी तरह साथ निभाए जा रहे हैं। यह केवल उपयोगिता है और उपयोगिता से तुम प्रबंध तो कर सकते हो, पर परम आनंद घटना संभव ही नहीं। तुम इसका उत्सव नहीं मना सकते, यह एक पर्व नहीं बन सकता, यह संबंध एक भार स्वरूप होगा।
इसलिए मृत्यु से पहले ही पति मृत है, मृत्यु से पहले पत्नी भी मृत है। दो मृत व्यक्ति एक दूसरे से प्रतिशोध ले रहे हैं क्योंकि प्रत्येक सोचता है कि दूसरे ने उसे मार दिया। बदला लेते हुए क्रोध करते हुए और ईर्ष्या करते हुए सब कुछ बहुत कुरूप हो गया है।
लेकिन पश्चिम में एक अलग तरह की घटना घट रही है। जो है वैसी ही पर दूसरी अति पर। उन्होंने आयोजित विवाह तो समाप्त कर दिए हैं, जो एक अच्छा कार्य है। वह रिवाज किसी कीमत का था ही नहीं, लेकिन उसे समाप्त कर प्रेम का जन्म तो हुआ नहीं, केवल सेक्स उन्मुक्त हो गया है जब सेक्स की स्वतंत्रता है तो तुम हमेशा भयभीत रहते हो, क्योंकि यह केवल एक अस्थायी व्यवस्था है। आज रात तुम इस लड़की के साथ हो, कल वह किसी और के साथ होगी और कल वह किसी और के साथ थी। जिसके साथ कल थी वह लड़की, आने वाले कल वह किसी अन्य के साथ
होगी, केवल आज रात ही वह तुम्हारे साथ है। यह संबंध कैसे घनिष्ट और गहरे हो सकते हैं? यह केवल परिधि पर ही मिलन हो सकता है। तुम एक दूसरे के हृदय की गहराई में प्रविष्ट नहीं हो सकते, क्योंकि गहराई में उतरने के लिए विशेष तैयारी और समय चाहिए। इसके लिए जरूरत है समय की, जरूरत है गहराई की, साथ-साथ रहते हुए जरूरत है घनिष्टता की। एक लंबे समय की जरूरत होती है। गहराई तक जाने के लिए एक दूसरे की अंतरंग बातचीत करते हुए ही उस गहराई का द्वार खुलता
है.. .यह तो केवल जान पहचान है और हो सकता है वह जान-पहचान भी न हो।
पश्चिम में तुम एक स्त्री से एक रेलगाड़ी में मिलकर उससे प्रेम कर सकते हो और मध्यरात्रि में तुम उसे किसी स्टेशन पर उतार सकते हो। वह कभी इसकी फिक्र ही नहीं करेगी और हो सकता है वह तुम्हें कभी फिर से जान भी न पाएं। यह भी संभव है वह तुम्हारा नाम तक न पूछें। यदि सेक्स इतनी साधारण चीज बन जाती है, ठीक शरीर का कार्य व्यापार जहां दो सतहें या परिधि मिलती हैं और अलग हो जाती हैं- तुम्हारी गहराई का वे स्पर्श तक नहीं करती। तुम फिर किसी चीज से चूक रहे हो- किसी बहुत महान और किसी बहुत रहस्यमय चीज से, क्योंकि तुम अपनी गहराई के प्रति तभी सजग होते हो जब कोई दूसरा तुम्हारा स्पर्श करता है। केवल दूसरे के द्वारा ही तुम अपने आंतरिक अस्तित्व के प्रति सजग होते है, केवल गहरे संबंधों में ही किसी का प्रेम तुम्हारे अस्तित्व की गहरी घाटी में गूंजता है। केवल किसी अन्य के द्वारा ही तुम स्वयं अपने को खोजते हो।
खोज के वहां दो रास्ते हैं। एक है ध्यान, बिना किसी दूसरे के तुम अपनी गहराइयों को खोजते हो और दूसरा है प्रेम। तुम दूसरे के साथ उस गहराई की खोज करते हो। वह तुम्हारे अस्तित्व तक पहुंचने में मूल या जड़ बन जाता है। दूसरा एक चक्र निर्मित करता है और दोनों प्रेमी एक दूसरे की सहायता करते हैं। उनके बीच का अनुभव करते हैं, और किसी दिन एक दूसरे का अस्तित्व उनके सामने प्रकट होता है, लेकिन तब वहां कोई ईर्ष्या नहीं होती।
