कण्ठ कूपे
क्षुत्पिपासानिवृति:
यह आंतरिक
अन्वेषण है।
योग जानता है
कि अगर हमको
भूख लगती है
तो भूख पेट
में ही अनुभव
नहीं होती है।
जब प्यास
लगती है, तो वह
ठीक-ठीक गले
में ही अनुभव
नहीं होती।
पेट मस्तिष्क
को भूख की
सूचना देता
है। और फिर मस्तिष्क
हम तक इसकी
सूचना पहुँचाता
है। उसके पास
कुछ अपने
संकेत होते
है। उदाहरण के
लिए, जब हमें
प्यास लगती
है, तो मस्तिष्क
ही गले में प्यास
की अनुभूति को
जगा देता है।
जब शरीर को पानी
चाहिए होता
है, तो मस्तिष्क
गले में प्यास
के लक्षण जगा
देता है। और हमको
प्यास लगने
लगती है। जब
हमें भोजन
चाहिए होता है,
तो मस्तिष्क
पेट में कुछ
निर्मित करने
लगता है। और भूख
सतानें लगती
है।
लेकिन
मस्तिष्क
को बड़ी आसानी
से धोखा दिया
जा सकता है।
पानी में शक्कर
घोलकर भी पी
लो और भूख
शांत हो जाती
है। क्योंकि
मस्तिष्क
केवल शक्कर
की ही बात समझ
सकता है। तो
इसलिए अगर शक्कर
खा लो, या पानी
में शक्कर घोलकर
पीलो तो तुरंत
मस्तिष्क
को यह लगने
लगता है कि अब
कुछ और नहीं
चाहिए। भूख
मिट जाती है।
इसीलिए जो लोग
बहुत ज्यादा
मीठे पदार्थ
खाते है उनकी
भोजन में रूचि
समाप्त हो
जाती है। शक्कर
की थोड़ी सी
मात्रा से
पोषण नहीं हो
सकता है। लेकिन
मस्तिष्क
मूर्ख बन जाता
है। शक्कर
खाकर व्यक्ति
मस्तिष्क
तक यह सूचना पहुंचा
देता है कि
उसने कुछ खा
लिया है। तत्क्षण
मस्तिष्क
को लगता है कि
तुमने खूब खा
लिया और भोजन में
शक्कर की
मात्रा ज्यादा
हो गयी है।
तुमने तो शक्कर
की गोली ही
खायी है; इस
तरह से मस्तिष्क
को एक भ्रम
निर्मित हो
जाता है।
योग ने
यह बात खोज ली
है कि किन्हीं
सुनिश्चित
केंद्रों पर
संयम संपन्न
करने से चीजें
तिरोहित हो
जाती है।
उदाहरण के लिए
अगर कोई कंठ
पर संयम ले आए,
तो उसे नक तो
प्यास लगेगी,
और न ही भूख
लगेगी। इसी
तरह से योगी
लोग लंबे समय तक
उपवास कर लेते
थे। महावीर के
लिए ऐसा कहा जाता
है। कि वे कई
बार तीन
महीने, चार
महीने तक
निरंतर उपवास
करते थे। जब
महावीर अपनी
ध्यान और साधना
में लीन थे, तो
कोई बारह वर्ष
की अवधि में करीब
ग्यारह वर्ष
तक वे उपवासे
ही रहे, भूखे ही
रहे। तीन
महीने उपवास
करते और फिर
एक दिन थोड़ा
आहार लेते थे।
फिर एक महीने उपवास
करते और बीच में
दो दिन भोजन
ले लेते। इसी
तरह से निरंतर
उनके उपवास
चलते रहते। तो
बारह वर्षों में
कुल मिलाकर एक
वर्ष उन्होंने
भोजन किया;
इसका अर्थ हुआ
कि बारह दिन में
एक दिन भोजन और
ग्यारह दिन
उपवास।
वे ऐसा
कैसे करते थे?
कैसे वे ऐसा
कर सकते थे? यह
बात तो असंभव
ही मालूम होती
है। आम आदमी
के लिए असंभव
है भी। लेकिन
योगियों के
पास कुछ रहस्य
है।
अगर कोई
व्यक्ति
कंठ में
एकाग्र रहता
है.....थोड़ा
कोशिश करके देखना।
अब जब तुम्हें
प्यास लगे,
तो अपनी आंखें
बंद कर लेना, और
अपना पूरा ध्यान
कंठ पर एकाग्र
कर लेना। जब
पूरा ध्यान
उसी में स्थित
हो जाता है।
तो तुम पाओगे
कि कंठ एकदम
शिथिल हो गया।
क्योंकि जब
तुम्हारा
पूरा ध्यान
किसी चीज पर
एकाग्र हो
जाता है। तो
तुम उस से अलग
हो जाते हो।
कंठ में प्यास
लगती है, और हमें
लगता है जैसे
मैं ही प्यासा
हूं। अगर तुम
प्यास के
साक्षी हो
जाओ, तो अचानक
ही तुम प्यास
से अलग हो
जाओगे। प्यास
के साथ जो
तुम्हारा तादात्म्य
हो गया थ वह
टूट जाएगा। तब
तुम जानोंगे
कि कंठ प्यासा
है। मैं प्यासा
नहीं हूं। और तुम्हारे
बिना तुम्हारा
कंठ कैसे प्यासा
हो सकता है।
क्या
तुम्हारे
बिना शरीर को
भूख लग सकती
है? क्या किसी
मृत आदमी को
कभी भूख या प्यास
लगती है? चाहे पानी
की एक-एक बूंद
शरीर से उड़
जाए, शरीर से
पानी की एक-एक
बूंद विलीन
हो जाए,
तो भी मृत व्यक्ति
को प्यास का
अनुभव नहीं हो
सकता। शरीर को
प्यास अनुभव
करने के लिए
शरीर के साथ
तादात्म्य
चाहिए।
इस
प्रयोग को करके
देखना। जब कभी
तुम्हें भूख
लगे तो अपनी
आंखे बंद कर
लेना, और अपने
कंठ तक गहरे
उतर जाना। फिर
ध्यान से
देखना। तुम देखोगें
कि कंठ तुम से
अलग है। और जैसे
ही तुम देखोगें,
कि कंठ तुम से
अलग है। तो
शरीर यह कहना
बंद कर देगा
कि शरीर भूखा
है। शरीर भूखा
हो नहीं सकता
है, शरीर के
साथ तादात्म्य
ही भूख को
निर्मित करता
है।
ओशो
पतंजलि: योग-सूत्र
भाग—4
प्रवचन—13
Aabhar
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