अग्नि
संबंधि तीसरी
विधि:
‘जैसे
विषयीगत रूप
से अक्षर शब्दों
में और शब्द
वाक्यों में
जाकर मिलते है
और विषयगत रूप
से वर्तुल
चक्रों में और
चक्र मूल-तत्व
में जाकर
मिलते है, वैसे
ही अंतत: इन्हें
भी हमारे अस्तित्व
में आकर मिलते
हुए पाओ।’
यह भी एक कल्पना
की विधि है।
अहंकार सदा
भयभीत है। वह
संवेदनशील होने
से, खुला होने
से डरता है।
वह डरता है कि
कोई चीज भीतर
प्रवेश करके
उसे नष्ट कर
न दे। इसलिए
अहंकार अपने
चारों और एक
किला बंदी
करता है। और
तुम एक
कारागृह में
रहने लगते हो।
तुम अपने अंदर
किसी को भी
प्रवेश नहीं
देते हो। तुम
डरते हो कि
यदि कोई चीज
भीतर आ गई तो
झंझट खड़ा कर
देगी। तो
बेहतर है कि
किसी को आने
ही मत दो। तब
सारा संवाद
बंद हो जाता
है; उनके साथ भी
संवाद बंद हो
जाता है। जिन्हें
तुम प्रेम
करते हो। या
सोचते हो कि
तुम प्रेम
करते हो।
किन्हीं
पति-पत्नी को
बा करते हुए
देखा; वे एक दूसरे
से बात नहीं
कर रहे है।
उनके बीच कोई
संवाद नहीं
है। बल्कि वे
शब्दों के
द्वारा एक
दूसरे से बच
रहे है। वे
बात कर रहे है
ताकि एक दूसरे
से बचा जाए। मौन
में वे एक दूसरे
के प्रति खुल
जाएंगे। मौन
में वे एक दूसरे
के समीप आ
जायेंगे। क्योंकि
मौन में कोई
दीवार नहीं
रहती है। कोई
अहंकार नही
रहता हे।
इसलिए पति पत्नी
कभी चुप नहीं
रहते, वे समय
काटने के लिए
किसी ने किसी
चीज की चर्चा
करते रहेगें।
अन्यथा डर है
कि कहीं एक
दूसरे के
प्रति
संवेदनशील न
हो जाएं। खुल
न जाएं। हम एक
दूसरे से इतने
भयभीत है।
मैंने सुना
है कि एक दिन
मुल्ला
नसरूदीन घर से
बाहर निकल रहा
था कि उसकी
पत्नी ने
कहा: ‘नसरूदीन
क्या तुम भूल
गये कि आज कौन
सा दिन है?’ नसरूदीन
को पता था, यह
विवाह की पच्चीसवीं
वर्षगांठ का
दिन था। तो
उसने कहा, ‘मुझे
याद है, बखूबी याद
है।‘ पत्नी ने
फिर पूछा: ‘तो हम
लोग इस दिन को
किस तरह मनाने
जा रहे है?’
नसरूदीन ने
कहा: ‘प्रिये
मुझे नहीं
मालूम।’ और फिर उसने
सिर खुजलाते
हुए हैरानी के
स्वर में
कहा: ‘कितना
अच्छा होगा
कि हम इस
उपलक्ष्य
में दो मिनट
मौन रहें।’
तुम किसी
के साथ मौन
नहीं रह सकते:
तुम बेचैन होने
लगते हो। मौन
में दूसरा
तुम्हें
प्रवेश करने
लगता है। मौन
में तुम खुले
होते हो; तुम्हारे
द्वार दरवाजे
खुल होते है।
तुम्हारी खिड़कियाँ
खुली होती है।
तुम डरते हो।
तो तुम बातचीत
करते हो, बंद रहने के
उपाय करते हो।
अहंकार कवच है,
अहंकार
कारागृह है।
और हम इतने
असुरक्षित अनुभव
करते है। कि
हमें कारागृह
भी स्वीकार
है। कारागृह
थोड़ी
सुरक्षा का
भाव देता है;
तुम सुरक्षित
अनुभव करते
हो।
इस विधि का, इस
तीसरी विधि का
प्रयोग करने
के लिए पहली
और सब से
बुनियादी बात
है कि भली
भांति जान लो
कि जीवन एक
असुरक्षा है।
उसे सुरक्षित
बनाने का कोई
उपाय नहीं है।
तुम जो भी
करोगे, उससे कुछ
होने वाला
नहीं है। तुम
सिर्फ सुरक्षा
का भ्रम पैदा
कर सकते हो;
जीवन
असुरक्षित ही
रहता है।
असुरक्षा ही
उसका स्वभाव
है; क्योंकि
मृत्यु
उसमें
अंतर्निहित
है, साथ-साथ
जुड़ी है।
जीवन
सुरक्षित
कैसे हो सकता
है?
