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शनिवार, 20 मार्च 2010

चार्वाक--भारत एक सनतन यात्रा


ईश्‍वर भी निश्‍चित ही चार्वाक और अष्‍टावक्र दोनों का जोड़ होगा। चार्वाक को में धर्म-विरोधी नहीं मानता। चार्वाक को मैं धर्म की सीढी मानता हूं। सभी नास्‍तिक को में आस्‍तिकता की सीढी मानता हूं। सभी नास्‍तिकता को में आस्‍तिकता की सीढी मानता हूं। तुमने धर्मों के बीच समन्‍वय करने की बातें तो सूनी होंगी—हिंदू और मुसलमान एक; ईसाई और बौद्ध एक। इस तरह की बात तो बहुत चलती हे। लेकिन असली समन्‍वय अगर कहीं करना है तो वह है नास्‍तिक आरे आस्‍तिक के बीच।
      यह भी कोई समन्‍वय है—हिंदू और मुसलमान एक, ये तो बातें एक ही कह रहें है। इनमें समन्‍वय क्‍या खाक करना , इनके शब्‍द अलग होंगे,इससे क्‍या फर्क पड़ता हे।
      मैं एक आदमी को जानता था, उसका नाम राम प्रसाद था। वह मुसलमान हो गया, उसका नाम खुदा बक्‍स हो गया। वह मेरे पास आया। मैंने कहा: पागल इसका मतलब वहीं होता है। राम प्रसाद, खुदा बख्श होकर कुछ हुआ नहीं। खुदा यानि राम, बख्श यानी प्रसाद। वह कहने लगा: यह मुझे कुछ खयाल न आया।
      भाषा के फर्क है, इनमें क्‍या समन्‍वय कर रहे हो। असली समन्‍वय अगर कही करना है तो नास्‍तिक और आस्‍तिक के बीच; पदार्थ और परमात्‍मा के बीच;चार्वाक और अष्‍टावक्र के बीच। मै तुम्‍हें उसी असली समन्‍वय की बात कर रहा हूं। जिस दिन नास्‍तिकता मंदिर की सीढी बन जाती है। उस दिन समन्‍वय हुआ। उस दिन तुमने जीवन को इक्ट्ठा करके देखा, उस दिन द्वैत मिटा।
      मैं तुम्‍हें परम अद्वैत की बात कहर रहा हूं। इसका मतलब क्‍या होता है। इसका मतलब होता है। आखिर चार्वाक भी है, तो परमात्‍मा का हिस्‍सा ही। तुम कहते हो सभी में परमात्‍मा है। फिर चार्वाक में नहीं है क्‍या? फिर चार्वाक में जो बोल रहा है वह परमात्‍मा नहीं है। तुम चार्वाक  का खंडन कर रहे हो। ये परमात्‍मा का ही खंडन नहीं है। अगर वास्‍तव में अद्वैत है। तो तुम कहोगे; चार्वाक की वाणी में भी प्रभु बोला। यही मैं तुमसे कहता हूं। और वाणी उसकी मधुर है; इसलिए चार्वाक ना पडा। चार्वाक का अर्थ होता है। मधुर वाणी वाला। उसका दूसरा नाम है: लोकायत। लोकायत का अर्थ होता है। जो लोक में प्रिय  हो। जो अनेक को प्रिय है। लाख तुम कहो ऊपर से कुछ, कोई जैन है। कोई बौद्ध है, कोई हिंदू हे। को मुसलमान है। यह सब ऊपरी बकवास है, भीतर गौर से देखो, चार्वाक को पाओगें। और तूम अगर इन धार्मिकों के सवर्ग की तलाश करो तो तुम पाओगें कि सब स्‍वर्ग की जो योजनाएं है, वह चार्वाक ने बनाई होगी। सर्वग में जो आनंद और रस की धारे बह रही है। वह चार्वाक की ही धारणाएं हे।
