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बुधवार, 11 जुलाई 2018

धर्म और आनंद-(प्रशनोंत्तर-विविध)-प्रवचन-06

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

छठवांप्रवचन-हर वासना अनंत के लिए है
मैं जिस घर में पैदा हुआ हूं बचपन से मुझे कुछ बातें समझाई गई, सिखाई गई हैं, वे बातें मेरे चित्त में बैठ गई हैं। वे मेरे इतने अबोधपन में सिखाई गई हैं मुझे कि उनके बाबत मेरे मन में कोई विरोध पैदा नहीं हुआ। मैंने उनको सीख लिया। उन्हीं को मैं कहता हूं मेरी श्रद्धा है। यह बिल्कुल संयोग की बात है कि मैं जैन घर था; यह संयोग की बात है कि मैं मुसलमान घर में होता। और यह संयोग की बात है कि मैं नास्तिक घर में हो सकता था; जहां मुझे सिखाया जाता कि कोई ईश्वर नहीं है।
आखिर सोवियत रूस में उन्नीस सौ सत्रह के बाद चालीस वर्षों में उन्होंने पूरे बीस करोड़ लोगों को यह सिखा दिया कि न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है। चालीस वर्ष के सतत प्रचार में बीस करोड़ लोगों के दिमाग में यह बात बिठा दी कि न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है।

आप कहेंगे, बड़ा गलत प्रचार है। मैं आपसे इतना ही कहूंगा कि गलत और सही कुछ भी नहीं; सब प्रचार गलत है। यह गलत प्रचार और वह सही प्रचार नहीं; सब प्रचार गलत है। आप जो आत्मा को मान रहे हैं, वह ज्ञान की वजह से थोड़ी, वह चार-चार साल का प्रचार है, जो आपके दिमाग में है, उसकी वजह से आप मान रहे हैं।
मेरा कहना है, श्रद्धा की वजह से नहीं, ज्ञान की वजह से मानें। और ज्ञान की वजह से मानेंगे तो आप ऐसे, ऐसे सुनिश्चित आधार पर खड़े हो जाएंगे जिसका कोई मुकाबला नहीं। और श्रद्धा की वजह से मानेंगे तो आप बिल्कुल अंधेरे में खड़े हैं, जिसका कोई अर्थ नहीं है।
श्रद्धालु एक बात है और ज्ञान बिल्कुल दूसरी बात है। मैं आपको यह नहीं कहता आप आगम में अश्रद्धा करिए; क्योंकि अश्रद्धा भी विपरीत श्रद्धा है। एक आदमी ईश्वर में श्रद्धा करता है, एक आदमी ईश्वर के न होने में श्रद्धा करता है। ये दोनों श्रद्धाएं हैं। तो मैं न तो यह कहता हूं कि आप आगम में श्रद्धा करिए, न यह कहता हूं अश्रद्धा करिए। आगम से कोई मतलब नहीं। मैं तो आपसे इतना कहता हूं, अपने भीतर तलाश करिए। और जिस दिन आप अपने भीतर सत्य को पाएंगे, उस दिन आपको आगम में सत्य दिख सकता है। और जब तक आप अपने भीतर सत्य को नहीं पाते, तब तक आपको आगम में बिल्कुल सत्य नहीं दिख सकता। तब तक आप आगम को अंधेरे में पकड़े रह सकते हैं। जिस दिन आप अपने भीतर सत्य पाएंगे उस दिन आपको महावीर की वाणी सत्य होगी, उससे पहले सत्य नहीं हो सकती। वह महावीर के लिए सत्य रही होगी, आपके लिए सत्य नहीं हो सकती। आपके लिए सत्य तो उस दिन होगी जिस दिन आप अपने भीतर जाएंगे और कुछ उपलब्ध करेंगे। अगर महावीर की वाणी की सत्ता को जानना है, तो महावीर के वचन जो उपलब्ध हैं उनमें श्रद्धा की जरूरत नहीं है, बल्कि जिस भांति महावीर अपने भीतर प्रविष्ट हुए, उस भांति आपको प्रविष्ट होने की जरूरत है। आप अपने भीतर जब जागेंगे और जानेंगे महावीर की सारी वाणी सत्य हो जाएगी। उस दिन जो श्रद्धा पैदा होगी वह सम्यक है। अभी जिसे आप श्रद्धा कहते हैं वह श्रद्धा नहीं अंधविश्वास है। ज्ञान के बाद जो उपलब्ध होती है वह श्रद्धा है और अज्ञान में जिसे हम पकड़े रहते हैं वह श्रद्धा नहीं है वह अंधविश्वास है।
आगम में श्रद्धा करने को मैं नहीं कहता। एक दिन अपने को जानने से जो श्रद्धा आएगी, वह बिल्कुल दूसरी बात है, वह बिल्कुल ही अलग बात है। ज्ञान का फल है श्रद्धा। ज्ञान के बाद है, उसके पहले नहीं।

यह इसी प्रसंग में एक प्रश्न किन्हीं ने पूछा है: अगर यह सत्य है कि हम सत्य के, परमात्मा के और आत्मा के संबंध में सारे उधार विचारों को छोड़ दें, तो हमें किसी दूसरी तरह की शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए।

यह बात बिल्कुल ठीक है। हम घरों में बच्चों को जो धार्मिक शिक्षा देते हैं, वह धार्मिक शिक्षा नहीं है। हम एक बच्चों को सिखाते हैं, अगर वह जैन धर्म में पैदा हुआ है तो जैन धर्म सिखाते हैं। वह धार्मिक शिक्षा नहीं है। हम उसे जैन धर्म के सिद्धांत तोते की तरह रटा रहे हैं। जो कि सत्य को जानने में सहयोगी नहीं, विपरीत बाधा हो सकते हैं। सत्य के सिद्धांत मत सिखाइए बच्चे को, सत्य को जानने की विधि सिखाइए। उसे यह मत सिखाइए कि आत्मा है या नहीं। उसे यह सिखाइए कि वह कैसे शांत हो जाए, ताकि जान सके कि भीतर क्या है। ये दोनों में बड़ा फर्क है। डाक्ट्रिन नहीं, मेथड।
