प्रश्न-सार
1—कहा
जाता है कि
शंकर हिंदू
वेदांती थे और
आपने कहा कि
शंकर छिपे हुए
बौद्ध हैं; इसे कृपया
स्पष्ट करें।
2—शंकर
और आप भजन
करने को कहने
के पहले हमें
हर बार मूढ़
कह कर क्यों
संबोधित करते
हैं?
3—रेचन
में केवल
क्रोध,र् ईष्या, दुख
आदि के
नकारात्मक
भाव ही बाहर
आते हैं। क्यों?
4—कृपया
डूबने तथा होश
और बेहोशी की
सीमा-रेखाओं
को स्पष्ट
करें।
5—क्या
प्रार्थना की
जगह भजन भी
धन्यवाद
ज्ञापन मात्र
है?
पहला
प्रश्न:
कहा
जाता है कि
शंकर हिंदू
वेदांती थे और
आपने कहा कि
शंकर छिपे हुए
बौद्ध हैं; इसे कृपया
स्पष्ट करें।
शंकर
छिपे हुए
बौद्ध भी हैं, छिपे हुए
जैन भी, छिपे
हुए मुसलमान
भी; वैसे
ही जैसे बुद्ध
छिपे हुए
हिंदू हैं, छिपे हुए
जैन भी, छिपे
हुए ईसाई भी; और वैसे ही
जैसे
क्राइस्ट
छिपे हुए
हिंदू हैं, छिपे हुए
मुसलमान, छिपे
हुए बौद्ध भी।
जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
एक को ही जाना
है; दो हैं
ही नहीं जानने
को। हिंदू, मुसलमान, ईसाई--सब
ऊपर-ऊपर के
नाम हैं, ऊपर
की पहचान हैं;
भीतर का
सत्य एक है।
भाषा अलग होगी;
जो कहा गया
है, वह अलग
नहीं है; ढंग
अलग होगा कहने
का, समझाने
की प्रक्रिया
अलग होगी; लेकिन
जो स्वाद मिला
है, उसके
अलग होने की
कोई संभावना
नहीं है।
इसे
ठीक से समझ
लेना जरूरी है; इसकी नासमझी
न मालूम कितने
उपद्रव का
कारण बनती है।
हिंदू
मुसलमान से
लड़ते हैं, जैन
बौद्धों से
लड़ते हैं। और
जहां किसी तरह
का संघर्ष
दिखाई पड़े, समझ लेना कि
सत्य वहां से
खो जाता है; तुम्हारे
लड़ने में ही
सत्य की हत्या
हो जाती है; तुम्हारे
संघर्ष में ही
असत्य
निर्मित हो जाता
है। क्योंकि
जहां भी
संघर्ष है, वहीं हिंसा
है; फिर
चाहे हिंसा
शरीर के
संघर्ष में
प्रकट हो या
बुद्धि के
संघर्ष में, इससे कुछ
भेद नहीं
पड़ता। दूसरे को
मिटाने की
चेष्टा चाहे शरीरगत हो
और चाहे
मानसिक, हिंसा
हिंसा
है। दूसरे में
गलत देखने की
आकांक्षा और
वृत्ति हिंसा
का ही फैलाव
है। जब तक तुम
विपरीत में भी
स्वयं को न
देख पाओ, तब
तक जानना, मन
से ऊपर उठना
नहीं हुआ; चेतना
के मंदिर में
प्रवेश नहीं
हुआ।
उस
मंदिर के बहुत
द्वार हैं और
प्रत्येक
द्वार से प्रवेश
संभव है। और
जो मंदिर में
प्रविष्ट हो
जाता है, वह
द्वार को भूल
जाता है। कौन
याद रखता है
द्वार को
प्रवेश के बाद?
प्रवेश के
पहले द्वार
बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम होता है,
क्योंकि
उससे ही
प्रवेश करना
है; लेकिन
प्रवेश के बाद
द्वार व्यर्थ
हो जाता है।
द्वार की तरफ पीठ
हो जाती है
प्रवेश के बाद,
प्रवेश के
पहले द्वार की
तरफ आंख थी।
सब
संप्रदाय
द्वार हैं। और
जब तक
संप्रदाय तुम्हें
बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम
पड़े--हिंदू, मुसलमान, जैन--तब तक
जानना मंदिर
में प्रवेश
नहीं हुआ; अभी
द्वार पर आंख
अटकी है। जब
मंदिर में
प्रवेश हो
जाएगा तो
द्वार की तरफ
पीठ हो
जाएगी--न
हिंदू अर्थपूर्ण
रह जाएगा, न
मुसलमान
अर्थपूर्ण रह
जाएगा।
वह जो
महा अर्थ
प्रकट होगा
मंदिर के अंतरगृह
में, वह
तुम्हारे
संप्रदाय को
ही नहीं, तुम्हारे
शास्त्र को ही
नहीं, तुम्हें
भी मिटा ले
जाएगा; सब
कुछ बह जाएगा
उस बाढ़ में।
और उस बाढ़ के
बाद जो बच
रहता है, वही
तुम्हारा
स्वभाव है। उस
बाढ़ में, जो
भी पर-भाव था, सब बह जाएगा;
उस बाढ़ में,
जो भी ऊपर
के आवरण थे, सब बिखर
जाएंगे; उस
बाढ़ में, जो
भी विजातीय था,
उससे
तुम्हारे
संबंध टूट
जाएंगे। केवल
तुम बचोगे
अपने शुद्धतम कुंआरेपन,
अपनी
निर्दोषिता
में।
और
उसका स्वरूप, तुम लाख
उपाय करो, तो
भी बिना अनुभव
के नहीं समझा
जा सकता; उसका
स्वाद ही लेना
होगा; उस
मस्ती में
डूबना ही होगा;
उस नशे को
पीना ही होगा।
जब तक तुम
मदमत्त होकर,
सब भांति
खोकर, सब
कुछ लुटा कर
उसमें न डूब
जाओगे--जब तक
तुम बाकी
रहोगे, तब
तक संसार बाकी
रहेगा; जब
तुम मिट जाओगे,
तभी
परमात्मा
शुरू होता है।
जहां तक खुदी
है, वहां
तक खुदा नहीं
है। और जहां
खुदी की
समाप्ति है, वहीं खुदा
का प्रारंभ
है।
शंकर
छिपे हुए
बौद्ध हैं, क्योंकि वे
वही कह रहे
हैं जो बुद्ध
ने कहा। और
बुद्ध भी छिपे
हुए वेदांती
थे, क्योंकि
वे वही कह रहे
थे जो उपनिषद
ने कहा है।
कपड़े अलग हैं।
और कभी-कभी
कपड़े विरोधी
भी मालूम पड़ते
हैं।
इसे
थोड़ा समझें।
बुद्ध ने
उपनिषद और
वेदों का विरोध
किया, और
फिर भी
उन्होंने
उपनिषद, वेद
को ही सिद्ध
किया। विरोध
करना पड़ता है।
उपनिषद जब
जन्मे, जब
उपनिषद की
गंगा पैदा हुई,
तो गंगा बड़ी
स्वच्छ थी, निर्मल थी, गंगोत्री
थी। फिर गंगा
बही; हजारों
लोगों का
स्नान हुआ; हजारों
गांवों से
गुजरी--गंदी
हुई, कूड़ा-कर्कट हुआ, नदी-नाले
गिरे। जो
गंगोत्री में
गंगा की पवित्रता
है, वह आकर
काशी में नहीं
रह जाती। वह
रह नहीं सकती।
जैसे-जैसे समय
बीतता है, वैसे-वैसे
मूल-स्रोत
अपनी
स्वच्छता को
खो देता है।
उपनिषद
जब पैदा हुए, बुद्ध के
कोई ढाई हजार
साल पहले, तब
उनकी गरिमा
अनूठी थी; उनके
शब्द-शब्द में
प्रकाश था, पंक्ति-पंक्ति
में परमात्मा था।
बुद्ध के समय
तक वह गरिमा
खो गई, धूल
जम गई। दर्पण
तो रहा, लेकिन
बहुत धूल से
भर गया। अब
उसमें कोई
प्रतिबिंब
नहीं बनता था।
अब दर्पण अंधा
हो चुका था।
लेकिन
दर्पण के
आस-पास बड़ा
संप्रदाय खड़ा
हो गया था।
अगर बुद्ध
चेष्टा भी
करें कि हम
दर्पण को साफ
कर दें, तो वे
साफ नहीं करने
देंगे।
क्योंकि जिसे
बुद्ध धूल
कहते हैं, सांप्रदायिक
बुद्धि उसी को
अपना धर्म
कहती है।
दर्पण को तो
सांप्रदायिक
बुद्धि जानती
भी नहीं, जमी
हुई धूल को ही
जानती है; वह
धूल को ही
शृंगार मानती
है, धूल ही
आभूषण है।
कैसे राजी हो
सकती है
सांप्रदायिक बुद्धि
कि तुम धूल को
झाड़ दो! उसका
तो अर्थ हुआ हमारा
धर्म ही नष्ट
हो जाएगा।
इस धूल
के कारण बुद्ध
को इस दर्पण
को भी इंकार करना
पड़ा; क्योंकि
जब तक इस
दर्पण को
इंकार न किया
जाए, दूसरे
दर्पण के लिए
लोगों को राजी
नहीं किया जा
सकता। लेकिन
दूसरा दर्पण
ठीक वैसा ही दर्पण
है जैसा पहला
दर्पण था।
फर्क इतना ही
है कि पहला
पुराना हो गया,
जराजीर्ण
हो गया, उस
पर धूल जम गई।
सत्य संगठित
हो गया, बस
मर जाता है।
अब यह दूसरा
सत्य फिर नया
है--नवजात; सुबह
की ओस की
भांति ताजा।
नया सत्य भी
थोड़े दिन में
फिर पुराना हो
जाएगा।
शंकर
के पैदा
होते-होते
बुद्ध का सत्य
भी वैसा ही
पुराना हो
गया। समय किसी
को भी क्षमा
नहीं करता। और
समय तो हर चीज
पर धूल जमा
देता है। जो
चीज आज नई है, कल पुरानी
हो जाएगी; जो
आज छोटा सा
नवजात शिशु है,
कल बूढ़ा हो
जाएगा; जिसके
स्वागत में आज
बैंड-बाजे
बजाए थे, कल
उसको मरघट पर
विदा कर आना
पड़ेगा।
जैसे
व्यक्ति पैदा
होते हैं और
मर जाते हैं, वैसे ही
धर्म भी पैदा
होते हैं और
मर जाते हैं! समय
की धारा में
जो भी प्रवेश
करता है, वह
जराजीर्ण
होगा, बूढ़ा
होगा, व्यर्थ
होगा, कचरा
हो जाएगा।
लेकिन जब घर
में कोई मर
जाता है--मां
मर जाए--कितना
प्रेम किया था
उसे, लेकिन
मर जाने पर
कितना ही रोओ,
फिर भी मरघट
ले जाना पड़ता
है। अब कोई
नासमझ अगर मां
की लाश को घर
में रख कर बैठ
जाए, तो जो
जिंदा हैं, उनका जीना
मुश्किल हो
जाएगा। माना
कि उससे बहुत
प्रेम था; और
माना कि बड़ी
पीड़ा होती है
उसे जाकर चिता
पर जला आने
में। लेकिन
फिर भी मजबूरी
है, चिता
पर ले जाना ही
पड़ेगा; रोते
हुए जाएंगे, छाती पीटते
हुए जाएंगे, लेकिन चिता
पर तो ले जाना
ही पड़ेगा। लाश
को घर में
रखने का उपाय
नहीं।
लेकिन
जो समझ हम
शरीर के साथ
करते हैं, वही समझ हम
संप्रदाय के
साथ नहीं कर
पाते। धर्म
जीवित धर्म है,
और जब
संप्रदाय हो
जाता है तो
लाश है। पर
लाश को हम
सम्हाल कर रख
लेते हैं।
संप्रदाय की
दुर्गंध के
कारण फिर जीना
मुश्किल ही हो
जाता है। संप्रदाय
लड़ते हैं, लड़ाते
हैं। धर्म तो
एक करवाता है।
संप्रदाय
तोड़ते हैं, तुड़वाते हैं। मंदिर
और मस्जिद में
बड़ा बैर है।
मंदिर और
मस्जिद के
परमात्मा में
तो बैर नहीं
हो सकता।
मंदिर और
मस्जिद के
मानने वाले में
बड़ी शत्रुता
है। लेकिन वह
जिसकी पूजा
चली है मंदिर
में और जिसकी
पूजा चली है
मस्जिद में--और
किसी ने उसको
राम कह कर
पुकारा है और
किसी ने अल्लाह
कह कर--ये
संबोधन अलग
होंगे, लेकिन
जिसे पुकारा
है, वह तो
एक ही है।
शंकर
के समय तक
आते-आते बुद्ध
की धारा भी
गंदी हो गई; गंगोत्री न
रही, वह भी
काशी आ गई।
शंकर को फिर
खंडन करना
पड़ा। क्योंकि
अब बुद्ध को
मानने वाले
बौद्ध थे; बड़ा
संप्रदाय था;
और वे धूल
को न झाड़ने
देंगे। फिर
नये दर्पण को
निर्मित करना
पड़ा। आज फिर
हालत वैसी हो
गई है--शंकर के
दर्पण पर फिर
धूल जम गई है।
यह सदा ही होता
रहेगा।
धूल को
मत पूजना, दर्पण को
खोजना। तब तुम
एक सा ही
दर्पण सभी के भीतर
पाओगे। और जब
तुम्हें एक सा
दर्पण सभी के
भीतर दिखाई
पड़ने लगे, तभी
तुम जानना
तुममें सदबुद्धि
का जन्म हुआ
है। बुद्धि और
सदबुद्धि
का यही भेद
है। बुद्धि
खंडन करती है,
आलोचना
करती है, विरोध
करती है, विवाद
करती है; सदबुद्धि संवाद करती
है। बुद्धि
बताती है कि
भेद कहां-कहां
है; सदबुद्धि बताती है कि
अभेद कहां है।
बुद्धि
विश्लेषण करती
है, सदबुद्धि संश्लेषण
करती है।
बुद्धि
सीमाएं
खींचती है, सदबुद्धि सीमाएं
मिटाती है। और
जब सभी सीमाएं
मिट जाती हैं,
तभी असीम की
उपलब्धि होती
है।
ऐसा मत
सोचना कि तुम
सीमाओं में
बंधे-बंधे असीम
को जान लोगे।
जानेगा कौन? अगर तुम्हीं
सीमा में बंधे
हो तो असीम को
कैसे जानोगे?
