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शनिवार, 18 जुलाई 2020

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-07

हैं साधारण होने का चमत्कार-प्रवचन-सातवां

मनुष्य होने की कला--(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)
कथा:
जापानी सदगुरु इकीदो एक कठोर शिक्षक थे और उनके शिष्य
उससे डरते थे एक दिन उनका एक शिष्य दिन का समय बताने के
लिए मठ का घंटा बजा रहा था। समय के अनुसार वह घंटे पर एक
चोट करना भूल गया क्या? क्योंकि वह द्वार से गुजरती हुई एक सुंदर लड़की
को देख हाथ' उस शिष्य की जानकारी में आए बिना इकीदो उसके
पीछे ही खड़ा था। इकीदो ने अपने डंडे से उस शिष्य पर प्रहार किया
इस आघात से उस शिष्य की हृदयगति रुक गई और वह मर गया
पुरानी परंपरा के अनुसार शिष्य अपना जीवन सदगुरू के नाम लिखकर
अपने हस्ताक्षर करके दे देने के लेकिन अब यह परंपरा समाप्त होते
हुए औपचारिकता रह गई है, सामान्य लोगों के द्वारा इकीदो की निंदा
की गई लेकिन इस घटना के बाद इकीदो के दस निकट शिष्य बुद्धत्व
को उपलब्ध हुए जो इकीदो के उत्तराधिकारी बने एक सदगुरू के
निकट बोध को प्राप्त होने वालों की यह संख्या असाधारण रूप से
काफी अधिक थी।


तरह की घटना झेन और झेन सद्‌गुरुओं के लिए एक विशिष्ट घटना केवल एक झेन सदगुरु ही अपने शिष्यों को पीटता है और कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि उसके पीटने से शिष्य की मृत्यु हो जाए। सामान्यत: यह कृत्य बहुत कूर, हिंसक और पागलपन से भरा दिखाई देता है। धार्मिक लोग कभी कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक सद्‌गुरु कैसे इतना बेरहम हो सकता है जो अपने शिष्य को जान से मार दिया, लेकिन जो लोग उन्हें जानते हैं, उनका अनुभव अलग है।
एक व्यक्ति जो बोध को प्राप्त हो गया है, भली भांति जानता है कि कोई भी व्यक्ति मरता ही नहीं। अंदर आत्मा शाश्वत है, जो आगे यात्रा पर निकल जाती है। वह शरीर बदल सकती है, लेकिन यह परिवर्तन केवल घरों का होता है। यह परिवर्तन केवल वस्त्रों का होता है, और यह परिवर्तन केवल वाहनों का होता है। यात्री निरंतर चलता ही चला जाता है और कुछ भी नहीं मरता।
मृत्यु का क्षण, बुद्धत्व को उपलब्ध होने का क्षण भी हो सकता है। दोनों ही समान हैं। जब कोई भी बुद्धत्व को प्राप्त होता है, वह साधारणमृत्यु की अपेक्षा, गहराई में एक तरह की मृत्यु ही होती है। जब कोई भी बुद्धत्व को प्राप्त होता है, वह भली- भांति जान लेता है कि वह शरीर नहीं है। उसकी आसक्ति, उसकी पहचान सब कुछ खो जाती. है। पहली बार वह उस अनन्त अंतराल को देख सकता है, जिस पर कोई सेतु बनाया ही नहीं जा सकता। वह यहां होता है, शरीर वहां होता है और वहां उनके बीच एक अनंत खाई होती है। वह ( चेतना) कभी शरीर नहीं रहा और शरीर कभी वह नहीं रहा। साधारण मृत्यु से यह मृत्यु कहीं अधिकगहरी है, जब तुम मरते हो तो सामान्यत: तब भी तुम्हारा शरीर के साथ तादात्म्य बना रहता है।
यह मृत्यु कहीं अधिक गहरी है। न केवल तुम्हारा शरीर के साथ कोई तादात्म्य नहीं रहता, तुम्हारी मन और अहंकार के साथ पहचान भी समाप्त हो जाती है। तुम बस एक शून्यता रह जाते हो, एक आतरिक सीमाहीन विराट शून्य की भांति न तुम शरीर होते हो और न मन।
साधारण मृत्यु में केवल शरीर मरता है, मन एक छाया के समान तुम्हारा अनुसरण किए जाता है। मन ही समस्या है, शरीर नहीं। मन के द्वारा ही तुम शरीर के साथ एक हो जाते हो और जब तक मन विलुप्त नहीं हो जाता, तुम नए-नए शरीरों और नए-नए वाहनों को बदलते जाओगे। जब तुम बुद्धत्व को प्राप्त होते हो, अचानक न तो तुम शरीर रह जाते हो और न मन। केवल तभी तुम यह जान पाते हो कि तुम कौन हो। शरीर एक बीज है, मन भी एक बीज है और जो इन दोनों के पार छिपा है, तुम वही हो।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक झेन सद्‌गुरु तुम्हारी मृत्यु के क्षण को तुम्हारे बुद्धत्व की घटना केसाथ जोड़ सकता है और दोनों घटनाएं एकसाथ घट जाती हैं। बिस्कूल ठीक उसी क्षण वह तुम पर चोट कर सकता है तुम्हारा शरीर नीचे भूमि पर गिर पड़ता है-प्रत्येक देख सकता है उसे-लेकिन गहराई में तुम्हारा अहंकार भी विसर्जित हो जाता है जिसे केवल तुम और सद्‌गुरु ही जानता है। यह कूरता नहीं है, यह करुणा की पराकाष्ठा है और ऐसा केवल एक महान सद्‌गुरु ही कर सकता है। तुम्हारी मृत्यु के क्षण का अनुभव करना बहुत सूक्ष्म है और उसी को अंतर्रूपांतरण और रूप से अरूप बनाना एक सद्‌गुरु का ही काम है।
जरा इस कहानी की ओर देखो और सोचो-कहानी से यह कैसे लगता है कि एक सद्‌गुरु ने अपने एक शिष्य को मार डाला। यह बात है ही नहीं। शिरू तो किसी तरह मरने ही जा रहा था, वह क्षण उसकी मृत्यु का था। सद्‌गुरु इसे जानते थे, उन्होंने केवल उसकी मृत्यु के क्षण का उसके बुद्धत्व के लिए प्रयोग किया, लेकिन यह अंतर्जगत का रहस्य है। यह कुछ चीज अत्यंत अबूझ और गूढ़ हैं, और मैं इसके द्वारा इकीदो का कोर्ट कचहरी में कोई बचाव नहीं कर सकता। कोर्ट कहेगा, उसने हत्या की है। किसी भी तरह से वहां यह सिद्ध करने का कोई रास्ता नहीं है कि शिष्य उस क्षण मरने जा रहा था।
आखिर मृत्यु का उपयोग क्यों नहीं किया जा सकता? अज्ञानी मनुष्य तो जीवन का भी उपयोग नहीं कर सकता, जबकि बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति मृत्यु का भी उपयोग कर सकता है। एक सद्‌गुरु को ऐसा होना ही चाहिए जो शिष्य के बुद्धत्व के लिए प्रत्येक चीज का उपयोग कर सके।
इकीदो ठीक शिष्य के पीछे ही खड़ा हुआ था; शिष्य मठ के घंटे पर चोट कर रहा था और सद्‌गुरु उसका निरीक्षण कर रहा था। यदि यह शिष्य होशपूर्वक मर सके तो मृत्यु इसके जीवन चक्र के चरम विकास और परिवर्तन का बिंदु बन जाएगा। यदि यह होश पूर्वक मर सके, यदि तुम भूमि पर गिरकर भी होशपूर्ण बना रह सके, यदि शरीर गिर भी जाए पर गहने में वह केंद्र पर बना रह सके, सजग और सचेत तब उसकी यह अंतिम मृत्यु होगी, यदि तम पूरे होश के साथ मर सको तो जीवन चक्र रुक जाता है। तुम नए शरीर में तभी प्रवेश कर सकते हो, यदि तुम मरते समय बेहोश और मूर्च्छित रहो। जब कोई व्यक्ति पूरे होश में मरता है तो उसके लिए यह संसार रहता ही नहीं और न फिर उसका जन्म होता है।
यही वजह है कि हम कहते हैं कि एक बुद्ध कभी दुबारा इस संसार में नहीं आता। एक बुद्ध बस केवल शून्य में खो जाता है। तुम फिर शरीर में, उससे मिलने में समर्थ न हो सकोगे। तुम उसके अशरीर अस्तित्व से मिल सकते हो। तब वह हर जगह होता है, लेकिन शरीर में ही नहीं होता। तुम एकबुद्ध से किसी भी स्थान पर नहीं मिल सकते क्योंकि केवल शरीर ही किसी स्थान पर रहता है। जब शरीर नष्ट हो जाता है तो एक बुद्ध हर कहीं या कहीं भी नहीं रहता है। तुम उससे यहां मिल सकते हो, तुम उससे वहां मिल सकते हो, तुम उससे कहीं भी मिल सकते हो, लेकिन कहीं भी उससे उसके
शरीर में न मिल सकोगे।
शरीर ही स्थान विशेष में रहता है और जब शरीर विसर्जित हो जाता है तो आत्मा या चेतना सर्वत्र व्याप्त हो जाती है। तुम बुद्ध से किसी भी स्थान में हर कहीं भी मिल सकते हो, तुम जहां भी जाओगे, तुम उससे मिल सकते हो।
शरीर वहां है, क्योंकि मन शरीर के द्वारा ही इच्छाओं की खोज में निकलता है। बिना शरीर के कामनाएं पूरी हो ही नहीं सकतीं। तुम बिना शरीर के पूरी तरह संतुष्ट हो सकते हो, लेकिन बिना शरीर कामनाएं पूरी नहीं हो सकतीं। कामना को शरीर की जरूरत होती है, शरीर ही कामनाओं का वाहन है। यही कारण है कि कामनाएं तुम्हें अपने अधिकार में ले लेती हैं। तुमने सुनी भी होगा, ऐसी कई कहानियां, भूतों-प्रेतों के बारे में कि उन्होंने किसी व्यक्ति को अपने अधिकार में ले लिया। किसी के भी शरीर को अपने अधिकार में लेने की एक प्रेत की दिलचस्पी क्यों होती है? ऐसा होता है- कामनाओं के कारण। बिना शरीर के कामनाएं पूरी नहीं हो सकतीं, इसलिए उन कामनाओं को पूरा करने के लिए ही वह किसी के शरीर में प्रवेश कर जाता है।
