मुल्ला
जी—(आनंद
मोहम्मद)
मुल्ला
जी, हां ये नाम
सुन का आप भी
जरूर थोड़ा चोंकोगे।
मैं भी उसे
देख कर थोड़ी
दे के लिए
अवाक सा रह
गया। मन पर चल
रहा विचारों
का शोर थोड़ी
देर के लिए थम
गया था, वह पथ
कुछ क्षण के
लिए सूना हो
गया था। मैं
उसे अपलक देखा
ही रह गया।
सफेद नमाजी
टोपी, चेहरे
पर हल्की
दाढ़ी, रंग का
थोड़ा सांवला,
मोटे होठ, और
गहरी काली
आंखे.....जो आपको
कुछ क्षण के
लिए किसी गहरे-शीतल
एकांत में ले
जायेंगे। जी
हां, ‘’ओशो’’ का एक
सन्यासी का
नाम है, मुल्ला
जी( आनंद
मोहम्मद) जो
एक कट्टर
मुसलिम
परिवार में
पैदा हुआ। और
अपने लड़क पन
में ही बगावत
कर ओशो से
जूड़ गया। जिस
उम्र में बच्चें
को कुछ समझ
नहीं होती, या
यूं कह लो वह
यार दोस्तों
में मौज़ मस्ती
कर के अपने
जीवन को खत्म
कर रहे होता
है। उस समय यह
अंजान और बेबूझी
सी उस डगर वर बालक
ओशो के उस
अथाह समुद्र
में कैसे गोते
लगा गया, गोते
ही नहीं
लगाये, वह संन्यास
ले कर उस में
पूर्णता से
डूब भी गया।
इस उम्र में
उसकी प्रौढ़ता
किसी से उधार
ली हुई नहीं
हो सकती, ये सब
उसने में जन्म-जन्म
अर्जित किया
होगा। बूंद-बूंद
जब गागर पूरी
तरह से भर गई
होगी। जिस के
आगे कोई रस-रस
नहीं रहता। वह
उस महारस को
चख लेता है।
जिसे आनंद मोहम्मद
ने ओशो में
डूब कर चखा। कितनी
मार, यातना,
तिरस्कार, और
अपमान सहने के
बाद भी उसका सहसा
टूटा नहीं। इस
सब के बाद और-और
उस सन्यास
में निखार आता
चला गया। सच
उस उतंग
हिमालय को देख
मन किन्हीं
दूर उड़ चला
था। जो उसकी शीतलता
और धवलता का दीदार
करा सके। नमन
है, उस साहसी-सूफ़ी
फकीर को जो
अपनी साधना को
पूर्ण करने के
लिए ओशो चरणों
में गया। और
मिटा दिया
अपना अहंकार
और जाति बंधन।
धन्य है वो
मां, जिसने
ऐसा सपूत पैदा
किया। इस के बाद
एक चाह की लकीर
सी बनी क्या उस
मां के दर्शन
हो सकेगें.....जिस
ने ऐसे अनमोल
रतन को जन्म
दिया है।.....
गाड़रवाड़ा
जाना हमारे
जीवन का एक
नया और रोमांचकारी
अनुभव है। क्योंकि
गाड़ वाड़ा एक
सोई हुई काशी
है, जहां ओशो
ने अपने बाल
पन में न जाने
कितनी ही,
शरारतें और,
बाल क्रीड़ा,
के अलावा यह
उनकी साधना स्थली
भी रही है। इस
सब को चुनने
में भी कुछ तो
रहस्य जरूर
होगा जो हम
नहीं देख पा
सकते। शायद
अंधकार में ही
बीज का अंकुरण
हो सकता है।
ताकी उसे कोई
देख न सके। परंतु
ये बड़ा अचरज
कर देनी वाली
बात है। चाहे जबलपुर
हो, चाहे पुणे
हो, सभी एक सोइ हुई
नगरी है। और
एक मजेदार
बात, ओशो एक
रहस्य दर्शी
व्यक्ति
थे। जो जहां
से एक बार
गुजर जाते थे
फिर लोट कर
नहीं देखते थे
पीछे की और।
इस बात का
रहस्य मुझे जबलपुर
और गाडरवारा
में ही जाकर
पता चला। क्योंकि
ओशो से जुड़ने
के बाद यह
मेरी पहली
यात्रा है उन
स्थानों को
देखने की। क्यों
ओशो जी ऐसा
करते थे? आज भी ओशो के
शरीर छोड़ने