एक
क्षण के लिए
सोचो, अगर
जीवन पूरी तरह
सुरक्षित हो
तो वह मृत ही
होगा। सर्वथा
सुरक्षित
जीवन, समग्ररतः:
सुरक्षित
जीवन जीवंत
नहीं हो सकता।
क्योंकि उसमें
चुनौती की
पुलक नहीं
रहेगी। अगर
तुम सभी खतरों
से सुरक्षित
हो जाओगे तो
तुम मुर्दा हो
जाओगे। जीवन
के होने में
ही जोखिम है, खतरा है,
असुरक्षा है, चुनौती है।
उसमें मौत सम्मिलित
है।
मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं। अब मैं
खतरनाक रास्ते
पर कदम रखा
है। अब कुछ भी
सुरक्षित
नहीं हो सकता।
लेकिन अब मैं
कल के लिए सब
कुछ सुरक्षित
करने की चेष्टा
करूंगा। कल के
लिए मैं उस सब
की हत्या
करूंगा जो
जीवित है। क्योंकि
तभी में कल के
लिए सुरक्षित
अनुभव करूंगा।
तो प्रेम
विवाह में बदल
जाता है।
विवाह
सुरक्षा है।
प्रेम
असुरक्षित है—अगले
क्षण सब कुछ
बदल सकता है।
और तुमने
कितनी-कितनी
आशाएं बांधी
है। और अगले
क्षण प्रेमिका
तुम्हें
छोड़कर चली जा
सकती है। या
मित्र तुम्हें
छोड़ कर जा
सकता है। तुम
अपने को अचानक
अकेला पाते
हो। प्रेम
असुरक्षित
है। तुम भविष्य
के संबंध में
आश्वस्त
नहीं हो सकते;
कोई भविष्यवाणी
नहीं हो सकती
है।
तो
हम प्रेम की
हत्या कर
देते है। और
उसकी जगह एक
सुरक्षित
परिपूरक खोज
लेते है। उसका
नाम विवाह है।
विवाह के साथ
तुम सुरक्षित
हो सकते हो,
उसकी भविष्यवाणी
की जा सकती
है। तुम्हारी
पत्नी कल भी
तुम्हारी
पत्नी
रहेगी। तुम्हारा
पति भविष्य
में भी तुम्हारा
पति रहेगा।
लेकिन क्योंकि
तुमने सब
सुरक्षा कर ली, अब कोई खतरा
नहीं है।
प्रेम मर गया।
वह नाजुक संबंध
मर गया। क्योंकि
मृत चीजें ही
स्थाई हो
सकती है।
जीवित चीजें बदलेगी
ही, वे
बदलने का बाध्य
है। बदलाहट
जीवन का गुण
है; और बदलाहट
में असुरक्षा
है।
तो
जो भी जीवन की
गहराइयों में
उतना चाहते है
उन्हें
असुरक्षित
रहने के लिए
तैयार रहना
चाहिए; उन्हें
खतरे में जीने
के लिए तैयार
रहना चाहिए।
उन्हें
अज्ञात में
जीने के लिए
तैयार रहना
चाहिए। उन्हें
किसी भी तरह
भविष्य को
बांधने की
सुरक्षित
करने की चेष्टा
नहीं करनी
चाहिए। यह
चेष्टा ही सब
चीजों की हत्या
कर देती है।
और
यह भी स्मरण
रहे, असुरक्षा
जीवंत ही नहीं
है, सुंदर
भी है।
सुरक्षा
कुरूप और गंदी
है। असुरक्षा
जीवंत और
सुंदर है। तुम
तभी सुरक्षित
हो सकते हो, यदि तुम
