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गुरुवार, 23 जुलाई 2020

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-10

मौन का सदगुरु-प्रवचन-दसवां

मनुष्य होने की कला--(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा: -
बुद्ध को एक दिन अपने प्रवचन के द्वारा एक विशिष्ट सन्देश देना
था और चारों ओर मीलों दूर से हजारों अनुयायी आए हुए थे) जब
बुद्ध पधारे तो वे अपने हाथ में एक फूल लिए हुए थे। कुछ समय बीत
गया लेकिन बुद्ध ने कुछ कहा नहीं वह बस फूल की ही ओर देखते
रहे। पूरा समूह बेचैन होने लगा, लेकिन महाकाश्यप बहुत देर तक
अपने को रोक न सका, हंस पड़ा। बुद्ध ने हाथ से इशारा कर उसे
अपने पास बुलाया। उसे वह फूल सौंपा और सभी भिक्षुओं के समूह
से कहा- '' मैंने जो कुछ अनुभव किया, उस सत्य और सिखावन
को जितना शब्द के द्वारा दिया जाना सम्भव था, वह सब कुछ तुम्हें दे
दिया लेकिन इस फूल के साथ, इस सिखावन की कुंजी मैंने आज
महाकाश्यप करे सौंप दी।''


न केवल बुद्ध बल्कि जीसस, महावीर और लाओत्से जैसे सद्‌गुरुओं के सिखावनों की कुंजी, शाब्दिक अभिव्यक्ति के द्वारा नहीं दी जा सकती। वह कुंजी केवल मन के द्वारा नहीं दी जा सकती। उस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जितना अधिक तुम कहोगे, उसका सौंपना उतना ही अधिक कठिन होता जाता है, क्योंकि एक बुद्ध और तुम इतने अधिक भिन्न आयामों में रहते हो, न केवल भिन्न वरन् पूरी तरह से विरोधी आयामों में रहते हो कि बुद्ध जो कुछ भी कहता है, उसे गलत ही समझा जाएगा। मैंने सुना है कि एक शाम तीन महिलाएं जिन्हें कुछ ऊंचा या कम सुनाई देता था,
एक सड़क पर मिलीं। उस दिन हवा बहुत तेज चल रही थी, इसलिए एक स्त्री ने कहा-’‘ बयार तेज है न?''
दूसरी ने कहा-’‘ बुधवार? नहीं, आज तो थर्सडे है। ''
और तीसरी ने कहा-’‘ क्या कहा थर्सटी हो तुम प्यास मुझे भी लग रही है। चलो, सभी रेस्तरां चलकर कुछ ठंडा पिएं। ''
जब एक बुद्ध तुमसे कुछ कहता है तो ऐसा ही कुछ तुम्हारे साथ भी होता है। वह कहता है-’‘ बयार बह रही है। '' तुम समझते और कहते हो-’‘ बुधवार नहीं आज तो थर्स डे है। ‘‘ तुम्हारा भौतिक कान तो ठीक है पर तुम आध्यात्मिक श्रवण से चूके जा रहे हो। एक बुद्ध केवल दूसरे बुद्ध से तो बातचीत कर सकता है, यही समस्या है। लेकिन दूसरे बुद्ध से बात करने की वहां कोई जरूरत ही नहीं। बुद्ध को तो उन लोगों से करनी होती है, जो अभी बोध को उपलब्ध नहीं हुए हैं। उन्हीं के साथ बातचीत करने और प्रतिसंवेदित करने की जरूरत होती है, लेकिन तब उसे प्रतिसंवेदित करना असम्भव हो जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि एक बार सूफी फकीर फरीद बनारस के निकट होकर गुजर रहे थे, जहां कबीर रहते थे। फरीद के शिष्यों ने कहा-’‘ यदि आप कबीर से भेंट करें तो आप दोनों का मिलना हम सभी के लिए अद्‌भुत रोमांचकारी, आनन्दमय और आशीर्वाद स्वरूप होगा।‘‘
ऐसा ही कबीर और उनके शिष्यों के मध्य भी हुआ। जब उन्होंने सुना कि फरीद उधर से गुजर रहे हैं इसलिए उन्होंने कबीर से कहा-’‘ यदि आप फरीद साहब से कुछ दिन आश्रम में रुकने का आग्रह करें तो हम सभी के लिए यह बहुत अच्छा होगा। ‘‘
फरीद के शिष्यों ने कहा-’‘ आप दोनों के मध्य हुए वार्तालाप को सुनने का हमें महान अवसर मिलेगा। हम लोग वह सब कुछ सुनने को बहुत आतुर हैं कि बुद्धत्व को उपलब्ध हुए दो संत एक दूसरे से क्या कहते हैं। ‘‘
अपने शिष्यों की बात सुनकर फरीद हंसा और उसने कहा-’‘ हम दोनों मिलेंगे तो जरूर, लेकिन मैं नहीं सोचता कि वहां कोई बातचीत भी होगी, लेकिन अच्छा है। तुम लोग खुद देखना, क्या होता है? ‘‘
कबीर ने अपने शिष्यों से कहा-’‘ फरीद से जाकर कहो कि वह यहां पधारें और विश्राम करें, लेकिन जो भी पहले बोलेगा वह यह सिद्ध करेगा कि वह बोध को उपलब्ध नहीं है। ‘‘
फरीद आए कबीर ने उनका स्वागत किया। वे दोनों हंसे। उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया और मौन बैठे रहे। फरीद वहां दो दिन रुके और वे कबीर के साथ कई घंटे साथ बैठे रहे। दोनों के ही शिष्य बहुत बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे कि दोनों के मध्य कुछ बातचीत हो। कोई कुछ तो कहे, लेकिन कोई एक शब्द तक न बोला। तीसरे दिन फरीद जब चलने लगे तो कबीर ने उन्हें विदा किया। वे दोनों फिर हंसे। एक दूसरे से आलिंगनबद्ध हुए और फिर अलग हो गए।.
विदा होने के क्षण फरीद के शिष्यों ने उन्हें चारों ओर से घेर कर कहा-’‘ सब कुछ व्यर्थ रहा। समय ही बरबाद हुआ। हम लोगों को आशा थी कि आप दोनों के मिलने पर कुछ अभूतपूर्व घटेगा। पर कुछ भी तो नहीं हुआ। आप अचानक वहां इतने गुंगे क्यों बन गए। आप हम लोगों से तो बहुत-सी बातें करते हैं। ‘‘
फरीद ने उत्तर दिया-’‘ वह सभी जो मैं जानता हूं वह भी जानते हैं। कुछ भी कहने को रहा ही नहीं। मैंने उनकी आंखों में झांका और वह वहीं दिखाई दिए जहां मैं हूं। जो कुछ उन्होंने देखा, वही सब कुछ मैंने भी देखा। जो कुछ उन्होंने महसूस किया, मैंने भी वैसा ही महसूस किया। अब वहां कहने को कुछ था ही नहीं। ‘‘
दो अज्ञानी व्यक्ति एक-दूसरे के साथ बातचीत कर सकते हैं। वे बहुत अधिक बातें करते हैं'। वे बातें करने के सिवा और कुछ करते ही नहीं। दो बुद्ध आपस में कोई बात कर ही नहीं सकते, क्योंकि वे एक जैसा ही जानते हैं। कहने को कुछ है ही नहीं। केवल बुद्ध और बिना बोध को उपलब्ध व्यक्ति के मध्य ही अर्थपूर्ण संवाद हो सकता है, क्योंकि एक जानता है और दूसरा अभी अज्ञानी है। मैं कहता हूं-एक अर्थपूर्ण संवाद। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इस संवाद से सत्य सम्प्रेषित किया जा सकता है, लेकिन कुछ इशारों कुछ संकेतों और कुछ भावा भिव्यक्तियों द्वारा कुछ प्रकट किया जा सकता है, जिससे दूसरा छलांग लगाने को तैयार हो सकता है। सत्य तो सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता, लेकिन प्यास दी जा सकती है। कोई भी शिक्षण चाहे वह कितना भी कीमती क्यों न हो, शब्दों के द्वारा वह कुंजी नहीं दे सकता। बुद्ध बहुत बोलते रहे, उन जैसा व्यक्ति खोज पाना कठिन है जो इतना अधिक बोला हो। उन सभी शास्त्रों का, जो उपलब्ध हैं और जो बुद्ध के नाम पर हैं, अध्ययन करते हुए विद्वानों का कहना है कि यह असम्भव जैसा लगता है, क्योंकि बोध को उपलब्ध होने के बाद वे चालीस वर्ष और जीवित रहे और पूरे बिहार में एक गांव से दूसरे गांव की ओर यात्रा करते हुए वह बोलते ही रहे। वह बिहार- भर में इतना घूमे, .रहे और बिहरे कि प्रांत का नाम विहार, बुद्ध के बिहरने से ही पड़ा। बिहार का अर्थ है-बुद्ध का यात्रा-पथ। पूरा प्रांत ही बिहार कहा जाता है क्योंकि उसी की सीमा में बुद्ध भ्रमण करते रहे-बिहरते रहे। वे निरन्तर घूमते ही रहे, केवल बरसात में वे विश्राम करते थे। काफी समय तो चलने में ही बरबाद हो जाता था और तब उन्हें विश्राम करते हुए सोना भी होता था। इसीलिए विद्वान बचे समय की गणना करते हुए कहते हैं-यह असम्भव जैसा लगता
इतना अधिक चलना, सोना अपने दैनिक कार्यों को पूरा करना- और बचे समय में इतने अधिक ग्रंथ, वह इतना अधिक कैसे बोले होंगे? यदि वह चालीस वर्षों तक निरन्तर बिना एक क्षण का भी अंतराल किए बोले होंगे, तभी इतना सब कुछ सम्भव है। वे निरन्तर इतना अधिक जरूर बोले होंगे, फिर भी वे कहते हैं कि शब्दों के द्वारा कुंजी नहीं सौंपी जा सकती।
यह कहानी, सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहानियों में से एक है, क्योंकि इसी कहानी से झेन की परम्परा का शुभारम्भ होता है। झेन का पहला सद्‌गुरु महाकाश्यप ही है, वह झेन का मूल है और यह कथा ही वह स्रोत है, जहां से पूरी झेन की परम्परा की शुरुआत हुई। एक ऐसी सुंदर और जीवन्त परम्परा, जिसके जोड़ की पृथ्वी में अन्य कोई परम्परा है ही नहीं।
इस कहानी को समझने का प्रयास करें।
एक सुबह बुद्ध प्रवचन देने पधारे और सदा की भांति काफी बड़ी संख्या में लोग वहां एकत्रित थे। वे सभी उन्हें सुनने की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन एरक चीज असाधारण थी, वे आज अपने हाथ में एक फूल लिए हुए थे। इससे पूर्व वह कभी भी अपने हाथ में कुछ भी लेकर न आए थे। लोगों ने सोचा-शायद किसी ने उन्हें वह फूल भेंट किया होगा।
बुद्ध आए वे वृक्ष के नीचे बैठ गए। समूह का समूह और वहां एकत्रित हजारों लोग प्रतीक्षा करने लगे किवे कुछ बोलें, लेकिन प्रतीक्षा लम्बी होती गई। उन्होंने लोगों की ओर निहारा तक नहीं, वे केवल फूल को ही देखते रहे। मिनट गुजरे और फिर घंटे और सभी लोग बेचैन होने लगे।
यह कहा जाता है कि महाकाश्यप अपने को रोक न सका। वह जोरों से खिल-खिला कर हंस पड़ा। बुद्ध ने उसे अपने पास बुलाया, उसे फूल दिया और तब एकत्रित समुदाय से कहा-’‘ शब्दों के द्वारा जो कुछ भी कहा जा सकता था, मैं तुमसे कह चुका हूं और जो कुछ शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता, मैं उसे महाकाश्यप को देता हूं। शब्दों द्वारा सत्य की कुंजी नहीं दी जा सकती, वह उगज मैं महाकाश्चप को सौंप रहा हूं। ‘‘ यह. है वह-जिसे झेन सदगुरु बिना शब्दों और शास्त्रों के कुंजी का हस्तांतरण कहते हैं-जो शास्त्रों के पार, शब्दों के पार और मन के भी पार है। उन्होंने वह फूल
महाकाश्यप को दे दिया। कोई कुछ भी समझ ही न सका कि आखिर हुआ क्या? न तो महाकाश्यप ने और न कभी बुद्ध ने इस पर फिर से कुछ कहा। जैसे पूरा अध्याय ही समाप्त हो गया। तभी से चीन, तिब्बत, थाइलैंड, बर्मा, जापान और श्रीलंका में या जहां कहीं भी बौद्ध हैं, वे पच्चीस सदियों से यही प्रश्न पूछते आ रहे हैं-’‘ महाकाश्यप को क्या दिया गया? वह कुंजी है क्या? ‘‘
यह पूरी कहानी ही बहुत रहस्यमय बन जाती है। बुद्ध कभी कुछ छिपाते ही न थे, बस यही अकेली ऐसी घटना है.. .बुद्ध बहुत विचारशील व्यक्तित्व के हैं। उनकी बातचीत में गहरी समझ है। वे उन्मादी चमत्कार या आनन्द उत्पन्न नहीं करते। वह तर्कपूर्ण ढंग से विचार करते हैं और उनके प्रमाण तथा तर्क पूर्ण हैं-तुम उनमें कोई छिद्र या कमीन खोज पाओगे। केवल-यही अकेली ऐसी घटना है, जहां उनका व्यवहार अतर्क पूर्ण है, जहा उन्होंने कुछ ऐसा किया है, जो रहस्यमय है। लेकिन वह बिलकुल भी रहस्यमय नहीं है। तुम उन जैसा दूसरा सद्‌गुरु न खोज सकोगे, जो इतना कम रहस्यमय हो।
जीसस बहुत रहस्यमय है, लाओत्से तो पूरी तरह से रहस्यमय ही है। बुद्ध बहुत स्पष्ट व पारदर्शी हैं। उनके चारों ओर किसी रहस्य या धुंधले-से भी धुएं को रहने की अनुमति ही नहीं है। उनकी ज्योति चमकदार और स्पष्ट है। वह पूरी तरह धुम्ररहित और पारदर्शी है। यही अकेली ऐसी चीज है जिससे वे रहस्यमय लगते हैं, इसीलिए कई बौद्ध शास्त्रों ने इस वृत्तांत का कभी कोई उल्लेख ही नहीं किया। उन्होंने बस इसे यूं छोड़ दिया जैसे यह कभी हुआ ही नहीं। ऐसा लगता है जैसे किसी की बुद्धि ने
इसका आविष्कार किया हो। बुद्ध के जीवन और उनके व्यवहार से इसका तालमेल ही नहीं बैठता।