के बाद ओशो
आश्रम में
कण-कण में ओशो
की उर्जा समाई
हई है, समाधि
और बुद्धा हाँ
में ही नहीं
आप उसे किसी
भी कोने में
महसूस कर सकते
हो। परंतु, वह मौलसरी,
वह कमरा जहां
ओशो जी रहते
थे, वह मकान, वह
स्कूल, वह
घाट, वह शक्कर
नदी, या
यू कह लो चाहे
वह जगह
गाडरवारा की
हो या जबलपुर
की। वहां ओशो
जी उर्जा को
आपको जरा भी
महसूस नहीं
होगी। ये शायद
ओशो की ना लौटने
वाली बात ही
कोई रहस्य
छूपाये हुए
है। ओशो जी जब अमरीका
से वापस आये
थे। और मुम्बई
में रहते थे,
तब वह लोट कर
पूना नहीं
जाना चाहते
थे। और उस समय
के पूना आश्रम
का ये हाल था कि
बुद्धा हाल
में कोई सफाई
करने वाल व्यक्ति
नहीं था, वहां
पर घास उग गई
थे। परंतु
गुरु ने न
चाहते हुए भी
जीवन में पहली
बार हमारे लिए
हार मान का
पूना आना पडा।
ये हम भारत
वासियों का सौभाग्य
कह ली जिए
वरना, अगर ओशो
जी पूना लोट
कर नहीं आते
तो, आज जिस
उर्जा से लबरेज
हम पूना आश्रम
को जी रहे है
उस से वंचित
रह जाते। और अगर
किसी दूसरी
जगह....जो शायद
भारत से बहार
होती...तो इतना
धन-सामथ्र्य
कितने कम संन्यासियों
में होता जो वहाँ
आ जा सकते।
खेर एक
दिन की उस गाडरवारा
की यात्रा में
जब हम, सुबह-सुबह,
स्टेशन पर
उतरे, तब वहां
मधुर सीतलता
ने हमारा स्वागत
किया। सबसे
पहले हमने( अदवीता
और मैंने) वह
पूल देखने की
सोची जो सक्करा
नदी पर था। हम पैदल
ही चल दिये रेलवे
लाई के
साथ-साथ। अभी
अप्रैल होने
पर भी धूप में
इतनी गर्मी नहीं
थी। आस पास
काफी पेड़ थे।
रेल की पटरी
के साथ-साथ
हमें एक कच्चे
रस्ते को
पकड़ कर जब उस
पूल के पास पहुचे,
तब वहां लगा, की
ये ओशो की
नगरी है, और
उससे भी ज्यादा
जो हमें अपनी
और खींचा, वह था
एक बरगद का
वृक्ष। हम
दोनों उस के
नीचे बैठ गये।
पीपल
के पत्तों से
हवा का टकरना, और
जल प्रपात की
तरह कलरव
करना। और उन
पत्तों का बल
खाकर झूमना, इठलाना
और उस की सुस्पष्टता
कितनी सुकोमल
थी। पल में ही
उनके संग ने
हमारे शरीर को
किसी अपूर्व
तृप्ति से भर
दिया। कुछ न
जानते हुए भी
मन किसी अनंत गहराई
में खोने लगा।
तब अचानक मैने
अदवीता को
कहां, स्वामी
निखिलंक से जब
हमारा मिलना
हुआ था, तब उन्होंने
एक बता बताई
थी। कि जब हम
और चैतन्य
भारती जी गाडरवारा(
शायद—1975) फोटो खींचने
ओशो जी के
कहने पर जा
रहे थे। तब स्वामी
निखिलंक( जो
ओशो जी के
छोटे भाई है)
ने ओशो जी से पूछा था
कि हम उस
वृक्ष को कैसे
पहचाने, जिस पर
से एक बार आप
ध्यान करते
हुए रात को
टहनी से नीचे
गिर गये थे। और
कई घंटे आप
शरीर से बहार
रहे थे। तब
वहां से कुछ औरतें
का गुजरना
हुआ। जो ग्वाली
थी, तब उनमें
से एक ने
अचानक ने कहां
की न जाने ये
बच्चा क्यों
रास्ते में
गिरा है। और उसने
अचानक ओशो जी
के आज्ञा चक्र
को हाथ लगया
और ओशो जी शरीर
में प्रवेश कर
गये। तब निखिलंक
ने ओशो जी से
