झेन
का शास्त्र है कोरी किताब-प्रवचन-आठवां
मनुष्य होने की कला--(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन
माला)
कथा:
-
झेन
सदगुरू मूनान का एक ही उत्तराधिकारी था, उसका नाम था-शोजू
जब
शोजू झेन का प्रशिक्षण और अध्ययन पूरा कर चुका, मू-नान ने
उसे
अपने कक्ष में बुलाकर कहा- '' मैं अब बूढ़ा हुआ और जहां तक
मैं
जानता हूं,
तुम्हीं अकेले ऐसे हो जो इस प्रशिक्षण को विकसित कर
आगे
ले जाओगे। यहां मेरे पास एक पवित्र ग्रंथ है- जो सात पीढ़ियों
से
एक सद्गुरु से दूसरे सदगुरु को सौपा गया है, मैंने भी अपनी समझ
के
अनुसार-उसमें कुछ जोड़ा है यह ग्रंथ बहुत कीमती है और मैं इसे
तुम्हें
सौंप रहा जिससे मेरा उत्तराधिकारी बन कर तुम मेरा प्रतिनिधित्व
शोजू? ने उत्तर-
'' कृपया अपनी यह किताब अपने पास रखिए मैंने
तो
आपसे अनलिखा झेन पाया है और मैं उसे ही पाकर आंनदिन हूं,
आपका
बहुत-बहुत धन्यवाद।''
मूनान
ने उत्तरदिया- ''मैं इसे जानता हूं, लेकिन यह एक महान कार्य
का
पवित्र दस्तावेज है?
जो एक सदगुरू से दूसरे सदगुरू तक सात
पीढ़ियों
से हस्ततिरित होता रहा है और यह तुम्हारे भी प्रशिक्षण का
एक
प्रतीक बनेगा यह रहा वह पवित्र ग्रंथ।''
दोनों
जलती आग के सामने बैठे बातचीत कर रहे थे और जिस क्षण
शोजू
ने अनुभव किया कि किताब उसके हाथों में है? उसने उसे आग
की
लपटों में झांक दिया
मूनान
जो अपने जीवन में कभी क्रोधित हुआ ही नहीं था।
चिल्लाकर
बोला- ''
यह तुम क्या कर रहे हो?''
और
शोजू ने भी प्रत्युत्तर में चीखते हुए कह?- ''और आप कह क्या हो?'
सभी
ग्रंथ और सभी किताबें मृत हैं और उन्हें होना भी चाहिए क्योंकि वे जीवन्त सारे शास्त्र
कब्रिस्तान जैसे हैं,
इसके सिवाय वे और कुछ हो भी नहीं सकते। जिस क्षण किसी शब्द का उच्चारण
किया जाता है, वैसे ही वह गलत हो जाता है। वह अनुच्चरित है,
वहां तक ठीक है। जैसे ही उसका उच्चारण किया, उच्चारण
करते ही वह नकली हो गया। सत्य कहा ही नहीं जा सकता, उसे लिखा
भी नहीं जा सकता और न किसी तरीके से उस ओर इशारा किया जा सकता है। यदि वह कहा जा सकता,
तब तुम केवल उसे सुनकर ही सत्य को प्राप्त हो जाते, यदि वह लिखा जा सकता होता तो
तुम उसे पढ़कर ही सत्य को प्राप्त कर लेते, यदि उस ओर संकेत किया जा सकता होता तो तुम सत्य को केवल इशारे से ही समझ लेते। ऐसा सम्भव ही नहीं है, सत्य को तुम्हें हस्तांतरित करने का कोई उपाय है ही नहीं, ऐसा कोई सेतु भी अभी तक नहीं बना। यह न तो दिया जा सकता है और न इसे दूसरे तक पहुंचाया जा सकता है।
तुम उसे पढ़कर ही सत्य को प्राप्त कर लेते, यदि उस ओर संकेत किया जा सकता होता तो तुम सत्य को केवल इशारे से ही समझ लेते। ऐसा सम्भव ही नहीं है, सत्य को तुम्हें हस्तांतरित करने का कोई उपाय है ही नहीं, ऐसा कोई सेतु भी अभी तक नहीं बना। यह न तो दिया जा सकता है और न इसे दूसरे तक पहुंचाया जा सकता है।
लेकिन
लोग शास्त्रों,
किताबों, शब्दों और सिद्धान्तों के आदी बन जाते
हैं। मन के लिए एक सिद्धान्त को समझना आसान है, एक पुस्तक पढ़ना
भी आसान है, एक परम्परा को आगे ले जाना भी बहुत आसान है क्योंकि
किसी भी मृत चीज का मन हमेशा मालिक बन जाता है और किसी भी जीवन्त चीज का मन सेवक हो
जाता है। इसीलिए मन हमेशा जीवन से डरता है, वह तुम्हारे अंदर
एक मृत भाग है। जैसा मैंने कहा था-बाल और नाखून तुम्हारे शरीर के मृत भाग हैं,
वे भाग जो पहले ही मर चुके है और शरीर ने उन्हें बाहर फेंक दिया है,
इसलिए मन भी ठीक तुम्हारी चेतना का वैसा ही मृत भाग है। यह वह भाग है
जो पहले ही मर चुका है और चेतना उससे छुटकारा पाना चाहती है।
क्या
है मन? वह तुम्हारा बीता हुआ अतीत है, वह तुम्हारी स्मृति है।
वह तुम्हारा इकट्ठा किया गया अनुभव है, लेकिन जिस क्षण तुमने
उस चीज का अनुभव कर लिया, वह मृत हो गया। अनुभव होना वर्तमान
में होता है और किया गया अनुभव अतीत है। तुम मुझे क्यों सुन रहे हो? ठीक इस क्षण में, ठीक यहां और अभी। यह तुम्हें अनुभव
हो रहा है, यह एक जीवन्त प्रक्रिया है, लेकिन जिस क्षण तुम कहते हो, ' मैंने सुन लिया है वह मृत हो जाता है, वह अनुभव
बन जाता है। मुझे सुनते हुए तुम्हारा मन वहां नहीं है, वहां तुम
हो। जिस क्षण मन आता है। वह कहता है-मैंने इसे समझ
लिया, मैंने सुन लिया और मैं अब इसे जानता हूं। ' तुम्हारे कहने का तात्पर्य क्या है? मन ने अब अपना अधिकार जमा लिया। मन के द्वारा शब्द का संग्रह किया जा सकता है-मन के द्वारा किसी भी मृत चीज को ही कब्जे में लिया जा सकता है और केवल मृत वस्तुओं को ही नियंत्रण में लिया जा सकता है। यदि तुम किसी जीवित व्यक्ति को नियंत्रण में रखने का प्रयास करो तो उसके केवल दो रास्ते हैं-या तो तुम उस पर नियंत्रण कर ही न सकोगे अथवा तुम्हें पहले उसे मारना होगा और तब उसे तुम अपने अधिकार में ले सकते हो। इसलिए जहां भी नियंत्रण है, वहां जीवित व्यक्ति को मारना है, उसकी हत्या करना है।
लिया, मैंने सुन लिया और मैं अब इसे जानता हूं। ' तुम्हारे कहने का तात्पर्य क्या है? मन ने अब अपना अधिकार जमा लिया। मन के द्वारा शब्द का संग्रह किया जा सकता है-मन के द्वारा किसी भी मृत चीज को ही कब्जे में लिया जा सकता है और केवल मृत वस्तुओं को ही नियंत्रण में लिया जा सकता है। यदि तुम किसी जीवित व्यक्ति को नियंत्रण में रखने का प्रयास करो तो उसके केवल दो रास्ते हैं-या तो तुम उस पर नियंत्रण कर ही न सकोगे अथवा तुम्हें पहले उसे मारना होगा और तब उसे तुम अपने अधिकार में ले सकते हो। इसलिए जहां भी नियंत्रण है, वहां जीवित व्यक्ति को मारना है, उसकी हत्या करना है।
यदि
तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो प्रेम करना ही अपने आप में अनुभव करने जैसा है।
क्षण-क्षण उसके साथ बहना है जिसमें किसी अतीत को ढोया नहीं जा रहा है। प्रेम की सरिता
सदा ताजी बहती ही रहती है,
लेकिन मन कहता है-इस स्त्री को नियंत्रण में रखो, इस पुरुष को बांधकर रखो क्योंकि भविष्य के बारे में कौन जानता है? इसे नियंत्रण में रखो, वह भाग सकती है, वह किसी और के साथ जा सकती है, वह किसी और के प्रेम में
पड़ सकती है। उसे कब्जे में रखो और उसके भागने के सारे रास्ते बंद कर दो, निकलने के सारे दरवाजे बंद कर दो जिससे वह हमेशा तुम्हारी ही बनी रहे। अब मन
प्रविष्ट हो गया और अब वह स्त्री मार दी जाएगी। अब यह पुरुष
कत्ल कर दिया जाएगा। वहां केवल एक पति होगा, वहां केवल एक पत्नी होगी, लेकिन वहां दो जीवन्त व्यक्ति न होंगे।
कत्ल कर दिया जाएगा। वहां केवल एक पति होगा, वहां केवल एक पत्नी होगी, लेकिन वहां दो जीवन्त व्यक्ति न होंगे।
और
यही बदमाशी मन हर जगह किए चला जा रहा है, लिए क्षण तुम कहते हो--' मैं प्रेम करता हूं ' वह एक अनुभव बन जाता है,
वह पहले ही मृत हो जाता है। प्रेम करना कुछ और ही चीज है, वह एक प्रक्रिया है। क्यों? जब तुम प्रेम में हो,
क्या तब तुम यह नहीं कह सकते-मैं प्रेम करता हूं ए वह आक्रमण या हिंसा
होगी। तुम कैसे कह सकते हो- ' मैं तुमसे प्रेम करता हूं?
'प्रेम में तुम होते ही नहीं, अधिकार जमाने वाला
मन नहीं होता, इसलिए तुम कैसे कह सकते हो, ' मैं प्रेम करता हूं। ' प्रेम में ' मैं ' होता ही नहीं, प्रेम वहां
निश्चित रूप से होता है लेकिन तुम नहीं होते।
जब
तक एक अनुभव जीवन्त है,
तुम अनुभव कर रहे हो, वहाँ अहंकार नहीं है। अनुभव
करने की प्रक्रिया वहां चल रही है और तुम कह सकते हो-प्रेम वहां है लेकिन तुम यह नहीं
कह सकते-' मैं प्रेम करता हूं ' उस प्रेम
में तुम घुल जाते हो, पिघल जाते हो, मिलकर
एक हो जाते हो। तुमसे प्रेम कहीं अधिक बड़ा होता है। तुम्हारी अपेक्षा कोई भी जीवित
या जीवन्त चीज या व्यक्ति अधिक श्रेष्ठ होता है। यदि वह मृत है तो मन कूद सकता है,
ठीक वैसे ही जैसे एक बिल्ली चूहे पर छलांग भरकर
उसे झपट लेती है। सत्य दिया नहीं जा सकता, उसे देने या बांटने का कोई उपाय नहीं। उसे एक बार बांट दो, वह मृत हो जाता है, वह पहले ही से असत्य हो जाता है।
उसे झपट लेती है। सत्य दिया नहीं जा सकता, उसे देने या बांटने का कोई उपाय नहीं। उसे एक बार बांट दो, वह मृत हो जाता है, वह पहले ही से असत्य हो जाता है।
लाओत्से
अपने पूरे जीवन में सत्य के सम्बन्ध में कुछ भी न कहने पर जोर देता रहा। जब भी कोई
उससे सत्य के बारे में कुछ पूछता, वह और चीजों के बारे में तो बहुत कुछ बताता पर सत्य
के बारे में कुछ न कहता, -उसे टाल जाता। अंत में उसे शिष्यों,
प्रेमियों द्वारा यह कहते हुए विवश किया गया--’‘ आपने जो कुछ जाना है, उसे बहुत कम जाना जाता है,
आप उसे पाकर अद्वितीय और अनूठे बन गए हैं- आप उसे अभिव्यक्त करें क्योंकि
दूसरा लाओत्से फिर दुबारा न होगा। ‘‘ इसलिए उसने एक छोटी-सी पुस्तक
' ताओ ते चिन ' लिखी, लेकिन उसका पहला ही वाक्य है- ''ताओ को कहा नहीं जा सकता,
सत्य का उच्चारण भी नहीं किया जा सकता। जिस क्षण तुम उसका उच्चारण भी
करते हो, वह पहले ही असत्य हो जाता है। ‘‘ और तब उसने कहा-’‘ अब मैं आसानी से लिख सकता हूं क्योंकि
आधारभूत तत्व की मैंने पहले ही घोषणा कर दी। सत्य कहते ही असत्य बन जाता है,
उसे लिखो, वह उससे पहले ही गलत हो गया। अब मैं
आसानी से लिख सकता हूं। ‘‘
यह
शब्द असत्य क्यों है?
