कुल पेज दृश्य

रविवार, 6 मई 2012

ध्रुवे तद्गतिज्ञानम्—पतंजलि योग सूत्र

ध्रुव-नक्षत्र पर संयम संपन्‍न करने से तारों-नक्षत्रों की गतिमयता का ज्ञान प्राप्‍त होता है।
      और हमारे अंतर-अस्‍तित्‍व का ध्रुव तारा कौन सा है? ध्रुव तारा बहुत प्रतीकात्‍मक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यही समझा जाता है कि ध्रुव तारा ही एक मात्र ऐसा तारा है, जो पूर्णतया गति विहीन है, उसमें कोई गति नहीं है, वह थिर है। लेकिन यह बात सच नहीं है। उसमें गति है, लेकिन उसकी गति बहुत धीमी होती है। लेकिन फिर भी यह बहुत प्रतीकात्‍मक है: हमको अपने भीतर कुछ ऐसा खोज लेना है जो कि गति विहीन हो, जिसमे किसी प्रकार की गति न हो, पूरी तरह थिर हो। वहीं हमारा स्‍वभाव है, केवल वहीं हमारी वास्‍तविक अस्‍तित्‍व है। हमारा सच्‍चा स्‍वरूप है: ध्रुव तारे जैसा—गति विहीन, पूर्णरूपेण गति। क्‍योंकि जब भीतर कहीं गति नहीं होती है, तब शाश्‍वतता होती है। जब गति होती है, समय भी होता है।