पूछा की वहां
पर तो अनेक
वृक्ष है, आप
हमें उस वृक्ष
के बारे में
कुछ तो हींट दीजिए।
तब ओशो जी
हंसे और उन्होंने
निखिलंक और चैतन्य
भारती जी से
कहा की वह
वृक्ष तुम्हें
खुद ही बता
देगा की वह
मैं हूं, और
ऐसा ही हुआ।
जब वह फोटो खींच
कर लाये और उन्होंने
वह फोटो ओशो
जी को दिखाए
तब ओशो जी ने
कहां हां, ठीक,
यहीं वह वृक्ष
है।
फिर आज
जब हम ठीक उसी
वृक्ष के पास
जब आकर बैठे तो
उसने हमें
अपने आगोश में
ले लिया। जैसे
एक मां अपने बिछुड़े
हुए बच्चे को
सीने से लगा
लेती है। हम
घंटो उस की
छांव में बैठे
कर ध्यान करते
रहे। उसका संग
साथ, पीते रहे,
उसे छूते रहे,
निहारते रहे।
और एक मजेदार
बात, ओशो जी के
जमाने में
वहां पर एक ही
पूल हुआ करता
था, जो आज दो हो
गये है। और
दूसरे पूल और
पहले पूल में
काफी दूरी है,
परंतु यह
कुदरत का चमत्कार
कह लीजिए की
पूल का
निर्माण ठीक
उन दो पेड़ों
की सीध में हो
रहा था। परंतु
न जाने क्यों
अचानक वहाँ
रेलवे लाईन को
मोड़ दिया
गया। और वह
दोनों प्यारे
वृक्ष बच गये।
आज भी वहां
वहीं कच्ची
पगडंडी है,
जिस से आज भी ग्वाले
दूध लेकर गुजरते
है, परंतु आज
दूध सर पर रख
कर नहीं लाते
आज वह साईकिल
पर डिब्बों
में भर का
लाते है।
हम इसके
बाद सीधा लीला
आश्रम पहुँचे,
यह वहीं स्थान
है, जहां पर
ओशो जी बैठ कर
ध्यान किया
करते थे, और
मां विवेक उन्हें
सताया करती
थी। जब
ओशो जी चौदह
वर्ष के हो
गये, और जोतषी
की भविष्य वाणी
को पूरा करने
के लिए स्कूल से
छुट्टी ले कर,
उस मंदिर के पुजारी
से आज्ञा ले
कर वहां पर
सात दिन रहे
थे। ओशो जी ने
अपने स्वर्णिम
बचपन में उसके
विषय में कुछ
इस तरह से लिखा
है। ‘’
एक
ज्योतिषी ने
मेरी जन्म-कुंडली
तैयार करने का
वादा किया था,
लेकिन उससे
पहले कि वह यह
काम कर पाता
उसकी मृत्यु
हो गई, इसलिए
उसके बेटे को
जन्म-कुंडली
तैयार करनी
पड़ी। लेकिन
वह भी हैरान था।
उसने कहा: ‘यह
करीब-करीब
निश्चित है कि
यह बच्चा इक्कीस
वर्ष की आयु
में मर जाएगा।
प्रत्येक
सात साल के
बाद उसको मृत्यु
को सामना करना
पड़ेगा।’
इसलिए
मेरे
माता-पिता,
मेरा परिवार
सदैव मेरी मृत्यु
को लेकर चिंतित
रहा करते थे।
जब कभी मैं
नये सात वर्ष
के चक्र के
आरंभ में
प्रवेश करता,
वे भयभीत हो
जाते। और वह
सही था। सात
वर्ष की आयु
में मैं बच
गया। लेकिन
मुझे मृत्यु
का गहन अनुभव
हुआ—मेरी अपनी
मृत्यु का
नहीं बल्कि
मेरे नाना की
मृत्यु का।
और मेरा उनसे
इतना लगाव था
कि उनकी मृत्यु
मुझको अपनी स्वयं
की मृत्यु
प्रतीत हुर्इ।
अपने स्वयं
के बचपन के
ढंग से मैंने
उनकी मृत्यु
की अनुकृति
की। मैंने
लगातार तीन
दिनों तक भोजन
नहीं किया,
पानी नहीं
पिया, क्योंकि
मुझको लगा कि
यदि मैं यह सब
करता तो यह नाना
के साथ विश्वासघात
होता।..........–ओशो
वहीं पर हमारी
पहली मुलाकात मुल्ला
जी से हुई, तब
