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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

ओशो मिस्टिक रोज़) पूना आवास –(भाग-01)

मधुर यादें-( ओशो मिस्टिक रोज़)




पूना आवास –(भाग-01)

इस बार लम्‍बे अंतराल के बाद पूना जाना का सौभाग्‍य हुआ। पिछली बार पूना 2018 में शायद सितम्बर माह में गया था। उस के बाद कुछ ऐसा घटा की पूना जाने का अवसर आया ही नहीं। ओशो से जुड़ने के बाद ये मेरे जीवन में पहली बार है, जब इतने दिनों तक पूना नहीं जा पाया। वरना तो काम करते हुए भी हर साल पूना तो जाना ही होता था। और अब तो सब कामों से मुक्‍त हूं। फिर भी जीवन में ऐसा अंतराल आना एक अनहोनी जैसा लग रहा है। असल में हमारा मन अपने को बचाने के नये-नये बहाने तलाश लेता है। क्‍योंकि पूना में इस बीच कुछ ऐसा घटा पहले तो करोना काल, फिर स्वीमिंग पूल बेचने वाली बात। जिससे मन बहुत आहत हुआ था। क्‍योंकि मेरा सबसे अच्‍छा ध्‍यान तैरना ही होता था। अब जो वहां पर नहीं था। इसलिए मैंने निर्णय लिया की जब तक तरूण ताल खुल नहीं जाता तब तक पूना नहीं जाऊंगा। परंतु अंदर से एक तड़प थी। इस सब में सहयोग दिया बेटी ने। की पापा आप को पूना जाना ही चाहिए। मैं मम्‍मी के पास हूं। इस बीमारी में आप 6-7 साल से मम्‍मी के पास हो। तो अब आप के लिए तो पूना जाना अति अनिवार्य है। अब मेरे पास इस का कोई उत्‍तर नहीं था। सच कहूं तो मैं खूद ही जाना चाहता था। क्‍योंकि बेटी ने 1999 में मिस्‍टिक रोज किया था। लेकिन हम खूद 35 साल से ओशो से जूड़े रहे फिर भी नहीं कर पाये थे। तब बेटी ने कहां की पापा सब ध्‍यान-ध्‍यान है परंतु मिस्‍टिक रोज कोई ध्‍यान नहीं है। वह अंतस के चित की गहराई में उसकी सफाई करता है। ये ध्‍यान एक प्रकार की थेरेपी है। आप को और मम्‍मी को तो इसे बहुत पहले कर लेना चाहिए था। अब आप की कोई बात नहीं सूनी जायेगी और उसने मार्च माह के लिए मेरी बुकिंग कर दी।

मिस्‍टिक रोज हर माह पूना में 11 तारीख को शुरू होता है। सच मोहनी की बीमारी ने तन मन को बहुत थका दिया था। इतने सालों से बाहर खूले में निकलने का मोका भी नहीं मिला था। जब भी बाहर जाना होता था तो मोहनी के स्‍वास्‍थ के लिए ही बाहर जाना होता था। मन में एक भय और उमंग एक साथ था। पहली बार ऐसा होगा की पूना में पूरा एकांत वास होगा। अंदर रहने का एक अलग ही अनुभव था।

हां वैसे तो अंदर पहले भी पूना में रह चूका हूं, परंतु पिछली बार उसके साथ कार्य ध्‍यान भी था। तो काफी समय तो कार्य ध्‍यान करने में ही गुजर जाता था। परंतु इस बार कोई कार्य नहीं पूर्ण अपने साथ जीने का आनंद था। तीस दिन पूना और एक सप्ताह मेहेराबाद मेहेर बाबा के आश्रम जो (अहिल्‍यानगर) अहमदनगर महाराष्ट्र में ही है। जो पूना के अति पास ही है। दोनों स्‍वर्ग तुल्‍य अवसर एक साथ। क्‍योंकि पूना में तीस दिन में 21 दिन तो ध्‍यान के 3/30 मिनट तो मिस्‍टिक रोज ध्‍यान के लिए। फिर उसके बाद कुंडलिनी और संध्‍या सतसंग अति जरूरी होता है। वैसे तो सुबह का डायनामिक ध्‍यान (सक्रिय ध्‍यान) भी करना अति आवश्यक होता है। परंतु इस समय मैंने सक्रिय ध्‍यान को करना छोड़ कर सुबह घूमने को चूना। क्‍योंकि घूमने में या चलने से मेरा होश सबसे अधिक बढ़ता था। क्योंकि जब हम होश से चलते है तो प्रत्‍येक होश से रखा कदम आपका होश बढ़ता है। सब लोग सोचते है कि भगवान बुद्ध का विपश्‍यना ध्‍यान बहुत से लोगों को जगा पाया। इसलिए लोग विपश्‍यना ध्‍यान की और अधिक अकृषित होते है। परंतु एक या दो घंटे के विपश्‍यना से कुछ होने वाला नहीं है। भगवान के भिक्षु तो पूरा दिन विपश्‍यन में ही डूबे होते थे। उनका चलना, बैठना, खान, भिक्षा....पथ के कांटे, मार्ग के कंकड़ पत्‍थर या कठिनाई या हो सकता किसी का किया अपमान या सम्‍मान सब विपश्‍यना का ही अंग होता था। इसलिए ये ध्‍यान अधिक लोगों को बुद्धत्व दे सका। खेर।

