जब
श्वास नीचे
से ऊपर की और
मुड़ती है, और
फिर जब श्वास
ऊपर से नीचे
की और मुड़ती
है—इन दो
मोड़ों के
द्वारा उपलब्ध
हो।
थोड़े
फर्क के साथ
यह वही विधि
है; और अब
अंतराल पर न
होकर मोड़ पर
है। बाहर जाने
वाली और अंदर
जाने वाली श्वास
एक वर्तुल
बनाती है। याद
रहे, वे
समांतर
रेखाओं की तरह
नहीं है। हम
सदा सोचते है
कि आने वाली श्वास
और जाने वाली
श्वास दो
समांतर
रेखाओं की तरह
है। मगर वे
ऐसी है नहीं।
भीतर आने वाली
श्वास आधा
वर्तुल बनाती
है। और शेष
आधा वर्तुल बाहर
जाने वाली श्वास
बनाती है।
इसलिए
पहले यह समझ
लो कि श्वास
और प्रश्वास
मिलकर एक
वर्तुल बनाती
है। और वे
समांतर रेखाएं
नहीं है; क्योंकि
समांतर
रेखाएं कही
नहीं मिलती
है। दूसरी यह
कि आने वाली
और जाने वाली
श्वास दो
नहीं है। वे
एक है। वही श्वास
भीतर आती है,
बहार भी जाती
है। इसलिए
भीतर उसका कोई
मोड़ अवश्य
होगा। वह कहीं
जरूर मुड़ती
होगी। कोई
बिंदु होगा,
जहां आने वाली
श्वास जाने
वाली श्वास
बन जाती होगी।
लेकिन
मोड़ पर इतना
जोर क्यों है?
क्योंकि
शिव कहते है,
‘’जब श्वास
नीचे से ऊपर
की और मुड़ती
है, और फिर जब
श्वास ऊपर से
नीचे की और
मुड़ती है—इन
दो मोड़ों के
द्वारा उपलब्ध
हो।‘’
बहुत
सरल है। लेकिन
शिव कहते है
कि मोड़ों को प्राप्त
कर लो। और आत्मा
को उपलब्ध हो
जाओगे। लेकिन
मोड़ क्यों?
अगर तुम
कार चलाना
जानते हो तो
तुम्हें
गियर का पता
होगा। हर गियर
बदलते हो तो
तुम्हें न्यूट्रल
गियर से
गुजरना पड़ता
है जो कि गियर
बिलकुल नहीं
है। तुम पहले
गियर से दूसरे
गियर में जाते
हो और दूसरे
से तीसरे गियर
में। लेकिन
सदा तुम्हें
न्यूट्रल
गियर से होकर
जाना पड़ता
है। वह न्यूट्रल
गियर घुमाव का
बिंदु है।
मोड़ है। उस
मोड़ पर पहला
गियर दूसरा
गियर बन जाता
है। और दूसरा
तीसर बन जाता
है।
वैसे
ही जब तुम्हारी
श्वास भीतर
जाती है और घूमने
लगती है तो उस
वक्त वह न्यूट्रल
गियर में होती
है। नहीं तो वह
नहीं धूम
सकती। उसे
तटस्थ
क्षेत्र से गुजरना
पड़ता है।
उस
तटस्थ
क्षेत्र में
तुम न तो शरीर
हो और न मन ही
हो; न शारीरिक
हो, न मानसिक
हो। क्योंकि
शरीर तुम्हारे
अस्तित्व
का एक गियर है और
मन उसका दूसरा
गियर है। तुम
एक गियर से दूसरे
गियर में गति
करते हो, इस लिए
तुम्हें एक न्यूट्रल
गियर की जरूरत
है जो न शरीर
हो और न मन हो।
उस तटस्थ
क्षेत्र में
तुम मात्र हो,
मात्र अस्तित्व–शुद्ध,
सरल, अशरीरी और
मन से मुक्त।
यही कारण है
कि घुमाव
बिंदु पर,
मोड़ पर इतना
जोर है।
मनुष्य
एक यंत्र है—बड़ा
और बहुत जटिल
यंत्र। तुम्हारे
शरीर और मन में
भी अनेक गियर
है। तुम्हें
उस महान यंत्र
रचना का बोध नहीं
है। लेकिन तुम
एक महान यंत्र
हो। और अच्छा
है कि तुम्हें
उसका बोध नहीं
है। अन्यथा
तुम पागल हो जाओगे।
शरीर ऐसा
विशाल यंत्र
है कि
वैज्ञानिक कहते
है, अगर हमें
शरीर के
समांतर एक
कारखाना निर्मित
करना पड़े तो
उसे चार वर्ग
मिल जमीन की
जरूरत होगी। और
उसका शोरगुल
इतना भारी
होगा कि उससे
सौ वर्ग मील
भूमि
प्रभावित
होगी।
शरीर
एक विशाल
यांत्रिक
रचना है—विशालतम।
उसमे
लाखों-लाखों
कोशिकांए है, और
प्रत्येक
कोशिका जीवित
है। तुम सात