परिक्रमा शुरू
होती है, गाडरवारा
की, वह हमारा सारथी
बन एक-एक स्थान
दिखाता जाता
है, ये ओशो जी
का घर है, ये ओशो
जी के पिता का
घर ‘’टिमरनी
वाले’’....ये झंडा
चौक, ये स्कूल
, और ये कबीर
पंथीयों का
आश्रम है, जो
आज सुकड़ का
बहुत छोटा हो
गया है। आधे
स्थान पर तो
सब्जी मंडी
बन गई है, कुछ
में बस स्टैंड
और कुछ आबादी
के बोझ तले दब सुकड़
कर एक कुएँ और
एक अखाडे तक
ही सीमित रह
गया है। इस
बीच उसे कुछ
देर के लिए घर
जाना हुआ। हम
वहां एकांत का
आनंद लेने
लगे, और देखने
लगे क्या ओशो
जी इसी कुएँ
में उतर कर,
नहाते थे,
कहां वह अमरूद
का बाग़ होगा। कहां
रहते थे...वे
महंत...लेकिन
समय के थपेड़ों
ने सब खत्म
कर दिया था।
तब
तक दोपहर हो
गई थी। और
इसके बाद जाना
था ‘’राम घाट’’
जहां ओशो जी
अपना सबसे ज्यादा
समय गुज़ारते
थे। वहीं
नहाते थे। तैरते
थे, नदी जो ओशो
जी को बहुत प्यारी
थी, के जमाने
में स्वछ जल
से भरी होती
थी। आज सुकड़
कर गंदा नाला
हो गई थी।
उसका चौड़ा
पाटा तो था, परंतु
पानी उसमे
नहीं था। करीब
डेढ-दो मील
चलने के बाद एक
सुंदर रमणीक
स्थान आया।
जो आज भी उस सक्करा
नदी की
पवित्रता को
बनाये हुए है।
आज भी वहां पर
वही नीला जल
है। बच्चे दूर-दूर
से गर्मी के
कारण वहां नहाने
के लिए आते है।
ग्वाले अपनी
गाये और बकरियां
पानी पिलाते
है। दूर सफेद वक
के झुंड-के झुंड,
पानी में
किलोल कर रहे
थे। इस सूखे
में उन हजारों
सफेद परिंदों
को देखना बहुत
सुखद लग रहा
था। नदी तट के पास
ही एक छोटा सा
बरगद का वृक्ष
था, जो अभी दो
तीन साल काही
होगा। पर उसकी
छांव घनी थी।
सूरज अब सर पर
आ कर आग
बरसाने लगा
था। हम उसी
नन्हें
वृक्ष के नीचे
चददर बिछा कर
बैठ गये। दूर
तक जहां तक
आंखे जाती थी
एक खुबसूरत
नजारा दिखाई
दे रहा था। मीलों
चलने की जो
थकान और धूप
की गर्मी ने
मानों पल में
हर लिया। हम
वहां पर करीब
दो घंटा बैठे
रहे, यहीं मुल्ला
ने अपने ओशो
से जुड़ने के
घटना क्रम को विस्तार
से बताया कि
कैसे मुझे ओशो
की माला देख
कर लगा। कि ये
तो हमारे गले
में भी होनी
चाहिए। और हमनें
उसे संन्यास
ले कर पा भी
लिया। लेकिन
पिता ने जब
ओशो जी फोटो
वाले लाकेट को
देखा तो आग बबूला
हो गये। और हमे
कहां कि इस
अभी उतार दो।
हमारे न चाहने
पर भी हम उसे
बचा न सके।
लेकिन अगले
दिन से हमें लगा
कि हमारे पास
से कुछ अनमोल
छिन गया है...दूसरों
के गले में
माल देख हमे
तड़प गये।
हमने
अब्बा को
कहा की वो
माला हमें दे
दो। तब उन्होंने
हम माला तो
नहीं दी पर चार
झॉंपट रसीद कर
दिया। कि यह
कुफ्र है।
किसी की फोटो
गले में लटका
कर घूमते हो।
परंतु हम तो अकड़े
रहे.......कि फिर ये
शादी के सारे
फोटो फाड़ दो,
अजमेर शरीफ़
पर जो आपने
फोटो खिंचवा
कर घर में लगा
रखे है। उन्हें
भी उतर क्यों
नहीं देते हो।
ये भेद भाव क्यों...परंतु
