धर्म और
आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो
पांचवां—प्रवचन-मिथ्या साधना
पहुंचाते नहीं
अपूर्ण से अपूर्ण हम हों लेकिन पूर्ण तक उन्मुक्त होने की
एक अनिवार्य प्यास सबके साथ जुड़ी है। हम सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन में भी जो हम दौड़ते हैं..धन के, पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव
यही होता है कि शायद शांति, शायद समृद्धि मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही
पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को
उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो
जाए। लेकिन निरंतर एक-एक इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के
पीछे चल कर भी वह परम संपत्ति उपलब्ध नहीं होती है।
लोग हैं, धार्मिक पहचानने वाले लोग
हैं, जो कहेंगे, वासनाएं बुरी हैं; जो कहेंगे, वासनाएं त्याज्य हैं; जो कहेंगे, समस्त वासनाओं को
छोड़ देना है; जो कहेंगे, वासनाएं अधार्मिक हैं। मैं
आपसे कहूं, कोई वासना अधार्मिक नहीं है, अगर हम उसे देख सकें, समझ सकें। समस्त
वासनाओं के भीतर अंततः प्रभु को पाने की वासना छिपी है। एक व्यक्ति को हम धन देते
चले जाएं और उससे कहें कि कितने धन पर वह तृप्त होगा? हम कितना ही धन दें, उसकी आकांक्षा तृप्त
न होगी। कितना ही धन दें, सारे जगत का धन उसे दे दें।
सिकंदर भारत की तरफ आता था, किसी ने उससे पूछा, तुम अगर पूरी जमीन
जीत लोगे, तो फिर क्या करोगे? उसने कहा: मैं दूसरी जमीन
की तलाश करूंगा। और अगर हम पूछें कि दूसरी जमीन भी जीत लोगे, फिर क्या करोगे? वह कहेगा, मैं तीसरी जमीन की
तलाश करूंगा। और हम कहें कि तुम सारी जमीनें जीत लोगे, फिर क्या करोगे?
असल में वासना अनंत को पाने के लिए है, इसलिए किसी भी स्थान
को पाकर तृप्त नहीं होगी। कितना ही धन दे दें, वासना तृप्त न होगी, क्योंकि वासना अनंत
धन को पाने के लिए है। कितना ही बड़ा पद दे दें, आकांक्षा तृप्त न होगी, क्योंकि आकांक्षा
परम पद को पाने के लिए है। कितना भी जीवन में उपलब्ध हो जाए, जीवन संतृप्त न होगा, तृप्त न होगा, क्योंकि परम जीवन
परम प्रभुता को पाए बिना मनुष्य के भीतर तृप्ति असंभव है, प्रभु को पाए बिना
तृप्ति असंभव है।
असल में समस्त वासनाएं नदियों की तरह, प्रभु की अंतिम
वासना की तरह सागर की तरफ दौड़ रही हैं। प्रत्येक वासना समझे जाने पर प्रभु की ओर
इशारा करेगी। प्रभु सत्ता की ओर इशारा करेगी। इसलिए वासनाएं बुरी नहीं हैं।
वासनाओं को क्षुद्र से तृप्त करने की चेष्टा अज्ञान है। वासना को विराट देना होगा।
क्षुद्र को जो वासनाएं बांध रही हैं उन्हें विराट पर केंद्रित करना होगा, उन्हें विराट की ओर
उन्मुख करना होगा। लोग कहते हैं कि मन चंचल है, लोग कहते हैं कि मन की
चंचलता नहीं मिटती, लोग कहते हैं, हम मन को ठहराने की, रोकने की कोशिश करते
हैं, शांत करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मन है कि भागता चला
जाता है।
असल में मन अगर चंचल न होता तो मनुष्य कभी धार्मिक नहीं हो
सकता था। मैं फिर से कहूं, मन अगर चंचल न होता तो मनुष्य कभी धार्मिक न हो सकता था, क्योंकि हमने कुछ
उसे क्षुद्र पकड़ा दिया होता और मन वहीं ठहर जाता। हमने कुछ व्यर्थ उसको पकड़ दिया
होता और मन वहीं थिर हो जाता। हम कुछ भी पकड़ाएं, मन वहां ठहरता नहीं और आगे
के लिए प्यासा हो जाता है। हम कुछ भी करें, मन वहां ठहरता नहीं और आगे
के लिए अभीप्सा से भर जाता है। असल में मन जब तक प्रभु को न पा ले तब तक ठहरेगा
नहीं। मन की चंचलता और विचलता इसलिए है कि मन प्रभु को पाने को उत्सुक है, उसके पूर्व कोई निधि, कोई संपत्ति उसे
तृप्त नहीं कर सकती। सौभाग्य है कि मन चंचल है, सौभाग्य है कि मन चंचल है, चंचल है इसलिए शायद
कभी परम सत्ता तक पहुंचना संभव हो सकता है। सौभाग्य है कि मन वासनाग्रस्त है, वासनाग्रस्त है
इसलिए शायद कोई दिन परम वासना पकड़ सकती है।
मैंने सुना है, वहां इजिप्त में, मिश्र में एक फकीर
हुआ। फकीर अपने झोपड़े के पीछे कहीं खेत में काम करने गया था। फकीर की एक शिष्या
बादशाह को झोपड़े के बाहर मिली, उसने बादशाह से कहा: आप
थोड़ा खेत की मेंड़ पर बैठ जाएं, मैं फकीर को बुला लाती हूं।
बादशाह बोला, तुम बुला लाओ, मैं टहलता हूं। उसने सोचा
कि शायद बादशाह बाहर बैठने में संकोच कर रहा है, तो वह उसे भीतर ले गई झोपड़े
के और उसने बादशाह से कहा: यहां यह चटाई पड़ी है, उस पर बैठ जाएं, मैं फकीर को बुला
लाती हूं। बादशाह बोला, तुम बुला लाओ, मैं भी थोड़ा टहलता हूं। वह
कुछ हैरान हुई। उसने जाकर पीछे फकीर को कहा: यह बादशाह कुछ अजीब सा आदमी मालूम होता
है। मैंने बहुत कहा कि बैठ जाओ, लेकिन वह बोलता है, मैं टहलता हूं, तुम बुला लाओ।
फकीर ने कहा: असल में वह बैठ सके उसके योग्य स्थान हमारे
पास कहां है। फकीर ने कहा: वह बैठे सके उसके योग्य बैठने का स्थान हमारे पास कहां
है, इसलिए टहलता है।
मैं इस कहानी को पढ़ता था और मुझे एक अदभुत बात दिखाई पड़ी।
मन इसलिए चंचल है कि वह जहां बैठ सके वह स्थान हमने उसे अब तक दिया नहीं। मन इसलिए
चंचल है, इसलिए विचलित है कि जहां वह थिर हो सके, जहां वह तल्लीन हो
सके, जहां वह विलीन हो सके, जहां वह विसर्जित हो सके, हमने वह स्थान उसे
आज तक दिया नहीं। हमने कहीं खेत की मेंड़ें बताई हैं, कहीं साधारण सी पड़ी हुई
चटाइयां बताई हैं। हमने क्षुद्र का प्रलोभन दिया है, वह विराट का प्यासा है, इसलिए चंचल है। जब
तक हम विराट, जब तक हम अनंत, जब तक हम पूर्ण, जब तक हम परम की
सान्निध्य में उसको न ले जाएं, मन चंचल होगा, मन पीड़ित होगा, मन भागेगा, मन दौड़ेगा, मन दुखी होगा, मन संताप में भरा
रहेगा। एक एंग्विस, एक पीड़ा निरंतर पकड़े ही रहेगी।
मनुष्य के जीवन का दुख एक ही केंद्र पर है, मनुष्य जिस बात को
पाने से प्यास उसकी तृप्त होगी वह हम उसे नहीं दे रहे, हम कुछ और दे रहे
हैं। हम कुछ और दे रहे हैं जो तृप्ति न देगा और हम उससे वंचित किए हैं स्वयं को जो
तृप्ति बन सकता है। और अगर यह स्थिति हो तो हम लाख उपाय करें, लाख अर्जित करें, लाख व्यवस्था
समृद्धि जमा लें, हम शांति को, आनंद को नहीं पा सकते।
धर्म त्याग करने को नहीं कहता है, धर्म कुछ छोड़ने को
नहीं कहता है, धर्म कुछ जीवन को पाने को नहीं कहता है, धर्म तो पाने को
कहता है परिपूर्ण को, धर्म तो परम को उपलब्ध करने को कहता है। गलत होंगे वे जो
समझते हों धर्म परमार्थ है, धर्म से ज्यादा स्वार्थ इस जगत में कुछ भी नहीं है। भ्रांत
होंगे वे जो समझते हैं कि धर्म परमार्थ है, धर्म से अधिक स्वार्थ इस
