सूत्र:
बिनु
देखे उपजै नहि
आसा। जो दीसै
सो होई बिनासा।।
बरन
सहित जो जापै
नामु। सो जोगी
केवस निहकामु।।
परचै
राम रवै जो
कोई। पारसु
परसै ना
दुबिधा होई।।
सो
मुनि मन की
दुबिधा खाइ।
बिनु द्वारे
त्रैलोक
समाई।।
मन
का सुभाव सब
कोई करै। करता
होई सु अनभे
रहै।।
फल
कारण फूली
बनराइ। फलु
लागा तब फूल
बिलाई।।
ग्यानै
कारन कर अभ्यासू।
ग्यान भया
तहं करमैं
नासू।।
घृत
कारन दधि मथै
सयान जीवन
मुकत सदा
निरवान।।
कहि
रविदास परम
बैराग। रिदै
राम को न जपसि
अभाग।।
सह
की सार
सुहागिनि
जानै। तजि
अभिमान सुख
रलिया मानै।।
तनु
मनु न सुनै
अंतर राखै।
अबरा देखि न
सुनै न माखै।।
सो
कत जाने पीर
पराई। जाकै
अंतर दरद न
पाई।।
दुःखी
दुहागिन दुइ
पखहीनी। जिनि
नाह निरंतरि
भगति न कीनी।।
राम—प्रीति
का पंथ
दुहेला। संगि
न साथी गवन
अकेला।।
दुखिया
दरदमंद दरि
आया। बहुतै प्यास
जबाब न पाया।।
कहि
रविदास सरनि
प्रभु तेरी।
ज्यूं जानहु
त्यूं करू
गति मेरी।।
भारत
का आकाश संतों
के सितारों से
भरा है। अनंत—अनंत
सितारे हैं, यद्यपि
ज्योति सबकी
एक है। संत
रैदास उन सब
सितारों में
ध्रुवतारा
हैं— इसलिए कि
शूद्र के घर
में पैदा होकर
भी काशी के
पंडितों को भी
मजबूर कर दिया
स्वीकार करने
को। महावीर का
उल्लेख नहीं
किया
ब्राह्मणों
ने अपने
शास्त्रों
में। बुद्ध की
जड़ें काट
डालीं, बुद्ध
के विचार को
उखाड़ फेंका।
लेकिन रैदास
में कुछ बात
है कि रैदास
को नहीं उखाड़
सके और रैदास
को स्वीकार भी
करना पड़ा।
ब्राह्मणों
के द्वारा
लिखी गई संतों
की स्मृतियों
में रैदास सदा
स्मरण किए गए।
चमार के घर
में पैदा होकर
भी
ब्राह्मणों
ने स्वीकार
किया— —वह भी
काशी के
ब्राह्मणों
ने! बात कुछ
अनेरी है, अनूठी
है।
महावीर
को स्वीकार
करने में अड़चन
है,
बुद्ध को
स्वीकार करने
में अड़चन है।
दोनों
राजपुत्र थे
जिन्हें
स्वीकार करना
ज्यादा आसान
होता। दोनों
श्रेष्ठ वर्ण
के थे, दोनों
क्षत्रिय थे।
लेकिन उन्हें
स्वीकार करना
मुश्किल पड़ा।
रैदास
में कुछ रस है, कुछ
सुगंध है— जो
मदहोश कर दे।
रैदास से बहती
है कोई शराब, कि जिसने पी
वही डोला। और
रैदास अड्डा
जमा कर बैठ गए
थे काशी में, जहां कि
सबसे कम
संभावना है
जहां का पंडित
पाषाण हो चुका
है। सदियों का
पांडित्य
व्यक्तियों
के हृदयों को
मार डालता है,
उनकी आत्मा
को जड़ कर देता
है। रैदास
वहां खिले, फूले। रैदास
ने वहां
हजारों
भक्तों को
इकट्ठा कर लिया।
और छोटे—मोटे
भक्त नहीं, मीरा जैसी
अनुभूति को
उपलब्ध महिला
ने भी रैदास
को गुरु माना!
मीरा ने कहा
है. गुरु
मिल्या रैदास
जी! कि मुझे
गुरु मिल गए
रैदास। भटकती
फिरती थी, बहुतों
में तलाशा था
लेकिन रैदास
को देखा कि
झुक गई। चमार
के सामने
राजरानी झुके
तो बात कुछ
रही होगी। यह
कमल कुछ अनूठा
रहा होगा!
बिना झुके न
रहा जा सका
होगा।
रैदास
कबीर के
गुरुभाई हैं।
रैदास और कबीर
दोनों एक ही
संत रामानंद
के शिष्य हैं!
रामानंद
गंगोत्री हैं
जिनसे कबीर और
रैदास की
धाराएं बही
हैं। रैदास के
गुरु हैं
रामानंद जैसे
अदभुत व्यक्ति; और
रैदास की
शिष्या है
मीरा जैसी
अदभुत नारी! इन
दोनों के बीच
में रैदास की
चमक अनूठी है।
रामानंद
को लोग भूल ही
गए होते अगर
रैदास और कबीर
न होते। रैदास
और कबीर के
कारण रामानंद
याद किए जाते हैं।
जैसे
फल से वृक्ष
पहचाने जाते
हैं वैसे
शिष्यों से
गुरु पहचाने
जाते हैं।
रैदास का अगर
एक भी वचन न
बचता और सिर्फ
मीरा का यह
कथन बचता, गुरु
मिल्या रैदास
जी, तो
काफी था।
क्योंकि
जिसको मीरा
गुरु कहे, वह
कुछ ऐसे—वैसे
को गुरु न कह
देगी। जब तक
परमात्मा
बिलकुल साकार
न हुआ हो तब तक
मीरा किसी को
गुरु न कह
देगी। कबीर को
भी मीरा ने
गुरु नहीं कहा
है, रैदास
को गुरु कहा।
इसलिए
रैदास को मैं
कहता हूं,
वे भारत के
संतों से भरे
आकाश में
ध्रुवतारा हैं।
उनके वचनों को
समझने की
कोशिश करना।
रैदास
इसलिए भी
स्मरणीय हैं
कि रैदास ने
वही कहा है जो
बुद्ध ने कहा
है। लेकिन
बुद्ध की भाषा
ज्ञानी की
भाषा है, रैदास
की भाषा भक्त
की भाषा है, प्रेम की
भाषा है। शायद
इसीलिए बुद्ध
को तो उखाड़ा
जा सका, रैदास
को नहीं उखाड़ा
जा सका। जिसकी
जड़ों को प्रेम
से सींचा गया
हो उसे उखाड़ना
असंभव है।
बुद्ध के साथ
तर्क किया जा
सका, बुद्ध
के साथ विवाद
किया जा सका, रैदास के
साथ तर्क नहीं
हो सकता, विवाद
नहीं हो सकता।
रैदास को तो
देखोगे तो या
तो दिखाई
पड़ेगा तो झुक
जाओगे, नहीं
दिखाई पड़ेगा
तो लौट जाओगे।
प्रेम के
सामने झुकने
के सिवाय और
कोई उपाय नहीं
है, क्योंकि
प्रेम
परमात्मा का
प्रकटीकरण है,
अवतरण है।
बुद्ध
की भाषा बहुत
मंजी हुई है
राजपुत्र की भाषा
है। शब्द नपे—तुले
हैं। शायद कभी
कोई मनुष्य
इतने नपे—तुले
शब्दों में
नहीं बोला
जैसा बुद्ध
बोले हैं।
लेकिन बुद्ध
को भी तर्क का
तूफान सहना
पड़ा और बुद्ध
की भी जड़ें
उखड़ गईं। भारत
से बुद्ध धर्म
विलीन हो गया।
रैदास ने फिर
बुद्ध की
बातें ही कही
हैं पुन:, लेकिन
भाषा बदल दी, नया रंग
डाला। पात्र
वही था, बात
वही थी, शराब
वही थी—नई
बोतल दी। और
रैदास को नहीं
उखाड़ा जा सका।
यह
जान कर तुम
हैरान होओगे
कि चमार मूलत:
बौद्ध हैं! जब
भारत से बौद्ध
धर्म उखाड़
डाला गया और
बौद्ध
भिक्षुओं को
जिंदा जलाया
गया और बौद्ध
दार्शनिकों
को खदेड़ कर
देश के बाहर
कर दिया गया, तो
एक लिहाज से
तो यह अच्छा
हुआ। क्योंकि
इसी कारण पूरा
एशिया बौद्ध
हुआ। कभी—कभी
दुर्भाग्य
में भी
सौभाग्य छिपा
होता है।
जैन
नहीं फैल सके
क्योंकि
जैनों ने
समझौते कर लिए।
बच गए, लेकिन
क्या बचना! आज
कुल तीस—पैंतीस
लाख की संख्या
है। पांच हजार
साल के इतिहास
में तीस—पैंतीस
लाख की संख्या
कोई संख्या
होती है! बच तो
गए, किसी
तरह अपने को
बचा लिया, मगर
बचाने में सब
गंवा दिया।
बौद्धों
ने समझौता
नहीं किया, उखड़
गए। टूट गए, मगर झुके
नहीं। और उसका
फायदा हुआ।
फायदा यह हुआ
कि सारा एशिया
बौद्ध हो गया।
क्योंकि जहां
भी बौद्ध—दार्शनिक
और मनीषी गए, वहीं उनकी
प्रकाश—किरणें
फैलीं, वहीं
उनका रस बहा, वहीं लोग
तृप्त हुए।
चीन, कोरिया......
दूर—दूर तक
बौद्ध धर्म
फैलता चला गया।
इसका श्रेय
हिंदू
पंडितों को है।
जो
भाग सकते थे
भाग गए। भागने
के लिए सुविधा
चाहिए, धन
चाहिए। जो
नहीं भाग सकते
थे—
इतने दीन थे, इतने
दरिद्र थे— वे
हिंदू जमात
में सम्मिलित
हो गए। लेकिन
हिंदू जमात
में अगर
सम्मिलित होओ
तो सिर्फ
शूद्रों में
ही सम्मिलित
हो सकते हो।
ब्राह्मण तो
जन्म से
ब्राह्मण
होता है, और
क्षत्रिय भी
जन्म से
क्षत्रिय
होता है, और
वैश्य भी।
सिर्फ अगर
किसी को हिंदू
धर्म में
सम्मिलित होना
है तो एक ही
जगह रह जाती
है— शूद्र, अछूत।
वह असल में
हिंदू धर्म के
बाहर ही है, मंदिर के
बाहर ही है।
हो जाओ शूद्र
अगर बचना है
तो।
तो
जो बौद्ध बच
गए और नहीं
भाग सके और
मजबूरी में
सम्मिलित
होना पड़ा
हिंदू धर्म
में,
वे ही बौद्ध
चमार हैं, वे
ही बौद्ध चमार
हो गए। और
क्यों चमार हो
गए? एक
कारण। कभी
किसी ने सोचा
भी न होगा
बुद्ध के समय
में कि यह
कारण इतना बड़ा
परिणाम लाएगा।
जिंदगी बड़ी
रहस्यपूर्ण
है।
महावीर
ने कहा है
मांसाहार
हिंसा है, पाप
है। और ठीक
कहा है। दूसरे
को दुख देना, हत्या करना—
भोजन के लिए—
इससे बड़ा पाप
और क्या होगा!
और फिर यह बात
कहां रुकेगी?
अगर पशु—पक्षियों
को खाओगे तो
मनुष्य को
खाने में क्या
हर्ज है?
कल
अखबार में
मैंने देखा, मध्य
अफ्रीका का
सम्राट
बोकासो
पदच्युत हो गया
है, बगावत
हो गई है।
उसके घर उसके
चौके में, उसके
फ्रिज में
आदमी का मांस
पाया गया।
फिर
बातें रुकती
नहीं। जब पशु
का मांस खा
सकते हो तो
आदमी का मांस
खाने में क्या
हर्जा है! और
आदमी का मांस
स्वभावत सबसे
ज्यादा स्वादिष्ट
है और सुपाच्य
है;
मेल भी
तुमसे उसका
बहुत खाएगा।
और छोटे—छोटे
बच्चों का
मांस तो बहुत
स्वादिष्ट है।
बात कहां
रुकेगी फिर, फिर आदमी
अगर
मांसाहारी है
तो उसका अंतिम
तार्किक
निष्कर्ष
होगा कि वह
आदमखोर हो
जाएगा।
और
आदमखोर हो
जाने से बड़ा
पतन नहीं है, क्योंकि
इस दुनिया में
कोई पशु अपनी
जाति के पशुओं
को नहीं खाता।
कुत्ता
कुत्ते का
मांस नहीं
खाएगा, कुत्ता
कुत्ते को मार
भी नहीं डालता।
सिंह भी सिंह
को नहीं मारता
है और उसका
मांस नहीं
खाता है।
सिर्फ आदमी...।
आदमी गिरे तो
इतना गिर सकता
है, उठे तो
इतना उठ सकता है!
आदमी एक सीढ़ी
है, जिसका
एक छोर नरक
में लगा है, दूसरा छोर
स्वर्ग में।
महावीर
ने कहा था
मांसाहार पाप
है और ठीक कहा था।
लेकिन बुद्ध
हमेशा चीजों
को बहुत तौल
कर कहते थे।
इस संबंध में
भी उन्होंने
तौल कर
वक्तव्य दिया।
उन्होंने कहा
मांसाहार पाप
है। लेकिन अगर
कोई जानवर मर
ही गया हो तो
उसके
मांसाहार में
क्या पाप हो
सकता है!
