कुल पेज दृश्य

बुधवार, 4 जुलाई 2018

कहै वाजिद पुकार--(प्रवचन--08)

कुछ और ही मुकाम मेरी बंदगी का है—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 सितम्‍बर, 1976;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1— आपने इतने ऊंचे, इतने अकल्पनीय शिखर दिखा दिए हैं कि उससे अपनी बौनी और लंगड़ी सामर्थ्य प्रगट हो गई। एक ओर उनके दिखने का आनंद है, तो दूसरी ओर तड़पने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखता! आप ही सम्हालिएगा! घुटन और छटपटाहट के क्षणों में अनुभव में आइएगा! आपकी अमृत की वर्षा करने वाली आंखें, मेरे अंतस में सदा कौंधती रहें।
आपकी आंखों का आकाश
सजल, श्यामल, सुंदर—सा पाश।
खोया मेरा मन खग नादान
सुध—बुध भूल, भटक अनजान!
2—विरह—अवस्‍था में भक्‍त दुःखी होता है या सुखी?
3—भक्‍त कि चाह क्‍या है—पुण्‍य, या ज्ञान, या स्‍वर्ग?


पहला प्रश्न:

आपने इतने ऊंचे, इतने अकल्पनीय शिखर दिखा दिए हैं कि उससे अपनी बौनी और लंगड़ी सामर्थ्य प्रगट हो गई। एक ओर उनके दिखने का आनंद है, तो दूसरी ओर तड़पने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखता! आप ही सम्हालिएगा! घुटन और छटपटाहट के क्षणों में अनुभव में आइएगा! आपकी अमृत की वर्षा करने वाली आंखें, मेरे अंतस में सदा कौंधती रहें।
आपकी आंखों का आकाश
सजल, श्यामल, सुंदर—सा पाश।
खोया मेरा मन खग नादान
सुध—बुध भूल, भटक अनजान!