पहली चीज तो यह कि यह हमेशा अतीत की सम्पत्ति है। दूसरे यह कि वह स्वयं
अपने साथ अनुभव ढोते हुए तुम तक नहीं पहुंचा सकता। मैं कहता हूं-मैं मौन हूं। तुम यह
शब्द सुनते हो, शब्द स्वयं अपने साथ अनुभव लिए हुए तुम तक नहीं
पहुंच सकता। मैं कहता हूं मैं मौन हूं। तुम यह शब्द सुनते हो- 'मौन' शब्द सुना जाता है लेकिन तुम इससे क्या समझते हो?
यदि तुम कभी भी मौन नहीं रहे हो, यदि तुमने कभी
भी उसका स्वाद नहीं लिया है, यदि उसने कभी तुम्हारे हृदय को मथा
नहीं है, यदि उसने कभी अभिभूत नहीं किया तुम्हें, यदि उसने कभी तुम्हें अपने काबू में नहीं किया तो तुम उसे कैसे समझ सकते हो?
और
यदि इसने तुम्हें अपने काबू में किया है, यदि मौन के वहाँ होने और तुम्हारे अनुपस्थित
हो जाने में कोई अंतराल था, तब मौन के बारे में मेरे लिए तुमसे
बात करने की जरूरत ही नहीं होगी। जिस क्षण तुम मुझे देखोगे, तुम
जान जाओगे, जिस क्षण तुम मेरे निकट आओगे, तुम अनुभव करोगे। शब्द की जरूरत होगी ही नहीं।
शब्द
की जरूरत इसलिए है क्योंकि तुम उसे नहीं जानते और यही समस्या है क्योंकि तुम नहीं जानते, इसीलिए शब्द
की आवश्यकता है, पर शब्द कैसे अपने को अभिव्यक्त करे?
जिसे तुम नहीं जानते, शब्द उसे तुमसे नहीं कह सकते।
शब्द सुने जा सकते हैं, तुम उन्हें याद रख सकते हो, तुम उनका अर्थ समझ सकते हो, जो शब्दकोष में भी लिखे हैं-मौन
का अर्थ है, यह भाषाकोश में लिखा हुआ है और तुम उसे पहले ही से
जानते हो-लेकिन वह उसका अर्थ नहीं है। जब मैं कहता हूं मैं मौन हूं तो जिस शांति और
मौन में मैं यहां हूं वह भाषाकोष में नहीं लिखा है, वह लिखा भी
नहीं जा सकता, उसके लिखने का कोई उपाय भी नहीं। यदि तुम मौन हो
तो तुम समझ जाओगे
लेकिन तब कहने की भी कोई जरूरत नहीं। यदि तुम मौन नहीं हो, तब तुम जो कुछ भी समझते हो, वह गलत ही होगा-लेकिन तब भी उसे कहने की जरूरत है।
लेकिन तब कहने की भी कोई जरूरत नहीं। यदि तुम मौन नहीं हो, तब तुम जो कुछ भी समझते हो, वह गलत ही होगा-लेकिन तब भी उसे कहने की जरूरत है।
मैंने
एक कहानी सुनी है। एक बार एक देहाती व्यक्ति ने एक बड़े बैंक में प्रवेश किया। बहुत
से लोग आ-जा रहे थे और काफी कार्य-व्यपार हो रहा था। अचानक देहाती चिल्लाया। वह सबसे
तेज आवाज में चीखा-’‘
क्या किसी के नोटों की गड्डी गिर गई है, जिसके
चारों ओर एक रबर बैंड बंधा था? ‘‘
बहुत
से लोग चिल्ला उठे-’‘
हां, मेरी ही गिर गई। ‘‘ और वे उसकी ओर दौड़े। एक नहीं, कई लोग। वहां एक भीड़ इकट्ठी
हो गई और प्रत्येक उस नोटों की गड्डी का दावा कर रहा था। उस देहाती ने कहा-’‘
मुझे तो उस गड्डी का केवल रबर बैंड मिला है। ‘‘
जब
भी मैं कहता हूं '
सत्य जब भी मैं कहता हूं '
मौन तुम केवल रबर बैंड पाओगे,
नोटों की गड्डी नहीं होगी वहां। शब्द तुम तक पहुंचेगा, लेकिन उसके साथ नोटों का भार नहीं होगा। वे नोट तो पीछे छूट जाएंगे-वे तो हृदय
में हैं। शब्द पहुंचेगा, लेकिन वह ठीक एक रबर बैंड की तरह होगा।
कभी उसमें नोट भी रहे होंगे लेकिन अभी तो वह केवल एक रबर बैंड है।
सत्य
सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता, लेकिन तब यह सद्गुरु क्या कर रहे हैं? वे व्यर्थ के सक्रिय प्रयास में लगे प्रतीत होते हैं। हां, यह बात बिलकुल ठीक है। वे उस बात को कहने का प्रयास कर रहे हैं, जिसे नहीं कहा जा सकता और वे उस ओर इशारा कर रहे हैं, जिसकी ओर इशारा भी नहीं किया जा सकता। वे उसे सम्प्रेषित करने का प्रयास कर
रहे हैं, जो कभी भी सम्प्रेषित नहीं किया जा सका और न सम्प्रेषित
किया जा सकेगा। तब फिर वे कर क्या रहे हैं? उनका पूरा प्रयास
ही व्यर्थ प्रतीत होता है, लेकिन फिर भी उनके प्रयास में वहां
कुछ है-उनकी करुणा है वह।
यह
भली- भांति जानते हुए भी कि जो मैं कहना चाहता हूं उसे कहा नहीं जा सकता, सबसे आसान
तरीका यही है कि मैं मौन रहूं क्योंकि यदि मैं यह जानता हूं कि वह कहा नहीं जा सकता,
तब क्यों परेशान हुआ जाए? तुम मेरे शब्दों को नहीं
समझ सकते, लेकिन क्या तुम मेरे मौन को समझने में समर्थ हो सकोगे?
इसलिए दो खराबियों में से यह एक का चुनना है।
अच्छा
यही है मैं मौन रहूं यह अधिक नियमित होगा। वह नहीं कहा जा सकता, इसलिए मुझे
मौन ही रहना चाहिए लेकिन क्या तुम मेरे मौन को समझने में समर्थ हो सकोगे? शब्द को तुम समझने में समर्थ न हो सकोगे, लेकिन तुम उसे
सुन तो सकते हो और कुछ सम्भावना खुली हुई है। निरन्तर सुनते हुए तुम उस चीज के बारे
में सजग हो सकते हो, जो शब्दों में नहीं कही गई है। धीरे- धीरे
मुझे सुनते हुए तुम मेरे प्रति सजग बन सकते हो, भले ही जो मैं
कह रहा हूं तुम उसके प्रति सजग न हो सको। शब्द सहायता करेंगे जैसे कांटे में लगा चारा
मछली पकड़ने में सहायक होता है और तुम जाल में पकड़े जा सकते हो, लेकिन यदि मैं मौन रहूं तो तुम बगल से निकल जाओगे।
तुम उसके प्रति भी सजग नहीं होगे कि मैं वहां बैठा हूं और थोड़ी-सी सम्भावना भी खो जाएगी।
तुम उसके प्रति भी सजग नहीं होगे कि मैं वहां बैठा हूं और थोड़ी-सी सम्भावना भी खो जाएगी।
इसलिए
जब सद्गुरु बोलते हैं,
वे उस सत्य को बताने के लिए नहीं बोलते, जो कहा
नहीं जा सकता। उनके पास चुनाव होता है या तो वे मौन बने रहें अथवा वे बात चीत करें।
मौन के साथ तो तुम उनसे पूरी तरह चूक जाओगे। शब्दों के साथ सम्भावना का एक द्वार खुला
रहता है, वह निश्चित तो नहीं होता क्योंकि हर चीज तुम पर निर्भर
है, लेकिन एक सम्भावना खुली रहती है। एक बुद्ध को निरन्तर सुनते
हुए तुम किसी दिन मौन हो ही जाओगे, क्योंकि केवल एक बुद्ध के
निकट बने रहना ही मौन के सरोवर के निकट होना है। एक विराट ऊर्जा के निकट बने रहना है
जो शांत बना देती है। इसी को भारत में सत्संग कहते हैं-सत्य के निकट बने रहना। यह प्रश्न
कुछ देने या पहुंचाने का नहीं है। इस सत्य के पास बने रहना का है। यह संक्रामक है-ठीक
वैसे ही जैसे जब तुम नदी के निकट आते हो तो हवा ठंडी हो जाती है। तुम नदी को नहीं देख
सकते, वह कुछ दूर हो सकती है, लेकिन ठंडी
हवा तुम्हें ठंडक के अहसास के साथ उसका संदेश दे रही है।
जब
तुम एक बुद्ध के निकट आते हो तो उसके शब्द भी अपने साथ ठंडक जैसा कुछ अहसास लिए हुए
होते हैं। बुद्ध नदी की तरह कहीं पास में ही है। तुम उसे खोजना शुरू कर सकते हो। तुम
उसके शब्दों में खो सकते हो, तुम जंगल में भी भटक सकते हो और नदी से भी चूक सकते
हो, लेकिन यदि तुम सजग और बुद्धिमान हो, तब धीरे- धीरे तुम्हें अनुभव होने लगेगा कि यह ठंडी हवा किधर से आ रही है।
यह सुंदर शब्दों की ध्वनि किधर से आ रही है और यह शब्द अपने चारों ओर एक मौन की सुवास
लिए हुए हैं। वह ठीक एक रबर बैंड ही हो सकता है, लेकिन उस रबर
बैंड का
नोटों के साथ गहरा रिश्ता रहा है। यह हवा अपने साथ कुछ लिए जा रही है, उस स्रोत की कुछ खबर दे रही है, जहां से ठंडी बयार आ रही है। यदि तुम बुद्धिमत्ता से उस हवा का अनुसरण कर सके तो देर-सवेर उस स्रोत तक पहुंच ही जाओगे।
नोटों के साथ गहरा रिश्ता रहा है। यह हवा अपने साथ कुछ लिए जा रही है, उस स्रोत की कुछ खबर दे रही है, जहां से ठंडी बयार आ रही है। यदि तुम बुद्धिमत्ता से उस हवा का अनुसरण कर सके तो देर-सवेर उस स्रोत तक पहुंच ही जाओगे।
एक
बुद्ध के शब्द भले ही सत्य को सम्प्रेषित करने में समर्थ न हो सकें, लेकिन वे उस
संगीत की लहरों को अभिव्यक्त कर रहे हैं, जो संगीत बुद्धत्व को
प्राप्त उस व्यक्ति में मौजूद है। वे शब्द, उस स्रोत के संगीत
की लय अपने साथ लिए जा रहे हैं, भले ही वह उस संगीत का बहुत-बहुत
.छोटा एक भाग हों, लेकिन उसमें स्रोत की कुछ धड़कन और सुवास जरूर
है। ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि जब एक शब्द एक बुद्ध की वीणा से झंकृत होता है तो उसमें
कुछ चीज बुद्ध की जरूर होती है। होनी ही चाहिए। वह शब्द उसके अस्तित्व में झंकृत होता
रहा है, उसने बुद्ध के हृदय की धड़कनों का स्पर्श किया है,
वह बुद्ध के मौन से होकर गुजरा है, वह बुद्ध के
गर्भ में रहा है। वह उसकी गंध और सुवास अपने साथ लिए जा रहा है, यद्यपि वह दूर, बहुत दूर की आवाज है, लेकिन फिर भी...।
यदि
तुम उसके शब्दों में खो गए तो तुम बुद्ध से चूक जाओगे, लेकिन यदि
तुम इसके प्रति सजग हो कि शब्द सत्य को अपने साथ नहीं ले सकते, तब तुम शब्दों को एक ओर अलग रख दोगे और उस सुवास का अनुसरण करोगे। शब्दों को