लेकिन झेन के लिए यही मूल स्रोत है। महाकाश्यप इस कुंजी को प्राप्त करने वाला पहला सौभाग्यशाली बना। तब भारत में इसके छ: और उत्तराधिकारी बने। बोधिधर्म इस कुंजी को पाने वाला छठवां था और तब उसने पूरे भारत में गहन खोज की पर वह महाकाश्यप जैसा क्षमतावान कोई भी व्यक्ति न पा सका, जो मौन को समझ सके। ठीक ऐसे ही व्यक्ति की खोज में उसे भारत छोड़ना पड़ा, जिससे कहीं और वह ऐसा व्यक्ति खोजकर उसे कुंजी हस्तांतरित कर सके, अन्यथा वह कुंजी उसी के साथ खो जाती।
बोधिधर्म के साथ ही चीन में सही अर्थों में बौद्ध धर्म का प्रवेश हुआ। चीन में बोधिधर्म ऐसे ही व्यक्ति की खोज में आया था, जो मौन को समझ सके, जिससे अमन में हृदय की बात हृदय तक पहुंच जाए जिसने बुद्धि और अहंकार को व्यर्थ जानकर गिरा दिया हो और जिसे वह कुंजी को हस्तान्तरित कर सके। बिना सिर वाला ( बुद्धिमान होकर भी जिसने व्यर्थ जान बुद्धि और अहंकार को गिरा दिया हो) व्यक्ति भारत में खोज पाना कठिन था, क्योंकि भारत में तब पंडित, विद्वान और बड़े-से-बड़े सिर वाले लोग ही थे। एक पंडित या विद्वान धीरे- धीरे हृदय के बारे में हर चीज भूलता जाता है और केवल सिर ही रह जाता है। उसका पूरा शरीर सिकुड़कर जैसे विलुप्त हो जाता है।
यह सम्प्रेषण शब्दों के पार केवल हृदय से हृदय तक ही हो पाना सम्भव है। इसलिए चीन में भी बोधिधर्म नौ वर्षों तक खोजता रहा और तभी वह एक ऐसा व्यक्ति पा सका। नौ वर्षों तक बोधिधर्म चीन में लोगों की ओर मुंह न कर दीवार की ओर मुंह कर बैठा रहा। यदि तुम उसे सुनने के लिए उसके निकट गए होते तो उसका मुंह दीवार की ओर, और अपनी ओर तुम उसकी पीठ पाते। लोग उससे पूछा करते थे-’‘ आप इस विशिष्ट ढंग से क्यों बैठते हैं? हम लोग आपको सुनने के लिए हैं। ‘‘ तो बोधिधर्म उत्तर देता-’‘ मैं उस व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हूं जो मुझे सुन सके। मैं तुम लोगों की ओर नहीं देखूंगा, मैं अपना समय नष्ट नहीं करूंगा, मैं केवल उसी व्यक्ति की ओर
देखूंगा तो तुझे ( मेरे मौन को) सुन सके। ‘‘
तब एक व्यक्ति आया, वह बोधिधर्म के पीछे जाकर खड़ा हो गया और अपना दाहिना हाथ काटकर बोधिधर्म की ओर फेंकते हुए उसने कहा-’‘ कृपया मेरी ओर मुड़कर देखिए अन्यथा मैं अपना सिर काटने जा रहा हूं। ‘‘
बोधिधर्म ने तुरन्त उसकी ओर मुड़कर कहा-’‘ ठीक! तो तुम आ ही गए। यह कुंजी लो और मुझे इस कार्य से मुक्त करो। ‘‘
वह कुंजी जो बुद्ध द्वारा महाकाश्यप को सौंपी गई थी, बोधिधर्म ने इस व्यक्ति को हस्तान्तरित कर दी। एक चीनी सातवां सद्‌गुरु बना और अब तक यह यात्रा चल रही है। कुंजी अभी भी किसी के पास है जो उसे संभाले हुए हैं, नदी अभी भी सूखी नहीं है।
मेरे लिए यदि बुद्ध के सभी शास्त्र नष्ट भी हो जाए फिर भी कुछ खोएगा नहीं। केवल यह वृत्तान्त नहीं खोना चाहिए। यही सर्वाधिक कीमती है और बौद्ध विद्वानों ने बुद्ध की जीवनगाथा में इसी वृत्तान्त को छोड़ दिया है। वे कहते हैं-यह असंगत है, यह वृत्तान्तबुद्ध के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता। ‘‘ लेकिन मैं तुमसे कहता हूं-’‘ बुद्ध ने अन्य जो कुछ भी किया, वह बस साधारण था, उसे कोई भी कर सकता था, लेकिन यह असाधारण है, यह अद्वितीय और अनूठा है और इसे केवल बुद्ध ही कर सकते थे। ‘‘
उस सुबह हुआ क्या? अब हम उसके अंदर गहराई में उतरना शुरू करें। बुद्ध आए बैठे और उस फूल की ओर देखना शुरू कर दिया। उन्होंने अन्य लोगों की ओर देखा ही नहीं। वह फूल ही जैसे दीवार बन गया। यही सब कुछ तो बोधिधर्म ने किया १; वह दीवार की ओर ही देखता रहा, उसने अन्य लोगों की ओर देखा ही नहीं-उसने अपनी दृष्टि को व्यर्थ खर्च नहीं किया। कोरी दीवार ही जैसे फूल बन गई भीड़ वहा- जैसे रही ही नहीं। वह क्या कर रहे थे? जब बुद्ध किसी भी वस्तु की ओर देखते हैं, उनकी चेतना का गुण उसमें हस्तांतरित हो जाता है। एक फूल संसार की सभी वस्तुओं
में एक अकेला ऐसा है, जिसमें सबसे अधिक ग्राहकता या ग्राह्य-शक्ति है। इसीलिए हिन्दू और बौद्ध फूलों के साथ ही सदगुरु से भेंट करने जाते हैं और उन्हें उनके चरणों में या मंदिर में चढ़ाते हैं क्योंकि फूल ही तुम्हारी चेतना का थोड़ा-सा भाग साथ ले जा सकता है।
फूल बहुत ही ग्राह्य वस्तु है और यदि पश्चिम में हुई नई खोजों के प्रति तुम सजग हो तो तुम इसे समझ सकोगे। अब वे कहते हैं कि पौधे मनुष्यों से भी कहीं अधिक संवेदनशील हैं। एक फूल पौधे का हृदय होता है जिसमें पौधे का सम्पूर्ण अस्तित्व समा जाता है। रूस में इस संबंध में काफी शोध हुई है, साथ ही अमेरिका और इंग्लैंड में भी पौधों की संवेदनशीलता के बारे में कुछ अविश्वसनीय बातों का पता चला है।
एक वैज्ञानिक पौधों पर यही कार्य कर रहा था कि वे कैसा अनुभव करते हैं वे पास आने वाली किसी वस्तु या व्यक्ति का अनुभव करते हैं या नहीं, उनके अंदर भाव उठते हैं या नहीं? वह पौधे के साथ इलेक्ट्रोड लगाए हुए यह खोज रहा था कि उसके आंतरिक अस्तित्व में कोई गतिशीलता, संवेदना या भावना होती है या नहीं। उसने सोचा, यदि मैं इस पौधे को काट दूं यदि मैं इसकी एकशाखा को खींच कर अलग कर दूं अथवा उसे जमीन से उखाड़ दूं तो क्या होगा? अचानक जो सुई ग्राफ बता रही थी, उसने एक छलांग भरी। उसने उस पौधे के साथ किया कुछ भी नहीं था, केवल सोचा
ही था, ‘‘ यदि मैं इस पौधे को काट दूं.. ‘‘कि वह पौधा मृत्यु के भय से कांप उठा और उससे लगी सुई ने छलांग भरते हुए पौधे की कम्पनों को रिकार्ड किया। यहां तक कि वह वैज्ञानिक भी डट गया क्योंकि उसने पौधे के साथ कुछ भी नहीं किया था-केवल उसके विचार को पौधे ने ग्रहण कर लिया। पौधे मन के विचारों और भावों को भी पकड़ने की क्षमता रखते हैं।
तब उसने और भी आगे, लम्बी दूरी पर पौधों को रखकर काम शुरू किया। जिस पौधे को उसने उगने में पानी और प्रेम देकर उसकी सहायता की थी, उस पौधे को उसने अपने से एक हजार मील दूर हटा दिया। तब उसने एक हजार मील दूर पौधे के- विरुद्ध विचार किया और उतनी दूर भी पौधा व्याकुल हो उठा। इसलिए वैज्ञानिक रूप से अब पौधों के भाव किस तरह प्रभावित हो जाते हैं, इसे ग्राफ पर रिकार्ड किया जा चुका है। केवल इतना ही नहीं, बल्कियदि तुम एक पौधे या वृक्ष को काटने के सम्बन्ध में विचार करो तो उसके आस-पास के सभी पौधे और वृक्ष व्याकुल हो उठते हैं क्योंकि
उन्हें याद रहता है कि यह व्यक्ति अच्छा नहीं है। जब भी भी यह -व्यक्ति उद्यान में प्रवेश करता है, उद्यान के सभी पौधे -यह महसूस करते हैं जैसे एक दुष्ट व्यक्ति आ गया हो।
अब थोड़े से वैज्ञानिक यह सोचने लगे हैं कि पौधों का प्रयोग दूर-संचार ( टेलीपैथिक प्रणाली के रूप में किया जा सकता है क्योंकि वे मनुष्य के मस्तिष्क से- भी कहीं अधिक संवेदनशील होते हैं और कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि एक ग्रह के सँदेश ग्रहण करने के लिए भी पौधों का प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि हमारे अन्य यंत्र और उपकरण अभी इतने परिष्कृत नहीं हैं।
पूरब में हमेशा से ही यही जाना जाता रहा है कि फूल में सर्वाधिक ग्राह्यता है। जब बुद्ध ने फूल की ओर देखा और निरन्तर उस फूल को देखते ही रहे, तो उनके 'अंदर का कुछ फूल को हस्तान्तरित हो गया। जैसे बुद्ध ही फूल में प्रवेश कर गए। उनके अस्तित्वगत गुण, सजगता, चेतना शांति, परमानन्द और उनके अंदर होने वाला नृत्य, फूल को -स्पर्श करने लगा। बुद्ध द्वारा बिना किसी कामना, सहजता, सरलता और अपनत्व से फूल को देखे जाने से, उस फूल का आंतरिक अस्तित्व जरूर नृत्य करने लगा होगा। वह उस फूल को अपना कुछ हस्तांतरित करने के लिए ही देख रहे थे - यह चीज समझ लेने जैसी है। केवल वह और फूल ही एक लम्बी अवधि तक आमने- सामने रहे और जैसे पूरा संसार तिरोहित हो गया। केवल बुद्ध और फूल ही वहां थे। वह फूल बुद्ध के अस्तित्व में प्रवेश कर गया और बुद्ध फूल के अस्तित्व में प्रविष्ट हो गए।
जब वह फूल महाकाश्यप को दिया गया, तब वह मात्र एक फूल नहीं था। अब वह बुद्धत्व का स्वाद और सुवास लिए हुए था। उसके साथ अब बुद्ध के अस्तित्व के आंतरिक गुण भी थे। वह फूल महाकाश्यप को ही क्यों दिया गया? वहां अन्य महान विद्वान साधक और बुद्ध के निकटतम दस अंतरंग शिष्य भी थे। इस घटना के बाद महाकाश्यप को भी इन्हीं दस के समूहमें शामिल कियागया, अन्यथा उनके प्रमुखतम और निकटतम शिष्यों में वह सम्मिलित ही न किया जाता।
महाकाश्यप के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलती। वहां सारिपुत्र के समान अद्‌भुत मेधावी और विद्वान शिष्य भी थे-सारिपुत्र की प्रतिभा जैसा ज्ञानी खोजना कठिन था। यौनाल्यायन भी महान विद्वान था। चारों वेद उसे जबानी याद थे और उस समय तक जौ कुछ भी शास्त्रों में लिखा गया था, वह उसका पूर्ण ज्ञाता था। वह महान तार्किक था और उसके हजारों शिष्य थे। वहां ऐसे दूसरे महत्वपूर्ण लोग भी थे। आनन्द था वहां, बुद्ध का चचेरा भाई, जो निरन्तर चालीस वर्ष तक बुद्ध के साथ -छाया की भांति रहा, लेकिन नहीं, कोई अन्य जो अब तक अज्ञात था, वह महाकाश्यप अचानक सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन गया। पूरा परिदृश्य ही बदल -गया। जब भी बुद्ध प्रवचन करते थे, सारिपुत्र ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था क्योंकि अन्य लोगों की अपेक्षा वह शब्दों को अधिक गहराई से समझ सकता थाऔर जब -बुद्ध तर्क देते थे तो मौदगल्यान सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति होताथा। महाकाश्यप के बारे में किसी ने कभी सोचा भी न था। वह समूह के बीच ही रहता था भिक्षुओं के समूह का ही एक भाग था।
लेकिन जब बुद्ध मौन ही रहे तो पूरा गेस्टाल्ट ( परिदृश्य) ही बदल गया। अब मौदगल्यायन और सारिपुत्र महत्वपूर्ण न रहे। वे अस्तित्व में रहे ही नहीं, जैसे वे वहां थे ही नहीं। वे बस समूह का एक भाग बन गए। एक नया व्यक्ति महाकाश्यप सबसे अधिक-महत्वपूर्ण बन गया। एक नए आयाम का द्वार खुला। प्रत्येक व्याकुल था, सोच रहा था-' बुद्ध बोलते क्यों नहीं? वह आज मौन क्यों हैं? आखिर क्या होने जा रहा है'? यह मौन कब होगा समाप्त? वे बेचैन होकर असुविधा का अनुभव करने लगे।' लेकिन महाकाश्यप न तो चिंतित था और न व्याकुल। वास्तव में पहली बार ही वह बुद्ध के साथ इतना अधिक विश्रामपूर्ण था। बुद्ध के साथ पहली बार ही उसे अपने घर अर्थात शाश्वत केन्द्र पर होने का अनुभव हो रहा था। जब बुद्ध बोलते थे, वह बेचैन तो तब .हो सकता था, वह' तब सोचता होगा-' यह व्यर्थ की बातें क्यों? वे क्यों बोले जा रहे हैं? शब्दों के द्वारा न तो उसे सम्प्रेषित किया जा सकता है, न कुछ समझाया जा सकता है, फिर दीवार से सिर टकराने की यह कवायद क्यों चल रही है। लोग तो बहरे हैं। सुनकर भी वे उसे समझ नहीं सकते... 'जब बुद्ध बोलते थे, वह जरूर व्याकुल होता होगा और अब पहली बार वह अपने को शाश्वत केन्द्र पर पा रहा था। वह ही समझ सका था कि मौन क्या होता है?