यह
तार्किक
दृष्टि से बात
बिलकुल सही है।
मारने में पाप
है। किसी को
मार कर मत खाओ।
लेकिन अपने आप
मर गया कोई
पशु,
उसके मांस
के खाने में
क्या हर्जा
है! तुम मार तो
नहीं रहे, तुम
हिंसा तो नहीं
कर रहे, तुम
हत्या तो नहीं
कर रहे। यह
बात
तर्कयुक्त तो
है, लेकिन
तर्क से कहीं
जीवन चला है? आज सारे
बौद्ध देशों
में हर होटल
पर यह तख्ती लगी
होती है कि
यहां मरे हुए
पशु के मांस
को ही बेचा
जाता है, केवल
मरे हुए पशुओं
का मांस ही
बेचा जाता है।
करोड़ों—करोड़ों
लोगों के लिए
रोज—रोज इतने
पशु मरते कहां
हैं? अपने
आप! और अगर पशु
अपने आप मरते
हैं तो इतने—इतने
बड़े बूचड़खाने
कौन चलाता है?
और किसलिए
चलाता है? जैसे
भारतीय
होटलों में
लिखा रहता है.
यहां शुद्ध घी
का उपयोग किया
जाता है; ऐसे
चीन और जापान
में लिखा होता
है यहां केवल अपने
आप मरे हुए
जानवर का मांस
ही बिकता है।
रास्ता
मिल गया।
बुद्ध ने तो
बड़ी
तर्कयुक्त
बात कही थी, महावीर
से ज्यादा
तर्कयुक्त
बात कही थी।
बात
तर्कयुक्त थी,
लेकिन
महावीर जीवन
के जाल को
ज्यादा समझते
हुए मालूम
पड़ते हैं।
उनकी बात उतनी
तर्कयुक्त
नहीं है, लेकिन
वे जानते हैं
आदमी को
सुविधा दो तो
उस सुविधा में
से और
सुविधाएं
निकाल लेगा।
अच्छा है
दरवाजा
बिलकुल बंद कर
दो। बुद्ध ने
दरवाजा खुला
रखा। बुद्ध
सोचते हैं.
जितनी बुद्धि
से मैं जीता हूं, उतनी ही
बुद्धि से लोग
भी जीएंगे। यह
अपेक्षा मत
करो, यह
अपेक्षा गलत
है।
चमार
भारत में
अकेली जाति है
जो मरे हुए
जानवर का मांस
खाती है। और
यही प्रमाण है
उनका कि वे
बौद्ध थे कभी।
और दूसरे
प्रमाण भी हैं, लेकिन
यह बहुत बड़ा
प्रमाण है कि
वे बौद्ध थे।
क्योंकि भारत
में कोई दूसरी
जाति मरे हुए
जानवर का मांस
नहीं खाती।
इसी
आधार पर
डॉक्टर
अंबेदकर ने यह
निर्णय किया
कि चमारों को, कम
से कम, और
संभव हो तो
सभी शूद्रों
को पुन: बौद्ध
हो जाना चाहिए,
क्योंकि
मूलत: हम
बौद्ध थे।
रैदास
चमार हैं।
जैसे किसी गहन
अंतस्तल में
बुद्ध अब भी
गंज रहे हैं!
वही आग। लेकिन
रैदास ने उस
आग को आग नहीं
बनने दिया, उस
आग को रोशनी बना
लिया। आग जला
भी सकती है और
प्रकाश भी दे
सकती है।
बुद्ध के वचन
अंगारों जैसे
हैं। बड़ा साहस
चाहिए उन्हें
पचाने का।
अंगारे
पचाओगे तो
साहस तो चाहिए
ही चाहिए।
रैदास के वचन
फूलों जैसे
हैं। पचा
जाओगे तब पता
चलेगा कि आग
लगा गए। आग के
फूल हैं! आग की
फुलझड़ियां
हैं! देखने
में फूल लगते
हैं।
इसलिए
बुद्ध तो
स्वीकार नहीं
हो सके लेकिन
रैदास को
हिंदुओं ने
भक्त—शिरोमणि
कहा है।
भक्तमाल में
रैदास को और
भक्तों के साथ
गिना गया है।
लेकिन
हिंदू पंडित
स्वीकार भी
करे तो भी
अपने पांडित्य
से कुछ न कुछ
बेईमानिया
निकाल लेता है।
उसने
बेइमानियां
निकाल लीं।
जैसे बुद्ध के
संबंध में
उसने कथा गढ़
ली,
क्योंकि
बुद्ध की इतनी
प्रतिभा थी कि
एकदम इनकार
करो तो भी
नुकसान होता
है। क्योंकि
अगर बुद्ध को
इनकार कर दो
तो भारत की प्रतिभा
क्षीण हो जाती
है। आखिर भारत
ने बुद्ध से
बड़ा बेटा तो
पैदा किया
नहीं! जैसे
यहूदियों ने
जीसस से बड़ा
बेटा पैदा
नहीं किया, ऐसे हिंदुओं
ने कभी बुद्ध
से बड़ा बेटा
पैदा नहीं
किया। बुद्ध
को इनकार करना,
पूरी तरह
इनकार करना, तो अपने ही
पैरों पर
कुल्हाड़ी मार
लेने जैसा है।
आज
दुनिया में
अगर भारत की
कोई प्रतिष्ठा
है तो उस
प्रतिष्ठा
में पचास
प्रतिशत हाथ
तो बुद्ध का
है। अगर लोग
भारत को याद
करते हैं तो
बुद्ध के कारण
याद करते हैं।
अगर सारा
एशिया भारत के
प्रति सम्मान
से देखता है
और भारत को
तीर्थ मानता
है तो बुद्ध
के कारण। जैसे
सारे मुसलमान
मक्का की
यात्रा करते हैं, ऐसे
सारे बौद्धों
के मन में, करोड़ों—करोड़ों
बौद्धों के मन
में एक ही
अभीप्सा होती है
कि कभी
बुद्धगया, कभी
भारत की भूमि
पर पैर पड़
जाएं! भारत ने
इतना बड़ा
दूसरा बेटा
पैदा नहीं
किया।
इसलिए
ब्राह्मणों
ने बुद्ध के
विचार को तो
इनकार किया, लेकिन
बुद्ध से जो
लाभ हो सकता
है उसको बचाने
के लिए तरकीब
खोज ली।
उन्होंने एक
कहानी गढ़ी।
कहानी गढ़ी कि
जब भगवान ने
स्वर्ग और नरक
बनाए तो
हजारों—हजारों
वर्ष बीत जाने
के बाद भी नरक
में कोई प्रवेश
नहीं किया।
क्योंकि कोई
पाप करता ही
नहीं था—
सतयुग। कोई
पाप करे तो
नरक जाए।
शैतान और उसके
शिष्य
बैठे—बैठे
थक गए, ऊब गए।
अपनी—अपनी
फाइलें खोले
बैठे हैं
दफ्तरों में,
लेकिन न कोई
आता न कोई
जाता और नरक
खाली पड़ा है।
आखिर
शैतान ने
परमात्मा से
प्रार्थना की
कि क्यों यह
व्यर्थ खोल
रखा है? जब
ग्राहक ही
नहीं हैं तो
यह दुकान
चलाने से फायदा
क्या है? बंद
करो! हम थक गए
हैं, हम ऊब
गए। तो भगवान
ने कहा. घबड़ाओ
मत। क्योंकि
भगवान तो
करुणावान हैं!
उन्होंने कहा.
घबड़ाओ मत। मैं
जल्दी ही
बुद्ध के रूप
में अवतार
लंगूा और
लोगों के
मस्तिष्कों
को भ्रष्ट
करूंगा। एक
बार उनके
मस्तिष्क
भ्रष्ट हुए, वे पाप करने
लगेंगे, नरक
भर जाएगा, घबड़ाओ
मत।
और
तब भगवान ने
शैतान पर
करुणा करके
बुद्धावतार
लिया। इसलिए
बुद्ध को
हिंदुओं ने
दसवां अवतार
मान लिया।
बुद्ध का
अवतार लिया और
लोगों के मन
को विक्षिप्त
किया, गलत—सलत
बातें समझाई,
भ्रांत
किया, भटकाया,
उलझाया। और
लोग धीरे—
धीरे पाप करने
लगे।
अब
तो हालत यह है
कि नरक में भी
पहले से
बुकिंग करवानी
होती है। एकदम
से आज ही मर
जाओ तो तुम यह
आशा मत करना
कि नरक में
जगह मिल जाएगी।
बाहर ही पड़े
रहोगे महीनों, कतार
लगी हुई है।
यह सब बुद्ध
की कृपा!
तो
देखते हो तुम
हिंदू
बेईमानी!
बुद्ध को इनकार
करें तो
उन्हें लगा कि
यह तो भारी
नुकसान हो
जाएगा—बिलकुल
इनकार करना।
और बुद्ध को
इनकार तो करना
ही होगा, क्योंकि
बुद्ध को
इनकार न करें
तो पांडित्य कैसे
चले, पुरोहित
कैसे चले, यज्ञ—हवन
कैसे चलें, यह धोखाधड़ी
और यह धंधा जो
धर्म के नाम
पर चलता है, यह कैसे चले?
तो
दोहरी दिक्कत
थी,
बुद्ध के
विचार तो
इनकार करने
पड़ेंगे, बुद्ध
को स्वीकार कर
लो। बड़ी
कुशलता से यह
काम किया। वही
कुशलता
उन्होंने फिर
रैदास के साथ
भी की।
रैदास
को भक्तमाल
में स्वीकार
कर लिया परम
भक्त, भक्त—शिरोमणि,
लेकिन दो
कहानियां गढ़ी।
और जैसी कहानी
ब्राह्मण गढ़
सकते हैं, दुनिया
में कोई भी
नहीं गढ़ सकता।
क्योंकि इतना
पुराना
अभ्यास है
उनका कहानियां
गढ़ने का, पुराण
लिखने का...।
अगर
यहूदियों को
पता होता कि
कहानियां गढ़ी
जा सकती हैं
तो जीसस को
सूली न दी
होती, सिर्फ
एक कहानी गढ़
ली होती। सूली
देनी पड़ी, क्योंकि
कहानी नहीं गढ़
सके।
हिंदू
कुशल हैं, इन्होंने
कभी सूली नहीं
दी किसी को—
कहानियां
गढ़ने में कुशल
हैं। जब कहानी
से ही काम चल
जाए तो कटारे
क्यों निकालो!
कहानियां ही
कटारें बन
जाती हैं।
रैदास
के संबंध में
दो कहानियां
गढ़ी। एक कि
रैदास अपने
पूर्वजन्म
में भी
रामानंद के
शिष्य थे। एक
दिन रैदास
भिक्षा मांग
कर आए—पूर्वजन्म
की बात है, जब
वे रामानंद के
ब्रह्मचारी
शिष्य थे, ब्राह्मण
थे— भिक्षा
मांग कर लाए।
रामानंद ने
पूजा का थाल
सजाया और अपने
ठाकुरजी को, भगवान की
प्रतिमा को
प्रसाद चढ़ाया।
लेकिन पहली
बार रामानंद
के जीवन में
ठाकुरजी ने
प्रसाद लेने
से इनकार कर
दिया।
अब
पहली तो बात
यह कि
मूर्तियां न
तो प्रसाद स्वीकार
करतीं, न
इनकार करतीं।
तुम जाकर किसी
भी मूर्ति पर
कुछ भी चढ़ा कर
देख लो। कोई
मूर्ति न तो
प्रसाद लेती
है, न
अस्वीकार
करती है। मूर्ति
मूर्ति है, मुर्दा है।
लेकिन
कहानी गढ़ी कि
ठाकुरजी ने
प्रसाद लेने से
इनकार कर दिया।
रामानंद तो
बहुत दुखी हुए
जीवन में ऐसा
कभी न हुआ था।
उन्होंने
पूछा ठाकुर से
कि आप क्यों
इनकार कर रहे
हैं?
तो
उन्होंने कहा
कि यह प्रसाद
ऐसे घर से
लाया गया है, एक ऐसे बनिए
के घर से यह
ब्रह्मचारी
भिक्षा मांग
लाया है जिसका
सीधा कारोबार
एक चमार से है।
इसलिए यह
प्रसाद
स्वीकार नहीं
हो सकता।
यह
चमार के घर का
भी प्रसाद
नहीं है, खयाल
रखना! किसी
बनिए का
कारोबार चमार
से है! अब
बनिया तो
बेचारा सबको
बेचेगा— चमार
को भी बेचेगा,
भंगी को भी
बेचेगा, जो
भी आएगा उसको
बेचेगा।
दुकानदार तो
दुकान चलाने
को है। और वह
पूछता थोड़े ही
बैठा रहेगा कि
कौन चमार है, कौन भंगी है,
कौन क्या है?
उसको चीजे
बेचनी हैं।
लेकिन
तुम देखते हो
कि कैसा
ब्राह्मणों
ने एक जाल इस
देश में खड़ा
किया! चमार तो
अछूत है ही, अस्पृश्य
है ही; चमार
के साथ जो
सीधा कारोबार
करता है वह
बनिया भी अछूत
हो गया। और वह
भी ठाकुरजी के
लिए अछूत हो
गया। और
ठाकुरजी ने ही
शूद्र बनाए, और ठाकुरजी
ने ही बनिया
बनाए और
ठाकुरजी ने ही
ब्राह्मण
बनाए। सब
उन्हीं के
खिलौने, क्योंकि
वही स्रष्टा।
अब
मजा यह है कि ठाकुरजी
ने शूद्र बनाए
और ठाकुरजी
शूद्र नहीं
हुए! और बनिए
ने केवल शूद्र
से व्यापार
किया, व्यवसाय
किया, कुछ
लेन—देन होगा,
कुछ खरीद—फरोख्त
की होगी, वह
शूद्र हो गया
और ठाकुरजी
शूद्र नहीं
हुए! अगर इस
दुनिया में
कोई परम शूद्र
है तो भगवान, क्योंकि
उसने बनाया
शूद्रों को!
