मधुर यादें-( ओशो मिस्टिक रोज़)
पूना
आवास-(भाग-04)
ध्यान का समय तीन घंटे था। मन अब भी
बार-बार अपना जाल बून रहा था कि देखा मैंने तो पहले ही कहा था की ये तुम से नहीं
हो सकेगा। चले थे तीन घंटे हंसने। मन की जहां मृत्यु की संभावना होती है वह अपने
बचाव के लिए तुरंत कोई नया नाटक शुरू कर देता है। साधक को हमेशा इस बाता के प्रति सजग रहना चाहिए। जो मन
हमारा सहयोगी हो सकता है वहीं हमारा सबसे बड़ी बाधा ही नहीं दुश्मन भी है। मन
से ही मनुष्य कहलाता है और वह अंतिम समय तक अपना प्रभुत्व
छोड़ना बिलकुल नहीं चाहेगा।
ध्यान में अधिक साधक नहीं थे, और उन में से भी कुछ तो लेट कर सो गये। क्योंकि हंसना रोना एक संप्रेषण है ये फैलता है। एक दूसरे को प्रभावित करता है, एक आदमी हंस रहा है या रो रहा है या उदास है तो आप पास भी उसकी तरंगे प्रभावित कर रही होती थी। परंतु ध्यान कराने वाले कॉर्डिनेटर "समन्वयक" या "ताल-मेल बैठाने वाला इस विषय में तटस्थ थे। जब आप ताकत लगा कर ध्यान नहीं करना चाहते तो आपके साथ कोई जबरदस्ती नहीं है। परंतु कुछ साधक हंसने का पूर्ण प्रयास कर रहे थे। खास कर ध्यान कराने वाले तो अपने उपर पूरी ताकत लगा कर ध्यान में डूबने की कोशिश कर रहे थे।
मेरे थोड़े ही प्रयास के बाद अंदर से एक हंसी
की लहर उठने लगी। देखते ही देखते वह और
अधिक गहरी होती जा रही थी। मन ने जो भय दिखाया था वह अब मिट रहा था। क्योंकि
थोड़े ही प्रयास से हंसी फूट रही थी। परंतु इससे अंदर एक खूला पन लग रहा था। ध्यान
खत्म होते-होते वह और अधिक विस्तार ले रही थी। ध्यान
खत्म करने का पता इस से लगा की कॉर्डिनेटर ने जोर से ‘’या
हूं’’ शब्द का उद्घोष तीन बार किया गया। फिर उसके बाद सब
लोग विश्राम की स्थिति में बैठ गये, एक ओशो का एक प्रवचन
फिर सूनाया गया। जिस में ओशो मिस्टिक रोज ध्यान के विषय में ही बोल रहे थे। और
फिर सब लोग उठ कर जाने लगे। तब तक एक बज चूका था। विश्वास नहीं हो रहा था की तीन
घंटे गुजर गये।
अगले दिन तो हंसना एक दम से खेल हो गया आज
हंसी अपने दूसरे ही आयाम में जा रही थी। कभी-कभी तो वह इतनी अधिक गहरी हो जाती थी
जो मैंने अपने जीवन में कभी नहीं हंसी थी। अजीब बहाव था हंसी का। परंतु एक बात आज
बदली थी की जो लोग हंस नहीं रहे थे। या सो रहे थे वो आज पूरी कोशिश कर रहे थे।
आखिर इतने पैसे दे कर अगर कोई सो रहा है तो उसे अंदर से एक दूख तो होगा ही कि फिर
यहां आया क्यों। क्योंकि हमारा मन एक व्यापारी भी है वह हर बात में नफा नुकसान
भी हमें देखता रहता है। हँसना एक खेल सा हो रहा
था उसके अलावा मन में एक प्रसन्नता की लहर भी उठ रही थी। आज बहुत अच्छा
लग रहा था मानो अंदर का एक स्पेश खुल रहा है। ध्यान खत्म होने के बाद कहां गया
की 2-30 मिनट पर सब लोगों को राधा होल -01 में आना है। इस का मतलब था की आज नाद
ब्रह्मा ध्यान नहीं किया जा सकता। आज राधा हॉल