वहां हजारों लोग बैठे थे और प्रत्येक व्यक्ति बेचैन था। वह भीड़ की बेवकूफी को देखकर अपने को रोक न सका। जब बुद्ध बोल रहे होते थे, वे सभी तभी शांत रहते थे और अब वे अशांत थे क्योंकि बुद्ध शांत और मौन थे। जब कुछ हस्तांतरित किया जा सकता था, वे अपने को बंद किए बैठे थे और जब कुछ भी हस्तान्तरित नहीं हो सकता था तो वे उसकी प्रतीक्षा करते थे। अब मौन के द्वारा बुद्ध कुछ ऐसा दे सकते थे जो शाश्वत हो, लेकिन वे उसे नहीं समझ सकते थे इसीलिए वह अपने को रोक न सका और जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ा। वह हंसा उस पूरी परिस्थिति और पूरी मूर्खता पर।
हम लोगों को बुद्ध की जरूरत इसीलिए होती है, जिससे वे उपदेश दें, क्योंकि केवल हम शब्दों को समझते हैं। यही मूर्खता है। तुम्हें बुद्ध के साथ मौन होना सीखना चाहिए क्योंकि केवल तभी वह तुम्हारे अन्दर प्रवेश कर सकता है। शब्दों के द्वारा तो वह तुम्हारे दरवाजे को केवल खटखटा सकता है लेकिन कभी उसमें प्रवेश नहीं कर सकता।
मौन के द्वारा ही वह तुम्हारे अंदर प्रवेश कर सकता है और जब तब वह तुम्हारे अंदर प्रवेश नहीं करता, कुछ भी नहीं होगा। उसका प्रवेश तुम्हारे संसार में एक नया तत्व लाएगा। उसका तुम्हारे हृदय में प्रवेश तुम्हें एक धड़कन और नया स्पन्दन देगा, तुम्हारे जीवन को एक नया प्रवाह देगा-लेकिन यह होगा तभी जब वह प्रवेश करे। महाकाश्यप मनुष्य की मूढ़ता पर हंसा। वे सभी लगे बेचैन और व्याकुल होकर सोच रहे थे-' कब बुद्ध अपना मौन तोड़कर खड़े होंगे जिससे हम लोग अपने- अपने घर जा सकें। ' वह हंसा।
यह हास्य महाकाश्यप से प्रारम्भ हुआ और तब से झेन परम्परा में निरन्तर चला आ रहा है। वहां और कोई दूसरी परम्परा नहीं है, जो हंसा सके क्योंकि हंसना, इतना अधार्मिक और उथला दिखाई देता है। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि जीसस कभी हंसे होंगे। तुम महावीर के हंसने की बाबत भी कभी नहीं सोच सकते। यह कल्पना करना तक कठिन है कि महावीर कभी खुलकर हंसे होंगे या जीसस ने कभी छत फाड़ ठहाका लगाया होगा। नहीं, हंसने की मनाही थी। उदासी ही किसी तरह धर्म का पर्याय बन गई।
एक प्रसिद्ध जर्मन विचारक काउन्ट कैसरलिंक ने लिखा है कि स्वास्थ्य अधार्मिक है और बीमार बने रहना ही धार्मिकता है, क्योंकि एक बीमार व्यक्ति ही उदास और कामना रहित होता है वह इसी कारण कामनारहित नहीं होता, बल्कि अपनी निर्बलता के कारण ही उसमें कामना नहीं उठती। एक स्वस्थ व्यक्ति हंसेगा, आनन्द मनाना चाहेगा, प्रसन्न रहेगा-वह उदास रह ही नहीं सकता इसलिए धार्मिक लोगों ने कई तरह से तुम्हें रुग्ण रखने की तरकीबें निकालने की कोशिशें की हैं-तुम उपवास करो, अपने शरीर को सताओ, दमन करो। इससे तुम स्वयं अपने को उदास, आत्मघाती बना
लोगे और अपने को सलीब पर लटका पाओगे। तुम कैसे हंस सकते हो? हंसी तो तभी आती है जब तुम स्वस्थ हो। जब तुम्हारे अन्दर ऊर्जा अतिरेक से बह रही हो। यही कारण है कि बच्चे खुलकर हंसते हैं और उनकी हंसी समग्र अस्तित्व से आती है। हस हंसी में उनका पूरा शरीर लिप्त होता है-जब वे हंसते हैं तो तुम देख सकते हो कि उनके पैरों के तलुवे तक हंस रहे हैं। उनके पूरे शरीर का हर कोण और शरीर का रोया- रोया हंस रहा है और तरंगित हो रहा है। उनके अंदर जैसे स्वास्थ्य लबालब भरा हुआ है, वह इतना अधिक गरिमापूर्ण है कि उसके साथ जैसे प्रत्येक वस्तु प्रवाहित हो रही
एक उदास बच्चे का अर्थ है-एक रुग्ण बच्चा और एक हंसते हुए वृद्ध व्यक्ति का अर्थ है कि वह अभी भी युवा है। उसे मृत्यु भी का नहीं बना सकती। उसे कुछ भी बूढ़ा नहीं बना सकता। उसके अन्दर अभी तक ऊर्जा न केवल प्रवाहित हो रही है, वरन् वह अतिरेक से बह रही है। उसमें जैसे बाढ़ आई हुई है। हास्य ऊर्जा की बाढ़ ही
झेन मठों में वे हंसते हैं, हंसते ही रहते हैं और हंसे ही चले जाते हैं। केवल झेन में ही हास्य एक प्रार्थना बन गया है क्योंकि उसे महाकाश्यप ने प्रारम्भ किया था। पच्चीस सदियों पूर्व, ठीक इसी तरह की एक सुबह महाकाश्यप ने एक नई, बिकुल ही नई धारा का प्रवर्तन किया, जो तब से पूर्व धार्मिकचित्त के लिए अनजानी और अपरिचित थी। वह हंसा। वह हंसा, वहां सभी लोगों की मूर्खता पर और बुद्ध ने भी उसे गलत नहीं माना, जबकि इसके विपरीत उन्होंने उसे अपने पास बुलाया, उसे
फूल दिया और पूरे समुदाय से कुछ कहा। जब भिक्षुओं के समुदाय ने उसकी हंसी सुनी होगी तो उन्होंने यह जरूर सोचा होगा-' यह व्यक्ति तो पागल हो गया है। यह व्यक्ति तो बुद्ध के प्रति असम्मान प्रकट कर रहा है, क्योंकि एक बुद्ध के सामने तुम कैसे हंस सकते हो? जब एक बुद्ध शांत और मौन बैठा हो, तुम कैसे हंस सकते हो? यह व्यक्ति सम्मान दे ही नहीं रहा है। मन कहेगा यह तो अपमान कर रहा है बुद्ध का। ' मन के अपने अलग नियम हैं, लेकिन हृदय उन्हें नहीं जानता, हृदय के अपने अलग नियम हैं, लेकिन मन ने उनके बारे में कभी सुना ही नहीं। हृदय हंस भी सकता है और सम्मान भी प्रकट कर सकता है, लेकिन मन हंस नहीं सकता। वह केवल उदास हो सकता है और तब वह सम्मान प्रकट कर सकता है, लेकिन यह किस तरह का सम्मान है जो हंसा नहीं सकता? महाकाश्यप के हास्य से एक नई प्रवृत्ति, एक नई धारा का प्रवेश हुआ और आगे आने वाली सदियों तक यह हास्य की प्रवृत्ति जारी रही। केवल झेन सद्‌गुरु और झेन शिष्य ही हंसते हैं।
विश्व- भर में, सभी धर्म रुग्ण हो गए हैं क्योंकि उनमें उदासी का तत्व सबसे अधिक प्रमुख बन गया है और सभी मंदिर और गिरजाघर, कब्रगाह जैसे दिखाई देते हैं, उनमें उत्सव नहीं दिखाई देता उनमें समारोह और आनन्द का तत्व जैसे है ही नहीं। यदि तुम किसी चर्च में प्रवेशकरो तो तुम वहां क्या देखते हो जीवन नहीं, केवल वहां मृत्यु का साम्राज्य है-जीसस छूस पर लटके हुए पूरी उदासी का वातावरण उत्पन्न कर रहे है। क्या तुम एक गिरजेघर में हंस सकते हो? क्या वहां नृत्य कर सकते हो? क्या वहां उत्सव उमंग के गीत गा सकते हो? गीत वहां गाए जाते हैं-लेकिन उदासी के और लोग लम्बे चेहरे बनाए बैठे रहते हैं। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोग चर्च जाना ही नहीं चाहते, बस एक सामाजिक कर्त्तव्य निभाने- भर को वे वहां जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कोई भी चर्च की ओर आकर्षित नहीं है-वहां जाना एक औपचारिकता है। धर्म रविवार का एककार्यक्रम' बन गया है और एक घंटे के लिए तुम उदास होना बर्दाश्त कर लेते हो।
महाकाश्यप बुद्ध के सामने हंसा और तब से झेन भिक्षु संन्यासी और सद्‌गुरु ऐसी चीजें करते आ रहे हैं, जिनकी तथा कथित धार्मिक चित के लोग कल्पना ही नहीं कर सकते। यदि तुमने कभी भी कोई झेन की पुस्तक देखी हैतो तुम उसमें झेन सदगुरु द्वारा चित्रित चित्र देखोगे। कोई भी पेंटिंग वास्तविक चेहरा चित्रित नहीं करती। यदि तुम बोधिधर्म या महाकाश्यप का चित्र देखो तो वे उनके वास्तविक चित्र नहीं है, बल्कि उनको ओर देखते हुए तुम्हारे अन्दर. हंसने जैसा अनुभव होगा। उनकी मुखमुद्रा में प्रसन्नता ने; साथ .कुछ न कुछ हास्यास्पद जैसा कुछ जरूर होगा।
तुम बोधिधर्म की पेंटिंग की ओर देखो। उसे अवश्य ही बहुत सुन्दर व्यक्तियों में से एक होना चाहिए। इससे अन्यथा कुछ और होना सम्भव ही नहीं है, क्योकि जब भी कोई व्यक्ति बुद्धत्व को प्राप्त होता है, उस पर सुंदरता उतरती है, वह सुंदरता सभी के पार कहीं अज्ञात से उतरती है। उसके सम्पूर्ण अस्तित्व से शक्तिपात होता है, लेकिन बोधिधर्म की पेंटिंग को देखो, उसमें वह भयानक और खतरनाक दिखाई देता है। वह इतना खतरनाक दिखाई देता है कि- यदि तुम उसे रात में देखो तो डर जाओ। उसे देखकर तुम जीवन में कभी फिर से सोने में समर्थ न हो सकोगे। वह इतना खतरनाक दिखाई देता है, जैसे मानो वह तुम्हें मारने आ रहा हो। ऐसे बेतुके और हास्यास्पद चित्र इसलिए बनाए जाते हैं जिससे सद्‌गुरु को देखकर शिष्य हंस सकें। वह चित्र एक कार्टून की भांति दिखाई देता है।
सभी झेन सद्‌गुरुओं को बेतुकेपन और हास्यास्पद रूप में चित्रित किया गया है। शिष्य उन्हें देखकर खुश होते हैं, लेकिन वे चित्र अपने साथ यह गुणवत्ता लेकर चलते हैं कि बोधिधर्म खतरनाक हैं और यदि तुम उसके पास जाओ तो वह तुम्हें जान से मार देगा कि तुम उससे छुटकारा न पा सकोगे वह तुम्हारा निरन्तर पीछा करेगा और हर सुबह तुम्हारे सामने आकर खड़ा हो जाएगा। तुम जहां भी जाओगे उसी को पाओगे और जब तक वह तुम्हें मार नहीं देता, वह तुम्हें छोड़ेगा नहीं। यही चीज सभी झेन सद्‌गुरुओं के चित्रों में और यहां तक कि बुद्ध के चित्र में भी चित्रित की गई है।