लेकिन
ठाकुरजी ने
भोजन इनकार कर
दिया।
रामानंद तो
क्रोध से
बबूला हो गए।
यह
बात भी झूठ है।
क्योंकि
रामानंद जैसा
व्यक्ति, जो
रैदास और कबीर
जैसे
व्यक्तियों
को अपने चरणों
में झुकाने
में समर्थ हो
सका, वह
क्रोधित हो
जाए, यह
असंभव है!
क्रोध तो कहां
बहुत पीछे छूट
चुका। ध्यान
की ज्योति जगी
होगी, तभी
तो कबीर और
रैदास जैसे
लोग रामानंद
के चरणों में
झुके। नहीं तो
कबीर का झुकना
कुछ आसान है? रैदास का
झुकना कुछ
आसान है? वह
क्रोधित हो
जाए— ऐसी छोटी
बात पर!
और
मैं जानता हूं
कि अगर
रामानंद
क्रोधित भी होते
तो ठाकुरजी पर
होते। उठा कर
फेंक दिया
होता ठाकुरजी
को। कम से कम
मैं यही करता, कि
रस्ता लगो, कि बाहर
रिक्यो खड़े
हैं, रिक्यग़
पकड़ो और भागो,
लौट कर यहां
मत आना।
क्या
बेहूदगी की
बात कि किसी
शूद्र का
व्यापार है
किसी बनिए से, इसलिए
बनिए के घर से
लाया गया सीधा
प्रसाद नहीं
बन सकता!
रामानंद जैसे
हिम्मत के
आदमी से
ठाकुरजी ऐसी
बातें करेंगे!
ऐसी धौल जमाई
होती ठाकुरजी
को कि छठी का
दूध याद आ
जाता। अगर
मारना ही था, अगर क्रोध
ही करना था, तो फिर कभी
मुंह नहीं
किया होता
ठाकुरजी की तरफ।
ठाकुरजी
मनाते फिरते।
लेकिन
यह तो मैं मान
ही नहीं सकता कि
रामानंद उस
गरीब
ब्रह्मचारी
पर नाराज हो गए
और उन्होंने
अभिशाप दे
दिया कि जा, मर
जा इसी क्षण!
और शूद्र के
घर में, चमार
के घर में
तेरा जन्म
होगा! अरे, यह
अभिशाप ही
देना था तो
ठाकुरजी को
देना था कि जा,
मर जा इसी
क्षण और तेरा
जन्म हो चमार
के घर में। तो
ठाकुरजी को भी
कुछ पता चलता
कि कभी—कभी
ऐसे लोगों से
भी मिलना हो
जाता है—ऐसे लोग,
जिनमें तलवार
की धार होती है!
इस गरीब ब्रह्मचारी
को, जो कि बिलकुल
अनजान है जिससे
अगर कोई पाप भी
हुआ हो, अगर
इसे कोई पाप भी
समझे, तो भी
अनजान हुआ है।
गया था भिक्षा
मांगने, उस
भिक्षा में इस
वैश्य के घर से
भिक्षा मांग ली।
अब क्या यह पता
लगाए कि इसकी दुकान
पर कौन—कौन खरीदने
आते हैं— शूद्र,
चमार, भंगी—
यह कैसे पता लगाए?
क्या यह इसके
सारे के सारे खाते—बही
देखे, तब यह
भिक्षा मां के?
मगर
कहानी गढ़ने में
ब्राह्मण सच में
कुशल हैं। और कहानियां
प्रचलित कर देते
हैं। और लोक—मानस
में कहानियां बैठ
जाती हैं। गरीब
ब्रह्मचारी उसी
क्षण मर गया, और
एक शूद्र के घर
में एक चमार के
घर में जन्म लिया।
फिर कहानी और मजेदार
बात कहती है कि
था तो आखिर वह भी
ब्राह्मण, ब्रह्मचारी।
चमारिन के गर्भ
से पैदा हुआ तो
उसने चमारिन का
दूध पीने से इनकार
कर दिया। एक दफा
हो गई भूल बहुत।
जब ठाकुरजी तक
प्रसाद नहीं लेते
तो यह छोटा सा बच्चा
जो पैदा हुआ पहले
दिन का बच्चा,
इसने दूध लेने
से इनकार कर दिया,
यह मां का दूध
न पीए। कोई और रास्ता
न देख कर, गांव
में रामानंद की
ख्याति थी, वह चमारिन रामानंद
के चरणों में पहुंची
और कहा कि कुछ करें।
देखा इसको तो उन्हें
याद आया कि अपना
ही ब्रह्मचारी
है। दया आई, सोचा होगा कि
बच्चू काफी दुख
भोग चुके। कान
फूंका। अभी— अभी
यह पैदा हुआ बच्चा,
इसका कान फूंका
और राम—नाम दिया।
जब राम—नाम दिया
तब उसने दूध पीआ।
यह
एक कहानी उन्होंने
गढ़ी। इसीलिए चूंकि
रैदास पूर्वजन्म
के ब्राह्मण हैं, उनको
भक्तमाल में स्वीकार
किया, नहीं
तो उनको भक्तमाल
में स्वीकार नहीं
कर सकते थे। उनको
भक्तों में इसलिए
स्वीकार किया!
उनकी भक्ति के
कारण नहीं, समझ लेना तर्क।
उनके परमात्मा
के प्रति समर्पण
के कारण नहीं उनके
प्रार्थना की अदभुतता
के कारण नहीं,
उनके ध्यान की
गरिमा के कारण
नहीं, उनके
समाधि के अनुभव
के कारण नहीं,
ईश्वर—साक्षात
के कारण नहीं।
ये सब बातें गौण
हैं। असली बात
यह है कि वे पूर्वजन्म
के ब्राह्मण हैं,
इसलिए उनको भक्त
स्वीकार किया।
कहानी
चल पड़ी। लेकिन
लोगों को कैसे
भरोसा आए कि यह
कहानी सच है? अब
पूर्वजन्म किसी
ने देखा तो नहीं।
रामानंद कहते हैं,
पंडित कहते हैं,
मगर क्या पता!
तो दूसरी कहानी
भी गढ़ी कि लोगों
ने एक बार बहुत
आग्रह किया रैदास
को कि आप कुछ प्रमाण
दें कि आप पिछले
जन्म के ब्राह्मण
हैं।
अब
मैं यह मान ही नहीं
सकता कि रैदास
और प्रमाण देंगे
इस बात का। अगर
रहे भी हों ब्राह्मण
तो भी प्रमाण नहीं
देंगे, क्योंकि
यह प्रमाण देना
गलत होगा। अगर
रहे भी हों ब्राह्मण
तो भी प्रमाण देंगे
कि मैं पिछले जन्म
में क्या, जन्मों—जन्मों
से चमार हूं र शूद्र
हूं। रैदास— और
प्रमाण देंगे पिछले
जन्म के ब्राह्मण
का! रैदास इतने
नीचे उतरेंगे!
लेकिन कहानियां
तुम्हें जैसी गढनी
हों तुम गढ़ सकते
हो।
तो
कहते हैं रैदास
ने प्रमाण दिया।
उन्होंने अपनी
चमड़ी उधेड़ दी, और
चमड़ी जब उधेड़ी
तो स्वर्ण यज्ञोपवीत,
जनेऊ सोने का,
चमड़ी के भीतर
छिपा हुआ निकला।
तब लोगों ने माना।
इसलिए उनका भक्तमाल
में स्मरण किया
गया है महान भक्तों
की तरह।
ये
सड़ी—गली कहानियां, ये
झूठी कहानियां,
सिर्फ एक छोटे
से तथ्य को झुठलाने
के लिए हैं कि वे
चमार थे। और चमार
को कैसे अंगीकार
करें।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं ये
कहानियां
झूठी हैं। वे
चमार थे और
चमार होने में
कोई पाप नहीं
है। सभी जन्म
से शूद्र पैदा
होते हैं— सभी!
ब्राह्मण तो
श्रम से कोई
होता है, साधना
से कोई होता
है।
ब्राह्मणत्व
तो उपलब्धि है,
जन्मजात
नहीं है।
ब्राह्मण कोई
वर्ण नहीं है,
अनुभूति है।
जो ब्रह्म को
जाने सो
ब्राह्मण। जो
हरि से एकरूप
हो जाए सो
हरिजन।
इसलिए
मैं शूद्रों
को हरिजन नहीं
कहता और ब्राह्मणों
को ब्राह्मण
नहीं कहता।
क्योंकि
ब्राह्मण
जन्मजात हैं, जन्मजात
ब्राह्मणत्व
होता ही नहीं।
बुद्ध
ब्राह्मण हैं,
यद्यपि
जन्म से
ब्राह्मण
नहीं। महावीर
ब्राह्मण हैं,
यद्यपि
जन्म से
ब्राह्मण
नहीं। जीसस
ब्राह्मण हैं,
यद्यपि
जन्म से
ब्राह्मण
नहीं, शायद
ब्राह्मण
शब्द भी
उन्होंने कभी
न सुना हो।
मोहम्मद
ब्राह्मण हैं,
यद्यपि
जन्म से
ब्राह्मण
नहीं। क्यों?
क्योंकि
उन्होंने
ब्रह्म को
जाना। ' ब्राह्मण
' शब्द का
उतना ही अर्थ
है ब्रह्म को
जाना और ब्रह्म
से एकाकार हो
गए। न केवल
ब्रह्म को
जाना, बल्कि
जाना कि मैं
भी ब्रह्म हूं
अहं ब्रह्मास्मि,
अनलहक।
जिसके भीतर
ऐसा उदघोष उठा
कि मैं ब्रह्म
हूं वह
ब्राह्मण है।
इस उदघोष के
जन्म से कोई
ब्राह्मण
होता है।
जिसने ऐसा
जाना कि मैं
हरि का हूं कि
मैं परमात्मा
का हूं कि
मेरा मुझमें
कुछ नहीं, सब
उसका है, वह
हरिजन है।
इसलिए
मैं शूद्र को
हरिजन नहीं
कहता। मैं
महात्मा
गांधी से
बिलकुल ही
सहमत नहीं हूं।
'हरिजन' जैसे
अदभुत शब्द को
खराब कर रहे
हो? पहले ' ब्राह्मण ' जैसे अच्छे
शब्द को खराब
करवा डाला, उसको जन्म
से जोड़ दिया।
अब हरिजन को
भी खराब करवा
डाला। इतने
अदभुत शब्दों
को उनकी महिमा
से मत उतारो, उनके
सिंहासनों से
मत उतारो।
उन्हें आकाश
से उतार कर
जमीन की धूल
में मत गिराओ।
हरिजन
तो वह है
जिसने यह जाना
कि मेरे में
मेरा कुछ भी
नहीं है, सब
कुछ परमात्मा
का है।
ब्राह्मण या
हरिजन
समानार्थी
शब्द हैं, पर्यायवाची
हैं। लेकिन
प्रत्येक
व्यक्ति
शूद्र की तरह
पैदा होता है।
शूद्र अर्थात
जो शरीर से
बंधा है।
शूद्र अर्थात
जो जानता है
कि मैं शरीर
ही हूं। शूद्र
अर्थात जिसे
अपने भीतर
चैतन्य का अभी
कोई अनुभव
नहीं हुआ है, जिसने अपने
भीतर अमृत के
दर्शन नहीं
किए हैं। और
ब्राह्मण वह
जिसने जाना कि
मैं शरीर नहीं
हूं, मन भी
नहीं हूं— मन
और शरीर से
पार चैतन्य
हूं। जिसे
साक्षी का
अनुभव हुआ है
वह ब्राह्मण
है।
लेकिन
रैदास के
संबंध में ये
कहानियां
झूठी हैं, ऐसा
मैं स्पष्ट
कहना चाहता
हूं। अब तक
किसी ने ऐसा
कहा नहीं कि
ये कहानियां
झूठी हैं। ये
झूठी होनी ही
चाहिए। इनके
सब अंग झूठे
हैं। पहले तो
वे ठाकुरजी
झूठे जो चमार
से संबंधित
होने के कारण
किसी बनिए का
सीधा स्वीकार
न करें। वे
ठाकुरजी
शूद्रों से भी
गए—बीते। वे
ठाकुरजी नहीं,
चमार।
फिर
रामानंद
क्रोधित हों...
और क्रोधित
हों तो ठाकुरजी
पर हों, गरीब
ब्रह्मचारी
का क्या कसूर?
रामानंद
क्रोधित हो ही
नहीं सकते। और
रामानंद जैसा
व्यक्ति
अभिशाप दे—
असंभव, बिलकुल
असंभव!
फिर
रैदास जैसा
बच्चा मां का
दूध इसलिए न
पीए क्योंकि
वह चमार है।
दूध भी कहीं
चमार और
ब्राह्मण हुआ
है! मां भी कहीं
चमार और
ब्राह्मण हुई
है! मां सिर्फ
मां होती है, दूध
सिर्फ दूध
होता है। अगर
तुम्हें
भरोसा न हो तो
एक चमार
स्त्री का दूध
और एक
ब्राह्मण
स्त्री का दूध
लेकर चले जाना
डाक्टर के पास
और कहना कि
बता दो, कौन
चमार का है और
कौन ब्राह्मण
का। करवा लेना
विश्लेषण, निदान।
दुनिया
की कोई ताकत
सिद्ध नहीं कर
सकेगी कि यह
ब्राह्मण का
दूध है और यह
चमार का दूध
है। दूध भी
कहीं
ब्राह्मण और
चमार का होता
है! हड्डी—मांस—मज्जा
कहीं
ब्राह्मण और
चमार की होती
है! और जब
हड्डी—मांस—मज्जा
चमार की नहीं
होती तो आत्मा
कैसे चमार की
हो जाएगी?