करोड़
कोशिकाओं के
एक विशाल नगर
में हो; तुम्हारे
भी तर सात
करोड़ नागरिक बसते
है; और सारा
नगर बहुत
शांति और व्यवस्था
से चल रहा है।
प्रतिक्षण
यंत्र-रचना
काम कर रही
है। और वह बहुत
जटिल है।
कई
स्थलों पर इन
विधियों का
तुम्हारे
शरीर और मन की
एक यंत्र-रचना
के साथ वास्ता
पड़ेगा।
लेकिन याद
रखो। कि सदा ही
जोर उन
बिंदुओं पर
रहेगा जहां
तुम अचानक यंत्र-रचना
के अंग नहीं
रह जाते हो।
जब एकाएक तुम यंत्र
रचना के अंग
नहीं रहे तो
ये ही क्षण है
जब तुम गियर
बदलते हो।
उदाहरण
के लिए, रात जब
तुम नींद में उतरते
हो तो तुम्हें
गियर बदलना
पड़ता है।
कारण यह है कि
दिन में जागी
हुई चेतना के
लिए दूसरे ढंग
की यंत्र रचना
की जरूरत रहती
है। तब मन का
भी एक दूसरा भाग
काम करता है। और
जब तुम नींद में
उतरते हो तो
वह भाग निष्क्रिय
हो जाता है। और
अन्य भाग
सक्रिय होता
है। उस क्षण
वहां एक
अंतराल, एक
मोड़ आता है।
एक गियर बदला।
फिर सुबह जब
तुम जागते हो
तो गियर बदलता
है।
तुम
चुपचाप बैठे
हो और अचानक
कोई कुछ कह
देता है, और तुम
क्रुद्ध हो
जाते हो। तब
तुम भिन्न
गियर में चले
गए। यही कारण
है कि सब कुछ
बदल जाता है।
तुम क्रोध में
हुए श्वास
क्रिया बदल
जायेगी। वह अस्तव्यस्त
हो जायेगी।
तुम्हारी श्वास
क्रिया में कंपन
आ जाएगा। किसी
चीज को
चूर-चूर कर
देना चाहेगा,
ताकि यह घुटन
जाए। तुम्हारी
श्वास
क्रिया बदल
जाएगी, तुम्हारे
खून की लय
दुसरी होगी।
शरीर में और ही
तरह का रस
द्रव्य
सक्रिय होगा।
पूरी ग्रंथि
व्यवस्था
ही बदल जाएगी।
क्रोध में तुम
दूसरे ही आदमी
हो जाते हो।
एक
कार खड़ी है,
तुम उसे स्टार्ट
करो। उसे किसी
गियर में न
डालकर न्यूट्रल
गियर में छोड़
दो। गाड़ी हिलेगी,
कांपेगी,
लेकिन चलेगी
नहीं। वह गरम
हो जाएगी। इसी
तरह क्रोध में
नहीं कुछ कर
पाने के कारण
तुम गरम हो
जाते हो। यंत्र
रचना तो कुछ
करने के लिए
सक्रिय है और तुम
उसे कुछ करने नहीं
देते तो उसका
गरम हो जाना
स्वाभाविक
है। तुम एक
यंत्र-रचना
हो, लेकिन
मात्र यंत्र-रचना
नहीं हो। उससे
कुछ अधिक हो।
उस अधिक को
खोजना है। जब
तुम गियर
बदलते हो तो
भीतर सब कुछ
बदल जाता है।
जब तुम गियर
बदलते हो तो
एक मोड़ आता
है।
शिव
कहते है, ‘’जब श्वास
नीचे से ऊपर
की और मुड़ती
है, और फिर जब
श्वास ऊपर से
नीचे की और मुड़ती
है। इन दो मोड़ों
के द्वारा
उपलब्ध हो
जाओ।‘’
मोड़
पर सावधान हो
जाओ, सजग हो
जाओ। लेकिन यह
मोड़ बहुत
सूक्ष्म है और
उसके लिए बहुत
सूक्ष्म
निरीक्षण की
जरूरत
पड़ेगी।
हमारी
निरीक्षण की
क्षमता नहीं के
बराबर है; हम
कुछ देख ही
नहीं सकते।
अगर मैं तुम्हें
कहूं कि इस
फूल को देखो—इस
फूल को जो
तुम्हें मैं
देता हूं। तो
तुम उसे नहीं देख
पाओगे। एक
क्षण को तुम
उसे देखोगें और
फिर किसी और चीज
के संबंध में सोचने
लगोगे। वह
सोचना फूल के
विषय में हो
सकता है।
लेकिन वह फूल नहीं
हो सकता। तुम
फूल के बारे में
सोच सकते हो।
कि देखो वह
कितना सुंदर
है। लेकिन तब
तुम फूल से
दूर हट गए। अब
फूल तुम्हारे
निरीक्षण
क्षेत्र में नहीं
रहा। क्षेत्र
बदल गया। तुम कहोगे
कि यह लाल है,
नीला है,
लेकिन तुम उस
फूल से दूर
चले गए।