यदि तुम बुद्ध की चीनी या जापानी पेंटिंग्स देखो तो वे भारतीय बुद्ध जैसी नहीं हैं। उन्होंने उन्हें पूरी तरह बदल दिया है। यदि तुम बुद्ध की भारतीय पेंटिंग्स देखो तो उनके शरीर के सभी अंग ठीक अनुपात में, जैसा कि वह होना चाहिए चित्रित किए गए है। वे एक राजकुमार थे, तब एक बुद्ध, बहुत ही सुंदर, सुदर्शन, पूर्ण और आनुपातिक होना चाहिए लेकिन यदि तुम बुद्ध की कोई जापानी पेण्टिंग देखो, उन्होंने पूरी शक्ल ही बदल दी है, न तो उनमें स्पष्टता है और न प्रामाणिकता ही। उन्होंने एकबडा पेट या तोंद चित्रित की है। बुद्ध का पेट बड़ा था ही नहीं। पर जापानी पेटिंग्ज तथा शास्त्रों में उनका पेट काफी बड़ा और फूला हुआ चित्रित किया गया है, क्योंकि जो व्यक्ति हंसता है उसके पेट का बड़ा और फूला होना जरूरी है। हंसते--हंसते पेट फूल जाए या उसमें दर्द होने लगे। यह तुम छोटे पेट के साथ कैसे कर सकते हो? तुम छोटे पेट के साथ उनुक्त ठहाके लगा ही नहीं सकते। वे बुद्ध के साथ मजाक या हंसी-ठिठोली कर रहे हैं और उन्होंने बुद्ध के बारे में ऐसी-ऐसी बातें कही हैं-जिन्हें कोई गहन प्रेम में ही कह सकता है अन्यथा वह अपमानजनक लगता है।
झेन सद्‌गुरु बांके अपने पीछे हमेशा बुद्ध की एक पेन्टिग टांगे रखता था और अपने शिष्यों से बातचीत करते हुए उसकी ओर संकेत कर वह कहा करता था-‘‘जरा उन महाशय की ओर देखो-वे जब भी तुम्हें कहीं मिल जाएं तो तुरन्त उन्हें मार देना उन्हें कोई अवसर देना ही नहीं। ध्यान करते समय वे उसमें बाधा डालने आ सकते हैं। जब भी तुम ध्यान में उनका चेहरा देखो, उन्हें तुरन्त वहीं का वहीं मार डालना, अन्यथा वे तुम्हारा पीछा करेंगे। ‘‘
और वह यह भी कहा करता था-’‘ इन महाशय की ओर जरा ध्यान से देखो। यदि तुम इनका नाम दोहराओगे-क्योंकि बौद्ध मन-ही-मन दोहराते रहते हैं-नमो बुद्धाय, नमो: बुद्धाय-’‘ यदि तुम इनका नाम दोहराओगे, तब जाकर कुल्ला कर अपना मुंह साफ कर लेना। ‘‘ यह अपमान जनक बात है। यह बुद्ध का नाम है .और यह व्यक्ति कहता है-’‘ यदि तुम इनका नाम दोहराओगे तो पहला काम करना कि मुंह साफ कर कुल्ला कर लेना, क्योंकि तुम्हारा मुंह गंदा हो जाएगा। ‘‘
और वह ठीक ही कहता है-क्योंकि शब्द तो शब्द हैं, अब इह चाहे बुद्ध का नाम हो या नहीं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब भी कोई शब्द तुम्हारे मन से होकर गुजरता है, वह गंदा हो जाता है। उसे धो लो। बुद्ध के नाम को भी धोकर अलग कर दो। और वह व्यक्ति, हमेशा अपने पीछे बुद्ध की पेन्टिंग रखते हुए प्रत्येक सुबह झुक कर उन्हें प्रणाम करता है। इसलिए उसके शिष्य पूछते थे-’‘ आप क्या कर रहे हैं यह? आप हम लोगों से तो कहते हैं-इस व्यक्ति को मार डालो, उसे अपने रास्ते में खड़े होने की भी अनुमति मत दो और आप कहते हैं-इनका नाम भी मत लो, मत जपो इनका नाम, यदिमुंह में नाम आ भी जाए तो जाकर अपना मुंह साफ कर लो। अब आप इन्हें झुककर प्रणाम कर रहे हैं। ‘‘
और बांके कहता था-’‘ यह सब कुछ मुझे इन्हीं महाशय ने ही सिखाया है, इसलिए मुझे इनके प्रति सम्मान तो प्रकट करना ही है। ‘‘
महाकाश्यप खिलखिलाकर हंस पड़ा और उसकी यह हंसी अपने साथ कई आयाम लिए हुए है। पहले तो वह मूर्खतापूर्ण सारी स्थिति है। एक बुद्ध मौन है और कोई भी उसे समझ नहीं पा रहा है प्रत्येक अपेक्षा कर रहा है कि वे बोलें। अपने जीवन- भर बुद्ध कहते रहे कि सत्य की अभिव्यक्ति शब्दों द्वारा नहीं की जा सकती, लेकिन फिर भी हर कोई अपेक्षा कर रहा है कि वे बोलें।
दूसरा आयाम है-वह बुद्ध पर भी हंसा, उनके द्वारा वह नाटकीय स्थिति उत्पन्न करने पर कि वह अपने हाथ में एक फूल लिए उसे देखे जा रहे हैं, इतनी अधिक व्याकुलता उत्पन्न कर रहे हैं और वहां बैठे प्रत्येक व्यक्ति को बेचैन बना रहे हैं। वह बुद्ध की इस नाटकीय भावाभिव्यक्ति पर भी हंसा।
इसका तीसरा आयाम है-वह स्वयं अपने आप पर भी हंसा। वह अब तक उसे समझ क्यों न सका? पूरी चीज इतनी अधिक सरल और सहज है और जिस दिन तुम इसे समझोगे-तुम हंसोगे क्योंकि इसमें समझने जैसा कुछ है ही नहीं, वहां हल करने को कोई पहेली है ही नहीं। हर चीज सदा से ही बहुत सरल और स्पष्ट है। तुम इसे चूकते क्यों रहे?
बुद्ध के मौन बैठने के साथ ही, वृक्षों पर गीत गाते पक्षी और पेड़ों से गुजरती हुई हवा और हर कोई व्याकुल हो उठा। महाकाश्यप समझ गया। वह क्या समझा? उसने समझा कि वहां समझने जैसा कुछ है ही नहीं, यहां कहने जैसा कुछ है ही नहीं और यहाँ स्पष्ट करने जैसा भी कुछ नहीं है। पूरी स्थिति है सरल और पारदर्शी। कुछ भी नहीं छिपा है उसमें। वहां खोजने की भी कोई जरूरत नहीं क्योंकिवह जो कुछ भी है, अभी और यहीं है, वह तुम्हारे ही अन्दर है।
वह स्वयं अपने आप पर ही हंसा, अपने कई जन्मों में किए जाते व्यर्थ के प्रयासों पर हंसा, केवल इस मौन को समझने के लिए इतना अधिक सोचने की मूर्खता पर हंसा।
बुद्ध ने उसे अपने पास बुलाया, उसे वह फूल दिया और कहा-’‘ मैं तुम्हें यह कुंजी सौंप रहा हूं। ‘‘ यह कुंजी कौन-सी है? मौन और उत्सुक्त हास्य ही वह कुंजी है-मौन स्वयं के अन्दर और हास्य बाहर। जब मौन के द्वारा हास्य सहज रूप से आता है तो वह इस संसार का न होकर दिव्य होता है। जब हंसी सोच विचार से आती है तो वह कुरूप होती है जब वह इस साधारण कीचड़- भरे संसार से आती है, तब वह ब्रह्मांडीय हास्य नहीं होता। तब तुम किसी और पर हंस रहे होते हो किसी और की कीमत पर, तब वह हास्य कुरूप और आक्रामक होता है। जब हास्य मौन से आता है तो तुम किसी और की कीमत पर नहीं हंस रहे होते हो। तुम केवल इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को परिहास मानकर हंस रहे होते हो। वह वास्तव में एक हास-परिहासमय चुटकुला होता है। यही कारण है कि मैं चुटकुले सुनाए चले जाता हूं.. क्योंकि इनमें शास्त्रों से भी कहीं अधिक सारगर्भित चीज है। यह हास परिहासमय इसलिए है, क्योंकि अपने अन्दर तुम प्रत्येक चीज लिए हुए हो और तुम उसे प्रत्येकस्थान में खोज रहे हो। इसके अलावा दूसरा अन्य कौन-सा मजाक हो सकता है? तुम सम्राट हो और सड़कके एक भिखारी की भांति अभिनय कर रहे हो, न केवल अभिनय कर रहे हो, न केवल दूसरों को धोखा दे रहे हो, बल्कि स्वयं अपने आपको भी धोखा दे रहे हो कि तुम एक भिखारी हो। तुम्हारे पास ही समस्त ज्ञान का स्रोत है और तुम प्रश्न पूछ रहे हो, तुम्हारे पास जानने वाला आत्मतत्व है और तुम सोचते हो कि तुम अज्ञानी हो। तुम्हारे अन्दर ही वह शाश्वत चेतना है और तुम मृत्यु और रोगों से भयभीत हो। यह सब कुछ वास्तव में एक मजाक है और यदि महाकाश्यप हंसा तो उसने ठीक ही किया।
लेकिन बुद्ध के अतिरिक्त इसे कोई भी न समझ सका। उन्होंने उसके हास्य को स्वीकार किया और तुरन्त अनुभव किया कि महाकाश्यप बोध को उपलब्ध हो गया। उस हंसी की गुणात्मकता उच्च आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत थी। वह उस स्थिति का पूरा परिहास भली- भांति समझ गए। वहां इसके अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। पूरी चीज कुछ ऐसी थी जैसे परमात्मा ही तुमसे लुका-छिपी का खेल, खेल रहा हो। दूसरों ने सोचा महाकाश्यप एक मूर्ख है, जो बुद्ध के सामने हंस रहा है, लेकिन बुद्ध ने सोचा कि वह व्यक्ति ही केवल प्रज्ञावान है। मूर्खों में हमेशा से एक सूक्ष्म प्रज्ञा होती
है और प्रज्ञावान ही मूर्खों की भांति अभिनय करते हैं।
पुराने समय में सभी बड़े सम्राट हमेशा अपने दरबार में एक विदूषक रखते थे। उनके पास बहुत से बुद्धिमान व्यक्ति, सलाहकार, मंत्री और प्रधानमंत्री होते थे, पर साथ में एक मसखरा या विदूषक भी होता था। विश्व- भर में सभी बुद्धिमान और होशियार सम्राटों के पास, चाहे पूरब हो या पश्चिम, एक दरबारी मूर्ख मसखरा जरूर होता था। क्यों क्योंकि वहां कभी ऐसीचीजें भी होती थीं जिन्हें तथा कथित बुद्धिमान समझने में सफल नहीं होते थे और वह मूर्ख व्यक्ति ही समझ सकता था, क्योंकि वे तथाकथित बुद्धिमान लोग इतने मूर्ख होते थे कि उनकी चालाकी और बेईमानी उनके मन-मस्तिष्क को कुंद कर देती है।
एक बेवकूफ व्यक्ति सरल होता है, इसलिए एक बेवकूफ व्यक्ति की ही आवश्यकता होती है, क्योंकि कई बार कथित बुद्धिमान लोग कुछ नहीं कह पाते, क्योंकि वे सम्राट से डरते हैं। एक बेवकूफ व्यक्ति कन्नी किसी से भी नहीं डरता। वह बोलेगा जरूर, परिणाम चाहे कुछ भी हो। वही व्यक्ति मूर्ख होता है जो कभी परिणाम के बारे में सोचता ही नहीं।
कृष्ण भी अर्जुन से कुछ ऐसा ही कह रहे हैं-’‘ मूर्ख ही बन जाओ। परिणाम या फल के बारे में सोचो ही मत। केवल कर्म करो। ‘‘
मूर्ख व्यक्ति इसी तरह से काम करते हैं, बिना यह सोचे हुए कि उनके करने से क्या होगा, क्या परिणाम निकलेगा। एक चालाक व्यक्ति हमेशा परिणाम के बारे में पहले सोच-विचार करता है और तभी कृत्य में उतरता है। विचार पहले करता है और कृत्य बाद में। एक मूर्ख व्यक्ति पहले करता है-, पहले कभी सोचता ही नहीं।
जब भी कोई व्यक्ति सर्वोच्च सत्ता का अनुभव करता है, वह तुम्हारे बुद्धिमान व्यक्तियों की तरह नहीं होता, वह हो भी नहीं सकता। वह तुम्हारे मूर्ख लोगों जैसा हो सकता है, लेकिन वह तुम्हारे बुद्धिमानों जैसा हो ही नहीं सकता। जब संत फ्रांसिस बोध को उपलब्ध हुए वे अपने को ' परमात्मा का मूर्ख ' कहकर पुकारा करते थे। पोप बुद्धिमान व्यक्ति था। जब संत फ्रांसिस उससे भेंट करने आए तो पोप ने भी सोचा कि यह व्यक्ति पागल हो गया है। वे बुद्धिमान, चालाक और हिसाबी--किताबी व्यक्ति थे, अन्यथा वह पोप बन ही कैसे सकते थे?
