शिथिल
होने की पहली
विधि:
प्रिय
देवी, प्रेम
किए जाने के
क्षण में
प्रेम में ऐसे
प्रवेश करो
जैसे कि वह
नित्य जीवन
हो।
शिव
प्रेम से शुरू
करते है। पहली
विधि प्रेम से
संबंधित है।
क्योंकि
तुम्हारे
शिथिल होने के
अनुभव में
प्रेम का
अनुभव निकटतम
है। अगर तुम
प्रेम नहीं कर
सकते हो तो तुम
शिथिल भी नहीं
हो सकते हो।
और अगर तुम
शिथिल हो सके
तो तुम्हारा
जीवन प्रेमपूर्ण
हो जाएगा।
एक
तनावग्रस्त
आदमी प्रेम
नहीं कर सकता।
क्यों? क्योंकि
तनावग्रस्त
आदमी सदा
उद्देश्य से,
प्रयोजन से
जीता है। वह
धन कमा सकता
है। लेकिन
प्रेम नहीं कर
सकता। क्योंकि
प्रेम
प्रयोजन-रहित
है। प्रेम कोई
वस्तु नहीं
है। तुम उसे
संग्रहीत
नहीं कर सकते,
तुम उसे बैंक
खाते में नहीं
डाल सकते। तुम
उससे अपने
अहंकार की
पुष्टि नहीं
कर सकते। सच
तो यह है कि
प्रेम सब से
अर्थहीन काम
है; उससे आगे
उसका कोई अर्थ
नहीं है। उससे
आगे उसका कोई
प्रयोजन नहीं
है। प्रेम अपने
आप में जीता
है। किसी अन्य
चीज के लिए
नहीं।
तुम
धन कमाते हो—किसी
प्रयोजन से।
वह एक साधन
नहीं है। तुम
मकान बनाते हो—किसी
के रहने के
लिए। वह भी एक
साधन है।
प्रेम साधन
नहीं है। तुम
क्यों प्रेम
करते हो? किस लिए
प्रेम करते हो?
प्रेम
अपना लक्ष्य
आप है। यही
कारण है कि
हिसाब किताब
रखने वाला मन,
तार्किक मन,
प्रयोजन की
भाषा में
सोचने वाला मन
प्रेम नहीं कर
सकता। और जो
मन प्रयोजन की
भाषा में
सोचता है। वह
तनावग्रस्त
होगा। क्योंकि
प्रयोजन
भविष्य में
ही पूरा किया
जा सकता है।
यहां और अभी
नहीं।
तुम
एक मकान बना
रहे हो। तुम
उसमें अभी ही
नहीं रह सकते।
पहले बनाना
होगा। तुम
भविष्य में
उसमे रह सकते
हो; अभी नहीं।
तुम धन कमाते हो।
बैंक बैलेंस
भविष्य में
बनेगा, अभी
नहीं। अभी
साधन का उपयोग
कर सकते हो,
साध्य भविष्य
में आएँगे।
प्रेम
सदा यहां है
और अभी है।
प्रेम का कोई
भविष्य नहीं
है। यही वजह
है कि प्रेम
ध्यान के
इतने करीब है।
यही वजह है कि
मृत्यु भी ध्यान
के इतने करीब
है। क्योंकि
मृत्यु भी
यहां और अभी
है, वह भविष्य
में नहीं
घटती।
क्या
तुम भविष्य
में मर सकते
हो? वर्तमान में
ही मर सकते
हो। कोई कभी
भविष्य में
नहीं मरा।
भविष्य में
कैसे मर सकते
हो? या अतीत में
कैसे मर सकते
हो। अतीत जा
चुका वह अब
नहीं है।
इसलिए अतीत
में नहीं मर
सकते। और
भविष्य अभी
आया नहीं है।
इसलिए उसमे
कैसे मरोगे?