ठीक ऐसी ही स्थिति तब भी होती है जब तुम नया शरीर प्राप्त करने और अपनी कामनाओं को पूरा करने की यात्रा प्रारंभ करने के लिए गर्भ में प्रवेश करते हो, लेकिन यदि तुम सजग होकर मरो तो उस सजगता में न केवल शरीर मरता है, सभी कामनाएं भी जैसे भाप बनकर उड़ जाती हैं। तब गर्भ में प्रवेश नहीं करना होता है। गर्भ में प्रविष्ट होना अत्यंत पीड़ाजनक विधि है, यह इतनी अधिक दर्द से भरी प्रक्रिया है कि तुम होशपूर्वक इसे नहीं कर सकते, केवल बेहोशी में ही कर सकते हो।
अंग्रेजी का शब्द (Anxiety) व्यग्रता, लेटिन मूल से आता है जिसका अर्थ है संकुचित होते जाना और प्रारंभ में इस शब्द का प्रयोग गर्भ में आत्मा के प्रवेश के लिए किया जाता था। इसलिए व्यग्रता का अनु भव तब होता है जब आत्मा गर्भ में प्रविष्ट होती है क्योंकि हर चीज संकुचित हो जाती है। एक अनन्त आत्मा सूक्ष्म शरीर धारण कर लेती है। यह सबसे अधिक पीड़ा युक्त विधि है। पूरे आकाश को बलपूर्वक एक बीज में प्रविष्ट होने के लिए विवश किया जाता है। तुम इसे नहीं जानते क्योंकि यह इतनी अधिक पीड़ायुक्त है कि उस समय तुम पूरी तरह बेहोश जाते हो।
वहां दो विधियां ही सबसे अधिक पीड़ायुक्त हैं। तुमने बुद्ध के इस वचन के बारे में जरूर सुना होगा, ‘‘ जन्म दुख है मृत्यु दुख है। '' यही सबसे बड़े दुख है जितनी बड़ी-से-बड़ी वेदना होना संभव है, उतने ही जब असीमित गर्भ में सीमित होकर प्रविष्ट होता है। यह पीड़ाजनक होता ही है, यही व्यग्रता या Anxiety है और जब अनन्त शरीर से बाहर निकलता है, फिर वही पीड़ा और वेदना होती है।
इसलिए जब कभी कोई भी होशपूर्वक मरता है, वह शून्य में खो जाता है तब वहां शरीर में फिर से प्रवेश नहीं करना होता है। तब वहां कोई व्यग्रता या Anxiety! नहीं होती, क्योंकि तब पूरी करने के लिए कोई कामना होती ही नहीं। तुम असीमित ही बने रह सकते हो, फिर वहां किसी वाहन में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि अब तुम्हें कहीं भी जाना नहीं है।
वह शिष्य जो मठ के घंटे पर चोट कर रहा था, अवश्य ही उसकी मृत्यु निकट होगी और इसी कारण सद्‌गुरु उसके पीछे खड़ा हुआ था। वह शिष्य किसी भी क्षण मरने ही जा रहा था। यह बात कहानी में नहीं कहीं गई है। इसे कहा भी नहीं जा सकता, लेकिन चीजें इसी तरह से घटती हैं अन्यथा सद्‌गुरु को शिष्य के पीछे खड़े होने की आवश्यकता ही नहीं थी, विशेष रूप से तब जब वह घंटा बजा रहा था। सद्‌गुरु के करने के लिए वहां बहुत से अन्य आवश्यक काम भी होते हैं। घंटे पर समय बताने के लिए चोट करना केवल एक मामूली-सी बात है और यह प्रतिदिन का रुटीन कार्य है। उस समय सद्‌गुरु क्यों उसके पीछे खड़ा हुआ था?
यह इकीदो बड़ा अजीब व्यक्ति दिखाई देता है। क्या उस समय उसके करने के लिए कोई अन्य महत्वपूर्ण कार्य नहीं था? उस क्षण वहां इससे अधिक महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं था क्योंकि यह शिष्य किसी भी तरह से शीघ्र मरने जा रहा था और उसकी मृत्यु का उपयोग किया जाना था। केवल एक सद्‌गुरु ही मृत्यु का प्रयोग कर सकता है-केवल करुणा वश। वह उसे देखता हुआ यह प्रतीक्षा कर रहा था कि वह मृत्यु के क्षण सजग रहता है अथवा नहीं। वह चूक ही गया था।
यह कहानी बहुत सुंदर और महत्वपूर्ण है। उसने एक सुंदर लड़की को उधर से गुजरते हुए देखा और उसका पूरा होश जाता रहा। वह एक कामना बन गया, उसका पूरा अस्तित्व एक कामना बन गया। उसने उस लड़की को पाने के लिए उसका पीछा करना चाहा और जब वहां कोई कामना होती है तो होश खो जाता है क्योंकि दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते। कामना रहती है मूर्च्छा के साथ, वह चेतना के साथ नहीं रह सकती। जब तुम कामना की ओर गति करते हो, चेतना खो जाती है इसलिए सभी बुद्धों और जिनों का आग्रह कामना मुक्त होने पर है। जब तुम कामनामुक्त होते हो, तुम
सचेत होते हो और जब तुम सचेत होते हो तुम कामना शून्य होते हो। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ कामना शून्यता है तो दूसरी ओर सजगता और चेतना
यह कहानी बहुत महत्वपूर्ण है। उधर से गुजरती एक सुंदर लड़की को देखकर वह शिष्य स्वयं को भूल गया। उस समय वह वहां रहा ही नहीं। वह एक कामना ही बन गया। उसे जैसे झपकी लग गई, वह स्वप्न देखने लगा, उसने लड़की का पीछा करना शुरू कर दिया है.. .वह मूर्च्छित ही हो गया जैसे।
मृत्यु और जीवन के मध्य का बिंदु कामवासना ही है। जन्म और मृत्यु के मध्य कामवासना है। वास्तव में जन्म और मृत्यु के मध्य सेक्स के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह सेक्स का ही विस्तार है। तुम सेक्स क्रिया के द्वारा ही गर्भ में आए हो और जिस क्षण भी तुम कल्पना करते हो या सोचते हो, तुम्हारी कामवासना के सुख की यात्रा शुरू हो जाती है। जिस क्षण तुम मरते हो, यह यात्रा तब भी जारी रहती है और सेक्स इतना अधिक शक्तिशाली है कि यदि मृत्यु भी सामने खड़ी हो, तुम उसे भूल जाओगे। जब कामवासना तुम्हें अपने पंजे में जकड़ लेती है, तब तुम हर चीज भूल जाते हो, तुम पूरी तरह पागल हो जाते हो।
उस लड़की की आकृति को उसके मन ने पकड़ लिया, वह वहां तब रहा ही नहीं। एक क्षण पहले ही वह सजग था, अब वह जरा भी सजग नहीं था।
तुमने भारत में ऋषियों, और खोजियों द्वारा कठोर तप करते हुए पहाड़ों और जंगलों की कंदराओं में ध्यान करने की कहानियां अवश्य सुनी होंगी। ऐसा हमेशा होता था कि वे जब भी चेतना के चरम बिंदु पर पहुंचने को होते थे अचानक कामवासना उन्हें घेर लेती थी और तुरंत स्वर्ग की सुंदर स्त्रियां और अप्सराएं उतर आती थीं जैसे मानो वे बस प्रतीक्षा ही कर ही होती थीं कि कोई चेतना के चरम बिंदु पर पहुंचे, जैसे मानो उनके चेतना के बिंदु पर पहुंचने के विरुद्ध उन्होंने कोई सूक्ष्म साजिश कर रखी थी। जंगल की गहराई में छिपी कंदरा में जब कोई थोड़ा-सा भी होशपूर्ण होता था तो अचानक स्वर्ग की सुंदर नवयौवनाएं प्रकट हो जाती थीं-वह भी इस पृथ्वी की नहीं, परिपूर्ण, तुम उनसे अधिक पूर्ण सौंदर्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। उनके शरीर ऐसे होते थे मानो वह पारदर्शी और स्वर्णिम आभा से आलोकित हो रही हों। तभी अचानक होश खो जाता था और ऋषि कामनायुक्त साधारण मनुष्य बन जाते थे। उनका पतन हो जाता था।
कहां से आती थीं अप्सराएं? क्या वास्तव में वे स्वर्ग से आती थीं? क्या होश के विरुद्ध उनकी कोई साजिश थी नहीं, वे खोजी साधक के मन से ही प्रकट होती थीं। जब मन यह देखता है कि वह सब कुछ खोने जा रहा है, वह आखिरी शस्त्र के रूप में सेक्स का प्रयोग करता है। जब मन देखता है कि चेतना एकीकृत और घनीभूत होकर केन्द्रित हो रही है तब उसके आगे उसकी कोई पूछ नहीं होगी और उसे विसर्जित होना ही होगा, तब वह आखिरी संघर्ष करता है। अचानक मन कामवासना और उसकी कामना उत्पन्न और प्रक्षेपित करता है।
मैं तुमसे कहता हूं हो सकता है कि उधर से कोई सुंदर लड़की गुजर ही न रही हो। वह ठीक उसकी मृत्यु का क्षण था और यह शिष्य सजग था, इसलिए उसके मन ने आखिरी चाल चली हो। यह उसका आखिरी प्रयास था, यदि वह शिष्य जीत जाता तो उसने मन पर विजय प्राप्त कर ली होती। मन पहले दूसरी चालें चलेगा और हमेशा सेक्स को अंतिम आश्रय के रूप में सुरक्षित रखेगा। यदि सेक्स भी काम नहीं करता, तब कुछ भी काम नहीं कर सकता। मन आधारभूत रूप से कामवासना पर ही आश्रित होता है।
जरा अपने मन को देखो, तुम उसमें नब्बे प्रतिशत सेक्स ही पाओगे, सेक्स के बारे में विचार चलरहे हैं। सेक्स के बारे में स्वप्न आ रहे हैं। अतीत को याद करता हुआ वह उसे ही भविष्य में प्रक्षेपित कर रहा है और जब कभी तुम यह अनुभव भी करो कि मन सेक्स के बारे में नहीं सोच रहा है, तब उस पर जरा विचार करते हुए ध्यान करना, वह सेक्स के कारण ही दूसरी चीजों की कामना करता है। हो सकता है कि तुम धनी बनने के बारे में सोच रहे हो-तुम धन पाकर उसका करोगे क्या? अपने मन से जरा पूछना तो मन कहेगा-तब तुम शरीर का सुख ले सकोगे, तब तुम जितनी ही सुंदर स्त्री होना संभव है, उसे पा सकोगे।
मन सोच सकता है, ' नेपोलियन बनो, हिटलर बनो। ' लेकिन पूछना मन से, शक्ति पाकर तुम करोगे क्या? अचानक तुम पाओगे-सेक्स और उसकी कामना कहीं गहराई में छिपी हुई है।