तुम जो भी जानोगे, वह सीमित हो
जाएगा। असीम
को जानना हो
तो एक ही उपाय
है: अपनी
सीमाओं को तोड़
डालना। खिड़की
के भीतर से
आकाश को देखोगे,
तो उतना ही
आकाश दिखाई
पड़ेगा, जितना
खिड़की का
ढांचा होगा; उससे ज्यादा
आकाश दिखाई
नहीं पड़ सकेगा;
खिड़की आकाश
को भी सीमित
कर देगी। अगर
पूरे आकाश को
देखना हो तो
बाहर निकल आना
घर के खुले
आकाश के नीचे।
वहां तुम
हिंदू भी न रह
जाओगे, मुसलमान
भी न रह जाओगे;
क्योंकि ये
नाम खिड़कियों
के हैं। खुले
आकाश के नीचे
तुम मात्र रह
जाओगे। और वह
तुम्हारा
मात्र रह जाना
शुद्ध अस्तित्व
ही असीम को
जानने का उपाय
है। असीम को
जानना हो तो
असीम होना
पड़ेगा। वही एकमात्र
शर्त है।
क्योंकि समान
ही समान को
जान सकता है।
तुम सीमाओं
में बंधे असीम
को जानने चलोगे--कैसे
जान पाओगे? तुम अपनी
सीमाएं तो
अपने साथ ही
लेकर चलोगे; उन्हीं के
भीतर से
झांकोगे।
तुम्हें वही
दिखाई पड़ेगा,
जो तुम्हारी
सीमाएं दिखा
सकती हैं।
शंकर
ही छिपे हुए
बौद्ध नहीं
हैं, बुद्ध भी
छिपे हुए
वेदांती हैं।
जो
भ्रष्ट हो
चुका है, उसे
नष्ट करना
होता है; जो
विकृत हो गया
है, उसे
विनाश करना
होता है; जो
जराजीर्ण हो
गया है, उसे
चिता पर रखना
होता है--ताकि
नये के लिए
स्थान रिक्त हो
जाए।
मन
कहता है, पुराने
को बचा लो। मन
कहता है, पुराने
को सम्हाल लो।
लेकिन अगर तुम
पुराने को
बहुत सम्हाले
जाओगे, तो
नये को जगह न
मिलेगी। बूढ़े
का जाना जरूरी
है, ताकि
बच्चे आ सकें।
जराजीर्ण
वृक्ष गिरेगा,
ताकि नये
अंकुर फूट
सकें।
मैंने
सुना है, एक
बहुत पुराना
चर्च था। वह
जराजीर्ण हो
गया था; हवा
चलती तो लगता
कि अब गिरा, तब गिरा।
उसमें पूजा
करने वाले लोग
भी डरने लगे
थे; कभी भी
गिर सकता था।
आखिर
ट्रस्टियों
ने बैठक की कि
अब कुछ करना
ही होगा। अब
तो पुजारी भी
भीतर आने से
डरता है, पूजा
करने वाले भी
डरते हैं, पास
से गुजरने
वाले भी चर्च
के भयभीत होते
हैं; क्योंकि
कब गिर जाए!
किसकी जान ले ले! रास्ता
भी निर्जन हो
गया है, उससे
कोई गुजरता
नहीं।
तो
उन्होंने तीन
प्रस्ताव
स्वीकार किए।
एक कि पुराने
चर्च को
गिराना
पड़ेगा।
अत्यंत दुख से, सर्वसम्मति
से उन्होंने
स्वीकार
किया। और
दूसरा कि नये
चर्च को बनाना
पड़ेगा।
यह बड़ी
पीड़ा से
स्वीकार किया, क्योंकि
पुराने से मोह
बन जाते हैं।
नये से तो
परिचय ही नहीं
है अभी, नया
तो अभी पैदा
ही नहीं हुआ; तो नये से तो
मोह कैसे हो
सकता है!
पुराने से मोह
होता है।
इसलिए तो अगर
छोटा बच्चा मर
जाए तो उतना
दुख नहीं
होता।
जैसे-जैसे
उसकी उम्र बड़ी
होने लगी कि
उतना ज्यादा
दुख होगा; क्योंकि
उतना परिचय हो
जाएगा; उतना
संबंध बन
जाएगा; उतने
राग निर्मित
हो जाएंगे।
पुराने
को गिराना
है--दुख से; नये को
बनाना
है--मजबूरी है;
और तीसरा
प्रस्ताव
उन्होंने पास
किया कि नये चर्च
को हम पुराने
चर्च की जगह
ही बनाएंगे।
और जब तक नया न
बन जाए, तब
तक हम पुराने
का उपयोग जारी
रखेंगे! और
नये चर्च में
हम पुराने
चर्च के ही
पत्थरों का
उपयोग
करेंगे। और जब
तक बन न जाए
नया चर्च, तब
तक हम पुराने
का उपयोग जारी
रखेंगे। और यह
भी
सर्वसम्मति
से स्वीकार कर
लिया
उन्होंने!
वह
चर्च अब भी
खड़ा है! वह गिर
नहीं सकता।
मोह मन के बड़े
गहरे हैं।
और मैं
उसी व्यक्ति
को धार्मिक
कहता हूं, जो पुराने
को छोड़ कर
नित-नूतन और
नवीन में जागता
चला जाए। जो
सदा अपने कुंआरेपन
को बचाने में
समर्थ है, वही
धार्मिक है।
जो प्रतिपल
अतीत से ऐसे
ही बाहर निकल
आता है, जैसे
सांप अपनी
पुरानी
केंचुली को
छोड़ कर बाहर
निकल आता है; फिर पीछे
लौट कर भी
नहीं देखता।
अगर
तुम सद्यःनूतन
को साध लो, अगर तुम
प्रतिपल नये
में जीवित हो
जाओ, अगर
तुम पुराने कूड़े-कबाड़
को न ढोओ, तो उस
नवीनता में ही
तुम सनातन को
पा लोगे। उस
प्रतिपल नये
होने में ही
परमात्मा छिपा
है।
दूसरा
प्रश्न:
शंकर
और आप गोविन्द
का भजन करने
को कहने के पहले
हमें हर बार मूढ़ कह कर
क्यों
संबोधित करते
हैं?
क्योंकि
तुम हो! कुछ
अन्यथा कहना
झूठ होगा। और
शंकर जब कहते
हैं: 'भज गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्
मूढ़मते।'
तो बड़े
प्रेम से कहते
हैं; उनकी
करुणा के कारण
कहते हैं। वे
तुम्हें गाली
नहीं दे रहे
हैं। क्योंकि
शंकर तो गाली
दे कैसे सकते
हैं! शंकर से
तो गाली निकल
नहीं सकती; वह तो असंभव
है। वे
तुम्हें चेता
रहे हैं, वे
तुम्हें जगा
रहे हैं, वे
तुम्हें
धक्का दे रहे
हैं। वे कह
रहे हैं--उठो!
सुबह हुई बड़ी
देर हो गई और
तुम अभी तक सो
रहे हो!
वे मूढ़
कहते हैं, क्योंकि जब
तक वे कुछ
कठोर शब्द न
कहें, तुम्हारी
नींद न टूटेगी।
और वे मूढ़
कहते हैं, क्योंकि
यही सत्य है, यही यथार्थ
है।
मूढ़ता
का अर्थ है:
मूर्च्छा। मूढ़ता का
अर्थ है:
सोए-सोए जीना।
मूढ़ता का
अर्थ है:
विवेकहीनता। मूढ़ता का
अर्थ है:
जागरण की कमी, होश का न
होना।
जब तुम
क्रोध में
होते हो, तब
तुम ज्यादा मूढ़ हो
जाते हो; क्योंकि
तब होश और भी
खो जाता है।
लेकिन कभी-कभी
तुम होश में
होते हो, तब
तुम उतने मूढ़
नहीं होते। और
तुम भी जानते
हो कि कभी तुम
कम मूढ़
होते हो, कभी
ज्यादा मूढ़
होते हो। कभी
मन में मोह भर
जाता है तो मूढ़ता
बढ़ जाती है; कभी मन में
वासना भर जाती
है तो मूढ़ता
बढ़ जाती है।
तुलसीदास
के जीवन में
कथा है कि
पत्नी मायके
गई थी। तो वर्षा
की रात में
सांप को पकड़
कर वे चढ़ गए।
घर के पीछे से
प्रवेश कर रहे
थे चोर की
भांति। बड़ी गहरी
मूढ़ता
रही होगी कि
सांप भी दिखाई
न पड़ा, रस्सी
समझ में आया।
वासना बड़ी
तीव्र रही
होगी; कामना
ने बिलकुल
अंधा कर दिया
होगा; आंखें
बिलकुल
अंधेरे से भर
गई होंगी।
नहीं तो सांप
दिखाई न पड़े!