एक ओर अलग रखकर तुम उस संगीत का पीछा करोगे और शब्दों को अलग रखते हुए तुम उसकी उपस्थिति
को समझोगे, महसूसोगे। यदि मैं अचानक कहूं-' हे! 'तुम मेरी ओर देखने लगोगे। यह शब्द अर्थहीन है,
लेकिन मेरा देखना, मेरी चितवन... अचानक तुम मेरे
प्रति सजग हो जाओगे। उसी सजगता का अनुसरण करना है, तब शब्द भी
सहायक बन जाएंगे। वे सत्य भले ही न बता सकें, लेकिन सत्य की ओर
एक कदम आगे बढ़ाने के लिए वे सहायक बन सकते हैं।
यह
कहानी बहुत सुन्दर है। एक सदगुरु अपनी मृत्यु शैया पर पड़ा है, उसे शीघ्र
ही यह पृथ्वी और उसके वाहन इस शरीर को छोड़ना है और वह एक ऐसा उत्तराधिकारी चाहता है,
जो उस ज्योति को अपने साथ लिए हुए चल सके, जो उसने
प्रज्वलित की थी, जो उस कार्य को निरन्तर आगे बढ़ाने में समर्थ
हो, जो उसने शुरू किया था। वह अपने एक शिष्य को चुनता है और उसे
अपने पास बुलाकर कहता है-’‘ तुम उन सभी शिष्यों में जो मेरे चारों
ओर मठ में हैं, सबसे अधिक योग्य और सक्षम हो और तुम ही मेरे उत्तराधिकारी
बनने जा रहे हो। तुम्हीं को इस कार्य को निरन्तर जारी रखना है।
सात पीढ़ियों से एक पवित्र ग्रंथ सद्गुरु द्वारा उस शिष्य के सुपुर्द किया जाता है, जो उत्तराधिकारी होने जा रहा हो। मैंने इस ग्रंथ को अपने सद्गुरु से प्राप्त किया था और अब मैं इसे तुम्हें देता हूं। यह बहुत कीमती और अनूठा कोष है। बुद्धत्व को प्राप्त सात बुद्धों ने इसमें अपने सत्य के अनुभवों को लिपिबद्ध किया है और इसमें मैंने भी अपनी थोड़ी-सी समझ को शामिल किया है। इसे तुम सुरक्षित रखना। कभी खोना मत। ख्याल रहे, यह कहीं खो न जाए। ‘‘
सात पीढ़ियों से एक पवित्र ग्रंथ सद्गुरु द्वारा उस शिष्य के सुपुर्द किया जाता है, जो उत्तराधिकारी होने जा रहा हो। मैंने इस ग्रंथ को अपने सद्गुरु से प्राप्त किया था और अब मैं इसे तुम्हें देता हूं। यह बहुत कीमती और अनूठा कोष है। बुद्धत्व को प्राप्त सात बुद्धों ने इसमें अपने सत्य के अनुभवों को लिपिबद्ध किया है और इसमें मैंने भी अपनी थोड़ी-सी समझ को शामिल किया है। इसे तुम सुरक्षित रखना। कभी खोना मत। ख्याल रहे, यह कहीं खो न जाए। ‘‘
शिष्य
ने कहा-’‘ लेकिन मैंने जो कुछ अनुभव पाया है, वह बिना किसी ग्रंथ
को पड़े पाया है और मैं प्रसन्न और आनन्दित हूं। मैं किसी भी तरह से जरा-सा भी असंतुष्ट
नहीं हूं इसलिए आप यह भार मुझे क्यों दे रहे हैं? आप यह अनावश्यक
जिम्मेदारी मुझे क्यों सौंप रहे हैं? मैंने पहले ही से सत्य का
अनुभव कर लिया है और इस किताब की मुझे कोई भी जरूरत है ही नहीं। यह बिलकुल अनावश्यक
है। ‘‘ सदगुरू ने फिर भी आग्रह करते हुए कहा-’‘ जो बहुत अधिक मूल्यवान है, वही इसमें लिखा है। यह कोई
साधारण पुस्तक नहीं है। यह पवित्र ग्रंथ है और सात पीढ़ियों के बुद्धों काइसमें सत्य
का अनुभव लिपिबद्ध है। इसका निरादर कर अधार्मिक कृत्य मत करो। इस ग्रंथ का सम्मान करो,
इसे अपने पास रखो और बाद में इसे तुम अपने उत्तराधिकारी को सौंप देना।
इस पुस्तक को तुम्हें सौंपते हुए मैं तुम्हें प्रमाणित कर रहा हूं। यह ग्रंथ ठीक इस
बात का प्रतिनिधित्व कर रहा है कि तुम मेरे उत्तराधिकारी हो। ‘‘
और
सद्गुरु ने वह पुस्तक शिष्य के हाथों पर रख दी। वह अवश्य ही कोई सर्द रात रही होगी
क्योंकि वहां आग जल रही थी। सद्गुरु ने उस शिष्य के एक हाथ में वह पुस्तक जैसे ही
रखी, उसी क्षण उसने उसे जलती आग में फेंक दिया। सद्गुरु जो अपने जीवन में कभी आज
तक क्रोधित न हुआ था, चीखते हुए बोला-’‘ क्या कर रहे हो तुम? ‘‘
और
वह शिष्य सद्गुरु से भी अधिक जोर से चिल्लाकर बोला-’‘ आप क्या कह
रहे हैं? ‘‘
यह
बहुत सुन्दर कहानी है। सदगुरु जरूर ही बहुत शांति से भर गए होंगे। यही ठीक और सच्चा
है। उस किताब को आग में ही फेंकना चाहिए था, वरना वह शिष्य चूक गया होता। यदि उसने
वह किताब अपने पास रख ली होती तो वह चूक जाता और तब वह उत्तराधिकारी न बनाया जाता..
क्योंकि तुम पुस्तक केवल तभी अपने पास रखते, जब तुम्हें कुछ घटा
न होता। जब सत्य तुम्हारे साथ है, फिर शब्दों की फिक्र कौन करता
है? कौन किताब की झंझट साथ रखता, जब वास्तविक
चीज अर्थात सत्य तुम्हें घट चुका है। कौन परेशान होता उन व्याख्याओं के बारे में,
जब अनुभव वहां
पहले ही से था। व्याख्याएं तभी कीमती होती हैं, जब अनुभव नहीं होता, सिद्धान्त तभी महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि वहां ज्ञान का आलोक नहीं होता। जब तुम जानते हो तो तुम सिद्धान्तों को फेंक सकते हो-वे खाली रबर बैंड हैं। जब नोटों की गड्डी तुम्हारे पास है, तुम रबर बैंड को फेंक सकते हो। रबर बैंड को सुरक्षित रखना तुम्हारी मूर्खता को प्रदर्शित करता है।
पहले ही से था। व्याख्याएं तभी कीमती होती हैं, जब अनुभव नहीं होता, सिद्धान्त तभी महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि वहां ज्ञान का आलोक नहीं होता। जब तुम जानते हो तो तुम सिद्धान्तों को फेंक सकते हो-वे खाली रबर बैंड हैं। जब नोटों की गड्डी तुम्हारे पास है, तुम रबर बैंड को फेंक सकते हो। रबर बैंड को सुरक्षित रखना तुम्हारी मूर्खता को प्रदर्शित करता है।
यह
किताब कीमती न थी-कोई किताब कीमती नहीं होती और सद्गुरु उसके साथ खेल खेल रहा था, ठीक वही खेल,
जो उसके सदगुरु ने उसके साथ कभी जरूर खेला होगा। कोई नहीं जानता कि उस
किताब में' क्या लिखा था, लेकिन मैं बताता
हूं तुम्हें कि उस किताब में कुछ भी नहीं लिखा था। वह कोरी थी। यदि शिष्य ने उसे सुरक्षित
रखा होता तो सद्गुरु के मरने पर -यदि उसने उसे खोलकर देखा होता तो उसके मुंह से जरूर
चीख निकलती, उस किताब में कुछ भी न लिखा था। वह बस एक खेल था,
एक पुराना खेल।
प्रत्येक
सद्गुरु शिष्य के अनुभव की परीक्षा लेने की कोशिश करता है कि वह ' उसे '
जानता है या नहीं। यदि वह जानता है तो वह किताबों का आदी नहीं होगा।
क्यों? उनमें कोई आवश्यक बात अर्थात सत्य है ही नहीं। यही कारण
था कि शिष्य ने कहा-’‘ आप क्या कह रहे हैं? जब मैंने उसे बिना पड़े सब कुछ प्राप्त कर लिया, मैंने
उसे पहले से ही पा लिया, फिर किताब संभालकर रखने की जरूरत क्या?
आप करा कह रहे हैं? ‘‘
सद्गुरु
ने उत्तेजना दिलाते हुए एक स्थिति निर्मित की और उस स्थिति में शिष्य को अपने स्वभाव
और साहस को सिद्ध करना था। जो कुछ वह जानता था, उससे उसने सिद्ध भी किया। यदि वह थोड़ा-सा
भी झुकाव उस किताब को सुरक्षित रखने में प्रकट करता तो वह चूक गया होता और उसका उत्तराधिकारी
न बनता। उसने तो उस पुस्तक में झांका तक नहीं कि उसमें था क्या? वह उसमें जरा भी उत्सुक नहीं हुआ क्योंकि अज्ञान ही उत्सुक होता है। यदि तुम
जानते हो तो बस जानते हो, उत्सुकता दिखाने की जरूरत क्या?
तुम्हारे
अंदर इस स्थिति में क्या हुआ होता जो पहली चीज तुम्हारा मन कहता- कम-से-कम यह देख तो
लो आखिर उस पुस्तक में है क्या? लेकिन वह मुख मुद्रा ही यह सिद्ध करने को पर्याप्त
होती कि तुमने अभी उसे प्राप्त नहीं किया है। उत्सुकता दिखाने का अर्थ है- अज्ञान।
प्रज्ञा में उत्सुकता या कौतूहल नहीं होता। उत्सुकता प्रश्न पूछती है, प्रज्ञा के पास पूछने को कुछ होता ही नहीं। तुमने क्या किया होता? जो पहली चीज मन में आती कि कम-से-कम देखें तो पुस्तक में है क्या? यदि मेरे सद्गुरु इतना आग्रह कर रहे हैं कि यह किताब बहुत कीमती है और उसे
इसलिए सुरक्षित रखना है क्योंकि वह पीढ़ियों से एक पीढ़ी से दूसरी को हस्तांतरित की जाती
रही है और उसमें
सात बोध को प्राप्त बुद्धों ने अपने अनुभव लिखे हैं, जिसमें मेरे सद्गुरु ने भी अपनी समझ से कुछ और जोड़ा है तो कम-से-कम आग में झोंकने से पूर्व उसे देख तो लें कि उसमें है क्या?
सात बोध को प्राप्त बुद्धों ने अपने अनुभव लिखे हैं, जिसमें मेरे सद्गुरु ने भी अपनी समझ से कुछ और जोड़ा है तो कम-से-कम आग में झोंकने से पूर्व उसे देख तो लें कि उसमें है क्या?
लेकिन
मैं तुमसे कहता हूं यदि उस शिष्य ने उस पुस्तक की ओर देखा भी होता तो सद्गुरु ने उसे
पुस्तक सहित उस कमरे से क्या आश्रम से बाहर ही उठाकर फेंक दिया होता। उसका कार्य गहरी
समझ से उद्भूत था। एक सद्गुरु जो स्वयं जानता है कि पुस्तक के कीमती होने पर क्यों
जोर दे रहा है?
जरूर वह कोई खेल खेल रहा है। सद्गुरु तो पूरे जीवन में कभी आज तक नाराज
हुए ही नहीं और आज वह कह रहे हैं-’‘ तुम क्या कर रहे हो?
