अंधकार
संबंधि तीसरी
विधि:
‘’जहां
कहीं भी तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी बिंदु
पर अनुभव।‘’
क्या? क्या
अनुभव? इस विधि में
सबसे पहले
तुम्हें
अवधान साधना
होगा, अवधान का
विकास करना
होगा। तुम्हें
इस भांति का
अवधान पूर्ण
रूख, रुझान
विकसित करना
होगा; तो ही यह
विधि संभव
होगी। और तब
जहां भी तुम्हारा
अवधान उतरे,
तुम अनुभव कर
सकते हो—स्वयं
को अनुभव कर
सकते हो। एक
फूल को देखने
भर से तुम स्वयं
को अनुभव कर
सकते हो। तब
फूल को देखना
सिर्फ फूल को
ही देखना नहीं
है। वरन देखने
वाले को भी
देखना है। लेकिन
यह तभी संभव
है जब तुम
अवधान का रहस्य
जान लो।
तुम भी फूल
को देखते हो
और तुम सोच सकते
हो कि मैं फूल
को देख रहा
हूं। लेकिन तुमने
तो फूल के
बारे में
विचार करना शुरू
कर दिया और
तुम फूल को
चूक गये। तुम
वहां नहीं हो
जहां फूल है।
तुम कहीं और
चले गए, तुम दूर हट
गए। अवधान का
अर्थ है कि जब
तुम फूल को
देखते हो तो
तुम फूल को ही
देखते हो। कोई
दूसरा काम
नहीं करते हो—मानों
मत ठहर गया
है। अब कोई
विचारणा नहीं
हे। फूल का
सीधा अनुभव भर
है। तुम यहां
हो और फूल वहां
है। और कोई
विचारण नहीं,
दोनों के बीच
कोई विचार
नहीं।
यदि यह
संभव हो तो
अचानक तुम्हारा
अवधान फूल से
लौटकर स्वयं
पर आ जाएगा।
एक वर्तुल बन
जाएगा। तुम
फूल को देखोगें
और वह दृष्टि
वापस लौटेंगी;
फूल उसे वापस
कर देगा, द्रष्टा
पर ही लौटा
देगा। अगर
विचार नहीं तो
यह घटित होता
हे। तब तुम
फूल को ही
नहीं देखते,
तुम देखने वाले
को देखते हो।
तब देखने वाला
और फूल दो आब्जेक्ट्स
हो जाते है।
तुम दोनों के
साक्षी हो
जाते हो।
लेकिन पहले
अवधान को
प्रशिक्षित
करना होगा। तुममें
अवधान बिलकुल
नहीं है। तुम्हारा
अवधान सतत
बदलता रहता है—यहां
से वहां से
कही और। तुम
एक क्षण के
लिए भी अवधान
पूर्ण नहीं
रहते हो। जब
मैं यहां बोल
रहा हूं तो
तुम मेरी बात
भी कभी नहीं सुनते।
तुम एक शब्द
सुनते हो और
फिर तुम्हारा
अवधान और कहीं
चला जाता है।
फिर तुम्हारा
अवधान वापस
मेरी बात पर
आता है। फिर
तुम एक शब्द
सुनते हो,
फिर तुम्हारा
ध्यान कही और
चला जाता है।
तुम थोड़े
से शब्द
सुनते हो और
बाकी के खाली
स्थानों पर
अपने शब्द
डाल लेते हो। और
सोचते हो कि
तुमने मुझे
सुना। और तुम
जो भी यहां से
ले जाते हो वह
तुम्हारी
अपनी रचना है,
तुम्हारा
अपना धंधा है।
तुमने मेरे
थोड़े से शब्द
सुने और खाली
जगह पर अपने
शब्द भर
दिये। और तुम
जितनी खाली
जगह को भरते
हो, वह पूरी चीज
को बदल देती
है।
मैं एक शब्द
बोलता हूं और
तुमने उसके
संबंध में झट
सोचना शुरू कर
दिया; तुम मौन
नहीं रह सकते।
यदि तुम सुनते
हुए मौन रह
सको तो तुम
अवधान पूर्ण
हो। अवधान का
अर्थ है वह
मौन सजगता। वह
शांत बोध।
जिसमें
विचारों का
कोई व्यवधान
न हो, बाधा न हो।
तो अवधान
का विकास करो।
और उसे करके
ही तुम उसका
विकास कर सकते
हो; इसके
अतिरिक्त
कोई मार्ग
नहीं है।
अवधान दो,
उसे बढ़ाते
जाओ,प्रयोग
से वह विकसित
होगा। कुछ भी
करते हुए। कहीं
भी तुम अवधान
को विकसित कर
सकते हो। तुम
कार में या
रेलगाडी में
यात्रा कर रहे
हो। वही अवधान
को बढ़ाने का
प्रयोग करो।
समय मत गंवाओ।
तुम आधा घंटा
कार या
रेलगाड़ी में
रहने वाले हो;
वही अवधान
साधो। बस वहां
होओ। विचार मत
