कूर्मनाडयां
स्थैर्यम्--
कूर्म-नाड़ी
प्राण की, श्वास
की वाहिका है।
अगर हम
चुपचाप,
शांतिपूर्वक
अपने श्वसन पर
ध्यान दें,
किसी भी ढंग
से श्वास की
लय न बिगड़े, न
तो स्वास तेज
हो, और न ही
धीमी हो, बस
उसे स्वाभाविक
और शिथिल रूप
से चलने दें।
तब अगर हम केवल
श्वास को
देखते रहे, तो
हम धीरे-धीरे
थिर होने लगेंगे।
फिर भीतर किसी
तरह की कोई
हलन-चलन नहीं होगी।
क्यों?
क्योंकि
सभी हलन-चलन,
गति श्वास के
द्वारा ही
होती है। श्वास
से ही पूरी की
पूरी गति होती
है। श्वास ही
सारी हलन-चलन
और गतियों का
संचरण करती
है। जब श्वास
रूक जाती है।
तो व्यक्ति
मर जाता है।
फिर वह चल फिर
नहीं सकता।
हिल-डुल नहीं
सकता।
अगर व्यक्ति
निरंतर श्वास
पर ही संयम
करता है,
कूर्म-नाड़ी
पर ही केंद्रित
रहे, तो
धीरे-धीरे एक
ऐसी अवस्था आ
जाएगी जहां पर
स्वास
करीब-करीब रूक
ही जाती है।
योगी इस
ध्यान की
प्रक्रिया को
दर्पण के
सामने करते
है, क्योंकि
योगी की श्वास
धीरे-धीरे
इतनी शांत हो
जाती है। कि
उसे श्वास चल
रही है या
नहीं इसकी
प्रतीति भी
नहीं रह जाती
है। अगर दर्पण
पर श्वास की
कुछ धुंध आ
जाए, तो ही उन्हें
मालूम पड़ता
है कि उनकी श्वास
चल रही है। कई
बार योगी ध्यान
में इतनी शांत
और थिर हो
जाते है कि
उन्हें यह
मालूम ह नहीं
पड़ता कि वह
भी जिंदा है या
नहीं है। ध्यान
की गहराई में
तुम्हें भी
यह अनुभव कभी
न कभी घटेगा।
उससे भयभीत मत
होना। उस समय
श्वास लगभग
रूक सी जाती
है। जब होश
अपनी परिपूर्णता
पर होता है, उस
समय श्वास
लगभग ठहर जाती
है। लेकिन उस
समय परेशान मत
होना। भयभीत
मत होना, यह
काई मृत्यु
नहीं है। वह
तो केवल शांत
अवस्था है।
योग का
संपूर्ण
प्रयास ही इस
बात के लिए है
कि व्यक्ति
को ऐसी गहन
शांत अवस्था
तक ले आए कि
फिर उस शांति
को कोई भी भंग
न कर सके।
चेतना ऐसी
शांत अवस्था
को उपलब्ध हो
जाए कि फिर
उसकी शांति
भंग न हो सके।
योग
का अर्थ है, एक
होने की विधि।
योग का अर्थ
है, जो कुछ
अलग-अलग जा पडा
है। उसे फिर
से जोड़ना।
योग का अर्थ
है जोड़। योग
का अर्थ है,
यूनिओ मिस्टिका।
योग का अर्थ
है, एकता। हां,
लाभ की प्राप्त
तभी होती है
जब हम दो का एक
कर सकें।
और योग
का पूरा
प्रयास ही
इसके लिए है
कि शाश्वतता
को कैसे पा
सकें, जीजों
के पीछे छीपी
एकात्मकता
को कैसे पा
सकें। सभी
परिवर्तनों,
सभी गतियों के
पीछे छीपी
थिरता को कैसे
प्राप्त कर
सकें—अमृत को
कैसे उपल्बध
हो सकें, मृत्यु
का अतिक्रमण
कैसे कर सकें।
निश्चित
ही हमारी
आदतें बाधा
खड़ी करेंगी।
क्योंकि
लंबे समय से
हम इन्हीं
गलत आदतों के
साथ जीते आ
रहे है। हमारे
मन का गलत
आदतों के साथ
तालमेल बैठ
गया है। इसी कारण
हम हमेशा हर
चीज को
खंड-खंड में तोड़
