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मंगलवार, 17 जुलाई 2018

माई डायमंड डे विद ओशो—मां प्रेम शुन्‍यों (अध्‍याय—04)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 
ऊर्जा दर्शन—(अध्‍याय—04)  

       ओशो 21 मार्च 1953 में बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए। उसी दिन से वे उन लोगों की खोज में है जो उन्‍हें समझ सकें। और बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो सकें। उन्‍होंने उन सैंकड़ों सशस्त्रों की सहायता की है जो आत्‍म-बोध के मार्ग पर है।
      मैंने उन्‍हें कहते सूना है :
      मनुष्‍य की सत्‍य के लिए प्‍यास जन्‍मों-जन्‍मों तक चलती है। कई जन्‍मों के पश्‍चात वह उसे पाने में समर्थ होता है। और जो इसकी खोज करते है सोचते है कि इसकी प्राप्‍ति के बाद वे शान्ति का अनुभव करेंगे। लेकिन जो इसे पाने में सफल हो जाते है, पाते है उन्‍हें पता चलता है कि उनकी सफलता एक नई प्रसव-पीड़ा की शुरूआत है, बिना किसी पीड़ा-मुक्‍ति के। सत्‍य जब एक बार मिल जाता है, एक नई प्रसव-पीड़ा को जन्‍म देती है।
      वे फूल की बात करते है जिसे अपनी सुगन्‍ध बिखेरनी ही है—वे नीर भरे बादल की बात करते है जिसे बरसना ही है।

      न निरंतर बीस वर्षों तक भारत में घूमते रहे। बदले में उन्‍हें मिले पत्‍थर, जूते और चाकू जो उन पर फेंके गए। भारतीय रेलगाड़ियों में यात्रा करने के फलस्‍वरूप उनका स्‍वास्‍थ्य  बिगड़ गया। क्‍योंकि वे बहुत ही अस्‍वच्‍छ तथा रोगकारक थी। कुछ रेल यात्राएं जो अड़तालीस घंटे लम्‍बी होती। इन तीस वर्षों का एक तिहाई भाग उन्‍होंने रेल गाड़ियों में ही बिताया। वे भारत के प्रत्‍येक नगर व प्रत्‍येक गांव में गए, लोगों से बात की, और बाद में ध्‍यान शिविरों का आयोजन किया। इन शिवरों में उन्‍होंने स्‍वयं ध्‍यान करवाया और जो कुछ वे कह रहे थे उसकी अनुभव करने के लिए लोगों को प्रयास करने की प्ररेणा दी।
      उन्‍होंने आधुनिक मनुष्‍य के लिए नई ध्‍यान-विधियों की संरचना की। उनका कहना है कि आधुनिक मनुष्‍य जिसका मन अति व्‍यस्‍त है उसके लिए शांति बैठना संभव नहीं है। इन ध्‍यान-विधियों में शांत होकर बैठने से पूर्व एक चरण विरेचन का ऐसा होता है। जिसमें अपने दमित मनोभावों को बाहर फेंकना होता है। और एक चरण जिबरिश का होता है जिसमे मन को अपने पागलपन को बहार उलिचना है। ओशो लोगों को अपने पागलपन को निकालने में पूरी सहायता करते। लोग रोते,चिल्‍लाते, उछलते-कूदते उन्‍मत हो जाते और वे वहां उनके साथ होते धूप और धूल में।
      1978-79 पूना आश्रम में ऊर्जा दर्शन प्रारम्‍भ हुआ। वह एक अवसर था उनके सभी शिष्‍यों के लिए उस जगत का स्‍वाद पाने का जिसे में दूसरा जादू का जगत कह सकती हूं। दर्शन का आयोजन गोलाकार च्वांगत्सु सभागार में होता और प्रत्‍येक रात्रि लगभग दो सौ व्‍यक्‍ति वहां उपस्‍थित होते। एक किनारे पर ओशो अपनी कुर्सी में बैठते और दाएं हाथ बारह मीडियम (माध्‍यम) बैठती।