पोप बनने के लिए एक व्यक्ति को काफी राजनीति से गुजरना पड़ता है। पोप बनने के लिए संतत्व आवश्यक नहीं है, चतुराई की जरूरत है, चालाकी की जरूरत है, कूटनीति की जरूरत है प्रतियोगी आक्रामकता की जरूरत है, जिससे औरों को मुकाबले में एक तरफ अलग कर तुम अपना रास्ता बलपूर्वक बना सको और दूसरों का प्रयोग सीढ़ियों की तरह करते हुए उन्हें दूर फेंक सको। यह राजनीति है... क्योंकि पोप राजनीतिक सत्ता का भी प्रमुख होता है। धर्म दूसरे नम्बर पर है या कुछ भी नहीं है। वह एक धर्मशास्त्री हो सकता है, पर धार्मिक नहीं होता, क्योंकि एक धार्मिक व्यक्ति प्रतियोगिता कैसे कर सकता है? एक धार्मिक व्यक्ति पद के लिए लड़ते हुए आक्रामक कैसे हो सकता है? ऐसे लोग केवल राजनीतिज्ञ होते हैं।
संत फ्रांसिस पोप से भेंट करने आए और पोप ने सोचा कि यह व्यक्ति तो मूर्ख है, लेकिन वृक्षों, पक्षियों और मछलियों ने कुछ दूसरी तरह से सोचा। जब संत फ्रांसिस नदी पर गया तो मछलियां पानी में उत्सव मनाती उछलने लगीं कि संत फ्रांसिस आया है। हजारों लोग इस घटना के साक्षी बने। लाखों मछलियां एक साथ उछलीं और मछलियों के एक साथ उछलने से नदी और उसका पानी दिखाई देना बंद हो गया। संत फ्रांसिस आए हैं मछलियां इसीलिए आनन्दित थीं।
और वह जहां कहीं भी जाता था, पक्षी उड़ते हुए उसका अनुसरण करते थे। वे आते थे और उसके शरीर, गोद या सिर पर बैठ जाते थे। वे इस मूर्ख को, पोप की अपेक्षा अधिक समझते थे। यहां तक कि वृक्ष भी जो सूखकर मरने ही वाले थे, वे भी संत फ्रांसिस के निकट आते ही हरे होकर फूल उठते थे। ये वृक्ष भली- भांति समझते थे कि यह मूर्ख कोई साधारण मूर्ख न होकर-' परमात्मा का मूर्ख ' है।
जब महाकाश्यप हंसा, वह परमात्मा का मूर्ख था और बुद्ध इसे तुरन्त समझ गए क्योंकि वह कोई पोप नहीं थे। बाद के बौद्ध पुजारी और विद्वाना उसे न समझ सके, इसलिए उसके पूरे वृत्तान्त का उन्होंने अपने शास्त्रों में उल्लेख ही न किया।
मैं एक बार नव-बौद्धों के एक समुदाय के बीच चर्चा-परिचर्चा कर रहा था इसलिए मैंने उन लोगों को यह वृत्तान्त बताया।
वहां के बौद्ध पुजारी ने बाद में मेरे पास आकर कहा-’‘ आपने यह वृत्तान्त कहां से लिया है क्योंकि शास्त्रों में तो इसका कहीं उल्लेख ही नहीं है, यह झूठा है। आप जैसे व्यक्ति को ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए जो किसी भी बौद्ध शास्त्र में न लिखी हो, क्योंकि लोग आपकी बात का विश्वास करते हैं। ‘‘
मैंने उससे कहा-’‘ तुम अपने शास्त्र मेरे सामने लाओ, मैं उनमें यह वृत्तान्त जोड़ते हुए अपने हस्ताक्षर कर दूंगा और लिख दूंगा कि यह वृत्तान्त मैं जोड़ रहा हूं क्योंकि ऐसा वास्तव में हुआ और मैं वहां उसका साक्षी था। ‘‘
वह पुजारी मेरी ओर देखने लगा। उसने यह निश्चित रूप से सोचा होगा- ‘‘यह व्यक्ति पागल हो गया है। इससे बात करना ही फिजूल है। ‘‘
मैंने उस पुजारी से कहा-’‘ मेरे पास कोई शक्ति तो नहीं है, पर मेरे पास आदेश देने का अधिकार है... ‘‘शक्ति तो राजनीतिज्ञों के पास होती है, लेकिन धार्मिक व्यक्ति के पास अधिकार होता है। शक्ति दूसरों पर निर्भर होती है-वे उसे तुम्हें देते हैं- लेकिन अधिकार स्वयं अपने अन्दर से आता है इसलिए मैंने उससे कहा-’‘ मैं उसका साक्षी था। मैं तुम्हें अपने हस्ताक्षर करते हुए इस बात को तुम्हें लिखकर दे सकता हूं कि मैं इसका. साक्षी था। ऐसा ही हुआ था। तुम किसी तरह शास्त्रों में इसका उल्लेख करना भूल गए लेकिन इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं है। मैं इसके लिए जिम्मेदार नहीं हूं। यदि तुम अपने शास्त्रों में इसका उल्लेख करना भूल गए। ‘‘
इससे पूर्व वह व्यक्ति, वह पुजारी प्राय: मेरे पास आता रहता था, लेकिन अब उसने आना बन्द कर दिया और वह फिर कभी नहीं आया। एक मृत शास्त्र, एक पुजारी के लिए एक जीवित व्यक्ति की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं। मैं भले ही यह कहूं कि मैं उसका साक्षी हूं फिर भी मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता। बौद्धों के शास्त्रों में इस वृत्तान्त का उल्लेख ही नहीं किया, क्योंकि बुद्ध के सामने हंसना एक अधार्मिक कृत्य है जिसे एक महान धर्म के मूल स्रोत में सम्मिलित करना ठीक नहीं है। यह कोई अच्छा उदाहरण नहीं है कि बुद्ध के सामने एक व्यक्ति हंसे और यह भी अच्छा उदाहरण
नहीं है कि बुद्ध, सारिपुत्र, आनन्द, मौदगल्यायन और दूसरे अति महत्वपूर्ण लोगों को छोड्‌कर ऐसे व्यक्ति को कुंजी सौंप दें।
और अंतत: यह वही लोग थे-सारिपुत्र, आनन्द और मौदगल्यायन-जिन्होंने बुद्ध के वचनों को स्मृति के आधार पर लिखकर शास्त्र रचे। महाकाश्यप से कभी इस बारे में कुछ पूछा ही नहीं गया। तो यदि उससे पूछा भी गया होता तो भी वह उत्तर देता ही नहीं, लेकिन महाकाश्यप से तोकभी सलाह भी नहीं ली गई कि वह कुछ लिखने जा रहे हैं।
जब बुद्ध ने शरीर छोड़ दिया तो सभी भिक्षु एकत्रित हुए और उन्होंने वह सब कुछ लिपिबद्ध करना प्रारम्भ कर दिया, जो कुछ बुद्ध के निकट घटा था। किसी ने महाकाश्यप से पूछा ही नहीं। इस व्यक्ति की पूरे संघ ने अवश्य उपेक्षा की होगी। पूरा भिक्षु-समुदारय उससे अवश्य ही ईर्ष्या का अनुभव करता होगा। एक ऐसे व्यक्ति को कुंजी सौंप दइाई गई थी जो अज्ञात था, जो कोई महान विद्वान या ज्ञानी न था। उसे पहले से कोई भी न जानता था और अचानक उस सुबह वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गया था- अपनी इस असाधारण हंसी और मौन के कारण।
एक तरह से वे लोग ठीक भी थे, क्योंकि तुम मौन को कैसे लिपिबद्ध कर सकते हो? तुम शब्दों को लिपिबद्ध कर सकते हो, तुम उसे लिपिबद्ध कर सकते हो, जो तुमने घटते हुए देखा, तुम उसे कैसे लिपिबद्ध कर सकते हो जो घटता हुआ दिखाई ही नहीं दिया? वे बस यही जानते थे कि फूल महाकाश्यप को दिया गया और उसके सिवाय और कुछ भी नहीं।
लेकिन वह फूल तो बस एक वाहक का खोल था। वह अपने साथ बुद्ध के आंतरिक अस्तित्व की छुअन और बुद्धत्व की सुवास लिए हुए था, जो आंखों से नहीं देखी जी सकती और न लिपिबद्ध की जा सकती थी। पूरी-की-पूरी घटना ऐसे लगती थी जैसे वह कभी घटी ही नहीं अथवा घटी तो केवल एक सपने में।
जो लिपिबद्ध करने वाले लोग थे, वे शब्दों के जानकार थे, वे मौखिक संवादों, चर्चा-परिचर्चा, बातचीत और तर्कों में बहुत कुशल थे, लेकिन महाकाश्प के बारे में उस घटना के बाद कभी कुछ सुना ही नहीं गया। बस केवल एक ही बात उसके बारे में ज्ञात है, जो उन लोगों के लिए इतनी छोटी-सी बता थी कि उसका शास्त्रों में वे उल्लेख करना भूल गए। तब से महाकाश्यप मौन ही रहा और मीन में ही वह अंतर्सरिता प्रवाहित होती रही। वह कुंजी मौन में ही दूसरों को दी जाती रही और वह कुंजी आज भी जीवन्त है, जो अब भी बंद द्वारों को खोलती है।
यह दो ही भाग हैं इसके। पहला है- आंतरिक मौन, जो इतना गहना है कि तुम्हारे अस्तित्व या होने में उसकी कोई तरंग भी नहीं है। तुम हो, लेकिन वहां तरंगें नहीं हैं। तुम बिना लहरों का जैसे एक गहरा तालाब हो, जिसमें कोई तरंग उठती ही नहीं। तुम्हारा पूरा अस्तित्व स्थिर और मौन है। तुम्हारे अंदर केन्द्र पर गहन मौन है और परिधि पर उत्सव, आनन्द और हंसी है। केवल मौन ही हंस सकता है क्योंकि केवल मौन ही इस ब्रह्माण्डीय हास-परिहास को समझ सकता है।
इसलिए तुम्हारा जीवन एक महत्वपूर्ण उत्सव बन जाता है। तुम्हारे सम्बन्ध त्यौहार मनाने की तरह बन जाते हैं। तुम जो कुछ भी करते हो, प्रत्येक क्षण एक त्यौहार ही होता है।
तुम भोजन करते हो, तुम्हारा भोजन करना एक उत्सव बन जाता है। तुम बात चीत करते हो तो बात करना एक उत्सव बन जाता है। तुम खान करते हो तो सान करना एक उत्सव बन जाता है एक -दूसरे से सम्बन्ध भी उत्सवमय हो जाते हैं। तुम्हारा बाहरी जीवन एक त्यौहार बन जाता है जिसमें कोई उदासी होती ही नहीं। गहन मौन के साथ उदासी रह कैसे सकती है? लेकिन साधारणतय: तुम अन्यथा सोचते हो तुम सोचते हो कि यदि तुम मौन रहोगे तो उदास हो जाओगे। सामान्य रूप से तुम सोचते हो कि यदि तुम मौन रहते हो तो उदासी से कैसे बच सकते हो? मैं तुमसे कहता हूं जिस मौन में उदासी विद्यमान है, वह सच्चा और वास्तविक मौन है ही नहीं। कुछ-न-कुछ कहीं
गलत हो गया है। तुम मार्ग भूल गए हो, तुम पगडंडी छोड़ भटक गए हो। केवल आनन्द उत्सव ही इस बात का प्रमाण है कि तुम्हें वास्तविक मौन घटित हुआ है। एक असली और नकली मौन के मध्य अंतर क्या है? एक नकली मौन हमेशा बलपूर्वक प्रयास के द्वारा प्राप्त किया जाता है। वह सहज और स्वाभाविक नहीं होता, वह स्वत: घटता नहीं। तुमने उसे स्वयं होने के लिएविवश किया है। तुम शांत बैठे हुए हो, पर तुम्हारे अंदर बहुत कुछ कौलाहल है। तुमने उसे दबा दिया है और तब तुम हंस नहीं सकते, तुम उदास बने रहोगे, क्योंकि हंसना खतरनाक होगा। यदि तुम हंसोगे तो मौन खो दोगे क्योंकि खिल खिलाकर हंसते हए तुम उसे दबा नहीं सकते। खिल खिलाकर हंसना दमन के विरुद्ध है। यदि तुम उसे दबाना चाहते हो तो तुम्हें हंसना चाहिए यदि तुम हंसते हो तो हर चीज बाहर आ जाएगी। जो सच्चा और वास्तविक है, वह बाहर जा जाएगा और जो नकली है, वह खो जाएगा।