अपने सभी
द्वार दरवाजे , सभी खिड़कियाँ, सब झरोखे
बंद कर लो। न
हवा को अंदर
आने दो और न रोशनी
को, कुछ भी
अंदर मत आने
दो। तब किसी
तरह तुम सुरक्षित
हो जाते हो।
लेकिन तब तुम
जीवित नहीं हो, तुम अपनी
कब्र में
प्रवेश कर गए।
यह
विधि तभी संभव
है जब तुम
खुले हुए हो,
ग्रहणशील हो, भयभीत नहीं
हो। क्योंकि
यह विधि पूरे
ब्रह्मांड को
अपने में प्रवेश
देने की विधि
है।
‘’जैसे
विषयीगत रूप
से अक्षर शब्दों
में और शब्द वाक्यों
में जाकर
मिलते है और
विषयगत रूप
में वर्तुल
चक्रों में और
चक्र मूल तत्व
में जाकर
मिलते है,
वैसे ही अंतत:
इन्हें भी
हमारे आस्तित्व
में आकर मिलते
हुए पाओ।‘’
प्रत्येक
चीज मेरे अस्तित्व
में आकर मिल
रही है। मैं
खुले आकाश के
नीचे खड़ा हूं
और सभी दिशाओं
से, सभी कोने-कातर
से सारा आस्तित्व
मुझमें मिलने
चला आ रहा है।
इस हालत में
तुम्हारा
अहंकार नहीं
रह सकता। इस
खुलेपन में
जहां समस्त
अस्तित्व
तुममें मिल
रहा है,
तुम ‘मैं’ की भांति
नहीं रह सकते
हो। तुम खुले
आकाश की भांति
तो रहोगे,
लेकिन एक जगह
केंद्रित ‘मैं’ की भांति
नहीं।
इस
विधि को
छोटे-छोटे
प्रयोगों से
शुरू करो। किसी
वृक्ष के नीचे
बैठ जाओ। हवा
बह रही है। और वृक्ष
के पत्तों से
सरसराहट की
आवाज हो रही
है। हवा तुम्हें
छूती है, तुम्हारे
चारों और
डोलती है।
तुम्हें छू
कर गूजर रही
है, लेकिन
तुम उसे ऐसे
मत गुजरने दो।
उसे अपने भीतर
प्रवेश करने
दो और अपने में
होकर गुजरने
दो। आंखें बंद
कर लो। और
जैसे हवा
वृक्ष से होकर
गुज़रे और पत्तों
में सरसराहट
हो, तुम
भाव करो कि
मैं भी वृक्ष
के समान खुला
हुआ हूं। और
हवा मुझमें से
होकर गुजर रही
है। मेरे
आस-पास से नहीं, ठीक मेरे
भीतर से होकर
वह बह रही है।
वृक्ष की सरसराहट
तुम्हें
अपने भीतर
अनुभव होगी और
तुम्हें
लगेगा कि मेरे
शरीर के
रंध्र-रंध्र
से हवा गुजर
रही है।
और
हवा वस्तुत:
तुमसे होकर
गुजर रही है।
यह कल्पना ही
नहीं है, यह
तथ्य है। तुम
भूल गये हो।
तुम नाक से ही
श्वास नहीं
लेते,तुम्हारा
पूरा शरीर श्वास
लेता है।
एक-एक रंध्र
से श्वास
लेता है।
लाखों
छिद्रों से श्वास
लेता है। अगर
तुम्हारे
शरीर के सभी
छिद्र बंद कर
दिये जाये,उन
पर रंग पोत
दिया जाये और
तुम सिर्फ नाक
से श्वास लेने
दिया जाए तो
तुम तीन घंटे
के अंदर मर