‘‘उन्होंने पूरी स्थिति निर्मित कर दी।
इस
क्रोध में शिष्य सकपकाकर हार मानकर कह सकता था-' मुझसे कुछ गलती हो गई,
मुझे माफ कीजिए। ' मन इसी तरह सोचता और कार्य करता
है। अब
सद्गुरु मुझे अपना उत्तराधिकारी नहीं भी बना सकते हैं। यदि मेरे सद्गुरु मुझसे इतने नाराज हैं तो इसका अर्थ है मैंने कुछ गलत कर दिया और उत्तराधिकारी बनने से चूक सकता हूं मैं। मैं मठ का प्रधान बनने जा रहा था, मैं सदगुरु-बनने जा रहा था, लाखों मेरा अनुसरण करते, हजारों मेरे शिष्य होते और अब मुझसे कोई चीज गलत हो गई, क्योंकि वह व्यक्ति क्रोध कर रहा है, चिल्ला रहा है, जिसने आज तक कभी क्रोध किया ही नहीं।
सद्गुरु मुझे अपना उत्तराधिकारी नहीं भी बना सकते हैं। यदि मेरे सद्गुरु मुझसे इतने नाराज हैं तो इसका अर्थ है मैंने कुछ गलत कर दिया और उत्तराधिकारी बनने से चूक सकता हूं मैं। मैं मठ का प्रधान बनने जा रहा था, मैं सदगुरु-बनने जा रहा था, लाखों मेरा अनुसरण करते, हजारों मेरे शिष्य होते और अब मुझसे कोई चीज गलत हो गई, क्योंकि वह व्यक्ति क्रोध कर रहा है, चिल्ला रहा है, जिसने आज तक कभी क्रोध किया ही नहीं।
यदि
उस शिष्य की जगह तुम वहां हुए होते तो सद्गुरु के पैर पकड़कर तुमने कहा होता-' मुझे माफ कर
दीजिए लेकिन मुझे ही चुनिए। ' लेकिन उस शिष्य ने कहा-'
आप क्या कह रहे हैं? 'यदि सद्गुरु क्रोध का अभिनय
कर सकते हैं तो शिष्य भी वह खेल खेल सकता है, लेकिन ऐसा तभी हो
सकता है जब दोनों ही जानते हों। उसने खरे सिक्के की तरह खरा उत्तर दिया। उसने बिलकुल
ठीक उत्तर दिया और सद्गुरु संतुष्ट हुए यही है वह व्यक्ति। वह उत्तराधिकारी बना। वही
उत्तराधिकारी था भी।
लेकिन
यही प्रत्येक धर्म द्वारा किया गया है। वे धर्मशास्त्रों को सुरक्षित रखने के अतिरिक्त
अन्य कुछ भी नहीं करते। ईसाई अपनी बाइबिल की रक्षा करते हैं, मुसलमान अपनी
कुरान और हिन्दू अपनी गीता की रक्षा करते हैं- और वे चूक जाते हैं। वे सच्चे उत्तराधिकारी
नहीं हैं। मुसलमानों में मुहम्मद के चरित्रगत गुण नहीं हैं, वे
हो भी नहीं सकते। यदि होंगे तो कुरान को आग में जलाना होगा। ईसाई, क्राइस्ट के बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि वे बाइबिल की रक्षा करते हैं
और हिंदुओं को गीता के कारण ही कृष्ण की कोई समझ नहीं है-वे उसका भार ढोए चले जा रहे
हैं। सभी वेद, बाइबिल और कुरान उन लोगों के लिए हैं, जो उन्हें नहीं समझते। वे उनका बोझा ढोए जा रहे हैं और उनका भार इतना अधिक
हो जाता है कि वे उन्हीं के नीचे दबकर रह जाते हैं। वे उनके द्वारा मुक्त और स्वतंत्र
नहीं होते और उन्हीं के गुलाम बन जाते हैं।
एक
धार्मिक व्यक्ति हमेशा शास्त्रों के पार होता है, एक धार्मिक चेतना कभी शब्दों
और वचनों की आदी नहीं होती। पूरी चीज ही एक बचपना है। एक धार्मिक व्यक्ति प्रामाणिक
अनुभव की खोज में होता है, उधार लिए गए शब्दों और दूसरों के अनुभवों
की खोज में नहीं.. .’‘ क्योंकि जब तब मैं न जाएं-बुद्ध लोग कभी
रहे होंगे, लेकिन ये व्यर्थ हैं। यदि मैं नहीं जानता तो वहां
कोई सत्य है ही नहीं क्योंकि सत्य ही मेरा अनुभव बन सकता है। केवल तभी वह वहां है।
पूरा संसार भी यदि कहे कि वहां प्रकाश है और जहां आकाश में इन्द्रधनुष निकला है और
सूर्य उदय हो रहा है, लेकिन यदि मेरी आंखें बंद हैं तो मेरे लिए
उन सभी का क्या अर्थ है? वह इन्द्रधनुष, वे रंग, सूर्योदय का सौंदर्य और सभी चीजें मेरे लिए अस्तित्वहीन
हैं। मेरी आंखें बंद हैं, मैं अंधा हूं और यदि उनके बारे में
मैं बहुत सुनता हूं और यदि में उन पर बहुत अधिक विश्वास करना शुरू कर देता हूं और यदि
मैं उनके शब्द उधार लेकर इन्द्रधनुष के बारे में, जिसे मैंने
कभी देखा ही नहीं, उन रंगों के बारे में जिन्हें मैं देख ही नहीं
सकता और उस सूर्योदय के बारे में, जिसका मुझे कोई अनुभव ही नहीं,
यदि बात करना शुरू कर देता हूं तो मैं शब्दों के जंगल में खो सकता हूं।
‘‘
इससे
यह कहना कहीं अच्छा है-’‘
मैं अंधा हूं मैं न तो रंगों के बारे में और न प्रकाश के बारे में कुछ
भी नहीं जानता। यदि मेरी आंखें खुली नहीं हैं तो वहां न कोई सूरज है और न वहां कोई
सूर्योदय हो सकता है। ‘‘
तुम्हारा
जोर इस बात पर हो जिससे तुम आंखों द्वारा फिर देख सको। शास्त्रों का बोझ ढोए मत चलो, उनमें दूसरों
के द्वारा देखे गए इन्द्रधनुष का जिक्र है, वे उस सूर्योदय के
बारे में जिसका अनुभव दूसरों ने किया, बात कर रहे हैं। अपने साथ
उधार लिया हुआ परमात्मा लेकर मत चलो, जबकि तुम तुरन्त प्रत्यक्ष
रूप से उसका साक्षात्कार कर सकते हो। तुम अपने और उसके बीच में किताबों का अवरोध क्यों
खड़ा करते हो? उन किताबों को जला दो, उन्हें
जलती आग में फेंक दो, यही इस कहानी का सन्देश है।
पर
इसका यह अर्थ नहीं कि तुम जाओ और गीता को आग में फेंक दो-इससे कुछ अधिक सहायता मिलने
की नहीं, क्योंकि यदि गीता सत्य की ओर जाने में तुम्हारी सहायता नहीं कर सकती तो गीता
को जलाने से भी तुम्हें सहायता कैसे मिल सकती है? नहीं,
असली मुद्दा यह है ही नहीं। तुम सभी किताबों को फेंक सकते हो,
पर तुम सिद्धान्तों और उपदेशों के आदी बने रह सकते हो। जब मैं कहता हूं
कि किताबों को जला दो तो मेरे कहने का अर्थ है, उस मन को जला
दो, उस मन को विसर्जित कर दो। कहे गए शब्दों में उलझकर मौखिक
मत बनो। प्रामाणिक अनुभव को खोजो, लेकिन किताबों के द्वारा तुम
पूछताछ करने में लग जाते हो, यही समस्या है, किताबें पढ़कर
तुम्हारे अन्दर प्रश्न खड़े तो सकते हैं और यदि तुम्हारा प्रश्न पूछना अपने आप में महज किताबी है तो तुम्हारी पूरी पूछताछ एक गलत दिशा में शुरू हो जाती है।
तुम्हारे अन्दर प्रश्न खड़े तो सकते हैं और यदि तुम्हारा प्रश्न पूछना अपने आप में महज किताबी है तो तुम्हारी पूरी पूछताछ एक गलत दिशा में शुरू हो जाती है।
लोग
मेरे पाए आते हैं और पूछते हैं-’‘ परमात्मा क्या है?'' और मैं
उनसे पूछता हूं क्या यह प्रश्न तुम्हारे जीवन से आया है अथवा किसी पुस्तक में परमात्मा
के बारे में पढ़कर तुम इतने उत्सुक हो उठे हो? यह प्रश्न तुम्हारा
नहीं है और यदि प्रश्न ही तुम्हारा नहीं है तो किसी भी उत्तर से कोई सहायता नहीं मिल
सकती। जब मूल चीज ही उधार की है, जब प्रश्न भी उधार का है तो
तुम उत्तर भी उधार लेते रहोगे। तुम अपने प्रामाणिक प्रश्नों की खोज करो। तुम्हारा प्रश्न
क्या है?
मैंने
एक दार्शनिक के बारे में सुना है जिसने लंदन में कारों के एक शोरूम में प्रवेश किया।
उसने चारों ओर घूमकर कारों को देखा और एक नदी की धारा की तरह तेज चलने वाली एक सुंदर
स्पोर्ट्स कार को देखकर जैसे सम्मोहित हो गया वह। शोरूम का सेल्समैन सजग हो गया क्योंकि
वह उस कार को इतनी दिलचस्पी से देख रहा था। उसने उसके पास आकर पूछा-’‘ क्या आपकी
इस कार में दिलचस्पी है?'' दार्शनिक ने उत्तर दिया-’‘
हां! मैं इसी के प्रति उत्सुक हूं। क्या यह बहुत तेज
चल सकती है?''
चल सकती है?''
सेल्समैन
ने उत्तर दिया-’‘
तेज? आप इससे अधिक तेज गति से भागने वाली कोई दूसरी
कार नहीं पा सकते। यदि आप इसमें अभी बैठ जाएं तो कल सुबह तीन बजे आप एबरडीन में होंगे।
क्या आप वास्तव में इसे खरीदने में दिलचस्पी रखते हैं?'' दार्शनिक
ने उत्तर दिया-’‘ मैं इसके- बारे में विचार करूंगा। ''
अगले
दिन वह फिर शो रूम में आया और उसने कहा-’‘ नहीं! मैं इस कार को रही खरीदना चाहता।
मैं सारी रात सो ही न सका। मैं निरन्तर जागता रहा और सोचता रहा, सोचता और सोचता ही रहा मैं कोई भी कारण न खोज सका कि मुझे. .सुबह तीन बजे एबरडीन
में क्यों होना चाहिए?''
जब
कभी तुम एक पुस्तक पढ़ते हो,
तुम पूछते हो और पूछते ही चले जाते हो कि तुम्हें सुबह तीन बजे एबरडीन
में क्यों होना चाहिए?
तुम
एक किताब पढ़ते हो। उसमें कुछ परमात्मा के बारे में पढ़ते हो, कुछ चीज मोक्ष
के बारे में पढ़ते हो, कुछ आत्मा और कुछ परमानन्द के बारे में
पढ़ते हो और तुम सम्मोहित हो जाते हो-जो लोग सत्य जानते थे, उन
लोगों के शब्द वास्तव में सम्मोहक हैं-लेकिन तुम यह पूरी तरह भूल जाते हो कि किन कारणों
से तुम परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहते हो? क्या केवल एक
किताब पढ़कर क्या केवल उस व्यक्ति के बारे में पढ़कर-उदाहरण के लिए तुम जीसस को पढ़कर
सम्मोहित हो जाते हो क्योंकि इस व्यक्ति ने परमात्मा को छक कर पीया है। उसके हर शब्द
में शराब जैसा नशा है। यदि तुम उसे सुनते हो तुम मदहोशी का अनुभव करते हो, लेकिन बंद कर दो बाइबिल को, जीसस से छुटकारा पा लो और
चिंतन करो कि क्या हर स्थिति में वह तुम्हारा निरीक्षण है अथवा इस व्यक्ति ने अपना
निरीक्षण तुम्हें बेच दिया है, दूसरे के निरीक्षण के साथ तुम्हारी
अपनी खोज नकली बन जाती है।
जो
पहली चीज याद रखने की है,
वह यह है कि तुम्हारा प्रश्न तुम्हारा अपना होना चाहिए। तब दूसरी चीज
याद रखने की है कि उत्तर भी तुम्हारा ही होना चाहिए। किताबें दोनों ही चीजों की पूर्ति
करती हैं। इसी कारण में कहता हूँ किताबों को जला दो और प्रामाणिक बन जाओ। शब्दों के
जंगल से बाहर निकलो और अनुभव करो तुम क्या चाहते हो, क्या तुम्हारी
कामना है और तब अनुसरण करो, .फिर वह तुम्हें जहां भी ले जाए।
देर--सवेर तुम परमात्मा तक पहुंच ही जाओगे। इसमें थोड़ा लम्बा –समय लगेगा, लेकिन तब यह खोज असली होगी।
और
यह शिष्य सदगुरु से कह रहा है-’‘ मैंने तो उसे बिना कोई किताब पड़े ही प्राप्त कर
लिया, फिर आखिर क्यों... आप यह किताब मुझ पर बलपूर्वक क्यों थोप
रहे हैं? ‘‘उसने अच्छा ही किया, उसे जलती
हुई आग में फेंक दिया।
यदि
सभी धार्मिक ग्रंथ जला दिए जाएं तो संसार कहीं अधिक धार्मिक होगा। वहां ऐसी बहुत-सी
पुस्तकें और पहले से तैयार उत्तर हैं कि प्रत्येक व्यक्ति प्रश्न और उत्तर दोनों जानता
है। यह एक तरह का खेल बन गया है। यह तुम्हारा जीवन नहीं है। यह संसार किताबों से स्वतंत्र
होना चाहिए सभी आदर्शों से मुक्त होना चाहिए और सभी उधार ली गई पूछताछ या जांच से मुक्त
होना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को अपने हृदय और अपनी नाड़ी की धड़कन का अनुभव होना शुरू
होना चाहिए वे उसे किस दिशा. में ले जा रही
हैं उसकी क्या कामनाएं हैं और उसका क्या प्रश्न है? यदि तुम अपना प्रश्न खोज सके
तो उसका उत्तर ठीक उसके पास ही प्रतीक्षा करता हुआ मिलेगा।
यह
हो सकता है प्रश्न को खोजते हुए तुमने उत्तर
पहले ही पा लिया हो,
क्योंकि उत्तर प्रामाणिकता में ही विश्राम कर रहा होता है। यदि प्रश्न
प्रामाणिक है, यदि तुम प्रश्न करने में प्रामाणिक बन गए हो,
पांच प्रतिशत समस्या तो पहले ही से सुलझी हुई है। बस थोड़ा-सा प्रयास
और करने पर, थोड़ा-सा गहरे और जाने पर उत्तर, हमेशा प्रश्न के पीछे ही छिपा मिल जाता है।
प्रश्न
करना, सिक्के का ठीक एक पहलू है। दूसरा पहलू है उत्तर। प्रश्न के ठीक पीछे ही,
उत्तर विश्राम करता हुआ तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहता है, लेकिन यदि तुम अपने प्रश्न तक ही न पहुंचे तो तुम उत्तर तक कैसे पहुंचोगे?
