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सोमवार, 1 मार्च 2010

भारत एक सनातन यात्रा—बुल्‍लाशाह....


बुल्ला शाह के शिष्‍य गुलाल

     गुलाल शिष्‍य थे बुल्ला शाह के। यह तो कोई बात खास नहीं: बुल्‍ला शाह के बहुत शिष्‍य थे। और हजारों सदगुरू हुए है और उनके हजारों-लाखों शिष्‍य हुए है। इसमें कुछ अभूतपूर्व नहीं। अभूतपूर्व ऐसा है कि गुलाल एक छोटे-मोटे जमिंदार थे। और उनका एक चरवाहा था। उसकी आंखों में खुमार था। उसके उठने-बैठने में एक मस्‍ती थीं। कहीं रखता था पैर, कहीं पड़ते थे पैर। और सदा मगन रहता था। कुछ था नहीं उसके पास मगन होने को—चरवाहा था, बस दो जून रोटी मिल जाती थी। उतना ही काफी था। सुबह से निकल जाता खेत में काम करन, जो भी काम हो,रात थका मांदा लौटता; लेकिन कभी किसी ने उसे अपने आनंद को खोते नहीं देखा। एक आनंद की आभा उसे घेरे रहती थी। उसके बाबत खबरें आती थी—गुलाल के पास, मालिक के पास—कि यह चरवाहा कुछ ज्‍यादा काम करता नहीं; क्‍योंकि उसे खेत में नाचते देखा जाता था। मस्‍त डोलते मगन आसमान में उड़ते पक्षियों की तरह चहकते देखा था। काम ये क्‍या खाक करेगा। तुम भेजते हो गाएं चराने गाए एक तरफ चरती रहती है, यह झाड़ पर बैठकर बांसुरी बजाता है। हां, बांसुरी गजब की बजाता है। यह सच है, मगर बांसुरी बजाने से और गाय चराने से क्‍या लेना-देना है। तुम तो भेजते हो कि खेत पर यह काम करे और हमने इसे खेत में काम करते तो कभी नहीं देखा, झाड़ के नीचे आंखे बंद किये जरूर देखा है। यह भी सच है कि जब वह झाड़ के नीचे आंखे बंद करके बैठता है तो इसके पास से गुजर जाने में भी सुख की लहर छू जाती है। मगर उससे खेत पर काम करने का क्‍या संबंध है।
      बहुत शिकायतें आने लगीं। और गुलाल मालिक थे। मालिक का दंभ और अंहकार। तो कभी उन्‍होंने बुलाकी राम को गौर से तो देखा नहीं। फुर्सत भी न थी; और भी नौकर चाकर होगें, और कोई नौकर-चाकरों को कोई गोर से देखता है भला। नौकर चाकरों को आदमी भी मानता है। तुम अपने कमरे में बैठे हो, अख़बार पढ रहे हो, नौकर आकर गुजर जाता है, तुम ध्‍यान भी देते हो। नौकर से तुमने कभी नमस्‍कार भी की हे। नौकर की गिनती तुम आदमी में थोड़ी की करते हो। नौकर से कभी तुमने कहा है आओ बैठो, कि दो क्षण बातें करें, यह तो तुम्‍हारे अहंकार के बिल्‍कुल विपरीत होगा।
      खबरें आती थीं, मगर गुलाल ने कभी ध्‍यान दिया ही नहीं था। उस दिन खबर आयी सुबह-ही-सुबह कि तुमने भेजा है नौकर को कि खेत में बुआई शुरू करे, समय बीता जाता है, बुआई का, मगर बैल हल को लिए एक तरफ खड़े है। और बुलाकी राम झाड़ के नीचे आंखे बंद किए डोल रहा है।
      एक सीमा होती है। मालिक सुनते-सुनते थक गया था। कहा: मैं आज जाता हूं ओर देखता हूं। जाकर देखा तो बात सच थीं। बैल हल को लिए खड़े थे एक किनारे—कोई हांकने वाला ही नहीं था—और बुलाकी राम वृक्ष के नीचे आँख बंद किए डोल रहे थे। मालिक को क्रोध आ गया। देखा—यह हरामखोर, काहिल, आलसी....। लोग ठीक कहते है। उसके पीछे पहुंचे और जाकर जोर से एक लात उसे मार दी। बुलाकी राम लात खाकर गिर पडा। आंखे खोली। प्रेम और आनंद के अश्रु बह रहे थे। बोला आपने मालिक से: मेरे मालिक, किन शब्‍दों में धन्‍यवाद दूँ? कैसे आभार करूं, क्‍योंकि जब आपने लात मारी तब में ध्‍यान कर रहा था। जरा से बाधा रह गई थी। छूट ही नहीं रही थी। जब भी ध्‍यान करता वो अड़चन बन सामने खड़ी हो जाती थी। आपने लात मारी वह बाधा मिट गई। मेरी बाधा