      जैसे ही एक व्‍यक्‍ति को दर्शन के लिए अलग से आगे बुलाया जाता। ओशो उसके अनुसार माध्‍यमों को उसके आस-पास व्‍यवस्‍थित कर देते। एक बार ओशो ने अपने माध्‍यमों को सेतु कहा था। हम लोग उन व्‍यक्‍ति के पीछे घुटनों के बल बैठ जाती जिसने दर्शन के लिए अनुरोध किया होता। एक माध्‍यम सामने बैठ जाती और उस व्‍यक्‍ति के हाथों को अपने हाथों में ले लेती और प्रात: कोई उसे पीछे से सहारा देता ताकि वह पीछे न गिर जाए।
      माध्‍यमों को थोड़ा इधर-उधर करने के बाद सब कुछ स्‍थिर और शांत हो जाता है। तब ओशो की आवाज़ सुनाई पड़ती है।
      सभी अपनी आंखें बंद कर लें और पूर्ण रूप से इसमें डूब जाएं।
      संगीत शुरू होता—उन्‍माद भरा संगीत—और सभागार में उपस्‍थित प्रत्‍येक साधक झूमने लगता और भीतर उठने वाले मनोवेगों को शरीर के माध्‍यम से प्रकट होने देता। दर्शन के लिए आए किसी भी संकल्प वान अतिथि का उस लहर के बहाव से बच पाना मुश्‍किल होता।
      ओशो एक हाथ से माध्‍यम के माथे पर उसके ऊर्जा चक्र को स्‍पर्श करते (जिसे तीसरी आँख कहा जाता है) और दूसरे हाथ से उस व्‍यक्‍ति की तीसरी आँख को स्‍पर्श करते जो दर्शन के लिए सामने बैठा होता। ऊर्जा का सम्‍प्रेषण होता। बाहर से देखने वाले व्‍यक्‍ति को यूं लगता मानों लोगों को हाई बोल्‍ट की बिजली से जोड़ दिया गया है। वहां कुछ बलिष्‍ठ पुरूषों की टोली बैठी रहती जो उन लोगों को वहां से ले जाने में सहायता करती जिनके लिए उठकर जाना मुश्‍किल हो जाता, ऐसा प्रात: होता।
      दर्शन के इस भाग के दौरान पूरे आश्रम की बित्तियों को बुझा दिया जाता। ताकि वे लोग भी जिनके लिए सभागार में बैठने का स्‍थान न होता वे अपने कमरों में द्वार के बाहर, उद्यान में या कहीं भी—बैठ जाएं और आश्रम का पूरा छह एकड़ क्षेत्र ओशो से विकिरणित होनेवाली ऊर्जा से जुडकर एक हो जाए।
      जैसे ही संगीत ऊँचाइयों को छूता बत्‍तियां जला दी जाती। तन नाचते-झूमते, वातावरण हर्षध्‍वनियों से पूरित हो जाता और कुछ लोग शांत हो जाते।
      ओशो ने सबको बताया कि वे किसी प्रकार हमारी ऊर्जा पर काम कर रहे थे।    
      मीडियम बनने का अर्थ है, ऊर्जा को एक से दूसरे तक पहुंचाना....ऊर्जा का स्‍थानान्‍तरण। ऊर्जा के स्‍थानान्‍तरण का एक सम्‍भव उपाय है, मैं कहता हूं मात्र एक सम्‍भव उपाय है तुम्‍हारी काम-ऊर्जा द्वारा स्‍थानान्‍तरण। तुम्‍हारी काम—ऊर्जा अभी तुम्‍हारे दाहिने गोलाई का हिस्‍सा है। नहीं तो सब कुछ बाएं के आधीन हो गया होता।
      इसलिए जब तुम मेरी ऊर्जा को आत्‍मसात कर रहे हो तब नितांत कामुक अनुभव करो...विषयासक्‍त, प्रारम्‍भ में वह बहुत कामुक, सेक्सुअल प्रतीत होगा। तब प्रगाढ़ता का एक ऐसा बिंदु आता है जब यह रूपान्‍तरित होने लगती है। और जब यह कुछ और रूप लेने लगती है जिसे तुमने पहले कभी अनुभव नहीं किया, कुछ ऐसा जिसे आध्‍यात्‍मिक कहा जात सकता है। लेकिन बाद में, और केवल तभी तुम इसमे पूरी तरह डूब जाते हो। यदि तुम इसका निषेध करते हो, वर्जनाएँ आड़े आती है और तुम स्‍वयं को रो लेते हो, तो यह कामुक बनकर रह जाती है, और कभी आध्‍यात्‍मिक नहीं बन पाती।
      सभी वर्जनाएँ, सभी निषेध हटाने होंगे। केवल तभी प्रगाढ़ता के एक निश्‍चित बिंदु पर रूपान्‍तरण घटित होता है। अचानक तुम बाएं गोलार्ध से दाएं गोलार्ध पर फेंक दिए जाते हो—और दायां गोलार्ध रहस्‍यदशियों, आध्‍यात्‍मिकों का है।