मीरा! मैं जो कह रहा हूं, अत्यंत सरल है, सीधा है। मैं जो कह रहा हूं, वह सहज है, स्वाभाविक है। मैं किन्हीं ऊंचे शिखरों की बात नहीं कर रहा हूं। ऊंचे शिखर की भाषा भी अहंकार की भाषा है।
इसे समझो। अहंकार सदा ऊंचाई पाना चाहता है। अहंकार महत्वाकांक्षी है, संसार में भी ऊंचाई पाना चाहता है, परमात्मा में भी ऊंचाई पाना चाहता है। ऊंचाई का भाव अहंकार का विस्तार है। और अहंकार ऊंचाई से बहुत आकर्षित होता है। नहीं तो लोग गौरीशंकर पर न चढ़ें। गौरीशंकर पर चढ़ने में कुछ भी सार नहीं है, वहां पाने को कुछ भी नहीं है; लेकिन गौरीशंकर की ऊंचाई, बस पर्याप्त है लोगों को चुनौती देती है, चढ़ने का आकर्षण पैदा होता है।
जितना कठिन काम हो, उतना अहंकार करने को आतुर हो जाता है। अहंकार सरल काम करने में जरा भी उत्सुक नहीं है। सरल काम अहंकार के लिए बिलकुल ही रुचिपूर्ण नहीं है। इसलिए अहंकार ऊंचाइयों की भाषा में सोचता है, विचार करता है। और स्वभावतः जब तुम ऊंचाइयों की भाषा में सोचना शुरू करो, तो अपना बौनापन भी दिखाई पड़ेगा। तुम बौनी नहीं हो, कोई बौना नहीं है—अहंकार तुम्हें बौना बना देता है। पहले अहंकार एक शिखर खड़ा कर देता है सामने—बहुत ऊंचाई पाने के लिए एक महत्वाकांक्षा। फिर जब लौटकर अपनी तरफ देखते हो तो पाते हो—मैं इतना छोटा, मेरे हाथ इतने छोटे, इस बड़े आकाश को मैं कैसे पा सकूंगा? तब तड़प पैदा होती है। यह अहंकार का रोग है।
न तो कोई ऊंचाई पानी है; परमात्मा ऊंचा नहीं है, परमात्मा तुम्हारी निजता है। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है। पाने की भाषा ही छोड़ो, पाया हुआ है। यही मेरी उदघोषणा है। परमात्मा को तुम छोड़ना भी चाहो, तो छोड़ न सकोगे, छोड़ने का कोई उपाय नहीं है, उसके बिना जीओगे कैसे?
इसलिए तुमसे अब तक कहा गया है, परमात्मा को पाओ। मैं तुमसे कहता हूं, सिर्फ याद करो, पाने की बात ही नहीं करो। पाना कुछ है नहीं, पाया हुआ है। परमात्मा हमारी निजता का ही नाम है। परमात्मा तुम्हारे भीतर समाविष्ट है, तुम उसके भीतर समाविष्ट हो। जैसे बूंद में सागर है; एक बूंद का रहस्य समझ लो, तो सारे सागरों का रहस्य समझ में आ गया। जैसे एक—एक किरण में सूरज है; एक किरण पहचान ली, तो प्रकाशों के सारे राज खुल गए! एक किरण का घूंघट उठ जाए, तो सारे सूरज का घूंघट उठ गया। ऐसे ही तुम किरण हो उस सूरज की। तुम बूंद हो उस सागर की। तुममें सब छिपा है। तुममें पूरा समाया है, पूरा—पूरा समाया है!
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि परमात्मा दूर है, बहुत ऊंचाई पर है, चढ़ने हैं पहाड़ तब मिलेगा। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, जरा आंख बंद करनी है, जरा चलना छोड़ना है, जरा दौड़ना बंद करना है; बैठ रहो और मिल जाए; चुप हो रहो और मिल जाए। मैं तो कठिन की बात ही नहीं कर रहा हूं।
लेकिन अहंकार का जाल यही है। अहंकार कठिन में उत्सुक होता है, क्योंकि कठिन के सामने ही सिद्ध करने का मजा है। जितनी बड़ी कठिनाई को सिद्ध कर सकोगे, उतना ही अहंकार तृप्त होगा। इसलिए तो लोग उत्सुक होते हैं—प्रधानमंत्री हो जाएं, राष्ट्रपति हो जाएं। कठिनाई है, साठ करोड़ का देश है, एक ही आदमी राष्ट्रपति हो सकता है। बड़ी कठिनाई है, साठ करोड़ ही लोग राष्ट्रपति होना चाहते हैं और एक हो सकता है। बस इससे ज्यादा कोई मूल्य नहीं है राष्ट्रपति के पद का।