जाओगे। सिर्फ
नाक से श्वास
लेकर तुम
जीवित नहीं रह
सकते। तुम्हारे
शरीर का प्रत्येक
कोष्ठ जीवंत
है और प्रत्येक
कोष्ठ श्वास
लेता है। हवा
सच में तुम्हारे
शरीर से होकर
गुजरती है,
लेकिन उसके
साथ तुम्हारा
संपर्क नहीं
रहा है।
तो
किसी झाड़ के
नीचे बैठो और
अनुभव करो।
आरंभ में यह
कल्पना
मालूम
पड़ेगी।
लेकिन जल्दी
ही कल्पना
यथार्थ बन
जाएगी। वह
यथार्थ ही है
कि हवा तुमसे
होकर गुजर रही
है। और फिर
उगते हुए सूरज
के नीचे बैठो
और अनुभव करो
कि सूरज की
किरणें न केवल
मुझे छू रही
है। बल्कि
मुझमें
प्रवेश कर रही
है। और मुझसे
होकर गुजर रही
है। इस तरह
तुम खुल जाओगे,
ग्रहणशील हो
जाओगे।
और
यह प्रयोग
किसी भी चीज
के साथ किया
जा सकता है।
उदाहरण के लिए,
मैं यहां बोल
रहा हूं,और
तुम सुन रहे
हो। तुम मात्र
कानों से भी
सून सकते हो
और अपने पूरे
शरीर से भी
सून सकते हो। तुम
अभी और यहीं
यह प्रयोग कर
सकते हो।
सिर्फ थोड़ी सी
बदलाहट की बात
है। और अब तुम
मुझे कानों से
ही नहीं सुन
रहे हो,
तुम मुझे अपने
पूरे शरीर से
सून रहे हो।
तुम्हारा
कोई अंश नहीं
सुनता है,
तुम्हारी
ऊर्जा का कोई
एक खंड नहीं
सुनता है;
पूरे के पूरे सुनते
हो। तुम्हारा
समूचा शरीर
सुनने में संलग्न
होता है। और
तब मेरे शब्द
तुमसे होकर
गुजरते है;
अपने प्रत्येक
कोष्ठ से,
प्रत्येक
रंध्र से,
प्रत्येक
छिद्र से तुम
उन्हें पीते
हो। वे सभी और
से तुममें
समाहित होते
है।
तुम
एक और प्रयोग
कर सकते हो:
जाओ और किसी
मंदिर में बैठ
जाओ। अनेक भक्त
आएँगे जाएंगे
ओर मंदिर का
घंटा बार-बार
बजेगा। तुम अपने
पूरे शरीर से
उसे सुनो।
घंटा बज रहा
है और पूरा
मंदिर उसकी ध्वनि
से गूंज रहा
है। मंदिर की
प्रत्येक
दीवार उसे
प्रतिध्वनित
कर रही है।
उसे तुम्हारी
ओर वापित फेंक
रही है।
इस
लिए हमनें
मंदिर को
गोलाकार
बनाया है।
ताकि आवाज हर
तरफ से
प्रतिध्वनित
हो और तुम्हें
अनुभव हो कि
हर तरफ से ध्वनि
तुम्हारी और
आ रही है। सब
तरफ से ध्वनि
लौटा
दी जाती है।
सब तरफ से ध्वनि
तुममें आकर
मिलती है। और
तुम उसे अपने
पूरे शरीर से
सुन सकते हो।
तुम्हारी
प्रत्येक
कोशिका,
प्रत्येक
रंध्र उसे
सुनता है। उसे
पीता है। अपने
में समाहित करता
है। ध्वनि
तुम्हारे
भीतर होकर
गुजरती है।
तुम रंध्र मय
हो गए हो। सब
तरफ द्वार ही
द्वार है। अब