हो सकता है-उधर से कोई लड़की न गुजर रही हो अथवा यदि लड़की गुजर भी रही थी तो हो सकता है वह उतनी सुंदर न हो जितनी उसे दिखाई दे रही थी  पहले स्थान पर तो मेरा यही ख्याल है कि वहां कोई लड़की थी ही नहीं-ठीक उसकी मृत्यु का वह क्षण था और थी उस व्यक्ति की सजगता। वह घंटे पर पूर्ण रूप से सजग होकर चोट कर रहा था। यह झेन मठों में ध्यान का ही एक भाग है: तुम जो कुछ भी करो, होशपूर्वक करो। जब तुम चलो तो पूरी तरह सजग होकर चलो, जब तुम सिर हिलाओ तो पूर्ण सजग बने रहो। तुम जो कुछ भी करो। पूरी सजगता से उसका पालन करो, उसे चूको मत। किसी और चीज के बारे में सोचो ही मत। एक प्रकाश की तरह उसमें ही बने रही, हर चीज प्रकट हो जाती है। प्रत्येक कार्य, प्रत्येक निर्जन स्थान और कोना- कोना बोध के प्रकाश से आलोकित हो उठता है, कुछ भी अंधेरे में रहता ही नहीं। जब भी तुम भोजन करो, होशपूर्वक खाओ। यह ही सब कुछ एक झेन मठ में करना होता है-चौबीसों घंटे निरंतर सजग बने रहो।
यह शिष्य अवश्य ही पूरी सजगता से घंटे पर चोट कर रहा होगा। घंटे पर चोट प्रत्येक को सजग बनाने के लिए ही की जाती है, वह भी जरूर सजग रहा होगा। घंटे की ध्वनि मठ में गूंज रही थी कि तभी वह लड़की प्रकट हुई-वह वहां कहां से आई? पहली बात तो यह कि मेरे ख्याल में वहां कोई लड़की थी ही नहीं, वह उसके ही मन का प्रक्षेपण था। दूसरी बात यह कि यदि वहां कोई लड़की थी भी तो वह उतनी सुंदर न थी। जितना उसका मन सोच रहा था, वह उसके मन ही प्रक्षेपण था।
ऐसा ही सब कुछ प्रत्येक के साथ होता है। जब पहली बार तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो तो लड़की इस संसार की न लगकर कहीं और से आई हुई लगती है। वह स्वर्ग से उतरी कोई सुंदरी या अप्सरा जैसी लगती है, लेकिन धीरे- धीरे तुम जितना अधिक उससे परिचित होते जाते हो, वही लड़की अधिक-से-अधिक इसी धरती की साधारण और घरेलू बन जाती है। अचानक तुम पाते हो वहां कुछ भी तो नहीं है, यह तो बस एक साधारण लड़की है और तब तुम सोचते हो कि तुम छले गए और इस लड़की ने तुम्हें धोखा दिया।
तुम्हें किसी ने भी धोखा नहीं दिया। तुम्हारे ही मन ने प्रक्षेपित किया उसे जिससे कामना गति कर सके। सुदंरता चीजों में नहीं होती, सुंदरता प्रक्षेपित होती है। सुंदरता पदार्थगत नहीं है, वह व्यक्तिगत है। इसलिए एक दिन कोई सुंदर लगता है। और दूसरे ही दिन वही व्यक्ति कुरूप बन जाता है। यह तुम ही हो, जो प्रक्षेपण करते हो, यह तुम ही हो जो उसे हटा लेते हो, दूसरा ठीक एक पर्दे की तरह काम करता है।
तुम एक बार यह जान जाओ कि मन ही सुंदरता और कुरूपता को प्रक्षेपित करता है और मन ही अच्छे और बुरे दोनों को प्रक्षेपित करता है, तुम प्रक्षेपित बंद कर दोगे। तब पहली बार तुम यह जान पाते हो कि पदार्थगत वास्तविकता क्या होती है। न वह अच्छी होती है और न बुरी, न वह सुंदर होती है और न कुरूप! बस वह होती है। प्रक्षेपणों के साथ तुम्हारी व्याख्याएं खो जाती हैं।
इसलिए यह शिष्य मृत्यु के क्षण सजग और सचेत होने ही जा रहा था। उसके मन ने जो अंतिम उपाय किया और अंतिम शस्त्र का आश्रय लिया, एक सुंदर लड़की प्रकट हुई। उसके मन ने उसके चारों ओर सुंदरता प्रक्षेपित की और चेतना खो गई। मन का दर्पण धुंधला हो गया, कामना उठ खड़ी हुई और उस समय वहां आत्म तो थी ही नहीं। वह शिष्य मात्र शरीर बन गया।
यही कारण है कि सभी धर्म कामवासना के पार जाने की बात करते हु। बिना सेक्स का अतिक्रमण किए हुए मन आखिरी चाल जरूर खेलेगा और वही विजेता बनेगा-तुम नहीं, लेकिन उसका दमन करने से रूपांतरण नहीं होगा, यह तो उससे पलायन है। पूरे होश के साथ कामना में प्रवेश करो, काम कृत्य में बने रहने का प्रयास करो, लेकिन सजग होकर। धीरे- धीरे तुम देखोगे उसका बल और दबाव कम होता जा रहा है, ऊर्जा अधिक-से- अधिक सजगता की ओर गतिशील हो -रही है और काम
कृत्य की ओर कम है। अब जो आधारभूत चीज थी, वह घट गई। देर-सवेर पूरी काम-ऊर्जा ध्यान की ऊर्जा बन जाएगी और तब तुम उसका अतिक्रमण कर जाओगे। तब भले ही तुम बीच बाजार खड़े हो या जंगल में बैठे हो, अप्सराएं तुम्हारे पास नहीं आ सकतीं। वे हो सकता है सड़क पर से गुजर रही हों, लेकिन वे तुम्हारे लिए नहीं होंगी। यदि तुम्हारा मन वहां है तो अनुपस्थित अप्सराएं भी विलीन हौ? जाएगी।
इस क्षण जब शिष्य होश खो बैठा, सद्‌गुरुने उसके सिर पर डंडे से प्रहार किया। तुम्हारी मृत्यु के क्षाण में मैं भी तुम्हारे साथ ऐसा ही करना चाहूंगा, लेकिन यहां इसे बरदाश्त नहीं किया जा सकता। जापान में यह पुरानी परंपराओं में से एक है: जब भी एकशिष्य सद्‌गुरु केपास उगता था, वह कहता था-’‘ मेरा जीवन, मेरी मृत्यु दोनों ही आपकी हैं! यदि आप मुझे मारना चाहते हैं, आप मार सकते हैं। ‘‘ इसी को कहते हैं, ' समर्पण और क्योंकि कानून और राज्य सुनेंगे नहीं। कानून इस बात को नहीं सुनेगा, यदि तुम कहोगे--क्योंकि वह स्वयं ही मरने जा रहा था, इसी वजह से मैंने उस पर चोट की। कानून कहेगा-क्योंकि तुमने उस पर प्रहार किया इसलिए वह मर गया।
कानून, जो दिखाई देता है, उसी ओर गतिमान होता है और एक सद्‌गुरु अदृश्य से गतिशील होता है। सद्‌गुरु शिष्य की आती हुई अदृश्य मृत्यु को देख रहा है और वह शिष्य को सजग बनाने के लिए उस पर चोट करता है'। एक बहुत ही कड़ी चोट की जरूरत है। जब मन कामवासना की ओर भाग रहा है, साधारण चोट से कुछ होने वाला नहीं। एक असली चोट की जरूरत है, असली बिजली के झटके जैसी कोई चीज। यह एक पुरानी कहानी है। यदि अब भविष्य में पुराने झेन मठों जैसे मठ होंगे तो वहां डंडे से चोट करने की जरूरत न होगी। बिजली का एक झटका दिया जा सकता है-लेकिन कोई चीज ऐसी आघात करने वाली हो जो उसके पूरे अस्तित्व को कंपा दे, कोई चीज ऐसा धक्का देने वाली हो कि वह कामना, जो तुम्हें कामवासना की ओर लिए जा रही है, टूट जाए।
सद्‌गुरु ने उस पर इतना गाड़ा प्रहार किया कि वह मर गया। यह तो इसका दृश्य भाग, वह नीचे गिर पड़ा और मर गया।
लेकिन अंदर क्या हुआ? अंदर की क्या कहानी है? जब सद्‌गुरु ने शिष्य पर चोट की, वह उसकी मृत्यु का क्षण था, लेकिन उसके अंदर कामना जाग गई थी। मृत्यु के क्षण में यदि वहां कामवासना हो, केवल तभी तुम दूसरे के गर्भ में प्रवेश कर सकते हो, अन्यथा नहीं कर सकते।
बिस्तरे पर मर रहा व्यक्ति यदि वह सचेत भी है, हमेशा सेक्स के बारे में ही सोचेगा। यह आश्चर्यजनक है कि एक बूढ़ा व्यक्ति भी भले ही वह सौ वर्ष का हो, बिस्तरे पर मरते हुए लगभग हमेशा सेक्स के बारे में ही सोचता है क्योंकि शरीर गत जीवन में सेक्स ही प्रथम और अंतिम है। इससे पहले वह परमात्मा के बारे में सोचता रहा होगा, वह राम, राम, राम का मंत्र जपता रहा होगा, लेकिन मृत्यु के क्षण में अचानक सब कुछ छूट जाता है और कामवासना प्रकट हो जाती है। यह स्वाभाविक है। पहला ही आखिरी होना ही चाहिए। सेक्स से ही तुम्हारा जन्म होता है और मन में कामवासना के साथ ही तुम्हारा मरना भी जरूरी होता है।
यह बस काल्पनिक कहावत ही नहीं है कि बूढे आदमी गंदे होते हैं। शरीर तो लगभग मृत होता है, लेकिन मन निरंतर सोचता रहता है और युवाओं की अपेक्षा बूढ़े व्यक्ति सेक्स के बारे में अधिक सोचते हैं क्योंकि युवा तो उस बारे में कुछ कर भी सकते हैं और बूढ़े कुछ कर भी नहीं सकते। वे केवल सोच सकते हैं और पूरी घटना मस्तिष्क में घूमती हुई .मानसिक बन जाती है।
मृत्यु के क्षण में तुम तैयारी कर रहे हो पुन: प्रवेश की, गर्भ में प्रवेश करने की। जरा इसे गहराई से समझने का प्रयास करें स्त्री के शरीर में प्रविष्ट होने के लिए वहां इतना आकर्षण क्यों है? तुमसे आखिर उसे क्या मिलता है? प्रेम करने के समय, जब तुम्हारा पूरा अस्तित्व स्त्री के शरीर की गहराई में समा जाना चाहता है तो उससे तुम्हें क्या प्राप्त होता है? मनोवैज्ञानिक कहते हैं और आध्यात्मवादी भी इस बारे में हमेशा से सजग रहे हैं-यह पुन: प्रवेश करने का वही प्रतीकात्मक कृत्य है। यह केवल इतना ही नहीं है कि जब तुम कल्पना कर रहे होते .हो कि तुम्हारा अस्तित्व स्त्री के गर्भ में प्रविष्ट हो रहा है यह निरंतर पूरे जीवन जारी रहता है।