और केवल तुम्हारा उत्तर ही तुम्हें मुक्त करेगा।
जीसस
कहते हैं-’‘ सत्य तुम्हें मुक्त करता है। ‘‘ हां! सत्य मुक्त करता
है, लेकिन उधार लिया हुआ सत्य नहीं। जीसस का सत्य तुम्हें मुक्त
नहीं करेगा, लेकिन ईसाइयों का विश्वास है कि जीसस का सत्य उन्हें
मुक्त करेगा। केवल इतना ही नहीं, वे सोचते हैं कि केवल जीसस के
सलीब पर लटक जाने से पूरी मनुष्यता पहले से मुक्त हो चुकी है। यह अंधा बनना है,
पूरी तरह अंधा होना। कुछ भी मुक्त नहीं हुआ, कोई
भी मुक्त नहीं हुआ, पापों से मुक्ति अभी हुई ही नी। जीसस कूर
पर लटका दिए गए यह ठीक है लेकिन जीसस के कूरूस पर चढ़ने से जीसस मुक्त हुए थे,
तुम नहीं। यह
पूरी चीज ही एक छल प्रतीत होती है। जीसस की मृत्यु कूरूस पर होती है और मनुष्यता,
विशेष रूप से ईसाइयत मुक्त हो गई, कोई भी जो ईसाई है पहले ही से मुक्त है। मन इसी तरह से सोचता है, वह जिम्मेदारी दूसरों पर थोपता है। यदि तुम पापी हो तो तुम हो पापी, क्योंकि आदम ने पाप किया था और वह स्वर्ग से बाहर फेंक दिया गया था और अब तुम मुक्त हो गए क्योंकि जीसस ने फिर से परमात्मा के राज्य में प्रवेश किया इसलिए आदम और जीसस ही प्रामाणिक व्यक्ति हैं। तुम तो बस एक छाया- भर हो। आदम पाप करता है और पापी तुम बन जाते हो इसलिए तुम कौन हो? तुम एक छाया- भर हो। आदम को स्वर्ग के बाहर फेंक दिया गया, इसलिए तुम्हें ही फेंक दिया गया। केवल छाया के साथ ही ऐसा हो सकता है, एक वास्तविक व्यक्ति के साथ नहीं। यदि मैं इस घर से बाहर फेंक दिया जाऊं तो मेरे साथ मेरी छाया भी फेंक दी जाएगी और कुछ नहीं। और यदि मैं परमात्मा के राज्य में प्रवेश करता हूं तो केवल मेरी छाया ही मेरे साथ प्रविष्ट हो जाएगी। तुम प्रवेश नहीं कर सकते।
पूरी चीज ही एक छल प्रतीत होती है। जीसस की मृत्यु कूरूस पर होती है और मनुष्यता,
विशेष रूप से ईसाइयत मुक्त हो गई, कोई भी जो ईसाई है पहले ही से मुक्त है। मन इसी तरह से सोचता है, वह जिम्मेदारी दूसरों पर थोपता है। यदि तुम पापी हो तो तुम हो पापी, क्योंकि आदम ने पाप किया था और वह स्वर्ग से बाहर फेंक दिया गया था और अब तुम मुक्त हो गए क्योंकि जीसस ने फिर से परमात्मा के राज्य में प्रवेश किया इसलिए आदम और जीसस ही प्रामाणिक व्यक्ति हैं। तुम तो बस एक छाया- भर हो। आदम पाप करता है और पापी तुम बन जाते हो इसलिए तुम कौन हो? तुम एक छाया- भर हो। आदम को स्वर्ग के बाहर फेंक दिया गया, इसलिए तुम्हें ही फेंक दिया गया। केवल छाया के साथ ही ऐसा हो सकता है, एक वास्तविक व्यक्ति के साथ नहीं। यदि मैं इस घर से बाहर फेंक दिया जाऊं तो मेरे साथ मेरी छाया भी फेंक दी जाएगी और कुछ नहीं। और यदि मैं परमात्मा के राज्य में प्रवेश करता हूं तो केवल मेरी छाया ही मेरे साथ प्रविष्ट हो जाएगी। तुम प्रवेश नहीं कर सकते।
जीसस
ने हर चीज का समाधान कर दिया। उन्होंने परमात्मा के राज्य में प्रवेश किया और उनके
साथ पूरी मनुष्यता प्रविष्ट हो गई। कोई भी प्रविष्ट नहीं हुआ। कोई भी इतने आसान तरीके
से प्रवेश नहीं कर सकता। तुम्हें उसकी कीमत चुकानी होगी तुम्हें अपना क्रॉस स्वयं ढोना
होगा। तुम्हें कष्ट सहते हुए स्वयं कूरूस पर लटकना होगा- तुम्हारी पीड़ाएं तुम्हें याद
रहेंगी। न तो जीसस के दुःख और न किसी दूसरे की पीड़ाएं तुम्हारे लिए द्वार खोलेंगे।
वे तो बंद हैं और तुम केवल जीसस का अनुसरण करते हुए उनमें प्रवेश नहीं कर सकते। उस
तरह से उस द्वार में कोई भी प्रविष्ट नहीं हो सकता। दरवाजे तो किसी एक के लिए खुलते
हैं क्योंकि वैयक्तिक रूप से केवल वही प्रामाणिक और सच्चा होता है।
उस
शिष्य ने कहा-’‘
प्यारे सद्गुरु! मैं तो पहले ही प्रविष्ट हो चुका हूं इसलिए आप मुझे
यह नक्शो क्यों दे रहे हैं? नक्शे की आवश्यकता तो उसे होती है
जो रास्ता भूल गया हो, सो गया हो, लेकिन
मैं तो पहले ही मंजिल पर पहुंच चुका हूं इसलिए यह नक्शा क्यों? ‘‘
और
सद्गुरु ने कहा-’‘
यह नक्शो बहुत कीमती है। इसमें सारे मार्गों के संकेत है। ‘‘
यदि
एक क्षण के लिए भी शिष्य झिझका होता.. सद्गुरु मर्मबेधी दृष्टि से उसका हृदय टटोल
रहे थे, यदि वह कहता, ठीक है, शायद सद्गुरु
ठीक ही कहते हों और नक्शे कीमती हो... लेकिन उस व्यक्ति के लिए नक्शो की क्या जरूरत,
जो पहले ही लक्ष्य पर पहुंच चुका हो? इसलिए उसने
वह किताब आग में फेंक दी, उसने उस नक्शे को फेंक ही दिया।
मैंने
सुना है एक व्यक्ति सुनसान सड़क पर अपनी कार ड्रराइवर कर रहा था और उसे संदेह था कि
वह गलत दिशा में मुड़ गया है। उसने टहलते हुए एक भिखारी को देखा और कार रोककर उससे पूछा-’‘ क्या यह सड़क
देहली की ओर जाती है? ‘‘भिखारी ने उत्तर दिया-’‘ मुझे नहीं मालूम।‘‘
इसलिए
फिर उस आदमी ने पूछा-’‘
तो क्या यह सड़क आगरा की ओर जा रही है? ‘‘
भिखारी
ने उत्तर दिया-’‘
मुझे नहीं मालूम। ‘‘
कार
चालक जो पहले ही झल्लाया हुआ था और भी नाराज होकर क्रोधित होकर भिखारी से बोला-’‘ तो तुम इससे
अधिक और कुछ नहीं जानते। ‘‘
भिखारी
हंस पड़ा और उसने कहा-’‘
लेकिन मैं रास्ते से भटका या खोया हुआ नहीं हूं। ‘‘
इसलिए
प्रश्न जानकारी का नहीं है,
प्रश्न है-क्या तुम खोजने में समर्थ हो अथवा नहीं? भिखारी ने कहा-’‘ लेकिन मैं अपने रास्ते से नहीं भटका
हूं। मैं जानता हूं या नहीं, यह जरूरी बात नहीं है। ‘‘
जब तुम अपना रास्ता न खोज सको, तभी नक्शे की आवश्यकता
होती है, जानकारी या किसी किताब की जरूरत होती है। जब तुमने अपना
रास्ता खोया ही नहीं, तो एक किताब या नक्शो को साथ ढोए जाने की
क्या जरूरत है? एक बोध को प्राप्त व्यक्ति का लक्ष्य हर कहीं
होता है। वह जहां है, वही उसका लक्ष्य या मंजिल है। एक बार तुम
सजग हो जाओ कि तुम्हीं लक्ष्य हो, फिर तुम कहीं भटक ही नहीं सकते।
भिखारी ने भी अपना मार्ग खोया नहीं था। क्यों? क्योंकि न तो वह
देहली जा रहा था और न आगरा, वह कहीं जा ही नहीं रहा था। वह जहां
भी पहुंच जाता, वही उसकी मंजिल होगी। उसने रास्ता इसलिए खोया
नहीं था क्योंकि वह किसी भी दिशा की ओर जा ही नहीं रहा था, वह
इसलिए नहीं भटका था क्योंकि वहां उसका कोई इच्छित लक्ष्य था ही नहीं।
इस
शिष्य ने नक्शे या किताब को फेंक दिया क्योंकि वहां कोई लक्ष्य था ही नहीं। अब वह स्वयं
ही लक्ष्य है। वह जहां भी है, वह शांति से है, अपने ही घर
में है। अब वहां कोई कामना नहीं, कोई प्रोत्साहन नहीं। अब भविष्य
विलुप्त हो गया, यह क्षण ही यथेष्ट और सब कुछ है। सभी नक्शे को
फेंक दो, क्योंकि तुम्हीं लक्ष्य या मंजिल हो। नक्शे तभी सहायक
होते हैं, जब लक्ष्य कहीं और बाहर हो। यदि तुम स्वयं हो लक्ष्य
हो तो नक्शे कुछ भी सहायता नहीं देते, बल्कि वो तुम्हारा ध्यान
भंग कर देते हैं, क्योंकि जब तुम नक्शो की ओर देखते हो तो स्वयं
अपनी ओर नहीं देख सकते। किताबें कोई सहायता नहीं कर सकतीं, क्योंकि
तुम स्वयं ही सत्य हो और वहां ऐसी कोई किताब नहीं जिसमें तुम्हारा जिक्र हो। तुम ही
स्वयं पुस्तक और शास्त्र हो। कोई दूसरी पुस्तक तुम्हारे सिवाय है ही नहीं। यहां तुम
हो, जो तुम हो वही तुम्हारी इस पुस्तक में लिखा हुआ है। तुम्हीं
को वह गूढ़ आशय समझना है। यदि तुम्हीं गलत हो तो वे सभी किताबें जिन्हें तुम साथ ढो
रहे हो, गलत होंगे और गलत संकेत करेंगे, क्योंकि कौन पड़ेगा, वह किताबें और कौन उन निर्देशों का
अनुसरण करेगा, जो नक्शे में दिए गए हैं?