      सूख जीवेत, चार्वाक कहता हे: सुख से जीओ, इतना में जरूर कहूंगा कि चार्वाक सीढ़ी है। और जिस ढंग से चार्वाक कहता हे। उस ढंग से सुख से कोई जी नहीं सकता। क्योंकि चार्वाक ने ध्‍यान का कोई सुत्र नहीं दिया। चार्वाक सिर्फ भोग है, योग का कोई सुत्र नहीं है; अधूरा है। उतना ही अधूरा है जितने अधूरे योगी हे। उनमें योग तो है लेकिन भोग का सूत्र नहीं है। इस जगत में कोई भी पूरे को स्‍वीकार करने की हिम्‍मत करता नहीं मालूम पड़ता—आधे-आधे को। मैं दोनो को स्‍वीकार करता हूं। और मैं कहता हूं: चार्वाक का उपयोग करों और चार्वाक के उपयोग से तुम एक दिन अष्‍टावक्र के उपयोग में समर्थ हो पाओगें।
      जीवन के सुख को भोगों। उस सुख में तुम पाओगें, दुःख ही दुःख है। जैसे-जैसे भोगोगे वैसे-वैसे सुख का स्‍वाद बदलने लगेगा और दुःख की प्रतीति होने लगेगी। और जब एक दिन सारे जीवन के सभी सुख दुःख-रूप हो जाएंगे,उस दिन तुम जागने के लिए तत्‍पर हो जाओगे। इस दिन कौन तुम्‍हें रोक सकेगा। उस दिन तुम जाग ही जाओगे। कोई रोक नहीं रहा है। रुके इसलिए हो कि लगता है शायद थोड़ा और सो ले। कौन जाने.....एक पन्‍ना और उलट लें संसार का। इस कोने से और झांक लें। इस स्‍त्री से और मिल लें। उस शराब को और पी लें। कौन जाने कहीं सुख‍ छिपा हो, सब तरफ तलाश ले।
      मैं कहता भी नहीं कि तुम बीच से भागों। बीच से भागे, पहुंच न पाओगें,क्‍योंकि मन खिचता रहेगा। मन बार-बार कहता रहेगा। ध्‍यान करने बैठ जाओगे, लेकिन मन में प्रतिमा उठती रहेगी उसकी,  जिसे तुम  पीछे छोड़ आए हो। मन कहता रहेगा। क्‍या कर रहे हो मूर्ख बने बैठे हो। पत्‍ता नहीं सुख वहां होता है। तुम देख तो लेते, एक दफा खोज तो लेत।
      इसलिए मैं कहता हू: संसार को जाने ही लो, उघाड़ ही लो, जैसे कोई प्‍याज को छीलता चला जाए—तुम बीच में मत रूकना, छील ही डालना पूरा। हाथ में फिर कुछ भी नहीं लगता। हां, अगर पूरा न छिला तो प्‍याज बाकी रहती है। तब यह डर मन में बना रह सकता है, भय मन में बना रह सकता है: हो सकता है कोहिनूर छुपा ही हो। तुम छील ही डालों, तुम सब छिलके उतार दो। जब तक शून्‍य हाथ में लगे,छिलके ही छिलके गिर जाएं—संसार प्‍याज जैसा है। छिलके ही छिलके है। भीतर कुछ भी नहीं। छिलके के भीतर छिलका है। भीतर कुछ भी नहीं। जब भीतर कुछ भी नहीं पकड़ में आ जाएगा। फिर तुम्‍हें रोकने को कुछ भी नहीं। जब भीतर कुछ भी पकड में आ जाएगा, फिर तुम्‍हें रोकने को कुछ भी न बचा।
      चार्वाक की किताब पूरी पढ़ ही लो, क्‍योंकि कुरान, गीता,और बाईबिल उसी के बाद शुरू होते है। चार्वाक पूर्वार्ध है, अष्‍टावक्र उत्तरार्ध।
ओशो—(अष्‍टावक्र: महागीता-3, प्रवचन—10)
     





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