अभी हम सिखाते हैं, आत्मा है, ऐसा मानो। और न माने बच्चा, तो उसको दबाओ, डांट कर पच्चीस तरह से समझाते हैं कि आत्मा है ऐसा मानो। अगर वह मान ले..अभी मैं एक जगह था, एक अनाथालय में था, तो वहां के बच्चों को वे धार्मिक शिक्षा देते हैं। उन्होंने मुझे कहा: हमने बच्चों को बड़ी अच्छी धार्मिक शिक्षा दी है। तो मैंने पूछा, कैसे मुझे पता चले? तो संयोजक ने उनसे पूछा बच्चों से कि आत्मा कहां है? उन सारे बच्चों ने कहा: यहां। सारे बच्चों ने कहा: यहां। ...इसको देखिए। उन्होंने कहा कि छोटे-छोटे बच्चे भी जानते आत्मा कहां है। एक छोटे बच्चे ने कहा कि यहां है, हृदय में। तो मैंने उससे पूछा, हृदय कहां है? तो वह मेरी तरफ देखने लगा, वह बोला, यह तो मुझे बताया नहीं। उन्होंने कहा कि आत्मा हृदय में है, यह तो बताया, लेकिन हृदय कहां है यह नहीं बताया।
मैंने उन संयोजक को कहा: इन बच्चों को जो आप सिखा रहे हैं, ये जिंदगी भर दोहराते रहेंगे, यह इनकी कंडीशनिंग हो जाएगी, इनके दिमाग में रट जाएगी बात कि आत्मा यानी यहां। जब भी इनको ख्याल उठेगा आत्मा कहां है, इनका हाथ अपने आप यहां चला जाएगा। यांत्रिक रूप से कि यहां। और ये जिंदगी भर इस ख्याल में रहेंगे कि जानते हैं। जब कि इन्हें कुछ भी पता नहीं है।
धार्मिक शिक्षा बिना जाने और जानने का भ्रम पैदा कर देती है। इसको मैं धार्मिक शिक्षा नहीं कहता। मैं धार्मिक शिक्षा कहता हूं, घर में बच्चे को ऐसी स्थिति, ऐसे चैतन्य में प्रवेश की विधि देना, जहां कि वह स्वयं जान सके कि आत्मा जैसी कोई चीज है या नहीं। और बड़े रहस्य की बात है, बच्चे को जानना आपसे बहुत ज्यादा आसान है। वह बड़ी निर्दोष चित्त की स्थिति है, बड़ी सरल स्थिति है। अभी दीवालें उसकी बनी नहीं। अगर उस क्षण उसे जीवन-सत्य के बाबत कोई विधि दी जा सके, तो उम्र पाते-पाते वह एक अलग ही ज्ञान को उपलब्ध हो जाएगा।
हम बच्चे के भ्रष्ट करते हैं, बनाते नहीं। जो शिक्षा हम देते हैं उससे हम दीवालें खड़ी कर रहे हैं। वह जिंदगी भर वही बातें दोहराता चला जाएगा। और फिर हम उसको सिखाते हैं श्रद्धा करो। समाज के भय से, मां-बाप के भय से वह धीरे-धीरे श्रद्धा करने लगता है। आदमी बड़ा कमजोर है। उसकी सारी श्रद्धा भय पर खड़ी हुई है। आपकी सारी श्रद्धा भय पर खड़ी हुई है। आप किसी भय की वजह से माने चले जा रहे हैं। आपको बोध नहीं। और जो भय पर खड़ा है वह ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान तो अभय पर खड़ा होता है। तो सबसे पहला तो हिम्मत और साहस यह करना पड़ता है आदमी को कि उसे जो सिखाया गया है वह अलग कर दे। जो उसकी लर्निंग है वह उसे अलग कर दे, ताकि उसे जान सके जो उसके भीतर है। यह बात दिक्कत देती मालूम होती है। दिक्कत देती इसलिए मालूम होती है कि हम सिवाय सिखाए हुए के हमारे पास कुछ भी नहीं है। अगर मेरी यह बात ठीक हो कि हम सिखावन को अलग कर दें तो हमें अपना अज्ञान इतना घना दिखाई पड़ेगा, उससे घबड़ाहट होगी। आपके पास सिवाय सिखाए हुए के कुछ भी नहीं है। तो अगर मैं आपसे कहूं कि सारे सिखाए हुए को अलग कर दें, तो आप कहेंगे, हम तो बिल्कुल अज्ञानी हो जाएंगे। आप अज्ञानी हैं। और वह सिखाया हुआ आपको भ्रम दे रहा है कि आपको ज्ञान है। इससे घबड़ाहट होती है कि वह भ्रम टूट जाएगा, वह डिसइल्युजनमेंट हो जाएगा कि हम कुछ भी नहीं जानते। वह तोतारटंत आपको प्रिय लग रही है। वह इसलिए प्रिय लग रही है कि उसे यह भ्रम, एक मीठा भ्रम बना रहता है कि हम जानते हैं। और इसी मीठे भ्रम में आप एक दिन समाप्त हो जाते हैं बिना जाने।
सबसे पहली बात यह है जानने की कि कितना है जो मैं जानता हूं और कितना है जो मैंने दूसरों से सीख लिया है जो मैं जानता नहीं हूं। साधक के लिए पहला चरण है यह कि वह स्पष्ट रूप से अपने भीतर देख ले कि मैं कितनी बात जानता हूं और कितनी बात दूसरों ने मुझे सिखाई है। और अगर उसे ऐसा दिखाई पड़े कि मैं कुछ भी नहीं जानता, तो हिम्मत से यह स्वीकार कर ले अपने भीतर कि मैं अज्ञानी हूं। जो यह साहस कर लेगा कि मैं अज्ञानी हूं, उसने पहला कदम ज्ञान की तरफ उठा लिया। उसने पहला कदम ज्ञान की तरफ उठा लिया जिसने यह अनुभव कर लिया कि मैं अज्ञानी हूं, मैं नहीं जानता। जिसे यह समझ में आ जाए कि मैं नहीं जानता, वह एक बहुत बड़े भार से मुक्त हो गया, उसने सब अलग कर दिया जिसे वह नहीं जानता था। वह खाली हो जाएगा। और उस खाली, उस इनोसेंस में, उस निर्दोष चित्त की स्थिति में, जहां वह केवल इतना ही जानता है कि मैं कुछ नहीं जानता, वह सत्य के प्रति उसके द्वार खुलेंगे, उसकी आंख खुलेगी।