मैंने
सुना है : एक व्यक्ति कार चला रहा था और उसकी पत्नी नक्शे देख रही थी। अचानक पत्नी
दहशत से चिल्लाकर बोली-’‘
हम लोग रास्ता भटक गए- क्योंकि यह नवा उल्टा रखा हुआ है। नक्शे का ऊपर
का भाग नीचे की ओर है। हम लोग जरूर उल्टे आ गए। ‘‘
नक्शे
को सीधा रखा जा सकता है,
कोई भी नवा अपने आप उल्टा नहीं होता अर्थात उसका ऊपर का भाग नीचे नहीं
रखा जाता। उसकी पत्नी को ही ऊपर से नीचे की ओर होना जरूरी था। यदि तुम्हीं उल्टे या
गलत हो तो जो किताब तुम पढ़ोगे वह उल्टी ही होगी। यदि -तुम परेशान या व्याकुल हो तो
उसका प्रभाव कुरान, बाइबिल या गीता पढ़ते समय अवश्य होगा,
यदि तुम पागल हो तो तुम्हारी वेद की व्याख्याएं भी पागलपन होंगी और यदि
तुम भयभीत हो तो तुम जहां भी जाओगे वहां तुम्हें भय ही मिलेगा। तुम जो कुछ भी करते
हो, तुम्हारा करना तुम्हीं से आता है, तुम्हारी
व्याख्या
भी तुमसे ही आएंगी अगर तुम गलत हो। इसलिए एक सद्गुरु की दिलचस्पी तुम्हें कोई भी सही किताब देने की नहीं होती। किसी सही या ठीक किताब का कोई अस्तित्व है ही नहीँ, केवल लोग ही सही और गलत होते हैं, सच्चे लोग और झूठे लोग। एक वास्तविक सद्गुरु को दिलचस्पी तुम्हें सही दिशा में रखने की होती है। एक सद्गुरु की दिलचस्पी तुम्हारे रूपान्तरण में होती है, व्यक्तिगत रूप से उसकी कोई दिलचस्पी तुम्हें किताब देने की होती ही नहीं।
भी तुमसे ही आएंगी अगर तुम गलत हो। इसलिए एक सद्गुरु की दिलचस्पी तुम्हें कोई भी सही किताब देने की नहीं होती। किसी सही या ठीक किताब का कोई अस्तित्व है ही नहीँ, केवल लोग ही सही और गलत होते हैं, सच्चे लोग और झूठे लोग। एक वास्तविक सद्गुरु को दिलचस्पी तुम्हें सही दिशा में रखने की होती है। एक सद्गुरु की दिलचस्पी तुम्हारे रूपान्तरण में होती है, व्यक्तिगत रूप से उसकी कोई दिलचस्पी तुम्हें किताब देने की होती ही नहीं।
इसी
वजह से शिष्य ने कहा-’‘
आप क्या कह रहे हैं? इतनी नासमझी की बात आपने पहले
कभी नहीं की। यह कहते हुए कि मैं इस किताब को सुरक्षित करलूं और यह एक कीमती किताब
है। मुझे लगता है कि आप पागल हो गए हैं। ''
कोई
भी किताब कीमती नहीं होती,
केवल व्यक्ति ही कीमती होता है, लेकिन जब तुम अपना
मूल्य स्वयं नहीं जानते, तुम सोचते हो कि किताब कीमती है। जब
तुम अपने अस्तित्व का कीमती महत्व नहीं जानते, तब प्रत्येक तरह
के सिद्धान्त मूल्यवान बन जाते हैं। शब्द तभी तक मूल्यवान हैं, जब तक तुमने अपने अस्तित्व के मूल्य को अभी तक जाना ही नहीं।
क्या
कोई बात और?
प्रश्न
: करे सदगुरू?
यह पुस्तक बहुत मूल्यवान होगी? जब यह
प्रकाशित
होकर आएगी क्योंकि यह लोगों को बता सकेगी कि अभी
वहां
एक बुद्ध उपलब्ध है और उसके पास हम लोगों के लिए और
समय
के अनुसार उचित विधियां हैं।
लेकिन
कई प्रश्नों में से एक प्रश्न जो यहां यह उठता है और निश्चित
रूप
से पश्चिमी मन में भी उठता है- मैं यह कैसे जाएं कि मुझे एक
सदगुरू
की आवश्यकता है?
हां!
यह पुस्तक बहुत कीमती होने जा रही है। इसे संभालकर रखना। यह मुझे सात पीढ़ियों के सद्गुरुओं
ने दी है और अब इसे मैं तुम्हें देने जा रहा हूं। अब यह तुम पर निर्भर है कि तुम अब
क्या करते हो?
मैंने इसमें अपनी भी समझ जोड़ दी है, लेकिन जहां
तक मेरा सम्बन्ध है, मैं इसे तुम्हें आग में फेंक देने के लिए
दे रहा हूं। जिस दिन तुम इसे आग में फेंक सकोगे, वही वह दिन होगा,
जब तुम उसे समझ जाओगे। यदि तुम फिर भी इसे संभालकर रखे ही रहते हो तो
तुम चूक गए।
लेकिन
पुस्तक की जरूरत है,
क्योंकि यदि यह नहीं होगी तो फिर तुम किसे आग में फेंकोगे इसकी जरूरत
है। इसे संभालकर रखना-यह बहुत कीमती है और जब तुम समझ जाओ। तो इसे आग में फेंक सकोगे।
इसलिए
मैं तुम्हें न सिर्फ कुरान को आग के सुपुर्द करने की बात कहता हूं मैं कहता हूं तुम
मेरी पुस्तकों को भी आग की भेंट कर दो क्योंकि वे कुरान, गीता और बाइबिल
से भी, जो एक अर्थ में अब समय से बाहर हो गई हैं, कहीं अधिक खतरनाक हैं। तुम मुहम्मद से तो बहुत-बहुत दूर हो, कृष्ण से तो इससे भी कहीं अधिक दूर हो गए हो। उनकी आवाजें बहुत-बहुत दूर की
मद्धिम और धीमी हो गई हैं। मेरी आवाज तुम्हारे निकट है। यह प्रत्यक्ष है और तुम अभी
भी इसे सुन रहे हो। यह भी तुम्हारे लिए एक बड़ी कारागार बन सकती है क्योंकि यह ठीक अभी
अधिक जीवन्त है। यह तुम्हें
पकड़ सकती है, यह तुम पर एक बोझ बन सकती है। यदि एक जीवित सदगुरु तुम्हें मुक्त कर सकता है तो एक जीवित सद्गुरु एक कारागार भी बन सकती है। यह तुम पर निर्भर करता है।
पकड़ सकती है, यह तुम पर एक बोझ बन सकती है। यदि एक जीवित सदगुरु तुम्हें मुक्त कर सकता है तो एक जीवित सद्गुरु एक कारागार भी बन सकती है। यह तुम पर निर्भर करता है।
पुस्तक
में वहां निर्देश है। यह एक नक्शा है, यह नक्श तुम्हें संसार की चेतना में
ले जाता है, यह नकश बताता है कि तुम कैसे अपनी जड़ें 'पृथ्वी में जमाओ। यह नक्शा बताता है कि तुम आकाश में उड़ने के लिए कैसे पंख
प्राप्त कर सको। लेकिन इन वृक्षों को इनकी कोई जरूरत नहीं। यदि मैं उनसे कहता हूं कि
तुम पृथ्वी में कैसे अपनी जड़ें जमाओ तो वै कहते हैं-हमें परेशान मत करो, हमारी जड़ें पहले ही से पृथ्वी में जमी हैं यदि मैं उनसे कहता हूं कि तुम आकाश
में उड़ने के लिए कैसे पंख प्राप्त करो तो वे कहते हैं-हमारे मौन को भंग मत करो,
हम तो हमेशा से ही आकाश में बांहें फैलाए मस्ती में ही झूम रहे हैं और
यदि मैं उनसे इस पुस्तक को संभालकर रखने के
लिए कहूं तो वे हंसेंगे और यदि वे आग खोज सके तो वे इस पुस्तक को आग में फेंक देंगे
लिए कहूं तो वे हंसेंगे और यदि वे आग खोज सके तो वे इस पुस्तक को आग में फेंक देंगे
इसलिए
मैं तुमसे सिर्फ यही कह रहा हूं पृथ्वी में अपनी जड़ें जमाओ और नक्शे को उठाकर फेंक
दो, उड़ने के लिए पंख उत्पन्न करो और नक्शे को फेंक दो। जो मैं तुमसे कहता हूं उससे
जड होकर न बैठ जाओ। जो मैं कहता हूँ उससे आवेशित मत हो जाओ। शब्दों को एक ओर उठाकर
रख दो और मेरी ओर देखो अगर जो मैं तुमसे आशा करता हूं वह यह है कि एक दिन यदि मैं कहूं-’‘
पुस्तक को संभाल कर रखना '' तुम चीखते हुए यह कहने
में समर्थ हो सको-’‘ आप क्या कह रहे हैं, कहीं पागल तो नहीं हो गए आप?'' तुम कह सकते हो कि उस
बिंदु पर पहुंचे बिना, जहां वह अर्थपूर्ण बन जाता है,
मैं कैसे कर सकता हूं यह लेकिन
तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते। तुम बिना अपनी आसक्ति को फेंके हुए पुस्तक को आग में फेंक
सकते हो। तब तुम नकल कर रहे हो। अनुकरण करने से काम नहीं चलने का। इस पृथ्वी पर कई
बुद्ध हुए हैं, बहुत से शिष्य भी हुए हैं, जो घट सकती थी वह हर चीज घट चुकी है यहां और हर चीज पुस्तकों में लिखी है।
तुम्हीं निर्णय ले सकते हो, और तुम ही अनुकरण कर सकते हो,
लेकिन अनुकरण करने कोई सहायता नहीं मिलेगी।
एक
बार ऐसा हुआ की एक व्यक्ति एक झेन सद्गुरु के पास आया। उसने सभी शास्त्र पढ रखे थे।
वे उसने जवानी याद किए थे और वह एक महान दार्शनिक बन गया था, क्योंकि वह
शब्दों और तर्कों का प्रयोग करने में सिद्धहस्त था। यह झेन सद्गुरु बस एक गांव का
रहने वाला ठीक उस भिखारी की तरह था, जो कहता था-’‘ मैं खोया हुआ नहीं हूं ' जिसके पास न नक्शे थे और न किताबें। उसने कभी बौद्धों के महान शास्त्र '
लोट्स-सूत्र ' को भी नहीं पड़ा था जिसे बौद्ध बहुत
कीमती समझकर संभालकर रखते हैं। ठीक जैसे कि सोने के. बिस्तर के सिरहाने कुछ पुस्तकें
रखी जाती हैं, उसी तरह लोट्स सूत्र हृदय के निकट रखने की पुस्तक
है, जिसका सम्बन्ध हृदय के साथ ही है। कंवल (लोट्स) हृदय का
ही प्रतीक है। पूरा तरह खिला कमल का फूल हृदय ही होता है और बौद्धों का ऐसा ख्याल है
कि लोट्स सूत्र के सामने और कोई भी शास्त्र जैसे कुछ है ही नहीं।
उक्त
व्यक्ति को पूरा लोट्स सूत्र कंठस्थ था। वह उसे कहीं से भी दोहरा सकता था। उससे कोई
भी प्रश्न पूछो,
वह तुरन्त उसका उत्तर देता था। वह एक कम्प्यूटर के समान था, बहुत कुशल और योग्य। इसलिए उसने झेन सद्गुरु से पूछा-’‘ क्या आपने लोट्स सूत्र पढ़ा है? ‘‘
झेन
सद्गुरु ने कहा-’‘
लोट्स सूत्र? मैंने कभी इसकी बाबत सुना तक नहीं।
‘‘ उस व्यक्ति, उस विद्वान और उस पंडित
ने कहा-’‘ कभी सुना भी नहीं? और लोग कहते
हैं कि आप बुद्धत्व को प्राप्त है। ‘‘
झेन
सद्गुरु ने कहा-’‘
लोग अवश्य ही गलत समझते हैं। मैं तो एक अज्ञानी व्यक्ति हूं मैं कैसे
बोध को प्राप्त हो सकता हूं? ‘‘
अब
उस विद्वान के लिए सब कुछ बहुत आसान हो गया। उसने कहा-’‘ अब मैं लोट्स
सूत्र को दोहराऊंगा। क्या आप उसे पड़ सकते हैं? ‘‘
सदगुरु
ने उत्तर दिया-’‘
मैं नहीं पड़ सकता हूं। ‘‘
इसलिए
उस व्यक्ति ने कहा-’‘
ठीक है, तब आप उसे मुझसे सुनिए। आप जो कुछ इस बाबत
पूछना चाहेंगे, मैं किसी भी चीज को स्पष्ट कर दूंगा। ‘‘
वह
व्यक्ति स्वयं एक सद्गुरु की खोज में आया था और अब वह स्वयं गुरु बन गया।
अहंकार
कभी भी शिष्य नहीं बनना चाहता, वह हमेशा सद्गुरु बनने की खोज में रहता है। इस
स्थिति पर वह बुद्ध अवश्य ही हंसे होंगे? सद्गुरु शिष्य बन गया
और शिष्य सद्गुरु। उसने कहा-’‘ सुनिए। ‘‘
सद्गुरु
ने उसे सुनना शुरू किया। ‘‘
फिर ठीक है ‘‘ कहते हुए उसने लोट्स सूत्र को दोहराना
शुरू कर दिया।
लोट्स
सूत्र में यह कहा गया है-’‘
प्रत्येक वस्तु शून्य है-यह विश्व भी एक शून्य है, स्वर्ग भी एक शून्य है, परमात्मा भी शून्य है और प्रत्येक
वस्तु शून्य है। सभी वस्तुओं का स्वभाव या प्रकृति ही शून्यता है। इसी शून्यता के प्रति
लयबद्ध हो जाओ और तुम उसे पा लोगे। ‘‘
अचानक
सद्गुरु उछला और उसने उस पंडित के सिर पर चोट की। वह विद्वान तो जैसे पागल हो गया।
उसने चीखना शुरू कर दिया और कहा-’‘ तुम बुद्धत्व को तो उपलब्ध हुए ही नहीं और तुम
अज्ञानी हो, मुझे तो तुम एक मानसिक रोगी दिखाई देते हो। तुम यह
कर क्या रहे हो? ‘‘
सद्गुरु
फिर अपने स्थान पर बैठ गया और उसने कहा-’‘ यदि प्रत्येक वस्तु एक शून्यता है,
फिर तुम्हारे अंदर यह क्रोध कहां से आ रहा है? पूरा संसार शून्य है, स्वर्ग शून्य है, नर्कशून्य है, और वस्तुओं का स्वभाव शून्यता है-फिर यह