तुम किसी चीज
के लिए बाधा न
रहे हो। अवरोध
न रहे—न हवा के
लिए,न ध्वनि
के लिए—न किरण
के लिए,
किसी के लिए
भी नहीं। अब
तुम किसी भी
चीज का प्रतिरोध
नहीं करते हो।
अब तुम दीवार
न रहे।
और
जैसे ही तुम्हें
अनुभव होता है
कि तुम अब
प्रतिरोध
नहीं करते,संघर्ष
नहीं करते।
वैसे ही अचानक
तुम्हें बोध
होता है कि
अहंकार भी
नहीं है। क्योंकि
अहंकार तो तभी
है जब तुम
संघर्ष करते
हो। अहंकार
प्रतिरोध है।
जब-जब तुम
कहते हो, ‘नहीं’
अहंकार खड़ा
हो जाता है।
जब-जब तुम
कहते हो ‘हां’ अहंकार
विदा हो जाता
है।
मैं
उस व्यक्ति
को आस्तिक
कहता हूं,सच्चा
आस्तिक जिसने
अस्तित्व
को हाँ कहां
है। उसमें कोई
‘नहीं’
नहीं रहा,
कोई प्रतिरोध
नही रहा। उसे
सब स्वीकार
है; वह सब
कुछ को घटित
होने देता है।
अगर मृत्यु
भी आती है तो
वह अपना द्वार
बंद नहीं
करेगा। उसके
द्वार मृत्यु
के लिए भी
खुले रहेंगे।
इस
खुलेपन को
लाना है; तो ही
तुम यह विधि
साध सकते हो।
क्योंकि यह
विधि कहती है
कि सारा अस्तित्व
तुममें बहा आ
रहा है।
तुममें आकर
मिल रहा है।
तुम समस्त
अस्तित्व
के संगम हो, तुम्हारी
तरफ से विरोध
नहीं स्वागत
है; तुम
उसे अपने में
मिलने देते
हो। इस मिलन
में तुम तो
विलीन हो
जाओगे, तुम
तो शुन्य
आकाश हो जाओगे—असीम
आकाश। क्योंकि
यह विराट
ब्रह्मांड
अहंकार जैसी
क्षुद्र चीज
में नहीं उतर
सकता। वह तो
तभी उतर सकता
है जब तुम भी उसके
जैसे ही असीम
हो गए हो। जब
तुम स्वयं
विराट आकाश हो
गए हो। लेकिन
यह होता है। धीरे-धीरे
तुम्हें ज्यादा
से ज्यादा
संवेदनशील
होना है और
तुम्हें
अपने
प्रतिरोधों
के प्रति
बोधपूर्ण
होना है।
हम
बहुत
प्रतिरोध से
भरे है। अगर
मैं अभी तुम्हें
स्पर्श करूं
तो तुम महसूस
करोगे कि तुम
मेरे स्पर्श
का प्रतिरोध
कर रहे हो।
तुम एक बाधा
खड़ी कर रहे
हो। ताकि मेरी
ऊष्मा
तुममें
प्रविष्ट न
हो सके। मेरा
स्पर्श
तुममें
प्रविष्ट न हो
सके। हम एक
दूसरे को छूने
को इजाजत भी
नहीं
देते। अगर
कोई तुम्हें
जरा सा भी छू
देता है तो
तुम सजग हो
जाते हो और
दूसरा कहता
है: ‘क्षमा करें।’
हर
जगह प्रतिरोध
है। अगर मैं
तुम्हें गौर
से देखता हूं
तो तुम
प्रतिरोध
करते हो; क्योंकि
मेरा देखना
तुममें प्रवेश
कर सकता है, तुममें उतर
सकता है,
तुम्हें
उद्वेलित कर
सकता है। तब
तुम क्या
करोगे?