में मीटिंग थी ध्यान के विषय में।
राधा हाल में पहले तो एक ओशो का विडियों
प्रवचन सूनाया गया। फिर उसके के बाद अगर ध्यान के संबंध में कोई परेशानी या
जिज्ञासा हो तो आप अपना प्रश्न पूछ सकते हो। कुछ मित्रों ने प्रश्न पूछे परंतु
मेरे प्रश्न तो सालों पहले ही खत्म हो गये थे। अध्यात्म जगत में प्रवेश से पहले
मैं बहुत बहस करता था। कितने ही धर्म गुरुओं के साथ तर्क वितरक किया, राधा-स्वामी, सतपाल जी महाराज, ब्रह्म कुमारी....आदि-आदि। परंतु ओशो से जुड़ने के बार मन मानो कोरी
स्लेट हो गया। हजारों प्रश्न बिना पूछे ही खत्म हो गये। मानो वह एक बुलबुल थे।
जो क्षण हवा या धूप का संग पा कर खत्म हो गये हो। इस बात के लिए में अपने आप को दुनिया
का सबसे अधिक भाग्य शाली मनुष्य मानता हूं। और अंत में जब सभा खत्म हुई तो हम सब
को एक-एक मिस्टिक रो पुस्तक उपहार में दी गई।
ये नियम सालों से चल रहा है। बेटी कभी 1999 में भी जब मिस्टिक रोज ध्यान
कर के आई थी तब उसे ये पुस्तक मिली थी।
इसके बाद हर रोज हंसी अपने नये-नये तलों की
और बढ़ने लगी। और मैं उस में सहयोग ही दे रहा था। कितना सूखद लगता है जब आप तन और मन
आप का नहीं रहता। आप दूर से उसे निहार रहे होते है। शरीर पर जो हंसी फूट रही थी। में
उस का साक्षी और सहयोगी भर था। के उस घटते हुए देख रहा था। केवल दर्शक मात्र बन कर
रहना भी अपने आप में कितनी पूर्णता दे रहा था। न तो शरीर पर कोई जोर या तनाव था।
इतना खुल कर हंसों जिस हंसी को सारी पुत्र ने – उस छठवीं हंसी को कहा था‘’अतिहंसिता’’
। सबसे तेज शोर भरी हंसी। जिसके साथ पूरे शरीर की गति जुड़ी रहती
है। शरीर ठहाकों के साथ दुहरा हुआ जाता है, व्यक्ति हंसी से
लोट-पोट हो जाता है। ‘’
सच इस हंसी को में अपने से बहते देख रहा था।
और साथ सहयोग था ध्यान कराने वाला स्वामी ‘नदीम’ जी का क्या तार तन्मयता हो रही थी। हम दोनों की जहां से मेरी हंसी
विश्राम लेती वही से स्वामी नदीम जी की हंसी का फव्वारा फूट पड़ता कितना अच्छा
या सहयोग मिल रहा था। वो हमें ध्यान करा रहा थे। परंतु पूरी ताकत के साथ खूद भी
ध्यान कर रहे थे। ये उनके लिए भी स्वर्णिम अवसर था जिस का स्वामी नदीम और मा स्नेहा
सद उपयोग कर रहे थे। सच ही जीवन में वो सब घट रहा था जिसकी मन कभी कल्पना ही नहीं
कर सकता था।
इतना सरल और सहज हो गया ये सप्ताह ऐसे गुजर गया की मानो अभी तो शुरू हुआ है। और सात
दिन पलक झपकते ही गुजर गये। मन भी कैसा है। आज वह दिखा रहा है कि काश ये कुछ और
लम्बा हो जाये तो कितना सुखद हो। मन भी कितना चालाक है। जब उसकी नहीं चली तो वह
आपको एक और वासना में उलझा देगा। ठीक है अच्छा लग रह है सूखद लग रहा है। परंतु मैंने
मन की तब भी कहां सूनी और आज भी उसे केवल देख रहा हूं। इस प्रत्येक क्षण को पूर्ण
उपयोग किया है। और उसका फल भी साथ-साथ मिल रहा है। फिर मन का ये जाल बुनता हुआ देख