जगत में कुछ भी नहीं है। महावीर और बुद्ध से ज्यादा स्वार्थ को उपलब्ध व्यक्ति जगत
में दूसरे नहीं हैं। स्वार्थ का अर्थ है: स्व का परिपूर्ण अर्थ जहां उपलब्ध हो
जाए। स्वार्थ का अर्थ है: जहां मेरी सत्ता पूरे प्रयोजन को, पूरे अर्थवत्ता को
उपलब्ध हो जाए, जहां मैं अपने को उपलब्ध हो जाऊं। हम एक अर्थ में स्वार्थी
नहीं हैं, हमें स्व की कोई चिंता भी नहीं, हमें स्व से कोई
प्रयोजन नहीं है। हम उन चीजों के पीछे दौड़ रहे हैं जिन्हें मृत्यु छीन लेगी और
समाप्त कर देगी।
हम अत्यंत निःस्वार्थी लोग हैं। हम उन चीजों पर जीवन को
व्यय कर रहे हैं जो हमारी सत्ता का अंग नहीं बन सकतीं, जो हमारे स्वरूप का
उदघाटन नहीं बन सकतीं। महावीर और बुद्ध और ईसा और कृष्ण उसको पाने में संलग्न हैं
जिसे मृत्यु भी जला नहीं सकेगी। वे शायद संपत्ति को उपलब्ध कर रहे हैं। हम जिसे
संपत्ति कह रहे हैं वह संपत्ति नहीं है।
नानक लाहौर के पास एक गांव में ठहरे थे। एक व्यक्ति ने उनसे
कहा: मैं कुछ आपकी सेवा करना चाहता हूं। बहुत संपत्ति मेरे पास है, आपके उपयोग में आ
जाए तो अनुग्रह होगा। नानक बहुत बार उसे टालते गए। एक बार उन्होंने रात्रि को उसने
दुबारा अपनी प्रार्थना दोहराई थी, एक उस व्यक्ति को कपड़े सीने
की सुई दे दी। कपड़े सीने की सुई देकर कहा: इसे रख लो और जब हम दोनों मर जाएं तो
इसे वापस लौटा देना। वह आदमी कुछ चैंका होगा, क्या नानक का दिमाग कुछ
खराब है। चैंका होगा, इतने लोगों के सामने कैसी असंगत और व्यर्थ की बात कहते हैं।
इस सुई को मृत्यु के बाद कैसे लौटाया जा सकेगा? लेकिन सबके सामने कुछ कहना
संभव नहीं हुआ। फिर उसी ने तो बार-बार उनसे आकांक्षा की थी कि कोई सेवा। फिर आज
सेवा दी है तो उसे एकदम अस्वीकार करते नहीं बन पड़ा। वह घर गया, रात भर सोचता रहा, विचार करता रहा, कोई मार्ग यह दिखाई
न पड़ा कि सुई मृत्यु के पार कैसे जा सकती है। वह पांच बजे, चार बजे सुबह ही
नानक के पैरों पर गिर पड़ा और कहा: यह सुई अभी जिंदा में वापस ले लें, मरने पर लौटाना मेरी
सामथ्र्य में समझ में नहीं आता है। मैंने बहुत चेष्टा की, बहुत उपाय किए, बहुत सोचा, अपनी सारी संपत्ति
भी लगा दूं तो जिस मुट्ठी में यह सुई होगी वह इस पार रह जाएगी। मैं पता नहीं किस अलोक
में, किस अज्ञात में विलीन हो जाऊंगा, पता नहीं मैं रहूंगा
या नहीं। मैं इस सुई को पार नहीं ले जा सकता हूं।
नानक ने कहा: फिर मैं तुझसे एक बात पूछूं, तेरे पास क्या है
जिसे तू पार ले जा सकता है?
उस व्यक्ति ने कहा: मैंने कभी विचारा नहीं, लेकिन अब देखता हूं
तो दिखाई नहीं पड़ता कि मेरे पास कुछ है जिसे मैं पार ले जा सकता हूं।
नानक ने कहा: जो मृत्यु के पार न जा सके वह संपत्ति नहीं
है। जो मृत्यु के इस पार रह जाए वह विपत्ति हो सकती है, संपत्ति नहीं हो
सकती।
समस्त धार्मिक, जाग्रत पुरुष भी संपत्ति को
कमाए हैं, हम भी संपत्ति को कमाते हैं, हम उस संपत्ति को कमाते हैं
जो मृत्यु के इस पार होगी, वे उस संपत्ति को कमाते हैं जिसे मृत्यु की लपटें भी जला
नहीं सकेंगी, जिसे मृत्यु की लपटें भी नष्ट न कर सकेंगी, जो मृत्यु की लपटों
के पार भी अछूती निकल जाएगी। शायद वे ही स्वार्थी हैं। शायद वे ही परम स्वार्थ को
पूरा कर लेते हैं। और शायद न मालूम कौन है जो उनको कहता है कि वे त्यागी हैं; न मालूम कौन है जो
उनको कहता है कि उन्होंने सुख छोड़े; न मालूम कौन है जो कहता है, उन्होंने समृद्धि
छोड़ी; न मालूम कौन है जो उनके त्याग और तपश्चर्या की बात करता है।
मुझे वैसी कोई बात दिखाई नहीं पड़ती। समृद्धि हम छोड़े हुए हैं, संपत्ति हम छोड़े हुए
हैं, आनंद हम छोड़े हुए हैं; उन्होंने केवल दुख छोड़ा है, उन्होंने केवल
अज्ञान छोड़ा है, उन्होंने केवल पीड़ा छोड़ी है। और अगर पीड़ा को और दुख को और
अज्ञान को छोड़ना त्याग है, तो फिर बात अलग है, फिर भोग क्या होगा?
इस जगत में केवल संन्यासी ही भोगी है। इस जगत में केवल
विरक्त ही, वीतराग ही आनंद को और शांति को उपलब्ध करता है। हम सब
त्यागी हो सकते हैं।
महावीर ने अपनी समृद्धि को, राज्य को, व्यवस्था को छोड़
दिया, लात मार दी। हम प्रसन्नता से भरे हैं कि उन्होंने बहुत बड़ा
काम किया। असल में हम संपत्ति को बहुत आदर देते हैं इसलिए महावीर के त्याग को भी
बहुत आदर देते हैं। हमारी दृष्टि में महावीर का मूल्य नहीं है, महावीर ने वह जो
संपत्ति को लात मारी उसका मूल्य है। अगर किसी व्यक्ति को कचरा बहुत प्रिय हो और
किसी को घर के बाहर कचरे को फेंकता देखे तो शायद आदर से नमस्कार करेगा कि अदभुत
त्याग कर रहा है, सुबह-सुबह सारा घर का कचरा फेंक रहा है। हम जब यह कहते हैं
कि महावीर बहुत बड़े त्यागी हैं, असल में हम संपत्ति के
प्रति अपने आदर को सूचित करते हैं महावीर के प्रति नहीं।
अगर हम महावीर को समझेंगे तो हमें दिखाई पड़ेगा महावीर ने वह
छोड़ दिया जो व्यर्थ था। छोड़ना भी कहना शायद गलत है क्योंकि व्यर्थ को छोड़ा नहीं
जाता, व्यर्थ दिख जाए तो छूट जाता है। मैं पुनः दोहराऊं, छोड़ना भी कहना शायद
गलत है, व्यर्थ को छोड़ा नहीं जाता, उसकी व्यर्थता दिख जाए तो
छूट जाता है। इस जगत में अज्ञानियों ने त्याग किया होगा, ज्ञानियों ने त्याग
नहीं किया। उनसे चीजें छूट गई हैं। जैसे पके पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं, वैसे ही। जैसा हम
कचरे को बाहर फेंक आते हैं और पुनः उसकी याद नहीं करते।
मैं एक गांव में गया, एक साधु का प्रवचन सुना था।
दो दिन सुना, दो दिन उन्होंने निरंतर कहा। उनसे मिलने गया तब भी उन्होंने
मुझसे कहा: मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। मैंने उनसे पूछा, यह लात कब मारी थी? वे मुझे कहे कि कोई
बीस वर्ष हुए। और तब मैंने उनसे कहा कि फिर लात मारी नहीं जा सकी होगी, अन्यथा बीस वर्ष उसे
याद रखने की कोई जरूरत न थी। वह लात मारी नहीं जा सकी। बीस वर्ष पहले लाखों रुपये
मेरे पास हैं, यह अहंकार तृप्ति देता रहा होगा, बीस वर्ष से यह
अहंकार परिपुष्ट हो रहा है कि मैंने लाखों पर लात मार दी है। बात वहीं की वहीं है।
संपत्ति छोड़ी नहीं जाती, एक दिन दिखता है कि वहां
संपत्ति है ही नहीं। एक दिन दिखता है कि वहां संपत्ति है ही नहीं, वहां संपत्ति का
अभाव है। मुट्ठी खुल जाती है, कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। शायद
उस दिन कोई मजबूर करे कि मुट्ठी बांधे रखो, तो बड़ा कष्ट हो, तो बड़ी तपश्चर्या
हो। उस व्यर्थ के बोझ को ढोने में तपश्चर्या हो सकती है, उस व्यर्थ के बोझ को
छोड़ आने में कौन सी तपश्चर्या हो सकती है?