हम बच्चें थे
हमें दबाया जा
सकता था।
परंतु हम झुके
नहीं..हमने वह
माला ढूंढ कर
पहन ली। लेकिन
इस बार कपड़ों
के अंदर।
परंतु एक दिन
अब्बा की नजर
पड़ गई। और उन्हें
पकड़ कर वह
माला खिंच ली
माला टूट गई।
उसके मनके
चारों और बिखर
गये....टूट गया
हमारा नाजुक
सा दिल, परंतु
ये अंत नहीं था।
उन्होंने
ओशो जी के
फोटो वाला
लाकेट जलती गैस
पर रख कर पिंगला
दिया।
परंतु....इस सब
से हमारा साहस
और भी बढ़ता
गया.....दो घंटे
का समय कब
गुजरा इसका पता
ही नहीं चला।
एक
दिन कि ये गाडरवारा
यात्रा, जब
लीला आश्रम से
चल कर अपने
अंतिम पड़ाव
रेलवे स्टेशन
पहुँचती है,
तब तक मुल्ला
जी हम में
इतना लीन हो
गया की उसका
मैं पन बचा ही
नहीं। जैसे एक
बर्फ जो पानी
में पिघल रही
हो। वह थी तो
पानी ही पर
उसने एक आकार
ले लिया था। हर
कदम पर वह तरल
से तरल तम
होता चला गया।
आखिर कार वह वाष्प
बन गया। और जब
हम एक दूसरे
से विदा ले
रहे थे, तो वह
बादल कि तरह आँखो
से आंसू बन कर छलक-छलक
जा रहे थे। वह
चाह रहा था हम
न जाये। पर हम
क्या करते
हमने तो वापसी
का टिकट लिया
हुआ था। किसी
तरह से उसे
झूठ बोला कि
हमें अभी हम
12ता. को दिल्ली
जाना है,
हमारे पास
काफी टाईम है और
हम अपना सामान
ले कर गाडरवारा
जरूर आयेंगे।
लेकिन अंदर से
हम जानते थे
कि हम झूठ बोल
रहे है। किसी
तरह से रेल
चली। रात के
अंधेरे को चीर
कर वह हमे
अपनी गोद में
लिए सरपट दौड़
रही थी। परंतु
मुल्ला जी से
विदा होने पर,
उसके हाथ, से
हाथ छूट जाने
के बाद भी कुछ
ह्रदय में साथ
अंधेरे को
चीरता हुआ साथ
चल रहा था,
बीना किसी आहट
के। एक अनजानी
डोल...बंधी चली
आ रही थी
हमारे न चाहने
पर भी
पीछे-पीछे।
गाडर
वाड़ा का वह
एक दिन हमारे
लिए....एक तीर्थ
यात्रा बन
गया। जिसे हम
अपने अचेतन
में कहीं छुपा
कर रख लेना चाहते
थे। फिर
बार-बार मुल्ला
जी का फोन आता
रहा कि आ जाओं
और हम टालते
रहे कि आ रहे
है, परंतु
हमारा जाने का
कोई विचार
नहीं था।
परंतु उसकी
सच्ची चाहत
ने हमें खींच लिया।
अचानक हमने
अपना सामान
उठाया और चलने
की तैयारी
करने लगे। जब
आनंद विजय के
आश्रम में
उनके कार्य
करता को पता
चला की हम जा
रहे है। तब
उनका व्यवहार
ही बदल गया, जो
हमे देख कर मौन
में चले जाते
थे न जाने
कहां से वाणी
में मिठास आ
गया, असल में
हम लोगों पहले
भी उन्हें ने
दिग्भ्रमित
किया था की गाड़रवाड़ा
में रहने की
कोई जगह नहीं
है, आप एक
गाड़ी कर लो
और गाडरवारा
और कुचवाड़ा
एक दिन में
देख कर आ सकते
है। ध्यान के
वो पवित्र स्थान
भी अब व्यवसाय
के केंद्र बन
गये है। हम
संन्यासियों
के कम आने के
कारण उनकी
आमदनी कम होती
जा रही है, वह
और रेट बढ़ा
रहे है, एक दुस्चक्र
की तरह, और सन्यासी
कम होते जा
रहे है।
वह
जानते थे की
हमें दिल्ली
12 को जाना है, तब
मैंने कहां,
हम तो ‘’पंच
मढ़ी’’ देखने