      गति के साथ ही समय की आवश्‍यकता होती है। रूकने के लिए ठहरने के लिए समय जरूरी नहीं है। अगर हम गतिमान होते है तो उसका कहीं प्रारंभ होगा तो कहीं अंत भी होगा। सारी गतिशीलता का प्रारंभ भी होता है। और अंत भी होता है। उनका जन्‍म भी होता है उनकी मृत्‍यु भी होती है। लेकिन अगर किसी प्रकार की कोई गति न हो, तो न तो प्रारंभ ही होता है, और न ही अंत ही होता है। तब न तो जन्‍म होता है और न मृत्‍यु ही होती है।
      क्‍योंकि गति का अनुभव केवल उसी चीज के परिप्रेक्ष्‍य में हो सकता है जो थिर होती है। अगर कुछ भी थिर न हो तो गतिशीलता को जाना ही नहीं जा सकता है। और अगर सभी कुछ गतिमान हो और हमारे पास ऐसा कोई आधार न हो जिसकी कोई गति न हो; तो हम गति को कैसे जान सकेंगे?
      इसीलिए पृथ्‍वी लगातार घूमती रहती है, लेकिन हमें उसकी गति का आभास नहीं होता। पृथ्‍वी घूम रही है। और इतनी तीव्रता से घूम रही है की हम उसकी कल्‍पना भी नहीं कर सकते। पृथ्‍वी अंतरिक्ष-यान है। जो निरंतर गतिशील है: अपने केंद्र पर लगातार घूम रही है और साथ ही सूर्य के चारों और भी बड़ी तीव्रता के साथ चक्‍कर लगा रही है। पृथ्‍वी लगातार घूमती चली जा रही है। पेड़-पौधे, घर, आदमी सभी कुछ उसी गति से घूम रहे है। इसलिए उसकी गति को अनुभव करना असंभव है, क्‍योंकि उसकी तुलना करने का कोई उपाय नहीं है।
      इसे ऐसे सोचो, जैसे तुम्‍हारे पास खड़े होने को कोई छोटी सी चीज है—सारी पृथ्‍वी तो घूम रही है, लेकिन तुम नहीं घूम रहे हो—तब तुम समझ सकोगे कि गति क्‍या है। क्‍योंकि शेष सभी चीजें इतनी तेजी से घूम रही है कि तुम चकरा जाओगे; तब तुम्‍हारा पूना में रहना असंभव है। फिर कभी फिलेडेलियफिया तुम्‍हारे सामने सक गुजर रहा होगा तो कभी टोक्यो गुजर रहा होगा। और बार-बार......ओर पृथ्‍वी घूमती चली जा रही है, परिभ्रमण करती ही चली जा रही है।
      पृथ्‍वी बहुत तेजी से घूम रही है, उस गति को अनुभव करने के लिए हमे थिर होना होगा। मनुष्‍य इतनी सदियों से पृथ्‍वी पर रह रहा है। और केवल तीन सौ वर्ष पूर्व ही हमें गैलीलियो और कोपरनिसक द्वारा पता चला है कि पृथ्‍वी घूम रही है। वरना इससे पहले मनुष्‍य यही समझता रहा है कि पृथ्‍वी केंद्र है, पृथ्‍वी गतिवहीन है। केंद्र है और दुनियां की शेष अन्‍य सभी चीजें गतिशील है। चाँद-तारे, सूर्य सभी घूम रहे है, केवल पृथ्‍वी ही थिर है। और वही सभी का केंद्र है।
      अब थोड़ा एक बहुत ही जटिल बात को भी ठीक से समझ लेना। उदाहरण के लिए, अब तक तो मैं इस ढंग से बोल रहा था जैसे कि भीतर के केंद्र थिर होते है। लेकिन वे केंद्र थिर नहीं होते है। कई बार काम केंद्र हमारे सर में होता है। काम-केंद्र हमारे सिर में गतिशील होता है, वह वहां सरक रहा होता है, इसीलिए तो हमारा मन इतना कामवासना से भर जाता है। इसीलिए हम कामवासना के संबंध में निरंतर सोचते रहते है। और स्‍त्री को या पुरूष को छू लेने का मन करता है। कई बार काम-केंद्र आंखों में होता है। और फिरा जो कुछ भी हम देखते है, उसे वासना में बदल लेते है। इसी तरह फिर मन अश्‍लील हो जाता है—फिर जो कुछ भी हम देखेंगे, हम काम में, सेक्‍स में परिवर्तित हो जाती है। कई बार काम केंद्र कानों में होता है। फिर जो कुछ भी हम सुनेंगे उससे हम कामुक होने लगेंगे।
      फिर ऐसा संभव है कि हम मंदिर जाएं और अगर उस समय हमार काम केंद्र कानों में गतिमान हो रहा है, तब वहां भजन को सुनते हुए, भक्‍ति गान को सुनते हुए हम कामुकता का अनुभव करने लगेंगे। और साथ में चिंतित भी होने लगेंगे कि यह क्‍या हो रहा है। मैं मंदिर में हूं, मैं तो एक भक्‍त की तरह मंदिर में आया हूं, और यह क्‍या हो रहा है? और कई बार ऐसा भी होता है कि तुम अपनी प्रेमिका या अपनी पत्‍नी के बैठे हो, और वह एकदम निकट ही बैठी होती—केवल तुम्‍हें कामवासना की कोई इच्‍छा ही नहीं होती है। इसका मतलब है उस समय काम केंद्र अपने केंद्र पर नहीं है, जहां कि उसे होना चाहिए। कई बार ऐसा होता है जब तुम कामवासना की कल्‍पना कर रहे होते हो, कामवासना के स्‍वप्‍नों में खोए होते हो, उस समय तुम अपने को अधिक आनंदित अनुभव करते हो। और जब स्‍त्री के साथ प्रेम कर रहे होते हो उस समय तुम्‍हें अपने को ज्‍यादा आनंदित अनुभव नहीं करते हो।
      उस समय क्‍या होता है? हम यह जानते ही नहीं है कि हमारा केंद्र कहां पर है। लेकिन जब कोई व्‍यक्‍ति साक्षी को उपलब्‍ध हो जाता है। तो कौन सा केंद्र किस जगह है, उसके प्रति वह बोधपूर्ण हो जाता है। यह उस केंद्र के प्रति वह होश से भर जाता है। और जब व्‍यक्‍ति बोध और होश से भर जाता है, तभी कुछ घटने की संभावना होती है।