प्रेम ईर्ष्यालु हो ही नहीं सकता, यह असंभव है। वह सदा विश्वास करता है। यदि कुछ चीज घटती है और तुम्हारा विश्वास तोड़ देती है, तुम्हें तब भी उसे स्वीकार करना होता है। उस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता क्योंकि तुम जो कुछ भी करोगे, तुम दूसरे को नष्ट ही करोगे। विश्वास को विवश नहीं किया जा सकता। ईर्ष्या उसे विवश करने का प्रयास करती है। ईर्ष्या कोशिश करती है तुम्हें तैयार करने का, जिससे तुम हर प्रयास को ऐसा आकार दो जिससे विश्वास बना रह सके, लेकिन विश्वास ऐसी चीज नहीं जिसे प्रयास द्वारा बनाए रखा जाए। वह या तो वहां होता है या
नहीं होता। मैं तुमसे पुन: कहता हूं कि उसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। यदि वह वहां है, तुम उसके द्वारा उसके निकट जाते हो और यदि वह नहीं है तो अच्छा है अलग हो जाओ।
लेकिन उसके लिए संघर्ष मत करो, क्योंकि तुम व्यर्थ समय और जीवन बरबाद कर रहे हो। यदि तुम किसी से प्रेम करते हो और तुम्हारे हृदय की गहराई का दूसरे हृदय की गहराई से संवाद होने लगे, तुम्हारा मिलन अस्तित्वगत हो-तो सभी कुछ ठीक और सुंदर है और यदि ऐसा नहीं होता है तो अलग हो जाओ। लेकिन कोई संघर्ष, झगड़ा या लड़ाई मत करो क्योंकि प्रेम संघर्ष या लड़ने से प्राप्त नहीं होता और समय बरबाद होता है-न केवल समय, तुम्हारी क्षमता भी क्षतिग्रस्त होती है। तुम किसी दूसरे व्यक्ति के साथ फिर शुरू कर सकते हो प्रेम, वही पुराने ढांचे को दोहराते हुए।
इसलिए यदि विश्वास नहीं रहा तो अलग हो जाओ-जितनी शीघ्र हो सके, उतना ही अच्छा है, जिससे तुम बरबाद न हो सको, जिससे तुम्हारा कोई नुकसान न हो सके और प्रेम की क्षमता ताजी बनी रह सके और तुम किसी दूसरे से प्रेम कर सको। न तो यह स्थल तुम्हारे लिए है, न यह पुरुष तुम्हारे लिए है और न यह स्त्री तुम्हारे लिए है। आगे बढ़ जाओ, एक दूसरे को बरबाद मत करो। जीवन बहुत छोटा है और क्षमताएं बहुत नाजुक हैं, वे नष्ट हो सकती हैं। एक बार क्षतिग्रस्त होने पर उनके मरम्मत किए जाने की कोई संभावना नहीं है।
मैंने सुना है, एक बार ऐसा हुआ कि विंस्टन चर्चिल को मित्रों की एक छोटी- सी सभा में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। प्रत्येक जानता था कि चर्चिल पक्के पियक्कड़ हैं और शराब से बहुत प्रेम करते हैं। जिस व्यक्ति ने उनका सभी से परिचय कराया, वह क्लब का सभापति था उसने कहा, ‘‘ श्रीमान विंस्टन ने अब तक इतनी अधिक शराब पी ली है कि यदि हम उस सभी को इस हॉल में उड़ेल दें तो वह मेरे सिर तक आ जाएगी। ‘‘ वह काफी बड़ा हॉल था और वह मजाक कर रहा था। ‘‘
विंस्टन चर्चिल उठ खड़े हुए। उन्होंने कल्पना में उसके सिर तक की ऊंचाई की रेखा देखी, फिर छत की ओर देखते हुए कहा-’‘ उस हॉल की छत काफी ऊंची है। ‘‘ तब वह उदास होकर बोले, ‘‘ और उस तक भरने के लिए अब भी काफी कुछ करना पड़ेगा और समय बहुत थोड़ा बचा है। ‘‘