और ऐसा
अजनबी व्यक्ति
के साथ ही नहीं
होता है। वैसे
तो अजनबी व्यक्ति
के साथ अजनबी है।
एक ही छत के नीचे
रहने से अजनबी
नहीं है। या कहें
कि हर कोई अजनबी
है। एक ही छत के
नीचे रहने से अजनबीपन
कैसे मिट सकता
है। क्या तुम
अपने पिता को जानते
हो जिन्होंने
तुम्हें जन्म
दिया है? वह
भी अजनबी है। तो
या तो हर कोई अजनबी
है या कोई भी अजनबी
नहीं है। लेकिन
हम डरे हुए है।
और हम सब जगह अवरोध
निर्मित करते है।
और ये अवरोध हमें
असंवेदनशील बना
देता है। और तब
कुछ भी हममें प्रवेश
नहीं कर सकता है।
लोग
मेरे पास आते
है और वे कहते है:
‘कोई प्रेम नही
करता, कोई
मुझे प्रेम नहीं
करता है।’ और
मैं उस व्यक्ति
को छूता हूं और
महसूस करता हूं
कि वह स्पर्श
से भी डर जाता है।
एक सूक्ष्म खिंचाव
है, मैं उसका
हाथ अपने हाथ में
लेता हूं और वह
अपने को सिकोड़
लेता है। वह अपने
हाथ में मौजूद
ही नहीं है। मेरे
हाथ में उसका मुर्दा
हाथ है। वह तो पीछे
हट चुका है। और
वह कहता है कि ‘कोई मुझे प्रेम
नहीं करता है।’
कोई
तुम्हें प्रेम
कैसे कर सकता
है। और अगर सारा
संसार भी तुम्हें
प्रेम करे तो भी
तुम उसे अनुभव
नहीं करोगे। क्योंकि
तुम बंद हो। प्रेम
तुममें प्रवेश
नहीं कर सकता है।
कोई द्वार-दरवाजा
नहीं है। और तुम
अपने ही कारागृह
में बंद होकर दुःख
पा रहे हो।
अगर
अहंकार है तो
तुम बंद हो—प्रेम
के प्रति, ध्यान
के प्रति, परमात्मा
के प्रति। इसलिए
पहले तो ज्यादा
संवेदनशील,ज्यादा ग्राहक, ज्यादा खुले
होने की चेष्टा
करो; जो तुम्हें
होता है उसे होने
दो। तो ही भगवता
घटित हो सकती है।
क्योंकि वह अंतिम
घटना है। अगर तुम
साधारण चीजों को
ही अपने में प्रवेश
नहीं दे सकते
हो तो परम तत्व
को कैसे प्रवेश
दोगे? क्योंकि
जब तुम्हें परम
घटित होगा तब तो
तुम बिलकुल नही
रहोगे; तुम
बिलकुल खो जाओगे।
कबीर
ने कहा है: ‘जब
मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं
नाहिं।’ खोजने
वाला कबीर अब नहीं
रहा? वह तो रहा
नहीं। कबीर आश्चर्य
से पूछते है: ‘ये कैसा मिलन
है? जब मैं था
तो परमात्मा नहीं
था और अब जब परमात्मा
है तो मैं नहीं
हूं।’
लेकिन
वस्तुत: यही मिलन-मिलन
है। क्योंकि दो
नहीं मिल सकते।
सामान्यत: हम
सोचते है कि मिलन
के लिए दो की जरूरत
है। अगर एक ही है
तो मिलन कैसे होगा।
सामान्य तर्क
कहता है कि मिलन
के लिए दो जरूरी
है। मिलन के लिए
दूसरा जरूरी है।
लेकिन सच्चे मिलन
के लिए, उस मिलन
के लिए जिसे हम
समाधि कहते है, एक ही होना चाहिए।
जब साधक है तो साध्य
नहीं है। और जब
साध्य आता है
तो साधक विलीन
हो जाता है।
ऐसा
क्या होता है?
क्योंकि
अहंकार बाधा है।
जब तुम्हें लगता
है कि मैं हूं तो
तुम इतने मौजूद
होते हो कि तुममें
कुछ भी प्रवेश
नही कर सकता। तुम
अपने से ही इतने
भरे होते हो। जब
तुम नहीं होते
हो तो सब कुछ तुमसे
होकर गुजर सकता
है। तुम इतने विराट
हो गए होते हो कि
परमात्मा भी तुमसे
होकर गुजर सकता
है। अब पूरा अस्तित्व
तुमसे होकर गुजरने
को तैयार है; क्योंकि
तुम तैयार हो।
धर्म
की सारी कला इसमें
है कि कैसे स्वयं
को खोया जाए कैसे
विलीन हुआ जाए।
कैसे समर्पित हुआ
जाए,कैसे शुन्य
आकाश हुआ जाए।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-चार
प्रवचन-53
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