हालत
तो ऐसी है कि
अक्सर रस्सी
में सांप
दिखाई पड़ जाता
है--भय के
कारण। मौत
आदमी को डराती
है। राह पर
रस्सी पड़ी हो
तो सांप दिख
जाता है। इससे
उलटी हालत
हुई--सांप था
और तुलसीदास
ने समझा कि
रस्सी है और
चढ़ गए! पकड़ा, तब भी
स्पर्श से पता
न चला। बिलकुल
मूर्च्छित रहे
होंगे!
कामवासना ने
पागल कर दिया
होगा!
पत्नी
ने कहा देख कर
यह दशा कि
जितना प्रेम
मुझसे है, अगर इतना ही
प्रेम
परमात्मा से
होता, तो
तुम अब तक महापद
के अधिकारी हो
जाते। पीछे
लौट कर सांप
को देखा--खयाल
आया, वासना
अंधा बना देती
है--जीवन में
एक क्रांति घटित
हो गई। पत्नी
गुरु बन गई।
वासना ने
निर्वासना की
तरफ जगा दिया।
संन्यस्त
जीवन हो गया। परमात्मा
को खोजने लगे।
काम में जो
शक्ति लगी थी,
वह राम की
तलाश करने
लगी। जो ऊर्जा
काम बनती थी, वही ऊर्जा
राम बनने लगी।
मूढ़ता
ही वही ऊर्जा
है। जो आज
सोई-सोई है, वही कल जागेगी;
जो आज छिपी
पड़ी है, वही
कल प्रकट
होगी। मूढ़ता
ही प्रज्ञा
बनेगी। वह जो
तुम्हारी
नींद है, वही
तुम्हारा
जागरण बनेगी।
इसलिए उससे
नाराज मत होना;
और न ही मन
में निंदा से
भरना; और न
ही अपनी मूढ़ता
को छिपाने की
कोशिश करना।
बहुत
लोग वही कर
रहे हैं! वे महामूढ़
हैं, जो मूढ़ता
को छिपाने की
कोशिश कर रहे
हैं। तो तुम
छोटी-मोटी
जानकारी
इकट्ठी कर
लेते हो; अपनी
मूढ़ता को
जानकारी से ढांक लेते
हो। भीतर घाव
रहते हैं, ऊपर
से तुम फूल
लगा लेते हो।
शास्त्र से
उधार लिया
ज्ञान ऐसे ही
फूल हैं, दूसरों
से उधार ली
जानकारी ऐसे
ही फूल हैं, जिनमें तुम ढांक लेते
हो मूढ़ता
को और भूल
जाते हो।
मूढ़ता
को भूलना नहीं
है, मूढ़ता को याद रखना
है। क्योंकि
याद रखो तो ही
उसे मिटाया जा
सकता है; भूल
गए तो मिटाना
असंभव है।
इसलिए शंकर
पद-पद पर
दोहराते हैं:
भज गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्,
भज गोविन्दम्
मूढ़मते।
तुम्हारी
बेहोशी को देख
कर करुणावश
दोहराते हैं।
तुम्हें याद
रहे कि तुम मूढ़
हो, यह
कहीं भूल न
जाए। और
तुम्हारी
पूरी चेष्टा है
कि भूल जाए।
तुम पूरे उपाय
करते हो कि
किसी तरह यह
बात भूल जाए
कि मैं मूढ़
हूं! तुम मान
कर चलते हो कि
मैं ज्ञानी
हूं।
सिर्फ
ज्ञानी ही
मानते हैं कि
वे ज्ञानी
नहीं हैं, अज्ञानी तो
सभी मानते हैं
कि वे ज्ञानी
हैं। अज्ञानी
तो बड़ी अकड़ से
संघर्ष करता
है अपने ज्ञान
का। वह तो
मानने को राजी
नहीं होता है
कि मैं नहीं
जानता हूं।
सिर्फ परम
ज्ञानी ही मानने
को राजी होते
हैं कि क्या
हम जानते हैं!
एडीसन
ने कहा है कि
लोग कहते हैं
कि मैं बहुत जानता
हूं। और मेरी
हालत ऐसी है, जैसे एक
छोटे बच्चे ने
सागर के
किनारे कुछ
शंख और सीप
इकट्ठे कर लिए
हों। इतना ही
मेरा ज्ञान
है--मुट्ठियों
में थोड़े से
शंख-सीप। और
विराट सागर
पड़ा है जिसको
मैं जानता
नहीं हूं।
तुम्हें
अपना छोटा सा
ज्ञान बहुत
बड़ा मालूम पड़ता
है! एक छोटा सा
दीया जला लिया
है, उसकी
टिमटिमाती
रोशनी पड़ती है
चारों तरफ, थोड़ी सी जगह
रोशन हो जाती
है, इसको
तुम ज्ञान
कहते हो! और
अनंत पड़ा है
अंधकार से भरा,
उसका
तुम्हें कोई
होश नहीं है!
जब तुम समझोगे
अपनी मूढ़ता
को तो तुम
कहोगे, यह
भी कोई ज्ञान
है--यह
टिमटिमाती
दीये की रोशनी!
अनंत पड़ा है
यात्रा के लिए,
अनंत पड़ा है
अन्वेषण के
लिए, अनंत
पड़ा है खोजने
के लिए--और मैं
इन शंख-सीपियों
को हाथ में
बटोर कर
ज्ञानी हो रहा
हूं! तब तुम इस
ज्ञान को भी
छोड़ दोगे। और
जिस दिन तुम जानोगे कि
तुम मूढ़
हो--इस होश से भरोगे--उसी
दिन मूढ़ता
पिघलने लगी।
क्योंकि यह
होश मूढ़ता
के बाहर ले
जाएगा। मूढ़ता
बेहोशी है, तो होश के
साथ टूटने
लगेगी।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर किसी पागल
को यह समझ में
आ जाए कि मैं
पागल हूं, तो वह ठीक हो
जाएगा। पागल
को समझ में
नहीं आता कि
वह पागल है; वह तो यही
समझता है कि
दुनिया पागल
है।
खलील
जिब्रान ने
लिखा है कि एक
मित्र पागल हो
गया, तो वह
उससे मिलने
पागलखाने
गया। वह एक
बेंच पर बैठा
था बगीचे
की, पागलखाने
की। जिब्रान
उसके पास जाकर
बैठ गया और
उसने बड़े
दया-भाव से
कहा कि मित्र,
बड़ा दुख
होता है
तुम्हें यहां
देख कर।
उसने
बड़े गौर से
जिब्रान को
देखा और कहा, दुख! दुख किस
बात का?
जिब्रान
ने कहा, यह
देख कर कि
तुम्हें
पागलखाने आना
पड़ा।
वह
पागल हंसने
लगा। उसने कहा, तुम गलती
में हो। जब से
हम यहां आए
हैं, तब से
ही हमें
गैर-पागलों का
सत्संग हुआ; बाहर तो सब
पागल हैं, और
उनसे छुटकारा
हो गया, यह
हमारा
सौभाग्य है।
तुम इसे
पागलखाना समझ
रहे हो!
पागलखाना
बाहर
है--दीवालों
के बाहर; यहां
थोड़े से चुने
हुए बुद्धिमान
लोग रहते हैं।
पागल
को समझ में
कैसे आए कि वह
पागल है? इतनी
ही समझ होती
तो वह पागल
कैसे होता? और पागल को
इतना ही समझ आ
जाए कि मैं
पागल हूं, तो
पागलपन टूटने
लगा।
ऐसा
समझो कि रात
तुम्हें नींद
में समझ में आ
जाए कि तुम
सपना देख रहे
हो, तो सपना
टूटने लगा।
सपना देखने के
लिए जरूरी है
कि तुम्हें
याद न आए कि तुम
सपना देख रहे
हो। सुबह याद
आएगी, जब
सपना टूट
जाएगा। जब
सपना चल रहा
है, तब तो
तुम ऐसा ही
समझोगे कि सब
सत्य हो रहा
है। अगर वहीं
बीच सपने में
याद आ जाए कि
यह सपना है, उसी वक्त
टूट जाएगा।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को कहता था कि
बड़े सपने को
तोड़ने के पहले
छोटे सपनों को
तोड़ना सीखो।
यह बड़ा संसार
माया है, इसको
तुम तोड़ न
पाओगे, जब
तक तुम छोटे
सपने ही नहीं
तोड़ सकते। रात
का सपना ही
नहीं टूटता, तो दिन का
सपना क्या खाक
टूटेगा! तो
गुरजिएफ अपने
शिष्यों को
कहता था कि
रात सोते
वक्त--प्रति
रात सोते वक्त
एक ही ध्यान
करते हुए सोओ
कि जब सपना आए,
तो साथ मुझे
याद भी आ जाए
कि यह सपना
है।
कोई
तीन साल लगते
हैं रात का
सपना तोड़ने
में। तीन साल
निरंतर प्रति
रात्रि यही
विचार, यही
चिंतन, यही
मनन, यही
ध्यान करते
सोते-सोते एक
दिन ऐसी घड़ी
आती है--परम
सौभाग्य की
घड़ी है वह--जिस
दिन अचानक रात
में सपने के
साथ याद भी आ
जाती है कि यह
सपना है। बस इतनी
याद आते ही
सपना टूट जाता
है और नींद
में भी होश
प्रवेश हो
जाता है। उसी
दिन से सपने
खो जाते हैं, फिर सपने
नहीं आते। और
तभी तुम बड़े
सपने में जाग
सकते हो।
यह जो
खुली आंख का
सपना है, यह
बड़ा सपना है।
रात का
सपना तो निजी
है, प्राइवेट
है, अकेले-अकेले
का है। पति भी
अपनी पत्नी को
अपने सपने में
नहीं बुला
सकता; एकदम
निजी है।
मित्र अपने
मित्र को सपने
में नहीं बुला
सकता। कोई
अपने सपने में
किसी को साझीदार
नहीं बना सकता;
बड़ा आत्यंतिक
है; अकेले
का है।
यह
सपना सामूहिक
है, सार्वजनिक
है। यह तो
टूटना बहुत
मुश्किल है; क्योंकि
तुम्हारा
अकेले का है
भी नहीं--सबका
सामूहिक है, संयुक्त है।
लेकिन अगर
पहला सपना टूट
जाए तो फिर
वही याद इस
सपने में भी
काम आ जाती
है। फिर यही
याद पर्याप्त
है--कि इस
जागते हुए में
भी मुझे याद
बनी रहे कि यह
सपना है।
तुम
कभी खयाल करो, किसी ने
तुम्हें गाली
दी और तुम
सिर्फ स्मरण कर
लो कि यह सपना
है; क्रोध
असंभव हो
जाएगा।
तुम्हारी कोई
बहुमूल्य चीज
गिर गई और टूट
गई, जरा
स्मरण कर लो
कि सब सपना है;
दुख विलीन
हो जाएगा।
पत्नी मर गई, या पति मर
गया, या
बेटा चल
बसा--मुश्किल
होगा याद करना
कि सब सपना है,
लेकिन काश,
तुम कर
लो--दुख
विसर्जित हो
गया। जिसने
जान लिया कि
सपना है, उसे
न फिर मौत
हिला पाती है,
न जीवन डिगा
पाता है; न
सुख सुख
मालूम होता; न दुख दुख
मालूम होता।
इसी को तो
बुद्धत्व कहा
है, इसी को जिनत्व
कहा है। यही
परम प्रज्ञा
है कि न दुख
छुए, न सुख
छुए।
शंकर
तुम्हें याद
दिला रहे हैं
बार-बार कि
तुम मूढ़
हो। नाराज मत
होना; क्योंकि
नाराज होने से
शंकर का कुछ न बिगड़ेगा, नाराज होने
से तुम सिर्फ
इतना ही सिद्ध
करोगे कि शंकर
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं कि
तुम मूढ़
हो! शायद तुम महामूढ़ हो,
वे सिर्फ मूढ़ ही कह
रहे हैं--संकोचवश।
तुम जिद्द
करने मत लग
जाना कि मैं मूढ़ नहीं
हूं; नहीं
तो वही
तुम्हारी मूढ़ता
का रक्षण बन
जाएगा। तुम
स्वीकार कर
लेना। तुम्हारे
स्वीकार से ही
मूढ़ता टूटेगी।
तुम न केवल
स्वीकार करना,
बल्कि तुम
स्वयं को
स्मरण दिलाते
रहना उठते-बैठते
कि मैं मूढ़
हूं, मूर्च्छित
हूं, नासमझ
हूं, पागल
हूं।
तुम्हारे
कृत्य बदल
जाएंगे; तुम्हारा
गुणधर्म बदल
जाएगा; तुम्हारी
चेतना एक नई
दिशा में
गतिमान हो जाएगी।
काश, तुम
याद रख सको कि
तुम नासमझ हो,
तो तुम में
समझदारी का
सूत्रपात हो
गया।
अज्ञान
की पहचान
ज्ञान का पहला
चरण है। और
अंधेरे को ठीक
से समझ लेना
प्रकाश जलाने
की पहली शुरुआत
है। जो अंधेरे
को ही अंधेरा
नहीं समझता, जो अंधेपन
को अंधापन
नहीं समझता, वह आंख की
तलाश क्यों
करेगा?
