शिव
कहते है:
हे
देवी, यह
अनुभव दो श्वासों
के बीच घटित
हो सकता है।
श्वास
के भीतर आने
के पश्चात और
बाहर लौटने के
ठीक पूर्व--
श्रेयस्
है, कल्याण
है।
आरंभ की
नौ विधियां श्वास-क्रिया
से संबंध रखती
है। इसलिए
पहले हम श्वास-क्रिया
के संबंध में
थोड़ा समझ लें
और विधियों
में प्रवेश
करेंगे।
हम
जन्म से मृत्यु
के क्षण तक
निरंतर श्वास
लेते रहते है।
इन दो बिंदुओं
के बीच सब कुछ
बदल जाता है।
सब चीज बदल
जाती है। कुछ
भी बदले बिना
नहीं रहता।
लेकिन जन्म
और मृत्यु के
बीच श्वास
क्रिया अचल
रहती है। बच्चा
जवान होगा,
जवान बूढ़ा
होगा। वह।
बीमार होगा।
उसका शरीर
रूग्ण और कुरूप
होगा। सब कुछ
बदल जायेगा।
वह सुखी होगा,
दुःखी होगा,
पीड़ा में
होगा, सब कुछ
बदलता रहेगा।
लेकिन इन दो
बिंदुओं के
बीच आदमी श्वास
भर सतत लेता
रहेगा।
श्वास
क्रिया एक सतत
प्रवाह है,
उसमें अंतराल
संभव नहीं है।
अगर तुम एक
क्षण के लिए
भी श्वास
लेना भूल जाओं
तो तुम समाप्त
हो जाओगे। यही
कारण है कि श्वास
लेने का जिम्मा
तुम्हारी
नहीं है। नहीं
तो मुश्किल हो
जायेगी। कोई
भूल जाये श्वास
लेना तो फिर
कुछ भी नहीं
किया जा सकता।
इसलिए
यथार्थ में
तुम श्वास
नहीं लेते हो,
क्योंकि
उसमे तुम्हारी
जरूरत नहीं
है। तुम गहरी
नींद में हो
और श्वास
चलती रहती है।
तुम गहरी
मूर्च्छा
में हो और श्वास
चलती रहती है।
श्वासन तुम्हारे
व्यक्तित्व
का एक अचल तत्व
है।
दूसरी
बात यह जीवन
के अत्यंत
आवश्यक और
आधारभूत है।
इस लिए जीवन
और श्वास
पर्यायवाची
हो गये। इस
लिए भारत में
उसे प्राण
कहते है। श्वास
और जीवन को
हमने एक शब्द
दिया। प्राण
का अर्थ है,
जीवन शक्ति,
जीवंतता।
तुम्हारा
जीवन तुम्हारी
श्वास है।
तीसरी
बात श्वास
तुम्हारे और
तुम्हारे
शरीर के बीच
एक सेतु है।
सतत श्वास
तुम्हें
तुम्हारे
शरीर से जोड़
रही है।
संबंधित कर
रही है। और श्वास
ने सिर्फ तुम्हारे
और तुम्हारे
शरीर के बीच
सेतु है, वह
तुम्हारे और
विश्व के बीच
भी सेतु है।
तुम्हारा
शरीर विश्व
का अंग है।
शरीर की हरेक
चीज, हरेक कण,
हरेक कोश विश्व
का अंश है। यह
विश्व के साथ
निकटतम संबंध
है। और श्वास
सेतु है। और
अगर सेतु टूट
जाये तो तुम
शरीर में नहीं
रह सकते। तुम
किसी अज्ञात
आयाम में चले
जाओगे। इस लिए
श्वास तुम्हारे
और देश काल के
बीच सेतु हो
जाती है।
श्वास
के दो बिंदु
है, दो छोर है।
एक छोर है
जहां वह शरीर
और विश्व को
छूती है। और
दूसरा वह छोर
है जहां वह
विश्वातीत
को छूती है।
और हम श्वास
के एक ही हिस्से
से परिचित है।
जब वह विश्व
में, शरीर में
गति करती है।
लेकिन वह सदा
ही शरीर से
अशरीर में गति
करती है। अगर
तुम दूसरे
बिंदू को, जो
सेतु है, धुव्र
है, जान जाओं।
तुम एकाएक
रूपांतरित
होकर एक दूसरे
ही आयाम में
प्रवेश कर
जाओगे।
लेकिन
याद रखो, शिव
जो कहते है वह
योग नहीं है। वह
तंत्र है। योग
भी श्वास पर
काम करता है।
लेकिन योग और
तंत्र के काम
में बुनियादी
फर्क है। योग
श्वास-क्रिया