सेक्स का अर्थ है-स्त्री के शरीर में बलपूर्वक गहरे प्रवेश करना और गर्भ में प्रविष्ट होना। यह दोनों समान चीजें हैं, दोनों स्थितियों में तुम प्रवेश करते हो-तुम बीज के रूप में प्रवेश करो या काम-कृत्य करने के लिए-प्रवृत्ति है प्रवेश करने की। मृत्यु के क्षण में मन में कामवासना का ख्याल जरूर आता है और यदि यह आता है तो तुम चूक गए। तुमने एक कामना उत्पन्न कर ली और अब यह कामना तुम्हारे लिए फिर से दूसरे गर्भ में प्रवेश करने का पथ प्रदर्शन करेगी।
सद्‌गुरु पीछे खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था। सद्‌गुरु हर स्थिति में शिष्य के पीछे खड़े प्रतीक्षा करते हैं, भौतिक रूप सशरीर अथवा सूक्ष्म रूप से और यह उन महान क्षणों में से एक है जब एक व्यक्ति मरने जा रहा है।
सद्‌गुरु ने उस पर सख्त चोट की, उसका शरीर भूमि पर नीचे गिर पड़ा, लेकिन अंदर वह सजग था। वासना नष्ट हो गई थी। कोई लड़की उधर से गुजर ही नहीं रही थी और अब वहां कोई सड़क भी नहीं थी। शरीर गिरने के साथ-साथ ही सब चीजें नष्ट हो गई थीं, वह सजग हो गया था। उसी सजगता में उसने शरीर छोड़ दिया और यदि तुम सजगता को मृत्यु के साथ संयुक्त कर दो तो तुम बुद्धत्व को प्राप्त हो जाओगे। इसी कारण एक आश्चर्यजनक घटना घट जाती है।
इकीदो की परंपरा जापान में वहां की महत्वपूर्ण परंपराओं में से एक बन गई है। उनके निकट दस व्यक्ति और बुद्धत्व को प्राप्त हुए। लोगों को आश्चर्य होने लगा। यह व्यक्ति जो इतना अधिक निर्दयी, आक्रामक और हिंसक था और जिसने एक व्यक्ति को भी मार डाला, उसके शिष्य बुद्धत्व को कैसे प्राप्त हो रहे हैं? यह संख्या दुर्लभ है- दस की संख्या असाधारण। एक सद्‌गुरु के निकट दस शिष्य बुद्धत्व को प्राप्त हो जाएं यह बहुत कठिन और अनूठी बात है। एक ही सहायता पाकर बोध को प्राप्त हो जाएं यही बहुत है, लेकिन इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। यह साधारण गणित है-केवल इसी तरह के सद्‌गुरु सहायता कर सकते हैं और जब मैं इस कहानी को पड़ता हूं तो मुझे हमेशा आश्चर्य होता है कि उसके निकट दूसरे लोग कैसे चूक गए? लेकिन जो लोग डर गए जिन्हें भय ने जकड़ लिया, वे लोग जरूर इस व्यक्ति से चूक गए। लोगों ने उसे खतरनाक समझ कर उसके मठ में आना बंद कर दिया होगा।
इकीदो के बारे में एक बात यह भी कही जाती है कि जब उस शिष्य की मृत्यु हुई, उसने उसके बारे में कभी कुछ कहा ही नहीं। उसने यह कभी नहीं कहा-’‘ यह शिष्य मर गया। '' वह वैसा ही सब कुछ करता रहा, जैसे कुछ हुआ ही न हो। और जब कभी कोई उससे पूछता भी था, '' क्या हुआ था आपके उस शिष्य के साथ?'' वह हंस पड़ता था। उसने उस शिष्य का कभी उल्लेख तक न किया, उसने यह कभी नहीं कहा कि उसके साथ कुछ गलत हो था वह इसलिए मर गया। उसने कभी यह भी नहीं कहा कि वह एक दुर्घटना थी। जब भी कोई उससे उस बाबत पूछता था तो वह हंस पड़ता
था, वह क्यों हंस पड़ता था? उसके अंदर घटी कहानी के ही कारण।
लोग केवल बाहर की बात ही जान पाते हैं? यदि मैं तुम पर कड़ा प्रहार करता हूं तो तुम मर जाते हो तो लोग बस तुम्हारे मरने को ही जान सकते हैं, कोई भी यह जानने में समर्थ न हो सकेगा कि तुम्हारे अंदर क्या घटा?
इस शिष्य को कुछ उपलब्ध हो गया, जिसे घटाने के लिए बुद्ध भी कई जन्मों तक प्रयास करते हैं और इकीदो ने उसे क्षण- भर में कर दिया। वह एक महान सद्‌गुरु के साथ एक महान कलाकार भी था। उसने मृत्यु के क्षण का इतनी सुंदरता से प्रयोग किया कि वह शिष्य बुद्धत्व को प्राप्त हो गया। वह न केवल शरीर से बल्कि मन से भी मुक्त हो गया। उस शिष्य का निकट दुबारा जन्म नहीं हुआ। बिना पुनर्जन्म के यही उसकी परिपूर्ण मृत्यु थी।
जापान में लोग ऐसी चीजों के घटने के अभ्यस्त हो जाते हैं। तुम एक सद्‌गुरु के पास जाओ तो वह तुम पर डंडे से चोट कर सकता है, वह तुम्हें उठाकर खिड़की से बाहर फेंक सकता है, वह तुम्हारे ऊपर कूदते हुए तुम्हें मारना-पीटना शुरू कर सकता है। तुम उससे एक दार्शनिक प्रश्न पूछ रहे थे-' परमात्मा का अस्तित्व है अथवा नहीं ' और वह तुम्हें पीटना शुरू कर दे। इकीदो ने बुद्धत्व को प्राप्त होने में कई लोगों की सहायता की। ऐसा व्यक्ति केवल महान करुणावश ही लोगों की सहायता कर सकता है लेकिन सर्वात्म समर्पण की जरूरत है।
यह कहा जाता है कि उस शिष्य के मरने पर उसके माता-पिता उस मठ में इकीदों से भेंट करने आए। वे बहुत क्रोधित थे। वे उसे कैसे भूल सकते थे। वही उनका इकलौता पुत्र था और वह मर चुका था। वे वृद्ध हों गए थे और उसी पर आश्रित थे। वे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि देर सवेर वह मठ से लौटकर घर आएगा और बुढ़ापे में उनकी सहायता करेगा।
जापान में मठ का जीवन एक निश्चित अवधि के लिए ही होता है। तुम मठ जा सकते हो, एक भिक्षु बन सकते हो, वहां कुछ समय रहकर अध्ययन और ध्यान करते हुए एक निश्चित मात्रा तक सजगता और अपने होने का अहसास पाकर अपने घर लौटकर साधारण जीवन व्यतीत कर सकते हो। कुछ समय बाद यदि तुम पाते हो कि तुम्हारा मन फिर धुंधला तथा भ्रमित हो रहा है और तुम कुछ चूक रहे हो, तो तुम फिर मठ जा सकते हो। जापान में स्थायी रूप से संन्यासी या भिक्षु बनने की जीवन शैली नहीं है। केवल थोड़े-से लोग जीवन- भर इसका अनुसरण करते हैं और वह उनका अपना निर्णय होता होता है। तुम मठ से घर लौट सकते -हो और इसे गलत या कोई अपराध नहीं समझा जाता।
भारत में यह अपराध है। यदि एक बार तुम संन्यासी बन गए तब वापस लौट कर विवाह करके गृहस्थ बने तो प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारी ओर यों देखता है जैसे तुम पतित हो गए हो। यह व्यर्थ की बात है, बेवकूफी है क्योंकि पूरा देश संन्यासी नहीं बन सकता। केवल थोड़े-से लोग ही संन्यासी बन सकते हैं। वे कोई भी काम नहीं करते हैं और दूसरे लोग जो जीवन में सक्रिय होकर कुछ कर रहे हैं, उन्हें उनका आश्रित बनना पड़ेगा।
संन्यास प्रत्येक के लिए उपलब्ध होना चाहिए। पूरे देश को संन्यासी बनने की सामर्थ्य होना चाहिए लेकिन यह केवल तभी संभव है, जब तुम संन्यासी बनकर साधारण जीवन जी सको, तुम चाहो तो दफ्तर जा सकते हो, तुम चाहो तो दुकान या कारखाने में काम कर सकते हो अथवा शिक्षक, डॉक्टर या इंजीनियर बन सकते हो, लेकिन फिर भी तुम संन्यासी हो।
इसलिए जापान में लोग झेन मठों में जाते हैं-वह उनकी प्रशिक्षण- अवधि है, जिससे पूरा समय ध्यान करते हुए व्यतीत करें-तब वे वापस घर लौट जाते हैं। साधारण जीवन में वे अपने साथ एक गुणात्मकता लेकर लौटते हैं और जहां तक बाहर के जीवन का संबंध है, वे फिर से साधारण नागरिक बनकर जीवन में सभी काम करते हैं। अपने अंदर गहराई में अंतर्ज्योति प्रज्वलित होने की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
वे जब भी अनुभव करते हैं कि उनके अंदर सजगता कम हो रही है अथवा वे होश से चूक रहे हैं वे फिर से मठ चले जाते हैं। वहां कुछ समय ठहरते हैं और पिर वापस लौट आते हैं।
यह बूढ़ा दम्पती अपने. लड़के के वापस लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था वह मर गया। उनका क्रोधित होना अवश्य ही स्वाभाविक था। उन्होंने सद्‌गुरु की दो के विरुद्ध बहुत कुछ जरूर सोचा होगा। इसलिए वे इकीदो के पास आए। उनकी ओर देखा और प्रतीक्षा करने लगे थे कि इकीदो कुछ करें। इकीदो ने क्या कहा? उन्होंने कहा, '' तुम प्रतीक्षा क्या कर रहे हो? लड़के का ही अनुसरण करो। तुमने अपना जीवन काफी व्यर्थ गंवा दिया और अधिक मत गंवाओ। ‘‘ और जब उन्होंने इकीदो की आंखों में देखा तो वै अपना -क्रोध भूल गए। वह व्यक्ति निर्दयी नहीं हो सकता, इससे तो करुणा बह रही है। वे आए तो थे शिकायत करने पर इकीदो को धन्यवाद देकर चले गए। जब तुम सद्‌गुरु के पास आते हो तो मरने की तैयारी के साथ आओ। घंटे पर चोट करते हुए लड़की का अनुसरण करते हुए या कामना के जाल में फंसते हुए सद्‌गुरु किसी भी क्षण तुम पर प्रहार कर सकता है। यदि तुम समर्पित नहीं हो तो वह चोट व्यर्थ हो सकती है? और इस दशा में सद्‌गुरु प्रहार करेगा भी नहीं, क्योंकि तुम चूक जाओगे उसका कोई अधिक उपयोग होना भी नहीं।