तुम
चिकित्सक के
पास जाते हो, चिकित्सक इसकी
फिक्र नहीं
करता कि
तुम्हें कौन
सी औषधि दी
जाए; पहले
फिक्र करता है
कि निदान किया
जाए, डायग्नोसिस ठीक हो।
निदान पहली
बात है, चिकित्सा
दूसरी बात है।
औषधि को खोज
लेना सरल है, अगर निदान
बिलकुल
ठीक-ठीक हो
जाए। अगर ठीक
से बीमारी पकड़
में आ जाए तो
औषधि बहुत बड़ी
बात नहीं है।
इसलिए बड़े
चिकित्सक
निदान का पैसा
लेते हैं, औषधि
बताने का
नहीं। औषधि तो
फिर कोई भी
बता सकता है।
अगर बीमारी पर
हाथ पड़ गया तो
औषधि ज्यादा
दूर नहीं, वह
तो बोतल में
भरी रखी है।
एक दफा साफ
समझ में आ गया
कि यह बीमारी
है, तो
औषधि तो अपने
आप मिल जाएगी,
कोई बड़ी
अड़चन की बात
नहीं है।
शंकर
बार-बार कह
रहे हैं तुमसे
कि हे मूढ़, गोविन्द को भजो!
वे
तुम्हारी
बीमारी का
निदान कर रहे
हैं। मूढ़ता
तुम्हारी
बीमारी है, गोविन्द का
भजन औषधि है।
मगर मूढ़
ही अगर तुम
नहीं हो तो
भजन तुम
गोविन्द का
क्यों करोगे?
अगर तुमने
माना कि मैं
बीमार ही नहीं
हूं तो
चिकित्सा तुम
क्यों लोगे? अगर तुम
अपनी बीमारी
की ही रक्षा
कर रहे हो और तुम
दावा करते हो
कि मेरी
बीमारी मेरा
स्वास्थ्य है,
तो फिर तुम
असाध्य हो, फिर
तुम्हारा
उपचार नहीं हो
सकता।
तीसरा
प्रश्न:
रेचन
करता हूं तो
केवल क्रोध,
ईष्या, दुख
आदि के
नकारात्मक
भाव ही बाहर
आते हैं। प्रेम,
भक्ति, आनंद
और धर्म के
भाव क्यों
बाहर प्रकट
नहीं होते? क्या वे
मेरे भीतर
नहीं हैं?
वे
भीतर हैं, लेकिन जरा
और भीतर हैं।
जैसे कोई कुएं
को खोदता है, तो पहले तो कंकड़-पत्थर,
मिट्टी ही
हाथ आती है, जल थोड़े ही
एकदम से हाथ आ
जाता है। फिर
हर एक की जमीन
भी अलग-अलग है--कहीं
तीस फीट पर
पानी निकल आता
है, कहीं
साठ फीट पर
पानी निकलता
है। पानी जरूर
है। ऐसी कोई
भी जमीन नहीं
है, जिसके
नीचे पानी न
हो; गहराई
का फर्क हो
सकता है। अगर
कोई सरल चित्त
व्यक्ति खोदेगा,
तो जल्दी ही
पानी मिल
जाएगा
दो-चार-दस फीट
की गहराई पर; अगर कोई
जटिल चित्त
व्यक्ति खोदेगा
तो हो सकता है,
पचास-साठ
फीट की गहराई
पर मिले। अगर
कोई निर्दोष-मन
व्यक्ति
खोजेगा तो
जल्दी पा लेगा,
अगर कोई
हिंसक, क्रोधी,
तमसांध व्यक्ति
खोजेगा तो देर
लगेगी। पर एक
बात तय है कि
भेद मिट्टी की
पर्त में होगा,
जल सबके
भीतर है; आत्मा
सबके भीतर है;
परमात्मा
सबके भीतर
है--भेद
कर्मों की
पर्त का होगा।
और जब
तुम पहले-पहले
खोदोगे
तो सीधा
परमात्मा हाथ
नहीं लगेगा, पहले तो
कर्मों की
पर्त ही हाथ
लगेगी; क्योंकि
वही तुम्हारे
चारों तरफ
घिरी है। पहले
तो कंकड़-पत्थर
ही हाथ लगते
हैं कुआं
खोदने में।
उनसे घबड़ा मत
जाना। वह
अच्छी शुरुआत
है। वे खबर दे रहे
हैं कि ठीक है,
यात्रा
शुरू हुई। कंकड़-पत्थर
हाथ लगेंगे, फिर कूड़ा-कर्कट
हाथ लगेगा, फिर अच्छी
भूमि हाथ आएगी,
फिर गीली
भूमि हाथ
आएगी। तुम रोज
कदम-कदम करीब
पहुंच रहे हो।
गीली भूमि जब
करीब आ जाए, तब तुम
समझना कि अब
जल ज्यादा दूर
नहीं है।
जल
सबके भीतर है; क्योंकि जल
न हो तो तुम
जीओगे कैसे? जीवन सबके
भीतर है; जीवन
न हो तो तुम
होओगे कैसे? कितना ही
दूर छिपा रखा
हो उसे तुमने,
कितने ही
आवरण तुमने
अपने आस-पास
बना लिए हों, लेकिन इससे
तुम उसे नष्ट
नहीं कर पाते।
आत्मा तुम्हारे
कर्मों से दब
सकती है, नष्ट
नहीं होती। अब
यह तुम पर
निर्भर है कि
तुमने कितना
दबाया है, उतना
ही रेचन करना
पड़ेगा। और
जन्मों-जन्मों
में हमने
दबाया है, इसलिए
घबड़ाना
मत।
'रेचन
करता हूं तो
केवल क्रोध,र्
ईष्या, दुख
आदि के
नकारात्मक
भाव ही हाथ
आते हैं।'
ठीक है, शुभ लक्षण
है। उलीच डालो
इनको।
जब ये
बिलकुल उलीच
डालोगे, तो
इनके नीचे ही
छुपी हुई तुम
दूसरी धाराएं
भी पाओगे। जिस
दिन तुम्हारे
भीतर से क्रोध
बिलकुल उखाड़
कर फेंक दिया
जाएगा, उस
दिन तुम पाओगे,
करुणा हाथ
आने लगी; क्योंकि
करुणा क्रोध
का दूसरा पहलू
है। जिस दिन
तुम पाओगे कि
तुम्हारे
भीतर से हिंसा
बिलकुल उखड़ गई,
वहीं से
अहिंसा की
शुरुआत हो
जाएगी।
जब तक
तुम पाओ कि
नकारात्मक
भाव मिल रहा
है, तब तक घबड़ाना
मत, खोदते
चले जाना।
उसके ही नीचे
कहीं विधायक
भाव भी छिपा
है। लेकिन खुदाई
करनी पड़ेगी, आलस्य से
नहीं हो
सकेगा। सतत
श्रम जरूरी
है। और सतत
जागरूकता
जरूरी है; क्योंकि
एक हाथ से तुम
खोद सकते हो
और दूसरे हाथ
से
पत्थर-मिट्टी
वापस डाल सकते
हो। सुबह ध्यान
जब करोगे तो
क्रोध को बाहर
निकाल दोगे और
दिन भर बाजार
में क्रोध को
फिर इकट्ठा कर
लोगे। तब तो
फिर यह खुदाई
कभी न हो
पाएगी। यह तो
ऐसा हुआ कि
किसी आदमी ने
दिन भर कुआं
खोदा और रात
भर मजदूर लगा
कर उसे वापस
पुरवा दिया; फिर दूसरे
दिन सुबह कुएं
को खोदना शुरू
कर दिया।
जीसस
की एक कथा है
कि एक आदमी ने गेहूं का
खेत बोया।
लेकिन अचानक
पाया कि कोई व्यक्ति
घास-पात के
बीज उसमें
फेंक गया
है--उसके खेत
को नष्ट करने
को। नौकर बहुत
चिंतित हुए।
और जो प्रधान
नौकर था, वह
तो बहुत ही
चिंतित हुआ।
उन सबने बैठक
की कि क्या
करें, यह
तो सारी फसल
खराब हो
जाएगी! मालिक
से पूछा। मालिक
ने कहा, अभी
जल्दी मत करो।
अब अभी अगर तुम
घास-पात को उखाड़ने
जाओगे, तो गेहूं के
नन्हे पौधे मर
जाएंगे। अब
फसल जब
काटेंगे, तभी
दोनों को अलग
कर लेंगे।
नौकरों
को बात जंची
नहीं। नौकरों
ने आपस में
सोचा कि यह
बात तो ठीक
नहीं है, बुराई
को अभी मिटा
देना उचित है।
लेकिन मालिक अगर
गलत भी कहे तो
मानना पड़ता
है। फिर भी
उन्होंने कहा,
हम खोज-बीन
जारी रखें कि
किसने यह
शरारत की है? और हमारा
मालिक इतना
भला आदमी है, सज्जन है।
किसने उसके
साथ ऐसी
शत्रुता की है?
