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रविवार, 7 मार्च 2010

सत्संग

सत्‍संग को पूरब में बहुत मूल्‍य दिया है। पश्चिम की भाषाओं में सत्‍संग के लिए कोई ठीक-ठीक शब्‍द नहीं है। क्‍योंकि सत्‍संग का कोई मूल्‍य पश्‍चिम में समझा नहीं गया।
      सत्‍संग का अर्थ इतना ही है। जिसने जान लिया हो, उसके पास बैठ कर स्‍वाद संक्रामक हो जाता है। जिसने जान लिया हो, उसकी तरंगों में डुबकर भीतर की सोई हुई विस्‍मृत तरंगें सक्रिय होने लगती है, कंपन आने लगता है। सत्‍संग का इतना ही अर्थ है कि है जो तुमसे आगे जा चुका हो, उसे आगे गया हुआ देखकर तुम्‍हारे भीतर चुनौती उठती है: तुम्‍हें भी जाना है। रूकना फिर मुश्‍किल हो जाता है।
      सत्‍संग का अर्थ गुरु के वचन सुनने से उतना नही है। जितनी गुरु की मौजूदगी पीने से है, जितना गुरु को अपने भीतर आने देने, जितना गुरु के साथ एक लय में बद्ध हाँ जाने से है।
      गुरु एक विशिष्‍ट तरंग में जी रहा है। तुम जब गुरु के पास होते हो तब उसकी तरंगें, तुम्‍हारे भीतर भी वैसी ही तरंगों को पैदा करती है। तुम भी थोड़ी देर को ही सही, किसी और लोक में प्रवेश कर जाते हो। गेस्‍टाल्‍ट बदलता है। तुम्‍हारे देखने का ढांचा बदलता हे। थोड़ी देर को तुम गुरु की आंखों से देखने लगते हो, गुरु के कान से सुनने लगते हो।
--ओशो—(अष्‍टावक्र:महागीता-1, प्रवचन-9)

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