जहां तक प्रेम का संबंध है। प्रत्येक को बहुत कुछ करना है और समय बहुत थोड़ा बचा है। अपनी ऊर्जा लड़ने, ईर्ष्या करने और संघर्ष करने में व्यर्थ बरबाद मत करो। दोस्ताना तरीके से विदा लेकर आगे बढ जाओ।
कहीं और किसी अन्य व्यक्ति की खोज करो, जो तुम्हें अपने पूरे अस्तित्व से प्रेम करेगा। किसी ऐसे के साथ जमे मत बैठो रहो जो गलत है, जो तुम्हारे लिए है ही नहीं। क्रोध मत करो, इसमें क्रोध करना, जरूरी नहीं और विश्वास को विवश करने का प्रयास मत करो, उसे कोई भी विवश न कर सका और ऐसा कभी आज तक नहीं हुआ। तुम समय से चूक जाओगे, तुम अपनी ऊर्जा खो दोगे और तुम केवल तभी होश में आओगे, जब कुछ भी न किया जा सकेगा। आगे बढ़ो या तो विश्वास करो या आगे बढ़ जाओ।
प्रेम सदा विश्वास करता है अथवा यदि वह पाता है कि विश्वास करना संभव नहीं तो वह बस मित्रतापूर्ण ढंग से आगे बढ़ जाता है। वह वहां कोई संघर्ष या लड़ाई नहीं करता। सेक्स ही ईर्ष्या उत्पन्न करता है। प्रेम की खोज करो। सेक्स को आधारभूत चीज मत बनाओ, वह ऐसा है भी नहीं।
भारत आयोजित विवाह के साथ चूक गया और पश्चिम उन्मुक्त प्रेम के कारण चूक रहा है। भारत प्रेम से चूक गया क्योंकि माता-पिता बहुत हिसाबी-किताबी तथा चालाक थे। उन्होंने लड़के-लड़की को प्रेम करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वह खतरनाक था। कोई नहीं जानता था कि वह प्रेम उन्हें कहां ले जाएगा। वे लोग बहुत अधिक चालाक थे और अपनी चालाकी के कारण ही भारत प्रेम की सभी संभावनाओं से चूक गया।
पश्चिम में वे लोग बहुत विद्रोही हैं, बहुत अधिक युवा हैं। वे चालाक नहीं हैं, पर उनमें बहुत बचपना और यौवन का पागलपन है। उन्होंने सेक्स को एक उन्मुक्त चीज बना दिया है, जो दूर कहीं उपलब्ध है। उन्हें गहराई में जाकर प्रेम को खोजने की आवश्यकता ही नहीं है, वे सेक्स का आनंद लेते हैं और सब कुछ खत्म हो जाता है। सेक्स के द्वारा ही पश्चिम चूक रहा है और विवाह के द्वारा पूरब चूका है, लेकिन यदि तुम सजग हो तो तुम्हें न तो पूरब का और न पश्चिम का बनने की जरूरत है। प्रेम न तो पूरब का होता है और न पश्चिम का।
अपने ही अंदर प्रेम की खोज करते ही रहो। यदि तुम प्रेम करते हो तो देर-सवेर ऐसे व्यक्ति के साथ मिलकर घटना घटेगी ही क्योंकि एक प्रेम भरा हृदय देर-सवेर प्रेम करने वाले दूसरे हृदय के निकट आ ही जाता है। ऐसा हमेशा हुआ है। तुम सही व्यक्ति को पा ही लोगे, लेकिन यदि तुम ईर्ष्यालु हो तो तुम उसे नहीं पाओगे, यदि तुम केवल सेक्स के लिए ही हो तो भी तुम उसे न खोज सकोगे। यदि तुम केवल सुरक्षा के लिए जीना चाहते हो तो तुम उसे न खोज पाओगे।
प्रेम का पथ खतरनाक है और केवल वे ही लोग जिनमें साहस है, यह यात्रा कर सकते हैं। मैं तुमसे कहता हूं यह ठीक ध्यान करने के सामान ही है, पर केवल उनके लिए जो साहसी हैं और वहां परमात्मा तक पहुंचने के लिए केवल दो रास्ते हैं या तो ध्यान अथवा प्रेम। खोजों, तुम्हारा कौन-सा रास्ता है और कौन-सी तुम्हारी मंजिल है?

आज बस इतना ही!


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