इसलिए जब कभी तुम किसी संत को उदास देखो तो भली- भांति जानना कि उसका मौन नकली है। वह न हंस सकता है और न आनन्दित हो सकता है क्योंकि वह भयभीत है। यदि वह हंसता है तो हर चीज टूट-फूट जाएगी, उसका दमन बाहर आ जाएगा और तब वह पुन: उसे दबाने में समर्थ न हो सकेगा। छोटे बच्चों को देखो। जब तुम्हारे घर में मेहमान आते हैं, तुम बच्चों से कहते हो-' हंसी मत '-वे क्या करते हैं? वे अपना मुंह बंद कर अपनी सांस दबा लेते हैं, क्योंकि यदि वे अपनी सांस को दबाएंगे नहीं तो हंसी बाहर निकल पड़ेगी। तब कठिन होगा। वे किसी ओर देखते ही नहीं, क्योंकि यदि वे किसी वस्तु या व्यक्ति की ओर देखेंगे तो वे भूल जाएंगे। इसलिए वे अपनी औखें मूंद लेते हैं या लगभग बंद कर लेते हैं और अपनी सांस रोक लेते हैं। यदि तुम अपनी सांस को दबाते हो तो सांस गहराई में नहीं जा सकती। हंसी के लिए गहरी सांस की आवश्यकता होती है यदि तुम हंसते हो तो गहरी सांस छोड़ोगे। यही कारण है कि कोई भी गहरी सांस न लेकर उथली सांस लेता है क्योंकि अपने बचपन में और उसके बाद काफी कुछ दमन किया है, इसलिए तुम गहरी सांस नहीं ले सकते। यदि तुम गहरी सांस लेते हो तो तुम भयभीत हो उठते हो। सांस के द्वारा तुमने कामवासना का दमन किया है। सांस के द्वारा तुमने हंसी दबाई है और अपने क्रोध का दमन भी उथली सांस लेते हुए किया है। सांस ही दबाने या मुक्त करने की प्रणाली है इसलिए मेरा सारा जोर अराजक सांस पर है, क्योंकि यदि तुम अराजक रूप से गहरी सांस लेते या छोड़ते हो तब हंसी, अट्टहास और दर्द भरी चीखें सभी कुछ बाहर निकलेंगी और तुम अपना सारा दमन बाहर फेंक दोगे।
इन्हें किसी अन्य तरीके से बाहर नहीँ फेंका जा सकता क्योंकि सांस के द्वारा ही तुमने इनका दमन किया है।
किसी भी चीज को दबाने की कोशिश करो, तुम करोगे क्या? तुम गहरी सांस नहीं लोगे, तुम उथली सांस लोगे, तुम फेफड़ों के ऊपर के भाग से ही सांस लोगे। तुम सांस के द्वारा गहरे नहीं जाओगे क्योंकि गहराई में दमन भरा है। पेट में ही तुमने हर चीज दबा रखी है इसलिए जब तुम असली हंसी हंसते हो तो पेट में कम्पन होते है, और इसीलिए बुद्ध की पेन्टिंग में उनके पेट को बड़ा चित्रित गया है। पेट है परम विश्रामपूर्ण स्थान और पेट को ही हमने दमन की टंकी बना रखा है।
यदि तुम किसी संत को उदास देखो तो वहां मात्र उदासी ही होगी, लेकिन वहां संतत्व न होगा। उसने किसी तरह अपने को शांत बना लिया है, लेकिन प्रत्येक क्षण वह भयभीत रहता है। कोई भी चीज उसे व्याकुल कर सकती है।
किसी भी चीज से कोई भी बाधा नहीं पड़ती, यदि वास्तविक मौन घटित हुआ है। तब प्रत्येक चीज उसे विकसित करने में सहायता करती है। यदि तुम वास्तव में शांत हो गए हो तो तुम बाजार में भी बैठ सकते हो और बाजार का शोर भी तुम्हें अशांत नहीं कर सकता। वस्तुत: तुम बाजार के शोर को मौन निर्मित करने के लिए कच्चे माल की तरह लेते हो और वह शोर ही तुम्हारे अंदर मौन को घना बना देता है। वास्तव मौन को महसूस करने के लिए बाजार का शोर मौन की पृष्ठभूमि बन जाता है और उसकी तुलना में मौन और सघन हो जाता है। तुम बाजार के शोर के विरुद्ध, आंतरिक मीन के बुलबुलों का उठना महसूस कर सकते हो।
हिमालय जाने की कोई जरूरत ही नहीं है और यदि तुम वहां जाते हो तो क्या देखोगे? हिमालय की शांति के विरुद्ध तुम अपने मन में उठती व्यथ की बकवास और शोर सुनोगे। तब तुम अधिक शोर का अनुभव करोगे क्योंकि उसके विरुद्ध पृष्ठभूमि में मौन और शांति है। जब मौन पृष्ठभूमि है तो तुम अपने मन के अंदर का शोर ही सुनोगे '। यदि तुम्हें सच्चा मौन घटा है और तुम निर्भय हो तो इसे वापस नहीं लिया जा सकता। कोई भी उसमें विघ्र नहीं डाल सकता। जब मैं कहता हूं-' कुछ भी नहीं, तो मेरा तात्पर्य कुछ नहीं ही से है। कोई भी चीज उसमें बाधा नहीं डाल सकती और यदि
कोई चीज ऐसा करती है तो तुम्हारा मौन बलपूर्वक विकसित किया गया, प्रयास से लाया गया मौन है। तुमने किसी तरह उसकी व्यवस्था कर ली है, लेकिन व्यवस्था करके लाया गया मौन, मौन है ही नहीं, वह ठीक एक व्यवस्था किए गए प्रेम जैसा है। ' यह संसार इतना अधिक पागल है और माता-पिता, शिक्षक और नीतिवादी और भी अधिक पागल हैं जो बच्चों को प्रेम करना सिखाते हैं। माताएं अपने बच्चों से कहती हैं-’‘ मैं तुम्हारी मां हूं मुझे प्रेम करो। ‘‘ जैसे बच्चा प्रेम करने के लिए कुछ कर सकता है। बच्चा क्या कर सकता है? पति अपनी पत्नियों से कहे चले जाते हैं-’‘ मैं तुम्हारा पति हूं मुझे प्रेम करो ‘‘ जैसे प्रेम करना एक कर्त्तव्य है, जैसे प्रेम कुछ ऐसा है जिसे किया जा सकता है। कुछ भी नहीं किया जा सकता। केवल एक चीज की जा सकती है-तुम बहाना बना सकते हो।
और एक बार तुमने सीख लिया कि प्रेम करने का बहाना कैसे किया जाता है तो तुम चूक गए। तुम्हारा पूरा जीवन ही गलत हो जाएगा। तब तुम बहाने ही बनाते रहोगे कि तुम प्रेम करते हो। तब तुम मुस्कराओगे और बहाना बना रहे होगे, तब तुम हंसोगे और वह भी हंसने का एक बहाना ही होगा। तब हर चीज नकली ही होती है। तब तुम शांत मौन बैठने का भी बहाना बनाओगे तब तुम ध्यान करोगे और ध्यान में होने का बहाना बनाओगे। बहाना बनाना तब तुम्हारी एक जीवन-शैली बन जाता है।
बहाना मत. बनाओ। जो वास्तविकता है, उसे प्रकट होने दो। यदि तुम प्रतीक्षा करते हुए धैर्यवान बने रहे तो जब सारे बहाने विदा हो जाएंगे तुम्हें वहां प्रतीक्षा करता सत्य मिलेगा जिसमें कभी भी विस्फोट हो सकता है। बहानों को गिराने के लिए ही रेचन है। दूसरों की ओर देखो ही मत कि वे करा कह रहे हैं क्योंकि इसी कारण तुम बहाने बनाते रहे और अब भी बहाने बना रहे हो।
तुम प्रेम नहीं कर सकते-या तो वह वहां है नहीं है, लेकिन मां कहती है- क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं.. और पिता कहता है-क्योंकि मैं तुम्हारा पिता हूं और शिक्षक कहता है-मैं तुम्हारा गुरु हूं इसलिए मुझे प्रेम करो, जैसे प्रेम एक तर्कपूर्ण चीज है। मैं तुम्हारी मां हूं इसलिए मुझे प्रेम करो-बच्चा आखिर करेगा क्या? तुम बच्चे के लिए ऐसी समस्याएं उत्पन्न कर रहे हो कि वह कल्पना तक न कर सके कि उसे क्या केरना चाहिए। वह बहाने बना सकता है। वह कह सकता है-’‘ हां, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। ‘‘ और एक बार बच्चा कर्तव्य मानकर यदि अपनी मां को प्रेम करता है तो वह किसी भी स्त्री से प्रेम करने में अक्षम हो जाएगा। तब पत्नी आएगी और तुम कर्त्तव्य निभाओगे, तब बच्चा आएगा और प्रेम करना उसका कर्त्तव्य होगा। तब जीवन- भर तुम कर्त्तव्य निभाते रहोगे। वह एक उत्सव नहीं बन सकता-तुम हंस नहीं सकते, तुम आनन्दित नहीं हो सकते। वह एक बोझा सा होगा जिसे तुम ढोते जाओगे। ऐसा ही तुम्हारे साथ हुआ है। यह एक दुर्भाग्य है, लेकिन यदि तुम इसे समझते हो तो तुम इसे छोड़ सकते हो।
यही है वह कुंजी-जिसके अन्दर का भाग है मौन और कुंजी के बाहर का भाग है उत्सव, आनन्द और हास्य। हर दिन त्यौहार मनाते रहो और मौन बने रहो। अपने चारों ओर अधिक-से- अधिक संभावना उत्पन्न करो। अंदर बलपूर्वक शांत और मौन होने का प्रयास मत करो, बस अधिक-से- अधिक सभावनाएं उत्पन्न करो अपने चारों ओर, जिससे तुम्हारा आंतरिक मौन पुष्पित हो सके। अधिक-से अधिक-हम यही कर सकते हैं। हम मिट्टी में बीज तो दबा सकते हैं लेकिन हम उसे अंकुरित होने या पौधा बन उगने के लिए विवश नहीं कर सकते। हम स्थिति तो उत्पन्न कर सकते है, हम उसकीं सुरक्षा कर सकते हैं हम जमीन में खाद लगा सकते हैं, हम उसे पानी से सींच सकते हैं, हम देख सकते हैं कि सूरज की किरणें उस तक पहुंच रही हैं या नहीं अथवा उसे कितनी धूप की जरूरत है, अधिक या कम। हम खतरों को टाल सकते हैं और प्रार्थनपूर्ण चित्तवृत्ति के साथ प्रतीक्षा कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त हम और कुछ भी नहीं कर सकते। केवल हम स्थिति निर्मिंत कर सकते हैं।
जब मैं तुमसे ध्यान करने के लिए कहता हूं तो उससे मेरा यही तात्पर्य होता है। ध्यान करना बस एक स्थिति निर्मित करना भी है, उसके परिणामस्वरूप मौन नहीं आने वाला। नहीं, ध्यान बस भूमि को तैयार करना है, उसके आस-पास की भूमि को भुरभुरा बनाने जैसा है। बीज वहां हमेशा से पहले ही पड़ा हुआ है। तुम्हें उसमें बीज रखने की कोई जरूरत नहीं बीज तो तुम हमेशा साथ लेकर ही आते हो। वह बीज है परमात्मा या आत्मा का-वह बीज तुम स्वयं हो। केवल स्थिति निर्मित करो और बीज जीवन्त हो उठेगा। उसमें अंकुर फूटेंगे और पौधे का जन्म होगा और तुम विकसित
होना शुरू हो जाओगे।
ध्यान तुम्हें मौन तक नहीं ले जाता, ध्यान तो केवल स्थिति निर्मित करता है जिसमें मौन घटता है। यही मानदण्ड होना चाहिए कि जब कभी भा मौन घटे, तुम्हारे जीवन में हास्य आएगा ही। एक महत्वपूर्ण उत्सव तुम्हारे चारों ओर घटने लगेगा। न तो तुम उदास रहोगे और न तुम निराश बने रहोगे और न तुम संसार से भागोगे। तुम इसी संसार में यहीं रहोगे, लेकिन पूरी चीज को तुम एक खेल की तरह लोगे, तुम एक सुंदर खेल की तरह पूरी चीज का मजा लोगे। पूरा जीवन एक बड़ा नाटक बन जाएगा और उस बारे में लम्बी गम्भीरता नहीं रहने वाली क्योंकि गम्भीर रहना एक बीमारी है।