      यह पहली बात है जो तुम्‍हें स्‍मरण रखनी है। स्‍मरण रखने योग्‍य दूसरी बात है; जब तुम प्रसन्‍न होते हो तो तुम्‍हारी ऊर्जा दूसरे में बह जाती है। जब तुम दुःखी होते हो तो तुम दूसरी की ऊर्जा चूसने लगते हो। अत: जब माध्‍यम का काम कर रहे हो तब जितना सम्‍भव हो सके उतना आह्लादित रहो,आनन्‍दित रहो। केवल तभी वह तुमसे उमड़ पड़ेगी। आनंद संक्रामक है। इसलिए तुम्‍हें कर्तव्‍य वश माध्‍यम नहीं बनना इसे आनंदपूर्ण महोत्‍सव बनाना है।
      यह केवल किसी एक आमन्‍त्रित व्‍यक्‍ति की सहायता हेतु कोई छोटा-सा प्रयोग नहीं है। यह पूरे कम्‍यून के ऊर्जा क्षेत्र का रूपान्‍तरित करने के लिए है।
      उन हाई वोल्‍टेज वाले हाथों से ऊर्जा ग्रहण करना एक अनूठा, आलोकिक अनुभव था। ह्रदय केंद्र से तीव्र गति से निकलने वाली ऊर्जा के प्रति सजग होना स्‍वाभाविक लगता, कई बार तो यह बड़ा मनोरंजक लगता।
      एक दिन मैं रिक्‍शा में शहर की और जा रही थी; जब वह ‘’सुपरमैन’’ किरण सहसा प्रकट हुई और गली से गुजर रहे एक व्‍यक्‍ति से जा टकराई। वह कोई संन्‍यासी भी नहीं था बस एक भारतीय था। जो अपना कमा करने में मग्‍न था। मेरा रिक्‍शा तेजी से उसके पास से गुजर गया। और इसके पहले की मैं उसका चेहरा तक देख पाती सारी घटना घट चुकी थी। मैंने कभी प्रश्‍न नहीं उठाया कि यह क्‍या हो रहा है। क्‍योंकि एक प्रकार से यह मुझे अत्‍यंत स्‍वाभाविक लगा। यह कुछ ऐसा था जो हो रहा था और मैं कुछ कर नहीं रही थी।
      वर्षों बाद ओशो ने मुझे कुछ कहा जिसने इस बात की पुष्‍टि की कि यह मेरी कल्‍पना नहीं है। यह अमेरिका में रजनीश पुरम की बात है, वहां संन्‍यास-दीक्षा हमारे ध्‍यान-कक्ष में किसी ग्रुप लीडर द्वारा दी जाती थी। ओशो ने कहा कि संन्‍यास उत्‍सव में ऊर्जा मंद है और वे इसे और तीव्र बनने के लिए कुछ माध्‍यमों का चुनाव करना चाहते है। उनहोंने कहा कि माध्‍यम के पक्ष स्‍थल में एक प्रकाश किरण करना चाहते थे। उन्‍होंने कहा कि माध्‍यम के पक्ष स्‍थल से एक प्रकाश किरण निकलती है। ऐसा कहते हुए उन्‍होंने मेरी और देखा और मैंने सिर हिला दिया यह कहने के लिए कि हां, मुझे मालूम है। लेकिन इससे अधिक बात नहीं हुई।
      मेरा शरीर एक वाहन की भांति हो गया था। मुझे कुछ मालूम नहीं था कि अगली अपेक्षा किस बात की करूं, अज्ञात भाषा में एक गीत की, समीप के किसी पेड़ पर उड़ाने की, ऊपर आकाश की और खींचे चेले जाने की। अनुभूति की: में वहां बैठी थी बस ऊर्जा के सब रंगों और नृत्‍यों के प्रति सजग।
      फैलने की प्रतीति—लगता कि मेरे शरीर ने दर्शन क्षेत्र को ही नहीं अपितु सारे आश्रम को भर दिया है।
      यह लगभग हर रोज का अनुभव हो गया था। कई वर्षों बाद एक प्रश्‍न का उत्‍तर देते हुए ओशो ने स्‍पष्‍ट किया कि एक तांत्रिक ध्‍यान-विधि है, जिसमे अनुभव करना होता है कि आप फैलते जा रहे हो। जब तक आप पूरे आकाश को न भर दें। उन्‍होंने बताया कि बहुत सी ध्‍यान विधियां बच्‍चों को स्‍वाभाविक रूप से ही घट जाती है। और  उसका कारण यह है कि पूर्व जन्‍म में उस विधि का प्रयोग किया गया होता है। और उसकी स्‍मृति अचेतन में संग्रहीत होती है।