और
बड़े आश्चर्य
की बात है।
तुम दूध पी
लेते हो भैंस
का और कभी
नहीं सोचते कि
भैंस का दूध
पी रहे हैं, कहीं
भैंस न हो
जाएं!
मुल्ला
नसरुद्दीन का
छोटा बेटा
एकदम भागा हुआ
बैठकखाने में
आया और बोला
मम्मी—मम्मी—
और मोहल्ले की
दस—पांच
स्त्रियां
बैठी गपशप कर
रही थीं— कि
पप्पा ने अभी—
अभी मेरी आया
की किस्सी ली।
और आया घबड़ा
रही थी। तो
बोले, घबड़ा मत,
मेरी मोटी
भैंस तो बैठक खाने
में बैठी है।
यह मोटी भैंस
कहां है?
छोटे
बच्चों जैसी
बातें! छोटे
बच्चे इस तरह
की
भ्रांतियों
में पड़ जाएं
तो पड़ सकते
हैं।
भैंस
का दूध पीने
से तुम भैंस
नहीं हो जाओगे।
मगर मूढ़ों की
कोई गिनती
नहीं है!
एक
बड़े राजनेता
मेरे मित्र थे, मेरे
साथ एक बार
सफर को गए।
बड़ी मुश्किल
खड़ी हो गई। वे
सिर्फ सफेद
गाय का ही दूध
पीए। मैंने
उनसे पूछा कि
काली गाय में
क्या खराबी है?
क्या आप
सोचते हैं
काली गाय का
दूध काला हो
जाता है? अरे
दूध तो सफेद
ही है, चाहे
काली गाय का
हो चाहे सफेद
गाय का हो।
उन्होंने
कहा कि नहीं, काला
रंग तमस का
प्रतीक है।
होगा
तमस का प्रतीक, लेकिन
दूध थोड़े ही
काला हो जाएगा।
मैंने उनसे
कहा फिर भैंस
के बाबत क्या
खयाल है?
भैंस
का दूध तो मैं
देख ही नहीं
सकता।
क्यों? उन्होंने
कहा भैंस का
दूध पीने से
आदमी की भैंस
जैसी बुद्धि
हो जाती है।
तब
तो बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी। गोभी
खाओगे, खोपड़ी
गोभी जैसी हो
जाएगी। बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
करेला खा लिया
कि आत्मा
कड्वी हो गई।
कुछ खाओगे, कुछ पीओगे, जीओगे कि
मरना है?
मैं
नहीं मान सकता
कि बच्चे ने
चमारिन का दूध
पीने से इनकार
किया हो।
बच्चे इतने मूढ़
नहीं होते।
इतनी मूढ़ताएं
तो बहुत बाद
में आती हैं।
इतनी मूढ़ताओं
के लिए तो
काफी अनुभव
चाहिए। बच्चे
इतने बुद्ध
नहीं होते।
इतने बुद्ध
होने के लिए
तो काफी
शिक्षा, संस्कार,
सभ्यता...।
इतनी मूढ़ता के
लिए तो काफी
धार्मिक होना
आवश्यक है।
इसलिए कहानी
तो बिलकुल झूठ
है। कहानी में
कोई सार नहीं
है। मगर
कहानियां इस
बात की खबर दे
रही हैं कि
भारत का मन
कितना कलुषित
हो गया है कि
हम अपने श्रेष्ठतम
लोगों को भी
सीधा—सीधा
स्वीकार नहीं
कर सकते; जैसे
हैं वैसा
स्वीकार नहीं
कर सकते।
लेकिन
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं कि रैदास
भारत के आकाश
में
ध्रुवतारे की
भांति हैं।
ब्राह्मण
होकर
ब्राह्मणत्व
को उपलब्ध हो
जाना कठिन
नहीं है, क्योंकि
सारी सुविधा
वहां है।
राजपुत्र
होकर बुद्ध हो
जाना कठिन
नहीं है, क्योंकि
सारी सुविधा
वहां है।
जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर ही
राजाओं के
बेटे हैं—
सुविधाएं हैं,
सुख है, वैभव
है। और जब सुख
हो, वैभव
हो तो सुख—वैभव
से मुक्त हो
जाने में अड़चन
नहीं होती, क्योंकि साफ
दिखाई पड़ जाता
है कि कुछ सार
नहीं है।
जिसके पास धन
है उसे धन में
असारता दिखाई
पड़ जाती है।
अब
बुद्ध को सारी
सुंदर
स्त्रियां
उपलब्ध थीं।
इसलिए जल्दी
ही स्त्रियों
से ऊब गए— ऊब ही
जाएंगे। जो
चीज तुम्हारे
पास है तुम
उससे ऊब जाते
हो,
तुम भी
जानते हो।
तुम्हारे पास
जो है उससे
तुम ऊब जाते
हो। तुम्हारे
पास जो नहीं
है उससे ऊबने
के लिए बहुत
प्रतिभा
चाहिए, बहुत
प्रतिभा
चाहिए।
तुम्हारे पास
जो है उससे
ऊबने के लिए
तो कोई प्रतिभा
की जरूरत नहीं
है। धनी धन से
ऊब जाता है, भोगी भोग से
ऊब जाता है।
जिसको संसार
में सब तरह की
सफलताएं
मिलती हैं वह
सफलताओं से ऊब
जाता है। यह
तो विफल आदमी
है जो सफलता
से नहीं ऊबता;
उसे मिली ही
नहीं तो कैसे
ऊबे! यह तो
निर्धन है जो
धन में आशा
टिकाए रखता है।
यह तो
अविवाहित है
जो विवाहित
होने का विचार
करता है।
विवाहित से तो
पूछो! वह
आत्महत्या के
विचार कर रहा
है, चाहे
मर न सके, क्योंकि
मरना भी कोई
आसान काम नहीं।
मैं
विश्वविद्यालय
में शिक्षक था, तो
मेरे पड़ोस में
एक बंगाली
प्रोफेसर थे—
भट्टाचार्या।
मैं पहले ही
दिन उस मकान
में पहुंचा था,
मुझे कुछ
भट्टाचार्या
के परिवार के
रहस्य पता
नहीं थे।
दीवाल पतली थी,
आवाज यहां
से वहां आती—जाती
थी। रात कोई
बारह बजे
उनमें और उनकी
पत्नी में झगड़ा
हो गया। मेरी
भी नींद खुल
गई। कोई उपाय
ही न था, सुनना
ही पड़े जो हो
रहा था। बात
जब बहुत बढ़ गई
तो मैं भी
थोड़ा चिंतित
हुआ, क्योंकि
भट्टाचार्या
ने अपना छाता
उठा लिया और
कहा कि मैं
चला मरने। मैं
जाकर ट्रेन के
नीचे सो
जाऊंगा।
पत्नी ने कहा :
जा—जा!
तब
तो मैंने कहा
यह तो बड़ा
मुश्किल है, अब
मुझे बीच में
आना ही पड़ेगा।
यह कहीं रात
बारह बजे— और
टेरन ज्यादा
दूर नहीं थी, कोई मुश्किल
से चार—छह
फर्लांग का
फासला था— यह
पटरी पर जाकर
लेट जाए, मर
जाए, अच्छा
आदमी। और
पत्नी को फिकर
ही नहीं, वह
कहती है जा—जा!
मुझे बोलना
चाहिए या नहीं,
क्योंकि
मेरा अभी
परिचय भी किसी
ने उनसे नहीं करवाया
है। लेकिन यह
मौका कोई
औपचारिकता का
है!
मैं
दरवाजा खोल कर
बाहर आया, भट्टाचार्या
एकदम तेजी में
— मगर बंगाली
तो बंगाली, मरते वक्त
भी छाता अपने
बगल में— छाता
लेकर एकदम
निकल ही गए घर
से। मैंने
उनकी पत्नी को
कहा क्षमा करो,
मुझे बोलना
तो नहीं चाहिए,
आपका
पारिवारिक मामला
है, पता
नहीं आप लोगों
के क्या खेल
हैं, कैसा
हिसाब है! मगर
यह जरा बात
ज्यादा हुई जा
रही है। मैं
कुछ करूं, भट्टाचार्या
को लौटा कर
लाऊं?
उसने
कहा आप बिलकुल
फिकर न करें।
आप नये—नये
हैं। मैं
इन्हें बीस
साल से जानती
हूं। ये तो कई
दफे जा चुके
हैं। अभी आप
देखोगे थोड़ी
देर में लौट
आते हैं। उसने
कहा कि अब
आपने पूछ ही
लिया है तो
आपको कह दूं
कि एक दफे तो
ये टिफिन लेकर
गए थे मरने।
आपको छाता देख
कर हैरानी हो
रही होगी, टिफिन
लेकर लेटे थे
पटरी पर जाकर।
किसी किसान ने
पूछा कि यह आप
क्या कर रहे
हैं? पटरी
पर भी ऐसी
लेटे थे जिस
पर शायद ही
कभी गाड़ियां
आती हैं, सिर्फ
मालगाडियां
शंटिंग करती
हैं। किसी
किसान ने पूछा
आप यह क्या कर
रहे हैं? तो
इन्होंने कहा
मरने आया हूं।
तो उसने कहा.
मरने आए हो, वह तो मेरी
समझ में आता
है, लेकिन
टिफिन किसलिए?
उन्होंने
कहा कि इधर
कोई गाड़ियों
का भरोसा है
इस देश में? कितनी लेट
हो जाएं, क्या
भूखे मरना है?
और फिर जब
गाड़ी बहुत देर
तक नहीं आई तो
अपना खा—पी कर
टिफिन, पिकनिक
करके घर लौट
आए।
और
हमारी बात ही
हो रही थी कि
भट्टाचार्या
वापस आ गए।
मैंने पूछा कि
आप लौट आए? उन्होंने
कहा कि देखते
नहीं, पानी
गिरने लगा!
आप
तो छाता ले गए
थे?
वह
छाता खराब है।
पहले तो खुलता
ही नहीं और
खुल जाए तो
छेद ही छेद
हैं।
लोग
मरने भी जाएं
तो भी कहां! और
मरें भी तो
किस भरोसे पर
कि मरने के
बाद क्या
होगा! हालत
इससे बेहतर
होगी कि खराब
होगी, यह भी तो
पक्का नहीं है।
फिर यहां जैसी
भी है हालत, कम से कम
अभ्यस्त तो हो
गए हैं उसके।
किसी तरह
जिंदगी चली जा
रही है।
अविवाहित
विवाह की
सोचता है, विवाहित
लोगों को
देखता है तो
सोचता है, कितने
आनंद में न जी
रहे होंगे।
दांपत्य का
सुख भोग रहे
हैं! और दंपति
भी ऐसा दिखाने
की कोशिश तो
कम से कम करते
हैं जब सड़क पर
निकलते हैं कि
बड़े सुखी हैं।
लेकिन कहां का
दांपत्य का
सुख! सुख इस
जगत में मिलता
कहां! सिर्फ
दिखावे हैं, झूठी
मुस्कुराहटें
हैं— चिपकाई
हुई! ऊपर से
लगाए गए रंग
हैं, जरा
सी बरसा हो
जाए, बह
जाएं। इस
धोखाधड़ी से
भरी दुनिया
में सिर्फ
उन्हीं चीजों
का धोखा बना
रहता है जो
तुम्हें नहीं
मिलीं, क्योंकि
दूर के ढोल
सुहावने
मालूम पड़ते
हैं।
कहावत
है न कि पड़ोसी
के बगीचे की
घास ज्यादा हरी
मालूम पड़ती
है! अपनी घास
सूखी—सूखी
लगती है, क्योंकि
तुम्हें अपनी
घास निकट से
देखने का मौका
मिलता है।
पड़ोसी की घास
तुम्हें दूर
से दिखाई पड़ती
है। दूर से
दुर्गुण नहीं
दिखाई पड़ते
हैं। जब
व्यक्ति दूर
होते हैं एक—दूसरे
से तो दुर्गुण
नहीं दिखाई
पड़ते; जब
पास होते हैं
तब दिखाई पड़ते
हैं। दुर्गुण
देखने के लिए
पास होना
जरूरी है, निकट
जीना जरूरी है।
तो
अगर जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर
राजपुत्र थे
और इसलिए एक
दिन उन्होंने
सारा संसार
छोड़ दिया तो
कुछ आश्चर्य नहीं
है,
छोड़ना ही
चाहिए। मेरी
तो सम्राट की
परिभाषा ही
यही है कि जो
एक दिन सब छोड़—छाड़
दे। उसका अर्थ
है कि उसने
जान लिया।
उसका अर्थ है
कि वह सम्राट
था। जो पकड़े
ही रहे, समझो
कि अभी गरीब
है, दीन है,
दरिद्र है।
लेकिन
रैदास अनूठे
हैं। गरीब
चमार के घर
में पैदा हुए, जहां
न धन है, न
पद है, न
प्रतिष्ठा है—
और फिर भी पद—प्रतिष्ठा
और धन के पार
उठ गए! इसलिए
कहता हूं वे
ध्रुवतारा
हैं।
पहला
सूत्र—
बिनु
देखे उपजै नहि
आसा। जो दीसै
सो होई
बिनासा।।
बरन
सहित जो जापै
नामु। सो जोगी
केवस निहकामु।।
जब
तक तुम्हें
परमात्मा की
थोड़ी झलक न
मिले, तब तक
तुम्हें न तो
आशा जगेगी, न आश्वासन
पैदा होगा, न आस्था का
जन्म होगा।
लाख दूसरे लोग
कहते रहें कि
ईश्वर है, तुम
सुन भी लोगे, शायद मान भी
लो, मगर भीतर
संदेह बना है
सो बना ही
रहेगा। कितना
ही विश्वास
ऊपर से ओढ़ लो, पर्त—दर—पर्त,
लेकिन भीतर
संदेह है, मरेगा
नहीं; ढंक
जाए भला, छिप
जाए भला, विनष्ट
नहीं होगा।
उसका विनाश तो
सिर्फ एक ही
ढंग से होता
है— बिनु देखै
उपजै नहिं आसा—
कुछ दिखाई
पड़े!