देते है। आदमी
की बुद्धि इसी
के लिए प्रशिक्षित
हुई है कि
पहले हर चीज
को विभक्त कर
दो और फिर
चीजों का विश्लेषण
करो और एक चीज
को बहुत रूपों
में विभाजित
कर दो। मनुष्य
आज तक बुद्धि
से ही जीता
आया है, और वह
भूल ही गया है
कि चीजों को
कैसे जोड़ना
है, कैसे एक
करना है।
लेकिन
हमारी पुरानी
आदतें चीजों
को विश्लेषित
करने की, चीर
फाड़ करने की
है। हमारी
पुरानी आदतें
यही है कि उसे
खोजना है जो निरंतर
परिवर्तनशील
है। मन तो
हमेशा नए में और
परिवर्तन में ही
रोमांच का
अनुभव करता
है। अगर कुछ
भी बदले नहीं, सब
कुछ वैसा का
वैसा ही रहे,
तो मन उदास हो
जाता है, हमें
मन की इन
आदतों के प्रति
सचेत होना
होगा। अन्यथा
आदतें तो किसी
ने किसी रूप
में बनी ही
रहेंगी। और मन
बहुत चालाक
है।
ध्यान
रहे मन कि आदत
विश्लेषण
करने की है। और
योग है संश्लेषण,
तो जब कभी मन विश्लेष
ण करे, उसे
उठाकर एक तरफ
रख देना। विश्लेषण
के द्वारा तुम
अंतिम छोर तक,
छोटे से छोटे,
अणु परिमाणु तक
पहुंच जाओगे।
लेकिन संश्लेषण
के द्वारा तुम
विराट और समग्र
तक पहुंच जाओगे।
विज्ञान खोज
करते-करते अणु
तक जा पहुंचा।
और योग
खोजते-खोजते,
आत्मा तक
पहुंच गया।
अणु का अर्थ
है: लघु और छोटा,
और आत्मा का
अर्थ है,
विराट। योग ने
संपूर्ण को
जाना है,
समग्र हो
अनुभव किया
है। और विज्ञान
ने छोटे और उससे
भी छोटे तत्व
को जाना है। और
इसी तरह वह
लधु की और चलता
जा रहा है।
पहले तो
विज्ञान ने
पदार्थ को अणु
में विभाजित
किया। फिर विज्ञान
ने पाया कि
अणु को
विभाजित करना
कठिन है; फिर
जब वे अणु का
भी विभाजन
करने में सफल
हो गए, तो उन्होंने
उसे परमाणु
कहा। अणु का
अर्थ ही होता
है वह तत्व
जो अविभाज्य
जिसे अब और अधिक
विभाजित न
किया जा सके।
लेकिन
विज्ञान ने
उसे भी
विभाजित कर
दिया। फिर
विज्ञान इलेक्ट्रॉन
न न्यूट्रॉन
तक जा पहुंचा, और
उसने सोचा कि
अब और विभाजन
संभव नहीं है।
क्योंकि
पदार्थ लगभग
अदृश्य ही हो
गया था। उसे
अब देखना संभव
नहीं था। जब इलेक्ट्रॉन
दिखाई ही नहीं
देता, तो कैसे
उसका विभाजन
संभव हो सकता
है। लेकिन अब
विज्ञान उसे
भी विभाजित
करने में सफल
हो गया है।
बिना इलेक्ट्रॉन
को देखे,
वैज्ञानिकों
के उसको भी
विभक्त कर दिया
है।
वैज्ञानिक
इसी तरह से
चीजों को
विभक्त करते
चले
जाएंगे......अब
सभी कुछ हाथ
के बाहर हो
गया है।
योग ठीक
इसके विपरीत
प्रक्रिया है:
योग संश्लेषण
की प्रक्रिया
है। योग जुड़ते
जाने की और अधिकाधिक
जुड़ते जाने
की प्रक्रिया
है, जिससे अंत में
व्यक्ति
अपने पूर्ण स्वरूप
तक जा पहुंचे,
स्वयं के साथ
एक हो जाए।
अस्तित्व
एक है।
मन को
भी सूर्य-मन, और
चंद्र-मन में विभक्त
किया जा सकता
है। सूर्य मन
वैज्ञानिक