      बचपन में बिस्‍तर लेटे प्रात: मुझे यह अनुभव होता: मेरा सिर तब तक फैलता जाता जब तक कि यह पूरे कमरे में व्‍याप्‍त न हो जाता। कभी-कभी यह इतना हो जाता कि मुझे लगता कि मैं घर के बाहर आकाश में हूं। मुझे यह एक सामान्‍य सी बात लगती थी। लेकिन यह जानकर आश्‍चर्य हुआ कि ऐसा सबके साथ नहीं घटता। दर्शन के दौरान यह अनुभव मेरे लिए आनंददायी हो गया।
      मेरे माता-पिता ने मुझे एक चैक भेजा, इसलिए एक सुबह मैं प्रवचन के बाद सीधा बैंक गई। वहां बेंच पर बैठे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थी। मेरा सिर फैलना शुरू हो गया और तब तक फैलता रहा जब तक मैं पूरे बैंक में व्‍याप्‍त नहीं हो गई। एक भारतीय बैंक में भारतीय सड़क की भांति भीड़ तथा अराजकता होती है। लेकिन मैं वहां शांत बैठी रही।
      मैं एक बहुत अच्‍छा अनुभव कर रही थी, लेकिन अपने स्‍थान से हिल नहीं पा रही थी। एक महिला—जिसे लगा कि मुझे कुछ हो गया है। मेरे पास आई मेरा हाथ पकड़कर मुझे अगले काउंटर पर लेकि गई, फिर मेरे लिए कतार में खड़ी हुई और मेरे पैसे मुझे लाकर दिए। अस्‍तित्‍व ने मुझे संभाल लिया।
      अनुभव गुह्म हो या न हो परंतु पैसे खर्चने के लिए होते है। मैं शीध्र खरीदारी के लिए बाजार जाना चाहती थी। मैं रिक्‍शा में बैठी ओर लक्ष्‍मी रोड़ चली गई। यह नगर का बहुत ही व्‍यस्‍त और भीड़ भरा शॉपिंग क्षेत्र है। लेकिन आश्‍चर्य की बात थी जैसे ही मैं बाजार में पहुंची दुकानदार अपनी दुकानें बंद कर रहे थे। शटर नीचे गिरा रहे थे। फुटपाथ पर सामान बेचने वाले लोग अपना सामान जल्‍दी-जल्‍दी समेटकर वहां से भाग रहे थे। कारें, रिक्‍शा, बैलगाड़ियों सब सड़क से गायब थी। यह एक काऊबॉय फिल्‍म का दृश्‍य लग रहा था। गुंडों के शहर में घुसने के पहले का दृश्‍य। मैं इस समय पूरे जगत में तो व्‍याप्‍त नहीं थी परंतु मैं अपने में इतनी डूबी हुई थी और इतनी प्रसन्‍न थी कि किसी तरह के खतरे को महसूस ही नहीं कर पाई; यद्यपि अब उस सड़क पर मैं ही अकेली रह गई थी।
      मैं खाली सड़क पर चल रही थी। मैने पीछे घूम कर देखा कि सड़क को भरते हुए सैंकड़ो लोग चिल्‍लाते शोर मचाते हुए पीछे से आ रहे है। दंगा हो गया था। उपद्रवियों का समूह मेरी और आ रहा था।
      अकस्‍मात एक रिक्‍शा तेज़ी से आया और मेरे पास रुका। भीतर आ जाओ चालक ने कहां। और पिछली सीट पर लेट जाओ। ताकि तुम्‍हें देख न सके। बिना पूछे ही वह रिक्‍शा चालक मुझे सीधा आश्रम में ले आया।
      आश्‍चर्यजनक बात तो यह है कि सब कुछ मुझे इतना वास्‍तविक, इतना सामान्‍य और स्‍वाभाविक प्रतीत हुआ जैसे कोई छोटी-मोटी दैनिक क्रिया हो। इसलिए इस घटना ने मुझे भयभीत नहीं किया। मैंने न तो कभी किसी से इसका चर्चा की और न इसका स्‍पष्‍टीकरण करने की कोशिश की।
      उस समय मेरा जीवन कैसा था केवल इसकी जानकारी देने के लिए आपको यह सब बता रही हूं। ओशो ने स्‍पष्‍ट रूप से कहा है कि इन रहस्‍यात्‍मक अनुभवों का आध्‍यात्‍मिक दृष्‍टि से कोई मुल्‍य नही है। इनसे आन्‍तरिक विकास में काई सहायता नहीं मिलती। केवल सजगता और ध्‍यान ही सहायक सिद्ध होत है।