बुद्ध महाकाश्यप के बारे में जरूरत जानते रहे होंगे। जब वे मौन बने फूल की ओर देख रहे थे तो वे जरूर जानते होंगे कि प्रत्येक व्यक्ति बेचैन और उद्विग्न है, सिवाय एक व्यक्ति महाकाश्यप के जो जरा भी परेशान नहीं हैं। महाकाश्यप के तरिक मौन का बुद्ध ने अवश्य ही अनुभव किया होगा, लेकिन उन्होंने उसे तब नहीं बुलाया। जब वे खिल खिलाकर हंसे, तभी उन्हें बुद्ध ने पास बुलाकर वह पुष्प दिया। क्यों? मौन तो उस घटना का आधा भाग था। महाकाश्यप यदि मौन ही बने रहते और हंसते नहीं तो वह चूक गए होते। तब उन्हें वह कुंजी न दी गई होती। तब वह आधा ही विकसित हुआ होता, वह विकसित पल्लवित पुष्पित वृक्ष न बनता, उसमें फूल न लगे होते। वृक्ष तो वहां था, लेकिन अभी उसमें पुष्प न खिले थे। बुद्ध प्रतीक्षा करते रहे। अब मैं तुम्हें बताऊंगा किबुद्ध इतनी देर तक प्रतीक्षा क्यों करते रहे, क्यों उन्होंने एक-दो या तीन घंटे तक प्रतीक्षा की। महाकाश्यप मौन था, लेकिन वह हंसी को अपने ही अंदर रखने की कोशिश कर रहा था, वह हंसी को नियंत्रित करने का प्रयास कररहा था। वह न हंसने की इसलिए कोशिश कर रहा था क्योंकि वह अशिष्टता होती, क्या
सोचेंगे बुद्ध? क्या दूसरे लोग सोचेंगे? लेकिन तब, कहानी कहती है-वह उस हंसी को अपने तक सीमित न रख सका। मौन बहुत अधिक सघन हो गया, उसे हास्य के रूप में बाहर आना ही था। जब हंसी बाढ़ बन गई तो उसने सारे तटबंध तोड़ दिए। वह उसे रोक न सका। जब मौन बहुत अधिक सघन हो जाता है तो वह उम्युका हास्य बन जाता है। वह जैसे बाढ़ से उफनने लगता है और सभी दिशाओं में अतिरेक से बहना शुरू हो जाता है। वह हंसा, वह जरूर ही पागल कर देने वाला उनुक्त हास्य रहा होगा और उस हास्य में महाकाश्यप बचा ही न होगा। मौन ही हंस रहा था और मौन की
खिलावट ही हास्य थी।
तब तुरन्त ही बुद्ध ने उसे अपने पास बुलाकर कहा-’‘ महाकाश्यप! यह फूल लो, यही है कुंजी। जो कुछ शब्दों द्वारा दिया जा सकता था, मैंने वह सब कुछ दूसरों को पहले ही दे दिया है, लेकिन तुझे मैं वह दे रहा हूं जो शब्दों द्वारा नहीं दिया जा सकता। वह सन्देश शब्दों के पार है और वही सबसे अधिक सारभूत है, जिसे मैं तुझे दे रहा हूं। ‘‘
बुद्ध कुछ घंटों तक प्रतीक्षा करते रहे जिससे महाकाश्यप का मौन इतना सघन हो जाए कि उसमें बाढ़ आ जाए और वह उफन कर अतिरेक से बहने लगे, वह उत्सुक्त हास्य बन जाए।
तुम्हारा बुद्धत्व केवल तभी पूर्ण है, जब मौन एक उत्सव आनन्द बन जाए। इसीलिए मेरा जोर है कि ध्यान करने के बाद तुम्हें उत्सव मनाना चाहिए। मौन रहने के बाद तुम्हें उसका मजा लेना ही चाहिए। तुम्हें अहोभाव प्रकट करने के लिए नाचना चाहिए। सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति जिसने तुम्हें यह अवसर दिया कि तुम यहां हो, जिससे तुम ध्यान कर सकते हो, जिससे तुम मौन में जा सकते हो और जिससे तुम हंस सकते हो। तुम्हें उसके प्रति कृतज्ञता और अहोभाव प्रकट करना ही चाहिए।

क्या कुछ और?
प्रश्न: करे ओशो? बुद्ध के आस-पास कई लोगो को बुद्धत्व घटा
लेकिन फिर भी उन्होने इस एक बोध को प्राप्त व्यक्ति के प्रति कुछ
विशिष्ट करुणा का अनुभव किया।
क्या बुद्धत्व घटने में भी कुछ चीजें भिन्न होती है

हां! बुद्ध के चारों ओर कई लोगों को बुद्धत्व घटा, लेकिन कुंजी केवल उसी को सौंपी जा सकती थी, जो स्वयं अपने में एक सद्‌गुरु होने की योग्यता रखता हो, क्योंकि वह कुंजी आगे ही और- और लोगों को सौंपी जाती थी। उसे जीवित बनाए रखना था। वह महाकाश्यप के रखने के लिए कोई कोश बनने नहीं जा रहा था वह एक महान उत्तर दायित्व था जो किसी और को सौंपा जाना था।
वहां बुद्धत्व को प्राप्त दूसरे व्यक्ति भी थे, लेकिन उन्हें कुंजी नहीं सौंपी जा सकती थी वह कुंजी उन्हीं के साथ खो सकती थी। वास्तव में बुद्ध तो ठीक व्यक्ति को ही चुना, क्योंकि वह कुंजी आज भी जीवित है। महाकाश्यप ने ठीक ही किया। वह ऐसा दूसरा व्यक्ति खोज सका जो कुंजी किसी और को हस्तांतरित कर सके। प्रश्न है सही व्यक्ति को खोजने का। केवल बुद्धत्व घटना ही काफी नहीं है क्योंकि सभी बोध को उपलब्ध-व्यक्ति सद्‌गुरु नहीं होते-उनमें भेद करना ही होता है।
जैनियों ने इसकी विशिष्टताओं का सुंदर विभाजन किया है। उनके यहां दो तरह के बुद्ध होते हैं। बोध को प्राप्त एक तरह के व्यक्तियों को ' केवली ' कहा जाता है जो अपने अकेलेपन में ही पूर्गता को प्राप्त हो जाता है। वह पूर्ण निर्दोष और विकसित हो जाता है, लेकिन वह शिक्षक नहीं बन सकता। वह यह पूर्णता किसी अन्य को नहीं दे सकता। वह एक सद्‌गुरु नहीं होता, वह मार्ग निर्देशन नहीं कर सकता। वह स्वयं तो सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाता है लेकिन जो कुछ उसने जाना है, वह किसी और को हस्तांतरित नहीं कर सकता।
दूसरी तरह के बुद्धों को तीर्थंकर कहा जाता है, जो दूसरों के लिए वाहन बन सकता है। वह बुद्धत्व को प्राप्त होने के साथ एक सद्‌गुरु भी होता है। जो शब्दों के द्वारा उसे सम्प्रेषित करने की विशिष्ट कला जानता है और उसे मौन के द्वारा भी प्रति संवेदित कर सकता है। वही सन्देश दे सकता है और दूसरे भी उसके द्वारा बोध को प्राप्त हो सकते हैं।
बुद्ध ने कहा-’‘ जो कुछ शब्दों के द्वारा कहा जा सकता था, मैंने तुम लोगों को बता दिया। जो शब्दों के द्वारा नहीं दिया जा सकता, वह मैं महाकाश्यप को देता हूं। ‘‘महाकाश्यप मौन का सद्‌गुरु था। अपने मौन के द्वारा ही वह सिखा सके और अपने कार्य को आगे बढ़ाते रहे। यह इतना सारभूत और आवश्यक नहीं था, यह परिधि पर था, लेकिन यह भी जरूरी था क्योंकि बुद्ध के वचनों को लिपिबद्ध किया जाना था। जो बुद्ध ने कहा और किया उसे लिपिबद्ध कर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करना भी आवश्यक था। यह आवश्यक था, लेकिन यह कार्य परिधि पर था। उनके परम विद्वान-मौगल्यायन, आनंद और सारिपुत्र हर चीज लिपिबद्ध कर सकते थे। वह एक अमूल्य कोष था क्योंकि बुद्ध का होना दुर्लभ घटना है। सभी का लिपिबद्ध किया जाना जरूरी था। एक भी शब्द नहीं छूटना चाहिए था, क्योंकि कौन जाने, वही एक शब्द किसी एक के लिए बुद्धत्व का स्रोत बन जाए लेकिन साथ ही मौन की सम्पदा को भी आगे ले जाना था इसीलिए दो परम्पराएं वहां विद्यमान थीं- शास्त्रों और शब्दों की परम्परा और मौन की परम्परा। बहुत से लोग बुद्धत्व को प्राप्त हुए और जिस क्षण वे बोध को प्राप्त हुएक् वे इतने शांत और मौन हो गए वे अपने आप में इतने अधिक संतुष्ट हो गए कि उनके अंदर दूसरों की सहायता करने की कामना भी जाग्रत नहीं हुई।
लेकिन जैन परम्परा कहती है कि तीर्थंकर वह व्यक्ति है जिसने कुछ कर्मों का संचय किया है-यह अजीब बात है-चूंकि उसने कुछ कर्मों का संचय किया है इसलिए दूसरों को संदेश सम्प्रेपित करते हुए ही उसे इस कर्म को पूरा करना है। अ कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है, कर्म का होना अच्छी चीज नहीं है। अपने पूर्व जन्म में उसने सद्‌गुरु होने के लिए कुछ कर्मों का संचय किया था। यह कोई अच्छी चीज नहीं है, क्योंकि उसे कुछ तो करना ही है, कोई चीज पूरी की जानी है और उसे उसको
करना ही चाहिए तभी उसके कर्म पूरे होंगे और तभी वह मुक्त हो सकेगा।
दूसरों की सहायता करने की कामना, फिर भी एक कामना ही है। दूसरों के प्रति करुणा में भी ऊर्जा दूसरों की ओर गतिशील हो रही है। सभी कामनाएं तो मिट गई, लेकिन दूसरों को सहायता करने की एक कामना बनी रही। यह भी एक कामना ही है और जब तक यह कामना भी न मिट जाए इस व्यक्ति को जन्म लेने फिर वापस आना पड़ेगा।
इसलिए एक सदगुरु वह होता है, जो बुद्धत्व को प्राप्त तो हो ही गया, लेकिन एक कामना शेष'रही, यह. कामना, बुद्धत्व के घटने में बाधा नहीं बनती-दूसरों की सहायता से बुद्धत्व घटने में ही सहायता मिलती है-लेकिन तुम फिर भी शरीर से तादात्म्य जोड़े रहते हो। सभी स्रोतों से करना हो जाता है, केवल एक सोता बहता रहता है.. .केवल एक सेतु बना रहता है।
वहां बुद्धत्व को प्राप्त और भी व्यक्ति थे, लेकिन उन्हें कुंजी न दी जा सकती थी। वह महाकाश्यप को ही दी जानी थी क्योंकि उसके अन्दर दूसरों की सहायता करने की कामना थी-' अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण। वह एक तीर्थंकर बन सकता था, वह एक कुशल और पूर्ण सद्‌गुरु बन सकता था और उन्होंने ठीक ही किया। बुद्ध का चुनाव पूरी तरह ठीक था-क्योंकि वहां बुद्ध का एक अन्य शिष्य भी था, जिसे भी वह कुंजी सौंपी जा सकती थी। उसका नाम सुभूति था। वह भी महाकाश्यप की भांति मौन था, उससे भी कहीं अधिक मौन। तुम्हारे लिए यह समझना कठिन होगा कि मौन भी अधिक कैसे हो सकता है, पूर्णता और पूर्ण कैसे हो सकती है? ऐसा होना सम्भव है,
लेकिन यह साधारण गणित के पार है। तुम पूर्ण हो सकते हो, लेकिन फिर भी तुम उससे भी कहीं अधिक पूर्ण बन सकते हो क्योंकि पूर्णता का भी विकास होता है और वह विकसित होते हुए अनन्त हो जाती है।