क्रोध आया कहां से? ‘‘
वह
पंडित तो उलझन में पड़ गया। उसने कहा-’‘ यह लोट्स सूत्र में कहीं भी नहीं
लिखा है। तुम बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ रहे हो। इसका उत्तर लोट्स सूत्र में लिखा ही
नहीं है। मुझे पूरा लोट्स सूत्र जबानी याद है और यह प्रश्न पूछने का कोई तरीका नहीं
है, फिर मेरे सिर पर चोट करते हुए प्रश्न पूछने का यह कौन-सा
तरीका है? ‘‘लेकिन केवल यही वह तरीका है। सिद्धान्त कोई सहायता
नहीं करते। तुम कह सकते हो कि प्रत्येक वस्तु में एक शून्यता है, लेकिन ठीक एक छोटी-सी चोट से क्रोध, उस शून्यता से उत्पन्न
हो गया, एक स्त्री उधर से गुजरती है और शून्यता से ही कामवासना
उत्पन्न हो जाती है, तुम एक सुंदर भवन देखते हो और शून्यता से
ही उसे प्राप्त करने की कामना जाग उठती है। जब बुद्ध ने कहा-’‘ प्रत्येक वस्तु एक शून्यता ही है तो वे कह रहे हैं-यदि तुम इसे समझ सकते हो
तो फिर क्रोध आदि कुछ नहीं उठेगा, क्योंकि शून्यता से कोई भी
चीज कैसे उत्पन्न हो सकती है? शून्य होना एक ध्यान है,
लेकिन सिद्धान्त नहीं। यह तो अनन्त में गिरने जैसा है। तब न तो क्रोध
उत्पन्न हो सकता है और न कामवासना। ‘‘
यहां
दो तरह के व्यक्ति हैं,
पहले वे, जो सिद्धांतों की खोज में हैं- और कृपया
आप उस तरह के मत बनिए क्योंकि यह श्रेणी मूढ़ों की है। दूसरी तरह के लोग होते हैं-बुद्धिमान
या प्रज्ञावान, जो सिद्धान्तों की नहीं अनुभव की खोज में होते
हैं।
यह
पुस्तक और जो कुछ मैं कह रहा हूं तुम्हारे लिए एक सिद्धान्त बन सकते हैं और तब तुम
चूक जाओगे। यह एक प्यास,
एक भूख. और अनुभव करने की गहरी प्रवृत्ति भी बन सकते हैं, तब तुमने जरूरी बात पकड़ ली, लेकिन शब्दों के आदी मत बनो
अपने साथ खाली कनस्तर या खोल को साथ ढोते मत चलो, जो उसमें सार
तत्व है, उसे याद रखो।
जब
उस शिष्य ने किताब को आग में फेंकदिया तो वह खाली कनस्तर या खोल को फेंक रहा है। उसमें
भरा सार तत्व तो उसने अपने हृदय में संभालकर रखा है। सदगुरु-प्रसन्न था किइस व्यक्ति
ने सार समझ लिया,
खोल को तो फेंकना ही है, उसमें रखे सार को संभालकर
रखना है।
जो
कुछ मैं कहता हूं उसे आग में फेंक दो, लेकिन मेरी उपस्थिति में तुम्हें जो
कुछ भी घट रहा है, वही सार है। उसे संभालकर रखो, वही कीमती है, लेकिन उसे संभालकर रखने की भी कोई जरूरत
नहीं, यदि वह घटता है तो तुम उसे संभालकर रखोगे ही, यदि तुम जानते हो तो वह सुरक्षित है और तब उसे आग में फेंकने का कोई उपाय नहीं।
केवल किताबें हो आग में फेंकी जा सकती हैं, सत्य नहीं।
यही
वजह थी कि उस शिष्य ने चिल्लाकर कहा-’‘ आप क्या कह रहे हैं? ‘‘ क्या एक अमूल्य वस्तु आग में फेंकी जा सकती है? क्या
कीमती सार तत्व आग में जल सकता है? यदि तुम्हारी पुस्तक का सार
तत्व आग में जल सकता है, यदि आग तुम्हारी पुस्तक को जला सकती
है तो किस तरह से अमूल्य है वह? किस तरह का सत्य है यह?
यदि आग सत्य को जला सकती है तो वह संभालकर रखने के योग्य ही
नहीं।
नहीं।
वह
जो जलाया नहीं जा सकता,
वह जिसकी कभी कोई मृत्यु नहीं होती, जो आग में
जाकर भी अधिक जीवन्त और शुद्ध हो जाता है-वही सत्य है। इसी कारण मैंने कहा-बाइबिल को
आग में फेंक दो, इसलिए नहीं कि मैं बाइबिल के विरुद्ध हूं मैं
खोल या खोखे के विरुद्ध हूं। उसमें भरा सार तत्व नहीं फेंका जा सकता। खोल या खोखा है-लोट्स
सूत्र-उसका सार है तुम्हारा अपना कमल और वही तुम्हारा हृदय
क्या
कोई बात और...?
प्रश्न
: प्यारे सदगुरु?
बहुत से लोग यह कहते है कि वे अपने शरीर
के
कष्ट और दर्द के डर से ही वास्तव में अपने को ध्यान में नहीं ले जा
सकते
क्योंकि ध्यान करने समय जब वे दूसरे से टकरा जाते है? तो वे
गिर
पड़ते हैं। उनका ऐसा अनुभव करना ही वास्तव में उनके ध्यान न
करने
का बहाना अगर कारण बन जाता हैं। कृपया इस शारीरिक पहलू
के
बारे में हमें बताने की कृपा करें?
एक
बच्चा गिर सकता है,
लेकिन वह चोट का अनुभव नहीं करेगा। सड़क पर चलता हुआ एक शराबी गिर पड़ता
है लेकिन उसका शरीर सुरक्षित रहता है, उसकी हड्डियां नहीं टूटती।
होता क्या है? वास्तविक चीज यह नहीं है कि दूसरे ने तुम्हें टक्कर
मार दी, असली चीज है तुम्हारा प्रतिरोध। तुम डर रहे हो कि कहीं
दूसरा तुमसे टकरा. न जाए इसलिए तुम पूरे समय प्रतिरोध करते रहते हो।
कोई
तुम्हें टक्कर न मार दे,
तुम इसी दहशत से डरे रहते हो। भय तुम्हें बंद कर देता है। तुम हठपूर्वक
तन जाते हो और यदि कोई तुमसे टकराता है तो तुम्हारी तनी हुई जड़ता को ही चोट लगती है,
तुम्हें नहीं, लेकिन तुम अनुभव करते हो कि चोट
तुम्हें लगी है और तुम्हारा मन तब तुमसे कहता है-तुम बिलकुल ठीक थे, जो शुरू से ही डर रहे थे और सजग होना अच्छा है, जिससे
कोई तुम्हें टक्कर न मार दे। '
यह
मन एक दुष्चक्र है। यही तुम्हें एक विचार देता है और उस विचार के कारण ही कुछ चीजें
घटती हैं। जब वह विचार और मजबूत हो जाता है, तब तुम डर जाते हो और तब तुम निरन्तर
भय में ही रहते हो। फिर तुम कैसे ध्यान कर सकोगे?
जापान
में उन लोगों के पास कुश्ती लड़ना एक विज्ञान है, जिसे वे ओ या जुजित्सू कहते
हैं वह पूरा विज्ञान बहुत कुछ ध्यान जैसी चीज ही है। जूडो पहलवान सीखता है कि कैसे
प्रतिरोध न किया जाए। जब कोई तुम पर आक्रमण करता है, तुम प्रतिरोध
नहीं करते और तुम्हें उसकी ऊर्जा को अपने में सोखना या जज्ब करना होता है, जैसे मानो वह तुम्हें ऊर्जा दे रहा हो। उसकी ऊर्जा को अपने में जज्ब कर लो,
प्रतिरोध या बचाव मत करो। वह शत्रु नहीं है, वह
मित्र है जो तुम्हारे पास आ रहा है और जब वह अपने हाथ अथवा अपनी हथेली से तुम पर चोट
करे तो उसकी हथेली से काफी
ऊर्जा बाहर निकल जाती है। वह शीघ्र ही थक जाएगा। जो ऊर्जा उसकी हथेली से बाहर निकल रही है, उसे अपने में जज्ब कर लो। जब वह थक जाता है तो केवल उसकी ऊर्जा को सोखने के कारण ही तुम शक्ति शाली होने का अनुभव करोगे, इतने शक्तिशाली जितने तुम पहले कभी नहीं रहे, लेकिन यदि तुम प्रतिरोध करते हो, तुम सिकुड़कर तन जाते हो, जिससे तुम्हें चोट न लगे। तब उसकी ऊर्जा और तुम्हारी ऊर्जा एक दूसरे से टकराती है और उसी टकराने में दर्द उत्पन्न होता है। तुम ऐसे ही हो। ध्यान करते समय इस बात का स्मरण रहे, यदि कोई आकर तुमसे टकराता है तो उसकी ऊर्जा अपने में जज्ज कर लो। यहां तो ध्यानी व्यक्ति ही तुमसे टकरा रहा है इसलिए तुम बहुत भाग्यशाली हो। वह अपनी सुंदर ऊर्जा मुक्त कर रहा है और तुम तक ध्यान की ऊर्जा आ रही है, उसे अपने में सोख लो। उसे धन्यवाद दो और फिर उछलना शुरू कर दो। न प्रतिरोध करो और न अपने को हठपूर्वक जानो, क्योंकि अनजाने ही अपनी ऊर्जा में तुम्हें अपना सहभागी बना रहा है। उस ऊर्जा को प्राप्त करो, तब शीघ्र ही तुम्हें अपने में कुछ अलग गुणात्मकता का जो प्रतिरोध न करने की होगी, अनुभव होगा। तब पूरा शरीर और मन कुछ अलग तरह से व्यवहार करने लगेंगे। तुम एक नए रहस्य को जानोगे।
ऊर्जा बाहर निकल जाती है। वह शीघ्र ही थक जाएगा। जो ऊर्जा उसकी हथेली से बाहर निकल रही है, उसे अपने में जज्ब कर लो। जब वह थक जाता है तो केवल उसकी ऊर्जा को सोखने के कारण ही तुम शक्ति शाली होने का अनुभव करोगे, इतने शक्तिशाली जितने तुम पहले कभी नहीं रहे, लेकिन यदि तुम प्रतिरोध करते हो, तुम सिकुड़कर तन जाते हो, जिससे तुम्हें चोट न लगे। तब उसकी ऊर्जा और तुम्हारी ऊर्जा एक दूसरे से टकराती है और उसी टकराने में दर्द उत्पन्न होता है। तुम ऐसे ही हो। ध्यान करते समय इस बात का स्मरण रहे, यदि कोई आकर तुमसे टकराता है तो उसकी ऊर्जा अपने में जज्ज कर लो। यहां तो ध्यानी व्यक्ति ही तुमसे टकरा रहा है इसलिए तुम बहुत भाग्यशाली हो। वह अपनी सुंदर ऊर्जा मुक्त कर रहा है और तुम तक ध्यान की ऊर्जा आ रही है, उसे अपने में सोख लो। उसे धन्यवाद दो और फिर उछलना शुरू कर दो। न प्रतिरोध करो और न अपने को हठपूर्वक जानो, क्योंकि अनजाने ही अपनी ऊर्जा में तुम्हें अपना सहभागी बना रहा है। उस ऊर्जा को प्राप्त करो, तब शीघ्र ही तुम्हें अपने में कुछ अलग गुणात्मकता का जो प्रतिरोध न करने की होगी, अनुभव होगा। तब पूरा शरीर और मन कुछ अलग तरह से व्यवहार करने लगेंगे। तुम एक नए रहस्य को जानोगे।
अचानक
तुम भूमि पर गिर जाते हो,
पर ऐसे गिरो जैसे पृथ्वी तुम्हारी मां है। उसे संघर्ष न बनाकर विश्राम
बनाओ। नीचे भूमि पर गिरकर तने मत रहो। यदि तुम तने रहे, शरीर
को सख्त बनाए रहे तो तुम्हारी हड्डी भी टूट सकती हैं, क्योंकि
फ्रैक्चर तभी होगा, जब तुम सख्त बने तने हुए थे और तुम्हारे और
पृथ्वी के मध्य संघर्ष हो रहा था और वास्तव में पृथ्वी तुमसे कहीं अधिक विराट और विराट
और महान है इसलिए उससे संघर्ष करने में नुकसान तुम्हारा ही होगा। ठीक एक शराबी की तरह
भूमि पर गिर पड़ी। तुम उन्हें सड़क पर रोज गिरते हुए देखते हो लेकिन सुबह वे फिर पूरी
तरह ठीक होकर वापस लौट आते हैं। हर रात वे नीचे गिरते हैं और उनकी हड्डियां कभी नहीं
टूटती। ये शराबी एक खास रहस्य जानते। वे अपनी ओर से बिना किसी होश के गिरते हैं। वहां
कोई अहंकार नहीं होता। वे बस गिर पड़ते हैं। वहां पृथ्वी से संघर्ष करने वाला कोई होता
ही नहीं। पृथ्वी उन्हें अपने में सोख लेती है और वे पृथ्वी को अपने में जज्ब कर लेते
हैं।
एक
शराबी बनो, बिना किसी अहंकार के गिरो। गिरने का मजा लो और पृथ्वी से मित्रता और घनिष्टता
जोड़ो। शीघ्र ही तुम अपने पैरों में और अधिक ऊर्जा लेकर, जैसे
तुम्हारे पास पहले कभी न थी वापस लौटोगे और फिर तो तुम वह तरकीब पा लोगे जिससे कोई
व्यवधान आगे आएगा ही नहीं। तुम चोट इसीलिए खा जाते हो क्योंकि तुम लड़ रहे हो,
निरन्तर संघर्ष कर रहे हो। तुम चोट इसलिए खा जाते हो क्योंकि तुम निरन्तर
प्रतिरोध कर रहे हो। चेतन या अचेतन किसी भी रूप में तुम हमेशा पहले ही से प्रतिरोध
कर रहे हो। जब इतने अधिक लोग ध्यान कर रहे हैं तो तुम डर जाते हो और किसी से तुम चोट
खा बैठते हो-लेकिन यदि वहां पहले ही से भय है तो तुम ध्यान कैसे कर सकते हो?