मृत्यु
सदा वर्तमान
में होती है।
मृत्यु
प्रेम और ध्यान
सब वर्तमान
में घटित होते
है। इसलिए अगर
तुम मृत्यु
से डरते हो तो
तुम प्रेम
नहीं कर सकते।
अगर तुम मृत्यु
से भयभीत हो
तो तुम ध्यान
नहीं कर सकते।
और अगर तुम ध्यान
से डरे हो तो
तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
होगा। किसी
प्रयोजन के
अर्थ में जीवन
व्यर्थ नहीं
होगा। वह व्यर्थ
इस अर्थ में
होगा कि तुम्हें
उसमें किसी
आनंद की
अनुभूति नहीं
होगी। जीवन
अर्थहीन
होगा।
इन
तीनों को—प्रेम,
ध्यान और
मृत्यु को—एक
साथ रखना अजीब
मालूम
पड़ेगा। वह
अजीब है नहीं।
वे समान अनुभव
है। इसलिए अगर
तुम एक में प्रवेश
कर गए तो शेष
दो में भी
प्रवेश पा
जाओगे।
शिव
प्रेम से शुरू
करते है:
‘’प्रिय देवी,
प्रेम किए
जाने के क्षण
में प्रेम में
ऐसे प्रवेश
करो जैसे कि
वह नित्य
जीवन है।‘’
इसका
क्या अर्थ है? कई
चीजें, एक जब
तुम्हें
प्रेम किया
जाता है तो
अतीत समाप्त
हो जाता है।
और भविष्य भी
नहीं बचता।
तुम वर्तमान
के आयाम में
गति कर जाते
हो। तुम अब
में प्रवेश कर
जाते हो। क्या
तुमने कभी
किसी को प्रेम
किया है? यदि
कभी किया है
तो जानते हो
कि उस क्षण मन
नहीं होता है।
यही
कारण है कि
तथाकथित
बुद्धिमान
कहते है कि प्रेम
अंधे होते है, मन:
शून्य और पागल
होते है। वस्तुत:
वे सच कहते
है। प्रेमी इस
अर्थ में अंधे
होते है। कि
भविष्य पर
अपने किए का
हिसाब रखने
वाली आँख उनके
पास नहीं
होती। वे अंधे
है, क्योंकि
वे अतीत को
नहीं देख
पाते।
प्रेमियों को
क्या हो जाता
है?
वे
अभी और यही
में सरक आते
है, अतीत और
भविष्य की
चिंता नहीं
करते, क्या
होगा इसकी
चिंता नहीं
लेते। इस कारण
वे अंधे कहे
जाते है। वे
है। जो गणित
करते है, उनके
लिए वे अंधे
है, और जो गणित
नहीं करते
उनके लिए आँख वाले
है। जो हिसाबी
नहीं है वे
देख लेंगे कि
प्रेम ही असली
आँख है, वास्तविक
दृष्टि है।
इसलिए
पहली चीज के
प्रेम के क्षण
में अतीत और भविष्य
नहीं होते है।
तब एक नाजुम
बिंदु समझने
जैसा है। जब
अतीत और भविष्य
नहीं रहते तब
क्या तुम इस
क्षण को
वर्तमान कह
सकते हो? यह
वर्तमान है दो
के बीच, अतीत
और भविष्य के
बीच; यह
सापेक्ष है।
अगर अतीत और
भविष्य नहीं
रहे तो इसे
वर्तमान कहते
में क्या तुक
है। वह
अर्थहीन है।
इसीलिए शिव वर्तमान
शब्द का व्यवहार
नहीं करते। वे
कहते है, नित्य
जीवन। उनका
मतलब शाश्वत
से है—शाश्वत
में प्रवेश
करो।
हम
समय को तीन
हिस्सों में
बांटते है—भूत,
भविष्य और
वर्तमान। यह
विभाजन गलत
है। सर्वथा
गलत है। केवल
भूत और भविष्य
समय है,
वर्तमान समय
का हिस्सा नहीं
है। वर्तमान
शाश्वत का
हिस्सा है।
जो बीत गया वह
समय है। जो
आने वाला है
समय है।
लेकिन
जो है वह समय
नहीं है। क्योंकि
वह कभी बीतता
नहीं है। वह
सदा है। अब सदा
है। वह सदा
है। यह अब
शाश्वत है।
अगर
तुम अतीत से
चलो तो तुम
कभी वर्तमान
में नहीं आते।
अतीत से तुम
सदा भविष्य
में यात्रा
करते हो। उसमे
कोई क्षण नहीं
आता जो
वर्तमान हो।
तुम
अतीत से सदा
भविष्य में
गति करते रहते
हो। आकर
वर्तमान से
तुम और
वर्तमान में
गहरे उतरते