जाना चाहते
है, और दो तीन
दिन बाद लोट
कर आ जायेगे।
और जाना तो
यहीं से ही है,
तब आपके ही यहां
आकर रूकेंगे।
इतने पर भी
उसे भरोसा
नहीं हुआ। और
वह खुद पंच
मढ़ी का टिकट (
पीपरिया) ले
कर आ गया।
हमने जहां जाना
था हम वहीं
उतर गये। गाडरवारा।
टिकट की क्या
चिंता करनी।
यहां
रह कर मुल्ला
जी को और अधिक
पास से जाना।
उसका नाच,
उसके हाव भाव,
उसके जीने की शैली,
एक सूफी को
अपने अंदर समाएँ
चल रही थी।
परंतु आज जो
समाज का ढांचा
बन गया है, जो
मनुष्य की
सोच है, उस सब
के हिसाब से
ही ओशो ने
संन्यास को
नया रंग रूप
दिया। क्योंकि
आज वह संन्यास
फली भूत नहीं
हो सकता। जो
समाज पर बोझ
हो। परंतु
किसी-किसी
साधक पर पिछले
जन्मों की
परत भारी होती
है। उनकी वही
जीवन शैली बनी
होती है। शायद
कम ध्यान
करने की वजह
से....वह अपना पुराना
आवरण उतार
नहीं पाते। और
एक ढांचे में
फंसे रह जाते
है। और यही मुल्ला
जी के साथ हो
रहा था। न वह
कोई काम करता
था, न उसने
शादी ही की थी,
एक मस्त आजाद
फक्कड़ की
तरह जी रहा था,
परंतु आज वह
आजादी लोगों
की समझ के बहार
है, यही मुल्ला
जी अगर सौ साल
पहले इसी गाड़
वाड़ा में
पैदा हुए होते
तो यहां पीर
की तरह पूजे
जाते, और आज
बेचारे जग
हंसाई के
पात्र बन गये
है।
ओशो
को समझना इतना
आसान नहीं है,
वह एक अथाह समुद्र
है, एक किनारे से
उन्हें नहीं
पहचाना जा
सकता, फिर
कितने ही
किनारे है, सब
की समझ
अलग-अलग होगी।
उन्हें केवल
डूब कर समझा
जा सकता है।
उन्हें चखा
जा सकता है....वह
भी ध्यान के
माध्यम से।
लेकिन हम सोये
हुए लोग, शब्दों
को भी पकड़ते
है, अपनी समझ
के अनुसार
जीते है। अब जबलपुर....गाड़रवाड़ा
के आस पास जो
लोग, ओशो सत्संग
करते है, वह
इतना तेज
संगीत बजाते
है, की आप बहरे
हो सकते हो, जब
मैंने पूछा की
आप इतना तेज
संगीत क्यों
बजाते है, जो
सर में दर्द
कर देता है, तब
उन्हें तपाक
से कहा....ओशो जी
ने ही तो कहा
है, तेज संगीत
बजा कर नाचो,
मैंने अपना सर
पीट लिया, कि लाउड...नहीं
फास्ट, यानि
की उसकी गति द्रुत
हो....ताकी आपके
नृत्य में
गति बनी रहे।
इस सब
छोटी-छोटी
बातों के कारण
ही हम, सदगुरू
के संदेश का
चूक जाते है, और
जो कहां गया
है, वह समय में
दब कर रह जाता
है, परंतु इस
सब के बाद भी मुल्ला
जी में जो साहस
और धैर्य
है, वह बेजोड़
है, इस की एक
झलक हमें उसके
घर जाने पर
पता चली, उसने
बड़े भाव से
हमें अपने घर
पर खाने का निमंत्रण
दिया। एक बार
तो मन ने कहां,
की तुमने तो सालों
से शादी विवाह
का भी त्याग
कर रखा है,
बजार का भी
कभी न के बार
ही खाते हो, और
अचानक एक मुसलमान
के घर पर
खाना.......लेकिन
मन की इस
चालबाजी को
मैंने पल में
ही पकड़ लिया।
कि ये सब
अहंकार की ही बात
है, और हम रात
उसके घर खाना
खाने के लिए चल
दिये। उसने
हमारे लिए दाल,
चावल, सलाद....