अब
मंदिरों—मस्जिदों
में तो कुछ
दिखाई नहीं
पड़ेगा, क्योंकि
वहां जो
पुजारी—पंडित
बैठे हैं
उन्हीं को
दिखाई नहीं
पड़ा है। यज्ञ—हवन
में तो दिखाई
नहीं पड़ेगा।
जो मूढ़ वहां
चावल और गेहूं
और घी फेंक
रहे हैं अग्नि
में, उन
मूढ़ों को ही
नहीं दिखाई
पड़ा, वे
तुम्हें कैसे
दिखला देंगे?
अंधों से
पूछ रहे हो
प्रकाश की
परिभाषा! आख
वालों को भी
परिभाषा करनी
कठिन है। अंधे
परिभाषा कर
रहे हैं और
दूसरे अंधे
परिभाषा मान
रहे हैं।
तुम्हारी
जितनी
मान्यताएं
हैं, सब
उधार हैं।
इसीलिए तो
तुम्हारी
जिंदगी एक
रेगिस्तान है,
जिसमें
मरूद्यान
नहीं।
चंदूलाल
किसी नौकरी के
लिए परीक्षा
देने गए थे।
परीक्षा शुरू
हुई। परीक्षक
ने चंदूलाल से
कहा कि
चंदूलाल, तुम
बार—बार पीछे
मुड़ कर क्यों
देख रहे हो?
चंदूलाल
बोले मैं क्या
करूं हुजूर, इसी
प्रश्न—पत्र
में तो लिखा
है— कृपया
पीछे देखिए।
शास्त्र
पढ़ोगे, किताबें
पढ़ोगे। जो
नहीं जानते, उनसे उधार
लोगे। क्या
अर्थ
निकालोगे तुम?
आस्था नहीं
जन्मेगी।
तुम्हारा
जीवन
रूपांतरित
नहीं होगा।
इतना आसान
नहीं है जीवन
का रूपांतरित
हो जाना। लाख
शास्त्र एक
बात कहते रहें,
तुम्हारा
अंधकार में
डूबा हुआ मन
अपनी जिद पर डटा
रहेगा। ढब्यू
जी ने सड़क पर
जाते हुए
व्यक्ति को एक
चांटा मारा और
कहा क्यों
मटकानाथ के बच्चे!
कहां रहा इतने
दिन? और हद
हो गई, कौन
सी विपत्ति आ
गई तुझ पर? पिछती
बार तू जब
मिला था तो
ठिगना था, मोटा
था और अचानक
एकदम से लंबा
और दुबला हो
गया! चेहरा भी
बिलकुल बदल
डाला! और यह
दाढ़ी—मूंछ कब
बढ़ा लीं, चांद
भी निकाल ली।
उस
आदमी ने कहा :
माफ करें
महोदय, मैं
किसी मटकानाथ
को नहीं जानता।
और मैं
मटकानाथ नहीं,
रामनाथ हूं।
ढब्यू
जी ने पुन. उसे
एक धौल जमाते
हुए कहा अबे साले, तो
नाम भी बदल
डाला!
मन
अपनी जिद पर
डटा रहेगा।
ऐसे तुम मन को
न समझा सकोगे।
कंठस्थ कर लो
वेद,
दोहराने
लगो कुरान, मगर जरा
भीतर झांकोगे
तो पाओगे वही
पुराना मन, और वही
पुराने सवाल,
और वही
पुराने संदेह।
संदेह
मिटते हैं
अनुभव से। झलक
भी मिल जाए, दूर
से सही, गौरीशंकर
को तुम हजारों
मील दूर से
झलकता हुआ देख
लो — उसके ऊपर
जमी हुई
कुंआरी बर्फ,
उस पर चमकती
हुई सूरज की
किरणें, उसका
अपूर्व रूप, सौंदर्य —
हजारों मील
दूर से
तुम्हें
दिखाई पड़ जाए
तो भी आशा जग
जाएगी।
निमंत्रण आ
गया! पुकार आ
गई! और अब यह
पुकार निज की
है, यह
तुम्हारी
अंतरात्मा का
अनुभव है। अब
तुम यात्रा पर
निकल सकते हो,
अब
तुम्हारा
जीवन एक
तीर्थयात्रा बन
सकता है। अब
तुम खोजना
चाहोगे।
विश्वासों
ने लोगों को
धर्म से वंचित
किया है, विश्वासों
ने लोगों का
धर्म मार डाला
है।
रैदास
ठीक कहते हैं: बितु
देखे उपजे नहिं
आसा।
झलक
भी मिल जाए, जरा
सी झलक, दूर
की झलक, और
आशा जगी और
आशा अंकुरित
हुई। और आशा
में ही आस्था
का फल लगेगा।
जो दिखे सो
होई विनासा।
और
भी एक अदभुत
बात है कि
जिसने उसकी
झलक भी देख ली
वह विनष्ट हो
गया,
उसका
अहंकार मिट
गया। दो नहीं
रह सकते, तुम
और परमात्मा
दोनों साथ—साथ
नहीं रह सकते।
कबीर
ने कहा न—
रैदास के
गुरुभाई—
प्रेमगली अति
सांकरी, तामें
दो न समाय! बड़ी
संकरी गली है
प्यार की, प्रीति
की, उसमें
दो नहीं समा
सकते। या तो
तुम या
परमात्मा। वह
दिख गया तो
तुम गए। तुम
अंधकार जैसे
हो, रोशनी
हो गई कि तुम
गए।
वफा
के पर्दे में
क्या—क्या
जफाएं देखी
हैं
निगाहे—लुक
पर अब मुझको
एतमाद नहीं
मुझे
यकीं है मगर
दिल को क्या
करूं कि उसे
किसी
के वादा—ए—फर्दा
पे एतमाद नहीं
और
पंडितों ने
तुम्हें इतना
नुकसान
पहुंचाया है
कि उनकी बातें
सुनते—सुनते
अगर कभी तुम
किसी सदगुरु
के पास भी
पहुंच जाओ तो
उसकी बातों पर
भी तुम्हें
भरोसा नहीं
आएगा। तुमने
इतनी बातों पर
भरोसा किया और
धोखा खाया है।
तुम्हें इतने
धोखे दिए गए
हैं। सौ में
से निन्यानबे
मौकों पर
तुम्हें धोखे
दिए गए हैं, तो
सौवें मौके पर
अगर सच्चा
हीरा भी हाथ
में आ जाए, तुम
उसे भी फेंक
दोगे।
तुम्हारी आंखें
ही अब आस्था
करने में जैसे
असमर्थ हो गई
हैं।
यह
बड़ा
दुर्भाग्य है।
इसलिए बुद्ध
आते हैं, महावीर
आते हैं, कृष्ण
आते हैं, कबीर
आते हैं, रैदास
आते हैं; थोड़े
से ही लोग
उनका लाभ ले
पाते हैं।
अधिक लोग उनको
भी समझते हैं
कि ये भी शायद
शास्त्र को ही
दोहरा रहे हैं।
अधिक लोग
सोचते हैं, शायद ये भी
शास्त्र की ही
व्याख्या कर
रहे हैं।
नहीं, संत
शास्त्र की
व्याख्या
नहीं करते, शास्त्र
संतों की
व्याख्या
करते हैं।
शास्त्र
संतों के लिए
प्रमाण बन
जाते हैं।
शास्त्र
साक्षी देते
हैं कि संत जो
कहते हैं, ठीक
कह रहे हैं।
संत
शास्त्रों पर
निर्भर नहीं
होते।
अगर
संतों को देखना
हो तो सत्संग
जरूरी है।
सत्संग का
अर्थ है उठो, बैठो,
उनके पास
रमो, ताकि
धीरे— धीरे
तुम्हें यह
दिखाई पड़ने
लगे कि यहां
एक व्यक्ति है
जिसके भीतर
कोई अहंकार
नहीं, जिसके
भीतर शून्य
व्याप्त है।
पहले तो
तुम्हें संत
के शून्य से
परिचय बनाना
होगा। और जब
शून्य से परिचय
बन जाएगा तो
पूर्ण से
परिचय बनने
में देर न
लगेगी।
दिल
को बना हरम—नशीं, तौफे—हरम
नहीं, न हो
मानीए—बदगी
समझ,
सूरते—बदगी
न देख
दिल
को बना हरम—नशीं.......
दिल
को ही मंदिर
बनाओ, दिल को
ही काबा बनाओ।
……तौफे—हरम
नहीं, न हो
किसी
मंदिर की
प्रदक्षिणा, काबे
की प्रदक्षिणा
हो या न हो, हज
हो या न हो, फिकर
छोड़ो।
दिल
को बना हरम—नशीं
दिल
को ही लीन करो
परमात्मा में, ताकि
यह मंदिर बन
जाए।
दिल
को बना हरम—नशीं, तौफे—हरम
नहीं, न हो
मानीए—बंदगी
समझ,
सूरते—बंदगी
न देख
उपासना
का तात्पर्य
समझो, प्रार्थना
का अर्थ समझो।
कहां समझोगे
प्रार्थना का
अर्थ? जहां
प्रार्थना
जीवित हो, जहां
प्रार्थना का
फूल खिला हो।
नहीं
तो सब बाह्य
उपचार है।
मंदिरों में
घंटियां बज
रही हैं और
हृदय बिलकुल
उन घंटियों के
साथ नहीं बज
रहे हैं।
मंदिरों में
प्रार्थनाएं
दोहराई जा रही
हैं,
लेकिन बस
कंठों तक उनकी
पहुंच है, हृदय
में उनका
आविर्भाव
नहीं हो रहा
है। मंदिरों
में लोग
औपचारिकता
निभा रहे हैं।
परमात्मा के
साथ भी
शिष्टाचार चल
रहा है, व्यवहार
चल रहा है।
दिल
को बना हरम—नशीं, तौफे—हरम
नहीं, न हो
मानीए—बंदगी
समझ,
सूरते—बदगी
न देख
प्रार्थना
के उपचारों को
मत देखो, किसी
प्रार्थनापूर्ण
हृदय को देखने
की क्षमता
जुटाओ।
कोई
रिंदी की इस
जफें—नजर की
वुसअतें देखे
हर
इक टूटे हुए
सागर को जामे—जम
समझते हैं
निसारे—शमअ
होकर बज्य में
कहते हैं
परवाने—
कोई
समझे न समझे, हम
मआले—गम समझते
हैं
यह
तो परवानों से
पूछोगे मिटने
का राज, तो समझ
में आएगा। यह
तो दीवानों से
पूछोगे तो
रास्ता
मिलेगा। यह तो
पागलों से
पूछोगे— प्रेम
के पागल जो
हैं— तो
प्रार्थना का
तात्पर्य समझ
में आएगा। जब
तुम मिटने को
तैयार हो जाते
हो तभी प्रभु
को देखने की
क्षमता आती है।
नजअ
में बहुत धीमी
जुंबिशें नफस
की हैं
है
करीब मंजिल के
आज कारवां
अपना
और
जब समझो कि अब
श्वास इतनी
धीमी चल रही
है तुम्हारी—
अहंकार की, तुम्हारी
निजता की, तुम्हारे
भेद की— जब
समझो कि श्वास
टूटी—टूटी हो
रही है, अब
गई, तब गई, तब जानना कि
मंजिल करीब है।
है
करीब मंजिल के
आज कारवां
अपना
बितु
देखै उपजै
नहीं आसा। जो
दीसै सो होई
विनासा।।
बनता
सहित तो जापै
नामु।
ओंठ
से नहीं, जबान
से नहीं, कंठ
से नहीं—
समग्रता से जो
प्रभु का
स्मरण करता
है! रोएं—रोएं
से! जिसका कण—कण
नाच उठता है!
जिसकी श्वास—श्वास
स्मरण करती
है! जिसकी
धड़कन— धड़कन
उसकी
प्रदक्षिणा
करती है।
बरन
सहित जो जापै
नामु। सो जोगी
केवस निहकामु।।
वैसा
व्यक्ति ही
योगी है। जो
खुद मिटता है
वही परमात्मा
के साथ एक हो
पाता है। योग
यानी एक हो
जाना, जुड़
जाना। जब तक
तुम हो, टूटे
रहोगे। तुम
मिटे कि जुड़े।
और जो जुड़ गया
वह निष्काम हो
जाता है। फिर
कामना ही क्या
रही! जिसको परमात्मा
मिल गया, वह
और क्या
चाहेगा! हीरे—जवाहरात
मिल गए, वह
कंकड़—पत्थर
बीनेगा? कोहिनूर
पा लिया, वह
कंकड़—पत्थर
इकट्ठे करेगा?