हो, अधिकाधिक
वर्तमान में।
यही नित्य
जीवन है।
इसे
हम इस तरह भी
कह सकते है।
अतीत से भविष्य
तक समय है।
समय का अर्थ
है कि तुम
समतल भूमि पर
और सीधी रेखा
में गति करते
हो। या हम उसे
क्षैतिज कह
सकते है। और
जिस क्षण तुम
वर्तमान में
होते हो, आयाम
बदल जाता है।
तुम्हारी
गति ऊर्ध्वाधर
ऊपर-नीचे हो
जाती है। तुम
ऊपर, ऊँचाई की
और जाते हो या
नीचे गहराई की
और जाते हो।
लेकिन तब तुम्हारी
गति क्षैतिज
या समतल नहीं
होती है।
बुद्ध
और शिव शाश्वत
में रहते है,
समय में नहीं।
जीसस
से पूछा गया
कि आपके प्रभु
के राज्य में
क्या होगा? जो पूछ
रहा था वह समय
के बारे में
नहीं पूछ रहा था।
वह जानना
चाहता था कि
वहां उसकी
वासनाओं का क्या
होगा। वे कैसे
पूरी होंगी? वह पूछ
रहा था कि क्या
वहां अनंत
जीवन होगा या
वहां मृत्यु
भी होगी। क्या
वहां दुःख भी
रहेगा। और
छोटे और बड़े
लोग भी होंगे।
जब उसने पूछा
कि आपके प्रभु
के राज्य में
क्या होगा।
तब वह इसी
दुनिया की बात
पूछ रहा था।
और
जीसस ने उत्तर
दिया—यह उत्तर
झेन संत के
उत्तर जैसा
है—‘’वहां समय
नहीं होगा।‘’
जिस व्यक्ति
को यह उत्तर
दिया गया था
उसने कुछ नहीं
समझा होगा।
जीसस ने इतना
ही कहा—वहां
समय नहीं
होगा। क्यों? क्योंकि
समय क्षैतिज
है, और प्रभु
का राज्य ऊर्ध्वगामी
है। वह शाश्वत
है। वह सदा
यहां है। उसमे
प्रवेश के लिए
तुम्हें समय
से हट भर जाना
है।
तो
प्रेम पहला
द्वारा है।
इसके द्वारा
तुम समय के
बाहर निकल
सकते हो। यही
कारण है कि हर
आदमी प्रेम
चाहता है, हर
आदमी प्रेम
करना चाहता है।
और कोई नहीं
जानता है कि
प्रेम को इतनी
महिमा क्यों
दी जाती है? प्रेम
के लिए इतनी
गहरी चाह क्यों
है? और जब तक तुम
यह ठीक से न
समझ लो, तुम ने
प्रेम कर सकते
हो और न पा
सकते हो। क्योंकि
इस धरती पर
प्रेम गहन से
गहन घटना है।
हम
सोचते है कि
हर आदमी, जैसा
वह है, प्रेम
करने को सक्षम
है। वह बात
नहीं है। और
इसी कारण से तुम
प्रेम में
निराशा होते
हो। प्रेम एक
और ही आयाम
है। यदि तुमने
किसी को समय
के भीतर प्रेम
करने की कोशिश
की तो तुम्हारी
कोशिश
हारेगी। समय
के रहते प्रेम
संभव नहीं है।
मुझे
एक कथा याद
आती है। मीरा
कृष्ण के
प्रेम में थी।
वह गृहिणी थी—एक
राजकुमार की
पत्नी। राजा
को कृष्ण से
ईर्ष्या
होने लगी।
कृष्ण थे
नहीं। वे शरीर
से उपस्थित
नहीं थे। कृष्ण
और मीरा की
शारीरिक
मौजूदगी में
पाँच हजार वर्षों
का फासला था।
इसलिए यथार्थ
में मीरा कृष्ण
के प्रेम में
कैसे हो सकती
थी। समय का
अंतराल इतना
लंबा था।
एक
दिन राणा ने
मीरा से पूछा,
तुम अपने
प्रेम की बात
किए जाती हो,
तुम कृष्ण के
आसपास
नाचती-गाती
हो। लेकिन
कृष्ण है
कहां? तुम किसके
प्रेम में हो? किससे
सतत बातें किए
जाती हो?
मीरा
ने कहां: कृष्ण
यहां है, तुम
नहीं हो। क्योंकि
कृष्ण शाश्वत
है। तुम नहीं
हो, वे यहां
सदा होंगे।
सदा थे। वे यहां
है, तुम यहां
नहीं हो। एक
दिन तुम यहां
नहीं थे, किसी
दिन फिर यहां
नहीं होओगे।
इसलिए मैं
कैसे विश्वास
कुरू कि इन दो अनस्तित्व
के बीच तुम
हो। दो अनस्तित्व
के बीच अस्तित्व
क्या संभव है?