त्याग नहीं, केवल ज्ञान ही पर्याप्त है।
छोड़ना नहीं होता, केवल जानना होता है। जानना क्रांति है। जान लें ठीक से, क्या है जो सार्थक
है, क्या है जो व्यर्थ है, क्रांति घटित हो जाती है।
ज्ञान का परिणाम शील बन जाता है, आचरण बन जाता है। लेकिन
क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है यह कैसे जानेंगे? जो स्वयं को भी नहीं
जानते हैं, जो स्वरूप को नहीं जानते हैं वे सार्थक को कैसे जानेंगे? सार्थक वही होगा जो
स्वरूप के अनुकूल हो, सार्थक वही होगा जो स्वरूप के प्रति संगीतपूर्ण हो। व्यर्थ
वह होगा जो स्वरूप के प्रतिकूल हो, व्यर्थ वह होगा जो स्वरूप
के प्रति विरोध से भरा हो, व्यर्थ वह होगा जो स्वरूप को गलत ले जाता हो।
असल में दुख का कोई अर्थ नहीं है, स्वरूप के प्रति जो
भी प्रतिकूलता है वही दुख है, स्वरूप के प्रति जो
अनुकूलता है वही आनंद है। जिस क्षण मैं अपने स्वरूप के अनुकूल पाता हूं तब आनंदित
हो जाता हूं। जिस क्षण स्वरूप के प्रतिकूल पाता हूं कुछ दुखी हो जाता हूं। दुख का
अर्थ है कि कुछ प्रतिकूल है जो मैं नहीं चाहता कि हो और हो रहा है। आनंद का अर्थ
है कि कुछ हो रहा है जो मैं चाहता हूं कि हो, जो मेरे अनुकूल है।
प्रतिकूलता दुख है, अनुकूलता सुख है।
अगर मुझे स्वरूप का पता न हो तो क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है यह
दिखाई नहीं पड़ सकता। स्वरूप-बोध जीवन में सार्थकता और व्यर्थता का इमिजिन स्पष्ट
कर जा रहा है। ऐसा जानना धर्म की बुनियादी केंद्रीय बात है कि मैं कौन हूं? विज्ञान पदार्थ को
जानता है पदार्थ क्या है? विज्ञान पदार्थ के रहस्य को खोजता है कि उसके क्या नियम हैं? क्या रहस्य? क्या राज हैं? धर्म चैतन्य को
खोजता है, स्व को खोजता है, उसका क्या रहस्य है? पदार्थ के अंतिम
विश्लेषण पर अणु उपलब्ध हुआ है और अणु की उपलब्धि घातक हो गई, विस्फोटक हो गई, हो सकता है सारे
मनुष्य को ले डूबे। चैतन्य का विश्लेषण आत्मा को उपलब्ध हुआ है। पदार्थ के
विश्लेषण से अणु उपलब्ध हुआ है, चैतन्य के विश्लेषण से
आत्मा उपलब्ध हुई है। अणु घातक संभव है, घातक हो जाए। आत्मा का
उपलब्ध होना शायद जगत के बचाने का मार्ग बन जाए।
इस जगत में जो अत्यंत पीड़ा और परेशानी से घिरा है उनमें
आत्म-जागरण के उदघोष की जरूरत है। लेकिन आत्मा के संबंध में हम बहुत बातें जानते
हों भला, आत्मा को नहीं जानते हैं। आत्मा के संबंध में बहुत से
सिद्धांत संयुक्त हों, लेकिन आत्मा से कोई परिचय नहीं है। बहुत, बहुत आश्चर्य जगत
में एक ही है, जो मैं हूं उसे छोड़ कर मैं सब जान सकता हूं, स्वयं से अपरिचित रह
जाता हूं। सारे जगत को जाना जा सकता है और केवल वही जो जान रहा है वही रह जाता है।
सारे जगत में दौड़ कर ज्ञान का संग्रह और भार हो सकता है, लेकिन वह भार अज्ञान
ही है क्योंकि वह स्व को उदघाटित नहीं कर पाता है।
महावीर ने कहा है: सब कुछ जान लो, लेकिन यदि स्वयं को
न जाना, वह जानना ज्ञान नहीं है। सब कुछ जीत लो, लेकिन अगर स्वयं को
न जीता, तो वह जीत विजय नहीं है। सब कुछ पा लो, लेकिन अगर स्वयं को
न पाया, तो वह पाना उपलब्धि नहीं है। केंद्रीय रूप से हम अपने से
च्युत रह जाते हैं और सब पा लेते हैं। लगभग ऐसा, लगभग ऐसा...