को व्यवस्थित
करने की चेष्टा
करता है। अगर
तुम अपनी श्वास
को व्यवस्था
दो तो तुम्हारा
स्वास्थ
सुधर जायेगा।
इसके रहस्यों
को समझो, तो
तुम्हें स्वास्थ
और दीर्घ जीवन
मिलेगा। तुम ज्यादा
बलि, ज्यादा
ओजस्वी, ज्यादा
जीवंत, ज्यादा
ताजा हो
जाओगे।
लेकिन
तंत्र का इससे
कुछ लेना देना
नहीं है। तंत्र
स्वास की व्यवस्था
की चिंता नहीं
करता। भीतर की
और मुड़ने के लिए
वह श्वास
क्रिया का
उपयोग भर करता
है। तंत्र में
साधक को किसी
विशेष ढंग की
श्वास का अभ्यास
नहीं करना
चाहिए। कोई
विशेष
प्राणायाम
नहीं साधना
है, प्राण को लयवद्ध
नहीं बनाना
है; बस उसके
कुछ विशेष बिंदुओं
के प्रति
बोधपूर्ण
होना है।
श्वास
प्रश्वास के
कुछ बिंदु है
जिन्हें हम
नहीं जानते।
हम सदा श्वास
लेते है। श्वास
के साथ जन्मते
है, श्वास के
साथ मरते है।
लेकिन उसके
कुछ महत्व
पूर्ण
बिंदुओं को
बोध नहीं है।
और यह हैरानी
की बात है।
मनुष्य
अंतरिक्ष की
गहराइयों में
उतर रहा है,
खोज रहा है, वह
चाँद पर पहुंच
गया है। लेकिन
वह अपने जीवन
के इस निकटतम
विंदु को समझ
नहीं सका। श्वास
के कुछ बिंदु
है, जिसे
तुमने कभी
देखा नहीं है।
वे बिंदु
द्वार है,
तुम्हारे
निकटतम द्वार
है, जिनसे
होकर तुम एक
दूसरे ही
संसार में, एक
दूसरे ही अस्तित्व
में, एक दूसरी
ही चेतना में
प्रवेश कर
सकते हो।
लेकिन
वह बिंदु बहुत
सूक्ष्म है।
जो चीज जितनी
निकट हो उतनी
ही कठिन मालूम
पड़ेगी, श्वास
तुम्हारे
इतना करीब है,
कि उसके बीच
स्थान ही
नहीं बना
रहता। या इतना
अल्प स्थान
है कि उसे
देखने के लिए
बहुत सूक्ष्म
दृष्टि
चाहिए। तभी
तुम उन
बिंदुओं के
प्रति बोध पूर्ण
हो सकते हो।
ये बिंदु इन
विधियों के
आधार है।
शिव
उत्तर में कहते
है—हे देवी, यह
अनुभव दो श्वासों
के बीच घटित
हो सकता है।
श्वास के
भीतर आने के
पश्चात और
बाहर लौटने के
ठीक पूर्व—श्रेयस्
है, कल्याण
है।
यह
विधि है: हे
देवी, यह
अनुभव दो श्वासों
के बीच घटित
हो सकता है।
जब श्वास
भीतर अथवा
नीचे को आती
है उसके बाद
फिर श्वास के
लौटने के ठीक
पूर्व—श्रेयस्
है। इन दो
बिंदुओं के
बीच होश पुर्ण
होने से घटना
घटती है।
जब
तुम्हारी श्वास
भीतर आये तो
उसका
निरीक्षण
करो। उसके फिर
बाहर या ऊपर
के लिए मुड़ने
के पहले एक
क्षण के लिए,
या क्षण के हज़ारवें
भाग के लिए श्वास
बंद हो जाती
है। श्वास
भीतर आती है, और
वहां एक बिंदु
है जहां वह
ठहर जाती है।
फिर श्वास
बाहर जाती है।
और जब श्वास
बाहर जाती है।
तो वहां एक
बिंदु पर ठहर
जाती है। और
फिर वह भीतर
के लौटती है।
श्वास
के भीतर या
बाहर के लिए
मुड़ने के
पहले एक क्षण
है जब तुम श्वास
नहीं लेते हो।
उसी क्षण में
घटना घटनी संभव
है। क्योंकि
जब तुम श्वास
नहीं लेते हो
तो तुम संसार
में नहीं होते
हो। समझ लो कि
जब तुम श्वास
नहीं लेते हो
तब तुम मृत हो;
तुम तो हो,
लेकिन मृत।
लेकिन यह क्षण
इतना छोटा है
कि तुम उसे कभी
देख नहीं
पाते।
तंत्र
के लिए प्रत्येक
बहिर्गामी श्वास