असंभव।
परचै
राम रवै जो
कोई।
राम
से जो परिचित
हो जाए, राम
में जो रम
जाए।
पारसु
परसै ना
दुबिधा होई।।
वह
ऐसे ही बदल
जाता है जैसे
पारस के छूने
से लोहा बदल
जाता है। पारस
जब लोहे को
छूता है तो
ऐसा थोड़े ही
सोचता है. पता
नहीं बदलेगा
कि नहीं
बदलेगा! ऐसी
कोई दुविधा
थोड़े ही होती
है,
ऐसा कोई
द्वंद्व थोड़े
ही होता है, ऐसा कोई
संदेह थोड़े ही
होता है। पारस
तो नि:सदिग्ध
छू देता है
लोहे को और
लोहा सोना हो
जाता है।
जिस
दिन सदगुरु और
शिष्य के बीच
ऐसा संदेहरहित
संबंध
निर्मित होता
है,
उस दिन पारस
से लोहा छू
गया। उस दिन
शिष्य शिष्य
नहीं रह जाता,
शिष्य भी
गुरु हो जाता
है, गुरु
के साथ एक हो
जाता है।
सो
मुनि मन की
दुबिधा खाइ।
बिनु द्वारे
त्रैलोक
समाई।।
वही
है मुनि, जिसने
मन की दुविधा
छोड़ दी। मन
हमेशा दुविधा
में है— यह
करूं वह करूं!
क्या करूं
क्या न करूं!
जो मन की
दुविधा छोड़
देता है वही
मुनि है। जो
मन से मुक्त
हो जाता है
वही मुनि है।
बिनु
द्वारे
त्रैलोक
समाई।।
और
जिसने अपने मन
को छोड़ दिया, दुविधा
छोड़ दी, जो एकातभाव
से परमात्मा
में लीन होने
को तत्पर हो
गया, जो
अपने को
मिटाने के लिए
राजी है लेकिन
परमात्मा को
पाकर रहेगा
ऐसा जिसके
भीतर संकल्प
उठा, ऐसी
अहर्निश
पुकार उठने
लगी, वह
बिना किसी
द्वार के
तीनों लोक में
समा जाता है, बिना किसी
द्वार के
परमात्मा में
प्रवेश कर
जाता है।
शबो—रोज
मोहब्बत सीने
में पोशीदा
अगर्चो है, फिर
भी
आहों
में लरजते
रहते हैं, अश्कों
से नुमायां
होते हैं
रुकते
हैं कहीं
दीवारों से, थमते
हैं कहीं
जंजीरों से
इजहारे—जुनू
पर आमादा जब
कैदिए—जिदा
होते हैं
जी
भर के तड़प
लेने दे
उन्हें, रह—रह
के जरा जलने दे
उन्हें
ऐ
शमअ की लौ! ये
परवाने इक रात
के मेहमा होते
हैं
रुकते
हैं कहीं
दीवारों से, थमते
हैं कहीं
जंजीरों से
इजहारे—जुनू
पर आमादा जब
कैदिए—जिदा
होते हैं
तुम्हें
कोई रोक नहीं
सकता कारागृह
में। अगर तुम
आमादा ही हो
गए तो न कोई
दीवाल रोक सकती
है,
न कोई
जंजीरें रोक
सकती हैं। तुम
परमात्मा को
पा ही लोगे।
अगर कोई रोकता
है तो
तुम्हारा मन,
तुम्हारे
मन की दुविधा।
और कोई
तुम्हें नहीं
रोकने वाला है।
मन
का सुभाव सब
कोई करै।
और
मन का स्वभाव
है दुविधा, संदेह।
मन
का सुभाव सब
कोई करै। करता
होई सु अनभे
रहै।।
रैदास
कहते हैं : सब
मन की मान कर
चल रहे हैं
इसलिए दुखी
हैं। मन की मत
मानो, मन से
ऊपर उठो, मन
के साक्षी बनो।
देखो मन का
द्वंद्व, देखो
मन का उपद्रव।
मन का देखो
नरक और जागो
मन से! मन
निद्रा है, तुम साक्षी
हो। तुम मन
नहीं हो। ऐसा
अगर तुम कर
पाओ, जाग
पाओ।
करता
होई सु अनभे रहै।।
जैसे
ही तुम मन से
जागे, तुम
परमात्मा के
साथ एक हो
जाओगे। तुम एक
हो ही। मन के
कारण एक नहीं
हो, ऐसी
भांति पैदा हो
गई है।
परमात्मा है
स्रष्टा, कर्ता,
तुम उसके
साथ हो गए तो
तुम भी
स्रष्टा हो गए,
तुम भी
कर्ता हो गए।
और जो स्रष्टा
हो गया, कर्ता
हो गया, उसके
जीवन में भय
कहां! वह अनभय
हो जाता है।
उसके जीवन से
सारे भय
समाप्त हो
जाते हैं।
खुशी
खुशी में न गम
में कोई मलाल
मुझे
बना
दिया है
मोहब्बत ने बे—मिसाल
मुझे
फिर
न तो दुख में
दुख दिखाई
पड़ता, न सुख
में सुख दिखाई
पड़ता। एक
बेजोड़ अनुभव
पैदा होता है।
प्रेम
परवानों को
वहां ले आता
है, उस
मंजिल पर, उस
मुकाम पर, जहां
से सब द्वंद्व
पीछे छूट जाते
हैं— सुख के
दुख के, दिन
के रात के, जीवन
के मृत्यु के,
वसंत के
पतझड़ के।
फल
कारण फूली
बनराइ। फलु
लागा तब फूल
बिलाई।।
रैदास
कहते हैं फल
के लिए फूल
खिलते हैं। जब
फूल खिलता है
तो यह मत
सोचना कि अपने
लिए खिलता है।
फल के लिए
खिलता है।
जैसे ही फल लग
जाता है, फूल
गिर जाता है।
हम सब यहां
परमात्मा के
लिए हैं कि
परमात्मा हम
में लग सके, वही फल है।
और जिस ने उसे
पा लिया, वही
सफल है, शेष
सब असफल हैं।
और जैसे ही फल
लग जाएगा, तुम
बिला जाओगे।
तुम तो फूल हो।
काम पूरा हो
गया। फूल का
काम इतना था
कि फल के लिए
राह बना दे।
जैसे ही फूल
का काम पूरा
हो गया, फूल
बिला जाता है।
फल
कारण फूली
बनराइ। फलु
लागा तब फूल
बिलाई।।
अपने
को पकड़ कर मत
बैठे रहो। तुम
मंजिल नहीं हो, तुम
मुकाम नहीं हो।
ज्यादा से
ज्यादा सराय
हो, घर
नहीं हो। चल
पड़ना है सुबह
होते ही। एक
पड़ाव हो। इसी
पर रुक नहीं
जाना है।
मनुष्य एक
साधन है, मनुष्य
साध्य नहीं है।
मनुष्य का
अतिक्रमण
करना है।
फ्रेड्रिक
नीत्शे का
प्रसिद्ध वचन
है : वह दिन
सबसे अभागा
दिन होगा
मनुष्य के
इतिहास में—
नीत्शे ने कहा
है— जिस दिन
आदमी अपने से
ऊपर उठने की
कोशिश छोड़ देगा।
जिस दिन आदमी
अपना
अतिक्रमण
करना छोड़ देगा
वह दिन सबसे
अभागा दिन
होगा।
मैं
नीत्शे से इस
संबंध में
राजी हूं।
मनुष्य की
गरिमा यही, गौरव
यही, कि वह
अपने से ऊपर
उठने का
प्रयास करता
है। कुत्ते कुत्ते
ही रहते हैं।
सिंह सिंह ही
रहते हैं।
कबूतर कबूतर
ही रहते हैं।
गुलाब गुलाब
ही रहते हैं।
कोई अपने से
ऊपर नहीं उठता।
सिर्फ मनुष्य
है एक जो अपना
अतिक्रमण कर
सकता है!
इसमें कभी कोई
बुद्ध, कभी
कोई नानक, कभी
कोई रैदास
पैदा हो जाता
है। तुम्हारी
भी यह क्षमता
है। लेकिन एक
हिम्मत
तुम्हें समझ
लेनी चाहिए।
फूल को विलीन
हो जाना होगा
फल के प्रकट
होते ही।
असल
में फूल का
विलीन होना और
फल का प्रकट
होना एक साथ
ही घटते हैं।
लेकिन कुछ लोग
बस आदमी होने
में ही लगे
रहते हैं।
कहीं
मश्गले—असबाबे—सफर
पीछे न रह जाए
शरीके—कारवा
हो,
इतिजामे—कारवा
कब तक
यह
यात्री—दल चल
पड़ा है। यह
कतार
तीर्थंकरों
की,
अवतारों की,
बुद्धों की,
संतों की, पैगंबरों की,
मसीहाओं की—यह
यात्री—दल चल
पड़ा है। तुम
सम्मिलित हो
जाओ इस दल में।
इसलिए मैं
पुकार रहा हूं
कि हो जाओ
संन्यासी।
संन्यासी
होने का अर्थ
है, यात्री—दल
में सम्मिलित
हो जाओ। कब तक
इंतजाम ही
करते रहोगे? कुछ लोग
कहते हैं
होंगे, जरूर
होंगे, अभी
हम इंतजाम कर
रहे हैं।
कहीं
मश्गले—
असबाबे—सफर
पीछे न रह जाए
कहीं
ऐसा न हो कि
तुम अपना
बोरिया—बिस्तर
बांधते—बांधते
पीछे ही रह
जाओ और यात्री—दल
बहुत दूर निकल
जाए।
शरीके—कारवा
हो,
इतिजामे—कारवा
कब तक
तैयारी
ही करते रहोगे? कुछ
लोग ऐसे ही
हैं जो तैयारी
ही करते रहते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
हमेशा रेलवे
का टाइम—टेबल
पढ़ता रहता है।
मैंने उससे
पूछा कि
नसरुद्दीन, दुनिया
में और भी
पढ़ने की चीजें
हैं, तू भी
खूब, रेलवे
का टाइम—टेबल
पढ़ता है! वह
कहता है कि
यात्रा का
इंतजाम करता हूं।
अगले वर्ष
मसूरी जा रहा
हूं। मैंने
पूछा कि पिछले
वर्ष तू कह
रहा था कि अगले
वर्ष शिमला जा
रहे हैं। उसने
कहा, वह
इरादा बदल
दिया।
और
उसके पहले तू
कह रहा था कि
आबू जा रहे
हैं। वह भी
इरादा बदल
दिया। मैंने
कहा मसूरी का
पक्का है? उसने
कहा अभी तो
पक्का है। अब
अगला साल आए
तब देखेंगे।
तैयारियां
ही कर रहा है।
ऐसे ही लोग
हैं जो
तैयारियां ही
कर रहे हैं।
जब तुम गीता
पढ़ते हो, कुरान
पढ़ते हो, बाइबिल
पढ़ते हो, तो
क्या पढ़ रहे
हो? टाइम—टेबल,
रेलवे की
समय—सारिणी—
कि कहां जाएं?
स्वर्ग
जाएं कि नरक
जाएं? कि
सातवां
स्वर्ग ठीक
रहेगा कि
छठवां जंचता है?
सामान ही
बांधते रहोगे
कि कभी यात्रा
पर भी निकलोगे?
बहुत देर
वैसे ही हो
चुकी है।
शरीके—कारवा
हो,
इंतिजामे—कारवा
कब तक
ग्यानै
कारन कर अभ्यासू।
ग्यान भया
तहं करमैं
नासू।।
सारा
अभ्यास—योग, ध्यान,
तप— सारा
अभ्यास, परमात्मा
का जान हो जाए,
अनुभव हो
जाए, इसलिए
है। इन्हीं
में मत उलझ
जाना। नहीं तो
कुछ लोग
जिंदगी इसी
में लगा देते
हैं कि वे आसन
ही साध रहे
हैं। मैं ऐसे
लोगों को
जानता हूं जो
जिंदगी भर से
आसन ही साध
रहे हैं। भूल
ही गए कि आसन
अपने आप में
व्यर्थ है।
ध्यान कब
साधोगे? और
ध्यान भी अपने
आप में काफी
नहीं है समाधि
कब साधोगे? और समाधि भी
अपने आप में
काफी नहीं है।
ये सब साधन ही
साधन हैं, सीढ़ियां
हैं। सीढ़ियों
पर मत अटक
जाना।
सीढ़ियां बहुत
प्यारी भी हो
सकती हैं, स्वर्ण—मंडित
भी हो सकती
हैं, उनका
भी अपना सुख
हो सकता है।
लेकिन ध्यान
रखना कि
सीढ़ियां
मंदिर की हैं,
प्रवेश
मंदिर में
करना है।
मंदिर का राजा,
मंदिर का
मालिक भीतर
विराजमान है।
सब
अभ्यास करो, लेकिन
एक ध्यान रहे
सब अभ्यास
साधन मात्र
हैं। ध्यान हो,
पूजा हो, आराधना हो, सब अभ्यास हैं
और साधन हैं।
एक न एक दिन
इन्हें छोड़
देना है। कहीं
ऐसा न हो कि
अभ्यास करते—करते
अभ्यास में ही
जकड़ जाओ!
ऐसी
ही अड़चन हो
जाती है। लोग
पकड़ लेते हैं
फिर अभ्यास को।
फिर वे कहते
हैं,
तीस वर्षों
से साधा है, ऐसे कैसे
छोड़ दें? तो
फिर साधन ही
साध्य हो गया।
फिर तुम अंधे
हो गए। फिर
तुम रेलगाड़ी
में बैठ गए और
यह भूल ही गए
कि कहां उतरना
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
सफर कर रहा था।
टिकट कलेक्टर
ने उससे टिकट
पूछा। यह जेब
देखी उसने वह
जेब देखी, बिस्तर
खोला, सूटकेस
खोला, सारी
चीजें फैला
दीं। कलेक्टर
भी चिंतित हो
गया। उसने कहा
रहने दीजिए आप,
भले आदमी
मालूम होते
हैं। जरूर
होगी टिकट।
उसने
कहा कि ऐसी की
तैसी टिकट की।
तुम्हारे लिए
कौन टिकट खोज
रहा है!