मुझे स्मरण आता, रामतीर्थ, भारतीय एक साधु जापान
में थे। एक भवन के पास से निकलते थे, भवन में आग लग गई थी। लोग
सामान निकाल रहे थे, भवनपति बाहर खड़ा था, होश खो दिया था उसने, उसे कुछ दिख नहीं
रहा था, देख तो जरूर रहा था, लपटें पकड़ गई थीं मकान को, लोग सामान बाहर ला
रहे थे, थोड़ी देर में सब भूमिसात हो जाएगा, सब राख हो जाएगा।
रामतीर्थ भी उस रास्ते निकले थे, किनारे खड़े होकर देखने लगे
थे। लोगों ने अंतिम बार आकर पूछा, भवन में कुछ और तो नहीं रह
गया? उस भवनपति ने कहा: मुझे कुछ याद नहीं पड़ता, मुझे कुछ भी स्मृति
नहीं आती, मैं दिग्मूढ़ सा खड़ा रह गया हूं, तुम्हीं एक बार जाकर
और देख लो, कुछ बचा हो उसे भी बचा लो। भवन अंतिम लपटों को पकड़ने के
करीब था। लोग भीतर गए, वे बाहर आए तो रोते हुए बाहर आए। वे साथ में भवनपति के
एकमात्र लड़के की लाश को लेकर लौटे थे। वे लोग मकान का सामान बचाने में लग गए और
मकान का एकमात्र मालिक भीतर जल कर समाप्त हो गया।
रामतीर्थ ने अपनी डायरी में लिखा है: उस दिन मुझे लगा कि यह
घटना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटती है। हम सामान को बचाने में लग जाते हैं और
सामान का मालिक धीरे-धीरे मर जाता है। हम उसको बचाने में लग जाते हैं जो बाहर है।
और जो आंतरिक है, जो मैं स्वयं हूं, उसको भूल ही जाते हैं। यह
अति व्यस्तता आत्मघातक है, सुसाइडल है। पदार्थ से, वस्तु से इतना व्यस्त होना
कि स्वरूप भूल जाए। सामान में, सामग्री में इतने आकुपाइड
हो जाना, इतने व्यस्त हो जाना कि स्व की सत्ता का विस्मरण हो जाए, आत्मघातक है। शायद
जिसे हम आत्महत्या कहते हैं वह केवल देहहत्या है, आत्महत्या इसे कहना चाहिए।
आत्महत्या इसे कहना चाहिए कि स्व का विस्मरण हो जाए और सामग्री पर सारा जीवन
केंद्रित हो जाए। जिसके लिए हम खोज कर रहे हैं वह गौण हो जाए और उसके लिए जो चीजें
खोज करने गए थे वे प्रमुख हो जाएं, वह भूल जाए जिसकी शांति और
आनंद के लिए हम चले और सामग्री के आयोजन में जीवन व्यर्थ हो जाए, इसे आत्महत्या कहना
चाहिए। शरीर की हत्या को आत्महत्या नहीं कहना चाहिए। यह आत्महत्या प्रत्येक के
भीतर घटित होती है।
इससे बचने का, इससे ऊपर उठने का एक ही
उपाय है कि हमारा जो चित्त, हमारा जो मन दूसरे में अति व्यस्त है, थोड़ा सा समय निकाल
कर स्वयं को जानने के प्रति भी उन्मुख हो। जिस ज्ञान की शक्ति से हम सारे जगत को
जानने निकल पड़े हैं वह ज्ञान की धारा अंतःप्रवाहित हो, भीतर की तरफ उन्मुख
हो, हम उसको भी जान सकें जो सबको जान रहा है। और जिन्होंने उसे
जाना है उनका आश्वासन है कि जिस आनंद को बाहर खोज कर जन्मों-जन्मों में नहीं पाया
जा सका, क्षण में उसे भीतर मुड़ते ही उपलब्ध कर लिया है। यह आश्वासन
एकाध व्यक्ति का हो पागल कह कर टाल सकते हैं, अपवाद कह कर टाल सकते हैं।
जितने लोगों ने इस जमीन पर और जमीन के इतिहास में आनंद को
उपलब्ध किया है उनमें से एक ने भी उसे बाहर उपलब्ध नहीं किया है। जितने लोगों ने
उपलब्ध किया है उनकी सामूहिक साक्षी और गवाही आंतरिक के लिए है। इसलिए यह सत्य
वैज्ञानिक हो जाता है, यह सत्य अंधविश्वास नहीं रह जाता। यह अपवाद नहीं है, निरपवाद रूप से जिन
लोगों ने आनंद अनुभव किया है उन्होंने आत्यंतिक आंतरिक के उदघाटन से किया है। वह
आंतरिक प्रत्येक में उपस्थित है, प्रत्येक घड़ी उपस्थित है, हम उसे जानते हों या
न जानते हों, क्योंकि वह हमारा होना है, वह हमारा बीइंग है, वह हमारी सत्ता है, वह हमारा अस्तित्व
है। हम लाख उपाय करके भी उसको खो नहीं सकते हैं। कोई मनुष्य अपनी आत्मा को नहीं खो
सकता, कितना ही पाप करे। कितने ही पाप का उपाय करे इस जगत में एक
बात असंभव है..स्वयं को खो देना असंभव है। स्वयं को खो नहीं सकता।
लेकिन फिर सारे लोग तो कहते हैं, आत्मा को पा लो। जिस
स्वयं को खो नहीं सकते उसे पाने का क्या मालूम होगा। आत्मा को खोया नहीं जाता, केवल विस्मरण हो
जाती है। और ठीक से अगर मेरी बात समझें तो विस्मरण भी नहीं होती, हम दूसरे के स्मरण
से इतने भर जाते हैं कि स्व का स्मरण नीचे दब जाता है। अगर हम पर के स्मरण को थोड़ी
देर को छोड़ सकें, अगर हमारा चित्त पर के स्मरण से थोड़ी देर को शून्य हो जाए, अगर हमारा चित्त में
पर का प्रतिबिंब और पर के विचार और इमेजिन थोड़ी देर को विलीन हो जाएं, तो स्व-स्मरण नीचे
दबा है वह उदघाटित हो जाएगा।
कुछ खोया नहीं है, केवल कुछ आच्छादित है; कुछ भुला नहीं है, केवल कुछ आवरण में, वस्त्रों में छिप
गया है। थोड़े से वस्त्र उघाड़ने की, थोड़ा सा आंतरिक जगत में
नग्न होने की बात है और स्व का साक्षात हो सकता है। स्व के साक्षात के बाद ही
सार्थक की अनुभूति प्रारंभ होती है, स्व के साक्षात के बाद ही
निरर्थक छूटता है और सार्थक की दिशा में जीवन की गति होती है। उसके पूर्व, स्व-साक्षात के
पूर्व जो सार्थक की तलाश करेगा वह केवल दमन कर सकता है, वह केवल संघर्ष कर
सकता है अपने से, वह केवल छोड़ने में और छोड़ने में लग सकता है, उससे कुछ छूटेगा
नहीं, क्योंकि उसे ज्ञात ही नहीं है कि छोड़ने का प्रश्न नहीं है।
महाराष्ट्र में एक साधु हुआ। वह गृही था। उसका नियम था, लकड़ी काट लेनी, बेच देनी, जो मिले भोजन कर
लेना, जो सांझ बच जाए बांट देना। पत्नी थी, वह था। एक बार सात
दिन लगातार वर्षा हुई, लकड़ियां काटने जाना न हो सका, सात दिन उपवास में बिताने
पड़े। भिक्षा मांगने का उसका नियम न था। सात दिन के बाद भूखा सपत्नीक लकड़ियां काटने
वन को गया था। लकड़ियां काटीं, भूख से सात दिन के पीड़ित
लकड़ियों के बोझ ढोते हुए वे पति-पत्नी वापस लौटते थे। पति आगे था, पत्नी थोड़े पीछे
फासले पर थी। एक अदभुत घटना घटी थी, स्मरण करने जैसी है। मन में
बैठ जाए, मन के किसी प्रकाशित कोने में स्थापित हो जाए, तो जीवन में दिशा
उपलब्ध हो सकती है।
वह आगे-आगे था लकड़ियों के बोझ को लिए, राह के पगडंडी के
किनारे दिखा, किसी राहगीर की थैली गिर गई है, स्वर्ण की अशर्फियां
हैं। यह सोच कर कि सात दिन की भूख और परेशानी के कारण पत्नी का मन कहीं मोह से न
भर जाए, कहीं लोभ से न भर जाए, कहीं उसके मन में ऐसा न हो
कि अशर्फियां उठा लूं, नाहक उसके चित्त में विकार न आए, यह सोच कर उसने
गड्ढे में उसे सरका कर थैली को मिट्टी डाल दी। अपने तईं सोचा कि मैं तो स्वर्ण का
विजेता हो गया हूं, मैंने तो जीत लिया, मैं तो स्वर्ण के मोह को
छोड़ चुका हूं, यह पत्नी कहीं मोहग्रस्त न हो जाए। वह मिट्टी डाल कर उठता
ही था कि पत्नी आ गई, उसने पूछा, क्या कर रहे हैं? नियम था उस साधु का
असत्य न बोलने का, इसलिए सत्य बोलना पड़ा, कहना पड़ा, यह सोच कर कि मैंने
तो स्वर्ण को जीत लिया, मैंने तो पदार्थ पर विजय पा ली, मैंने तो परिग्रह से
छुट्टी पा ली, मैं सब त्याग कर चुका हूं लेकिन तेरे मन में कहीं मोह न आ
जाए कि स्वर्ण की थैली पड़ी थी, इसे मैंने मिट्टी से ढंक
दिया है।
उस पत्नी ने कहा था, तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी
डालते हुए शर्म नहीं आई? तुम्हें स्वर्ण अभी दिखाई पड़ता है? अगर स्वर्ण दिखाई
पड़ता है, स्वर्ण से त्याग नहीं हुआ। अगर स्वर्ण दिखाई पड़ता है, तो स्वर्ण से मुक्ति
नहीं मिली। अगर स्वर्ण मूल्यवान मालूम होता है, तो स्वर्ण के नाम पर आसक्ति
शेष है।