बुद्ध के आस-पास जितने भी लोग थे उनमें सुभूति सबसे अधिकमीन तथा शांत व्यक्ति था। महाकाश्यप से भी कहीं अधिक मौन, लेकिन अत्यधिक मौन होने के कारण कुंजी उसे नहीं सौंपी जा सकती थी। पहली बात तो यह कि वह हंसता ही नहीं.. .इसे अभिव्यक्त करना बहुत कठिन होगा, तुम अब एक अत्यंत जटिल घटनाक्रम में प्रवेश कर रहे हो। कुंजी उसे नहीं सौंपी जा सकती थी क्योंकि वह हंस नहीं सकता था। वह जैसे वहां उपस्थित था ही नहीं। वह इतना अधिक शांत और मौन था कि वह हंसने के लिए जैसे वहां था ही नहीं, हास्य को अपने तक रखने या न रखने के लिए भी' वह वहां जैसे था ही नहीं। यदि बुद्ध उसे बुलाते हुए कहते, 'सुभूति मेरे पास आओ ' तो भी वह उनके निकट न गया होता। बुद्ध को ही उसके पास जाना होता।
सुभूति के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि एक दिन वह एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। जब अचानक बिना फूलों के मौसम के उस वृक्ष से फूल झरने लगे इसलिए उसने अपनी आंखें खोलीं। आखिर मामला क्या है? वृक्ष में कलियां भी नहीं आई थीं और न उसके पुष्पित होने का वह मौसम ही था, तब अचानक कहां से लाखों पुष्प झरने लगे? उसने देखा कि वृक्ष के ऊपर आकाश में चारों ओर से बहुत से देवता उस पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। उसने देवताओं से यह भी नहीं पूछा कि आप लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं और उसने अपनी आंखें पुन: बंद कर लीं।
तब उन देवताओं ने कहा-’‘ सुभूति हम लोग आपको धन्यवाद देने और अहोभाव प्रकट करने के लिए ही आए हैं कि आपने शून्यता पर इतना सुन्दर प्रवचन दिया। ‘‘ -
और सुभूति ने कहा-’‘ लेकिन मैंने तो एक शब्द भी नहीं कहा, फिर आप लोग मुझे शून्यता पर दिए प्रवचन के लिए धन्यवाद क्यों दे रहे हैं? ‘‘
देवताओं ने कहा-’‘ न आपने कुछ कहा और न हम लोगों ने कुछ सुना- और शून्यता पर यही परिपूर्ण प्रवचन है। ‘‘
वह इतना अधिक खाली और शून्य हो गया था कि पूरे ब्रह्माण्ड ने उस शून्यता का अनुभव किया और देवताओं को उस पर पुष्प बरसाने आना पड़ा।
सुभूति वहां उपस्थित था, लेकिन वह इतना अधिक खाली और मौन था कि वह होते हुए भी वहां था ही नहीं। उसे इससे भी कोई लेना-देना नहीं था कि बुद्ध फूल लिए हुए मौन बैठे हैं। एक तरह से महाकाश्यप वहां था-पर दूसरों की भांति नहीं। उसने बुद्ध की ओर देखा, उसने उस मौन और शून्यता का अनुभव किया, उसने शब्दों की व्यर्थता का भी अनुभव किया, लेकिन वहां अकेला वही ऐसा था, जो यह अनुभव कर रहा था।
सुभूति भी वहां कहीं जरूर बैठा होगा, लेकिन उसके अंदर ऐसा कोई विचार उठा ही नहीं कि बुद्ध आज मौन क्यों बैठे हुए हैं और वह फूल की ओर क्यों देखे जा रहे हैं, तब वहां हास्य को अपने तक सीमित रखने का भी कोई प्रयास न था और वहां कोई विस्फोट भी नहीं हुआ। सुभूति वहां था, जैसे पूरी तरह अनुपस्थित होते हुए। वह हंसा भी नहीं और यदि बुद्ध उसे बुलाते भी तो भी वह जाता नहीं, बुद्ध को ही उसके पास जाना होता और कोई भी नहीं जानता-यदि कुंजी उसे दी भी जाती तो वह उसे फेंक भी सकता था। वह ऐसा व्यक्ति नहीं था जो तीर्थंकर जैसा हो, वह ऐसा व्यक्ति नहीं था जो एक सद्‌गुरु अथवा शिक्षक बने। उसके पास कोई संचित कर्म नहीं थे। वह परिपूर्ण और निर्दोष था। जब भी कोई व्यक्ति इतना परिपूर्ण हो जाता है, वह अनुपयोगी बन जाता है। स्मरण रहे, यदि कोई व्यक्ति परिपूर्ण है तो वह अनुपयोगी है, क्योंकि तुम किसी भी कार्य के लिए उसका कोई उपयोग नहीं कर सकते।
महाकाश्यप इतना पूर्ण नहीं था, उसमें कुछ कमी थी। उसका उपयोग किया जा सकता था और उसी कमी के अंतराल में उस कुंजी को रखा जा सकता था। वह कुंजी महाकाश्यप को सौंप दी गई क्योंकि उस पर भरोसा किया जा सकता था कि वह उसे किसी अन्य को सौंप देगा। सुभूति पर भरोसा नहीं किया जा सकता था। जब पूर्णता, बेशर्त और स्वतंत्र हो जाती है तो मात्र शून्यता रह जाती है। वह व्यक्ति फिर जैसे संसार में होता ही नहीं। तुम उस पर फूलों की वर्षा कर सकते हो, लेकिन तुम उसका उपयोग नहीं कर सकते। यही कारण था कि वहां यद्यपि बुद्धत्व को उपलब्ध कई व्यक्ति थे, लेकिन केवल एक महाकाश्यप ही विशिष्ट था और उसी को चुना गया। वही एक ऐसा
व्यक्ति था जिसका इस महान उत्तरदायित्व के लिए प्रयोग किया जा सकता था। यह बहुत अजीब बात है। मैं इसी वजह से कहता हूं कि इसमें साधारण गणित सहायक न होगा-क्योंकि तुम सोचोगे कि कुंजी तो सबसे अधिक पूर्ण और निर्दोष व्यक्ति को ही सौंपी जानी चाहिए थी, लेकिन परिपूर्ण व्यक्ति तो भूल ही जाएगा कि उसने कुंजी कहां रखी है। कुंजी उसी व्यक्ति को दी जानी चाहिए जो लगभग पूर्ण हो। ठीक उस कगार पर हो जहां से वह शून्यता में खो जाए और अपने खो जाने या विलुप्त होने से पूर्व कुंजी किसी अन्य को सौंप जाए।
कुंजी, अज्ञानी व्यक्ति को नहीं दी जा सकती और सबसे अधिक परिपूर्ण व्यक्ति को भी वह नहीं सौंपी जा सकेती। ऐसे किसी व्यक्ति को खोजना होता है, जो ठीक सीमा रेखा पर खड़ा हो, जो इस अज्ञान के संसार से गुजरता हुआ ' जानने ' या शुद्ध ज्ञान के संसार में प्रवेश करने की सीमा पर खड़ा हो। सीमा रेखा को पार करने से पूर्व, उस समय का प्रयोग उस कुंजी को सौंपने के लिए किया जा सकता है। उत्तराधिकारी को खोजना बहुत कठिन कार्य है क्योंकि परिपूर्ण व्यक्ति अनुपयोगी होता है।
मैं तुम्हें एक घटना के बारे बताना चाहूंगा जो ठीक हाल ही में घटी है। रामकृष्ण परमहंस कई शिष्यों पर काम कर रहे थे। कई लोग बोध को प्राप्त हुए लेकिन उनके बारे में कोई भी नहीं जानता। लोग केवल विवेकानन्द के बारे में ही जानते हैं, जो बोध को प्राप्त नहीं हुए। कुंजी विवेकानन्द को सौंपी गई, जो सबसे अधिक पूर्ण न थे और वे केवल इसलिए पूर्ण नहीं हुए थे, क्योंकि रामकृष्ण ने उन्हें पूर्ण होने की अनुमति नहीं दी ही नहीं। जब रामकृष्ण ने यह अनुभव किया कि वे परिपूर्ण समाधि में प्रवेश करने जा रहे हैं तो उन्होंने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा-’‘ रुको! अब समाधि में तुम्हारे प्रवेश करने की कुंजी मैं अपने ही पास रखूंगा और तुम्हारी मृत्यु के तीन दिन पहले ही यह कुंजी तुम्हें वापस मिलेगी। ‘‘ और केवल अपनी मृत्यु के तीन दिनों पूर्व ही विवेकानन्द ने परमानन्द का पहला स्वाद चखा, इससे पूर्व नहीं।
विवेकानन्द ने रोना और चीखना शुरू कर दिया और रामकृष्ण से कहा- ‘‘ आप मेरे प्रति इतने निर्दयी क्यों हैं? ‘‘
रामकृष्ण ने उत्तर दिया-’‘ तुम्हारे द्वारा कुछ कराया जाना है। तुम्हें पश्चिम जाकर पूरे विश्व के सभी लोगों को मेरा संदेश देना होगा, अन्यथा वह खो जाएगा। ‘‘ वहां अन्य दूसरे लोग भी थे, लेकिन वे पहले ही से अपने अन्दर मग्न थे और उन्हें बाहर जाने के लिए नहीं बुलाया जा सकता था। उन्हें पश्चिम और शेष संसार में बाहर जाने की कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। वे कह सकते थे-यह सब कुछ व्यर्थ की बात है '-वे ठीक रामकृष्ण जैसे ही थे। ' वे ही स्वयं क्यों नहीं चले जाते बाहर? 'वे स्वयं पहले ही से अन्दर थे और किसी ऐसे व्यक्ति का प्रयोग किया जाना था, जो बाहर सीमा रेखा पर खड़ा हो। जो लोग बाहर काफी दूर खडे हैं, उनका भी प्रयोग नहीं किया जा सकता है, जो लोग लगभग अन्दर हैं, ठीक प्रवेश द्वार के निकट खड़े हैं, उनको ही प्रयुक्त किया जा सकता है और द्वार में प्रवेश करने से पूर्व उन्हें भी कुंजी किसी और को सौंप देनी चाहिए।
महाकाश्यप द्वार के ठीक निकट ही खड़ा था, एकदम ताजा 'और जीवन्त, जो मौन के अनन्त द्वार में प्रवेश कर रहा था। मौन ही जिसके लिए उत्सव बनने जा रहा था और जिसके अन्दर दूसरों की सहायता करने की कामना थी। उस कामना का ही उपयोग किया गया, लेकिन सुभूति के लिए यह सब कुछ असम्भव था। वह स्वयं बुद्ध की ही भांति था, परिपूर्ण निर्दोष और स्वतंत्र, लेकिन जब भी कोई ऐसा बुद्ध के ही समान होता है, वह उपयोगी नहीं होता। वह स्वयं को ही वह रहस्य की कुंजी दे सकता है इसलिए उसे कुंजी सौंपने की कोई जरूरत है ही नहीं। उसने कभी अपना कोई शिष्य भी नहीं बनाया। सुभूति परिपूर्ण शून्यता में जीया और देवताओं को उस पर कई बार फूल बरसाने पड़े। उसने न कभी कोई शिष्य बनाया, न किसी से कभी कुछ कहा। प्रत्येक चीज अपने में इतनी अधिक परिपूर्ण थी, फिर फिक्र क्यों की जाए? किसी से भी कुछ क्यों कहा जाए?
एक सद्‌गुरु अपने पिछले कर्मों के अनुसार अपना कार्य सम्पन्न कर रहा है। उन्हें पूरा करते हुए उसे अपना वायदा पूरा निभाना है, और जब मुझे अपना उत्तराधिकारी खोजना होगा तो वहां बहुत से लोग होंगे, जिनमें सुभूति जैसे भी होंगे ,लेकिन कुंजी उन्हें नहीं सौंपी जा सकती। उनमें बहुत से सारिपुत्र की भांति भी होंगे, जो मौन में प्रवेश करता हुआ उत्सव आनन्द मना रहा हो, उसे ठीक दरवाजे पर ही पकड़ना होगा। यही कारण है...।

आज के लिए इतना बहुत है।


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