यह शिष्य अवश्य ही बहुत निकट, घनिष्ट और समर्पित रहा होगा, वह मर जाएगा लेकिन शिकायत नहीं करेगा। वह बिना शिकायत के नीचे गिर पड़ा, जैसे मानो शरीर, उसके -द्वारा उतारे गए वस्त्रों की भांति हो। उसके अंदर जो प्रकाश था, वह सब कुछ आलोकित हो उठा और वह उसी प्रकाश में प्रवेश कर गया।
मरने की पूरी तैयारी रहे, केवल तभी तुम पूरी तरह एक अलग आयाम में पुन: जन्म ले सकते हो। वही आयाम ही दिव्यता का आयाम है। अपने आपको बचाओ मत! तुम्हारा बचाव ही तुम्हारा न करना है। अपनी सुरक्षा करने का प्रयास मत करो। एक सद्‌गुरु के निकट, असुरक्षित होकर रहो क्योंकि वह ही तुम्हारी सुरक्षा है। असुरक्षित बनो, सब कुछ उस पर छोड़ दो और उसके चोट करने की प्रतीक्षा करो। किसी भी क्षण डंडे का प्रहार हो सकता है, लेकिन यदि तुमने समर्पण नहीं किया है तो वह प्रहार होगा ही नहीं क्योंकि किसी भी सद्‌गुरु को दिलचस्प से तुम पर प्रहार करने की नहीं है। न उसकी दिलचस्पी तुम्हारी जान लेने में है। सद्‌गुरुओं की दिलचस्पी केवल तुम्हारी पूरी खिलावट और बुद्धत्व में है और वह तभी घट सकती है, जब तुम्हारी मृत्यु और तुम्हारी सजगता मिलें-यह बहुत कठिन है और ऐसा संयोग दुर्लभ है।
एक सद्‌गुरु ही देख सकता है कि तुम कब मरने जा रहे हो। यह लिखा हुआ है... क्योंकि तुम्हारे शरीर से ऊपर से नीचे तक स्मृतियों का लेख लिखा है जिसे पढ़ा जा सकता है। ज्योतिषी से चूक हो सकती है। एक हस्तरेखा विशेषज्ञ भी इसे पढ़ने में समर्थ नहीं है, क्योंकि तुम इतने बड़े झूठे हो कि तुम्हारी हथेली भी धोखा दे सकती है। तुम ऐसे धोखेबाज हो कि तुम्हारा मस्तक भी सच नहीं कहेगा और तुम मृत्यु से इतने डरे हुए हो कि अनजाने में अपने अचेतन में तुम उस जानकारी को सबसे अंदर के कक्ष में छिपा लेते हो। यदि तुम सच्चे और प्रामाणिक हो तो तुम स्वयं इसके प्रति
सजग हो जाओगे कि तुम कब मरने जा रहे हो।
इसलिए झेन सद्‌गुरु अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी करते रहे हैं। वे हमेशा बता सकते हैं कि वे कब मरने जा रहे हैं लेकिन फिर भी लोग उस पर विश्वास नहीं करते। हम कैसे विश्वास कर सकते हैं कि तुम अपनी मृत्यु की बाबत जान सकते हो? हमने तो उसे इतना गहरा छिपा लिया है कि हम कभी उसे देख नहीं पाते।
ज्योतिष असफल हो सकता है क्योंकि यह बाहर का विज्ञान है, जो कुछ चीज बाहर से अंदर की ओर देखता है। हस्तरेखा ज्ञान असफल हो सकता है क्योंकि यह भी निश्चित नहीं है। तुम्हारे हाथों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। तुम पर और तुम्हारे पूरे शरीर पर विश्वास नहीं किया जा सकता और तुम्हारे हथेली की रेखाएं आसानी से बदल सकती हैं। पन्द्रह दिनों तक यदि निरंतर आत्महत्या करने के बारे में तुम सोचते रहो तो तुम्हारी जीवन-रेखा टूट जाएगी। लगातार पंद्रह दिनों तक किसी और चीज के बारे में सोचो ही मत, केवल आत्महत्या करने के ही बारे सोचो। कल्पना में उसका ही
दृश्य उभारों, उसके ही सपने देखो तो पन्द्रह दिनों में जीवन-रेखा टूट जाएगी। मन ही उसे निर्मित कर सकता है और वही उसे बदल सकता है। यदि तुम किसी हस्तरेखा विशेषज्ञ के पास जाओ और वह कहता है कि तुम तीन महीनों में मरने जा रहे हो, यह हो सकता है उसकी व्याख्या या अनुमान गलत हो, लेकिन यदि यह विचार तुम्हारे मन की गहराई में जाकर जम जाता है तो तुम तीन महीनों में मर जाओगे और तीन महीनों में तुम्हारी जीवन रेखा ही मिट जाएगी। तुम्हारा हाथ तुम्हारे मन को प्रभावित नहीं कर रहा है, तुम्हारा मन ही निरंतर तुम्हारे हाथ को प्रभावित कर रहा है।
मैंने मिस्र के एक राजा के बारे में सुना है। उसे मृत्यु से बहुत भय लगता था, वह बहुत बीमार रहता था और कमजोरी का अनुभव करते हुए बिस्तरे पर ही पड़ा रहता था। उसे एक ज्योतिषी के बारे में पता चला कि उसने उसके एक मंत्री की मृत्यु के बारे में भविष्याणी की थी और वह ठीक उसी समय मर गया वह।
राजा ने सोचा-' यह आदमी खतरनाक है। यह आदमी कुछ काले जादू की तरह कोई चीज जानता है। इसी ने उस मंत्री को मार डाला और इस आदमी को जीने देना खतरनाक हो सकता है। वह ऐसा मेरे साथ भी कर सकता है। '
उसने ज्योतिषी को बुलवाया और उससे पूछा, ‘‘ मेरी मृत्यु के बारे में मुझे कुछ बताओ। मैं कब मरने जा रहा हूं? ‘‘
उस ज्योतिषी ने राजा के चेहरे की ओर देखा और कुछ खतरा अनुभव किया। राजा का चेहरा बहुत भयानक था। उसे कुछ संदेह हुआ, इसलिए उसने जन्मपत्री आदि फैलाकर अध्ययन कर कहा-’‘ मेरी मृत्यु होने के एक सप्ताह बाद ही आपकी मृत्यु हो जाएगी। ‘‘
इसलिए राजा ने अपने चिकित्सकों को बुलाकर उस ज्योतिषी की -ठीक तरह से देखभाल करने के लिए कहा। उसके लिए एक महल बनवा दिया गया और उसे अच्छे से अच्छा भोजन और सुविधा की हर चीज उपलब्ध कराई गई। उसकी सेवा में सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर बुलाकर रखे गए और उनसे राजा ने कहा-’‘इसे बहुत संभाल कर रखो क्योंकि यह कहता है कि इसके मरने के सात दिनों बाद...।‘‘
यह कहा जाता है कि वह राजा बहुत दिनों तक जीवित रहा क्योंकि वह ज्योतिषी जीवित था और वह बहुत स्वस्थ था। वह राजा केवल तभी मरा, जब वह ज्योतिषी मरा, उसके मरने के एक सप्ताह बाद ही मर गया।
तुम्हारा मन बदलता जाता है और चूंकि तुम्हारा मन झूठा है इसलिए किसी हस्तरेखा विशेषज्ञ के पास जाओ ही मत। वह तुम्हें धोखा ही देगा, लेकिन तुम एक सद्‌गुरु को धोखा नहीं दे सकते, क्योंकि वह कभी तुम्हारी हथेली नहीं पड़ता, वह कभी तुम्हारा मस्तक नहीं देखता। उसे तुम्हारे ग्रहों और सितारों की फिक्र नहीं होती, वह तो तुम्हें तुम्हारी गहराइयों में देखता है। वह तुम्हारी मृत्यु का ठीक क्षण जानता है और यदि तुम उसके प्रति समर्पित हो तो तुम्हारी मृत्यु का उपयोग किया जा सकता है। यह कहानी बहुत सुंदर है। इस पर ध्यान करो। ऐसा ही तुम्हारे साथ हो सकता
है, लेकिन काफी तैयारी की जरूरत है, परिपक्व होने और समर्पण की जरूरत है।

क्या कोई बात और....?
प्यारे सद्‌गुरू? इस झेन कहानी की अंतिम पंक्ति कहती है? कि दस
लोग बुद्धत्व को प्राप्त हुए और यह संख्या काफी बड़ी है, मुझे तो यह
दल की संख्या किसी तरह बड़ी नहीं लगती  क्या हम लोग आपकी
झेन छड़ी खरीद सकते हैं और उसका अपने पर प्रयोग कर सकते हैं
जिससे समर्पण घटे?
दस की संख्या वास्तव में एक बड़ी संख्या है। क्योंकि बुद्धत्व को प्राप्त होना इतना अधिक श्रमपूर्ण और कठिन है कि लगभग असंभव जैसा है। दस की संख्या बड़ी संख्या है, लेकिन इससे बड़ी संख्या में भी ऐसा घटा है। बुद्ध के सान्निध्य में सैकड़ों बोध को प्राप्त हुए। महावीर के साथ सैकड़ों को बुद्धत्व मिला। मूल बात यह नहीं है कि तुम मेरी झेन छड़ी कैसे खरीद लो-तुम उसे नहीं खरीद सकते-मुख्य बात है कि तुम कैसे राजी होते हो।
यह प्रश्न, सद्‌गुरु द्वारा तुम पर चोट किए जाने का नहीं है। प्रश्न उस चोट को प्राप्त करने का भी नहीं है। यदि तुम प्रतिरोध करते हो तो कुछ भी नहीं किया जा सकता और प्रतिरोध वहां है-साधारण चीजों में भी तुम प्रतिरोध करते हो और मुत्यु तो बहुत बड़ी चीज है। वह तो अंतिम है और तुम साधारण चीजों में भी...।
एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा-’‘ मैं समर्पण करना चाहता हूं। ‘‘ मैंने उससे कहा-’‘ इस बारे में पहले अच्छी तरह सोच लो- आखिर इसका अर्थ क्या है? यह बहुत कठिन है.। यह इतना आसान नहीं है कि तुम आओ और कहो-मैं समर्पण करता हूं। जाओ, पहले जाकर अपना सिर मुंडाकर आओ। ‘‘
उस व्यक्ति ने कहा--’‘ यह तो बहुत कठिन है। मैं यह नहीं कर सकता। मैं अपने लंबे बालों से बहुत प्रेम करता हूं। ‘‘
वह व्यक्ति पूरी तरह भूल ही गया कि वह मुझे सब कुछ समर्पित कर रहा था, लेकिन वह अपने बाल तक कटाने को तैयार न हुआ। बाल तो पहले ही से शरीर का मृत भाग है, उनमें कोई जीवन नहीं है। यही कारण है कि तुम उन्हें काट सकते हो और तुम्हें कोई हानि नहीं होती। बाल मृत है, पहले ही से मृत है। तुम्हारे शरीर ने मृत कोषों के रूप में उन्हें बाहर फेंक दिया है। यह व्यक्ति कह रहा है  वह अपने बालों को नहीं कटा सकता क्योंकि वह अपने लंबे बालों से बहुत प्रेम करता है और वह समर्पण करने के लिए तैयार है? वह जानता ही नहीं कि समर्पण का क्या अर्थ है?
