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रविवार, 14 मार्च 2010

नारी: पुरूष की दासता से मुक्ति --भारत एक.......

      स्‍त्री पुरूष की छाया से ज्‍यादा आस्‍तित्‍व नहीं जुटा पाई है। इसीलिए जहां पुरूष होता है, स्‍त्री वहां है। लेकिन जहां छाया होती है वहां थोड़े ही पुरूष को होने की जरूरत है।
      स्‍त्री का विवाह हो, तो वह श्रीमती हो जाती हे। मैसेज हो जाती है, पुरूष के नाम की छाया रह जाती है। मैसेज फलानी हो जाती है। लेकिन इससे उल्‍टा नहीं होता कि स्‍त्री के नाम पर पुरूष जाता हो। अगर चंद्रकांत मेहता नाम है पुरूष का, तो स्‍त्री का कुछ भी नाम हो, वह श्रीमती चंद्रकांत मेहता हो जाती हे। लेकिन अगर स्‍त्री का नाम चंद्रकला मेहता है तो ऐसा नहीं होता कि पति श्रीमान चंद्रकला मेहता हो जाते हों। ऐसा नहीं होता, ऐसा होने की जरूरत नहीं पड़ती है। क्‍योंकि स्‍त्री छाया है। उसकी कोई अपना आस्‍तित्‍व थोडे ही है।
      शास्‍त्र कहते है, जब स्‍त्री बालपन में हो तो पिता उसकी रक्षा करे, जवान हो तो पति, बूढी हो जाए तो बेटा रक्षा करें। सब पुरूष उसकी रक्षा करे, क्‍योंकि उसका कोई अपना आस्‍तित्‍व नहीं है। रक्षितत्‍व तो ही वह है, अन्‍यथा नहीं है। जैन धर्म के हिसाब से नारी मोक्ष की अधिकारी नहीं है। उसे पुरूष की तरह जन्‍म लेना पड़ेगा। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर में एक तीर्थक स्‍त्री है। नाम था मल्ली बाई—उन्‍होंने उस का नाम बदल कर मल्ली नाथ कर दिया, क्‍योंकि वे कहते है कि नारी मोक्ष की उत्‍तराधिकारी नहीं है।
                दुनियां में मुशिकल से कोई धर्म होगा जिसने स्‍त्री को इज्‍जत दी हो। स्‍त्री मस्‍जिद में नहीं जा सकती। बस नारी का एक ही उपयोग है, जिसे स्‍वर्ग जाना हो वह नारी को छोड़ कर भाग जाए। पहली क्रांति नारी को इन तथा कथित धर्म गुरूओं के खिलाफ करनी होगी। सारी मनुष्‍य जाती अधूरी है। इसके भीतर कुछ कमी है। जो पूरी नहीं हो पाती, जीवन भर दौड़ कर भी प्रेम नहीं मिलता, प्रेम मिलता है समकक्ष से। और जब तक स्‍त्री पुरूष के समकक्ष नहीं होती तब तक स्‍त्री को प्रेम नहीं मिल सकता, वह तो दासी है। पति परमात्‍मा है, पूरब की हालत है दासी यों की और पश्चिम की  हालत तो और भी बदतर है। वहां औरत दिल बहलाने की वस्‍तु है जब चाह स्‍त्री बदली जा सकती है।
                यह पुरूष की दुनिया है, जिसमें गणित से सारा हिसाब लगा रखा है। इस दुनिया मैं स्‍त्री को कोई हाथ नहीं, अन्‍यथा यह दुनिया बहुत दुसरी होती। यहां गणित कम महत्‍व पूर्ण होता, ह्रदय ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होता। यह गणित से ज्यादा प्रेम का हिसाब होता। लेकिन वह नहीं हो सका, क्‍योंकि स्‍त्री के पास को आत्‍मा नहीं है। इसलिए स्‍त्री का कोई कंट्रिब्‍यूशन भी नहीं है इस संस्‍कृति के लिए, सभ्‍यता के लिए।
      और यह आदमी की बनाई हुई गणित की संस्‍कृति मरने के करीब पहुंच गई हे। अगर इस संस्‍कृति को बचाना है तो स्‍त्री को व्‍यक्‍तित्‍व देना जरूरी है। और स्‍त्री को व्‍यक्‍तित्‍व देने का अर्थ है: उसे पुरूष जैसा नहीं, स्‍त्री के ही अनुकूल क्‍या उचित हो सकता है। उसकी शिक्षा,
उसका प्रशिक्षण; उसके व्‍यक्‍तित्‍व का सारा उसका ही ढंग,ताकि एक नारी उपलब्‍ध हो सके। और वह नारी अगर उपलब्‍ध हो सकती है तो हम मनुष्‍य-जाति के जीवन में बहुत आनंद जोड़ सकते है। क्‍योंकि वह नारी न मालुम कितने अर्थों में जीवन का केन्‍द्र हे। 