      जब वह केंद्र कानों में होता है, तो वह कानों को ऊर्जा प्रदान करती है। उस समय अगर उन क्षणों का ठीक से उपयोग किया जा सके, तो व्‍यक्‍ति एक कुशल संगीतकार बन सकता है। जब वह केंद्र आंखों में होता है, अगर उस क्षण का उपयोग ठीक से किया जाए। तो व्‍यक्‍ति एक कुशल चित्रकार, या एक कुशल कलाकार बन सकता है। तब वृक्षों का हरा रंग कुछ अलग ही दिखाई पड़ता है। तब गुलाब के फूलों का खिलना और उनका गुणधर्म कुछ अलग ही हो जाता है। तब उनके साथ एक प्रकार का तादात्‍म्‍य स्‍थापित हो जाता है। अगर वह काम-केंद्र अलग ही हो जाता है। तब उनके व्‍यक्‍ति एक बड़ा वक्‍ता बन सकता है। अपने बोलने के माध्‍यम से यह लोगों को सम्‍मोहित कर सकता है। तब एक शब्‍द भी जब सुनने वालों का ह्रदय में उतरना है, तो लोगों को सम्‍मोहित कर जाते है। यही वे क्षण होते है.....अगर व्‍यक्‍ति का काम केंद्र आंखों में है, तो बस किसी की तरफ एक दृष्‍टि का पड़ना और वह व्‍यक्‍ति सम्‍मोहित हो जाता है। तब व्‍यक्‍ति चुंबक की तरह हो जाता है। उसमें सम्‍मोहन की शक्‍ति आ जाती है। जब काम केंद्र हाथों में आ जाता है, तो फिर किसी भी चीज को छूने भर से वह सोना बन जाती है। क्‍योंकि काम-केंद्र की उर्जा जीवन से भरी हुई उर्जा होती है।
      और यह बात चंद्र केंद्र के संबंध में भी सत्‍य है।
      अभी तक मैंने केंद्रों की स्‍थित स्‍थितियों के विषयों पर बात की। साधारणतया वे वहीं पाए जाते है; लेकिन फिर भी कुछ स्‍थिर नहीं है। सभी कुछ गतिवान है। अगर व्‍यक्‍ति का मृत्‍यु केंद्र उसके हाथ में है, और तब अगर ऐसे व्‍यक्‍ति को डाक्‍टर दवाई भी देगा तो भी रोगी मर जाएगा। चाहे चिकित्‍सक कुछ भी करे, तो भी रोगी को बचाना संभव नहीं है। भारत में यह कहा जाता है, ‘’डाक्‍टर के पास चिकित्‍सक के हाथ होते है; जो कुछ भी वह छूता है, वह दवा बन जाती है।‘’ और जो डाक्‍टर ऐसा न हो, उसके पास भूलकर मत जाना; क्‍योंकि तब कोई साधारण सी बीमारी का भी वह इलाज नहीं कर पाएगा, और मरीज की हालत पहले से भी ज्‍यादा खराब हो जाएगी।
      इस मामले में योगी एकदम सचेत और जागरूक होता है। आयुर्वेद, जो चिकित्‍सा विज्ञान भारत में योग के साथ-साथ ही विकसित हुआ है। उसके अंतर्गत चिकित्‍सक को योगी भी होना पड़ता था। जब तक कोई आदमी योगी न हो जाए, वह चिकित्‍सक भी नहीं हो सकता था। क्‍योंकि उसके बिना कोई सच्‍चा चिकित्‍सक हो नहीं सकता। इससे पहले कि कोई चिकित्‍सक किसी रोगी के पास उसकी चिकित्‍सा करने के लिए जाए, उस चिकित्‍सक को अपने अंतर्जगत की व्‍यवस्‍था को ठीक से समझना और देखना होता था। अगर मृत्‍यु केंद्र उसके हाथ में आ गया हो, तो वह नहीं जायेगा। अगर मृत्‍यु केंद्र उसकी आँख में हो तब भी वह नहीं जायेगा। उस चिकित्‍सक का मृत्‍यु केंद्र उसके हारा में स्‍थित होना चाहिए। तभी वह रोगी को देखने के लिए जाता था। जब सभी केंद्र अपने-अपने स्‍थान पर होते थे, तभी वह रोगी को देखने जाता था।
      जब व्‍यक्‍ति अपने अंतर्जगत को जान लेता है, तो बहुत सी बातें जान सकना संभव हो जाता है। तुमने भी इस पर कई बार ध्‍यान दिया होगा। लेकिन तुम्‍हें मालूम नहीं होता है कि क्‍या हो रहा है। कई बार बिना किसी विशेष प्रयास के सफलता मिलती चली जाती है। और कई बार कठोर परिश्रम करने के बाद भी असफलता मिलती चली जाती है। इसका मतलब है कि उस समय अंतर व्‍यवस्‍था ठीक नहीं है। तुम गलत केंद्र से काम कर रहे हो।
      जब कोई योद्धा युद्ध के मैदान में जाता है, युद्ध के मोर्चे पर जाता है, तो उसे तब ही जाना चाहिए जब मृत्‍यु केंद्र उसके हाथ में हो। तब....तब वह बड़ी आसानी से लोगों को मार सकता है। तब वह साक्षात मृत्‍यु का ही रूप धारण कर लेता है। बुरी नजर की यहीं अर्थ होता है, वह व्‍यक्‍ति जिसका मृत्‍यु केंद्र उसकी आंखों में ठहर गया है। अगर ऐसा आदमी किसी की और देख भी ले तो वह मुसीबतों में फँसता चला जाएगा। उसका देखना भी अभिशाप हो जाता है।
      और ऐसे लोग भी है जिनकी आंखों में जीवन-केंद्र होता है। वे अगर किसी की तरफ देख भर लें, तो ऐसा लगता है जैसे आशीष बरस गए हों, ऐसे व्‍यक्‍ति का देखना और सामने वाला आदमी आनंद से भर जाता है। उसका देखना और सामने वाला व्‍यक्‍ति एकदम जीवंत सा हो जाता है।
’’ध्रुव-नक्षत्र पर संयम संपन्‍न करने से तारों-नक्षत्रों की गतिमयता का ज्ञान प्राप्‍त होता है।‘’
ओशो
पतंजलि : योग सूत्र—भाग-4
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पुणे

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें