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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

ओशो मिस्टिक रोज़) पूना आवास –(भाग-03)

मधुर यादें-( ओशो मिस्टिक रोज़)
 

पूना आवास-(भाग-03 )

(उपसंहार)

जीवन काल में ओशो से जुड़ने के बाद 35 साल की यात्रा जो की है। उस का अगर निचोड़ निकाला जाये तो आज गुजरे ओशो मिस्‍टिक रोज के 35 दिन बहुत भार पड़ रहे है। जैसे पूरे जीवन के ध्‍यान में जो मक्खन निकल रहा है। ये उसी का नतीजा है। मैं ऐसा बिलकुल नहीं कहा रहा की उन 35 सालों में ध्‍यान में कुछ गति नहीं हुई। वह तो हर पल, हर दिन नया आकाश नया आयाम देती ही आ रही है। परंतु अब कुछ ऐसा मिला है जिस न तो मन समझ पा रहा है और न ही मस्‍तिष्‍क उसकी व्याख्या कर पा रहा है।

ओशो मिस्‍टिक रोज- उर्जा का कमाल है, मानव शरीर का सबसे महत्‍व पूर्ण अंग अगर कुछ है तो वह नाभि है, हम जीवन नाभि से ही प्राप्त करते है। मां के पेट में हम न तो भोजन लेते है, न ही हमारा दिल ही धड़कता है। फिर भी जीवन अपनी गति बनाये रखता है। इस लिए जीवन के बाद भी हम जो भी दबाते है, वह नाभि में ही एक भय के रूप में जमा होता चला जाता है। जिस प्रकार हमें जीवन नाभि देता है उसी प्रकार नाभि ही हमें मृत्‍यु को केन्द्र भी है।

परंतु एक बात का प्रत्‍येक साधक को ख्‍याल रखना चाहिए,  कि जब आप समुद्र में उतर गये तो आपके साथ साहास का होना अति अनिवार्य है। मेरा मानना है कि कम से कम साधक को चार पाँच साल गहरा ध्‍यान का अनुभव मिस्‍टिक रोज आपको एक नये आयाम में ले जाने में सहयोगी हो सकता है। असल में ये कोई ध्‍यान नहीं है, ओशो की बनाई गई सभी थेरपियों में सबसे कारगर थेरपी है। जिस साधक को कम से कम एक बार तो करना ही चाहिए। ध्‍यान में तैराना अपना एक अलग ही गति देता है। जिस प्रकार आप सागर के किनारे पर तैरते है तो अधिक लहरे अति रहती है। वहां जरा भी विश्रांति काल नहीं है। अगर आप और गहरे चले जाते रहते है तो सागर उतना ही शांत होता चला जाता है।

आखिर 11 मार्च आ गई, दिल की धड़कन थोड़ी तेज थी। पहला चरण, हंसना वह भी तीन घंटे, हमारे इस ग्रुप में केवल ग्यारह ही लोग थे जिसमें छ: लड़कियां और पाँच पुरूष हां विदेशी मित्र अधिक थे, हम भारतीय केवल चार ही थे। इस तरह से ध्‍यान के लिए केवल 13 मित्र हो गये। यानि दो "कोऑर्डिनेटर" यानि ध्‍यान करने वाले। एक नदीम और दूसरा स्‍नेहा। 9/30 बजे का समय था। अंदर ओशो समाधि में पूरे फर्श पर सफेद चादर बिछी थी। क्‍योंकि ओशो समाधि पर फर्श को छूना मना है। अलग-अलग गद्दे बिछे थे जिसके साथ सफेद चादर थी। वैसे तो सब को अपनी मैरून शाल लाने के लिए कहां गया था। क्‍योंकि तीन-चार घंटे ऐसी में रहने के कारण ठंड भी लग सकती थी। सब का कीमती सामान एक ट्रे में रख दिया। हां पानी की बोतल एक सब को लाने के लिए कहां गया था। और अधिक से अधिक पानी पीने के लिए हिदायत थी। मैंने तो उसमें ओ आर एस को घोल भी मिला लिया था।

भगवान का नाम लेकर आंखें बंध कर ली। एक मधुर संगीत बजने लगा और सब को आनंद भाव के साथ नृत्य करने के लिए कहां गया। 10-15 मिनट तक सब मित्र गण नृत्य में डूबे रहे। फिर सब बैठ गये कुछ इंस्‍टेक्‍शन (निर्देश) दी की जब आप की हंसी रूकने लगे तो जोर से एक मंत्र अपने अंदर बोले..या हूं’…. फिर कहां गया की आप ध्‍यान के समय आंखें खोल भी सकते है, और बंध भी कर सकते है। किसी को कोई छूएगा नहीं। सब अपने स्‍पेश में रहेंगे। हां इसारे से एक दूसरे को हंसने में सहयोग दिया जा सकता है। परंतु बोलना एक दम से मना था। कहां गया था की जब चाहे आप वॉशरूप का उपयोग कर सकते है। उसके लिए कोई समय निर्धारित नहीं था। 