उसने
कहा फिर तुम
किसके लिए खोज
रहे हो?
उसने
कहा मैं इसलिए
खोज रहा हूं
कि मुझे जाना कहां
है!
जाना
कहां है, यह
याद रखना।
कहीं ऐसा न हो
कि ट्रेन में
ही बैठे रहो, याद भी भूल
जाए कि कहां
जाना है।
एक
शराबी एक
टैक्सी में
बैठा और उसने
कहा. जल्दी
करो,
मुझे
ओबेराय होटल
पहुंचना है।
और तेजी से।
एक सेकेंड बाद,
गाड़ी तो चली
ही नहीं, टैक्सी
ड्राइवर ने
कहा कि आ गया
ओबेराय होटल,
उतरिए। शराबी
उतरा, बोला.
कितना पैसा? पैसे दिए
पांच रुपये और
चलते वक्त
ड्राइवर से बोला
कि इतनी तेजी
से मत चलाया
कर।
वह
असल में
ओबेराय होटल
के सामने ही
खड़ी थी टैक्सी, चलाने
की जरूरत ही न
पड़ी थी। इतनी
तेजी से चलाना
खतरनाक है! एक
सेकेंड न लगा,
ओबेराय
होटल पहुंचा
दिया! मुझे तो
पता ही नहीं
चला, कब
चले कब
पहुंचे!
एक
और शराबी के
संबंध में
मैंने सुना है।
बैठा टैक्सी
में और उसने
कहा एकदम तेजी
से चलो! और
टैक्सी वाला
भी पीए था।
यहां दुनिया
बड़ी अजीब है।
यहां तुम ही
थोड़े पीए हो, तुम्हारे
नेता भी पीए
हैं। टैक्सी
वाला भी एकदम
भागा, बे—तहाशा
भागा। कोई आधा
घंटा तेजी से
चक्कर लगाने
के बाद आखिर
टैक्सी वाले
को थोड़ा होश
आया, उसने
कहा भई जाना
कहां है? उस
शराबी ने कहा
अगर हमको यही
मालूम होता तो
हम पैदल ही न
चले गए होते।
जाना कहां है,
यही तो हमें
मालूम नहीं है,
इसलिए
तुम्हारी
टैक्सी में
बैठे हैं। मगर
अब यह आने—जाने
की फिकर छोड़ो,
व्यर्थ समय
खराब न करो, तेजी से चलो।
पहुंचना जरूर
है और जल्दी
पहुंचना है।
लोग
जल्दी में हैं, पहुंचना
भी चाहते हैं;
मगर कहां, कुछ साफ
नहीं है। तुम
कहां जा रहे
हो? अगर
तुम से कोई
पकड़ कर झकझोर
कर पूछे कि
तुम सच में
कहां जो रहे
हो, तो तुम
भी कंधे
बिचकाओगे।
तुम कहोगे, भाई ऐसी
बातें न पूछो।
ऐसी बातें
नहीं पूछा
करते। और बीच
बाजार में तो
नहीं पूछते
किसी से। किसी
की भद्द
करवानी है? किसको पता
है कि कौन
कहां जा रहा
है! कहां से कौन
आ रहा है, कहां
कौन जा रहा है—
कुछ पता नहीं
है। चलना ही
गंतव्य हो गया
है। साधन ही
साध्य हो गए
हैं।
और
लोग ऐसे कठिन
सवाल नहीं
उठाना चाहते
हैं,
क्योंकि
कठिन सवालों
से बेचैनी
पैदा होती है।
पूछना ही नहीं
चाहते कि कहां
जा रहे हैं।
जब भी पूछने
के लिए सुविधा
मिलती है, तेजी
से चलने लगते
हैं, ताकि
सारी शक्ति
चलने में लग
जाए और यह
सवाल से बचना
हो जाए। लोग
जिंदगी की
समस्याओं को
टालते हैं, स्थगित करते
हैं।
ग्यानै
कारन कर अभ्यासू।
रैदास
ठीक कहते हैं :
अभ्यास तो
करना— ध्यान
का करो, प्रेम
का करो, भक्ति
का करो— लेकिन
स्मरण रहे, परमात्म—शान
लक्ष्य है।
इसी में मत
अटक जाना!
ग्यान
भया तहं करमैं
नासू।।
और
जैसे ही शान
हो जाएगा वैसे
ही सारा
अभ्यास, सारे
साधन, सारे
कर्म खो
जाएंगे। फिर
क्या जरूरत रह
जाएगी।
घृत
कारन दधि मथै
सयान।
घी
निकालना है तो
दही को मथते
हैं,
जब घी निकल
आया तो दही को
मथना बंद कर
देते हैं। फिर
दही को जो मथे
वह पागल है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा
है ध्यान करना
और एक दिन ध्यान
छोड़ भी देना।
जिस दिन समाधि
की झलक आने
लगे,
ध्यान छोड़
देना। कहीं
ऐसा न हो कि
तुम ध्यान के
चक्कर में ऐसे
पड़ जाओ कि जब
समाधि की भी
झलक आने लगे
तो आंखें मींच
कर अपने ध्यान
में ही लगे
रहो कि यह
समाधि कहीं
बाधा न डाले
और। और यह
क्या होने
लगा! मेरे
ध्यान में एक
नई बाधा आने
लगी। मैं तो
ध्यानी हूं
मैं तो ध्यान
में ही रहूंगा!
घृत
कारन दधि मथै
सयान। जीवन
मुकत सदा
निरबान।।
अगर
इतना तुम कर
सको तो जीते—जी
मुक्ति है और
जीते—जी
निर्वाण है।
नहीं मरने के
बाद,
अभी और
यहीं!
देखिए
अब कौन—सा
द्या जगाता है
हमें
मुंह
छुपा के सो
रहे हैं दामने—साहिल
से हम
सामने
मंजिल है और
आहिस्ता उठते
हैं कदम
पास
आकर हो रहे
हैं दूर फिर
मंजिल से हम
कामयाबी
में भी है
नाकामयाबे—जिदगी
ऐन
मंजिल पर नहीं
हैं आश्ना
मंजिल से हम
और
मंजिल दूर
नहीं है।
ऐन
मंजिल पर नहीं
हैं आश्ना
मंजिल से हम
कठिनाई
हमारी यह है
कि हम मंजिल
से परिचित नहीं
हैं;
अन्यथा हम
मंजिल पर ही
हैं।
सामने
मंजिल है और
आहिस्ता उठते
हैं कदम
पास
आकर हो रहे
हैं दूर फिर
मंजिल से हम
और बहुत
बार तुम बहुत
करीब आ जाते
हो होश के, मगर
फिर छिटक जाते
हो, फिर
भटक जाते हो, फिर कोई नया
भटकाव पकड़
लेते हो। मन
बहुत बेईमान
है। मन बहुत
चालबाज है। मन
तुम्हें
निरंतर नये—नये
दुखों में ले
जाता है; क्योंकि
मन जी ही सकता
है दुख में।
मन आनंद में
मर जाता है।
आनंद मन की
मृत्यु है।
इसलिए तैयार
हो जाओ।
जो दीसै सो
होई बिनासा।।
मिटने
के लिए तैयार
हो जाओ। अगर
पाना है
परमात्मा की
ज्योति को तो
परवाने बनने
के लिए तैयार
हो जाओ। और—
बिनु देखे
उपजै नहि आसा।
परवाने
को भी जलने का, मिटने
का भाव नहीं
उठता, जब
तक शमा दिखाई
न पड़े। शमा
कहां दिखाई
पड़ेगी? शास्त्र
में? शमा
देखनी हो तो
किसी जीवित
गुरु में ही
देखनी होगी; जहां दीया
जल रहा हो
वहां देखनी
होगी।
कहि
रविदास परम
बैराग। रिदै
राम को न जपसि
अभाग।।
अभागे
हैं वे
जिन्होंने
राम से परिचय
नहीं बनाया, जिन्होंने
राम को नहीं
जपा। राम को
जपने से परम
वैराग्य पैदा
होता है।
वैराग्य
करना नहीं
पड़ता। छोड़ना
नहीं पड़ता
संसार। भागना
नहीं पड़ता
कहीं। रैदास
कभी नहीं भागे, गृहस्थ
रहे, घर
में ही रहे।
जैसे तुम रहते
हो ऐसे ही रहे।
जिंदगी भर
जूते सीते रहे।
जूते सीते—सीते
ही, जूते
बेचते—बेचते
ही परम
वैराग्य को
उपलब्ध हुए।
जैसे कबीर
बुनते रहे
कपड़े, जुलाहे
थे, वैसे
रैदास सीते
रहे जूते, चमार
थे। घर था, गृहस्थी
थी, पत्नी—बच्चे
थे। नहीं कुछ
छोड़ा, नहीं
कुछ छोड़ने की
जरूरत है। परम
वैराग्य
स्वयं तुम पर
उतर आता है—
तुम सिर्फ राम
के साथ रमने
लगो; तुम
सिर्फ अपने
भीतर की
सीढ़ियां
उतरने लगो। और
मंजिल कहीं
दूर नहीं है।
जिस धन की तुम
तलाश कर रहे
हो, वह
तुम्हारे
भीतर है। तलाश
तुम बाहर कर
रहे हो। जिस
राज्य को तुम
खोजते हो, वह
तुम्हारे
भीतर है। और
तुम दुनिया को
जीतने चल पड़े।
देख
ऐ मुन्इम! यही
था मुझमें—तुझमें
इप्तियाज
तेरा
कब्जा था जहां
पर,
मेरा कब्जा
दिल पे था
ऐ
धनिक, ऐ धन
वाले देख, मुझमें
और तुझमें
इतना ही अंतर
था। थोड़ा ही
अंतर, पर
बहुत बड़ा फिर
भी, बड़े से
बड़ा और छोटे
से छोटा।
देख
ऐ मुन्इम! यही
था मुझमें—तुझमें
इस्तियाज
ऐ
धनिक, इतना—सा
ही भेद था
मुझमें और
तुझमें
तेरा
कब्जा था जहां
पर,
मेरा कब्जा
दिल पे था
सह
की सार
सुहागिनि
जानै। तजि
अभिमान सुख
रलिया मानै।।
सुहागिन
ही जानती है
प्रेम का रस, प्रेम
का स्वाद, सुहाग
का आनंद।
सह
की सार
सुहागिनि
जानै।
मिलन
का उसे ही पता
है।
तजि
अभिमान सुख
रलिया मानै।।
क्योंकि
मिलन में ही
वह अपने
अभिमान को छोड
देती है। और
अभिमान को
छोड़ने में ही
उसके जीवन में
रंग उतरता, रस
उतरता है।
तनु
मनु न सुनै
अंतर राखै।
तन
भी दे देती है, मन
भी दे देती है।
कुछ भेद नहीं
रखती, कुछ
छिपाती नहीं,
अपने अंतर
में कुछ नहीं
छिपाती।
अबरा
देखि न सुनै न
माखै।।
न
तो अन्य को
देखती है, न
अन्य को सुनती
है। जिसने
किसी को प्रेम
किया है, उसे
बस अपना
प्रेमी ही
दिखाई पड़ता है,
उसे कोई और
दिखाई नहीं
पड़ता। और
जिसने राम को
प्रेम किया है
उसे राम ही
दिखाई पड़ता है,
कोई और
दिखाई नहीं
पड़ता। यह सारा
जगत राममय हो
जाता है।
लेकिन
यहां प्रेम
कहां! प्रेम
के नाम से तो न
मालूम क्या—क्या
चल रहा है!
फौज
में नये
रंगरूटों की
भर्ती चल रही
थी। कप्तान ने
चंदूलाल का
चुनाव करते
हुए कहा, चंदूलाल,
और सब बातें
तो तुम्हारे
बारे में ठीक
हैं।
तुम्हारा
चरित्र
बिलकुल चांद
की तरह
उज्ज्वल, तुम्हारा
स्वास्थ्य भी
ठीक है। लेकिन
क्या तुमने
कोई वीरता का
काम भी कभी किया
है?
चंदूलाल
बोले, हां
हुजूर, किया
है। मैं तीन
साल तक
शादीशुदा रह
चुका हूं।
यहां
प्रेम के नाम
पर क्या—क्या
चल रहा है, कहना
बहुत कठिन है।
प्रेम जैसे एक
युद्धक्षेत्र
है! नसरुद्दीन
कुछ दिनों के
लिए शहर से
बाहर जा रहा
था। जाते—जाते
अपनी पत्नी
गुलजान से
बोला सुनो
गुलजान, वैसे
तो मैं अगले
सप्ताह तक लौट
आऊंगा और यदि किसी
कारणवश न लौट
सका तो पत्र
लिख दूंगा कि
मैं क्यों
नहीं आ सका।
गुलजान
बोली : पत्र
लिखने की
जरूरत नहीं है, वह
मैंने पहले ही
तुम्हारी कोट
की जेब से
निकाल कर पढ़
लिया है।
यहां
किसको किस पर
विश्वास है!
यहां पति भी
धोखा दे रहा
है,
पत्नी भी
धोखा दे रही
है। वह पहले
से ही चिट्ठी
रखे हैं लिखे
हुए कि किन कारणों
से नहीं आ रहा
हूं। मगर वही
कोई होशियार
है ऐसा नहीं
है, पत्नी
भी पहले ही पढ़
चुकी है।
पत्नियों
से कुछ भी
छिपाना
मुश्किल है।
उनकी आंखें
गहरी होती हैं।
पति जितना
छिपाने की
कोशिश करता है
उतने ही मुश्किल
में पड़ जाता
है।
एक
रात मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी ने सुना
कि मुल्ला जोर—जोर
से कह रहा है, कमला—
कमला—नींद में।
पत्नियां
नींद में भी
नहीं छोड़ती
पीछा। नींद
में भी सुनती
हैं कि पति
क्या कह रहा
है। उसी वक्त
हिला कर उठाया,
कहा कि यह
क्या कमला—कमला
कर रखा है? यह
कमला कौन है?