राणा
समय में है और
कृष्ण शाश्वत
में है। तुम
राणा के निकट
हो सकते हो।
लेकिन दूरी
नहीं मिटाई जा
सकती। तुम दूर
ही रहोगे। और
समय में तुम
कृष्ण से
बहुत दूर हो
सकते हो, तो भी
तुम उनके निकट
हो सकते हो।
यह आयाम ही और
है।
मैं
आपने सामने
देखता हूं
वहां दीवार
है। फिर मैं
अपनी आंखों को
आगे बढ़ाता
हूं और वहां
आकाश है। जब
तुम समय में
देखते हो तो
वहां दीवार
है। और जब तुम
समय के पार
देखते हो तो
वहां खुला
आकाश है, अनंत
आकाश।
प्रेम
अनंत का द्वार
खोल सकता है।
अस्तित्व
की शाश्वतता
का द्वार।
इसलिए अगर
तुमने कभी सच
में प्रेम
किया है तो
प्रेम को ध्यान
की विधि बनाया
जा सकता है।
यह वहां विधि है:
‘’प्रिय देवी
प्रेम किए
जाने के क्षण
में प्रेम में
ऐसे प्रवेश
करो जैसे कि
यह नित्य
जीवन हो।‘’
बाहर-बाहर
रहकर प्रेमी
मत बनो,
प्रेमपूर्ण
होकर शाश्वत
में प्रवेश
करो। जब तुम
किसी को प्रेम
करते हो तो क्या
तुम वहां
प्रेमी की तरह
होते हो? अगर
होते हो तो
समय में हो, और
तुम्हारा
प्रेम झूठा
है। नकली है,
अगर तुम अब भी
वहां हो और
कहते हो कि
मैं हूं तो
शारीरिक रूप
से नजदीक होकर
भी आध्यात्मिक
रूप से तुम्हारे
बीच दो
ध्रुवों की
दूरी कायम
रहती है।
प्रेम
में तुम न रहो,
सिर्फ प्रेम
रहे; इसलिए प्रेम
ही हो जाओ।
अपने प्रेमी
या प्रेमिका
को दुलार करते
समय दुलार ही
हो जाओ। चुंबन
लेते समय
चूसने वाले या
चूमे जाने
वाले मत रहो,
चुंबन ही बन जाओ।
अहंकार को
बिलकुल भूल
जाओ। प्रेम के
कृत्य में
धुल-मिल जाओ।
कृत्य में
इतनी गहरे समा
जाओ कि कर्ता
न रहे।
और
अगर तुम प्रेम
में नहीं गहरे
उतर सकते तो
खाने और चलने
में गहरे
उतरना कठिन
होगा। बहुत
कठिन होगा। क्योंकि
अहंकार को
विसर्जित
करने के लिए
प्रेम सब से
सरल मार्ग है।
इसी वजह से
अहंकारी लोग प्रेम
नहीं कर पाते।
वे प्रेम के
बारे में बातें
कर सकते है।
गीत गा सकते
है। लिख सकते
है; लेकिन वे
प्रेम नहीं कर
सकते। अहंकार
प्रेम नहीं कर
सकता है।
शिव
कहते है,
प्रेम ही हो
जाओ। जब
आलिंगन में हो
तो आलिंगन हो
जाओ। चुंबन
लेते समय
चुंबन हो जाओ।
अपने को इस
पूरी तरह भूल
जाओ कि तुम कह
सको कि मैं अब
नहीं हूं,
केवल प्रेम
है। तब ह्रदय नहीं
धड़कता है,
प्रेम की
धड़कता है। तब
खून नहीं दौड़ता
है, प्रेम ही
दौड़ता है। तब
आंखे नहीं
देखती है,
प्रेम ही
देखता है। तब
हाथ छूने को
नहीं बढ़ते
है, प्रेम ही
छूने को बढ़ता
है। प्रेम बन
जाओ और शाश्वत
जीवन में
प्रवेश करो।
प्रेम
अचानक तुम्हारे
आयाम को बदल देता
है। तुम समय
से बाहर फेंक
दिये जाते हो।
तुम शाश्वत
के आमने-सामने
खड़े हो जाते
हो। प्रेम
गहरा ध्यान
बन सकता है—गहरे से
गहरा। और
कभी-कभी
प्रेमियों ने
वह जाना है जो संतों
न भी नहीं
जाना। कभी-कभी
प्रेमियों ने
उस केंद्र को
छुआ है जो
अनेक योगियों
ने नहीं छुआ।