वस्तुत:
भय में बने रहने की अपेक्षा प्रेम में बने रहो। ध्यान करने वाले इतने लोगों के साथ
इतनी दिव्य ऊर्जा विस्तृत हो रही है। यह तो एक उत्सवमय समारोह है, फिर भय कैसा?
इस चेतना के समूह का आनन्द लो। इतने सारे लोग नृत्य कर रहे हैं। अपने
अहंकार को शिथिल करके उसका एक भाग बन जाओ। इस सामूहिक शक्ति और ऊर्जा के साथ एक हो
जाओ। शुरू-शुरू में यह कठिन लगेगा क्योंकि बहुत से लोग प्रतिरोध के एक जमे-जमाये ढांचे
में जीने के अभ्यस्त हो गए हैं, लेकिन किसी दिन तुम सजग बनोगे,
किसी दिन एक अंतराल निर्मित होगा और तुम देख सकोगे। एक अनुभव ही काफी
होगा। यदि तुम किसी दिन अचानक पृथ्वी पर गिर पड़ो और तुम्हें कोई चोट न लगे तो तुम्हें
बहुत सुंदर और सुखद लगेगा, फिर तुम उस रहस्य को जान लोगे,
फिर तुमने वह कुंजी पा ली जिससे आगे गलती न हो, अब यह कुंजी कई तालों और रहस्यों के द्वार खोल देगी। यह मास्टर चाभी है।
जब
भी कोई तुमसे संघर्ष करने या लड़ने के लिए आगे बड़े, उसे अपने में जज्ब करो,
जब कोई तुम्हारा अपमान करे, उसकी ऊर्जा को सोखे
और तुम देखोगे वही अपमान एक फूल बन जाता है। वह ऊर्जा निसृत करता है। जब कोई तुम्हारा
अपमान करता है, वह अपनी ऊर्जा बाहर फेंक रहा है। वह बेवकूफ है,
मूर्ख है इसलिए तुम धन्यवाद दो उसे और वापस चले जाओ। फिर देखो क्या होता
है? जब कोई लड़ने के लिए पहले ही से तैयार है, उसे चोट करने की अनुमति दो। ऐसे बन जाओ जैसे तुम वहां हो ही नहीं और वह एक
शून्यता से लड़ रहा है। प्रतिरोध मत करो, उसे अनुमति
दो, एक बार तुम यह जान गए हो फिर किसी और रास्ते की जरूरत ही नहीं।
दो, एक बार तुम यह जान गए हो फिर किसी और रास्ते की जरूरत ही नहीं।
केवल
मुझे सुनने से ही कुछ नहीं होगा। यह तो एक कला है, यह कोई विज्ञान नहीं है। विज्ञान
की व्याख्या कर उसे स्पष्ट किया जा सकता है, लेकिन कला का तो
अनुभव किया जाता है। यह ठीक तैरने जैसा है। यदि तुम न तैरने वाले से कहो-इसमें कुछ
है ही नहीं, तुम बस कूद पड़ो पानी में और अपने हाथ चारों ओर चलाना
शुरू कर दो तो वह कहेगा-' तुम कह क्या रहे हो, यह तो आत्महत्या करने जैसा होगा। ' तुम बिना तैरने वाले
को कैसे स्पष्ट करोगे कि तैरना बहुत सुन्दर है। वह सबसे अधिक खूबसूरत अनुभव है जो शरीर
तुम्हें दे सकता है। यह ऐसा प्रवाहमय अनुभव है जिससे नदी के साथ एक होने की अनुभूति
होती है। पूरा शरीर, उसका पोर-पोर, हर कोष,
जीवन्त हो उठता है। जल ही जीवन है क्योंकि सभी जीवन, जल से उद्भूत हुआ है। जल ही महत्वपूर्ण भाग है। तुम्हारे शरीर में पचासी प्रतिशत
जल ही है, इसलिए तुम्हारा पचासी प्रतिशत जल और तरल पदार्थ,
एक बड़ी सरिता या सागर के साथ मिल रहा है। तुम मूल स्रोत के सार के महत्वपूर्ण
भाग से मिल रहे हो।
लेकिन
जो तैरना नहीं जानता,
उसे तुम यह स्पष्ट नहीं कर सकते। तुम्हें उसे धीरे- धीरे एक-एक कदम आगे
ले जाना होगा-शुरू में उथले पानी में, जिससे उसमें आत्मविश्वास
आए फिर धीरे- धीरे गहरे पानी में। शुरूमें उसे बुरा लगेगा, वह डरेगा,
वह नदी से लड़ेगा, डरेगा कि नदी कहीं उसे डुबो न
दे? उसे नदी अपनी विरोधी लगेगी, लेकिन शीघ्र
ही उसे अनुभव होगा कि नदी विरोध में नहीं है और वह भी उसके तैरने का मजा ले रही है
और उसे प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि उसका ही एक भाग वापस आकर उससे मिल रहा है।
नदी के लिए यह उत्सव मनाने की घड़ी है। वह नदी जिसमें कोई नहीं तैरता उदास लगती है,
लेकिन जहां बहुत से लोग तैरते, नाचते आनन्दित होते
हैं, नदी भी प्रसन्न होती है। शीघ्र ही तुम्हें लगेगा कि नदी
तुम्हारी सहायता कर रही है और तुम उससे अनावश्यक रूप से ही संघर्ष कर रहे थे। धीरे-
धीरे तुम अपनी गतिविधियां और सक्रियता छोड़ते जाओगे। जब कोई तैराक पूर्ण कुशल हो जाता
है, वह बस नदी में बहता है। कुछ करने की उसे जरूरत होती ही नहीं।
नदी ही सब कुछ करती है और तैराक सिर्फ नदी में बहता रहता है।
योग
की पुरानी विधियों में एक विशेष ध्यान है-बस नदी के साथ बहते हुए उसके साथ एक हो जाने
का अनुभव करना,
लेकिन कोई गतिविधि या क्रिया करना ही नहीं है, न शरीर को हिलाना है, नदी को ही काम करने दो। यदि नदी
सब कुछ कर ही रही है, तुम बस कुछ भी न करते हुए उसके साथ बहो।
तुम्हें पूरे अस्तित्व के एक होने की अनुभूति होगी। इसी तरह से पूरा अस्तित्व प्रवाहित
हो रहा है।
तुम
अनावश्यक रूप से संघर्ष कर रहे हो। ध्यान में तुम चेतना की सरिता में प्रवेश कर रहे
हो। तुम्हारे चारों ओर बहुत से लोग एक तीव्र ऊर्जा का सोता निर्मित कर रहे हैं। एक
तैराक की तरह उसमें प्रविष्ट हो जाओ, बिना कोई संघर्ष किए। बस बहते जाओ और
देखो-क्या होता है? यही वह कला है।
मैं
उसे बता नहीं सकता,
मैं बस संकेत कर सकता हूं और तुम्हें उसका अनुभव करना है। तुम्हें तब
तक प्रतीक्षा करनी है, जब तक तुम्हें अनुभव घट न जाए। एक क्षण
का भी यह अनुभव कि कोई तुम्हारे विरोध में नहीं है, कोई भी तुम्हें
नुकसान पहुंचाने नहीं जा रहा और पूरा अस्तित्व तुम्हारा ही घर है, तुम्हें हर चोट से सुरक्षित कर देना। मैं तुमसे कहता हूं कि यदि तुम्हारी हड्डी
भी चटक या टूट जाए उसमें दर्द नहीं होगा, उससे कोई बड़ी हानि नहीं
होगी। यदि तुम नीचे गिर पड़ते हो और मान लो, यदि मर भी जाते हो
फिर भी तुम्हें कोई पीड़ा नहीं होगी। यदि तुम नीचे भूमि पर गिरकर मां पूर्वी में वापस
चले जाओगे तो कोई भी पीड़ा नहीं होगी, पृथ्वी तुम्हें अवशोषित
कर लेगी।
और
कौन जानता है,
ध्यान में केवल किसी से टकराना ही तुम्हारे लिए बुद्धत्व की पहली झलक
बन जाए क्योंकि वह एक धक्का या आघात है जिससे अकस्मात चेतना का प्रवाह तुमसे टकराता
है। कौन जानता है कि तुम्हारा बस पृथ्वी पर गिर पड़ना, एक हड्डी
का टूट जाना ही तुम्हारी पहली सटोरी बन जाए तुम्हारी पहला बुद्धत्व बन जाए। कोई भी
नहीं जानता, यह जीवन बहुत रहस्यमय है। बुद्धत्व कितने अलग- अलग
तरीकों से घटता है, इसे कोई नहीं जानता।
इसे
बहुत प्रेम से करो। यहां घर जैसा ही महसूस करो और चीजों को घटने की अनुमति दो। यदि
कोई तुमसे टकराता है तो उसे टकराने दो और उसे अपने से होकर जाने दो। बीच में दीवार
मत बनो, न उसके रास्ते में आओ। उसे गुजर जाने दो।
पोरस
बनो, ऐसे छिद्रयुक्त स्पंज की तरह जिसमें ऊर्जा अवशोषित हो जाए।
आज
के लिए इतना बहुत है।
Nice website for internet users
जवाब देंहटाएंOnline Hindi Typing Tutor and Typing Test best practice-
English Typing Tutor
Hindi Typing Tutor
Typing Test
Hindi Typing Test
English Typing Test
Shorthand Dictation
Online Hindi Typing Test
Hindi Krutidev Typing Tutor
10 fast fingers typing game in Hindi
Paragraph Typing Test