अज्ञान का बोध ज्ञान की तरफ पहला चरण है। तो आपका आगम, आपका शास्त्र आपको अज्ञान का बोध नहीं होने देगा।
तो अब मैं देखता हूं, कोई साधु किसी आश्रम में सिखा देता है, एक महीने भर वहां जाकर आप ट्रेनिंग ले आते हैं। वह सब समझा देता है क्या सत्य है, क्या असत्य है; क्या आत्मा है, क्या द्रव है; कितने रूप हैं; मोक्ष कहां है, कितनी दूर है, वह सब आपको समझा देता है। आप सब रट कर बिल्कुल परीक्षा देकर चले आते हैं। और आप बड़े अहंकार से भरे लौटते हैं कि सब जान कर चले आ रहे हैं। आप बड़े अहंकार से भरे लौटते हैं कि मैं जान कर चला आ रहा हूं। ये जान कर नहीं चले आ रहे हैं आप, आप बेहोश होकर चले आ रहे हैं। कोई महीने, दो महीने में, कोई पंद्रह दिन में कोई ग्रंथ को रट लेने से कोई ज्ञान होता है? और फिर आप दुनिया में दूसरों को भी बताते हुए पाए जाएंगे कि यह ऐसा है और यह ऐसा है। उस जो आपको इस तरह की शिक्षा दे देता हो, उसने आपके साथ बहुत नुकसान किया। उसने आपके साथ बहुत भारी नुकसान किया। उसने आपकी हत्या की। उसने आपके साथ हिंसा की।
सदगुरु वह है जिसके करीब जाकर आपको पता चले कि आप बिल्कुल कुछ नहीं जानते। उस अज्ञान के बोध में आपका अहंकार खंडित हो जाएगा, आप निर-अहंकार हो जाएंगे। अज्ञान का बोध निर-अहंकार करता है और ज्ञान का बोध अहंकार को भरता है। मैं जानता हूं, यह भाव तो अहंकार ला देता है। मैं नहीं जानता, यह भाव निर-अहंकार ला देता है। और निर-अहंकारिता चरण है, प्राथमिक भूमिका है, जिसमें ज्ञान का उदय हो सकता है। मैं आपको कहूं, मैं नहीं कहता आप किसी शास्त्र पर, किसी आगम पर, किसी ग्रंथ पर, किसी वेद पर, और महावीर और उन जैसे लोगों की क्रांति ही शास्त्र से है। वे शास्त्र से ही आपको मुक्त करना चाहते हैं। लेकिन हम ऐसे पागल लोग हैं, वे हमको वेद से मुक्त करें, तो हम उन्हीं की वाणी को वेद बना लेते हैं। यह तो सारा बहुत मुश्किल हो गया। वे हमको भगवान से मुक्त करें, तो हम उनकी मूर्ति को भगवान बना लेते हैं। वे हमको चाहते हैं, दूसरे से मुक्त होकर आप अपनी तरफ चले जाएं। महावीर ने कहा है: जो अशरण हो जाएगा, जो किसी की शरण नहीं है, वह आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाएगा। हम महावीर की शरण गए हुए हैं, हम कहते हैं, हम तुम्हारी शरण आए। हम रोज भजन करते, हम तुम्हारी शरण आए, तुम हमको पार लगा दो।
महावीर कहते हैं: अशरण हो जाओ। न शास्त्र शरण हैं, न तीर्थंकर शरण हैं, न अवतार शरण हैं। इस जगत में कोई शरण नहीं है। एक ही शरण है, और वह प्रत्येक व्यक्ति स्वयं है। वह ठीक अपने को पकड़ ले, वहां खड़ा हो जाए, तो उसे शरण मिल गई। और वह सारी जमीन पर खोजता रहे, दूसरों के चरणों को पकड़ता रहे, उसे शरण नहीं मिलेगी। वह भ्रम में है।
तो मैं आपको किसी पर श्रद्धा करने को नहीं कहता, इसलिए नहीं कहता हूं ताकि आप अपने पर श्रद्धा कर सकें। दूसरे पर श्रद्धा अपने पर अश्रद्धा के कारण है। आप सोचते होंगे हम महावीर पर श्रद्धा करते हैं, कृष्ण पर श्रद्धा करते हैं, तो हम बड़ा अच्छा काम कर रहे हैं। आप उन पर श्रद्धा इसलिए करते हैं कि आपको अपने पर कोई श्रद्धा नहीं है। अपने पर जो अश्रद्धा है, वही आपकी दूसरे पर श्रद्धा बनी हुई है। उसी को छिपाने के लिए आप दूसरे पर श्रद्धा किए चले जा रहे। और जिसकी अपने पर श्रद्धा नहीं है उसकी क्या महावीर पर श्रद्धा होगी? इसको समझ सकते हैं आप? जिसकी अपने पर श्रद्धा नहीं है उसकी क्या महावीर पर श्रद्धा होगी? वह धोखा दे रहा अपने को और शायद यह भी सोचता हो कि महावीर को भी धोखा दे लेगा। वह अपने को धोखा दे रहा है, शायद मंदिर में जाकर सोचता होगा कि भगवान को भी धोखा दे लेगा।