थी जब भी मस्‍त होता ध्‍यान में मगन होता मस्त होता, तो गरीब आदमी हूं, साधु-संतों को भोजन करवाने के लिए निमंत्रण करना चाहता था। लेकिन में तो गरीब आदमी हूं, सो कहां से भोजन करवाऊंगा, तो बस ध्‍यान में जब मस्‍त होता भंडारा करता हूं, मन ही मन मैं सारे साधु-संतों को बुला लाता हूं कि आओ सब आ जाओ दुर देश से आ जाओ। और पंक्‍तियों पर पंक्तियां साधुओं की बैठी थी और क्‍या-क्‍या भोजन बनाए थे। मालिक परोस रहा था, मस्‍त हो रहा था। इतने साधु-संत आये है, एक से एक महिमा वाले है। और तभी आपने मार दी लात। बस दही परोसने को रह गया था; आपकी लात लगी, हाथ से हाँड़ी छूट गई, दही बिखर गई,हांडी फुट गई। मगर गजब कर दिया मेरे मालिक, मैंने कभी सोचा भी न था कि आपको ऐसा कला आती है। हाँड़ी क्‍या फूटी, मानसी-भंडारा विलुप्‍त हो गया, साधु-संत नदारद हो गए—कल्‍पना ही थी सब, कल्‍पना का ही जाल था—और अचानक मैं उस जाल से जग गया, बस साक्षी मात्र रह गया।
      आँख से आंसू बह रहे है। आनंद के और प्रेम के शरीर रोमांचित है हर्ष लाश उन्माद से, एक प्रकाश झर रहा है। बुलाकी राम की यह दशा पहली बार गुलाल ने देखी। बुलाकी राम ही नहीं जागा साक्षी में, अपनी आंधी में गुलाल को भी बहा ले गया। आँख से जैसे एक पर्दा उठ गया। पहली बार देखा कि यह कोई चरवाहा नहीं;मैं कहां-कहां, किन-किन दरवाज़ों पर सद् गुरूओं को खोजता रहा,सदगुरू मेरे घर में मौजूद था। मेरी गायों को चरा रहा था। मेरे खेतों को सम्‍हाल रहा था। गिर पड़े पैरो में; बुलाकी राम, बुलाकी राम न रहे—बुल्ला शाह हो गए। पहली दफा गुलाल ने उन्‍हें संबोधित किया: बुल्‍ला साहिब। मेरे मालिक, मेरे प्रभु, साहब का अर्थ: प्रभु। कहां थे नौकर, कहां हो गए शाह, शाहों के शाह।
      कहते है बहुत फकीर हुए है, लेकिन बुल्ला शाह का कोई मुकाबला नहीं। और यह घटना बड़ी अनूठी है। अनूठी इसलिए है कि युगपत घटी। सद्गुरू और शिष्‍य का जन्‍म एक साथ हुआ। सद्गुरू का जन्‍म भी उसी वक्‍त हुआ। उसी सुबह; क्‍योंकि वह जो आखिरी अड़चन थी, वह मिटी। इसलिए भी अद्भुत है। वह जो आखरी अड़चन है वह शिष्‍य द्वारा मिटी। हालांकि गुलाल ने कुछ जानकर नहीं मिटायी थी। आकस्‍मिात था, मगर निमित तो बने शिष्‍य ने सदगुरू की आखरी अड़चन मिटाई। इधर गुरु का जन्‍म हुआ, इधर गुरु का आविर्भाव हुआ, उधर शिष्‍य के जीवन में क्रांति हो गयी। बुल्‍ला शाह को कंधे पर लेकर लौटे गुलाल। वह जो लात मारी थी। जीवन भर पश्‍चाताप किया, जीवन भर पैर दबाते रहे।
      बुल्‍ला शाह कहते मेरे पैर दुखते नहीं है, क्‍यों दबाते हो? वे कहते: वह जो लात मारी थी.....। तीस-चालीस साल बुल्‍ला शाह जिंदा रहे, गुलाल पैर दबाते रहे। एक क्षण को भी साथ नहीं छोड़ते थे। आखिरी क्षण भी बुल्‍ला शाह जब मर रहे थे तब भी गुलाल पैर दबा रहे थे। बुल्‍ला शाह ने कहा: अब तो बंद कर रे, पागल , पर गुलाल ने कहां कि कैसे बंद करूं? वह जो लात मारी थी।
      गुरु को लात मारी, बुल्‍ला शाह लाख समझाते रहे कि तेरी लात से ही तो मैं जागा, मैं अनुगृहीत हूं। तू नाहक पश्‍चाताप मर कर। लेकिन गुलाल कहते: वह आपकी तरफ होगी बात। मेरी तरफ तो पश्‍चाताप जारी रहेगा।
      लेकिन एक साथ ऐसी घटना पहले कभी नहीं घटी थी कि सद्गुरू हुआ और शिष्‍य जन्‍मा—एक साथ, युगपत, एक क्षण में यह घटना घटी। यह आग दोनों तरफ एक साथ लगी और दोनों को जोड़ गयी।

ओशो—(झरत दसहुं दिस मोती, प्रवचन-01)

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