मृत्यु है और
प्रत्येक नई
स्वास
पुनर्जन्म
है। भीतर आने
वाली श्वास
पुनर्जन्म
है; बाहर जाने
वाली श्वास
मृत्यु है।
बाहर जाने
वाली श्वास
मृत्यु का
पर्याय है;
अंदर जाने
वाली श्वास
जीवन का।
इसलिए प्रत्येक
श्वास के साथ
तुम मरते हो
और प्रत्येक
श्वास के साथ
तुम जन्म
लेते हो।
दोनों के बीच
का अंतराल
बहुत क्षणिक
है, लेकिन पैनी
दृष्टि,
शुद्ध
निरीक्षण और
अवधान से उसे
अनुभव किया जा
सकता है। और
यदि तुम उस
अंतराल को
अनुभव कर सको
तो शिव कहते
है कि श्रेयस्
उपलब्ध है।
तब और किसी
चीज की जरूरत
नहीं है। तब
तुम आप्तकाम
हो गए। तुमने
जान लिया;
घटना घट गई।
श्वास
को
प्रशिक्षित
नहीं करना। वह
जैसी है उसे
वैसी ही बनी
रहने देना।
फिर इतनी सरल
विधि क्यों? सत्य
को जानने को
ऐसी सरल विधि? सत्य
को जानना उसको
जानना है।
जिसका न जन्म
है न मरण। तुम
बहार जाती श्वास
को जान सकते
हो, तुम भीतर
जाती श्वास
को जान सकते
हो। लेकिन तुम
दोनों के
अंतराल को कभी
नहीं जानते।
प्रयोग
करो और तुम उस
बिंदु को पा
लोगे। उसे अवश्य
पा सकते हो।
वह है। तुम्हें
या तुम्हारी
संरचना में
कुछ जोड़ना
नहीं है। वह
है ही। सब कुछ
है; सिर्फ बोध
नहीं है। कैसे
प्रयोग करो? पहले
भीतर आने वाली
श्वास के
प्रति होश
पूर्ण बनो।
उसे देखो। सब
कुछ भूल जाओ
और आने वाली
श्वास को,
उसके यात्रा
पथ को देखो।
जब श्वास
नासापुटों को
स्पर्श करे
तो उसको महसूस
करो। श्वास
को गति करने
दो और पूरी
सजगता से उसके
साथ यात्रा
करो। श्वास
के साथ ठीक
कदम से कदम
मिलाकर नीचे
उतरो; न आगे
जाओ और ने
पीछे पड़ो। उसका
साथ न छूटे;
बिलकुल
साथ-साथ चलो।
स्मरण
रहे, न आगे
जाना है और न
छाया की तरह
पीछे चलना है।
समांतर चलो।
युगपत। श्वास
और सजगता को
एक हो जाने
दो। श्वास
नीचे जाती है
तो तुम भी
नीचे जाओं; और
तभी उस बिंदु
को पा सकते हो,
जो दो श्वासों
के बीच में
है। यह आसान
नहीं है। श्वास
के साथ अंदर
जाओ; श्वास
के साथ बाहर
आओ।
बुद्ध
ने इसी विधि
का प्रयोग विशेष
रूप से किया;
इसलिए यह
बौद्ध विधि बन
गई। बौद्ध शब्दावली
में इसे अनापानसति
योग कहते है।
और स्वयं
बुद्ध की आत्मोपलब्धि
इस विधि पर ही
आधारित थी।
संसार के सभी
धर्म, संसार
के सभी द्रष्टा
किसी न किसी
विधि के जरिए
मंजिल पर
पहुंचे है। और
वह सब विधियां
इन एक सौ बारह
विधियों में
सम्मिलित
है। यह पहली
विधि बौद्ध
विधि है।
दुनिया इसे
बौद्ध विधि के
रूप में जानती
है। क्योंकि
बुद्ध इसके
द्वारा ही
निर्वाण को
उपलब्ध हुए
थे।
बुद्ध
न कहा है।
अपनी श्वास-प्रश्वास
के प्रति सजग
रहो। अंदर
जाती, बहार
आती, श्वास
के प्रति होश
पूर्ण हो जाओ।
बुद्ध अंतराल की
चर्चा नहीं
करते। क्योंकि
उसकी जरूरत ही
नहीं है।
बुद्ध ने सोचा
और समझा कि
अगर तुम
अंतराल की, दो
श्वासों के
बीच के विराम
की फिक्र करने
लगे, तो उससे
तुम्हारी
सजगता खंडित
होगी। इसलिए
उन्होंने
सिर्फ यह कहा
कि होश रखो, जब
श्वास भीतर
आए तो तुम भी
उसके साथ भीतर
जाओ और जब श्वास