एक ही श्रद्धा है वह स्वयं की श्रद्धा है। और उस श्रद्धा से सारी बात बदल जाती है और आपमें एक अदभुत ज्ञान का जन्म होता है। उस ज्ञान में आप महावीर पर, बुद्ध पर, क्राइस्ट पर, सब पर श्रद्धा कर सकेंगे। इसलिए कर सकेंगे कि जो आप जान रहे हैं वह आपको दिखेगा कि उन्होंने जाना है। वह आपको दिखेगा कि उन्होंने जाना है। इसमें एक बात और आपको स्मरण दिला दूं, अभी जो आप श्रद्धा करते हैं, कोई महावीर पर करेगा, कोई क्राइस्ट पर करेगा। जो क्राइस्ट पर करेगा वह महावीर पर नहीं कर सकेगा, जो महावीर पर करेगा वह मोहम्मद पर नहीं कर सकेगा। और जिस ज्ञान की बात मैं कह रहा हूं, उस वक्त श्रद्धा अखंडित होगी, जिन्होंने भी जाना है सबके प्रति होगी। क्योंकि आप उन सबकी वाणी में उस ज्ञान को उपलब्ध कर लेंगे और समझ लेंगे, वह आपकी अनुभूति होगी। उनके शब्द आपको रोक नहीं सकेंगे। उनके शब्द भिन्न हो सकते हैं।
महावीर ने कहा है: आत्मा को जानना ज्ञान है। बुद्ध ने कहा है: आत्मा को मानना अज्ञान है। ये बिल्कुल विपरीत शब्द हैं। अब इनमें आप दोनों में कैसे श्रद्धा कर सकते हैं। महावीर कहते हैं, आत्मा को जानना ज्ञान है, परम ज्ञान वही है। और बुद्ध कहते हैं, आत्मा को मानना अज्ञान है, उससे ज्यादा अज्ञान की कोई बात ही नहीं। ये तो बिल्कुल विपरीत बातें हैं। इनमें से एक पर आप श्रद्धा कर सकते हैं, एक पर आप अश्रद्धा करेंगे अनिवार्यरूपेण। और मेरा कहना है, अगर आप जान लें आपके भीतर कौन है, आपकी इन दोनों पर समान श्रद्धा होगी, क्योंकि इन दोनों में दो बातें नहीं कही गई हैं। इनमें दो तरह के शब्द उपयोग हुए हैं, बात एक ही कही गई है।
महावीर कहते हैं, जिसका अहंकार विलीन हो जाएगा, जिसका यह विलीन हो जाएगा मैं-भाववह आत्मा को उपलब्ध होगा। और बुद्ध कहते हैं, वे अहंकार के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग करते हैं, वे कहते हैं, आत्मा यानी मैं। तो जिसको यह विलीन हो जाएगा कि मैं आत्मा हूं, उसे सत्य के दर्शन होंगे। महावीर कहते हैं, जिसे यह विलीन हो जाएगा मैं-भावउसे आत्मा के दर्शन होंगे। बुद्ध कहते हैं, जिसे आत्म-भावविलीन हो जाएगा कि मैं हूंउसे सत्य के दर्शन होंगे। इनमें कहां भेद है? लेकिन शब्दों में भेद है। और हम शब्दों के पूजक हैं। इसलिए सारी दुनिया में धर्म खंडित दिखाई पड़ रहे हैं।
परपर श्रद्धा, दूसरे पर श्रद्धा आपको तोड़े हुए है। स्वयं पर श्रद्धा आपको सत्य से जोड़ेगी, और सत्य की श्रद्धा खंडित नहीं कर सकती है। सत्य की श्रद्धा अखंड है।
तो मेरा जो कहना है वह इसलिए नहीं कि आपको आगम से मुक्त करना चाहता हूं, कि आगम मुझे मूल्यवान नहीं मालूम होते, मैं आपको आगम से इसलिए मुक्त करना चाहता हूं कि परमात्मा करे आप मुक्त हो जाएं तो किसी दिन आपको आगम मूल्यवान मालूम होंगे। मैं आपको महावीर के चरण इसलिए छुड़ा देना चाहता हूं आपके हाथ से, इसलिए नहीं कि वे चरण मूल्यवान नहीं हैं, बल्कि इसलिए कि अगर आप उनको छोड़ने का साहस किए तो एक दिन आपको उन चरणों का मूल्य पता चलेगा। तो उसी दिन पता चल सकता है जिस दिन अपने भीतर प्रविष्ट होंगे और खड़े होंगे, उस दिन आपको एक अपूर्व रूप से करुणा मालूम होगी इन सारे लोगों में जिन्हें सत्य का बोध हुआ है, और उनके प्रति एक अनुग्रह मालूम होगा।
अभी अनुग्रह नहीं है, अभी एक लालच है और लोभ है। तब एक अनुग्रह होगा, एक अनुकंपा का बोध होगा, और वह आपकी श्रद्धा होगी।
तो मैं आपको एक शब्द में अंतः यह कहूं, मैं आपको श्रद्धा से इसलिए मुक्त करना चाहता हूं ताकि आप वस्तुतः श्रद्धा को उपलब्ध हो सकें। आप जिसे श्रद्धा जानते हैं वह श्रद्धा नहीं है। और इसलिए कहता हूं कि वह न हो जाए, तो आपमें वास्तविक श्रद्धा का जन्म हो सकता है। आपके तथाकथित ज्ञान से आपको मुक्त करना चाहता हूं ताकि वस्तुतः आपमें ज्ञान का जन्म हो सके।
यह मेरी कल्पना में अगर वास्तविक रूप से हम शिक्षा धर्म की देना चाहते हैं, तो हमें धर्म के सिद्धांत नहीं सिखाने चाहिए, अपनी पद्धतियां सिखानी चाहिए। शांत होने की, शून्य होने की, अपने भीतर प्रविष्ट होने की बच्चे को पद्धति देनी चाहिए, वह हमको ही पता नहीं है, हम उसे क्या देंगे। हमको यह पता है कि कितने तत्व होते हैं और कितने पदार्थ होते हैं, यह हम उसे सिखा देते हैं।