      जोड़ ने लिखी है एक किताब और उस किताब में उसने लिखा है कि जब मैं पैदा हुआ, तो पश्‍चिम में होम स थे, घर थे। और अब जब मैं मरने के करीब हूं तो पश्चिम में सिर्फ हाउस ज रह गए है। होम बिलकुल नहीं। सिर्फ मकान रह गए है। घर कोई भी नहीं है।
      किसी ने जोड़ से पूछा कि तुम्‍हारा मतलब क्‍या है? होम और हाउस में फर्क क्‍या है।
      जोड ने कहा: कि जिस हाउस में एक नारी होती है उसको मैं होम कहता हूं और जिस हाउस में  नारी नहीं होती वह होटल हो जाता है, मकान हो जाता है।
      और पश्‍चिम में नारी खो गई है। पूरब में है ही नहीं। यह मत सोच लेना कि यहां है। यहां है ही नहीं। दसियों से घर नहीं बनते। लेकिन क्‍या किया जा सकता है।
      पहली बात, नारी को पुरूष से पृथक व्‍यक्‍तित्‍व उपलब्ध करना है। न उसे पुरूष का गुलाम रहना है और न पुरूष का अनुकरण करना है। नारी को अपने व्‍यक्‍तित्‍व की खोज  करनी है। और उसे स्‍पष्‍ट यह धोषणा कर देना है। कि हम स्‍त्री है और स्‍त्री ही रहेगी और स्‍त्री ही होना चाहेंगी। क्‍योंकि ध्‍यान रहे,हम जो होने को पैदा हुए है। जब वहीं हो जाते है, तभी हम आनंदित होते हे।  हम अन्यथा कुछ भी हो जाए आनंदित नहीं हो सकते। घास का फूल खिल जाए और फूल बन जाए तो आनंदित हो सकता है। अगर वह गुलाब को फूल बनाना चाहेगा तो मुश्‍किल शुरू हो जाएगी वह अपने स्वभाव से भटक जाएगा।
      आदमी अंतिम जगह आ गया है। पुरूष की सभ्यता कगार पर आ गई है। स्‍त्री का मुक्‍त होना जरूरी है। स्‍त्री के जीवन में क्रान्‍ति होनी जरूरी हे। ताकि स्‍त्री स्‍वयं को भी बचा सके और सभ्‍यता भी बचा सके। अगर स्‍त्री अपनी पूरी हार्दिकता, अपने पूरे प्रेम अपने पूरे संगीत, अपने पूरे काव्‍य, अपने व्‍यक्‍तित्‍व के पूरे फूलों को लेकर छा जाए तो इस जगत से युद्ध बंद हो सकते है। लेकिन जब तक पुरूष  हावी है दुनिया पर, तब तक युद्ध बंद नहीं हो सकते। वह पुरूष के भीतर युद्ध छिपा हुआ है।
      मां के पेट में जैसे ही बच्चा निर्मित होता है। तो चौबीस सेल मां से मिलते है और
चौबीस सेल पिता से मिलते है। पिता के सेल्‍स में दो तरह के सेल होते है। एक में चौबीस अरे एक में तेईस सेल होते है। अगर तेईस सेल वाला अणु मां के चौबीस सेल वाले अणु से मिलता है तो पुरूष का जन्‍म होता हे। पुरूष के हिस्‍से में सैंतालीस सेल होते है। और स्‍त्री के हिस्‍से में अड़तालीस सेल होते है। स्‍त्री की  जो व्‍यक्‍तित्‍व है यह सिमैट्रिकल है, पहली ही बुनियाद से। उसके दोनों तत्‍व बराबर है चौबीस-चौबीस।
      बायो लाजी कहती है कि स्‍त्री में जो सुघडता, जो सौंदर्य,जो अनुपात, जो परफोरशन है वह उन चौबीस-चौबीस के समान अनुपात होने के कारण है। और पुरूष में एक इनर टेंशन है। उसमें एक तरफ चौबीस अणु और दुसरी तरफ तेईस अणु है। उसका तराजू थोड़ा उपर नीचे होता रहता है। उसके भीतर एक बेचैनी जिंदगी भर उसे धेरे रहती है। वह कुछ उपद्रव करता ही रहेगा। इस टेंशन की वजह से वह कोई न कोई विवाद खड़े करता ही रहेगा। अगर पुरूष के हाथ में सभ्‍यता है पूरी की पूरी तो युद्ध कभी बंद नहीं हो सकते।
      यह जान कर आपको हैरानी होगी कि महावीर, बुद्ध, राम और कृष्‍ण को आपने दाढ़ी-मूंछ के नहीं देखा होगा। क्‍योंकि जैसे ही पुरूष को व्‍यक्‍तित्‍व धीरे-धीरे स्‍त्री के करीब आता है। वह जैसे हार्दिक होते है, वे स्‍त्री के करीब आने लगते है। मूर्ति कारों ने बहुत सोच कर यह बात निर्मित की है। उनका सारा व्‍यक्‍तित्‍व स्‍त्री के इतने करीब ओ गया होगा कि दाढ़ी-मूंछ बनानी उचित नहीं  मालूम पड़ी होगी। व्‍यक्‍तित्‍व इतना समानुपात हो क्या होगा।
--ओशो—नारी और क्रांति

