ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते है, जो सब जानता है। गणित आप जिससे जानते है, फ़िज़िक्स आप जिससे जानते है, केमिस्ट्री आप जिससे जानते है। उस तत्व को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म विद्या है। ज्ञान के स्त्रोत को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। भीतर जहां चेतना को केंद्र हे, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं आपको; उसे भी देख लेना, उसे भी जान लेना, उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका पुनर् स्मरण ब्रह्म विद्या है।
कृष्ण कहते है, विद्याओं में मैं ब्रह्म विद्या हूं।
इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फ्रिक नहीं की। भारत के और विद्याओं में पिछडे जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं कि, ब्रह्म-विद्या की फिक्र की।
लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म-विद्या जाने को कभी लाखों-करोड़ो में एक आदमी उत्सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या जानने को उत्सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म-विद्या में उत्सुक थे। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी कोई उत्सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्सुकता तो और विधवाओं में थी। लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है। और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे।
इसलिए भारत ने बुद्ध को जान, महावीर को, कृष्ण को, पतंजलि को, कपिल को, नागराजन को, वसु बंध को, शंकर को जाना भारत ने। ये सारे, इनमें से कोई भी आस्तीन हो सकता है, इनमें से कोई भी प्लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी किसी भी विधा में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो श्रेष्ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में उत्सुक था। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी तो परम विद्या में कोई उत्सुकता ही नहीं थी। उसकी उत्सुकता दूसरी विद्याओं में है। लेकिन वह विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है।
पश्चिम में दूसरी विद्याओं को विकसित किया, क्योंकि पश्चिम के बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्सुक थे। इसलिए एक अद्भुत घटना घटी। पश्चिम ने सब बिद्याएं विकसित कर लीं और आज पश्चिम को लग रहा है। कि वह आत्म-अज्ञान से भरा हुआ है। और पूरब ने आत्म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब को लग रहा है। कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई नहीं है।
हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव। उन्होंने दूसरी अति कर ली। उन्होंने आत्म विद्या को छोड़कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे आत्म-अज्ञान से पीड़ित है और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीड़ित हे।
वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है। इसलिए न तो पूरब और न पश्चिम ही पूर्ण है। फिर भी अगर चुनाव करना हो अगर तो परम विद्या ही चुनने जैसी है। सारी बिद्याएं छोड़ी जा सकती है। क्योंकि और सब पा कर कुछ भी पाने जैसा नहीं है।
कृष्ण कहते है। मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में।
लेकिन यह बात आप ध्यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते है। और विद्याओं में जो श्रेष्ठ है, उसकी सुचना भर दे रहे है। वे यह नहीं कह रहे है कि सिर्फ अध्यात्म-विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है।
यह भी सोचने जैसा है। कि अध्यात्म-विद्या परम विद्या तभी हो सकती है। जब दूसरी बिद्याएं भी हो। नहीं तो यह परम विद्या नहीं रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें और दीवालें न हों तो समझ लेना शिखर जमीन पर पडा हुआ लोगों के पैरो की ठोकर खाए गा। मंदिर का स्वर्ण-शिखर आकाश में उठता ही इसलिए है कि पत्थर की दीवालें उसे सम्हालती है। अध्यात्म-विद्या का शिखर भी तभी सम्हलता है, जब और सारी बिद्याएं दीवालें बन जाती है। और सम्हालती है।
अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना लिया, पश्चिम ने मंदिर की दीवालें बना ली। जब तक हमारी शिखर पिश्चम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्कृति पैदा नहीं हो सकती। ये विरोध भास नहीं समन्वय को दोर है। हम यहां पर दीवालों का जिर्णधार करने में लगे है। कलस तो है पर दीवालें हमें पश्चिम से ही लेनी है।
--ओशो( गीता दर्शन, भाग—8, अध्याय-17, प्रवचन—10)
nice post
जवाब देंहटाएंamitraghat.blogspot.com
क्या हम अध्यात्मिक और भौतिक के बीच एक संतुलन बना कर नहीं रखा सकते। अति तो किसी भी चीज की बुरी ही होती है। अतः कोई मध्यम मार्ग ही ठीक रहेगा। क्या ओशो ने कहीं इस तरह के मध्यम मार्ग का जिक्र किया है । कृपया इस विषय पर कुछ लिखे।
जवाब देंहटाएंप्रिय मित्र विचार जी,
जवाब देंहटाएंआप का प्रशन अति महत्व पूर्ण है। पर ओशो न जीवन भर जो किया इसी मार्ग के लिए काम किया। जबी तो आपने देखा जितने विदेशी लोगे ओशो को समझ सके हमारे यहो के लोग नही समझ सके। क्योंकि उन्होंने भोतिकता की बेभव की दीवार बना ली है अब उस पर सवर्ण कलश की छत की जरूरत है। इस लिए ओशो जी गांधी की निति को विरोधा करते नजर ओयगे। राम राज्य चरखा। जब आदमी पूर्ण वेभव से सराबोर न हो जाए तब तक अध्यात्मिक की संभावना न के बराबर है। बुद्ध के जामाने में कितने शिक्ष्य राज परिवार से थे। राम, कृष्ण, महावीर, सभी अवतार राज परिवारो से थे। हा ये कोई जरूरी नही है, कबीर रविदास दुर्लभ फुल कही भी खिल सकेते है। उनकी प्रज्ञा ही इतनी है।
यहीं मध्य मार्ग है आप जहां है वहीं रहे, काम करे परिवार बसाये, धन कमाये, तभी आप पूर्णता से अध्यात्मिक में जा सकेते है। ओशो के मार्ग का नाम ही भागों मत जागों।
पर इस तरह की नई बात धीरे-धीरे समझ में आयेगी जैसी बुद्ध की सन्यास की बात, कम आयु में भी संन्यास की प्रथा चलाई तो कितना विरोध किया हिन्दुओ ने.....कि बन प्रस्थ तो जीवन के अंत में आता है।
मनसा
प्रिय मित्र विचार जी,
जवाब देंहटाएंआप का प्रशन अति महत्व पूर्ण है। पर ओशो न जीवन भर जो किया इसी मार्ग के लिए काम किया। जबी तो आपने देखा जितने विदेशी लोगे ओशो को समझ सके हमारे यहो के लोग नही समझ सके। क्योंकि उन्होंने भोतिकता की बेभव की दीवार बना ली है अब उस पर सवर्ण कलश की छत की जरूरत है। इस लिए ओशो जी गांधी की निति को विरोधा करते नजर ओयगे। राम राज्य चरखा। जब आदमी पूर्ण वेभव से सराबोर न हो जाए तब तक अध्यात्मिक की संभावना न के बराबर है। बुद्ध के जामाने में कितने शिक्ष्य राज परिवार से थे। राम, कृष्ण, महावीर, सभी अवतार राज परिवारो से थे। हा ये कोई जरूरी नही है, कबीर रविदास दुर्लभ फुल कही भी खिल सकेते है। उनकी प्रज्ञा ही इतनी है।
यहीं मध्य मार्ग है आप जहां है वहीं रहे, काम करे परिवार बसाये, धन कमाये, तभी आप पूर्णता से अध्यात्मिक में जा सकेते है। ओशो के मार्ग का नाम ही भागों मत जागों।
पर इस तरह की नई बात धीरे-धीरे समझ में आयेगी जैसी बुद्ध की सन्यास की बात, कम आयु में भी संन्यास की प्रथा चलाई तो कितना विरोध किया हिन्दुओ ने.....कि बन प्रस्थ तो जीवन के अंत में आता है।
मनसा
प्रिय मित्र विचार जी,
जवाब देंहटाएंआप का प्रशन अति महत्व पूर्ण है। पर ओशो न जीवन भर जो किया इसी मार्ग के लिए काम किया। जबी तो आपने देखा जितने विदेशी लोगे ओशो को समझ सके हमारे यहो के लोग नही समझ सके। क्योंकि उन्होंने भोतिकता की बेभव की दीवार बना ली है अब उस पर सवर्ण कलश की छत की जरूरत है। इस लिए ओशो जी गांधी की निति को विरोधा करते नजर ओयगे। राम राज्य चरखा। जब आदमी पूर्ण वेभव से सराबोर न हो जाए तब तक अध्यात्मिक की संभावना न के बराबर है। बुद्ध के जामाने में कितने शिक्ष्य राज परिवार से थे। राम, कृष्ण, महावीर, सभी अवतार राज परिवारो से थे। हा ये कोई जरूरी नही है, कबीर रविदास दुर्लभ फुल कही भी खिल सकेते है। उनकी प्रज्ञा ही इतनी है।
यहीं मध्य मार्ग है आप जहां है वहीं रहे, काम करे परिवार बसाये, धन कमाये, तभी आप पूर्णता से अध्यात्मिक में जा सकेते है। ओशो के मार्ग का नाम ही भागों मत जागों।
पर इस तरह की नई बात धीरे-धीरे समझ में आयेगी जैसी बुद्ध की सन्यास की बात, कम आयु में भी संन्यास की प्रथा चलाई तो कितना विरोध किया हिन्दुओ ने.....कि बन प्रस्थ तो जीवन के अंत में आता है।
मनसा
I am in confusion. I am on the way. Please help me. मै ध्यान मे डर रहा हू. मार्ग batayiye
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