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सोमवार, 8 मार्च 2010

अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष

                                              सन्‍यास के समय मनसा आनंद--1993-94
हिंदुओं ने चार पुरूषार्थ कहे है: अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष। काम है साधारण आदमी की वासना,और अर्थ है उसे भरने का उपाय। धन की हम आकांक्षा इसलिए करते है कि हमारी कोई कामनाएं है, जिन्‍हें पूरा बिना धन के न किया जा सकेगा। अगर धन है तो सुंदर स्‍त्री अपलब्‍ध हो सकती हे। अगर धन है तो तुम जो चाहते हो, वह तुम्‍हारे हाथ में हो सकता है, वहीं उपलब्‍ध होता है। अगर धन है तो तुम जो चाहते हो, वह तुम्‍हारे हाथ में हो सकता है। अगर निर्धन हो तो चाहते रहो, चाहने से कुछ भी नहीं होता। धन चाह को यथार्थ बनने में सहयोगी होता है।
      इसलिए एक बहुत मजे की बात है, तुम से धनी अतृप्‍त आदमी कहीं भी ने पाओगें। निर्धन को तो आशा रहती है, धनी की आशा भी मर जाती है। निर्धन को तो आशा रहती है—आज नहीं कल धन हाथ में होगा, तो कर लेंगे जो भी करना है—धन के पीछे दौड़ता रहता है। धनी के पास धन है। जो करना है, करने की सुविधा हे। लेकिन करने में कुछ अर्थ नहीं मालूम होता। इसीलिए धनी व्‍यक्‍ति अनिवार्यरूप अशांत, अतृप्‍त हो जाता है।
      तुम गरीब आदमी को पागल होते न देखोगे, अमीर आदमी को पागल होते देखोगे। अमीर मुल्‍कों में ज्‍यादा पागलपन घटता है। गरीब मुल्‍कों में मनोवैज्ञानिक अभी है ही नहीं। अभी मनोविश्लेषण है, बंबई में शायद एकाध कोई या पूना में एकाध कोई मनो विश्लेषक हो। लेकिन इस साठ करोड़ के मुल्‍क में तुम कहीं मनो विश्लेषक को न पाओगें। उसकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन न्‍यूयार्क में वह फैलता जा रहा है। उसकी संख्‍या उतनी ही होती जा रही है। जितनी कि शरीर के चिकित्‍सकों की है। संभावना तो यह है कि इस सदी के पूरे होते-होते मन के चिकित्‍सकों की संख्‍या ज्‍यादा होगी शरीर के चिकित्सकों से। क्‍योंकि शरीर के लिए तो सारी सुविधाएं पश्‍चिम में मलती जा रही है। और जितनी शरीर की सुविधाएं मिलती है। उतना मन पागल होता जा रहा है।
      मेरे देखे,अगर गरीब आदमी धार्मिक हो तो यह चमत्‍कार है। और अगर आदमी अमीर हो और धार्मिक न हो तो यह भी चमत्‍कार है। गरीब आदमी धार्मिक हो तो अपवाद-स्‍वरूप है। क्‍योंकि गरीब आदमी को अभी मन से मुक्‍त होने का मौका कहां मिला? अभी तो मन की पीड़ा भी उसने नहीं जानी। अभी तो आशा टूटी नहीं है। इसलिए गरीब आदमी जब कभी धार्मिक हो जाए, तो अपवाद-स्‍वरूप हे। धार्मिक आदमी अगर अमीर है तो बिलकुल स्‍वाभाविक है, ऐसा होना ही चाहिए। कोई एंड्रू कारनेगी, कोई रॉकफेलर, सब है उनके पास। जो खरीदना हो, सब खरीदा जा सकता है। जितनी मात्रा में खरीदना हो, खरीदा जा सकत है। जो खरीदा जा सकता है। खरीदने की क्षमता उससे ज्‍यादा है उसके पास। अब क्‍या करें?