स्वर्ण के साथ दो तरह के संबंध हो सकते हैं, आसक्ति के और
विरक्ति के, लेकिन दोनों ही संबंध हैं। स्वर्ण के साथ दो तरह के संबंध
हो सकते हैं, मैं स्वर्ण को पाने को उत्सुक हो जाऊं या मैं स्वर्ण को
छोड़ने को उत्सुक हो जाऊं, लेकिन दोनों ही संबंध हैं। वस्तुतः जो स्वर्ण को और स्वयं
को जानेगा वह स्वर्ण को न छोड़ता है न पकड़ता है। वह अचानक जानता है कि वहां तो कोई
अर्थ ही नहीं है, स्वर्ण में कोई अर्थ ही नहीं है। इतना भी अर्थ नहीं है कि
उसे छोड़ने के लिए उत्सुक हुआ जाए या उसे पकड़ने के लिए उत्सुक हुआ जाए। इस स्थिति
को हमने वीतराग कहा। एक स्थिति है राग की, राग स्वर्ण के प्रति आसक्ति
है। एक स्थिति है वैराग्य की, वैराग्य स्वर्ण के प्रति
विरक्ति है, लेकिन वे दोनों संबंध हैं, उन दोनों में स्वर्ण का
मूल्य है, स्वर्ण में मीनिंग है, स्वर्ण में अर्थ है। एक
तीसरी बात है वीतराग की, राग और विराग से दोनों से अलग, वहां स्वर्ण के
प्रति कोई संबंध नहीं है। वहां जगत के प्रति, संसार के प्रति कोई संबंध
नहीं है।
इस सत्य का उदघाटन कि मेरी सत्ता असंग है, मेरी सत्ता नितांत
भिन्न और पृथक है, जीवन में त्याग को फलित कर देती है। त्याग ज्ञान का फल है।
कोई त्याग करके ज्ञान तक नहीं पहुंचता, ज्ञान उत्पन्न होने से
त्याग फलित होता है। सम्यक ज्ञान प्राथमिक है, सम्यक आचरण उसका परिणाम है।
आचरण नहीं साधना होता, ज्ञान उपलब्ध करना होता है। जो आचरण से प्रारंभ करेंगे, उन्होंने गलत मार्ग
से प्रारंभ किया, उन्होंने गलत छोर से प्रारंभ किया। अज्ञान में आचरण आलोकित
होगा, कल्टीवेटिड होगा, ज्ञान में आचरण सहज होता
है। अज्ञान में क्रोध को दबा कर क्षमा करनी पड़ेगी, ज्ञान में क्रोध उठता ही
नहीं है।
जिन लोगों ने महावीर को कहा है बहुत क्षमावान थे, उन लोगों ने महावीर
के प्रति बहुत असत्य कहा है। महावीर को क्षमावान कहने का अर्थ है कि महावीर में
क्रोध उठता था। महावीर क्षमावान नहीं हैं, असल में महावीर में क्रोध
ही नहीं उठता था। जिसमें क्रोध का अभाव है उसमें क्षमा का अक्षमा का प्रश्न नहीं
उठता। क्षमावान क्रोधी हो सकते हैं अक्रोधी क्षमावान होने का प्रश्न नहीं उठता।
चित्त में भीतर स्वयं के साक्षात से जो ज्ञान उत्पन्न होता
है वह आचरण तो स्वयं ही प्रकाश से भर जाता है। जीवन में मुक्ति का मार्ग आचरण से
नहीं, शील से नहीं, प्रज्ञा के जागरण से
प्रारंभ होता है।
यह प्रज्ञा जागरण, यह स्व-साक्षात कैसे हो? किस विधि मैं अपने
भीतर जागता हूं? किस विधि मैं स्वयं के आमने-सामने खड़ा हो सकता हूं? किस विधि जो सबको
देख रहा है उस सत्ता के साथ मेरा तादात्म्य हो सकता है? अगर उस विधि को
समझना है, तो समझना होगा किस विधि मैं अपने से बाहर हो गया हूं? किस विधि मैं अपने
से बाहर हो गया हूं? अगर मैं यह समझ लूं कि मैं किस विधि अपने से बाहर हो गया, तो उसी पर पीछे वापस
लौटने से मैं स्वयं में पहुंच जाऊं। जिस मार्ग से मैं बाहर आया हूं वही मार्ग भीतर
ले जाने का भी होगा, केवल विपरीत चलना पड़ेगा। जो मार्ग मुझे बंधन में लाया है, वही मार्ग मेरी
मुक्ति का भी होगा, केवल विपरीत चलना पड़ेगा। जो मार्ग मुझे संसार से जोड़े हुए
है वही मार्ग मुझे परमात्मा से जोड़ देगा, केवल विपरीत चलना होगा।
यह हमारा चित्त, यह हमारा मन, यह हमारा विचार हमें
जगत से जोड़ता है। एक क्षण को कल्पना करें अभी कि चित्त में कोई विचार नहीं है, कोई तरंग नहीं है, चित्त निस्तरंग हो
गया है, निर्विचार हो गया है, उस क्षण आप जगत से संबंधित
होंगे क्या? उस क्षण क्या कोई भी संबंध शेष रह जाएगा? उस क्षण जो बाहर
दिखता है उससे क्या कोई भी नाता, कोई भी सेतु रह जाएगा? कोई भी धागे बंधे
हुए रह जाएंगे? कल्पना भी करेंगे तो दिख पड़ेगा। अगर चित्त बिल्कुल निस्तरंग
है, विचार-शून्य है, अगर चित्त में कोई भी
क्रिया नहीं चल रही विचार की..वासना की, कल्पना की, स्मरण की कोई भी
क्रिया नहीं है, सब शून्य है, उस शून्य में आप जगत से
टूटे हुए होंगे, अलग होंगे, प्रमुख होंगे। चित्त विचार
से भरा है तो हम जगत से संयुक्त हैं, शरीर से संयुक्त हैं, अन्य से, पर से संयुक्त हैं।
हमारा बंधन अगर हम बहुत ठीक से समझें, संसार नहीं है, हमारा बंधन विचार
है। हमारा बंधन संसार नहीं है, हमारा बंधन विचार है। संसार
से मुक्त नहीं होना है, विचार से मुक्त होना है। महावीर मुक्त होने के बाद भी संसार
में तो हैं। संसार में तो जीए चालीस वर्ष तक। बुद्ध मुक्त होने के बाद संसार में
जीए तीस वर्ष तक। संसार में तो थे, फिर हो क्या गया था उनमें? वे तो संसार में थे
लेकिन संसार उनमें नहीं था। वे तो संसार में थे लेकिन संसार उनमें नहीं था। हमारे
भीतर संसार के होने का स्थान विचार है, हमारे भीतर संसार की
प्रतिछवि विचार में बनती है, हमारे भीतर विचार है
गृह-संसार का। इसलिए विचार के घेरे को तोड़ देना संन्यास है। विचार के गृह में बद्ध
होकर रहना गृहस्थ होना है। भीतर विचार की दीवाल हमें घेरे हुए है। चैबीस घंटे
उठते-बैठते, सोते-जागते विचार का सतत प्रवाह हमें घेरे हुए है। वही
विचार हमारी अशांति है, वही विचार हमारी उत्तेजना है, वही विचार हमारी उद्विग्न
स्थिति है, वही विचार हमारी ज्वरग्रस्त स्थिति है। इस विचार के विसर्जन
से, इस विचार के शांत होने से, इस विचार के ऊहापोह और
तरंगों के विलीन होने से भीतर एक शांति का दर्पण, भीतर एक शांत चैतन्य की
स्थिति उत्पन्न होती है, उसी शांत में, उसी निर्विघ्न में, उसी अनुद्विग्न में
स्वयं का साक्षात होता है।
मैंने कहा: हम पर के साथ जितने व्यस्त हैं कि स्व का स्मरण
भूल गया। अगर हम पर के साथ अव्यस्त हो जाएं, अगर पर थोड़ी देर को हमारे
भीतर से अनुपस्थित हो जाए, तो स्व का उदघाटन हो जाएगा। इस हॅाल में हम सारे लोग बैठे
हुए हैं, हमने इस हॅाल में जो रिक्तस्थान है उसको भर दिया है, वह कहीं गया नहीं है, इस हाल में जो
रिक्तस्थान है, जो स्पेस है, उसको हमने भर दिया है, वह रिक्तस्थान कहीं
गया नहीं, वह कहीं बाहर नहीं निकल गया। आप जब भीतर आए तो इस हॅाल का
रिक्तस्थान बाहर नहीं निकल गया। अगर उस रिक्तस्थान को वापस उपलब्ध करना हो, तो कहीं बाहर से
लाना नहीं पड़ेगा; अगर हम बाहर हो जाएं, हॅाल वापस रिक्त हो जाएगा।
अगर हम बाहर हो जाएं, तो रिक्तस्थान मौजूद है, हमसे दब गया है, हमसे भर गया है, हमारे निकलते ही
वापस उपलब्ध हो जाएगा।
स्व का स्मरण पर के चिंतन से दब गया है, भर गया है। अगर पर
का चिंतन विसर्जित हो जाए, स्व उदघाटित हो जाएगा। स्व कहीं गया नहीं, स्व निरंतर उपस्थित
है, केवल पर से आच्छादित है। पर से आच्छादन को तोड़ने का मार्ग, समाधि। पर के
आच्छादन को विच्छिन्न करने का मार्ग ज्ञान है। इसलिए चाहे धर्म कोई हो..जैनों का, बौद्धों का, हिंदुओं का, ईसाइयों का; धर्म के चाहे कोई भी
रूप हों लेकिन धर्म के भीतर की प्रक्रिया एक ही है: आच्छादन को विच्छेद कर देने
की। वह जो हम पर छा गया है उसे विसर्जित कर देने की। वह जो हम पर घिर गया है उस
बदली को तोड़ देने की ताकि भीतर के प्रकाश वाले सूरज का उदय हो सके। एक ही छोटे से
सूत्र में समस्त धर्मों का सार संगृहीत है, हम शून्य हो जाएं तो पूर्ण
के हमें दर्शन हो जाएंगे। हम शून्य हो जाएं तो हम समाधि में हो जाएंगे।
कैसे शून्य हो जाएं?
