काल बन
कर निगल गई
हो गई जो समय
के गर्त में
दफ़न
जो समझता
था अपने को काल
का पर्यायवाची
कलंक-कलुषित
जीवन
मिटा
दिया उस काल
ने फिर एक बार
कि शायद
ले सके कोई सुंदर
रूप
कोई मां
भर से उस
कुरूप चेहरे
पर
फिर से
एक नया रंगरूप
और खिला
सके उसके
ह्रदय में भी
प्रेम
का कोई नया अंकुर
तपीस कम
कर दे उस
धधकते दावा
कूल की
और बूझा
दे उसकी कुरूप
प्यास
और काट
दे उसके सब
कंटक
जो उसने
उगा लिये थे
अपने चारो और
वो खिल
सके किसी बगिया
का फूल बन कर
भर दे
किलकारी उस सुने
आँगन में फिर
एक बार
पर काश
ये इतना आसान
होता
प्रकृति को
भेदना
कौन मां
समा सकेगी
उस काल
अग्नि को
अपने गर्व में
नहीं
उसे भटकना ही
होगा अंनत तक
तब तक जब
तक वह
प्रायश्चित
कि अग्नि में
न
हो जाये
पवित्र......
बनी
रहेगी वह
अमावस्या
काली बन
कर काल गर्त
में
किसी पूर्णिमा
इंतजार में.....
स्वामी
आनंद प्रसाद
‘’मनसा’’
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