शिव
को अपनी
प्रिया देवी
के साथ देखो।
उन्हें ध्यान
से देखो। वे
दो नहीं मालूम
होते। वे एक
ही है। यह
एकांत इतना
गहरा है। हम
सबने शिव लिंग
देखे है। ये
लैंगिक प्रतीक
है। शिव के
लिंग का
प्रतीक है।
लेकिन वह अकेला
नहीं है, वह
देवी की योनि
में स्थित
है। पुराने
दिनों के
हिंदू बड़े साहसी
थे। अब जब तुम
शिवलिंग
देखते हो तो
याद नह रहता
कि यह एक
लैंगिक
प्रतीक है। हम
भूल गए है। हमने
चेष्टा
पूर्वक इसे
पूरी तरह भुला
दिया है।
प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक
जुंग ने अपनी
आत्मकथा में,
अपने संस्मरणों
में एक मजेदार
घटना का उल्लेख
किया है। वह
भारत आया और
कोणार्क
देखने को गया।
कोणार्क के
मंदिर में
शिवलिंग है।
जो पंडित उसे
समझाता था
उसने शिवलिंग
के सिवाय सब कुछ
समझाया। और वे
इतने थे कि
उनसे बचना
मुश्किल था।
जुंग तो सब
जानता था,
लेकिन पंडित
को सिर्फ
चिढ़ाने के लिए
पूछता रहा की
ये क्या है? तो
पंडित ने आखिर
जुंग के कान
में कहा कि
मुझे यहां मत
पूछिये, मैं
पीछे आपको
बताऊंगा। यह
गोपनीय है।
जुंग
मन ही मन हंसा
होगा। ये है
आज के हिंदू।
फिरा बहार आकर
पंडित ने कहा
कि दूसरों के
सामने आपका
पूछना उचित न
था। अब में
बताता हूं। यह
गुप्त चीज
है। और तब फिर
उसने जुंग के
कान में कहा ये
हमारे गुप्तांग
है।
जुंग
जब यहां से
वापस गया तो
वहां वह एक
महान विद्वान
से मिला।
पूर्वीय
चिंतन मिथक और
दर्शन के
विद्वान,
हेनरिख जिमर
से। जुंग ने
यह किस्सा
जिमर को
सुनाया। जिमर
उन थोड़े से
मनीषियों में
था जिन्होंने
भारतीय चिंतन
में डूबने की चेष्टा
की थी। और वह
भारत का उसकी
विचारणा का,
जीवन के प्रति
उसके
अतार्किक
रहस्यवादी दृष्टि
वादी दृष्टिकोण
का प्रेमी था।
जब उसने जुंग
से यह सूना तो
वह हंसा और
बोला, बदलाहट
के लिए अच्छा
है। मैंने
बुद्ध, कृष्ण,
महावीर जैसे
महान
भारतीयों के
बारे में सुना
है। तुम तो
सुना रहे हो
वह किसी महान
भारतीय के
संबंध में
नहीं,
भारतीयों के
संबंध में कुछ
कहता है।
शिव
के लिए प्रेम
महाद्वार है। और
उनके लिए
कामवासना
निंदनीय नहीं
है। उनके लिए
काम बीज है और प्रेम
उसका फूल है। और
अगर तुम बीज
की निंदा करते
हो तो फूल की
भी निंदा अपने
आप हो जाती
है। काम प्रेम
बन सकता है। और
अगर वह कभी
प्रेम नहीं बनता
है तो वह पंगु
हो जाता है।
पंगुता की निंदा
करो, काम की
नहीं। प्रेम
को खिलना
चाहिए। उसको
प्रेम बनना
चाहिए। और अगर
यह नहीं होता
है तो यह काम
दोष नहीं है,
यह दोष तुम्हारा
है।
काम
को काम नहीं रहना
है। यहीं
तंत्र की
शिक्षा है।
उसे प्रेम में
रूपांतरित
होना ही
चाहिए। और प्रेम
को भी प्रेम
ही नहीं रहना
है। उसे
प्रकाश में ,
ध्यान के
अनुभव में
अंतिम, परम
रहस्यवादी
शिखर में रूपांतरित
होना चाहिए।
प्रेम को
रूपांतरित कैसे
किया जाए?