जैसे-जैसे पूना जाने का समय नजदीक आ रहा था, तो मन में एक प्रकार की खुशी एक उमंग के साथ एक प्रकार की घबराहट भी हो रही थी। कितनी ही बार पूना गया हूं परंतु इस बार का जाना कुछ अलग ही लग रहा था। आखिर वह तारीख आ गई जब घर से पूना के लिए निकल पड़ा। असल में जिस तरह से प्रत्‍येक माह की 11 तारीख से ये ध्‍यान शुरू होता है और तीस दिन का आपके पास अंदर रहने का समय होता है। तब मैंने उसे कुछ दिन पहले जाने का समय चूना। यानि ध्‍यान से तीन चार पहले। ताकि ध्‍यान से पहले और ध्‍यान के बाद भी एकांत वास मिल जाये। पहले तैयार और फिर ध्‍यान खत्‍म होने के बाद उसकी उर्जा को एक विश्रांति काल दिया जा सके। अब क्‍योंकि मैंने पहले वहां रह कर कार्य ध्‍यान किया हुआ था। इस लिए मैं एक दिन पहले यानि पाँच की श्‍याम को वहां पहुंच गया। तो मेरा अस्थायी कार्ड बना रखा था। पहले कार्य ध्‍यान करने से एक रात अधिक मुझे मिल गई। अंदर सुंदर साऊंड प्रूफ़ कमरा। जिसमें 5 स्‍टार की सब सुविधा थी। एक पानी की बोतल एक जूस का काटरेज, और एक बिस्‍किट रखा था। पानी तो मैंने पिया परंतु बिस्‍किट मुझे नहीं भाता इस लिए उसका तो मैंने कभी उपभोग किया ही नहीं। उसे एक काम वाले मित्र को दे दिया। अगले दिन सुबह मैंने अपना कार्ड बनवाया। 

जहाज से पूना जाते हुए केवल दो घंटे लगे। परंतु मार्ग के दृश्‍य देखते हुए कितना अजीब लग रहा था। एक लम्‍बी पर्वत श्रृंखला जो दिल्‍ली से शुरू हो कर दूर तक चलती रही। मार्ग कितना उबड़ खाबड़ व बीहड़ था और साथ-साथ अति कठिन भी था। परंतु सोच रहा था मुगल लड़ने के लिए जब मराठों के पास जाते थे तो इसी मार्ग को चुनते थे। कितना कठिन था और कितना समय लगता होगा। मार्ग में कितना तुम इस फौज के साथ चल पाते होंगे। और मार्ग में जितने भी लोग गांव आते होगे उन्‍हें तो तुम बहुत सताते होगे। तुम्‍हें भोजन पानी। सब वहीं से तो छिन झपट कर लेना होता होगा। लो देखो न खूद चैन से जी सकते है और न दूसरो को जीने दे सकते है। परंतु आसमान से अपनी धरा कितनी सुंदर लगती है। जब हम दूर से किसी वाहन को चलते देखते है तो उसकी दूरी के कारण वह कितना सहज चलता दिखता है। मानो चींटी रेंग रही है। आखिरकार 6 बजे में पूना पहुंच गया। कितना अपना-अपना सा लग रहा था। अंदर से बेटी को और मोहनी को धन्‍यवाद दे रहा था की तुमने मुझे यहां भेजा। मेरी जिद एक बच्‍चे के जैसी थी। तुमने उसे नकारा ही नहीं दिया उसे अनसुना भी कर दिया।

मनसा -मोहनी 

ओशोबा हाऊस दसघरा

नई दिल्‍ली

 

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