कोई मेरे पास आता है और कहता हैँ-’‘ मैं समर्पण करने के लिए तैयार हूं। ‘‘ मैं उससे कहता हूं-’‘ नारंगी 'वस्त्र पहनकर आओ। ‘‘ वह अपने कपड़े उतार कर नारंगी वस्त्र तक नहीं पहन सकता और वह समर्पण करने को तैयार है। समर्पण शब्द हो अर्थहीन हो गया है। उसके लिए इसका कोई अर्थ है ही नहीं। वह क्या कह रहा है, वह इसके प्रति भी सजग नहीं है, अन्यथा समर्पण शब्द के उच्चारण से ही उसका सर्वांग कांप उठता, क्योंकि उसका अर्थ है-मृत्यु।
मेरी छड़ी वहां रखी हुई है। मैं तुम पर चोट भी कर सकता हूं लेकिन वहां तुम्हारी कोई तैयारी है ही नहीं। तुम्हारे तैयार होने से पूर्व ही यदि मैं उससे चोट करता हूं तो तुम मुझे छोड्‌कर भाग खड़े होंगे। बहुत से लोग मुझे छोड्‌कर चले गए क्योंकि मैंने किसी-न-किसी तरह से उन पर चोट की थी। यह मत सोचो कि मेरी छड़ी या डंडा कोई दृश्यमान चीज है, मैं सूक्ष्म अशरीर छड़ी का प्रयोग करता हूं। ठीक मेरे एक शब्द की चोट से तुम टूटकर बिखर सकते हो, मर सकते हो। तुम्हारे तर्क, तुम्हारे धर्म, तुम्हारे विचारों और मान्यताओं पर चोट लगे तो तुम टुकड़े-टुकड़े हो जाते हो। मैं तुम्हारी भावनाओं पर चोट करता हूं तब तुम मेरे विरोधी हो जाते हो। अभी तुम्हें परिपक्व होने की जरूरत है।
जिससे तुम उस चोट का स्वागत कर सको, उसके लिए प्रतीक्षा और प्रार्थना कर सको।
झेन मठों में यह सबसे पुरानी परम्पराओं में से एक है कि जब भी किसी शिष्य पर डंडे से सद्‌गुरु चोट करते हैं तो -पूरा मठ प्रमुदित प्रसन्न हो उठता है और वह विषय किसी विशिष्ट उपहार के रूप में उसे स्वीकार करता है। सद्‌गुरु ने उस पर चोट की अर्थात वह शिष्य उसके द्वारा चुन लिया गया। सद्‌गुरु द्वारा चोट किए जाने की वर्षों तक शिष्य प्रतीक्षा करते हैं। वे प्रार्थना करते हैं-पूछते हैं सद्‌गुरु से-’‘ कब? आखिर हम कब समर्थ होंगे ‘‘ अथवा-’‘ हमे कब आपकी चोट का सौभाग्य प्राप्त होगा? कब आपकी छड़ी या डंडा हमारे ऊपर पड़ेगा ‘‘
एक गहरी ग्राहकता की जरूरत है। मेरी छड़ी खरीदने की कोई जरूरत नहीं, वह पहले ही से तुम्हारी है। केवल एक- स्वागत भरा हृदय चाहिए। एक गहरी ग्राह्यता चाहिए तब चाहिए धैर्य और वह छड़ी किसी भी क्षण तुम पर गिर सकती है। कभी- कभी वह तुम्हारे निकट आती भी है, लेकिन तुम भयभीत हो जाते हो। कभी-कभी मैं तुम्हारे शरीर के कई केन्द्रों पर प्रहार करता हूं लेकिन तब तुम डर जाते हो, तब तुम बचाव करना चाहते हो, पलायन कर जाते हो। मन के प्रति सजग बने रहो। मन हमेशा पलायन करने को कहेगा। जहां कहीं भी खतरा होता है-मन कहेगा, 'यहां से भाग जाओ।'
किसी स्थिति का आमना-सामना करने के लिए मन के पास दो रास्ते हैं, पहला है संघर्ष और दूसरा है भाग खड़े होना। तुम्हारा मन मेरे साथ संघर्ष करना शुरू कर देता है, जिसे मैं देख सकता हूं। जब मैं बोल रहा होता हूं तो मैं तुम्हारी आंखों में देख सकता हूँ कि तुम संघर्ष कर रहे हो या दूर भाग रहे हो। तुम्हारी उस दृष्टि, तुम्हारे हर ढंग- जिस तरह से तुम बैठते हो, जिस तरह से सुनते हो, उससे स्पष्ट हो जाता है कि तुम संघर्ष कर रहे हो, प्रतिरोध करते हुए अपने को दूर हटा रहे हो-एक दूरी निर्मित कर रहे हो, जिससे मैं तुममें प्रवेश न कर सकूं अथवा यदि तुम भागना चाहते हो, तब तुम्हें नींद आने लगती है, तुम मुझे सुन ही नहीं रहे होते हो या तुम कुछ और सोचते हुए कहीं और ही होते हो और तुम अपने में व्यस्त हो जाते हो, जिससे तुम भाग सको।
जब तुम न तो संघर्ष कर रहे हो और न भाग रहे हो, प्रार्थना पूर्ण होकर धैर्य से प्रतीक्षा कर रहे हो-केवल तभी तुम तैयार होते हो। उसके बारे में व्यग्रता होती ही नहीं, क्योंकि व्यग्रता तनाव उत्पन्न करती है। तुम व्यग्र होते ही नहीं, बस परम संतोष से प्रार्थनापूर्ण भावदशा के साथ निष्किय प्रतीक्षा करते रहते हो। अब चोट तुम्हीं पर होगी, मैं समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं। और इकीदो के शिष्यों से भी कहीं अधिक लोग बुद्धत्व को प्राप्त हो सकते हैं। यहां पूरी सम्भावना है, अवसर भी है और सरिता बही जा रही है, लेकिन यह तुम पर ही निर्भर है, तुम चाहोगे, तभी नीचे झुककर नदी का जल पी सकोगे अथवा अहंकार से तने खड़े रहोगे। नदी से यह सोचते हुए वापस लौट आओगे कि संघर्ष करूं या भाग जाऊं। अपने चारों ओर इन विचारों को लिए हुए यह तुम पर ही निर्भर है कि तुम्हारा मन तुम्हें मुझसे दूर खींचकर ले जाएगा अथवा तुम मन को एक ओर रखकर मुझे अपने पर चोट करने की इजाजत दोगे।
वह चोट बस तुम पर होने ही वाली है, लेकिन तुम हिल-डुल रहे हो, कांप रहे हो। यह शिष्य जिस पर इकीदो द्वारा चोट की गई, वह वास्तव में पूर्ण समर्पित था। उसकी मृत्यु के पश्चात कई और लोग भी तैयार थे। कहीं से भी उस शृंखला को टूटना ही था। जब एक दीप जलता और प्रकाश बिखरता है तो कई उसका अनुसरण करते हैं। प्रश्न यह है कि पहले कौन मरने के लिए तैयार होगा? एकबार यह शिष्य मर गया और उसके अंदर बुद्धत्व घट गया, फिर कई लोगों ने उसका अनुसरण किया और दस लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए।
यह शब्द 'दस' भी सोचने जैसा है। यह दस की संख्या प्रतीकात्मक है. .क्योंकि दस ही सबसे बड़ी संख्या है। यह ठीक दस ही नहीं है, यह गणित की संख्या नहीं है, दस तो बस सबसे बड़ी संख्या है। मनुष्य ने पहले अपनी उंगलियों पर गिनना शुरू किया और वहां दस उंगलियां ही होती हैं। अभी भी गांव वाले उंगलियों पर ही गिनते हैं। दस ही सबसे बड़ी संख्या है और सभी संख्याएं दोहराई जाती हैं। ग्यारह का अर्थ है एक के बाद एक, बारह का अर्थ है एक और दो और वहां सभी संख्याएं एक दूसरे को दोहराती हैं। विश्व की सभी भाषाओं में मूल संख्या दस तक ही है, क्योंकि हर
कहीं मनुष्य की दस उंगलियां ही होती हैं। संख्याएं केवल दस होती हैं इसलिए दस सबसे बड़ी संख्या है और यह प्रतीकात्मक है।
असीम अनन्त में एक गिरा और बहुतों ने उसका अनुसरण किया। एक बार खाई का मुंह खुल गया और उसमें तुमने एक को प्रवेश करते हुए देख लिया। तुम उस परमानंद और आशीर्वाद को देख रहे हो तो तुम आसानी से उसमें प्रविष्ट हो सकते हो, तुम छलांग लगा सकते हो। बहुत-से अन्य भी तैयार रहे होंगे, लेकिन यदि तुम निन्यानवें प्रतिशत भी तैयार हो, चोट तुम पर नहीं हो सकती थी। चोट तुम पर केवल तभी हो सकती थी जब तुम सौ प्रतिशत तैयार हो, क्योंकि तभी एक क्रांति घटती है। तुम निन्त्रान्तवे प्रतिशत से भी वापस लौट सकते हो, यही समस्या है। यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य भी है लेकिन यही होता है।
मैं बहुत, बहुत लोगों पर काम करता रहा हूं और जब कभी वे बिलकुल ठीक उसी क्षण भाग खड़े होते हैं, जब घटनाघटने ही वाली होती है। यह मन काफी चालबाज है, यह उसकी दार्शनिक विवेचना कर सकता है, यह कह सकता है कि तुम भाग खडे हुए। ठीक उसी क्षण जब कुछ घटने जा रहा था, तुम भाग सकते हो। यही अधिक सम्भावना है कि अन्य क्षणों की अपेक्षा तुम ठीक उसी क्षण भाग खड़े हुए यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन ऐसा ही होता है। तुम प्रतीक्षा, प्रतीक्षा और प्रतीक्षा करते रहते हो और वह क्षण निकट आता जाता है, जहां पानी के वाष्प बनने का बिंदु आ पहुंचता है और ठीक उसी क्षण तुम भाग खड़े होते हो। उस भागने से अपने को रोकना बहुत कठिन है। तब ठीक ऐसा लगता है जैसे मृत्यु पास, पास और पास आती जा रही है और अनन्त खाई देखकर तुम जितनी तेजी से सम्भव होता है, भाग खड़े होते हो।