करो। किसी व्यक्ति
को देखो, रेलगाड़ी
को देखो या
बाहर देखो,पर
द्रष्टा
रहो। विचार मत
करो। वहां होओ
और देखो। तुम्हारी
दृष्टि सीधी, प्रत्यक्ष
और गहरी हो जाएगी।
और तब सब तरफ
से तुम्हारी
दृष्टि वापस
लौटने लगेगी।
और तुम द्रष्टा
के प्रति बोध
से भर जाओगे।
तुम्हें
अपना बोध नहीं
है। तुम अपने
प्रति सावचेत नहीं
हो। क्योंकि
विचारों की एक
दीवार है। जब
तुम एक फूल को
देखते हो तो
पहले तुम्हारे
विचार तुम्हारी
दृष्टि को
बदल देते है;
वह उसे अपना
रंग दे देते
है। और वह
दृष्टि वापस
आती है। वह
तुम्हें कभी
वहां नहीं
पाती; तुम
कहीं और चले
गए होते हो।
तुम वहां नहीं होते
हो।
प्रत्येक
दृष्टि वापस
लौटती है।
प्रत्येक
चीज
प्रतिबिंबित
होती है।
प्रतिसंवेदित
होती है। लेकिन
तुम उसे ग्रहण
करने के लिए
वहां मौजूद
नहीं होते। तो
उसके ग्रहण के
लिए मौजूद
रहो। पूरे दिन
तुम अनेक
चीजों पर यह
प्रयोग कर
सकते हो। और
धीरे-धीरे
तुम्हारा
अवधान विकसित
होगा। तब इस
अवधान के साथ
एक प्रयोग
करो।
‘जहां
कहीं भी तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’
तब
कहीं भी देखा,
लेकिन देखो।
अब अवधान वहां
है। अब तुम स्वयं
को अनुभव
करोगे। लेकिन
पहली शर्त है
अवधान पूर्ण
होने की
क्षमता को
प्राप्त
करना। और तुम
इसका अभ्यास
कही भी कर
सकते हो। उसके
लिए अतिरिक्त
समय की जरूरत
नहीं है। तुम
जो भी कर रहो
हो, भोजन
कर रहे हो,
या स्नान कर
रहे हो, बस
अवधान पूर्ण
होओ।
लेकिन
समस्या क्या
है? समस्या यह
है कि हम सब
काम मन के
द्वारा करते
है। और हम
निरंतर भविष्य
के लिए
योजनाएं
बनाते है। तुम
रेलगाड़ी में सफर
कर रहे हो और
तुम्हारा मन
किन्हीं
दूसरी
यात्राओं के
आयोजन में व्यस्त
है। उनके
कार्यक्रम
बनाने में
संलग्न है।
इसे बंद करो।
झेन
संत बोकोजू ने
कहा है: ‘मैं
यही एक ध्यान
जानता हूं। जब
में भोजन करता
हूं तो भोजन करता
हूं। जब मैं
चलता हूं तो
चलता हूं। और
जब मुझे नींद
आती है तो मैं
सो जाता हूं।
जो भी होता है; होता है,
उसमें मैं कभी
हस्तक्षेप
नहीं करता।’
इतना
ही करने को है
कि हस्तक्षेप
मत करो। और जो
भी घटित होता
हो उसे घटित
होने दो। तुम
सिर्फ वहां
मौजूद रहो।
यही चीज तुम्हें
अवधान पूर्ण
बनाएगी। और जब
तुम्हें
अवधान प्राप्त
हो जाए तो यह
विधि तुम्हारे
हाथ में है।
‘जहां
कहीं भी तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी बिंदु
पर, अनुभव।’
तुम
अनुभव करने
वाले को अनुभव
करोगे। तुम स्वयं
पर लौट आओगे।
सब जगह से तुम
प्रतिबिंबित
होगे। सब जगह से
तुम प्रतिध्वनित
होगे। सारा
अस्तित्व
दर्पण बन
जाएगा। तुम सब
जगह प्रति
बिंबित होगे।
पूरा अस्तित्व
तुम्हें
प्रतिबिंबित
करेगा।
और
केवल तभी तुम
स्वयं को
जान
सकते हो।
उसके पहले
नहीं । जब तक
समस्त अस्तित्व
ही तुम्हारे
लिए दर्पण न
बन जाए। जब तक
अस्तित्व
का कण-कण तुम्हें
प्रकट न करे;
जब तक प्रत्येक
संबंध तुम्हें
विस्तृत न
करे...। तुम
इतने असीम हो
कि छोटे
दर्पणों से
नहीं चलेगा।
तुम अंतस से
इतने विराट हो
कि जब तक सारा
आस्तित्व दर्पण
न बने,
तुम्हें झलक
नहीं मिल
पाएगी। जब
समस्त अस्तित्व
दर्पण बन जाता
है, केवल
तभी तुम
प्रतिबिंबित
हो सकते हो।
तुम्हारे
भीतर भगवता
विराजमान है।
और
अस्तित्व
को दर्पण
बनाने की विधि
है: अवधान
पैदा करो,
ज्यादा