बनवाया, क्योंकि
उसने खुद भी
सालों से
मांसाहार
छोड़ रखा था।
उनकी एक चाचा
ने जो पढ़ी
लिखी थी, शायद
(बी. ए.) ने हमारा
स्वागत
किया। कुछ देर
बातें करने के
बाद उन्होंने
दस्तक खान
बिछवाया। दस्तरख़ान
पर यह हमारे
जीवन का पहला
भोजन था।
परिवार पूरी
तरह से प्रेम
पूर्व था। आज
के जमाने में
जब साझी
परिवार टुट
रहे है। कहीं-कहीं
है, इस का आस्तित्व
आप देखते है
तो आप मंत्र मुग्ध
हो जाते हो,
वहां मैंने
देखा उस घर
में प्रेम था,
अपना पन था, जहां
प्रेम होगा
वहां आपका
अहंकार बहुत
कम हो जाता
है। आज तो ‘’मेरा
घर मेरे बच्चे’’
वाले
स्लोगन दिखायें
जाते है, साझी
परिवार में रहने
के लिए, आपके
ह्रदय में
अनेक लोगों के
लिए स्थान
चाहिए, उसमें
बड़े भी
होंगे, छोटे
भी होगें,
किसी को आप
सम्मान और प्यार
दे रहे होंगे और
कोई आपको। वह आदमी
का मैं पन बहुत
छोटा हो जाता
है और अपना पन
बहुत विस्तृत
हो जाता है। वहां
के छोटे बच्चे
चाचा को एक
अजीब से मजाक
के रूप में
देख रहे थे।
उन्हें लगता
था, चाचा
हमारे लोक का
आदमी नहीं है।
फिर मेरे
देखें पूरे परिवार
में अगर किसी
को सबसे अधिक
प्रेम किसी को
था तो वह थी
उनकी माता जी।
अब मां-बाप
अपने बच्चों
पर न जाने
कितनी ही
अरमान और सपने
संजो कर रखते
है। और जब वह
पूरे न हो , और
उनके सपने चकनाचूर
हो जाये। उन्हें
एक प्रकार की खीज
होती है। क्योंकि
भाई का लड़का
या उन्ही का
दूसरा लड़का
वो सब कर रहा
है। जो उन्हें
समाज में सम्मान
दिला रहा है। और
ये जग हंसाई
बना हुआ है।
जब
उसकी मां आई
तब वह क्रोध और
उफान से भरी
हुई थी। कुछ
ऐसा जो उनके अंदर
दबा सुलग रहा
था बरसों से।
जो किसी के सामने
नहीं कहां जा
सकता वह भी आज कह
देना चाहती
थी। उसने रो-रो
कर उसे बहुत
कोसा। सालों
दबा कर उसने
जो रखा था, जो उसे
साल रहा था सब उसने
कह दिया। पर
मोहम्मद भी
एक ही था।
हंसता रहा। वह
सब जानता था, की
हमें घर ले
जाने पर उसके
साथ क्या
होगा....फिर भी
उसने साहस
किया। परंतु
जितनी बहार से
उनकी मां कठोर
थी अंदर से
उतनी ही
मुलायम। कुछ
देर में जब
बहार का कड़ा
पन हट गया तब
वह कितनी,
मधुर और प्रेम
पूर्ण हो गई। ये
उनका रूप और स्वभाव
देख ही मैं
जान सकता की मुल्ला
जी को पैदा
करने वाली कोई
महान ही मां
होगी। इतनी
बागी और साहसी
बेटे को, कोई
साधारण मा तो
गर्व दे नहीं सकती।
धीरे-धीरे
जब मन का उफान
कम हो गया तब मैंने
कहां कि तुम
बहुत भाग्य
शाली हो, जो
मुल्ला जैसा
सपूत पैदा
किया। आज तुम
जिस की कदर नहीं
जानते। वह समय
की गति का ही
फैर है। वरना
आज से सौ साल
पहले.....अगर
आपने इसे जन्म
दिया होता। तब
आप को ही नहीं
गर्व होता
आपके पूरे गाड़रवाड़े
को इस पर गर्व
होता। उसने गौर
से मेरा चेहरा
देखा। ऐसा तो
उसने इससे
पहले किसी के
मुख से भी नहीं
सूना होगा। सब
तो उसे नक्कारा,
नालायक ही
कहते थे। जो
सारा दिन इधर
उधर को धक्के
खा सकता है,
किसी काम का नहीं
था। ये हमारा
समाज एक ही
भाषा जानता
है। वह पद और पैसे
की। इसी लिए
ओशो ने आज के
मनुष्य को
नया संन्यास