फिर एक ओशो का प्रवचन लगाया गया। जो मिस्‍टिक रोज ध्‍यान से ही संबंधित था। ओशो जी की आवाज मुझे ऐसी लगती है जैसे कोई पक्षी दूर डाल पर बैठ कर गान कर रहा हो। अकसर में शब्‍दों को नहीं सुनता। ये मेरे जीवन के मधुर क्षण होते है। ओशो की पुस्तकों पर काम तो आज लगाता रोज ही करता हूं परंतु ओशो जी की पुस्तक को बैठ कर नहीं पढ़ता। ये करीब 25 साल से केवल प्रवचन सुनता हूं। और फिर ध्‍यान के लिए एक मधुर घंटी बजी सब लोग खड़े हो गये और जोर से एक उद्घोष किया या हूं और हंसी की लहर दौड़ गई सब अपनी जगह पर बैठ कर हंसने लगे। पहले तो एक कोशिश करने पड़ी। हंसी एक उथली ही कर रहा था। बार-बार आंखें बंद कर के या हूं बोलता तो कुछ हंसी आती। परंतु जिसे हंसी कहना चाहिए वह नहीं।

 हंसी कि छ: कोटियां

   ओशो ने जीवन में उदासी को कभी महत्व नहीं दिया। न ही उदास सन्यास ही उन्हें स्वीकार था। उसने अपने सन्यासियों को हमेशा कहां की जीवन को पूर्णता से हंसते हुए जीओ। भगवान बुद्ध ने एक बार सारिपुत्र से कहां की तुम हंसी पर ध्‍यान के देखो और मुझे बतलाओ हंसी कितने प्रकार की होती है। सारिपुत्र ने पूरा विवरण बुद्ध भगवान को दिया। सारिपुत्र के पहले और सारिपुत्र के बाद कभी भी किसी ने हंसी को इतनी गहराई से नहीं समझा। सारिपुत्र ने हंसी के छह कोटियों में विभक्त किया। जिसमें हंसी की महिमा के सभी अच्‍छे और बुरे रूपों को वर्णन किया है। सारिपुत्र के सामने हास्य ने अपना पूरा रूप उद्घाटित कर दिया।

      1सिता

      2हंसिता

      3विहंसिता

      4उपहंसिता

      5अपहंसिता

      6अतिहंसिता

     पहली कोटि को उसने कहा सिता: एक धीमी लगभग अदृश्य मुस्‍कान, जो कि सूक्ष्मतम भाव  मुद्रा में अभिव्यक्त होती है। अगर व्‍यक्‍ति सचेत हो, तभी उस हास्य को देखा जा सकता है। सारिपुत्र ने उसे ‘’सिता’’ कहा।

      अगर तुम बुद्ध के चेहरे को ध्‍यान से देखो, तो तुम इसे वहां पाओगे। यह हंसी बहुत ही सूक्ष्म और परिष्कृत होती है। केवल एकाग्र चित होकर ही उसे देखा जा सकता है। वरना तो उसे चूक जाओगे, क्‍योंकि वह केवल भाव में अभी व्यक्त होती है। यहां तक कि ओंठ भी नहीं हिलते। सच तो यह है बाहर से कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता है: बस वह एक न दिखाई  पड़ने वाली हंसी होती है।

      शायद इसी कारण से ईसाई लोग सोचते है कि जीसस कभी हंसे ही नहीं, वह ‘’सिता’’ जैसी बात ही होगी। ऐसा कहा जाता है कि सारिपुत्र ने बुद्ध के चेहरे पर सिताको दिखा। यह बहुत ही दुर्लभ घटना है। क्‍योंकि ‘’सिता’’ को देखना सर्वाधिक परिष्कृत बात है। आत्मा जब उच्चतम शिखर पर पहुँचती है। केवल तभी सिता का आविर्भाव होता है। तब यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे कि करना होता है। तब तो कुछ ऐसा नहीं है जिसे कि करना होता है: तब तो यह बस होती है। और जो व्‍यक्‍ति थोड़ा भी संवेदन शील होगा वह इसे देख सकता है।

      दूसरी को सारिपुत्र ने कहा ‘’हंसिता’’ वह मुस्‍कान, वह हंसी जिसमें आठों का हिलना शामिल होता है और जो दाँतों के किनारे से स्पष्ट रूप से दिख रही होती है।

      तीसरे को उसने कहा, ‘’विहंसिता’’ एकदम चौड़ी खुली मुस्‍कान, जिसके साथ थोड़ी सी हंसी भी शामिल होती है।

      चौथे को उसने कहा है ‘’उपहंसिता’’। जोर दार ठहाके दार हंसी। जिसमें जोर की आवाज होती है। जिसके साथ सिर का कंधों का और बाँहों का हिलना डुलना जुड़ा होता है।

      पांचवें को उसने कहा ‘’अपहंसिता’’ इतने जोर की हंसी कि जिसके साथ आंसू आ जाते है।

      छठवें को उसने कहा ‘’अतिहंसिता’’ । सबसे तेज शोर भरी हंसी। जिसके साथ पूरे शरीर की गति जुड़ी रहती है। शरीर ठहाकों के साथ दुहरा हुआ जाता है, व्‍यक्‍ति हंसी से लोट-पोट हो जाता है।

      जब हंसी जैसी छोटी सी चीज पर भी ध्‍यान केंद्रित किया जाए तो वह भी एक अद्भुत और एक विराट चीज में बदल जाती है। कहना चाहिए कि पूरा संसार ही बन जाती है।

---ओशो

पतंजलि: योग-सूत्र (भाग—04)

प्रवचन—01


मनसा-मोहनी दसघरा

(क्रमश्‍य : अगले अंक में) 

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