उन्होंने
बहुत खोजा, लेकिन कोई
पता न चला।
लेकिन एक सांझ
एक नौकर आया
प्रधान नौकर
के पास और
उसने कहा कि
मुझे क्षमा कर
दें, अब और
ज्यादा देर
मैं यह राज
छुपाने में
असमर्थ हूं।
मैं जानता हूं
कि किसने ये
घास-पात के बीज
फेंके हैं; क्योंकि मैं
उस समय जाग
रहा था, और
मैंने उस आदमी
को मेरी आंख
के सामने से
खेत में जाते
देखा। लेकिन
मुझे लगता है
वह आदमी होश
में नहीं था; क्योंकि मैं
सामने खड़ा था
और उसने न तो
मुझे पहचाना
और न मुझे
देखा; वह
जैसे नींद में
था। अब तक मैं
छिपाए रहा, अब छिपाना
मुश्किल हो
रहा है।
प्रधान
नौकर तो बहुत
नाराज हुआ।
उसने कहा कि तुम
इतनी देर
क्यों छिपाए?
उस
नौकर ने कहा, अभी भी मेरी
हिम्मत नहीं
थी आकर कहने की,
लेकिन अब
बरदाश्त के
बाहर है; पहले
मेरी पूरी कथा
सुन लो।
प्रधान
ने कहा, तुम
पहले उस आदमी
का नाम बताओ, वह कौन है? उसे सजा दी
जाएगी।
वह
नौकर जो रहस्य
का उदघाटन
करने आया था, सिर झुका कर
बैठ गया।
प्रधान ने
पूछा, तुम
बोलते क्यों
नहीं, उसका
नाम लो, डर
क्या है?
उस
नौकर ने कहा, तुम भरोसा न
कर सकोगे, वह
हमारे मालिक
ने ही वे बीज
फेंके हैं; वह घास-पात
भी, हमारे
मालिक ने ही
वे बीज फेंके
हैं।
तब
दोनों ने तय
किया कि इस
बात को छिपा
कर ही रखना
उचित है, किसी
से कहना उचित
नहीं।
जीसस
की यह कथा यह
कहती है कि
दिन में तुम
जो बनाते हो, रात तुम
मिटाते हो; रात नींद
में, बेहोशी
में तुम वही
सब मिटा देते
हो जो तुमने दिन
में होश में
बनाया था।
ऐसे
लोग हैं, जिनको
निद्रा में
चलने का रोग
होता है। ऐसे
मामले पाए गए
हैं, अदालतों
में मुकदमे
चले हैं।
क्योंकि कोई
स्त्री रात को
उठ कर अपने ही
कपड़ों में आग
लगा देती है
और रात सो
जाती है। किसी
को धोखा नहीं
दे रही है, क्योंकि
अपने ही कपड़े
हैं, जिनका
उसे बड़ा मूल्य
और प्रेम है।
और सुबह रोती-चिल्लाती
है कि किसने
कपड़े जला दिए?
अब
कमरे में कोई
आया नहीं। पति
सोया है, पत्नी
सोई है, कोई
और आया नहीं।
पति जला नहीं
सकता, पत्नी
के तो जलाने
का सवाल ही
नहीं है। जरूर
कोई भूत-प्रेत
है। लेकिन
खोज-बीन से
पाया गया कि
नींद में उठ
कर वह स्त्री
ही जलाती रही
है; उसको
निद्रा में
उठने की
बीमारी है।
ऐसे
लोग हैं, जो
नींद में उठ
कर अपने चौके
में पहुंच
जाते हैं; कुछ
खा-पीकर वापस
आकर सो जाते
हैं! सुबह तुम
उनको पूछो, वे कहेंगे, हमें कुछ
पता नहीं; हम
उठे ही नहीं!
शायद ज्यादा
से ज्यादा
उन्होंने रात
में सपना देखा
हो कि उठ कर
चौके में गए--अगर
ज्यादा से
ज्यादा याद
करेंगे।
लेकिन वे कहेंगे,
वह सपना था।
वह भी याद में
नहीं आता।
प्रत्येक
व्यक्ति इस
बीमारी का
शिकार
है--गहरे
अर्थों में।
एक हाथ से तुम
बनाते हो, दूसरे हाथ
से तुम मिटाते
हो। जिसको तुम
प्रेम करते हो,
उसी को घृणा
करते हो; जिसको
तुम सम्मान
करते हो, उसी
का मन में
निरादर भी
रखते हो। तुम
विपरीत हो, खंडित हो; खुद के भीतर
टूटे हो टुकड़ों
में। तुम अपने
प्रेम को अपनी
घृणा से नष्ट
कर देते हो और
अपनी करुणा को
अपने क्रोध से
मिटा डालते
हो। तुम जाते
हो मंदिर में
परमात्मा का स्मरण
करने और मंदिर
में भी बैठ कर
बाजार का स्मरण
करते हो।
जरूरत ही न थी
जाने की; बाजार
में ही बैठ
सकते थे।
लेकिन
तुम्हारी तकलीफ
यह है कि जब
तुम दुकान पर
बैठते हो, तब
मंदिर की याद
भी आती है; ऐसा
भी नहीं कि
याद नहीं आती।
पर जब तुम
मंदिर में
होते हो, तब
दुकान की याद
आती है।
मैंने
सुना है, एक
संन्यासी
मरा। जिस दिन
मरा, उसी
दिन एक वेश्या
भी मरी; दोनों
आमने-सामने
रहते थे।
देवदूत लेने
आए, तो
संन्यासी को
नरक की तरफ ले
जाने लगे और
वेश्या को
स्वर्ग की
तरफ।
संन्यासी ने
कहा, रुको,
कुछ भूल हो
गई मालूम होती
है! यह क्या
उलटा हो रहा
है? मुझ
संन्यासी को
नरक की तरफ, वेश्या को
स्वर्ग की
तरफ! जरूर
संदेश में
कहीं कोई
भूल-चूक हो गई
है। संसार का
इतना बड़ा काम
है, भूल-चूक
हो सकती है।
छोटी-मोटी
सरकारें भूल
करती हैं, तो
पूरे विश्व की
व्यवस्था में
भूल हो जाना
कुछ
आश्चर्यजनक
नहीं। तुम फिर
से पता लगा कर
आओ।
शक तो देवदूतों
को भी हुआ।
उन्होंने कहा, भूल कभी हुई
तो नहीं; लेकिन
मामला तो साफ
दिखता है कि
यह वेश्या है
और तुम
संन्यासी हो।
वे गए। लेकिन
ऊपर से खबर आई
कि कोई
भूल-चूक नहीं
है; जो
होना था, वही
हुआ है।
वेश्या को
स्वर्ग ले आओ,
संन्यासी
को नरक में
डाल दो। अगर
ज्यादा जिद करे,
तो उसे समझा
देना कि कारण
यह है।
जिद
संन्यासी ने
की, तो देवदूतों
को कारण बताना
पड़ा। कारण यह
था कि
संन्यासी रहता
तो मंदिर में
था, लेकिन
सोचता सदा
वेश्या की था;
पूजा तो
करता था, आरती
तो उतारता था
भगवान की, लेकिन
मन में
प्रतिमा
वेश्या की
होती थी। और जब
वेश्या के घर
में रात
राग-रंग होता,
बाजे बजते,
नाच होता, कहकहे उठते, नशे
में डूब कर
लोग उन्मत्त
होते, तो
उसको ऐसा लगता
कि मैंने अपना
जीवन व्यर्थ ही
गंवाया। आनंद
वहां है, मैं
यहां क्या कर
रहा हूं--इस
निर्जन में
बैठा, इस
खाली मंदिर
में, यह
पत्थर की
मूर्ति के
सामने! पता
नहीं, भगवान
है भी! शक पैदा
होता। और रात
जाग कर वह करवटें
बदलता; और
वेश्या को
भोगने के सपने
देखता।
और
वेश्या की
हालत ऐसी थी
कि वह वेश्या
थी--लोगों को
रिझाती भी, नाचती भी--पर
मन उसका मंदिर
में लगा था।
वह सदा यह
सोचती--जब
मंदिर की घंटियां
बजतीं--तो
वह सोचती कि
कब मेरे इस
भाग्य का उदय
होगा कि मैं
भी मंदिर में
प्रवेश कर
सकूंगी। मैं
अभागी, मैंने
अपना जीवन
गंदगी में
बिता दिया।
अगले जन्म में,
हे
परमात्मा, मुझे
मंदिर की
पुजारिन बना
देना! मुझे
मंदिर की
सीढ़ियों की
धूल भी बना
देगा तो भी
चलेगा--उनके
पैरों के नीचे
पड़ी रहूं जो
पूजा को आते
हैं, उतना
भी बहुत है।
जब मंदिर में
सुगंध उठती
धूप की, तो
वह आनंदमग्न
हो जाती। वह
कहती, यह
भी क्या कम
सौभाग्य है कि
मैं मंदिर के
निकट हूं!
बहुत हैं, जो
मंदिर से दूर
हैं। माना कि
पापिनी हूं; लेकिन जब भी
पुजारी पूजा
करता, तब
भी वह आंख बंद
करके बैठ
जाती।
पुजारी
वेश्या की
सोचता, वेश्या
पूजा की
सोचती। पुजारी
नरक चला गया, वेश्या
स्वर्ग चली
गई।
आदमी
बड़ी दुविधा
में है। तुम
जब बाजार में
होते हो, मंदिर
की सोचते हो।
गृहस्थ
संन्यस्त
होने की सोचते
हैं। और
तुम्हारे
साधु पछताते
हैं कि पता
नहीं, कोई
भूल तो नहीं
हो गई; कहीं
चूक तो नहीं
गए; कहीं
ऐसा तो नहीं
कि यही जीवन
सब कुछ है और
हम नाहक ही
सपने में बैठे
हैं कि अगला
जीवन होगा, स्वर्ग होगा,
मोक्ष
होगा--कौन देख
आया है!