कृत्य
हो जाओ और कर्ता
को भूल जाओ।
प्रेम करते
हुए प्रेम,
महज प्रेम हो
जाओ। तब यह
तुम्हारा
प्रेम मेरा
प्रेम या किसी
अन्य का
प्रेम नहीं है।
तब यह मात्र
प्रेम है, जब
कि तुम नहीं हो,
जब कि तुम परम
स्त्रोत या
धारा के हाथ में
हो। तब कि तुम
प्रेम में हो
तुम प्रेम में
नहीं हो,
प्रेम न ही
तुम्हें आत्मसात
कर लिया है।
तुम तो
अंतर्धान हो
गए हो। मात्र
प्रवाहमान
ऊर्जा बनकर रह
गए हो।
इस
यूग का एक
महान सृजनात्मक
मनीषी डी. एच. लॉरेंस,
जाने अनजाने तत्र
विद था। पश्चिम
में वि पूरी
तरह निंदित
हुआ। उसकी
किताबें जब्त
हुई। उस पर
अदालतों में
अनेक मुकदमे
चले, सिर्फ
इसलिए कि उसने
कहा कि काम
ऊर्जा एक मात्र
ऊर्जा है। और अगर
तुम उसकी
निंदा करते हो,
दमन करते हो,
तो तुम जगत के
खिलाफ हो। और तब
तुम कभी भी इस
ऊर्जा की परम
खिलावट को नहीं
जान पाओगे। और
दमित होने पर
यह कुरूप हो
जाती है। और यही
दुस्चक्र है।
पुरोहित,
नीतिवादी,
तथाकथित
धार्मिक लोग,
पोप,
शंकराचार्य, और
दूसरे लोग काम
की सतत निंदा करते
है। वे कहते
है कि यह एक
कुरूप चीज है।
और तुम इसका
दमन करते होत
तो यह सचमुच
कुरूप हो जाती
है। तब वे कहते
है कि देखो, जो
हम कहते थे वह
सच निकला।
तुमने ही इसे
सिद्ध कर
दिया। तुम जो
भी कर रहे हो
वह कुरूप है, और
तुम जानते हो
कि वह कुरूप
है।
लेकिन
काम स्वयं
में कुरूप नहीं
है।
पुरोहितों ने
उसे कुरूप कर
दिया है। और जब
वे इसे कुरूप
कर चूकते है तब
वे सही साबित
होते है। ओर जब
वे सही साबित
होते है तो
तुम उसे कुरूप
से कुरूप तर
किए देते हो।
काम तो
निर्दोष
ऊर्जा है। तुम
में प्रवाहित
होता जीवन है,
जीवंत अस्तित्व
है। उसे पंगु
मत बनाओ। उसे
उसके शिखरों
की यात्रा करने
दो। उसका अर्थ
है कि काम को
प्रेम बनना
चाहिए। फर्क
क्या है?
जब
तुम्हारा मन
कामुक होता है
तो तुम दूसरे
का शोषण कर
रहे हो। दूसरा
मात्र एक यंत्र
होता है। जिसे
इस्तेमाल
करके फेंक
देना है। और जब
काम प्रेम
बनता है तब
दूसरा यंत्र नहीं
होता, दूसरे
का शोषण नहीं किया
जाता, दूसरा
सच में दूसरा नहीं
होता। तब तुम
प्रेम करते हो
तो यह स्व-केंद्रित
नहीं है। उस
हालत में तो
दूसरा ही महत्वपूर्ण
होता है। अनूठा
होता है। तब
तुम एक दूसरे
का शोषण नहीं करते,
तब दोनों एक
गहरे अनुभव में
सम्मिलित हो
जाते हो।
साझीदार हो
जाते हो। तुम
शोषक और शोषित न
होकर एक दूसरे
को प्रेम की और
ही दुनिया में
यात्रा करने में
सहायता करते
हो। काम शोषण
है, प्रेम एक
भिन्न जगत में
यात्रा है।
अगर
यह यात्रा
क्षणिक न रहे,
अगर यह यात्रा
ध्यान पूर्ण
हो जाए,
अर्थात अगर
तुम अपने को
बिलकुल भूल
जाओ और प्रेमी
प्रेमिका
विलीन हो जाएं
और केवल प्रेम
प्रवाहित
होता रहे, तो
शिव कहते है—‘’शाश्वत
जीवन तुम्हारा
है।‘’
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-7
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