होता है,
चंद्र मन काव्यात्मक
होता है।
सूर्य-मन विश्लेषणात्मक
होता है,
चंद्र-मन संश्लेषणात्मक
होता है।
सूर्य-मन
गणितीय,
तार्किक, अरस्तुगत
होता है।
चंद्र-मन
बिलकुल अलग ही
ढंग का होता
है—असंगत होता
है। अतार्किक
होता है।
सूर्य-मन और चंद्र-मन
दोनों इतने अलग-अलग
ढंग से कार्य
करते है कि
उनके बीच कही कोई
संवाद नहीं हो
पाता।
तुम कौन
से केंद्र पर
हो इसको जानने
का प्रयत्न
करो, तुम
सूर्य-मन हो—तब
गणित और तर्क
तुम्हारे
जीवन की शैली
है। अगर तुम
चंद्र-मन हो
तो—तो काव्य,
कल्पनाशीलता
तुम्हारी जीवन-शैली
होगी। तो तुम
क्या हो और तुम्हारी
क्या स्थिति
है, पहले तो
इसे जानना
जरूरी है।
और ध्यान
रहे, दोनों मन
आधे-आधे होते
है, तुम्हें
दोनों के ही
पार जाना है।
अगर तुम सूर्य
मन हो तो पहले
चंद्र मन तक
आना होगा। फिर
उसके भी आगे
जाना है। अगर
तुम गृहस्थ
हो, तो पहले
जिप्सी हो
जाओ।
यही है,
संन्यास।
मैं तुम्हें
जिप्सी बना
रहा हूं, घुमक्कड़
बना रहा हूं।
अगर तुम बहुत
ज्यादा
तार्किक हो,
तो मैं तुमसे
कहता हूं,
श्रद्धा करो,
समर्पण करो,
त्याग करो,
सर्व-स्वीकार
भाव से झुको।
अगर तुम बहुत
ज्यादा
तार्किक हो,
तो मैं तुम से
कहूंगा कि
यहां तर्क की
कोई जरूरत
नहीं है, बस
मेरी और देखो और
प्रेम में डूब
जाओ। अगर ऐसा
कर सको तो अच्छा
है, क्योंकि
यह एक प्रेम
का नाता है।
अगर तुम
श्रद्धा में
जी सकते हो, तो
तुम्हारी
ऊर्जा सूर्य
से चंद्र की और
सरक जाएगी।
जब तुम्हारी
ऊर्जा सूर्य से
चंद्र की और सरक
जाती है। तो
एक नयी ही
संभावना का
द्वार खुलता
है। तुम फिर
चंद्र के भी
पार जा सकत हो,
तब तुम साक्षी
हो जाते हो, और वही
है उद्देश्य,
वही है मंजिल।
ओशो
पतंजलि :
योग-सूत्र,
भाग—4, प्रवचन—13
आनंदजी, प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान—इन पाँच प्राणों के पाँच गौण प्राण भी होते हैं, जिन्हें तरतीब से नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय कहते हैं। ऐसा रामदेव स्वामी की प्राणायाम की किताब में लिखा है।
जवाब देंहटाएंउस किताब में ज़्यादा ब्यौरा नहीं है, बस इन गौण प्राणों के स्थान बता रखे हैं जो कि प्राणों से अलग है। नाग का स्थान नाभि के ज़रा ऊपर है और कूर्म का स्थान आँखों की पलके हैं। गौण प्राण का प्राणों से क्या संबंध है— इस पर कोई टिप्पणी नहीं है उधर।
कूर्म कछुए को कहते हैं। विष्णु के कछुए के अवतार को कूर्मावतार कहते हैं।
मेरा सवाल है क्या कूर्म सिर्फ़ गौण प्राण है, या श्वास की वाहिका नाड़ी पर कुछ और भी ज़िक्र मिलता है पतंजलि ऋषि की किताब में। और अगर कूर्म का स्थान आँखों की पलकें हैं, तो त्राटक कूर्म का अभ्यास हुआ (और यों अपान का भी)।