      उन दिनों मैं बहुत सुरक्षित अनुभव कर रही थी। लगता था कि मेरा ध्‍यान रखा जा रहा है। ओशो की और से विवेक प्रात: मेरे पास आती और पूछती कि मुझे कैसा लग रहा है। मेरे साथ क्‍या घट रहा है। इसमे मुझे एक क्षण रुककर अपने बारे में जानने का अवसर मिलता। मतलब यह कि मैं सचेत हो जाती कि मेरी ऊर्जा किस और गति कर रही है। यह सजग हो अपने भीतर देखना ऐसे होता—जैसे चलचित्र में कोई स्‍थिर-दृश्‍य—हो और जो बाद में उसे समझने में मेरी सहायता करता।
      जैसे ही व्‍यक्‍ति विशेष का दर्शन समाप्‍त होता तो ओशो धीमे और कोमल स्‍वर में हमें कहते, अब धीरे-धीरे वापस आ जाओ।
      यह बड़ी विचित्र बात थी कि प्रत्‍येक का अनुभव भिन्‍न होता। बंद आंखों से भी मुझे पता चल जाता कि कौन सी माध्‍यम मेरे निकट थी। कभी किसी पुरूष की ऊर्जा स्‍त्री की भांति कोमल प्रतीत होती और वृद्ध  की शिशु वत। यह हलका क्रीड़ा वत नृत्‍य था।
      कभी-कभी ऐसा भी होता कि मन अपनी पुरानी आदत के अनुसार कोई समस्‍या खोज निकालने की कोशिश करता, जैसे कि ओशो ने उसे माध्‍यम क्‍यों चुना, मुझे क्‍यों नहीं। एक बार जब उसे क्‍यों। मेरे मन में धूम ही रहा था कि वे रुके और मेरी और देखा सीधा मेरी आंखों में और मैंने उसे देख लिया, विचार वही जम गया और अब भी है।
      मुझे लगता है कि ओशो हमें अपनी ऊर्जा इसलिए नहीं दे रहे थे कि जिसे हम जीवन समझते है उसके पार की झलक पा सकें बल्कि वे हमें यह सीखने का महान अवसर दे रहे थे कि हम अपनी वृतियों के स्‍वामी है। किसी वृत्‍ति का दमन किए बिना मैं इसे देखने में समर्थ थी इसे ईर्ष्‍या के पार आनंद एक उत्‍सव के उच्‍च स्‍तर पर ले जा सकती थी। एक अंधकारपूर्ण वृति को प्रकाश में बदलना मेरे लिए सम्‍भव हो गया था। बस सचेत ही अपने मन में उठ रही आवाज को छोड़ अपनी बांहें आकाश की और उठा देती और मुझे लगता कि मुझ पर स्‍वर्णिम वर्षा हो रही है।
      एक बार मुझे ऐसा लगता जैसे कि मैं ध्‍यान करने की कला भूल गई हूं। दिन-ब-दिन मैं प्रसन्नता अनुभव कर रही थी मानो मैं उड़ रही होऊं। लेकिन अचानक एक दिन ऐसा महसूस हुआ कि मैं ध्‍यान नहीं कर पा रही हूं। मैंने उसे खो दिया था। जैसे ही ऊर्जा दर्शन आरम्‍भ हुआ मैने स्‍वयं को उदास और बंद पाया। मेरा उत्‍सव मनाना मुझे झूठा लगा और वह सुख की अनुभूति जो मुझे पहले हुआ करती थी, अब बिल्‍कुल नहीं थी। जब ऐसा कई बार हुआ तो मैं उदास रहने लगी और सोचा कि मैं कभी ध्‍यान नहीं कर पाऊंगी।
      मेरी मन गिद्ध की भांति बहुत धैर्यपूर्वक इस अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था और अपनी पूरी शक्‍ति से मुझ पर झपट पडा।
      निस्‍संदेह यह ध्‍यान एक प्रकार से कल्‍पना ही था।’—एक उंची आवाज बार-बार भीतर गूंज रह थी—यह भले के लिए थी। वास्‍तव में मुझे गुस्‍सा आ रहा था कि मैं अपनी जादुई स्‍थिति पुन: लौटा नहीं  पा रही हूं। ऐसा लग रहा था कि जैसे अब यह सम्‍भव न हो पाएगा। और मेरे साथ धोखा हुआ है। यक मुझसे छीन लिया गया है। मैंने सोचा अवश्‍य कि ओशो वह जादू किसी और को दे रह होंगे। इसलिए निश्‍चित ही मैं उनसे सहायता मांगने वाली नहीं हूं। मैंने मर जाने का निश्‍चय किया। मैंने किसी पहाड़ी पर जाने की योजना बनाई और सोचा मैं जब तक मर न जाऊं,वही बैठी रहूंगी। पूना एक पठार पर बसा है और पहाड़ियों से घिरा है। प्रदूषित आकाश की गुलाबी चमक की पृष्‍ठभूमि में काली-काली इन पहाड़ियों को आप गर्मियों की रात में किसी भी स्‍थान पर देख सकते है।
