अपनी खोज आप करो—ओशो
(अमेरिका में तथा विश्व भ्रमण के दौरान ओशो ने जगह-जगह विश्व के पत्रकारों के साथ वार्तालाप किया। ये सभी वार्तालाप ‘’दि लास्ट टैस्टामैंट’’ शीर्षक से उपलब्ध है। इसके छह भाग है लेकि अभी केवल एक भाग ही प्रकाशित हुआ है।)
गुड मोर्निंग एक बी सी नेटवर्क के साथ—
प्रश्न—मुझे उस विषय में पूछना है जो अभी एक क्षण पहले आपने कहा। आपने कहा कि आप लोगों को नियंत्रित करना नहीं चाहते है। आपका कोई नियंत्रण नहीं है। लेकिन क्या आपके 350,000 अनुयायियों पर आपका बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है?
ओशो—मेरा कोई नियंत्रण नहीं है। मैं इन साढ़े तीन लाख लोगों को जो मुझसे प्रेम करते है, कोई अनुशासन नहीं देता। मैं उन्हें कोई आदेश नहीं देता। मैं उन्हें कोई आदेश नहीं देता। मैं आग्रह पूर्वक, जोर देकर कहता हूं कि वे मेरे अनुयायी नहीं है। मेरे हमसफर है। उन्हें मेरे साथ कुछ मील चलना है या नहीं, यह उन पर निर्भर करता है। यदि मेरे साथ चलते है तो मुझे खुशी होती है, जब वे चले जाते है तो मैं उन्हें विदा कहता हूं।
प्रश्न—यदि वे आपको अपने से ऊपर मानते है, आपकी पूजा करते है, तो क्या वे आप जो कहें उसे करने के लिए तैयार नहीं होंगे?
ओशो—मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूं कि वे पूजा न करें, वे मुझसे प्रभावित न हों, लेकिन यदि पूजा किये चले जाते है और प्रभावित हुए जाते है तो वे मुझे नहीं समझ रहे है।
प्रश्न—यह भगवान श्री रजनीश कौन है? आप भगवान कैसे हुए?
ओशो—भगवान श्री रजनीश का अर्थ है; धन्यता को प्राप्त। जब मेरे आशीष लोग अपने ह्रदय में अनुभव करना शुरू करते है—मेरे साथ कुछ ऐसा घटा है जो अत्यंत मूल्यवान है और जिसमें वे सहभागी होना चाहेंगे—तब उन्होंने मुझे ‘’भगवान’’ कहना शुरू कर दिया। मैं उसे इंकार नहीं कर सका क्योंकि वह सच था; मैं धन्यता को उपलब्ध था।
प्रश्न—अपने कैसे जाना कि आप धन्यता को उपलब्ध थे?
ओशो—तुम कैसे जानते हो कि तुम्हें सिरदर्द है? मैं जानता हूं।
प्रश्न—आपने कब जाना?
ओशो—बत्तीस साल हुए।
प्रश्न—किस तरह पता चला?
ओशो—यह प्रश्न असंगत है। जब तुम बीमार होते हो, तुम्हें पता चलता है। तुम्हें कैसे पता चलता है? जब तुम स्वास्थ होते हो, तो तुम्हें पता चलता है—कैसे पता चलता है? ‘’कैसे’’ असंगत है। तुम जानते हो।
प्रश्न—क्या कोई दर्शन हुआ?
ओशो—दर्शन का कोई सवाल ही नहीं है। दर्शन हमेशा वस्तुगत होते है, किसी और चीज का। वह अनुभव की प्रक्रिया थी; सीधा अनुभव भी नहीं बल्कि प्रक्रिया। मैं उससे ओतप्रोत था। और तब से एक क्षण के लिए भी मैं अन्यथा नहीं हुआ। वह ऐसी घटना नहीं थी जो घटी और विदा हो गई। वह रूपांतरण था। वह मेरा अंग हो गया।
प्रश्न—क्या बचपन में आपको यह ज्ञात था कि आप बुद्ध होंगे?
ओशो—नहीं, मुझे कुछ पता नहीं था। एक क्षण पहले तक भी। लेकिन बचपन से ही मैं खोज रहा था। मैं खोज रहा था और हर तरह से कोशिश कर रहा था। कि मैं किसी धर्म से, किसी विचारधारा से जरा भी प्रभावित न होऊं। क्योंकि यदि मेरा कोई विश्वास है, पहले ही मेरी कोई मान्यता है, तो खोज रूक जाती है। खोजी को बहुत सजग और सावचेत होना पड़ता है। कि कोई मान्यता उसके अंतरतम में प्रवेश न करे। उसे खुला और अज्ञेय वादी रहना पड़ता है। वह अच्छी तरह समझ ले कि वह नहीं जानता। अज्ञान की उस मनोदशा से खोज, तलाश शुरू होती है। लेकिन वह कब खत्म होगी इस बारे में कौन कहे? वह कब पूर्ण होगी कौन जाने? इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
प्रश्न—क्या आप अपने आपको भगवान मानते है?