एक उधार ज्ञान हमारे पास है, हम उससे जीवन भर पीड़ित रहे हैं, हम बच्चे को भी उससे मुक्त नहीं रहने देना चाहते, हम उसके दिमाग में कुछ भी डाल दें। हमें इसमें बड़ा सुख मिलता है कि हमने बच्चे को ज्ञान दे दिया। जो हमारे पास नहीं था उसे हमने दूसरे को भी दे दिया। और इस भांति परंपराएं चलती हैं। परंपराएं अज्ञानियों के हाथ से चलती हैं, परंपराएं ज्ञानियों के हाथ से नहीं चलती हैं। और इस सुख में चलती हैं कि हम ज्ञान दे रहे हैं, संप्रेषित कर रहे हैं, कम्युनिकेट कर रहे हैं कि हम एक-दूसरे को ज्ञान दिए चले जा रहे हैं। ज्ञान देने में सच में बड़ा सुख है। अहंकार की बड़ी तृप्ति है। जो अपने पास नहीं था, उसे देने के भ्रम में, दूसरे को समझाने में कभी-कभी यह शक हो जाता है कि अपने पास होगा तब तो अपन दे रहे हैं।
इसलिए सारी दुनिया में ज्ञान जानने की इच्छा तो कम होती है ज्ञान देने की इच्छा बहुत ज्यादा होती है। ज्ञान लेने की इच्छा तो बहुत कम होती है देने की इच्छा बहुत ज्यादा होती है।
उपदेश एक तरह की अहंकार तृप्ति है, इसलिए कोई भी आदमी उससे बचना नहीं चाहता, उपदेश देना चाहता है। आपको कोई कमजोर मिल भर जाए। तो बच्चे बहुत कमजोर हैं। उनको देने में बड़ा रस है। वे न नहीं करते, इनकार नहीं करते, कुछ नहीं कहते। उनको बड़ा रस है। उनको एक आप एक ढांचा, उनकी खोपड़ी को इसके पहले कि वे स्वतंत्र चिंतन कर सकें, उनकी खोपड़ी पर एक ढांचा, एक पैटर्न आप बिठा देना चाहते हैं। उस कैद में वे जिंदगी भर रहेंगे। और अगर कैद से छूटने लगें तो आपको बड़ी दिक्कत होगी। आप ऐसा बिल्कुल व्यवस्थित कैद बना देना चाहते हैं लोहे की कि वह आपसे मुक्त न हो सके। आप तो समाप्त हो जाएंगे और बच्चे आपसे बंधे रह जाएंगे। और उनका चित्त कभी इस स्वतंत्रता को उपलब्ध नहीं होगा कि सत्य को जान सके।
सत्य को जानने के लिए चित्त का स्वतंत्र होना अनिवार्य शर्त है। सारी परंपरा से, सारे शास्त्रों से, सारे मां-बाप से सत्य को जानने के लिए चित्त का स्वतंत्र होना अनिवार्य शर्त है। जो चित्त स्वतंत्र नहीं है वह सत्य को नहीं जान सकता।
तो परिपूर्ण स्वतंत्र होना जरूरी है। तभी जब सारी खूंटियों से वह मुक्त होता है तो वह सत्य के अनंत आकाश में विचरण कर पाता है। जब उसके पैर और पंख मुक्त होते हैं तो वह अनंत आकाश में विचरण कर पाता है, उड़ पाता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि आपके दिमाग से वह सब अलग हो, उसको छोड़ दें, उसमें कोई सार नहीं है। फिर देखें, और फिर उड़ें और जानें, और तब जो आप जानेंगे वापस फिर आपका हृदय इतनी अनुकंपा अनुभव करेगा उन लोगों की जिन्होंने पहले जाना है। फिर उनके एक-एक शब्द आपके लिए सार्थक हो जाएंगे।
एक उल्लेख आपको करूं फिर मैं दूसरे प्रश्न को लूं।
एक साधु मरता था, मरणासन्न, अंतिम घड़ी में, जीवन भर उसके शिष्यों ने उससे कहा कि उसकी अनुभूतियां इतनी मूल्यवान हैं कि वह लिख दे, अन्यथा उसके खोने के साथ वे खो जाएंगी। एक बहुत बड़ी वसीयत नष्ट हो जाएगी। उस साधु ने माना नहीं, उसने नहीं लिखा। वह मरने को है, सुबह उसने कहा कि मैं छह बजे प्राण छोड़ दूंगा सूरज के ऊगने पर। सूरज ऊगने के करीब होने लगा है, उसके प्रेम करने वाले हजारों लोग इकट्ठे हैं उसकी झोपड़ी पर। और उसने अपने तकिए के नीचे से एक ग्रंथ निकाला और उसने अपने प्रधान शिष्य को कहा कि तुम सबने हमेशा कहा कि मैं लिख दूं अपनी अनुभूतियों को, वे मैंने लिख दीं। और इस दिन तक रुका रहा कि अंतिम समय दे दूंगा, जब तक मैं जिंदा हूं देने की कोई जरूरत नहीं। अंतिम समय दे दूंगा। इस ग्रंथ को सम्हाल कर रखना, इसमें सत्य है, जो इसे समझ लेगा वह सत्य को जान लेगा। इससे मूल्यवान कुछ नहीं, मैंने अपनी अंतरात्मा इसमें रख दी है। वह उसने अपने प्रधान शिष्य को वह किताब दी, उसने उस किताब को नमस्कार किया, पास में ही आग जलती थी, सर्दी के दिन थे, उस किताब को उस आग में डाल दिया। सारे लोग एकदम अवाक हो गए कि यह क्या किया! उसने कहा: सम्हाल कर रखना, मैंने अपनी अंतरात्मा रख दी। और उसके शिष्य ने उसको आग में डाल दिया। उस गुरु ने कहा कि मेरा हृदय आनंद से भर गया, अब मैं शांति से मर सकूंगा। मैंने यह किताब इसलिए दी थी कि कम से कम एकाध आदमी भी मुझे समझ सका है या नहीं? अगर तुम किताब को सम्हाल लेते, मैं बड़े दुख से मरता, मैं समझता कि मामला सब खराब हो गया। जिंदगी भर समझाया, जिंदगी भर समझाया कि शास्त्र में नहीं स्वयं में है सत्य। और अगर तुम किताब को सम्हाल कर रख लेते, मैं मरता कि मेरी जिंदगी बेकार गई, मैं व्यर्थ सिर पचा रहा था लोगों के साथ। अब मैं शांति से मरूंगा, एक आदमी कम से कम मुझे जानता है। और स्मरण रखो, मैंने उस किताब में कुछ लिखा नहीं था, कोरे पन्ने थे।