      काली पहाड़ियों की दिशा में जानेवाली सड़क पर मैंने चलना शुरू किया। लगभग एक घंटा चलने के बाद मैं वहां पहुंची जहां आगे कोई रास्‍ता नहीं था। मैं वापस आश्रम आई और दूसरा रास्‍ता चुना ओर इस बार एक फैक्टरी के द्वार पर पहूंच गई। निराश हो मैं फिर चल पड़ी।
      मैंने जो सड़क चुनी थी वह चट्टानों के ढेर पर जाकर समाप्‍त हो गई। इसके आगे बंजर भूमि थे और दूर से किसी गांव की बत्‍तियां दिखाई दे रही थी। उसके पार थी—पहाड़ियां।
      मुझे याद है ओशो ने कहा कि गुरु शिष्‍य से सब कुछ ले लेता है और इस बात ने मुझे चौंका दिया कि वह आत्‍महत्‍या को भी ले लेता है। इसने मुझे क्रोधित कर दिया।
      अंधेरे में खड़ी कही जाने को नहीं, कुछ करने को नहीं, मैंने सारे कृत्‍य की निरर्थकता देखी और स्‍वयं पर हंसी। मैंने पूरे नाटक को इसके अंत तक खींचा और अब करने के लिए मात्र एक बात रह गई थी कि—घर जाकर सो जाओ।
      दो साल तक हर शाम मैं दर्शन के लिए गई। मैंने बाद में ओशो को कहते सुना: मैं अपनी उँगली से लोगों की तीसरी आँख को छुआ करता था, परंतु एक साधारण कारण से मुझे यह बंद करना पडा मैंने पाया कि यदि व्‍यक्‍ति ध्‍यान कर रहा है, होश पूर्वक है तो उसकी बाहर से तीसरी आँख को प्रज्‍वलित करना ठीक है। तब पहला अनुभव जो बाहर से आता है वह शीध्र ही उसके भीतर का अनुभव हो जाएगा। परंतु आदमी की ऐसी नासमझी है जब मैं तुम्‍हारी आँख को उत्‍तेजित कर सकता हूं, तुम ध्‍यान करना बंद कर देते हो। तुम मेरे से और-और ऊर्जा मांगने लगते हो, क्‍योंकि फिर तुम्‍हें स्‍वयं करने के लिए नहीं रहता।
      मैंने यह भी पाया कि बाहर से अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह व अलग-अलग मात्रा में ऊर्जा की जरूरत होती है। जो कि तय करना बहुत मुश्किल है। कभी-कभी कोई व्‍यक्‍ति कोमा में ही चला जाता है; धक्‍का बहुत ज्‍यादा हो जाता है। कभी-कभी व्‍यक्‍ति इतना मंदगति होता है कि उसे कुछ भी नहीं होता। (दि रिबेल)
      तथागत के साथ मेरा प्रेम सम्‍बन्‍ध ताज़ा और उत्साहवर्द्धक था। और फिर ऋषि फिर मेरी जिन्दगी में आ गया कुछ सप्‍ताह और कुछ समय के लिए मैं प्रसन्‍न ओर इस बात से अत्‍यंत अभिभूत थी कि मैं सौभाग्‍यशाली हूं कि मैं दो लोगों के प्रेम में हूं। एक शाम उस जो पूरब में संध्‍या के नाम से जाना जाता है। वह अंतराल जब दिन रात्रि में बदलता है—मैं छत पर खड़ी नदी किनारे, सूर्यास्‍त के साथ सारस को उड़कर अपने घोंसले में रात्रि के लिए जाते देख रही थी। मैं अचानक उदास हो गई। जो कुछ भी मुझे चाहिए वह मेरे पास है फिर भी लगातार मुझे परेशान करनेवाला भाव बना हुआ था कि नहीं यह पर्याप्‍त नहीं है। इसमे भी अधिक सम्‍भव है।
      एक महीना निकल गया परंतु तथागत और मैं एक दूसरे को जो चाहिए वह देने में असमर्थ थे। मैं नहीं जानती कि जो मुझे चाहिए वह दूसरा व्‍यक्‍ति नहीं दे सकता। जिसके लिए मैं लालायित थी वह मेरी भीतर है, यह स्‍वयं को जानना है—और दूसरा हमेशा छोटा पड़ जाता है। जितना अधिक समय हमने साथ गुजारा मैं उतनी ही अधिक मांग करती और जब भी वह किसी दूसरी स्‍त्री को देखता तो मैं ईर्ष्‍या से भर जाती। मैंने सोचा था कि इस व्‍यक्‍ति के साथ में ईर्ष्‍या के पार चली जाऊंगी, परंतु मैं अपने ढर्रे में अटक गई थी। जो मेरे मन में सतत चलता रहा जिसे स्‍व-पीड़न कहते है।