सावचेत बनो, और जहां
कहीं तुम्हारा
अवधान उतरे—जहां
भी, जिस
किसी विषय पर
भी तुम्हारा
ध्यान जाए—अचानक
स्वयं को
अनुभव करो।
यह
संभव है।
लेकिन अभी तो
यह असंभव है।
क्योंकि
तुमने
बुनियादी
शर्त नहीं पूरी
की है। तुम एक
फूल को देख
सकते हो।
लेकिन वह
अवधान नहीं
है। अभी तो
तुम फूल के
चारों और बाहर-भीतर
धूम रहे हो।
तुमने
भागते-भागते
फूल को देखा
है; तुम उसके
साथ क्षण भर
के लिए नहीं
रहे हो। रुको, अवधान पैदा
करो,
सावचेत बनो, और समस्त
जीवन ध्यान
पूर्ण हो जाता
है।
‘जहां
कहीं भी तुम्हारा
अवधान उतरे, उसी बिंदु
पर, अनुभव।’
बस
स्वयं को स्मरण
करो।
इस
विधि के
सहयोगी होने
का एक गहरा
कारण है। तुम
एक गेंद को
दीवार पर मारो;
गेंद वापस लौट
आयेगी। जब तुम
किसी फूल या
किसी चेहरे को
देखते हो तो
तुम्हारी
कुछ उर्जा उस
दशा में गति
कर रही है।
तुम्हारा
देखना ही
उर्जा है।
तुम्हें पता
नहीं है कि जब
तुम देखते हो
तो तुम उर्जा
दे रह हो।
थोड़ी ऊर्जा
फेंक रहे हो।
तुम्हारी
ऊर्जा का,
तुम्हारी
जीवन ऊर्जा का
एक अंश फेंका
जा रहा है। यही
कारण है कि
दिन भर रास्ते
पर
देखते-देखते
तुम थक जाते
हो। चलते हुए
लोग,
विज्ञापन,
भीड़ दुकानें—इन्हें
देखते देखते।
तुम थकान
अनुभव करते
हो। और आराम
करने के लिए
आंखें बंद कर
लेना चाहते
हो। क्या हुआ? तुम इतने
थके माँदे क्यों
हो? तुम
ऊर्जा फेंकते
रहे हो।
बुद्ध
और महावीर
दोनों इस पर
जोर देते थे।
कि उनके शिष्य
चलते हुए दूर
तक न देखें।
जमीन पर दृष्टि
रखकर चलें।
बुद्ध कहते थे
कि तुम सिर्फ
चार फीट आगे
तक देख सकते
हो। इधर-उधर
कहीं मत देखो।
सिर्फ अपनी
राह को देखो
जि पर चल रहे
हो। चार फीट आगे
सरक जाएगी। उससे ज्यादा
दूर मत देखो। क्योंकि
तुम्हें अकारण
अपनी ऊर्जा का
अपव्यय नहीं करना
है।
जब
तुम देखते हो
तो तुम थोड़ी ऊर्जा
बाहर फेंकते हो।
रुको, मौन प्रतीक्षा
करो,उस ऊर्जा
को वापस आने दो।
और तुम चकित हो
जाओगे। अगर तुम
ऊर्जा को वापस
आने देते हो तो
तुम कभी नहीं थकोंगे।
इसे प्रयोग करो।
कल सुबह इस विधि
का प्रयोग करो।
शांत हो जाओ। किसी
चीज को देखो। शांति
रहो। उसके बारे
में विचार मत
करो। और एक क्षण
धैर्य से प्रतीक्षा
करो। ऊर्जा वापस
आएगी। असल में
तुम और भी प्राणवान
हो जाओगे।
लोग
निरंतर मुझसे पूछते
है; मैं सतत पढ़ता
रहता हूं। इसलिए
वे पूछते है; आपकी आंखें अभी
भी ठीक कैसे
है? आप जितना
पढ़ते है, आपको
कत का चश्मा लग
जाना चाहिए था।
तुम पढ़ सकते हो
लेकिन अगर तुम
निर्विचार मौन
होकर पढ़ो तो ऊर्जा
वापस आ जाती है।
वह व्यर्थ नहीं
होती है। और तुम
कभी थकान अनुभव
नहीं करोगे। मैं
जिंदगी भर रोज
बारह घंटे पढ़ता
रहा हूं। कभी-कभी
अठारह घंटे भी; लेकिन मैंने
थकावट कभी महसूस
नही की। मैंने
अपनी आंखों में
कभी कोई अड़चन, कभी कोई थकान
नहीं अनुभव की।
निर्विचार
अवस्था में उर्जा
लौट आती है। कोई
बाधा नहीं पड़ती
है। और अगर तुम
वहां मौजूद हो
तो तुम उसे पुन:
आत्मसात कर लेते
हो। और वह पून: आत्मसात
करना तुम्हें
पुनरुज्जीवित
कर देता है। सच
तो यह है कि तुम्हारी
आंखें थकनें के
बजाय ज्यादा शिथिल, ज्यादा
प्राणवान, ज्यादा
ऊर्जावान हो जाती
है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-चार
प्रवचन-51
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