एक छोटा सा विचार भी तो छोड़ा नहीं जाता, समग्र विचार की
प्रक्रिया कैसे छूटेगी? स्वाभाविक है कि मुझसे आप पूछें, एक छोटा सा विचार का
कण तो मन से निकलता नहीं, पूरे विचार की प्रक्रिया कैसे निकलेगी? और विचार तो...तो
उलटा विचार और प्रभावी हो जाता है। एक विचार को निकालना चाहें तो और चार मेहमानों
को साथ लेकर वापस लौट आता है। विचार को निकालने के कभी उपाय अगर किए हों, अगर कभी मंदिर में, मस्जिद में, शिवालय में बैठ कर
प्रभु का स्मरण करने की कोशिश की हो, तो पता होगा, जो विचार सामान्य
जीवन में नहीं आते हैं उस मंदिर के घेरे के भीतर बैठ कर आने शुरू हो जाते हैं।
जब-जब चित्त के साथ चेष्टा की हो कि चित्त शून्य हो जाए, शांत हो जाए, मौन जाए, तभी पाया होगा कि
मौन करने के प्रयास में तो चित्त के भीतर छिपे हुए न मालूम कहां-कहां से विचारों
के धुएं, न मालूम कहां-कहां से विचारों की पर्त, न मालूम कहां-कहां
से विचारों की लहरें आनी शुरू हो जाती हैं। जो वैसे शांत प्रतीत होता था वह शांत
होने की चेष्टा में और भी उद्विग्न, और भी उत्तेजित हो जाता है, और भी उद्वेलित हो
जाता है।
कभी भी थोड़ा सा प्रयोग करेंगे तो पाएंगे कि प्रत्येक प्रयोग, प्रत्येक प्रयास मन
को और भी अशांत कर जाता है। इसलिए साधारणतः वे लोग जो मंदिर में जाते हैं जीवन में
ज्यादा अशांत अनुभव होंगे। वे लोग जो चेष्टा में रत होते हैं चित्त को शांत करने
की, जीवन में ज्यादा उद्विग्न होंगे।
उन ऋषियों के बाबत सुना होगा जो शाप दे दें। जो क्रोध में
किसी को क्या कह दें। आमतौर से जो अनुभव कहते हैं, चित्त से लड़ने वाले लोग
क्रोधी अनुभव होंगे। चित्त के साथ दमन करने वाले लोग अत्यंत क्रोध से, अत्यंत ज्वरग्रस्त
मालूम होंगे। उनकी शांति के नीचे कहीं ज्वालामुखी छिपा हुआ बैठा रहेगा। असल में मन
के साथ दमन, मन के साथ संघर्ष मन को जीतने का उपाय नहीं है। मन से जो
लड़ेगा वह मन को जीतेगा नहीं। मन को जीतने का राज कुछ दूसरा है। इसलिए एक क्षुद्र
विचार को भी संघर्ष से दूर नहीं किया जा सकता है।
तिब्बत में एक साधु हुआ है। उसके पास एक युवक गया था।
तीन-चार वर्ष तक उस युवक ने उस साधु की सेवा की थी और चाहा था कि कोई सिद्धि मिल
जाए। वह साधु टालता गया, टालता गया, उसको कहता रहा, मेरे पास तो कोई
सिद्धि नहीं, सिद्धि नहीं, लेकिन युवक माना नहीं, पीछे पड़ा ही रहा।
साधु ने एक दिन उसे कागज पर एक मंत्र लिख कर दिया था और कहा: इसे ले जा, पांच बार एकांत क्षण
में रात्रि को बैठ कर इसका स्मरण कर लेना और तू जो चाहेगा चमत्कार और सिद्धि तुझे
उपलब्ध हो जाएगी, जा भाग जा। वह युवक भागा, उसी के लिए तो वह तीन वर्ष
से रुका था। वह मंदिर की सीढ़ियां उतर रहा था, आखिरी सीढ़ी उतरने को था, उस साधु ने चिल्ला
कर कहा कि सुनो मित्र! एक बात तो मैं बताना भूल ही गया, एक शर्त अधूरी रह गई, जब पांच बार तुम
मंत्र को पढ़ो, तो याद रखना, बंदर का स्मरण न आए।
वह युवक ने कहा: पागल हुए हो, जिंदगी बीत गई बंदर का
स्मरण नहीं आया, और पांच बार के स्मरण करने में क्यों आएगा? लेकिन वह पूरी
सीढ़ियां भी नहीं उतर पाया था और बंदर ने उसे घेर लिया। वह राह पर चला और बंदर का
बिंब उसके भीतर उठने लगा, वह हटाने लगा और बंदर तो एक नहीं अनेक झांकने लगे, सारा चित्त जैसे
बंदरों की भीड़ से भर गया। वह घर तक पहुंचा तो बंदरों की भीड़ में उसका सारा मन घिर
गया था। वह बहुत हैरान हुआ कि साधु जरूर कुछ अज्ञानी और नासमझ है, अगर बंदर के स्मरण
से मंत्र में बाधा थी तो उस अज्ञानी नासमझ को कहना ही नहीं था, उसने कह कर तो
मुसीबत कर दी। उसने स्नान किया, उसने पवित्र नामों का स्मरण
किया, वह एकांत गांव के बाहर जाकर बैठा, उसने सब उपाय किए
लेकिन बंदर साथ थे। बंदर से अलग होना संभव नहीं रहा। जितना उपाय किया बंदर ही बंदर
थे, आंख खोलता तो उनके प्रतिबिंब, आंख बंद करता तो उनके
प्रतिबिंब, वह सुबह तक तो विक्षिप्त होने लगा, बंदर ही बंदर घेरे
हुए थे। और कोई भी विचार न रहा चित्त में, सारे विचार विलीन थे।
जिन्होंने रोज परेशान किया था वे विचार अब न थे अब केवल एक ही विचार था क्योंकि एक
धारणा ही थी उन्हें अलग करने की।
सुबह-सुबह उसने साधु को जाकर क्षमा मांगी, मंत्र वापस लौटा
दिया।
साधु ने पूछा, क्या दिक्कत हुई?