सजग बने रहो। खोजियों के साथ यह दुर्भाग्य घटता है, यह तुम्हारे साथ भी हो सकता है।
बुद्ध चालीस वर्षों में यात्रा करते हुए एक विशेष गांव से होकर कई बार गुजरते थे। एक मनुष्य उन्हें सुनने जरूर आता था, लेकिन वह कुछ मिनट रुककर ही उन्हें सुनता था और तब उठकर चला जाता था। यह उसकी एक आदत बन गई थी, उसने कभी भी बुद्ध का पूरा प्रवचन सुना ही नहीं। वह आएगा जरूर, यह निश्चित था और जब कभी बुद्ध उस गांव में आते थे, वे उस मनुष्य की प्रतीक्षा करते थे क्योंकि उसका आना निश्चित था। वह कुछ मिनट बैठकर उन्हें सुनता था और तब आदरपूर्वक बुद्ध को सिर झुकाकर नमन करते हुए चला जाता था। आनन्द ने एक बार उस व्यक्ति से पूछा-’‘ तुम ऐसा क्यों करते हो? ‘‘
उस मनुष्य ने उत्तर दिया-’‘ कभी-कभी यही समय मेरे व्यापार का सबसे व्यस्त समय होता है। मैं सम्मान प्रकट करने के लिए आता जरूर हूं लेकिन मेरी दुकान खुली हुई है और वहां बहुत से ग्राहक भी हैं, जो प्रतीक्षा नहीं करेंगे। बुद्धत्व तो प्रतीक्षा कर सकता है अगली बार मैं उन्हें पूरा जरूर ही पूरा सुनूंगा। ‘‘
और हर बार यही होता रहा। जिस दिन बुद्ध ने शरीर छोड़ा, वह उस गांव के निकट ही थे और अपना शरीर छोड़ने से पूर्व उन्होंने आनन्द से कहा-’‘ वह व्यक्ति नहीं आया अभी तक। यह अप्रत्याशित बात थी-वह आज तक कभी नहीं चूका। वह हमेशा एक अर्थ में तो चूकता ही रहा, पर वह आना कभी नहीं भूला। वह आया। हर बार और आज वह अभी तक नहीं आया। ‘‘
तब बुद्ध ने शिष्यों से पूछा-’‘ क्या तुम लोगों को कुछ पूछना है? क्योंकि बहुत शीघ्र मैं अंतिम परमानंद की समाधि में प्रवेश करने जा रहा हूं और तब मैं वापस लौटकर तुम्हारे प्रश्न का उत्तर न दे सकूंगा। ‘‘
वे लोग रोने और बिलखने लगे, लेकिन उनके पास कोई प्रश्न न था। आनन्द ने कहा-’‘ भगवान। हम लोगों ने आपसे सभी कुछ तो पूछ लिया और आपने सभी बातों का समाधान भी कर दिया। अब कुछ बचा ही नहीं। हम लोगों के मन अब कोरे और खाली हैं, लेकिन बस यह विचार कर कि आप सदा के लिए खो जाने के लिए जा रहे हैं...। ‘‘
बुद्ध ने बार-बार तीन बार पूछा, पर वहां कोई प्रश्न ही नहीं था, इसलिए वृक्ष के पीछे जाकर उन्होंने अपने नेत्र मूंद लिए जिससे असीम अनन्त में पिघलकर वे विलुप्त हो जाएं और अपना शरीर छोड़ दें। तभी अचानक वह व्यक्ति आया और  से झगड़ने लगा और बोला-’‘ मुझे उनके दर्शन करना बहुत जरूरी है, क्योंकि अब यह आखिरी अवसर है और मैं उन्हें फिर कभी न देख सकूंगा। चालीस वर्षों से मैं उनसे चूकता रहा हू और उनसे पूछने का पहले कभी समय ही न निकाल सका क्योंकि कभी मेरे परिवार में कोई विवाह होता था, कभी मेरे व्यापार की व्यस्तता का समय होता था।
कभी मैं स्वयं या पत्नी बीमार होती थी और कभी घर में मेहमान ठहरे होते थे। मैं हमेशा चूकता रहा, लेकिन अब कृपया मुझे रोकिए मत। ‘‘
शिष्यों ने कहा-’‘ अब यह सम्भव नहीं है क्योंकि अब युद्ध अंतिम समाधि ले रहे हैं। ‘‘
बुद्ध अपनी परमानंद की अंतिम समाधि से वापस लौट आए। वे वृक्ष के समाने आकर बोले-’‘ इस व्यक्ति को रोको मत। हो सकता है यह व्यक्ति मूर्ख हो और अपने अज्ञान और मूर्च्छा के कारण यह अभी तक चूकता रहा हो, लेकिन मैं इसके प्रति कठोर नहीं हो सकता। मैं अभी तक जीवित हूं इसलिए उसे आने दो। कोई यह न कहे कि बुद्ध के जीवित रहते एक व्यक्ति कुछ मांगने आया था और वापस लौट गया। ‘‘ उसके निकट आने पर बुद्ध ने उससे पूछा-’‘ तुम क्या पूछना चाहते हो? ‘‘वह
व्यक्ति अपना प्रश्न भूल ही गया। उसने कहा-’‘जब मैं यहां आया, तब वह प्रश्न मैं जानता था, लेकिन अब वह मुझे याद ही नहीं आ रहा... और अब और कोई अगला समय आने का नहीं...। ‘‘
उसी दिन बुद्ध ने शरीर छोड़ दिया अवश्य ही वह व्यक्ति इस या उस पृथ्वी पर किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में भटक रहा होगा, जो उसके प्रश्न का उत्तर दे सके। वह व्यक्ति बुद्ध को निरन्तर चालीस वर्ष तक चूकता रहा।
तुम भी मुझसे चूक सकते हो-हमेशा इस सम्भावना का स्मरण रखो, लेकिन यह मेरे कारण नहीं, तुम्हारे अपने ही कारण होगा। मैं तो हमेशा ही तैयार हूं तुम जब भी तैयार हो जाओगे, मैं तुम पर चोट करूंगा, लेकिन एक गहरे समर्पण की आवश्यकता है। उससे पहले कुछ भी नहीं हो सकता। तुम्हें एक दिन मरना ही है, तुम जैसे हो, वैसे ही मरना है जिससे तुम जो वास्तव में हो, उसका तुमसे जन्म हो सके। अपनी अहंकार मुक्त दिखावटी आकृति को मिटाना ही तुम्हारा मरना है, जिससे तुम्हारे अंदर जो वास्तविक सत्य है, उसका जन्म हो सके। तुम्हें अपनी परिधि के प्रति मरना है, जिससे केन्द्र विकसित और प्रकाशित होकर परिपूर्णता में प्रकट हो सके। सभी चोटें बीज को तोड़ने
के लिए हैं जिससे वृक्ष का जन्म हो सके।
'क्या कुछ और...?

प्रश्न : आप योद्धाओं और व्यापारियों के सम्बन्ध में प्राय: चर्चा
करते रहते है और उसी से सबंधित वहां कई प्रश्न हैं। चूंकि हम लोगों
में से योद्धा वा सैनिक न होकर अधिकतर व्यापारी या पेशेवर लोग ही
हैं- क्या हम लोग बुद्धत्व से इसीलिए चूकते जा रहे है?

योद्धा होने का अर्थ सैनिक या सिपाही होना नहीं है। यह एक गुण है चित्त का। तुम एक व्यापारी होकर भी एक योद्धा बन सकते हो और तुम एक योद्धा होते हुए भी व्यापारी ही हो सकते हो।
व्यापारी का अर्थ है-मन के वह गुण जो हमेशा मोल-तोल करते रहते हैं। जो कम-से-कम देने और अधिक-से-अधिक लेने की कोशिश करते हैं। जब मैं व्यापारी शब्द का उल्लेख करता हूं तो उससे मेरा यही तात्पर्य होता है, जो कम -से- कम देने और अधिक-से- अधिक पाने का प्रयास करता है। हमेशा मोल- भाव करता है और हमेशा लाभ के लिए सोचता है।
योद्धा होना भी एकचित्त दशा है। उसमें मोल-तोल के गुण न होकर एक जुआरी के गुण होते हैं ऐसे गुण जो हर चीज दांव पर लगा सके-इस पार या उस पार-एक ऐसा चित्त जो समझौता वादी नहीं होता।
एक व्यापारी बुद्धत्व को भी अन्य वस्तुओं के बीच एक वस्तु की ही भांति सोचता है। उसके पास एक कार्य सूची होती है। उसे एक बडी कोठी या महल बनवाना है, उसे यह और वह, वगैरा, वगैरा खरीदना है और अंत में उसे बुद्धत्व भी खरीदना है, लेकिन बुद्धत्व हमेशा अंत में होता है-जब हर चीज पूरी हो जाए तब जब कुछ भी करने को बाकी न बचे। और वह बुद्धत्व भी उसे खरीदना है क्योंकि वह केवल धन की ही बात समझता है।
ऐसा हुआ एक बार कि एक धनी व्यक्ति महावीर के पास गया। वह वास्तव में अत्यधिक धनी व्यक्ति था। वह कुछ भी खरीद सकता था, यहां तक कि राज्य भी।
राजा-महाराजा भी उससे धन उधार लेते थे। वह महावीर के पास आया और उसने कहा-’‘ मैंने ध्यान के बारे में बहुत कुछ सुना है और जब से आप यहां पधारे हैं, उस समय से आपने लोगों के मन में उसके लिए एक रुचि और लालसा उत्पन्न कर दी है.। अब हर कोई ध्यान की ही बात करता है। यह ध्यान है क्या? उसकी कीमत क्या है? मैं उसे खरीदना चाहता हूं। ‘‘
महावीर हिचकिचाए। क्या कहें और क्या न कहें?