      मैंने ओशो को लिखा कि कैसे मैने अपनी ईर्ष्‍या से बाहर आने के लिए प्रयास किया और मैं इसके कारण कितनी दुःखी हो गई। मुझे जवाब मिला, ईर्ष्‍या से पार जाने का यह मार्ग नहीं है। उसे छोड़ दो, और अकेली हो जाओ। तो मैने अपने प्रेम-संबंध को समाप्‍त कर दिया और हर रात छत पर ध्‍यान के लिए बैठने लगी। परंतु मैं ध्‍यान न कर पाती। मैं सतोरी की अपेक्षा करती। ख्‍याल आता, मैंने अपने प्रेमी को तो छोड़ दिया, पर अब मेरा पुरस्‍कार कहां है? आनंद कहां है।
      एक सप्‍ताह के बाद, विवेक संदेश लाई कि ओशो ने मेरा चेहरा प्रवचन के समय देखा और मेरे चेहरे की रंगत पूरी तरह से उड़ी हुई थी। इसलिए अच्‍छा होगा अपने प्रेमी के पास वापस चली जाओ। मैं फिर उसके पास चली गई। परंतु अधिक होश पूर्वक। वह क्‍या था जिसके लिए मैं पून: लौटी?
      सौभाग्‍य से उसका वीज़ा खत्‍म हो गया और उसे जाना पडा। मैं हवाई जहाज पकड़ने के लिए उसके साथ मुम्‍बई तक गई, उस अच्‍छी तरह से विदा देनी थी।
      पहली बार था जब मैं ओशो से दूर हुई थी। हम पाँच सितारा होटल ओबराय में ठहरे थे। और उसी दिन जब हम वहां पहुंचे, लिफ्ट में, लिफ्ट चालक ने हमारे कपड़े और माला को देखा और हमारी तरफ मुड़कर बाला, ओह, आज सुबह किसी ने आपके गुरु पर छुरा फेंका। हम आश्रम फ़ोन करने को लपके। यह सच था। ओशो की हत्‍या करने के लिए सुबह के प्रवचन के समय प्रयास किया गया था। अचानक प्रेमी, मुम्‍बई में अवकाश के दिन सब निरर्थक हो गए। मैं यहां मुम्‍बई में क्‍या कर रही थी? सपनों के पीछे दौड़ रही थी।
      एक हिन्दू कट्टरवादी प्रवचन के दौरान खड़ा हो गया और ओशो के ऊपर छुरा फेंका था। उस दिन सुबह बीस पुलिस अधिकारी सभागार में सादे कपड़ों में मौजूद थे। ओशो की हत्‍या की साजिश का पता चल गया था और पुलिस ओशो की सुरक्षा के लिए आ गई थी। यह उनकी कहानी थी, परंतु बाद में यह ठीक उलटा निकला।
      वहां पुलिस के अलावा दो हजार चश्‍मदीद गवाह थे। वह व्‍यक्‍ति पकड़ लिया गया और बाहर ले जाया गया। बाद में उसे मुक्‍त कर दिया गया। न्‍यायाधीश ने कहा कि चूंकि ओशो प्रवचन देते रहे, इस लिए इनकी हत्‍या का प्रयास साबित नहीं हुआ।
      ओशो पर छुरा फेंके जाने पर भी ओशो ने प्रवचन बंद नहीं किया यह उनके शांत चित होने व केंद्रित होने के बारे में बहुत कुछ कहता है। मेंने एक बार दर्शन मैं बहुत पास से उन्‍हें देखा है, जब एक व्‍यक्‍ति संन्‍यास लेने के लिए उनके चरणों में बैठा था अचानक उछल कर और अपने हाथ घुमाते और डराते हुए चिल्‍लाया कि वह जीसस के द्वारा भेजा गया है। ओशो की देह पर एक सिकन भी नहीं उभरी। वह शांत, विश्रांत बैठे रहे। और उस प्रलाप करते हुए पागल से मुस्‍कुरा कर बोले, बहुत बढ़िया।
      मुझे याद है 1980 के दौरान ओशो राजनेताओं के भ्रष्‍टाचार और धूर्तता पर खूब बोले। मैं ठीक विश्‍वास  नहीं कर पाती थी कि यह सत्‍य हो सकता है। मेरे संस्‍कार ऐसे थे कि जो भी देश का शासन करते है वे अच्‍छे लोग होते है। उनसे गलतियां हो सकती है। परंतु बुनियादी रूप से वे अच्‍छे लोग होत है।