मेरे
पास कभी-कभी
संन्यासी आ
जाते
हैं--वृद्ध संन्यासी; ईमानदार लोग;
क्योंकि
बेईमान तो यह
बात किसी को
कहते नहीं, अपने भीतर
ही रखते हैं।
ईमानदार
संन्यासी, वे
मुझे कभी-कभी
आकर कह जाते
हैं कि हम
सत्तर वर्ष के
हो गए, चालीस
साल संन्यस्त
हुए हो गए, लेकिन
अभी तक कुछ
मिला नहीं। और
अब तो शक भी होने
लगा कि है भी, या हम यूं ही
गंवा दिए जीवन
को! जो भोगने
को था, वह
भी न भोगा; और
जो है ही नहीं,
उसकी आशा
में जीवन
गंवाया! ये
ईमानदार लोग
हैं। ये जो कह
रहे हैं, ये
प्रामाणिक
हैं, ये
छिपा नहीं रहे
हैं।
तुम
अगर अपने
संन्यासियों
की भीतरी कथा
जान लो, तो
तुम बड़े चकित
होओगे; तुम्हारे
सिर फिर उनके
चरणों में
झुकना मुश्किल
हो जाएंगे।
क्योंकि तुम
तो सोच रहे हो
कि उन्हें
आनंद मिल गया,
शांति मिल
गई, परमात्मा
मिल गया।
उनमें से अधिक
को कुछ भी नहीं
मिला है; वे
तुमसे भी बुरी
हालत में हैं।
उनका संसार तो
खो गया है, यह
बात पक्की है;
परमात्मा
नहीं मिला है।
अब यह
थोड़ा जटिल है।
संसार के खो
जाने से ही परमात्मा
नहीं मिलता।
असलियत तो ऐसी
है कि परमात्मा
मिल जाए तो ही
संसार खोता
है। अंधेरे को
हटाने से थोड़े
ही प्रकाश
पैदा होता है, प्रकाश आ
जाए तो अंधेरा
हटता है। तो
संन्यास कोई
नकार नहीं है,
विधेय है।
पाना पहले
होता है, छूटना
बाद में होता
है। और यह ठीक
भी है। जब तक तुम्हें
सार्थक का
दर्शन न हो
जाए, तब तक तुम
व्यर्थ को छोड़ोगे
कैसे? सार्थक
का दर्शन ही
तो व्यर्थ के
छोड़ने का साहस
बनेगा।
सार्थक को देख
लोगे, तो
व्यर्थ अपने
से छूटना शुरू
हो जाएगा; उसे
छोड़ना भी न
पड़ेगा, छोड़ने
की पीड़ा भी न
होगी; तुम्हारे
कदम सार्थक की
तरफ आनंद-भाव
से बढ़ने लगेंगे,
तुम पीछे
लौट कर भी न देखोगे।
और संन्यास
वही है, जो
पीछे लौट कर न
देखे; पीछे
लौट कर देखा
तो संन्यास
अधकचरा है।
शुरू
में तो, नकारात्मक
भाव तुम्हारे
भीतर पड़े हैं,
उन्हें
निकालना है।
शुरू में तो
बीमारी उलीचनी
है।
स्वास्थ्य
बीमारी में
दबा है। जब
बीमारी उलिच
जाएगी, रेचन
हो जाएगा, तो
स्वास्थ्य का
आविर्भाव
होगा। इससे घबड़ाओ मत, इसे भी
सौभाग्य समझो
कि बीमारी को
उलीचने का अवसर
मिला है। अगर
बीमारी उलीच
दी गई, तो
स्वास्थ्य का
जल बहुत दूर
नहीं है। जरा
तुम्हारे ऊपर
कचरा है, उसे
हटाना है। और
एक बार कचरा
हट जाए तो
तुम्हारे
भीतर उतना ही
शुद्ध जल है, जितना
महावीर, बुद्ध,
शंकर के
भीतर है।
स्वभाव से तुम
ठीक वैसे ही हो।
स्वभाव में
रत्ती भर फर्क
नहीं है। हो
नहीं सकता।
स्वभाव का
अर्थ ही यही
है कि उसमें
कोई फर्क नहीं
है। पर उस
स्वभाव तक
पहुंचने के
लिए बड़ी खुदाई
करनी जरूरी
है। जितनी
जल्दी शुरू कर
दो, उतना
श्रेयस्कर।
और ध्यान यही
रखना कि जो
उलीचो, उसे
फिर बार-बार
भरते मत जाना।
ध्यान में
जिसे उलीचो, फिर ध्यान
रखना दिन भर
कि उसे वापस
भर तो नहीं रहे
हो गङ्ढे
में? अन्यथा
जीवन भर श्रम
भी करोगे, उपलब्धि
भी कुछ न
होगी। बहुत
लोग बहुत बार
खोदना शुरू
करते हैं।
बहुत
बड़ा सूफी फकीर
हुआ, जलालुद्दीन
रूमी। वह अपने
विद्यार्थियों
को एक दिन पास
के खेत में ले
गया। उसने
वहां जाकर
उनको
बताया--सारा
खेत खराब हो
गया था। वह जो
खेत का मालिक
था, उसने
पहले कुआं
खोदना शुरू
किया एक। कोई
पंद्रह-बीस
फीट खोदा, फिर
पाया कि जल
नहीं मिलता, तो दूसरी
जगह खोदना
शुरू किया।
पागल रहा होगा।
दूसरी जगह भी
खोदा, वहां
भी नहीं मिला,
तो उसने
तीसरी जगह
खोदना शुरू कर
दिया। उसने आठ
गङ्ढे
खोद डाले, सारा
खेत खराब हो
गया। अब वह
नौवां खोद रहा
था।
जलालुद्दीन
ने कहा, इस
आदमी को देखो!
अगर इसने यह
सारा श्रम एक
ही जगह लगाया
होता, तो
जल कितना ही
दूर होता तो
भी मिल गया
होता। लेकिन
यह दस-बीस फीट
खोदता है और
सोचता है कि
जब इतने दूर
तक नहीं मिला
तो आगे कैसे
मिलेगा! तो कहीं
और खोदो, इस जगह जल
नहीं है। फिर
दस-बीस फीट
खोदता है। ऐसे
यह आठ गङ्ढे
खोद चुका है।
सब मिल कर एक
सौ साठ फीट की
खुदाई हो चुकी
है और जल नहीं
मिला! अगर एक
सौ साठ फीट यह
एक ही जगह खोद
लेता, तो
जल मिलना
सुनिश्चित
है।
तुम
जीवन में बहुत
बार खुदाई
शुरू करोगे।
कभी ध्यान
शुरू कर देते
हो, जोश आ
जाता है; पंद्रह
दिन, महीना
चला, फिर
शांत हो गए!
फिर दो-चार
साल बाद खयाल आया,
फिर थोड़ी सी
खुदाई की, फिर
शांत हो गए!
ऐसे तुम कई गङ्ढे
खोद लोगे, लेकिन
जल तक न
पहुंचोगे; तुम्हारा
खेत खराब हो
जाएगा। और अगर
यह तुम्हारी
आदत बन गई कि
दस-पांच दिन
कर लेना और
छोड़ देना, इससे
तो बेहतर है
तुम खोदते ही
न; क्योंकि
वह व्यर्थ गया
श्रम है। जब
तक जल ही न मिल
जाए, तब तक
किया गया श्रम
व्यर्थ है।
सातत्य चाहिए।
और
ध्यान रखना, जल की सतत
धार पत्थरों
को भी तोड़
देती है--कोमल जल
की सतत धार
पत्थरों को
तोड़ देती है।
ध्यान की सतत
धार, कितनी
ही बड़ी
चट्टानें
तुम्हारे
आस-पास हों, उनको तोड़
देगी। आज लगे
भला कि क्रोध
बहुत तगड़ा है,
मजबूत है; ध्यान से
कैसे टूटेगा?
लेकिन
टूटता है; सदा
टूटा है।
चट्टान उसकी
मजबूत है और
ध्यान बड़ा
कोमल है, लेकिन
यही जीवन का
रहस्य है कि
अगर कोमल की
सततता बनी रहे,
तो कठोर से
कठोर भी टूट
जाता है।
चौथा
प्रश्न:
आप
कहते हैं कि
भजन में खो जाना
नशा है। यह भी
कहते हैं कि
तैरने में, खेल में, ध्यान
में आनंद
खोजने से आनंद
खो जाता है और
उनमें डूबने
से आनंद स्वयं
हमें खोज लेता
है। कृपया
डूबने तथा होश
और बेहोशी की
सीमा-रेखाओं को
स्पष्ट करें।
खो
जाने के लिए
भजन करना नशा
है; भजन
करते-करते खो
जाना नशा नहीं
है।
फिर से
दोहरा दूं।
थोड़ा जटिल है, बारीक है, लेकिन समझ
में आ जाएगा।
खो जाने के
लिए भजन करना
नशा है--सिर्फ
खो जाने के
लिए।
जीवन
में चिंता है, दुख है, पीड़ा
है, तनाव
है, अशांति
है, संताप
है। इससे बचना
है; इसको
भूलना है; कहीं
भी अपने को
व्यस्त कर लेना
है, ताकि
यह भूल जाए।
तो कोई सिनेमा
में जाकर बैठ जाता
है, दो
घंटे भूल जाता
है; कोई
शराबघर में
बैठ जाता है, दो घंटे भूल
जाता है; कोई
मंदिर में
जाकर कीर्तन
करने लगता है,
वहां भूल
जाता है। ये
भूलने की
अलग-अलग
विधियां हुईं,
लेकिन
तीनों की नजर
एक है--चिंता को
भूलना है।
लेकिन
घर लौट कर
चिंता
प्रतीक्षा कर
रही है। फिर
तुम वही के
वही हो, वे
दो घंटे
व्यर्थ ही गए;
उनसे कुछ
सार न हुआ। उन
दो घंटों के
कारण चिंता
मिटेगी नहीं।
भूलने
की खोज करना
नशा है, शराब
है। और तुम
चाहो तो धर्म
की भी शराब
बना सकते हो।
लेकिन भजन करते
खो जाना
बिलकुल दूसरी
बात है। तुम
खोने गए नहीं
थे; तुम्हारी
कोई आकांक्षा
अपने को भूलने
की न थी; तुम
किसी चिंता से
बचने को न गए
थे; तुम
चिंता से उठने
गए थे, जागने
गए थे। चिंता
को मिटाना है,
भूलना नहीं
है। तुम चिंता
मिटाने गए थे;
तुम जीवन का
सार समझने गए
थे; तुम
जीवन की एक
ऐसी घड़ी
निर्मित करने
गए थे, जहां
चिंता उठनी
असंभव हो जाए,
जहां
अशांति न उठे,
जहां
बेचैनी पैदा न
हो। तुम
स्वभाव की
तलाश करने गए
थे; तुम
गहरे जल-स्रोत
खोजने गए थे।
तुम भूलने न गए
थे, जागने
गए थे।
लेकिन
ध्यान
करते-करते खो
गए। यह खोना
नशा नहीं है।
या अगर यह नशा
है, तो यह नशा
होश का नशा
है। इसमें तुम
खो भी जाओगे
और जागे भी
रहोगे। तुम
पाओगे कि तुम
बिलकुल मिट गए
और साथ ही तुम
पाओगे कि पहली
दफा तुम हुए।
एक तरफ तुम
पाओगे कि सब
खो गया और
दूसरी तरफ से
तुम पाओगे कि
सब नया हो
गया--तुम हो भी
और नहीं भी हो।
इस बात
को तो अनुभव
से ही समझ
पाओगे। एक ऐसी
घड़ी है ध्यान
की, जब तुम
होते भी नहीं;
मैं नहीं
होता उस घड़ी
में, सिर्फ
अस्तित्व
होता है; मात्र
शुद्ध होना
होता है; मैं
तो खो गया
होता है, सिर्फ
अस्तित्व रह
जाता है--न कोई
विचार होता, न कोई
अहंकार
होता--चित्त
का दर्पण पूरा
स्वच्छ होता
है, कोई
धूल नहीं
होती। उस
स्वच्छ दर्पण
में परमात्मा
झलकता है। वह
शांति का
अपूर्व क्षण
है; वह
समाधि की
अपूर्व घटना
है।
लेकिन
तुम खोने न गए
थे, तुम
रूपांतरित
होने गए थे; तुम स्वयं
को बदलने गए
थे। तुम खोने
नहीं गए थे, मिटने गए
थे। तुम घड़ी
भर के विश्राम
के लिए न गए थे,
तुम जीवन भर
की क्रांति के
लिए गए थे।
तो
ध्यान दो ढंग
से किया जा
सकता है: एक--कि
तुम सिर्फ
अपने को भूलना
चाहते हो; दो--कि तुम
अपने को बदलना
चाहते हो। और
जो तुम्हारा
भीतर कारण
होगा, उसी
के फल लगेंगे;
तुम जो
बोओगे, वही
काटोगे। अगर
तुमने ध्यान
में अपने को
मिटाने का बीज
बोया, तो
फसल में तुम
पाओगे कि तुम
मिट गए, परमात्मा
बचा। अगर
तुमने ध्यान
में अपने को खोने
का, सिर्फ
भुलाने का बीज
बोया, तो
तुम
पाओगे--ध्यान
भी नशा बन गया;
घड़ी भर को
भूले, फिर
वही का वही हो
गया; फिर
वापस अपनी जगह
आ गए, शायद
पहले से भी
बदतर; क्योंकि
यह घड़ी भर भी
जीवन की
व्यर्थ गई।
तो मैं
निश्चित कहता
हूं कि भजन
में खो जाना नशा
है, अगर तुम
खो जाने के
लिए ही गए।
अगर तुम मिटने
के लिए गए, तो
नशा नहीं
है--तो जागरण
है, तो होश
है, तो अमूर्च्छा
है, तो
अप्रमाद है।
और
ध्यान रखना, तुम जब आनंद
की तलाश को
जाओगे तो आनंद
को न पाओगे, क्योंकि वह
तलाश ही बाधा
बन जाएगी। तुम
जब आनंद के
पीछे पड़ जाते
हो तो तुम चूकोगे;
क्योंकि
आनंद तभी आता
है, जब तुम
मांगते नहीं।
आनंद
सम्राटों के
पास आता है, भिखारियों
के पास नहीं।
तुम जब भिक्षा
का पात्र लेकर
जाते हो, तब
आनंद नहीं आता;
जब तुम
सम्राट की तरह
खड़े हो जाते
हो, तब आता
है। जब तक तुम
मांगोगे, तब
तक न मिलेगा; जब तुम सब
मांग छोड़ दोगे,
तब तुम
पाओगे: सब तरफ
से दौड़ा
चला रहा है।
जीवन की गहरी
से गहरी
प्रतीति, जीवन
का गहरा से
गहरा नियम यही
है--एस धम्मो
सनंतनो--यही
सनातन धर्म है
कि जब तक तुम
खोजने के लिए दौड़ोगे, तब तक न पा
सकोगे।
थोड़ा
समझने की
कोशिश करो।
तुम्हें किसी
का नाम भूल
गया। तुम कहते
हो, जबान पर
रखा है। जबान
पर रखा है तो
बोलते क्यों
नहीं? तुम
लाख उपाय करते
हो कि नाम याद
आ जाए। जितना तुम
उपाय करते हो,
उतना ही याद
नहीं आता। और
तुम जानते हो
कि तुम्हें
मालूम है! और
तुम कहते हो, जबान पर रखा
है! और तुम
कहते हो, यह
आया, यह
आया। और नहीं
आता और तुम
बड़ी चेष्टा
में हो, पसीने-पसीने
हो जाओ और
नहीं आता।
क्या तकलीफ हो
जाती है?