      तो अगर धार्मिक आदमी अमीर हो तो साधारण बात है। होना ही चाहिए; गरीब हो तो असाधारण घटना है। और अमीर आदमी धार्मिक न हो तो बड़ी असाधारण घटना है। ऐसा होना नहीं चाहिए इसके दो ही अर्थ हो सकते है। या तो वह बुद्ध है या बुद्धू है, मूढ़ है ओर या फिर अभी ठीक से धनी नहीं हुआ है। आदमी ठीक से धनी हो और बुद्धि पास हो तो धार्मिक होने के सिवाय कोई उपाय नहीं हे। गरीब आदमी को धार्मिक होना हो तो बड़ी प्रखर प्रतिभा होनी चाहिए। अमीर आदमी को अगर धार्मिक होने से बचाना हो तो बड़ी प्रखर मूढ़ता चाहिए।
      भारत जब धनी था तो धार्मिक था। स्‍वर्ण-युग था भारत का बुद्ध-महावीर के समय में। शिखर पर था भारत दुनिया में, सोने की चिड़िया था, सारी दुनिया भारत की तरफ देखती थी। सारा धन जैसे यहां इकट्ठा था। उन घड़ीयों में हमने जो शिखर छुए धर्म के, फिर नहीं छू सके हम, फिर सपना हाँ गया सब।
      गरीब आदमी धार्मिक दिखाई भला पड़े, हो नहीं सकता। क्‍योंकि गरीब आदमी का अभी भी भरोसा अर्थ में है। अभी तो कामना ही पकड़े हुए हे। अभी तो जीवन की छोटी-मोटी जरूरतें पूरी नहीं हुई; धर्म तो जीवन की बड़ी आखिरी जरूरत है। कहते हैं, ‘’भूखे भजन न होए गोपाला।‘’ वह जो भूखा आदमी है, कैसे भजन करे? उसके भजन में भूख की छाया है। वह भजन भी करेगा तो रोटी ही माँगेगा। जब तक जीवन की छोटी जरूरतें पूरी हो जाती हैं, शरीर मन की दौड़ के लिए सब उपाय हो जाते है। तब अचानक पता चलता है कि यहां पाने  योग्‍य कुछ भी नहीं है। तो कहीं और है पाने योग्‍य, उसकी खोज शुरू होती हे।
      धर्म की यात्रा तभी शुरू होती है, जब अर्थ और काम की यात्रा व्‍यर्थ हो जाती हे।
      तो दो यात्राएं है इस जगत में,एक है—अर्थ,काम। अर्थ है साधन; काम है साध्‍य। फिर दूसरी यात्रा है—धर्म, मोक्ष। धर्म है साधन; मोक्ष हो साध्‍य। तो साधारणत: ऐसा समझा गया है। कि जिस आदमी को मोक्ष पाना हो, उसे धर्म कमाना चाहिए। जैसे, जिस व्‍यक्‍ति को कामना तृप्‍त करनी हो, उसे धन कमाना चाहिए। क्‍योंकि धन के बिना कैसे तुम कामना तृप्‍त करोगे? जिसको काम का जगत पकड़े हो, उसे अर्थ कमाना चाहिए। और जिस व्‍यक्‍ति को यह बात व्‍यर्थ हो गई अब उसे मुक्‍त होना है, परम मुक्‍ति का स्‍वाद लेना हे—उसे धर्म कमाना चाहिए। यह साधारण धर्म की व्‍यवस्‍था है।
      अष्‍टावक्र बड़ी क्रांतिकारी बात कह रहे है। वह कह रहे है: जिस व्‍यक्‍ति को वस्‍तुत: मोक्ष पाना हो,उसे धर्म से भी मुक्‍त हो जाना चाहिए। क्‍यों? क्‍योंकि मोक्ष को कामना नहीं बनाया जा सकता। मोक्ष का स्‍वभाव ऐसा है कि तुम उसकी चाह नहीं कर सकते जिसकी भी तुमने की, वह मोक्ष नहीं रह गया। तुम्‍हारी चाह अगर पीछे खड़ी है तो तुम जो भी चाहोगे, वह संसार हो गया। मोक्ष का कोई साधन नहीं है। धर्म भी मोक्ष का साधन नहीं है।
--ओशो, (अष्‍टावक्र: माहगीत—2, प्रवचन-14)
      संस्मरण—
      ओशो से जूड़े अभी मुश्किल से तीन वर्ष भी नहीं हुए होगें, जीवन के शुरू के दिन मानसिक दु:ख, संताप, आभाव और संघर्ष में बीते थे। हम धनवान कभी नहीं थे न अब ही है। हां आज वो सब है जो आदमी हासिल करना चाहता है, अचानक सन्-1993-94, में हमारी आमदनी 15,000/- रू मासिक हो गई। हमारी तो समझ के बहार की बात हो गई अब इतने पैसे का क्‍या करे। क्‍योंकि जीवन में ध्‍यान करने से एक खास किस्म की तृप्‍ति घेरे रहती थी। न कपड़ों का रस रहा, न दिखावे का,न गाड़ी, बंगला, जेवर, न होटलों में जा कर खाने का। दोनों पति-पत्‍नी जीवन ओर धर्म के मार्ग पर एक साथ चले और आज भी चल रहे है....