निरीक्षण
का अर्थ होता
है: किसी शब्द
या शाब्दिकता
के साथ, भीतर
की बदलाहट के
साथ न रहकर
मात्र फूल के
साथ रहना। अगर
तुम फूल के
साथ ऐसे तीन
मिनट रह जाओ,
जिसमे मन कोई
गति न करे, तो श्रेयस्
घट जाएगा। तुम
उपलब्ध हो
जाओगे।
लेकिन
हम निरीक्षण
बिलकुल नहीं जानते
है। हम सावधान
नहीं है,
सतर्क नहीं
है, हम किसी भी चीज
को अपना अवधान
नहीं दे पाते
है। हम ता
यहां-वहां
उछलते रहत है।
वह हमारी वंशगत
विरासत है,
बंदर-वंश की
विरासत। बंदर
के मन से ही
मनुष्य का मन
विकसित हुआ
है। बंदर शांत
नहीं बैठ
सकता। इसीलिए
बुद्ध बिना हलन-चलन
के बैठने पर,
मात्र बैठने
पर इतना जौर
देते है। क्योंकि
तब बंदर-मन का
अपनी राह चलना
बंद हो जाता
है।
जापान
में एक खास
तरह का ध्यान
चलता है जिसे वे
झा झेन कहते
है। झा झेन
शब्द का
जापानी में अर्थ
होता है,
मात्र बैठना और
कुछ भी नहीं
करना। कुछ भी
हलचल नहीं
करनी है,
मूर्ति की तरह
वर्षों बैठे
रहना है—मृतवत्,
अचल। लेकिन
मूर्ति की तरह
वर्षों बैठने
की जरूरत क्या
है? अगर तुम
अपने श्वास
के घुमाव को
अचल मन से देख
सको तो तुम
प्रवेश पा
जाओगे? तुम स्वयं में
प्रवेश पा
जाओगे। अंतर
के भी पार
प्रवेश पा जाओगे।
लेकिन ये मोड़
इतने महत्वपूर्ण
क्यों है?
वे
महत्वपूर्ण
है, क्योंकि
मोड़ पर दूसरी
दिशा में घूमने
के लिए श्वास
तुम्हें
छोड़ देती है।
जब वह भीतर आ
रही थी तो
तुम्हारे
साथ थी; फिर जब
वह बाहर जाएगी
तो तुम्हारे
साथ होगा।
लेकिन
घुमाव-बिंदु
पर न वह तुम्हारे
साथ है और न
तुम उसके साथ
हो। उस क्षण में
श्वास तुमसे
भिन्न है और तुम
उससे भिन्न
हो। अगर श्वास
क्रिया ही
जीवन है तो तब
तुम मृत हो।
अगर श्वास-क्रिया
तुम्हारा मन
है तो उस क्षण
तुम अ-मन हो।
तुम्हें
पता हो या न हो,
अगर तुम अपनी
श्वास को
ठहरा दो तो मन
अचानक ठहर
जाता है। अगर
तुम अपनी श्वास
को ठहरा दो तो
तुम्हारा मन
अभी और अचानक
ठहर जाएगा; मन
चल नहीं सकता।
श्वास का
अचानक ठहरना
मन को ठहरा
देता है। क्यों? क्योंकि
वे पृथक हो
जाते है। केवल
चलती हुई श्वास
मन से शरीर से
जुड़ी होती
है। अचल श्वास
अलग हो जाती
है। और जब तुम
न्यूट्रल
गियर में होते
हो।
कार
चालू है,
ऊर्जा भाग रही
है, कार शोर
मचा रही है।
वह आगे जाने
को तैयार है।
लेकिन वह गियर
में ही नहीं है।
इसलिए कार का
शरीर और कार
का
यंत्र-रचना,
दोनों अलग-अलग
है। कार दो हिस्सों
में बंटी है।
वह चलने को
तैयार है,
लेकिन गति का
यंत्र उससे
अलग है।
वही
बात तब होती
है जब श्वास
मोड़ लेती है।
उस समय तुम
उसे नहीं जुड़े
हो। और उस
क्षण तुम
आसानी से जान
सकते हो कि
मैं कौन हूं,
यह होना क्या
है, उस समय तुम
जान सकते हो
कि शरीर रूपी
घर के भीतर
कौन है, इस घर
का स्वामी
कौन है। मैं
मात्र घर हूं
या वहां कोई
स्वामी भी
है, मैं मात्र
यंत्र रचना हूं,
या उसके परे
भी कुछ है। और शिव
कहते है कि उस
घुमाव बिंदु
पर उपलब्ध
हो। वे कहते
है, उस मोड़ के
प्रति
बोधपूर्ण हो
जाओ और तुम
आत्मोपलब्ध
हो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
प्रवचन-2(
तंत्र-सूत्र—भाग-1)
धन्यवाद ...
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