और मैं आपको कहूं, आज तक किसी शास्त्र में जो जानते हैं उन्होंने कुछ नहीं लिखा, वे सब कोरे पन्ने हैं। और जो जानते हैं उसको आग को समाहित कर दिए हैं। और जो नहीं जानते हैं वे उसे सिर पर लिए हुए फिर रहे हैं। और हम सिर पर लिए हुए फिर रहे हैं। शास्त्र हमारे बोझ हैं जिनको हम सिर पर लिए फिर रहे हैं। और कभी-कभी इन बोझ की वजह से एक-दूसरे से टक्कर भी हो जाती है, हम छुरे भी निकाल लेते हैं।
अजीब मनुष्य ने किया है, इससे मुक्त होना बहुत, बहुत जरूरी है। और उस मुक्ति के क्षण में कुछ जाना जा सकता है। उस मुक्ति के क्षण में कुछ पहचाना जा सकता है।

कुछ प्रश्न तो हैं, इनको कल ले लेंगे, क्योंकि मैं कुछ व्यक्तिगत समय भी सबको देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तीन दिन के भीतर सबसे कम से कम दो-दो, तीन-तीन मिनट मैं अलग से भी बात कर लूं। वह आपके लिए शायद ज्यादा उपयुक्त भी हो सके। कोई भी आपकी बात हो, जो आप उसके लिए साहस न जुटा पाते हों, वह मैं अलग से कर लूं।
एक प्रश्न का और उत्तर दे देता हूं फिर मैं अलग बैठता हूं, आशा करूंगा कि दस-पच्चीस लोग आज मिल लें, दस-पच्चीस लोग कल मिल लें, परसों मिल लें। दो-दो, तीन-तीन मिनट, जिनको भी मिलने जैसा लगता है वे जरूर मिलें।
एक प्रश्न पर और अंत में बात कर लूं।
साधना में आचार का क्या स्थान है?

यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। और मैं जो बातें करता हूं उन बातों को ध्यान में रख कर और भी महत्वपूर्ण है। अनेकों को यह भ्रम पैदा हो सकता कि मेरी चर्चा में आचार के लिए कोई स्थान नहीं है। यानी में आचरण पर कोई बात ही नहीं कर रहा हूं। और सच में मैं नहीं कर रहा हूं, क्योंकि मेरे लिए आचरण साधने की बात नहीं है, मेरे लिए आचरण साधना का फल है। मेरे लिए आचरण साधना का फल है।
अनाचार क्या है? मेरा आत्मअज्ञान मेरा अनाचार है। मैं जब तक स्वयं को नहीं जानता, तब तक मैं जो भी करूं वह सब अनाचार है। मैं जो भी करूंगा उससे दूसरे को पीड़ा और दुख पहुंचना निश्चित है। मेरी सारी क्रियाएं दूसरे को चोट और दुख पहुंचाएंगी, उनमें हिंसा होगी। यह असंभव है कि आत्मज्ञान हुए बिना और मेरी क्रियाओं में अहिंसा आ जाए। यह बिल्कुल असंभव है।
एक रास्ता तो यह है कि आत्मज्ञान की तो हम फिकर न करें, हम अहिंसा को साधें, वह आचरण की साधना कहलाएगी। हम आत्मज्ञान की तो फिकर न करें, हम प्रेम को साधें, वह आचरण की साधना कहलाएगी। हम आत्म-ज्ञान की तो फिकर न करें, हम दूसरे के साथ बुरा न करें इस बात को साधें, वह आचरण की साधना कहलाएगी। इस भांति आप जबरदस्ती अपने को कुछ कामों से रोक सकते हैं बाहर के जगत में, लेकिन भीतर के जगत में वे जारी रहेंगे, वे भीतर चलते रहेंगे। यह हो सकता है मुझे आप पर क्रोध आए और मैं इसलिए क्रोध को रोक लूं क्योंकि यह अनाचरण होगा। तो मैं क्रोध आप पर तो रोक लूंगा, आप मेरे क्रोध से बच जाएंगे, लेकिन मेरा क्रोध कहां चला जाएगा? वह मेरे भीतर प्रविष्ट हो जाएगा और वह मुझे बेदेगा। तो जो क्रोध आप पर नहीं निकलेगा वह मुझ पर खुद ही टूट जाएगा, वह परावर्तित हो जाएगा। क्रोध मुझे भीतर जलाएगा। जो हिंसा मैं आपकी नहीं कर पाऊंगा, रोक लूंगा अपने को आचरण के कारण, वह हिंसा मैं अपने भीतर करूंगा। अपने सपनों में करूंगा, अपनी कल्पनाओं में करूंगा।
महावीर के शिष्य थे, प्रसन्नचंद्र, वे राजा थे। वे दीक्षित हुए महावीर से और एक जगह साधना करते थे। जब वे साधना में थे, तब निकट के ही उनके एक मित्र राजा का निकलना हुआ, तो उसने सोचा कि मेरे मित्र थे पुराने और अब साधु हो गए, तो मैं उनका दर्शन करूं और उनको प्रणाम करूं। वह प्रणाम करने गया। उसने जब प्रणाम किया, वे शांत, मौन खड़े हुए थे। प्रणाम करके वह महावीर के पास गया, तो उसने महावीर को कहा: राजा प्रसन्नचंद्र मुनि हो गए, मैं उनके पास गया था, बड़े शांत खड़े थे, मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि अगर इसी क्षण इनका देह समाप्त हो जाए, तो क्या ये मोक्ष को उपलब्ध हो जाएंगे? कितने शांत, मौन खड़े हैं! कितने निस्पृह, निर्वस्त्र! इनके पास तो कुछ भी नहीं, तो ये तो मुक्त चले जाएंगे?