उसने कहा: अब उसकी बात मत छेड़ो, जो दिक्कत हुई अब
उससे मैं पार नहीं पा सकता। अगर यही शर्त है कि बंदर का स्मरण न आए, तो इस जिंदगी में यह
मंत्र सिद्ध होना संभव नहीं है।
जो उसके साथ हुआ वह प्रत्येक के साथ होगा। होने के पीछे
वैज्ञानिकता है। गलत नहीं हुआ, ठीक हुआ। संघर्ष का परिणाम
है यह, दमन का परिणाम है। उन चीजों का दमन नहीं किया जा सकता जिनकी
कोई पाजिटिव सत्ता, जिनका कोई पाजिटिव एक्झिस्टेंस, जिनकी कोई विधायक
सत्ता नहीं है। जैसे एक कक्ष में अंधेरा भरा हो और हम सारे लोग उस अंधेरे को धक्के
देकर निकालने लगें, तो वह निकलेगा, वह नहीं निकलेगा। आप कहेंगे, हम इतनी ताकत
लगाएंगे फिर भी नहीं निकलेगा? असल में ताकत का प्रश्न ही
असंगत है, अंधेरा है नहीं, अगर होता तो धक्के देने से
निकल सकता था। अंधेरा नकारात्मक है, वह किसी चीज का अभाव है, वह किसी चीज का
सदभाव नहीं है, वह प्रकाश का अभाव है, इसलिए उसे निकाला नहीं जा
सकता। प्रकाश को जला लें, वह नहीं पाया जाता है। निकलता नहीं, स्मरण रखें, प्रकाश को जलाने से
अंधेरा निकल कर बाहर नहीं चला जाता है। प्रकाश के आने से वह नहीं है, वह केवल प्रकाश का
अभाव था, उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं थी। जिन-जिन चीजों की अपनी कोई
सत्ता नहीं है उन्हें धक्के देकर अलग नहीं किया जा सकता। जिनकी अपनी सत्ता है, उन्हें भर अलग किया
जा सकता है।
प्रकाश का अभाव अंधेरा है, ध्यान का अभाव विचार है।
इसलिए विचार को निकालना नहीं होता, ध्यान को जगाना होता है।
ध्यान के जागरण से विचार का विसर्जन हो जाता है। जिस मात्रा में ध्यान जाग्रत होगा
उसी मात्रा में विचार शून्य की तरफ विलीन होते चले जाएंगे। जिस क्षण परिपूर्ण
ध्यान उदभव में आएगा, विचार नकार हो जाते हैं, न हो जाते हैं। विचार से
संघर्ष नहीं, ध्यान के आविर्भाव के लिए प्रयास। ध्यान के आविर्भाव के लिए
पुरुषार्थ। फिर क्या अर्थ हुआ ध्यान का? ध्यान का अर्थ है: चित्त को
जागरूक, चित्त को अवेयरनेस, चित्त को विवेक से भरना।
महावीर ने अपने साधुओं से कहा था: जागो तो विवेक से, सोओ तो विवेक से, चलो तो विवेक से, उठो, बैठो तो विवेक से।
क्या अर्थ है विवेक का? विवेक का अर्थ है: परिपूर्ण जागरूक, होश से भरे हुए।
समस्त शरीर की क्रियाओं के प्रति, मन की समस्त क्रियाओं के
प्रति होश से भरे हुए। मन के प्रति जागरूक बनो, साक्षी बनो, मन से लड़ो मत, विचार के प्रवाह के
प्रति द्रष्टा बनो, तटस्थ द्रष्टा बनो, केवल देखते रह जाओ। विचार
को विसर्जित करना है: केवल विचार को देखते रह जाओ, मात्र द्रष्टा रह जाओ, कुछ करो नहीं, केवल होश से भर कर
विचार के प्रवाह को देखो अनित्य अपूर्व भाव से, जैसे राह पर लोग निकलते हों, जैसे राह पर रोज
राहगीर निकलते हैं और मैं किनारे खड़े चुपचाप देख रहा हूं।
मन के मार्ग पर चलते हुए विचार की परंपरा को, मन के मार्ग पर चलते
हुए विचार की भीड़ को चुपचाप खड़े होकर देखने का प्रयोग करना होता है। लड़ना नहीं
होता, उनको छेड़ना नहीं होता, उनको रोकना नहीं होता, उन्हें धक्के नहीं
देने होते, उन पर शुभ और अशुभ के निर्णय नहीं लेने होते, उनका कंडेमनेशन नहीं
करना होता, क्योंकि जैसे ही हमने उनके साथ कुछ किया, प्रवाह तीव्र और
त्वरित हो जाएगा। केवल देखना होता है, मात्र द्रष्टा का प्रयोग
करना होता है। और क्रमश: जिस-जिस मात्रा में भीतर मूच्र्छा टूटेगी और विचार के
प्रवाह के प्रति जागरूकता आएगी उसी मात्रा में विचार विलीन होने लगते हैं।
सी एम जोन पश्चिम का एक बड़ा विचारक था, उसने लिखा है: मैं
जीवन भर विचारों से भरा रहा। एक दफा एक मनोविश्लेषक के पास गया। उसने एक पर्दे के
पीछे मुझे एक कोच पर लिटा दिया, पर्दे के दूसरी तरफ खुद खड़ा
हो गया और मुझसे बोला, जो भी विचार चित्त में आ रहे हों, उन्हें देख कर जोर
से बोलते चले जाओ। जोन ने लिखा है: मैंने भीतर देखा, जो विचार आएं उनको बोलूं, मैं भीतर देखने लगा, टटोलने लगा और मैं
बहुत हैरान हो गया, वहां कोई विचार ही आ नहीं रहा था, वहां कोई विचार आ ही
नहीं रहा था। जोन ने लिखा: मैं चकित हो गया। जीवन भर सोते-जागते जिनका प्रवाह नहीं
टूटा था, आज मैं खोजने गया था भीतर और वे नदारद थे, वे अनुपस्थित थे।
भीतर आंख पहुंची और विचार आंख को नहीं सहता है। जैसे प्रकाश को अंधेरा नहीं सह
पाता वैसे भीतर आंख पहुंची, भीतर देखने का प्रयास पहुंचा, भीतर जागरूकता पहुंची, विचार शून्य होने
लगेगा, उसकी श्वास टूट जाएगी, उसके प्राण निकल जाएंगे।
सतत उठते-बैठते, सोते-जागते विचार के प्रति
जो तंद्रा है उसको तोड़ना ध्यान है, उसके प्रति जागरूक होना
ध्यान है।
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है, वह मैं कहूं, उससे मेरी बात समझ
में आ सकेगी।
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हुआ, उसका नाम श्रोण था।
दीक्षा के दूसरे दिन बुद्ध ने कहा: मेरी एक श्राविका है, उसके घर जाकर भिक्षा
ले आना। वह उस श्राविका के घर भिक्षा लेने गया। उसे सारे जीवन की स्मृतियां कौंध
गईं आंखों में। कल तक वह राजकुमार था, आज उसी मार्ग पर भिक्षा का
पात्र लिए चलता था। स्वाभाविक था, पूरा जीवन उसे दौड़ जाए। उसे
मार्ग में यह भी स्मरण आया, कल तक घर में पत्नी थी, मां थी, जो मुझे प्रिय था
भोजन वह उपलब्ध होता था, आज तो अनजाने द्वार न मालूम क्या मिलेगा, उसे सारे सुस्वादु
भोजन जो उसे सदा प्रिय रहे, स्मरण आए।
वह श्राविका के घर जाकर भोजन करता था, देख कर हैरान, चकित हो गया, जो भोजन उसे प्रिय
थे वे ही उसे परोसे गए थे। कुछ सोचा, अजीब सा संयोग है। फिर यह
मान कर कि शायद आज ये ही भोजन बने होंगे, वह चुपचाप भोजन करने लगा। भोजन
करता था तो उसे स्मरण आया, रोज तो घर में भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करता था, आज तो भोजन के बाद
दो मील दोपहरी में चलना है। वह श्राविका सामने पंखा झलती थी, उसने कहा: भंते, भोजन के बाद दो क्षण
विश्राम करेंगे तो मुझ पर अत्यंत अनुग्रह होगा।
वह थोड़ा चैंका! सोचा, क्या बात है? फिर याद आया संयोग
ही होगा कि मुझे भी उसी वक्त विचार आया और उसे भी विचार आ गया। चटाई डाल दी गई, वह भोजन के बाद
विश्राम के लिए लेटा था, लेटते ही उसे याद आया, आज अपना न तो कोई साया है, न कोई शय्या है। वह
श्राविका निकट ही थी, उसने कहा: भंते, शय्या किसी की भी नहीं, साया किसी का भी
नहीं।
अब संयोग होना कठिन था। वह चैंक कर उठ बैठा, उसने कहा: मैं हैरान
हूं, क्या मेरे विचार पढ़ लिए जाते हैं? क्या मेरे विचार
अंकलित हो जाते हैं?