बहार आये तो
तुम उसके साथ
बहार आओ। विधि
के दूसरे हिस्से
के संबंध में
बुद्ध कुछ नहीं
कहते।
इसका
कारण है। कारण
यह है कि
बुद्ध बहुत
साधारण लोगों
से, सीधे-सादे
लोगों से बोल
रहे थे। वे उनसे
अंतराल की बात
करते तो उससे
लोगों में
अंतराल को
पाने की एक
अलग कामना
निर्मित हो
जाती। और यह
अंतराल को
पाने की कामना
बोध में बाधा
बन जाती। क्योंकि
अगर तुम
अंतराल को
पाना चाहते हो
तो तुम आगे
बढ़ जाओगे; श्वास
भीतर आती
रहेगी। और तुम
उसके आगे निकल
जाओगे। क्योंकि
तुम्हारी
दृष्टि
अंतराल पर है
जो भविष्य
में है। बुद्ध
कभी इसकी
चर्चा नहीं
करते; इसीलिए
बुद्ध की विधि
आधी है।
लेकिन
दूसरा हिस्सा
अपने आप ही
चला आता है। अगर तुम श्वास
के प्रति
सजगता का, बोध
का अभ्यास
करते गए तो एक
दिन अनजाने ही
तुम अंतराल को
पा जाओगे। क्योंकि
जैसे-जैसे
तुम्हारा
बोध तीव्र,
गहरा और सघन
होगा,
जैसे-जैसे
तुम्हारा
बोध स्पष्ट
आकार लेगा। जब
सारा संसार
भूल जाएगा। बस
श्वास का आना
जाना ही
एकमात्र बोध
रह जाएगा—तब अचानक
तुम उस अंतराल
को अनुभव
करोगे।
जिसमें श्वास
नहीं है।
अगर
तुम सूक्ष्मता
से श्वास-प्रश्वास
के साथ यात्रा
कर रहे हो तो
उस स्थिति के
प्रति अबोध
कैसे रह सकते
हो। जहां स्वास
नहीं है। वह
क्षण आ ही
जाएगा जब तुम
महसूस करोगे।
कि अब श्वास
न जाती है, न
आती है। श्वास
क्रिया
बिलकुल ठहर गई
है। और उसी
ठहराव में श्रेयस्
का वास है।
यह
एक विधि
लाखों-करोड़ों
लोगों के लिए
पर्याप्त
है। सदियों तक
समूचा एशिया
इस एक विधि के
साथ जीया और उसका
प्रयोग करता
रहा। तिब्बत,
चीन, जापन,
बर्मा, श्याम,
श्रीलंका।
भारत को
छोड़कर समस्त
एशिया सदियों
तक इस एक विधि
का उपयोग करता
रहा। और इस एक विधि
के द्वारा
हजारों-हजारों
व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध हुए। और
यह पहली ही
विधि है।
दुर्भाग्य
की बात कि
चूंकि यह विधि
बुद्ध के नाम
से संबंद्ध हो
गई। इसलिए
हिंदू इस विधि
से बचने की
चेष्टा में
लगे रहे। क्योंकि
यह बौद्ध विधि
की तरह बहुत
प्रसिद्ध हुई।
हिंदू इसे
बिलकुल भूल
गये। इतना ही
नहीं, उन्होंने
और एक कारण से इसकी
अवहेलना की।
क्योंकि शिव
ने सबसे पहले इस
विधि का उल्लेख
किया, अनेक
बौद्धों ने इस
विज्ञान भैरव
तंत्र के
बौद्ध ग्रंथ
होने का दावा
किया। वे इसे
हिंदू ग्रंथ नहीं
मानते।
यह
न हिंदू है और न
बौद्ध, और विधि
मात्र विधि
है। बुद्ध ने
इसका उपयोग
किया, लेकिन
यह उपयोग के
लिए मौजूद ही
थी। और इस विधि
के चलते
बुद्ध-बुद्ध
हुए। विधि तो
बुद्ध से भी
पहले थी। वह
मौजूद ही थी।
इसको प्रयोग में
लाओ। यह सरलतम
विधियों में से
है—अन्य विधियों
की तुलना में।
मैं यह नहीं कहता
कि यह विधि
तुम्हारे
लिए सरल है।
अन्य
विधियां अधिक
कठिन होंगी।
यही कारण है
कि पहली विधि
की तरह इसका
उल्लेख हुआ
है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन—2,
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