नभ तुन
तो देखा होगा, अनन्त सृष्टियों का संध
हार।
कैसे तू
इतना अडिग
खड़ा है,
थिरता
का मंदिर सा
बनकर।
मेरे
दीपक की
क्षणिक ज्योति,
बुझने
से पहले में
केवल
अहसास चाहता
विलीन
लहर सा
क्या परि
तोषित कर देगा
मुझको
या भर
देगा अपने से मुझको,
फैल सकूंगा
श्रेष्ठि के
कण-कण में
प्रीत
प्यार की सरिता
बन कर........
एक साध छलक़ती, नहीं
थमती।
हर
सांस-सांस पर
आकर कहती।
कैसे
मैं तुझ सा हो जाऊँ
या तुझ
में ही मैं खो जाऊँ।
जब आये
संध्या सी
भोर
क्या
न नाच उठे मन
मौर,
पंख
पसारे तार
मंडल सा
फैल-फैल
कर नहीं फैलता
पुछूगां
में इक दिन उत
आकर
मैं
झूठा,
या तू
चित चोर..........
कितना
आशाएं छलती
लुटती,
बहरे
कानों में
आकर
कहती।
जीवन
क्यों बनने
से पहले
साथ-साथ
ही मिटता
जाता।
कौन
कहेगा तुझ श्रेष्ठता
तू दुर
तट पर खड़ा
देखता।
फिर भी
जीवन अविरल सा
बहता
तू
बेबूझी सा बना
हुआ है
लाखों
परदों के पीछे
से
तू
हंसता है और
झाँकता।
इक दिन
मैं भी मिट कर
तुझ में
पा लूं
गा विस्तार
आप सा......
मनसा
आनंद ‘मानस’
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