जब तुम
बहुत ज्यादा
खोजने लगते हो
भीतर, तो
तनाव से भर
जाते हो। तनाव
के कारण मन
संकीर्ण हो
जाता है, जगह
नहीं रह जाती;
सिकुड़ जाता
है। फिर तुमने
कहा कि अब
नहीं आता, जाने
भी दो। तुम
अखबार पढ़ने
लगे; या उठ
कर बगीचे
में चले गए; या चाय पीने
लगे। और
अचानक--जैसे
ही तुम भूल गए कि
याद करना है, नाम आ गया! क्या
घटना घटती है?
जब तुम
चेष्टा करते
हो, तब तुम
बड़े अशांत हो
जाते हो, चेष्टा
के कारण--लाना
है और नहीं आ
रहा है। जब तुम
चेष्टा छोड़
देते हो, तुम
शांत हो जाते
हो। उस शांति
के क्षण में
अपने आप आ
जाता है।
आनंद
तुम्हारा
स्वभाव है। जब
तुम चेष्टा
करते हो, सिकुड़
जाते हो।
तुम्हारे
भीतर है, कहीं
से लाना नहीं
है। लेकिन तुम
इतने सिकुड़ जाते
हो कि जगह
नहीं रह जाती
आने की।
तुमने
देखा होगा, जितनी तुम
जल्दी करो, उतनी देर हो
जाती है। किसी
दिन ट्रेन पकड़नी
है, तो
जल्दी करते हो
तो बटन उलटी
लग जाती है, नीचे की ऊपर
लग जाती है!
जितनी जल्दी
करते
हो--सूटकेस
बंद नहीं
होता! और भागा-दौड़ी करते
हो--चाबी घर
भूल आए, या
टिकट ही नहीं
ला पाए, स्टेशन
भी पहुंच गए
तो बेकार।
और तुम
जानते हो कि
यही तुम अगर
बिना बेचैनी के
करो, तो इतने
ही समय में
इससे ज्यादा
सुविधा से हो जाएगा।
रोज तुम कोट
की बटन लगाते
हो, कभी
उलटी नहीं
लगती। लेकिन
जिस दिन जल्दी
हो, उस दिन
उलटी लगती है।
कोट कोई
तुम्हारा
दुश्मन है? कि कोट कोई
बैठा है, राह
देख रहा है कि
जिस दिन जल्दी
हो, उस दिन बताएंगे!
कोट को क्या
लेना-देना है?
लेकिन
तुम्हारी
जल्दी कंपा
देती है, चिंतित
कर देती है; हाथ उलटा-सीधा
घूम जाता है; कुछ का कुछ
हो जाता है।
जितने तुम
निश्चिंत भाव
से करोगे, उतनी
जल्दी होगी; जितनी चिंता
से करोगे, उतनी
देर हो जाएगी।
जितने भागोगे,
उतनी देर से
पहुंचोगे; जितने
आहिस्ता
चलोगे, उतनी
जल्दी पहुंच
जाओगे। यह बात
उलटी लगती है--है
नहीं; क्योंकि
धैर्य बड़ी
शक्ति है और न
मांगना बड़ा
गहरा आत्मविश्वास
है।
आनंद
मिलता है तब, जब तुम आनंद
की तलाश ही
नहीं कर रहे
होते। तभी चारों
तरफ से, बाहर-भीतर
से, सब तरफ
से आनंद उत्सव
शुरू हो जाता
है।
तलाश छोड़ो; मांग
मत रखो; ध्यान
को साधन मत
समझो, साध्य
समझो। ऐसा मत
सोचो कि आनंद
मिलेगा, इसलिए
कर रहे हैं; करने में
आनंद लो। आनंद
मिलेगा, इसलिए
नहीं; करना
ही आनंद है।
और जब करना
आनंद बन जाए, साधन साध्य
हो जाए, तो
राह पर ही
मंजिल आ जाती
है। तब तुम
जहां बैठे हो,
वहीं
तुम्हारा
परमात्मा
प्रकट हो जाता
है; तुम्हें
कहीं जाना
नहीं पड़ता।
और
जाओगे भी तुम
कहां? उसका
कोई
पता-ठिकाना भी
नहीं; उसके
घर का तुम्हें
कुछ सूत्र भी
नहीं तुम्हारे
हाथ में है।
कहां खोजोगे?
आनंद को
कहां खोजोगे?
सत्य को
कहां खोजोगे?
मोक्ष को
कहां खोजोगे?
तुम शांत
होकर बैठ जाओ।
बुद्ध
की प्रतिमा
देखी? महावीर
की प्रतिमा
देखी? शंकर
की प्रतिमा
देखी? चलते
हुए नहीं
मालूम पड़ रहे,
भागते हुए
नहीं मालूम पड़
रहे, कहीं
जाते हुए नहीं
मालूम पड़ रहे।
बैठे हैं; शांत
हैं; चेहरे
पर इतना भी
भाव नहीं
दिखाई पड़ता कि
कुछ खोज रहे
हों! गौर से
महावीर की
प्रतिमा में
देखना--चेहरे
पर कोई जल्दी
मालूम पड़ती है?
चेहरे पर
कोई ऐसा भाव
मालूम पड़ता है
कि कोई खोज कर
रहे हैं? कुछ
भी नहीं मालूम
पड़ता। बस बैठे
हैं--न कोई खोज
है, न कोई
आकांक्षा है,
न कोई फल है,
न कोई
भविष्य है, बस यहां और
अभी।
अगर
तुमने महावीर, बुद्ध और
शंकर की
प्रतिमाएं
देखीं, तो
तुम उनको
पाओगे कि उनका
पूरा संदेश
इतना है कि
अभी और यहां
शांत बैठे हैं;
न कहीं जाना
है, न कुछ
होना है, न
कुछ पाना है; कोई दौड़
नहीं, कोई
वासना नहीं।
बस उसी घड़ी
में सब घट
जाता है; बरस
जाता है आकाश।
आखिरी
प्रश्न:
क्या
प्रार्थना की
तरह भजन भी
धन्यवाद-ज्ञापन
मात्र है?
प्रार्थना
बीज है, भजन
वृक्ष।
प्रार्थना
अप्रकट है, भजन प्रकट।
भजन नाचती हुई
प्रार्थना है,
गाती हुई
प्रार्थना
है। भजन
अभिव्यक्ति
है प्रार्थना
की।
अगर
प्रार्थना
देखनी है, तो तुम्हें
महावीर और
बुद्ध में
दिखाई पड़ेगी;
अगर भजन
देखना है तो
मीरा और
चैतन्य में।
बुद्ध और
महावीर में जो
भीतर सम्हला
हुआ है, मीरा
और चैतन्य में
बाहर बह गया
है। बुद्ध और महावीर
में जो थिर है,
मीरा और
चैतन्य में
नाच उठा है।
भजन प्रार्थना
की
अभिव्यंजना
है।
ऐसा
समझो कि
तुम्हें किसी
के प्रति
प्रेम है। तुम
इसे भीतर भी
रख सकते हो, कोई जरूरत
नहीं कहने की।
कभी तुम ऐसा न
भी कहो कि
मुझे तुझसे
प्रेम है, तो
भी चलेगा; तुम
भीतर ही भीतर
रख सकते हो, सम्हाले
रखते हो।
अक्सर
स्त्रियां
किसी को कहती
नहीं कि
उन्हें प्रेम
है; सम्हाल
कर रखती हैं।
है--कहना क्या;
होना काफी
है। लेकिन कभी
प्रेम प्रकट
भी होता है--कभी
गीत में, कभी
हाथ के स्पर्श
में, कभी
आंख की
भाव-व्यंजना
में, कभी
मौन में भी।
लेकिन जब भी
प्रकट होता है,
तब फूल खिल
जाते हैं; बीज
बीज नहीं
रह जाता।
दोनों सुंदर
हैं।
दो तरह
के लोग हैं
दुनिया में।
कुछ लोग हैं, जिन्हें
प्रार्थना
काफी है; कहने
की कोई जरूरत
नहीं है; जो
अपने शून्य
में और मौन
में परमात्मा
को साध लेंगे।
फिर दूसरे तरह
के लोग भी हैं:
जिनको इतना
काफी न होगा; जब तक काफी
से ज्यादा न
हो जाए, उन्हें
काफी न होगा; जब तक उनके
ऊपर से जलधार
बहने न लगे; जब तक उनकी
प्याली इतनी
लबालब न हो
जाए कि बंटने
लगे, बाहर उलिचने
लगे, तब तक
काफी न होगा।
मीरा
नाच उठती है; बुद्ध के
प्याले से जो
छलकता नहीं, मीरा से छलक
जाता है।
दोनों शुभ
हैं।
तुम
अपनी प्रकृति
को पहचानना।
अगर तुम भीतर
रखना चाहो, कोई हर्जा
नहीं है; लेकिन
अगर बांटना
चाहो, तो
भी कोई हर्जा
नहीं है। और
दोनों में मैं
कोई तुलना
नहीं करता।
बीज भी सुंदर
है, क्योंकि
फूल उसी से
आता है; और
फूल भी सुंदर
है, क्योंकि
फिर बीज बन
जाते हैं।
दोनों जुड़े
हैं।
अभिव्यक्ति-अनभिव्यक्ति
दोनों जुड़े
हैं; प्रकट-अप्रकट
दोनों जुड़े
हैं। तुम अपनी
प्रकृति को
खोज लेना; तुम्हें
जो रुचिकर
लगे। लेकिन
ध्यान रखना, भजन
अभिव्यक्ति
है, प्रार्थना
मौन है।
पूछा
है कि क्या
प्रार्थना की
तरह भजन भी
धन्यवाद-ज्ञापन
मात्र है?