महावीर ने कहा: जिस क्षण तुमने प्रणाम किया था प्रसन्नचंद्र को, अगर वह उसी वक्त मर जाए, तो सातवें नरक चला जाएगा। वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा: आप क्या कहते हैं?
उन्होंने कहा: उसके पहले ऐसा हुआ, कि तुम आए उसके पहले राजधानी के दो लोग और निकले थे। और उन्होंने प्रसन्नचंद्र के सामने खड़े होकर कहा कि यह बेचारा यहां जंगल में नंगा खड़ा है, और इसके छोटे-छोटे बच्चे हैं, और यह अपने मंत्रियों के हाथ में सारी संपत्ति और राज्य सौंप आया, इस आशा में कि जब बच्चे बड़े होंगे ये उनको सौंप देंगे। लेकिन वे सब उड़ाए जा रहे हैं। वे दो आदमी तुम्हारे पहले ऐसा कहते हुए और प्रसन्नचंद्र के सामने से चले गए थे। प्रसन्नचंद्र ने सुना, मेरे मंत्री और मेरे बच्चों की संपत्ति खाए जा रहे हैं। पुराना राजा था, तलवार खींच ली। उसने कहा: मेरे रहते! एक-एक का सिर अलग कर दूंगा। उसने सिर अलग कर दिए! वह चित्त में घटना घट गई। तो जिस वक्त तुम गए प्रसन्नचंद्र के पास, वह लोगों के सिर काट रहा था। तलवार हाथ में थी और लहूलुहान थे लोग और वह सिर काट रहा था। उस वक्त अगर चला जाए तो नरक चला जाएगा, सातवें, उसके अंत में फिर कोई और नरक नहीं। उस वक्त तो बड़ी गहन हिंसा में था वह, वह बाहर शांत खड़ा हुआ था, बाहर तो कोई बात ही नहीं थी, भीतर हिंसा चलती थी।
अगर आप आचार को साधेंगे, तो बाहर आपका आचार सध जाएगा, भीतर आपमें बहुत अनाचार होगा।
ये आचरण साधना समाज के लिए तो उपयोगी है, साधक के लिए उपयोगी नहीं है। यह शोषण युटिलिटी है। यानी समाज का काम इतने से पूरा हो जाता है..कि आप झूठ न बोलें; उसे इससे कोई मतलब नहीं कि आपके भीतर झूठ चलता है। अपराध में और पाप में यही अंतर है। समाज चाहती है आप अपराध न करें; समाज को इससे कोई मतलब नहीं कि आप पाप करते हैं या नहीं। समाज चाहती है आप हिंसा न करें किसी की। अगर आपने किसी की हिंसा की, तो इसको अपराध मानेगी, आपको बंद कर देगी। किसी की हिंसा करना पाप भी है, अपराध भी है। और मन में किसी की हिंसा करना केवल पाप है, अपराध नहीं। यह बात आप समझ रहे हैं? केवल मन में हिंसा करना पाप है, अपराध नहीं है। किसी की हिंसा करना, किसी की हत्या करना पाप भी है, अपराध भी है। समाज का काम इतने से पूरा हो जाता है कि आप अपराधी नहीं हैं। आप पापी नहीं हैं इससे कोई मतलब नहीं है समाज को।
समाज सिर्फ चाहती हैं आप अपराधी न हों। यानी आपमें जो पाप उठता है वह बाहर न आए, बस। तो समाज का काम तो इतने से पूरा हो जाता है। समाज को आपकी अंतरात्मा से मतलब नहीं, समाज को आपके केवल आचरण से मतलब है। आपकी अंतरात्मा सामाजिक वस्तु नहीं है, आपका आचरण सामाजिक है। मैं क्या हूं, इससे समाज को मतलब नहीं, मैं क्या करता हूं, इससे समाज को मतलब है।
तो समाज-धर्म तो इतना ही है कि आप बुरा न करें। वास्तविक धर्म इतना है कि आपमें बुरा न हो। आप बुरा न करें, यह समाज-धर्म है। वास्तविक धर्म यह है कि आपमें बुरा पैदा न हो। आप हिंसा न करें, यह समाज-धर्म है। वास्तविक धर्म है, आपमें हिंसा पैदा न हो। न करें नहीं, पैदा न हो।
तो मैं जिस सत्य की चर्चा कर रहा हूं, मैं जिस ध्यान की चर्चा कर रहा हूं, अगर आप उसमें प्रविष्ट हुए, तो आपमें हिंसा पैदा नहीं होगी, आपमें क्रोध पैदा नहीं होगा। नहीं, करना नहीं पड़ेगा, रोकना नहीं पड़ेगा, होगा नहीं। आपके भीतर पैदा नहीं होगा। वह पैदा इसलिए नहीं होगा कि अभी पैदा जिस कारण से होता है वह कारण विलीन हो जाएगा। अब यह पैदा इस वजह से पैदा होता है कि हम समझते हैं कि मैं देह हूं। अभी पैदा इसलिए होता है कि मैं समझता हूं कि मेरा धन, मेरा यश, मेरी पदवी, मेरी प्रतिष्ठा मैं हूं, तब आप जानेंगे, यह मैं कुछ भी नहीं हूं। और तब आप जानेंगे जो आदमी आपकी ये सारी चीजें भी छीन ले, वह भी आपका कुछ नहीं छीन रहा है। हिंसा असंभव हो जाएगी।