कर, मैं अंदर ही अंदर हंस रहा था। वाह रे प्यारे मन तुं भी एक चमत्कारी है तुझे
समझना अति कठिन है।
परंतु ये बात सत्य ही तो थी की लग रहा था
की तीन घंटे बहुत कम थे। यहां हंसना सब एक खेल की तरह गुजर गया। इस सब में शरीर ही नहीं मन और मस्तिष्क कितना
हल्का हो गया था। मानो कि वो वहां है ही नहीं। मानो जहां आप रह थे, उस कमरे में बहुत सा कबाड़ भरा हो और आप उसे अपनी पूंजी समझ कर सहेज हुए
है। और अचानक आज आपने उसे बहार फेंक दिया कबाड़ समझ कर। फिर उसके बाद वहीं कमरा आज
अपना विस्तार ले के एक हाल कमरा लग रहा हो। हालाँकि उसकी दीवारें उतरी है परंतु
उसका खाली पन ही उसका विस्तार बन गया है। यहीं तो ध्यान में होता है और होना ही चाहिए।
गोरी शंकर ध्यान-
श्याम के बाद अकसर में खाना नहीं खाता था।
परंतु हर मंगल वार समाधि पर गोरी शंकर ध्यान होता था। उसे करने के लिए मैं जरूर
जाता था। वरना तो अपने कमरे में ही बांसुरी आदि बजा कर सो जाता था। मेरा सालों से
प्रिय ध्यान गोरी शंकर है जो मैंने बहुत कम किया है। सच तीसरी आँख के लिए वह ध्यान
बहुत उपयोगी है। उस ध्यान के भी चार चरण है। पहले चरण में आप स्वांस को नाक से
ले कर अपने शरीर में भरेंगे। फिर उसे कुछ समय तक रोक कर रखेंगे। फिर मुख से पूरी
स्वांस को निकालेंगे। फिर रोक कर रखेंगे। यानि की योगियों ने इसे कुंभक रेचक और पूरक
कहा है। इस के साथ-साथ ड्यूटर ने जो संगीत बजाया है वह चमत्कारी है। क्योंकि आपने
देखा की इस स्वांस पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। वह एक लय और तारतम्यता के साथ
चलती ही रही है। कभी दौड़ते हुए तेज या ध्यान में मध्यम हो जाती है परंतु उस पर हमारा
कोई अधिकार नहीं। परंतु इस रेचक कुंभक और पूरक में हम उस के मालिक हो जाते है। तब
हमारा शरीर और मन बहुत विषमय से भर जाता है कि आज ये क्या हो रहा है। कभी जब आप
स्वांस को रोकते है तो उसे लगता है अब मरा। तब आपके अचेतन में दबी उर्जा को वह
विस्तार देना शुरू कर देता है। आप अंदर जब अपने आप को देख रहे होते हो तो आप का
शरीर एक विशाल से विशाल तर होता हुआ महसूस होगा मानो आप गोरी शंकर पर्वत की तरह
उंचाई विस्तार पा रहे हो। इस लिए ही शायद इस ध्यान का नाम ओशो ने गोरी शंकर रखा
होगा।
दूसरा चरण और भी चमत्कारी है। एक ताल शुरू
हो जायेगी और अंधेरे बंध कमरे में एक नीली जलती बुझती लाईट को आप एक टक देख रहे
हो। वहां कोई सोच विचार नहीं केवल देखना भर होना है। और इस के साथ जो ताल बज रही
है। वह हमारी धड़कन की 2/3 लय है। जिस धड़कन को हम
मां के पेट से ही सुनते आ रहे है। वह इस ताल के माध्यम से पहली बार टूटती है। जिसे
आपके विचार आपके शरीर से आपकी दूरी सहज बढ़ती चली जायेगी। आप सहजता से न चाहते हुए
भी अपने आप को अपने शरीर से दूर और दूर होता हुआ पाओगे। कितना खूला व हलका पन आप