      अंदर की तृप्ति से मन ने साधन के मार्ग से किनारा कर लिया, ऐसा नहीं का व्‍यवसाय बंद कर दिया और संसार को छोड़-छाड़ कर बन गये ढोंगी। नहीं हमारे गुरू ने कहां है। जहां हो वहीं जागों, न कि भागों। उन दिनों की घटना एक संन्‍यासी शायद उनका नाम योगी जी था आये हमारे गांव-घर को देख कर उन्‍होंने कहा: ‘’स्वामी जी भगवान ने आपको कुरडी (कचरे के ढेर) से उठा लिया।‘’ उन की वो बात आज भी मुझे पुरस्कार जैसी लगती है। मैं अपने को परम भाग्य शाली समझता हुं। जीवन में वो सब पाना चाहूं पा सकता हुं पर मन की मांग ही खत्‍म हो गई है। सब है जीवन में जो चाहिए..पर एक ओशो जीवन में न होता और ये सब या उससे अति भी होता तो मुझे पता ही नहीं होता आपने होने का। फिर शायद में भी आपने को कभी नाम, कार पद, मान मर्यादा, साधन बन जाता। साध्‍य साधन होने हीं सकता यही तो पीड़ा है मानव की।
      मुक्ति एक बे बुझा पहलु है। इस लिए इस मार्ग पर धोखे बाज का जाल हार युग में फैला होता हे। कुछ शब्‍द कहुं हाला की ये सब तर्क के विषय है। इस लिए हजारों साल से इन को न मानने और मानने वालों मैं लगातार उठा पटक लगी ही रहेगी। आप जब बीमार होते है तो इसी शरीर का भार आपको कैसे बेचैन कर देता है। जब स्वारथ होते है तो यहीं शरीर आपको निर्भार-हल्‍का मानों है ही नहीं महसूस होता है। ध्‍यान में छोटे-छोटे टुकड़ो में या आयाम कुछ अन्तराल में उतरने लगा हे। जिस समय मैने सन्यास लिया था उस घड़ी मैं एक अगल ही उर्जा में आविष्‍ट था, शायद वो मेरा अब तक का निर्भार कहो या मुक्‍त कहो उस का लम्‍बे से लम्‍बा अनुभव था। जो आज बीस वर्षो बाद भी उसकी झलके छोटे टुकडे में आती है। कभी किसी काम करते या ध्‍यान की अंनत गहराई में। कैसा सुखद लगता है। मानों ये पींजरा है ही नहीं। मर कर भी हम मुक्‍त थोडे होते है। क्यों मनस शरीर और भाव,आत्‍म शरीरों के घेरे में चेतना फसी ही रहती है। ये तो मूढ़ता की बात है—कि मरने के बाद किसने देखा है। हजारों ने देखा है जो मुक्‍त हुए है: चाहे नानक, कबीर, कृष्‍ण, बुद्ध, महावीर....ओशो  ने आपने पिछले जन्‍मों की अनेक घटाना ये बताई है। आप चाह कर भी जन्‍म लेने से बच नहीं सकते, क्‍योंकि आप अपने मालिक नहीं है, आपको अपना कोई पता नहीं है। आप जब नींद में सो जाते है आप को उस समय आपको अपना को भान होता है। वो एक छोटी मृत्‍यु तुल्‍य है। बुद्ध, को कृष्‍ण..... को सोते में भी अपना पता गीता में  कहा है योगी सो कर भी नहीं सोता है। अब ये तो तर्क का विषय है ही। हम नींद में होते है। उस नींद को होश-जागरण ही धीरे-धीरे कम करते-करते पूर्ण जाग्रति की और ले जाता है। रात को स्पीकर लगाकर दूसरों की नींद हराम कर आप जागरण कर सता रहे है। हम जीवित शब्दों को भी कैसे मुर्दा कर देते है। खुद के जागरण की बात है, न कि पड़ोसियों को सताने की आप चुप अपनी साधना से जाग सकते हो उस के लिए किसी लाउड स्पीकरों की जरूरत नहीं है। जब तक कोई पूर्ण नहीं जाग जाता वो जीवन और मृत्‍यु का मालिक नही होता।
--मनसा आनंद मानस

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