श्राविका ने कहा: ध्यान का सतत जागरूकता का प्रयोग
करते-करते पहले स्वयं के विचार दीखे, फिर स्वयं के विचार
विसर्जित हो गए। अब तो मैं हैरान हूं, दूसरे के विचार भी दिखते
हैं।
वह भिक्षु घबड़ा गया, वह बोला, अब मुझे जाने दें, उसके हाथ-पैर कंप
गए।
श्राविका ने कहा: क्या घबड़ाने की बात है। लेकिन उसके माथे
पर पसीने की बूंद आ गई। श्राविका ने कहा: इतने परेशान होने की क्या बात है।
लेकिन वह भिक्षु तो वापस विदा लेकर चल पड़ा। उसने बुद्ध से
जाकर कहा: मैं उस द्वार दुबारा नहीं जाऊंगा।
बुद्ध ने कहा: कोई असम्मान हो गया।
उस श्रोण ने कहा: असम्मान नहीं, पूरा सम्मान हुआ, बहुत प्रीतिकर
सत्कार हुआ, लेकिन मैं उस द्वार पर दुबारा नहीं जाऊंगा। वह श्राविका
दूसरे के विचार पढ़ लेती है। और आज उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो वासना
भी उठी, तो वह भी पढ़ ली गई होगी। उसने क्या सोचा होगा? कल उसी द्वार पर इस
चेहरे को कैसे ले जाऊं? किस भांति मैं उसके सामने खड़ा होऊंगा?
बुद्ध ने कहा: वहीं जाना होगा। जान कर तुझे भेजा है। तेरी
साधना का अंग है वहां जाना। लेकिन तू होश से जाना, घबड़ा मत। अपने भीतर देखते
हुए जाना कि क्या उठता है, लड़ना मत। जो भी वासना उठे, देखते हुए जाना। विचार उठे, देखते हुए जाना।
केवल देखते हुए जाना, कुछ मत करना। फिर लौट कर मुझे कहना।
मजबूरी थी, श्रोण को वहीं जाना पड़ा। आज
वह बहुत नये ढंग से गया। कल सोया हुआ गया था उसी मार्ग पर, तंद्रित था, मूच्र्छित था, होश न था, विचार चलते थे
मूच्र्छा में, आज वह आंख गड़ाए हुए जागरूक सा देखता हुआ गया। देखता हुआ गया, एक-एक विचार के
प्रति होश से भरा था, अलर्ट था। वह हैरान हो गया, भीतर देखता था सन्नाटा हो
जाता था, भीतर से तंद्रा गहरी होती थी, बाहर देखता था, विचार का प्रवाह
चलने लगता था। जब बाहर देखता, भीतर विचार चलने लगता; जब भीतर देखता, विचार शून्य हो
जाता। वह सीढ़ियों पर चढ़ा, तो उसको श्वास भी पता चल रही थी, श्वास भी दिखाई पड़
रही थी भीतर आती-जाती। पैर उठाए, तो उसका भी होश था। खाना
खाया, पैर उठाया, तो उसका भी परिपूर्ण स्मरण
था। श्वास की गति का भी हलका स्पंदन भी ज्ञात हो रहा था। वह नाचता हुआ वापस लौटा
था। वह बुद्ध के पैरों में गिर पड़ा था। उसने कहा था, मुझे तो रहस्य का सूत्र मिल
गया।
बुद्ध ने कहा: क्या हुआ?
उसने कहा: जब मैं भीतर जाग कर देखता था, तो पाता था, विचार नहीं हैं। जब
मैं होश में होता था, विचार अनुपस्थित होते थे; जब मैं बेहोश होता था, विचार उपस्थित हो
जाते थे।
बुद्ध ने कहा: मूच्र्छा मन है, अमूच्र्छा मन के पार
ले जाती है।
महावीर ने भी कहा है: प्रमत्त होना बंधन है, अप्रमत्त होना
मुक्ति है। प्रमत्तता का अर्थ है: मूच्र्छा, बेहोशी; मन के प्रति, मन की क्रियाओं के
प्रति। अप्रमत्तता का अर्थ है: जागरूकता, अवेयरनेस, होश। होश, जागरूकता के माध्यम
से मन विसर्जित हो जाता है, चिंतन विसर्जित हो जाता है, विचार की लहरें सो जाती हैं, उनकी सुप्त स्थिति
में उनसे जो आच्छादित था उसका उदघाटन हो जाता है। उसका उदघाटन मुक्ति है, उसका उदघाटन बंधन के
बाहर पहुंच जाना है। उसके उदघाटन पर जीवन एक नये डायमेंशन में, एक नये आयाम में, एक नये क्षितिज में
स्थापित होता जाता है।
जिन्होंने उस मुक्त जीवन क्षण को अनुभव किया है वे अनंत
आनंद के मालिक हो गए हैं। जिन्होंने उस मुक्त क्षण का अनुभव किया है वे अनंत शक्ति
के मालिक हो गए हैं। और उन सारे लोगों का आश्वासन है, जो भी व्यक्ति कभी
भी अपने भीतर झांकेगा वह प्रभु के एक अदभुत राज्य का मालिक हो सकता है। यह आश्वासन
प्रत्येक को है, कोई भी अपात्र नहीं है। जीवन के और संबंधों में एक की
क्षमता कम होगी दूसरे की ज्यादा होगी, आत्मिक जीवन में सबकी
क्षमता समान है। कोई भी अपात्र नहीं हो सकता। आत्मिक जीवन में प्रत्येक की क्षमता
समान है। केवल उस जागरण को पुकारने की, केवल अपने भीतर उसको जगाने
की, केवल अपने भीतर उस प्यास को पैदा करने की बात है।
जो ठीक है अपने भीतर थोड़े प्रयोग, थोड़े से जागरूकता से
प्रयोग करेगा, वह ठीक संसार के बीच मुक्ति के आनंद को अनुभव कर सकता है।
अंततः यह जो मैंने कहा: यह किन्हीं विशिष्ट लोगों के लिए नहीं कहा है, यह आपमें से
प्रत्येक के लिए कहा है। यह हममें से प्रत्येक के लिए कहा है। जो हड्डी और मांस
महावीर की देह को बनाते थे, वे ही हड्डी और मांस हमारी देह को बनाते हैं। जो चेतना उनके
उस देह के भीतर स्थापित थी, वही चेतना हमारी देह के भीतर भी स्थापित है। एक कण का भी
अंतर नहीं है, एक कण का भी अंतर नहीं हो सकता है। फिर हमें अपमानित होना
चाहिए।
हम मंदिरों में पूजा करते हैं, हमें असल में महावीर, बुद्ध और ईसा को देख
कर अपमानित होना चाहिए, हमें आत्मनिंदित होना चाहिए। उनकी श्रद्धा और आदर में कहीं
हम अपने अपमान को तो नहीं छिपा रहे हैं? उन्हें देख कर हमारे भीतर
कोई अपमान नहीं सताता? हमें ऐसा नहीं होता कि इसी शरीर, इसी चैतन्य को वे
किस परम प्रभु तक पहुंचा दिए और हम? हम उसे कहां पशु के घेरे
में घुमा रहे हैं। क्या हमारे भीतर अपमान नहीं सरकता? अगर मंदिर और उसमें
विराजमान मूर्तियां हमें अपमानित नहीं करती हैं, तो मंदिर व्यर्थ हैं, वे मूर्तियां व्यर्थ
हैं। हम श्रद्धा की गुहार में और पूजा और अर्चना में और उनके नाम के स्मरण में
अपने आत्म-अपमान को बुला देते हैं। उस अपमान को मैं स्मरण दिलाना चाहता हूं। और
अगर हमारे भीतर कोई प्यास सरक जाए और अपमान पकड़ ले, और कोई पुरुषार्थ, कोई संकल्प पैदा हो
जाए कि जो किन्हीं लोगों ने कभी उपलब्ध किया है, हम भी, मैं भी उपलब्ध
करूंगा, मुझे भी उपलब्ध करना है, मैं भी बिना उपलब्ध किए
अपने इस जीवन को व्यर्थ खोने को नहीं हूं। अगर यह संकल्प पकड़ जाए, तो जीवन अदभुत, जीवन अदभुत, निश्चित ही अदभुत
क्रांति घटित हो सकती है।
प्रभु करे वह क्रांति प्रत्येक के जीवन में घटित हो जाए, यही मेरी कामना है।
और अंत में सबके भीतर बैठे हुए उस परम प्रकाशमान प्रभु को मैं प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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