नहीं।
प्रार्थना
धन्यवाद है, भजन अहोभाव।
प्रार्थना
कहती है: जो
दिया, वह
बहुत है; जो
दिया, उससे
संतोष है; जो
दिया, उससे
गहन तृप्ति
है। लेकिन भजन
कहता है: जो दिया,
वह जरूरत से
ज्यादा है; उसे बांटना
है; वह
सम्हलता नहीं,
सम्हाले
नहीं सम्हलता;
उसे लुटाना
है। भजन नाचता
है, कहता
नहीं; भजन
बोलता है, अनबोला
नहीं है। भजन
का अपना
सौंदर्य है।
प्रार्थना
न गाया हुआ
गीत है; चित्र
है, चित्रकार
के मन में
छिपा, कैनवस
पर नहीं आया; मूर्ति है
पत्थर में दबी,
अभी छैनी से
काटी नहीं गई,
प्रकट नहीं
हुई।
भजन
प्रकट मूर्ति
है। पत्थर
काटा गया है, छैनी ने काम
कर दिया है।
भजन गाया हुआ
गीत है।
रवींद्रनाथ
मरे। मरने के
दो दिन पहले
एक मित्र
मिलने आया और
उसने कहा कि
चिंतित होने
की तो कोई
जरूरत नहीं, तुम्हारा
जीवन तो सफलता
का जीवन था।
पुराने साथी
हैं दोनों; बचपन के
मित्र हैं; दोनों बूढ़े
हो गए हैं।
दूसरे ने कहा
कि तुम तो शांति
से मर सकते हो,
दुख से मरें
तो हम--कुछ
पाया नहीं, ऐसे ही गंवा
दिया जीवन।
तुमने इतने
गीत गाए! छह
हजार गीत
रवींद्रनाथ
ने गाए। कहते
हैं, इतने
गीत संसार में
किसी कवि ने
नहीं गाए। पश्चिम
में महाकवि
शैली का नाम
है, पर
उसके भी गीत
तीन हजार हैं।
रवींद्रनाथ
के गीत छह
हजार हैं। और
छह हजार ही
गीत संगीत में
बांधे जा सकते
हैं। नोबल
पुरस्कार
तुम्हें मिला,
उस बूढ़े ने
कहा; तुम
सब तरह से
सम्मानित हुए,
तुम शांति
से मर सकते हो;
अशांति से मरें हम; तुम तो विदा
हो सकते हो; तुम
परमात्मा को
धन्यवाद दे
सकते हो।
रवींद्रनाथ
यह सब सुनते
रहे, फिर
उन्होंने कहा
कि सुनो, मैं
जो गीत गाना
चाहता था, वह
अभी तक गा
नहीं पाया; वह अभी भी
मेरे भीतर बीज
की तरह पड़ा
है। वे जो छह
हजार मैंने
गाए, वे
मेरी असफल चेष्टाएं
हैं उस एक गीत
को गाने के
लिए। वह जो
गीत मेरे भीतर
बीज की तरह
पड़ा है, उसको
गाने के लिए
मैंने चेष्टाएं
की हैं, हर
बार असफल हुआ
हूं। तुमने उन
गीतों में कुछ
पाया होगा, मेरी वे
असफलता की
कथाएं हैं। और
मेरा गीत अभी गाया
गया नहीं है, अभी मैं बिनगाया
पड़ा हूं। और
मैं परमात्मा
से शिकायत कर
रहा हूं कि तू
उठाने को आ
गया! अभी तो
साज बिठा पाए
थे, ठोंक-पीट
की थी, तार
बिठा पाए थे; सितार तैयार
हुआ था। लोगों
ने समझा हम
गीत गा रहे थे,
हम साज बिठा
रहे थे। अब जब
कि गीत गाने
का क्षण करीब
आ रहा था, जब
अनुभव ने पका
दिया था, और
प्राण राजी
हुए थे, और
सब साज सम्हल
गए थे, तब
उठने का वक्त
आ गया! यह भी
कोई बात हुई!
मैं शिकायत कर
रहा हूं।
रवींद्रनाथ
बुद्ध की तरह
नहीं बैठ सकते
वृक्ष के नीचे, वे भजन
चाहते थे।
रवींद्रनाथ
ने बुद्ध की
बड़ी आलोचना की
है--कोई विरोध
से नहीं, बड़े
प्रेम और बड़े
अहोभाव से।
लेकिन
रवींद्रनाथ
को बुद्ध कभी
जमे नहीं।
परिपूर्ण
समादर था मन
में; लेकिन
यह चुप होकर
बैठ जाना, यह
बोधिवृक्ष के
नीचे पत्थर की
मूर्ति हो जाना,
उनको न जमा।
रवींद्रनाथ
को जमे बाउल
फकीर--इकतारा
लेकर नाचते हैं।
व्यक्ति-व्यक्ति
के भेद हैं।
रवींद्रनाथ
का विरोध नहीं
है बुद्ध से, बड़ा सम्मान
है, लेकिन
व्यक्तित्व
अलग हैं। भजन
का अलग व्यक्तित्व
है, प्रार्थना
का अलग।
प्रार्थना
मौन है, भजन
मुखर।
प्रार्थना
चुपचाप है।
प्रार्थना
करने वालों ने
कहा
है--सूफियों
ने कहा है--कि
तुम्हारा
बायां हाथ
प्रार्थना
करे तो दाएं
हाथ को पता न
चले; रात के
गहरे अंधेरे
में चुपचाप उठ
आना। पति प्रार्थना
करे तो पत्नी
को पता न चले, क्योंकि
दिखावा न हो
जाए। क्योंकि
दिखावे में
प्रदर्शन आ
जाएगा, प्रदर्शन
में अहंकार आ
जाएगा।
प्रार्थना करने
वाला डरता
है--पता न चल
जाए किसी को!
भजन
करने वाला बीच
सड़क पर नाचता
है। वह कहता है, पता चले या न
चले। पता चल
जाए तो क्या
फर्क पड़ता है,
पता न चले
तो क्या फर्क
पड़ता है। वह
अपने नाच में
ही अहंकार को
गिरा देता है।
उसके नृत्य
में ही अहंकार
खो जाता है।
ये दो अलग-अलग
ढंग हैं।
प्रार्थना, मात्र
धन्यवाद है; भजन, अहोभाव
की
अभिव्यक्ति
है।
तुम
अपने भीतर को
समझ लेना।
प्रार्थना भी
पहुंचा देती
है परमात्मा
तक, भजन भी
पहुंचा देता
है; दोनों
पहुंचा देते
हैं। मंजिल
में कोई भेद
नहीं है, मार्ग
बड़ा अलग-अलग
है।
और
हमेशा जो
तुम्हें जम
जाए, उसी को
चुनना; जो
तुम्हें मौज
पड़ जाए, जो
तुम्हें
मौजूं आ जाए, उसको ही
चुनना। सदा
अपने पर ध्यान
रखना। क्योंकि
कभी ऐसा हो
सकता है कि
तुम्हें कोई
चीज दूसरे में
जंचती हो
और तुम्हारे
साथ मेल न
खाती हो; तब
भूल कर भी उस
भ्रांति में
मत पड़ना।
दूसरे के लिए
जो शुभ है, वह
जरूरी नहीं
तुम्हारे लिए
भी शुभ हो।
दूसरे की औषधि
तुम्हारे लिए
जहर भी हो
सकती है।
तुम्हारी
औषधि भी दूसरे
के लिए जहर हो
सकती है। न तो कोई
औषधि औषधि
है, न कोई
जहर जहर
है। जो जहर
तालमेल खा जाए,
औषधि बन
जाता है; जो
औषधि तालमेल न
खाए, जहर
हो जाती है।
सदा अपने भीतर
तौलते रहना; अपने से
संगीत बिठाते
रहना, तालमेल
बिठाते रहना;
अपने पर
कसते रहना।
फिर जो भी ठीक
पड़ जाए।
अगर
तुम्हें
बुद्ध की
भांति चुप बैठ
जाना, मौन
में डूब जाना,
कि अंग भी न
हिले...
बुद्ध
और महावीर की
प्रतिमाएं
संगमरमर की हमने
बनाईं, अकारण
नहीं। वे ऐसे
ही संगमरमर
जैसे बैठे थे।
वे जब थे
मौजूद, तब
भी निष्कंप
थे। अब मीरा
की प्रतिमा
तुम संगमरमर
में बनाओ, जंचेगी
न। बनाई है
लोगों ने, जंचती
नहीं। अगर
मीरा की
प्रतिमा
बनानी हो तो
जल की बनानी
पड़ेगी; वह
बनती
नहीं--नाचती
हुई, तरल--ठहरी
हुई नहीं।
मीरा
एक गति है; एक भावभंगिमा
है; एक
नृत्य है।
महावीर
एक ठहराव हैं।
महावीर एक
सरोवर हैं, जहां तरंग
भी नहीं उठती।
मीरा
एक जलधार है
पर्वत से
गिरती--जलप्रपात
है; जहां
बूंद-बूंद नाच
रही है।
बड़े
भेद हैं, पर
भेद मार्ग के
हैं। अंततः
सरोवर भी सूरज
की किरणों पर
चढ़ कर आकाश
में खो जाता है
और नदी भी
समुद्र में
गिर कर सूरज
की किरणों पर
चढ़ कर आकाश
में खो जाती
है।
मंजिल
एक है, मार्ग
अलग हैं।
मंदिर एक है, द्वार अनेक
हैं। अपना
द्वार चुन
लेना, दूसरे
का अनुकरण मत
करना।
अनुकरण
करने से
संप्रदाय
पैदा होता है, स्वभाव के
अनुकूल चलने
से धर्म।
आज
इतना ही।
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