एक
क्षण तो
मुल्ला झिझका, एकदम
नींद से उठा
था, कुछ
समझ में भी
नहीं आया, फिर
होश आया। उसने
कहा, कमला
कोई नहीं है, यह एक घोड़ी
का नाम है। और
तू तो जानती
है कि मुझे
रेसकोर्स में
रस है। और इस
घोड़ी पर मैंने
दांव लगाया
हुआ है।
बात, मुल्ला
ने सोचा आई—गई
हो गई। लेकिन
दूसरे दिन
सुबह जब वह
अपनी दाढ़ी बना
रहा था, उसकी
पत्नी ने
दरवाजे पर
दस्तक दी बाथरूम
के और कहा कि
दरवाजा खोलो।
दरवाजा
खोला, उसने
कहा कि फोन
आया है
तुम्हारे नाम।
किसका
फोन?
तो उसने कहा,
उसी घोड़ी का।
पत्नियों
से बचा नहीं
सकते।
वह
घोड़ी कह रही
है कि प्लाजा
टाकीज में शाम
को छह बजे
मिलना।
इस
जिंदगी में
प्रेम के नाम
पर जो चल रहा
है,
उसकी बात
नहीं कर रहे
हैं रैदास।
लेकिन इस
जिंदगी में भी
कभी—कभी, कहीं—कहीं
वैसे अनुभव भी
लोगों को हो
जाते हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण
है कि बहुत
लोगों को नहीं
ऐसा अनुभव हो
पाता जिसको
प्रेम कहें।
होना चाहिए
सभी को। हम
समाज ऐसा
बेहूदा बनाए
हैं कि नहीं
हो पाता। हमने
प्रेम के ऊपर
इतनी शर्तें
लाद दी हैं कि
प्रेम मर गया
है। हमने
प्रेम को इतना
बोझ दे दिया
है कि प्रेम नहीं
सह पाता और
टूट गया।
प्रेम
बहुत नाजुक है, फूल
जैसा नाजुक
है! और हमने
इतने पत्थर
उसके ऊपर रख
दिए हैं कि
फूल तो कभी का
दब गया, कभी
का सड़ गया।
लेकिन कभी—कभी
इस जीवन में
भी प्रेम के
दर्शन होते
हैं। कभी दो
व्यक्तियों
के बीच ऐसा
प्रेम घटता है—
जिस प्रेम में
आकाश की सुगंध
होती है, जिस
प्रेम में
तारों की
रोशनी होती है;
जिस प्रेम
में दूर की
ध्वनि होती है,
जिस प्रेम
में हृदय का
संगीत होता
है! ये वचन उन्हीं
के लिए सार्थक
हो सकते हैं, वे ही समझ
सकेंगे।
सह
की सार
सुहागिनि
जानै। तजि
अभिमान सुख
रलिया मानै।।
तनु
मनु न सुनै
अंतर राखै।
अबरा देखि न
सुनै न माखै।।
उसे
दूसरा दिखाई
ही नहीं पड़ता।
सो
कत जाने पीर
पराई। जाकै
अंतर दरद न
पाई।।
और
वही जान सकता
है दूसरे की
पीर को, दूसरे
की पीड़ा को, जिसने दर्द
को जाना हो।
जिसने प्रेम
को जाना हो, वही प्रेम
के इन शब्दों
को समझ सकेगा।
प्रेम करो—
पत्नी से, बच्चे
से, मित्र
से। जहां कहीं
अवसर मिल सकता
हो प्रेम का, वहीं प्रेम
के पौधे को
सींचो।
क्योंकि
प्रेम का पौधा
ही एक दिन
तुम्हें प्रार्थना
तक ले जाएगा।
और कोई उपाय
नहीं है।
दुःखी
दुहागिन दुइ
पखहीनी। जिनि
नाह निरंतरि
भगति न कीनी।।
अभागे
हैं वे
जिन्होंने
भक्ति को नहीं
जाना। लेकिन
भक्ति को
जानोगे कैसे? प्रेम
का ही अंतिम
आत्यंतिक रूप
है भक्ति। प्रेम
ही नहीं जाना।
दुःखी
दुहागिन दुइ
पखहीनी।
तुम्हारी
अवस्था तो ऐसी
है कि जैसे
किसी पक्षी के
दोनों पंख काट
दिए गए हों और
फिर उससे कहा जाए, आकाश
में उड़ो।
मेरा
प्रयास यहां
यही है कि
तुम्हें पहले
प्रेम सिखाऊं।
इसलिए
परमात्मा की
क्या तुमसे
बात करूं, कैसे
बात करूं? पहले
तुम्हें
प्रेम सिखाऊं,
फिर तुम
प्रार्थना
में उतर सकोगे।
और प्रार्थना
में उतरोगे तो
एक दिन
परमात्मा को
पा सकोगे। अ ब
स से शुरू
करना पड़ रहा
है।
और
सदियों—सदियों
का कचरा जम
गया है
तुम्हारे
दर्पण पर। और
न मालूम किस—किस
चीज को तुमने
प्रेम समझ रखा
है,
और न मालूम
किन
औपचारिकताओं
को तुमने
प्रार्थना
मान लिया है, और मंदिर में
पत्थर की
मूर्तियां रख
ली हैं और
उनको तुमने
भगवान मान
लिया है।
तुमने सब झूठा
कर डाला।
तुम्हारे
दोनों पंख कट
गए हैं। अब
तुम आकाश में
उड़ नहीं पाते।
और उड़ न सको तो
कैसे आकाश का
भरोसा आए! उड़ न
सको तो कैसे
मानो कि आकाश
है!
राम—प्रीति
का पंथ
दुहेला।
कठिन
है रास्ता राम—प्रीति
का! साधारण
प्रीति का
रास्ता भी कुछ
कम कठिन नहीं
है। सबसे बड़ी
कठिनाई तो यह
है कि अपने को
मिटाना पड़ता
है,
अपने को
डुबाना पड़ता
है। और तुम तो
प्रेम में भी
एक—दूसरे पर
कब्जा करने की
कोशिश करते हो।
पति पत्नी पर
कब्जा करने की
कोशिश कर रहा
है, पत्नी
पति पर कब्जा
करने की कोशिश
कर रही है।
वहां भी पूरा
संघर्ष चल रहा
है, राजनीति
चल रही है, खींचातान
चल रही है, प्रतियोगिता
चल रही है, संघर्ष
चल रहा है।
मीठी—मीठी
बातों के पीछे
छिपी कटारें
चल रही हैं।
साधारण
प्रीति का
रास्ता भी
कठिन है।
कठिनाई क्या
है?
कठिनाई यही
है कि अपने को
मिटाना पड़ता
है, झुकना
पड़ता है। तो
परमात्मा की
प्रीति का
रास्ता तो
निश्चित दुहेला
है, बहुत
कठिन है, दुर्गम
है।
संगि
न साथी गवन
अकेला।।
और
इसलिए भी कठिन
है कि वहां न
कोई संगी है न
साथी है, अकेले
जाना है।
एकांत की उड़ान
है।
दुखिया
दरदमंद दरि
आया। बहुतै प्यास
जबाब न पाया।।
बड़ा
महत्वपूर्ण
सूत्र है।
कहि
रविदास सरनि
प्रभु तेरी।
ज्यूं जानहु
त्यूं करू
गति मेरी।।
रैदास
कहते हैं कि
जो भी
परमात्मा के
दरवाजे पर
दुखी की तरह
गया,
दरदमंद की
तरह गया, कुछ
मांगने गया, भिखमंगे की
तरह गया, उसे
कोई उत्तर
नहीं मिला।
उसकी
प्रार्थना
व्यर्थ चली गई।
बहुतै
प्यास जबाब न
पाया।।
चाहे
कितनी ही उसकी
प्यास हो, उसको
जवाबनहीं
मिलेगा।
क्योंकि अभी
भी वह
परमात्मा से
अपना ही काम लेना
चाहता है। अभी
अहंकार मिटा
नहीं। अहंकार
परमात्मा का
भी शोषण करना
चाहता है। वह
कहता है, ऐसा
करो मेरे लिए;
मैं कहता हूं, ऐसा करो! वह
अभी भी
परमात्मा पर
समर्पित नहीं है।
वह यह नहीं
कहता कि जो
तेरी मर्जी।
कहि
रविदास सरनि
प्रभु तेरी।
रैदास
ने कहा. हमने
तो ऐसे पाया।
हमने कैसे
पाया वह हम
बताए देते हैं।
हमने ऐसे पाया
कि हमने कहा, सरनि
प्रभु तेरी, हम तेरी शरण
हैं! ज्यू
जानहु—तुम
जैसा जानते हो—
त्युं करु गति
मेरी।
तुम्हारी जो
मर्जी हो वैसी
मेरी गति करो।
तुम मुझे नरक
भेज दो तो भी
मैं आनंदित, नाचता हुआ
जाऊंगा, क्योंकि
तुमने भेजा जो।
मैं स्वर्ग
नहीं मांग्ता।
नरक की अग्नि
मेरे लिए शीतल
हो जाएगी, क्योंकि
तुमने भेजा जो।
मांगा स्वर्ग
मेरे काम का
नहीं। बिन
मांगे तुम जो
दे दोगे, वही
मेरा स्वर्ग
है।
रैदास
कहते हैं उसके
द्वार पर कोई
मांग लेकर मत
जाना। और तुम
सब मांग लेकर
ही जाते हो।
तुम्हारी जब
कोई मांग होती
है तभी तुम
प्रार्थना
करते हो।
प्रार्थना
शब्द का अर्थ
ही मांग हो
गया है। इसलिए
मांगने वाले
को प्रार्थी
कहते हैं—कुछ
मांगने आया।
प्रार्थना
का अर्थ मांग
नहीं है। प्रार्थना
का अर्थ दान
है।
प्रार्थना का
अर्थ समर्पण
है।
प्रार्थना का
अर्थ है : मैं
तुम्हारी शरण
आया। जैसा
बुरा— भला हूं
स्वीकार कर लो।
और जो
तुम्हारी
मर्जी हो, क्योंकि
तुम जानते हो,
मैं क्या
जानता हूं!
जहां चलाओ, चलूंगा।
जहां उठाओ, उठूंगा।
जहां बिठाओ, बैठूंगा।
रैदास
जूते सीते और
बेचते। और
उनके पास मीरा
जैसी शिष्या!
और भी बहुत
शिष्य, हजारों
शिष्य थे
रैदास के, वे
उनसे कहते कि
अच्छा नहीं
लगता कि आप
जूते सीएं। वे
जूता सीते
रहते और
ज्ञानचर्चा
भी चलाते रहते,
ब्रह्मचर्चा
भी चलाते। वे
कहते, जंचता
नहीं, अच्छा
नहीं लगता। आप
और जूता सीएं!
और हम सबके
रहते! हम सब
करने को राजी
हैं।
रैदास
उनसे कहते जब
तक उसकी मर्जी
जूता सिलाने
की है, मैं
क्या करूं? वह तो कहता
ही नहीं कि
रैदास, जूता
सीना बंद कर।
वह तो जब भी
कहता है, यही
कहता है कि
तेरे जूते
मुझे बहुत
पसंद आते हैं।
जो भी मेरे
जूते पहनता है
वह राम ही तो
है! कितने राम
आकर मुझसे
नहीं कह गए कि
तुम्हारे
जूते हमें बहुत
पसंद आते हैं—
ऐसे सुंदर
जूते कोई नहीं
बनाता।... कैसे
बंद कर दूं!
उसकी मर्जी
होगी तो बंद
हो जाएगा।
उसकी मर्जी है
तो जारी रहेगा।
अगर जन्मों—जन्मों
तक भी वह भेज
कर मुझसे जूते
सिलवाता रहे
तो भी मैं
आनंद से सीता
रहूंगा।
गाते
गीत,
सीते जूते।
गुनगुनाते
राम को, सीते
जूते।
ऐसे
जो आता है
प्रभु के
द्वार पर वही
स्वीकार होता
है,
वही प्रवेश
कर पाता है।
प्रार्थना
का सार सूत्र
है : जो तेरी
मर्जी है वह
पूरी हो।
आज इतना
ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएंजय रविदास जय ओशो
जवाब देंहटाएंजीवन जो मिला हमें वह आनंद हुआ आपकी बातों से सहमत हूं बाबा ओशो तो घट घट मोरा साइयां सुनी सैज़ और बलिहारी जिस घट की जागत परगट हुए राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम
जवाब देंहटाएंओशो रजनीश जैन थे. ओशो रजनीश ने मक्खलि गोसाल के बारे में भी कहा है जिसे डा. धर्मवीर ने "महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल" में लिया है.
जवाब देंहटाएंओशो ने गौतम बुद्ध को क्षत्रिय कहा है और महावीर जैन को भी.
अब ये बताओ.....
डा. अम्बेडकर चमारों को "अछूत" लिखते हैं.
ओशो रजनीश, गौतम बुद्ध को क्षत्रिय लिखता है.
गौतम बुद्ध के सारे दार्शनिक ब्राह्मण ही थे. चमारों को ब्राह्मण ने ही अछूत बनाया है.
फिर चमार, बौद्ध धर्म के कैसे हुए....?
किसी एक चमार का नाम बता सकते हैं जिस ने गौतम बुद्ध की शरण ली हो....?