दिया है। जहां
भी रहो, वहीं
जागों, भागों
मत। परन्तु
कुछ अभागे...जो
अपने पिछले
जन्मों की
परत को नहीं तोड़
पाते वह .....या तो
पागल हो जाते
है। या समाज उन्हें
कुचल देता है।
महावीर-बुद्ध,
शंकर का सन्यास
आज के समाज के
काम का नहीं है।
आज अगर ध्यान
और प्रेम का
आनंद लेना है।
तो उसी समाज में
उन्ही की तरह
रहना होगा। कम
से कम पैसा तो
कमाना ही
होगा। फिर आप
अपने जीवन में
प्रथम किसी को
रखे-चाहे ध्यान
को चाहे पैसे
को। ध्यानी
आदमी को पैसा
कमाना उतना ही
कठिन है,
जितना संसारी
आदमी को ध्यान
क्योंकि वह
अंदर से जानता
है। ये पैसा
हमारे किसी
काम का नहीं है,
फिर मैं इसके
लिए जीवन के
अनमोल क्षण क्यों
गँवाऊ। परंतु—ओशो
जानते थे।
साधक की मन स्थिति।
और इसे खत्म
करने के लिए
ही उसने ऐसा
मार्ग चुना।
ताकी, तुम
समाज पर बोझ न
बनों।
और तुम
समाज में भी
रहो।
आखिर
आते....आते मुल्ला
जी की मां जो
पहले इतनी
कठोर लग रही
थी। अब मोम की
तरह मुलायम हो
गई। उसके चेहरे
पर एक अजीब
प्रसन्नता
थी। आपने पुत्र,
को लेकर, शायद
ये हमारे समाज
का ही प्रभाव
है, कि हम किसे
आज अच्छा कह
रहे है, और कल
वही बात गलत
हो सकती है।
उपर छत पर मुल्ला
जी जो बाग़ लगया,
था फिर वह
घंटो हमें दिखलाती
रही। जहां पर गुलाब,
डलिया, मोगरा,
चंपा, जूही,
कनेर...मौलसरी,
बादाम और न
जाने कितने ही
पौधे उसने छत
पर गमलों में
उगा रखे थे।
जहां मध्यम
रोशनी में,
तारों की छाव तले
एक अजीब शांति
थी। मन ने
किया यहां दस
मिनट बैठा जाये।
उन दस मिनट
में ही हमें
उन पेड़ पौधों
ने वहां की
उर्जा ने, शांत
और शीतल कर
दिया। अभी तक
नीचे जो तूफान
उठ रहा था।
लगा यहां तारें
के नीचे ठंडी
छाव बरस रही
है। फिर तो
उनकी मां हमें
वह घरे से
निकलने ही
नहीं दे रहे
थे। कि कुछ
देर तो और रुको.....चाय
के बाहने। या
कुछ भी कर के। अदवीता
का तो हाथ
पकड़ कर उन्हें
अपने अंदर बसा
लिया अपने
ह्रदय से लगा
लिया। जब हम
आने लगे। तब
उनकी मां की
आंखों में ही
आंसू नहीं
उनकी चाची, दादी-भतीजी
भी उदास थी।
परन्तु एक
बात वहां जो
हमें देखने को
मिली। उस पर्दा
नशीन परिवार में
कोई पुरूष
हमारे बीच नहीं
आया। सारी की
सारी औरतें ही
औरत हमे घेरे
रही। या हो
सकता है। पुरूष
अभी काम से ही नहीं
आये हो। कुछ
भी हो...ये
अनुभव शानदार
था...विश्वास और
प्रेम के
ओतप्रोत से
भरा हुआ।
कुछ
देर पहली हम
अंजान थे। और दो
घंटे में ही
उनके परिवार
का हिस्सा बन
गये। यहीं है
वह
प्रेम....जिसे
मनुष्य का
मस्तिष्क नहीं
समझ पाता।
परंतु यह उसका
काम नहीं है,
यह तो ह्रदय
का काम है।
मस्तिष्क
तो तर्क कर
सकता है। शंका
कर सकता है।
ये उसका मार्ग
नहीं है।
ह्रदय के
मार्ग में
केवल मधुर
अहसास है। और जो
जिसका काम है
उसे ही करने
देना चाहिए।
जो अति सुंदर और
रहस्य पूर्ण
है। मुल्ला जी
के जीवन दर्शन
की तरह।
स्वामी
आनंद प्रसाद और
मां अदवीता
नियति
दिनांक:
30-4-2012
love!!!!!!
जवाब देंहटाएंlovely----------------
जवाब देंहटाएंlovely==================
जवाब देंहटाएं