उनकी ओर देख उस व्यक्ति ने कहा-’‘ आप कीमत की जरा भी फिक्र न करें, आप बस जो कहेंगे मैं तुरन्त उसे अदा कर दूंगा, इस बारे में मेरे लिए वहां कोई समस्या है ही नहीं। ‘‘
इस व्यक्ति से कैसे बातचीत की जाए? महावीर कुछ समझ न पा रहे थे। क्या कहें इस व्यक्ति से? अंत में महावीर ने कहा-’‘ तुम यहां सीधे नगर में अमुक व्यक्ति के पास जाओ। वह एक निर्धन व्यक्ति है, हो सकता है वह ध्यान बेचने को तैयार हो? उसने ध्यान प्राप्त किया है और वह इतना अधिक निर्धन है कि वह शायद उसे बेचने को तैयार हो जाए। ‘‘
उस व्यक्ति ने महावीर को धन्यवाद दिया और भागता हुआ उस निर्धन व्यक्ति के घर पहुंचकर उसका दरवाजा खटखटाया और कहा-’‘ मैं तुमसे तुम्हारा ध्यान खरीदना चाहता हूं। तुम ध्यान की कितनी कीमत चाहते हो? ‘‘
वह व्यक्ति हंसने लगा। उसने कहा-’‘ आप मुझे खरीद सकते हैं, यहां तक ठीक भी है, लेकिन मैं आपको अपना ध्यान कैसे दे सकता हूं? वह तो मेरे अस्तित्व का, मेरे होने का एक गुण है, वह कोई वस्तु या पदार्थ नहीं है। ‘‘
लेकिन व्यापारी चित्त लोग हमेशा इसी तरह से सोचते हैं। वे खरीदने के लिए दान देते हैं, वे स्वर्ग खरीदने के लिए मंदिर बनवाते हैं। वे देते हैं, लेकिन उनका देना कभी देना है ही नहीं, वह हमेशा कुछ लेना ही है, वह उनकी लगाई गई पूंजी है। जब मैं योद्धा बनने की बात कहता हूं मेरा तात्पर्य एक जुआरी बनने से है जो प्रत्येक चीज दांव पर लगा देता है। तब बुद्धत्व जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है। वह एक वस्तु नहीं है और तुम उसके लिए प्रत्येक वस्तु फेंक देने के लिए तैयार हो। तुम किसी लाभ के बारे में नहीं सोच रहे हो।
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं-’‘ हमें ध्यान से मिलेगा क्या? आखिर इसका उद्देश्य क्या है? इससे क्या लाभ होगा? यदि हम ध्यान करने में एक घंटा लगाएं तो उससे क्या प्राप्त होगा? ‘‘उनका पूरा जीवन एक अर्थशास्त्र है।
एक योद्धा किसी लाभ के पीछे नहीं पड़ा है, एक योद्धा शिखर अनुभव की प्राप्ति के पीछे पागल है। एक योद्धा युद्ध में लड़ते हुए क्या प्राप्त करता है? तुम्हारे सैनिक योद्धा नहीं हैं, वे केवल सेवक हैं। योद्धा तो अब इस पृथ्वी पर रहे ही नहीं, क्योंकि अब तो पूरी चीज ही एक तकनीकी बन गई है। तुम हीरोशिमा पर एक बम गिराते हो, बम गिराने वाला एक योद्धा नहीं है। कोई बच्चा भी इसे कर सकता है, कोई पागल इसे कर सकता है और वास्तव में एक योद्धा या जांबाज बनना नहीं है। युद्ध अब वैसा ही नहीं रह गया, जैसा कि अतीत में था। अब कोई भी इसे कर सकता है और देर-सवेर केवल यांत्रिक प्रक्रिया से ही सब कुछ होने लगेगा। बिना चालक या हवाई जहाज इसे कर सकता है और हवाई जहाज कोई योद्धा नहीं है। वह गुण ही खो गया। योद्धा तो वह था जो दुश्मन का आमने-सामने मुकाबला करता था।
जरा कल्पना करो, दो व्यक्ति तलवारें खींचे हुए एक दूसरे का आमना-सामना कर रहे हैं। क्या वे सोच सकते हैं? यदि वे कुछ सोचते हैं तो चूक जाएंगे। जब तलवारें खिंची हों तो विचार रुक जाते हैं। लड़ते हुए वे सोच नहीं सकते कोई योजना नहीं बना सकते, क्योंकि यदि वे कोई योजना बनाते हैं तो दूसरा उस पर वार कर देगा। वे स्वयं प्रवर्तित होकर गतिशील होते हैं, वे अमन की दशा में होते हैं। खतरा बहुत अधिक है, मृत्यु की सम्भावना इतनी निकट है कि मन उसकी अनुमति नहीं दे सकता। मन को समय की आवश्यकता होती है, आपात काल के लिए मन राजी नहीं होता। जब तुम कुर्सी पर बैठे हुए हो, तुम सोच सकते हो, लेकिन जब तुम शत्रु का आमना-सामना कर रहे हो तुम सोच नहीं सकते।
यदि तुम किसी अंधेरी सड़क से होकर गुजर रहे हो और अचानक तुम एक सांप देखते हो, एक खतरनाक सांप वहां बैठा हुआ है तो तुम क्या करोगे? क्या तुम सोचना शुरू करोगे? नहीं, तुम कूदकर उससे दूर चले जाओगे और यह छलांग तुम्हारे मन से उत्पन्न नहीं होगी क्योंकि मन सोचने में कुछ समय लेता है और सांप कभी कोई समय नहीं लेता उसके पास मन होता ही नहीं। सांप तुम पर प्रहार करेगा-इसलिए मन इजाजत नहीं दे सकता। सांप का सामना करते ही तुम छलांग लगा जाते हो और यह छलांग तुम्हारे अस्तित्व से आती है। यह विचार करने से पहले आती है। तुम पहले
छलांग लगाते हो और फिर सोचते हो। मेरा तात्पर्य योद्धा के इसी गुण से है, क्रिया होती है बिना सोचे-विचारे, क्रिया होती है अमन से, क्रिया होती है समग्रता से।
तुम बिना युद्धभूमि में गए हुए भी एक योद्धा हो सकते हो। इसके लिए युद्ध में जाने की कोई जरूरत नहीं है और हर जगह शत्रु और सांप हैं और भयानक जंगली जानवर तुम पर आक्रमण करने को तैयार बैठे हैं। यह पूरा जीवन ही एक युद्ध है। यदि तुम सजग हो तो तुम देखोगे कि पूरा जीवन ही एक सतत संघर्ष है और किसी भी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, इसलिए आपातकाल की स्थिति स्थायी है।
सजग बनो, एक योद्धा की तरह बनो, जैसे तुम शत्रुओं के बीच जा रहे हो। किसी भी क्षण किसी भी ओर से मृत्यु तुम पर छलांग लगा सकती है। मन को इजाजत मत दी। एक जुआरी बनो, क्योंकि जुआरी ही छलांग लगा सकते हैं। यह छलांग लगाना कुछ ऐसा है, जिसे वे लोग नहीं लगा सकते, जो हमेशा लाभ के बारे में ही सोचते हैं। यह एक जोखिम है, सबसे बड़ा जोखिम! तुम खो भी सकते हो और कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं। जब तुम मेरे पास आते हो तो तुम हर चीज खो सकते हो और तुम्हें कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं।
मैं जीसस की एक कहावत को दोहराना चाहता हूं। वे कहते हैं-’‘ जो कोई भी जीवन से बंधकर रहता है जो कोई भी उसे सुरक्षित रखने की कोशिश करता है, वह उसे खो देगा और जो कोई भी खोने को तैयार है, वह उसे सुरक्षित कर लेना। ‘‘
जब मैं व्यापारी की बात करता हूं तो मेरा तात्पर्य एक हिसाबी-किताबी. चालाक मन के व्यक्ति से है। चालाकी भरा मन मत रखो। कोई बच्चा व्यापारी नहीं होता और ऐसा बूढ़ा व्यक्ति खोज पाना मुश्किल है, जो व्यापारी न हो। प्रत्येक बना एक योद्धा है और प्रत्येक क्या व्यक्ति एक व्यापारी है। हर योद्धा कैसे एक व्यापारी बनता है यह, एक लम्बी' कहानी है पूरा समाज, शिक्षा, संस्कृति और संस्कार तुम्हें अधिक-से- अधिक भयभीत बनाते हैं। तुम कोई भी जोखिम नहीं उठा सकते और हर चीज जो सुन्दर है, वह जोखिम भरी है-। प्रेम करना एक जोखिम भरा काम है। जीवन जीना बहुत बड़ा जोखिम उठाने जैसा है। परमात्मा को पाना बहुत बड़ा खतरा है और वह सबसे जोखिम भरा काम है। तुम गणित के द्वारा उस तक नहीं पहुंच सकते, केवल सबसे बड़ा जोखिम उठाते हुए और जो कुछ भी तुम्हारे पास है उसे दाँव पर लगाने के बाद ही कुछ हो सकता है। तुम उस अज्ञात को जानते भी नहीं, ज्ञात के लिए तुम खतरा उठाते हो और अज्ञात जिसे तुम जानते नहीं, उसके लिए...? व्यापारी मन कहेगा--
 ‘‘ तुम क्या कर रहे हो? जो कुछ तुम्हारे पास है, उसे तुम उसके लिए खो रहे हो जिसे कोई भी -नहीं जानता कि उसका अस्तित्व है भी या नहीं? जो कुछ हाथ में है, उसे सुरक्षित रखो और अज्ञात के लिए चाह मत करो। ‘‘
योद्धा मन कहता है-’‘ जो ज्ञात है उसे पहले ही जाना जा चुका है, अब उसमें कुछ भी नहीं है। वह तो एक भार बन गया है, उसे व्यर्थ में ढोना क्या? अब अज्ञात को जानना ही जरूरी है और उस अज्ञात के लिए ज्ञात को जोखिम में डालना मेरे लिए जरूरी है। ‘‘
यदि तुम पूरा जोखिम ले सकते हो, बिना कुछ भी सुरक्षित रखते हुए बिना अपने साथ छल किए हुए बिना किसी चीज पर पकड़ रखते हुए तभी अचानक अज्ञात तुम्हें चारों दिशाओं से घेर लेता है और जब वह आता है तो तुम सजग हो जाते हो कि वहन केवल अज्ञात है, वह जाना ही नहीं जा सकता। वह ज्ञात के विरोध में नहीं है, वह जानने के भी पार है।
अंधेरे में आगे बढ़ने के लिए अनजाने स्थान की ओर किसी नकशे और बिना पथ चिह्नों के अकेले ही उस परम सत्ता की खोज में यात्रा करने के लिए एक योद्धा के ही गुणों की आवश्यकता होती है।
तुममें से बहुतों के पास अब भी वह थोड़ा-सा गुण बचा हुआ है क्योंकि तुम सभी कभी एक बच्चे थे, तुम सभी कभी एक योद्धा थे और तुम सभी उस अज्ञात के स्वप्न देखते थे। तुम सभी में वह बचपन अभी भी कहीं छुपा हुआ है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकता वह अभी भी तुम्हारे अस्तित्व के किसी कोने में मौजूद है। उसे क्रिया शील होने की अनुमति दो, बच्चे जैसे बन जाओ,तब तुम फिर से योद्धा बन जाओगे। मेरे कहने का यही तात्पर्य है।
निराशा का अनुभव करने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि तुम एक दुकान चलाते हो तुम एक व्यापारी हो। निराशा का अनुभव करो ही मत, तुम तभी एक योद्धा बन सकते हो। जोखिम उठाना एक बच्चे जैसे मन का ही गुण है। जो सुरक्षित है-वह उसके पार जाने पर विश्वास करता है।

आज के लिए इतना काफी है।


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