4 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्री पुरुष की दासी है यह बात सभी कहते हैं और सतही तौर पर देखा जाये तो सही लगती है पर जाने क्यों कभी कभी मुझे लगता है की ये सब बकवास है। स्त्री खुद ही दासी बनना चाहती है। उसकी मानसिकता ही ऐसी है की उसे स्वतंत्रता चाहिए ही नहीं। जो स्त्री पुरुष को जन्म देती है और होश सम्हालने तक पालती है अगर चाहे तो क्या उसमे ऐसे संस्कार नहीं भर सकती की वो हमेशा स्त्री की इज्जत करे और उसे बराबरी का दर्जा दे। क्यों वही स्त्री अपने बेटे और बेटी में, लडके और बहु में भेद करती है। मैंने अनेकों पुरुषों को स्त्रियों द्वारा मानसिक रूप से प्रताड़ित होते देखा है। पुरुष शारीरिक अत्याचार करता है तो स्त्री भी मानसिक अत्याचार कर बदला ले लेती है। और शारीर की चोट से मन की चोट ज्यादा गहरी होती है।
    लगता है कुछ ज्यादा कह रहा हूँ अतः यहीं ख़त्म करता हूँ।

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  2. NAARI AUR KRANTi naamak qitaab mujhse kho gayi thi. dobara padhna sukhad anubhav hai.

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  3. आपने जिस स्त्रीत्व की बात की है, रेडिकल फ़ेमिनिज़्म भी वही बात कहता है कि नारी के गुण अधिक सहिष्णु होते हैं. पुरुषों के उग्र गुणों के कारण पृथ्वी पर युद्ध होते हैं, पर्यावरण का अनुचित दोहन होता है, दलितों का शोषण होता है. यदि नारी के गुणों को प्रधानता दी जाये तो इन सब खतरों से बचा जा सकता है. यही पर्यावरणीय नारीवाद है, जो आजकल तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. मैं आपके विचारों से सहमत हूँ. नारी में नरीसुलभ गुण होने चाहिये क्योंकि वे स्वाभाविक होते हैं. पर उन पर कुछ भी थोपने के विरुद्ध हूँ. यदि नारी में नारीसुलभ गुणों का विकास स्वाभाविक रूप से हो तो ठीक है और यदि न हों तो इन पर ये गुण थोपे न जायें.

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