      परंतु मुझे स्‍वयं अपने अनुभव से सीखना पडा। नवम्‍बर 1985 से जनवरी 1990 तक मैं चश्‍मदीद गवाह थी कि कैसे एक निर्दोष व्‍यक्‍ति धीमे-धीमे अमेरिका सरकार द्वारा दिए गए जहर से मर रहा है। मुझे स्‍वयं की मनगढ़ंत अपराध के नाम पर हथकड़ियाँ पहनाई गई थी। जंजीर से बांधकर अमेरिकी जेल में डाल दिया गया था।
      ओशो किसी भी प्रतिभावान व्‍यक्‍ति की तरह समय से बहुत साल आगे है। जो भी वे कहते है उसे पचाना कठिन है। यह हमेशा समय लेता है। सदगुरू का धैर्य निश्‍चित ही अनंत होता होगा। कैसा होता होगा उनके लिए यह जानते हुए कि हर दिन जो बाला जा रहा है वह लोग समझ नहीं पा रहे है। उनके चेहरे देखना कि वे दिशा स्‍वप्‍न दर्शी है जो बोला जा रहा है उसका एक प्रतिशत ही वे समझ पा रहे है। और तब भी उन्‍हें जो कहना है कहते चल जाना है1 ओशो तीस साल तक बोलते रहे। वे दिन में पाँच प्रवचन दिया करते थे।
      1980 के अंतिम चरण में ओशो ने नए कम्‍यून के बारे में बोलना प्रारम्‍भ किया। उस समय हम लोग भारत में कच्‍छ जाने वाले थे। उन्‍होंने हमसे कहा कि कम्‍यून में होंगे पाँच सितारा होटल, दो झीलें, शॉपिंग सेंटर, डिस्‍को, बीस हजार लोगों के आवास की व्‍यवस्‍था......हम मन ही मन हंसते। यह बिलकुल असम्‍भव लगता। नए कम्‍यून में’……आकर्षक उक्‍ति हो गई, और टी-शर्ट और टोपियों पर यह उक्‍ति दिखाई देने लगी। यह तो सौभाग्‍य की बात है कि हमे झूठा साबित होना पडा। यह सब सच प्रमाणित हुआ।
      ओशो के साथ प्रारम्‍भ के सालों में (1975-81) अनेक लोग थे। मेरी तरह साठ के दशक के युवा समाज के थे। लम्‍बे बाल, लम्‍बा कुरते, बिना अंडरवीअर पहने, जिनके संस्‍कार टूटने लगे थे। जिनका होश बढ़ रहा था। और जिनमें एक तरह का भोलापन था। हो सकता है हम बहुत ज्‍यादा सांसारिक बहुत स्‍थित नहीं थे। हम नए आध्‍यात्‍मिक संसार के बच्‍चे थे।
      1981 के प्रारम्‍भ में मैं प्रवचन में बैठती और बिना किसी कारण के रोती रहती। मैं अपनी रोनी सूरत लेकिर बैठती, बिना किसी संकोच के और मेरी आंखें और नाक से सतत पानी बहता रहता और मैं बैठी रहती। बिना किसी कारण के मैं एक सप्‍ताह तक रोती रही।
      यह मेरे लिए हमेशा रहस्‍य रहा है कि कैसे अपना एक हिस्‍सा होने वाली घटना के प्रति जागरूक होता है।
      1981 के प्रारम्‍भ में ओशो की कमर में दर्द उठा और उसे ठीक करने के लिए इंग्‍लैंड से विशेषज्ञ उनकी चिकित्‍सा के लिए आया। उनकी कमर ठीक नहीं हुई और वे कई सप्‍ताह तक प्रवचन या सन्ध्या दर्शन नहीं दे सके। यह तीन साल के मौन की शुरूआत थी।
      जब वे फिर से आराम से चलने लगे वे हमारे साथ प्रात: बैठने लगे, उस दौरान संगीतकार संगीत बजाते।
      लोग मुझे कहते कि संगीत बहुत सुंदर था और वह बहुत विशेष समय था। परंतु यह मेरे भीतर खोया हुआ था। मैं भय और डर से भरी थी। कि कुछ भयानक होने वाला है।
      वह हुआ।
      ओशो अमेरिका गए।
मां प्रेम शुन्‍यों
(माई डायमंड डे विद ओशो) हीरा पायो गांठ गठियायो)

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