ओशो—हे परमात्मा, परमात्मा है ही नहीं तो मैं अपने आपको परमात्मा कैसे मानूं? परमात्मा बड़े से बड़ा झूठ है। जिसे आदमी न खोजा है।
प्रश्न—क्यों?
ओशो—क्योंकि आदमी इतना असहाय महसूस करता है, मृत्यु से इतना डरा हुआ है, जीवन की समस्याओं के नीचे इतना दबा हुआ है......उसे माता-पिता बड़ा करते है, और वे दिन सुहावनें होते है—न जिम्मेदारी, न कोई चिंता। कोई उसकी देखभाल कर रहा था। मानसिक बचपन सभी धर्मों में प्रक्षेपित होता है। परमात्मा पिता बनता है। और कुछ धर्म ऐसे भी है जिनमें वह माता पिता होता है। वह एक छोटे बच्चे का सरल सा प्रक्षेपण है। उसमे सचाई जरा भी नहीं है।
जब भी तुम भय से ग्रसित होते हो, परेशान होते हो तब तुम सहायता खोजने लगते हो। और कभी कोई सहायता नहीं मिलती। सूली पर टंगे जीसस भी सहायता की प्रतीक्षा कर रहे थे, और आखिरकार हताश होकर चिलाये, ‘’हे पिता, क्या तुमने मुझे छोड़ दिया? उनके भीतर एक गहरा संदेह, एक गहना सवाल पैदा हुआ होगा। कुछ भी नहीं हो रहा है। और इन सारे सालों में वे मानते थे कि ईश्वर उन्हें, अपने एकमात्र पुत्र को बचाने आयेगा, कोई नहीं आया। जीसस क्राइस्ट परम हताश होकर मरे होंगे। मेरा कोई भ्रम नहीं है, इसलिए वह टूटने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
प्रश्न—उन्होंने ऐसा भी कहा, ‘’हे पिता, उन्हें माफ करना क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे है।‘’
ओशो—वह वहीं दिमाग है। मैं जीसस के दिमाग को रूग्ण कहता हूं।
प्रश्न—क्यों?
ओशो—क्योंकि जिंदगी भर वे जो भी सिखा रहे थे और कह रह थे वह पागलपन था। पागल आदमी ही खुद को ईश्वर का बेटा कह सकता है। और फिर लोगों से वह कहना कि मैं रक्षक हूं, जो भी मेरे साथ आयेगा वह बचा लिया जायेगा। और जो मेरे साथ नहीं है वह नर्क में जायेगा। शाश्वत नर्क में। उन्होंने एक अंजीर के वृक्ष को श्राप दे दिया क्योंकि वे और उनके शिष्य भूखे थे। और उस वृक्ष पर कोई फल नहीं था। वह अंजीर के वृक्ष का दोष नहीं था, लेकिन उन्होंने उसे श्राप दे दिया।
मैं इस आदमी को स्वास्थ नहीं मान सकता। और ईश्वर से यह प्रार्थना: ‘’इन लोगों को माफ करना क्योंकि वह नहीं जानते कि वे क्या कर रहे है,’’ उसी घमंडी, अहंकारी ख्याल से आई है। मैं नहीं सोचता कि वह करूणा से निकली है। सदियों से ईसाई इस पर जोर देते रहे कि जीसस ने शत्रुओं के प्रति करूणावशा ऐसा कहा। मुझे इस वाक्य को फिर से कहने दो: ‘’ इन लोगों को माफ कर दो क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे है।‘’ इसमे करूणा नहीं है, वे अभी भी लोगों की निंदा कर रहे है। यह कहकर कि वे नहीं जानते और मैं जानता हूं।
प्रश्न—लेकिन क्या जीसस की ऐसी शिक्षाऐं नहीं है जो आज भी सभ्यता में जो भी शुभ है उसका आधार बनती है?
ओशो—कुछ भी नहीं। जीसस से एक भी बात ऐसी नहीं आई है जिससे मनुष्य जाति का लाभ हुआ हो। वे सारी शिक्षाऐं वरदान नहीं, अभिशाप सिद्ध हुई है। वे सुंदर शब्द है। और उन्हें इतनी बार दोहराया गया है कि तुम उनके परिणाम भूल गये हो। वे कहते है, ‘’धन्य है दरिद्र क्योंकि ईश्वर का राज्य उनका होगा। यह सुंदर दिखता है लेकिन मूलत: कुरूप है। यह गरीबों की सांत्वना है, गरीबों का शोषण है। यह गरीबों को झूठी आशाएं देना है। और इसका अंतिम परिणाम यह है कि संसार गरीब रह गया।
ओशो
दि लास्ट टेस्टामेंट
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