अगर प्रसन्नचंद्र को दिखा होता कि मेरी जो आत्मसत्ता है, वह मेरा राज्य, वह मेरा धन नहीं है। अगर यह दिखा होता, तो यह असंभव था कि वह तलवार उठा लेता, यह बिल्कुल असंभव था। अगर उसे यह दिखा होता कि मेरी संपत्ति क्या है, तो उसे यह भी दिख गया होता कि मेरे बच्चों की संपत्ति क्या है। और तब उसे बिल्कुल ऐसा नहीं लगा होता कि मेरे बच्चों की कोई संपत्ति छीन रहा है। वह संपत्ति तो बिल्कुल आंतरिक है जो छीनी नहीं जा सकती। जब तक वह संपत्ति न दिखे तब तक बाहर जो संपत्ति है वह छीनी जा सकती है। उसके छीनने पर हिंसा पैदा होगी, क्रोध पैदा होगा।
महावीर को लोगों ने मारा, तो हम सोचते हैं, बड़े दयालु थे, इसलिए उन्होंने कुछ नहीं कहा। यह बिल्कुल झूठी बात है। और हम सोचते हैं बड़े क्षमाशील थे कि उन्होंने क्षमा कर दिया। क्षमा तो वह करता है जिसमें क्रोध उठता है। क्रोध के बाद क्षमा होती है। महावीर को क्षमाशील कहने का मतलब है, वे क्रोधी थे। नहीं मेरा कहना कुछ और है, महावीर में क्रोध नहीं उठा, क्षमा का तो प्रश्न नहीं है, उनमें अक्रोध था, वह उठा ही नहीं। और उठा इसलिए नहीं कि लोग उनके शरीर को मार रहे हैं, और महावीर जानते हैं वे मुझे नहीं मार रहे। वे जिसको मार रहे वह मैं नहीं हूं। उससे मेरा इतना फासला है जितना किसी चीज से मेरा फासला नहीं।
आपकी देह और आत्मा में इतना फासला है, वह सबसे बड़ा फासला है जगत में, उससे बड़ा फासला नहीं है। ये चांद-तारे बहुत करीब हैं, इस पूरे विश्व की जो रेखा होगी, वह भी बहुत करीब है। सबसे बड़ा फासला दुनिया में पदार्थ का और चेतना का है। इससे बड़ा कोई फासला नहीं है। वे सबसे दूर के छोर हैं जिनके बीच भीतर अनंत फासला है।
तो महावीर को जिस दिन आत्मा दिख गई, उस दिन यह देह इतनी दूर है, इतनी दूर है कि कब खत्म हुई कि यह कहां है। इस पर चोट आप कर रहे हैं, उसका महावीर का कैसे, उससे महावीर को वेदना नहीं हो सकती। वह वेदना का अभाव अक्रोध है, वह वेदना का अभाव उनकी क्षमा है।
तो महावीर की क्षमा सामाजिक उपयोगिता नहीं है। और आप जो मानते हैं क्षमा, वह सामाजिक उपयोगिता है। महावीर की क्षमा आध्यात्मिक जीवन का स्फुरण है। मेरे लिए आत्म-बोध के बाद आचरण का स्फुरण होता है। जब आत्मा का बोध होगा, तो आपके आस-पास के सारे संबंध बदल जाएंगे, पूरी रिलेशनशिप बदल जाएगी जगत से, वह आपका आचरण होगा। और जब आत्मा का अज्ञान है, तो आपका जो आचरण है वह अनाचरण है।
तो मैं आपको यह नहीं कहता कि आप हिंसा करने लगें, मैं आपको यह नहीं कहता आप क्रोध करने लगें, मैं तो आपको केवल इतना कहता हूं कि अगर इतने को ही आपने धर्म समझा हो तो आप गलती में हैं। यह धर्म नहीं है, यह सामाजिक नीति है, यह सामाजिक शिष्टाचार है। इससे बड़ा है धर्म। धर्म तब होगा जब यह आपके भीतर पैदा न हो।
एक बड़े मजे की बात है, आप अपराध छोड़ सकते हैं लेकिन पापी रह सकते हैं। लेकिन अगर पाप छूट जाए तो आप अपराधी नहीं रह सकते। यह आप बात समझ रहे हैं? अगर आप अपराध छोड़ दें, तो आप पापी रह सकते हैं। यानी बिल्कुल सज्जन आदमी भी हो सकता है, साधु न हो, सज्जन और साधु में यही फर्क है। सज्जन अपराध नहीं करता, पाप करता है। साधु पाप ही नहीं करता। एक सज्जन आदमी साधु हो सकता है, न हो, लेकिन एक साधु असज्जन हो यह असंभव है। पाप कट जाए भीतर से, अपराध अपने से कट जाएगा। अज्ञान कट जाए भीतर से, अनाचरण अपने से कट जाएगा। इसलिए मेरा जोर है, जोर मेरा यह है कि वहां भीतर, वहां भीतर प्रयोग करें, आचरण अपने आप आएगा। वह फूल की तरह आएगा। बीज ध्यान के बोने होते हैं, फूल की तरह आचरण उत्पन्न होता है।
अभी इतनी ही सी चर्चा रखें, जो प्रश्न बाकी हैं उनको कल बात कर लेंगे।
हां, कोई प्रश्न हो तो लिख कर दें, अपन कल बात कर लेंगे।


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