महसूस करोगे। आप निर्भार हो कर एक हल्के एक फैदर या एक रूई सा बन जाओगे। जिसके
साथ चेतना एक उड़न भी ले रही होगी। ओशो के
इस ध्यान और संगीत कोई साधारण नहीं है। वैसे तो ध्यान के लिए बना हर संगीत अपने में
एक रहस्य समेटे हे। किसी भी ध्यान के संगीत
को ले लो। सब एक विज्ञान की विधि से तैयार किये हुए हे।
इसके बाद तीसरा चरण शुरू होता है। आप खड़े
हो जायेगे। आंखें बद कर लेंगे। और बहुत धीरे-धीरे शरीर के अंदर उठती उर्जा के साथ
ताल मेल बिठाने की कोशिश करे। जिसे लतिहान शब्द कहां गया है। एक प्रकार से तो ऐसी
मुद्रा। जो आपकी उर्जा को सहयोग देर ही हो। साथ में इतनी सहज की आप उसे अपने शरीर
पर होता हुए दखे रहे हो। यानि की हम होश पर जब कार्य करते है। मध्य गति ही हमें सहयोग
करती है। बहुत तेज गति पर भी होश रखना अति कठिन हे। इसी तरह से अति सहज गति पर भी
होश रखना अति कठिन है। इसे आप सहज नृत्य भी कह सकते जितना सहज अपने शरीर की गति को
होता हुआ होने देंगे। उतना ही आपके अंदर एक होश और आनंद का विस्तार हो रहा होता
महसूस करेंगे। इस विधि को ओशो ने नाद ब्रह्मा ध्यान में भी उपयोग किया गया है। जब
हम दूसरे चरण में हाथों से उर्जा दे या ले रहे होते हे। तो अति सहज होश पूर्ण आप अपने
हाथों की गति पर होश रख कर उर्जा को दे या
ले रहे होते हो।
फिर इसके बाद चौथे चरण में आप लेट जायेगे। शरीर
को गति हीन अवस्था में छोड़ कर देखते भर रहेंगें।
फिर इस के बाद मुझे जिस कार्य में सबसे अधिक
आनंद आता हे। वह है कार्य ध्यान। क्योंकि ये अंतिम ध्यान है और रात के 10-45 का
समय हो चूका होता है। सब काम करने वाले तो जा चूके होते है। इस ध्यान के लिए जो
गद्दे अधिक समाधि पर बिछाए होते हे। उन्हें उठना होता है। और उसे रखना होता हे।
ओशो के बाथ रूम में वहां की उर्जा का आनंद लेंगे के लिए मैं हमेशा तैयार रहता हूं।
मैं अंदर जाकर खड़ा हो जाता हूं। सब मित्र गण एक-एका गद्दे को ला रहे होते हे।
करीब चालीस-पचास गद्दे होते हे। इस लिए मेरा विरोध कोई नहीं करता। मेरा लम्बा कद यहां बहुत काम आता है। क्योंकि
उन गद्दों की उंचाई एक दूसरे पर रखते-रखते करीब सात फिट तक हो जाती है और उसमें ताकत
भी लगती है। परंतु मैं तो इस सब का आनंद लेता हूं। सब तो नहीं जानते की ये ओशो का
बाथरूम है। हमने तो इसे 1994 में ही देखा था। फिर अंदर कुर्सियों को बिछाने में
जाकर सहयोग करता हूं। कयोंकि काम करने वाले तो सुबह सात बजे के बाद ही आते हे। और सुबह
7-30 पर ध्यान शुरू हो जाता है। इस लिए ये एक मात्र कार्य ध्यान है जिसे आज भी
सन्यासी या ध्यान करने वाले कर सकते हे।
तब तक रात के ग्यारह बज चूके होते हे। फिर
कमरे में जाकर अति गहरी नींद आती है। हर दिन एक नया उत्साह और उन्माद ले कर आ रहा
था।
मनसा-मोहनी दसघरा
ओशोबा हाऊस दिल्ली
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