और जैसे गौरीशंकर पर पहुंचकर हिलेरी मूढ़ की तरह खड़ा हो गया था, ऐसे ही तुम्हारे राष्ट्रपति राष्ट्रपतियों के पद पर पहुंचकर मूढ़ की तरह खड़े हो जाते हैं। फिर कुछ सूझता नहीं—अब करना क्या है? वह तो भला हो उन लोगों का जो अभी राष्ट्रपति पद पर नहीं पहुंच पाए हैं कि राष्ट्रपतियों को काम में संलग्न रखते हैं—उनकी खींचातानी, पकड़ में, उनकी टांग खींचने में, उनको गिराने की कोशिश में।
तो जो चढ़ गए शिखर पर, उनको फिर कुछ और नहीं सूझता सिवाय एक बात के कि चढ़े रहें, किसी तरह बैठे रहें पदों पर। अन्यथा कुछ भी नहीं है। अगर कोई और संघर्ष करने वाला न हो, तो तुम्हारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे मूढ़ मालूम पड़ेंगे दुनिया में, कोई इतना मूढ़ मालूम न पड़ेगा। अगर लोग उत्सुक न हों।
लेकिन सारे लोग उत्सुक हैं। अहंकार की दौड़ में सभी संलग्न हैं। हम प्रत्येक बच्चे को पैदा होते से ही, मां के दूध के साथ, अहंकार का जहर पिलाते हैं। अहंकार कहता है—जो कठिन हो वह करके दिखाओ, जो सर्वाधिक कठिन हो वह करके दिखाओ। ताकि नाम रह जाए। ताकि तुम जगत में हस्ताक्षर कर जाओ अपने। ताकि शिलाखंडों पर तुम्हारे चिह्न छूट जाएं। ताकि इतिहास बने। इतिहास बनाओ!
यही अहंकार कभी जब संसार से ऊब जाता है और परमात्मा में उत्सुक होता है, तो भी इसकी भाषा जारी रहती है। यह परमात्मा को बहुत दूर रखता है। और परमात्मा पास से भी पास है। परमात्मा को पास कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि पास में भी दूरी मालूम होती है। जो तुम्हारे पास बैठा होता है, उसमें और तुममें भी थोड़ी दूरी तो होती है। जो शरीर सटाकर बैठा है, उससे भी थोड़ी दूरी होती है। पास भी दूरी का ही एक मापदंड है। नहीं, परमात्मा पास से पास है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं। तुम परमात्मा हो। तत्वमसि—तुम वही हो। तुम रत्ती—भर भिन्न नहीं हो। बुद्धों की यही देशना है। तुम्हें याद दिलानी है। तुम्हें परमात्मा पाने जाना नहीं है।
मैं किन्हीं ऊंचे शिखरों की बात नहीं कर रहा, मैं तो यही कह रहा हूं कि तुम अगर ऊंचे शिखरों की बात छोड़ दो, तो स्वयं में प्रवेश हो जाए, तो परमात्मा से मिलन हो जाए। महत्वाकांक्षा छोड़ दो, तो परमात्मा से मिलन हो जाए। महत्वाकांक्षा भटका रही है। महत्वाकांक्षा का ज्वर तुम्हें दूर—दूर ले जा रहा है, घर नहीं आने देता, अपने पर नहीं लौटने देता; कभी धन में, कभी पद में, कभी प्रतिष्ठा में, कभी स्वर्ग में, कभी परमात्मा में, मोक्ष में—लेकिन दूर—दूर भटकाता है।
अपने पर कब लौटोगे? कभी घड़ी—भर को तो स्वयं रह जाओ, निपट अकेले, बस तुम्हीं और कुछ भी न हो—कोई चित्त में विचार नहीं, कोई वासना नहीं, कहीं जाने की कोई आकांक्षा नहीं। इस ठहरे हुए क्षण में, जब समय रुक जाता है और समय की धारा ठहर जाती है, अनुभव होता है।
मैं तो उस अनुभव की बात कर रहा हूं, जो तुम चाहो तो अभी हो जाए। जरा भी बाधा नहीं है—इसी क्षण। एक क्षण भी ठहरने का कोई कारण नहीं है।
अहंकार पहले बना लेता है दूर चीजों को; फिर जब अपनी सामर्थ्य देखता है, तो घबड़ाहट शुरू होती है। तो अहंकार का यह द्वंद्व है। अहंकार की उत्सुकता है कठिन में; अगर कठिन न भी हो तो कठिन बना लेता है। अहंकार सीधे—सीधे कान पकड़ना पसंद नहीं करता, उलटे, घूमकर, दूर के रास्ते से कान पकड़ना पसंद करता है। तो पहले दूरी खड़ी करो, परमात्मा को कठिन बनाओ, गौरीशंकर का शिखर! और फिर जब अपनी तरफ देखोगे, तो बौनापन पाओगे। इसलिए अहंकार कष्ट पाता है; क्योंकि हर शिखर जो तुमने बना लिया, अपने ही शिखर के सामने तुम छोटे हो जाते हो, दीनऱ्हीन हो जाते हो, पंगु हो जाते हो।
मीरा, तेरी बात ठीक है। अगर तूने अकल्पनीय शिखर देखे, तो अपनी बौनी और लंगड़ी सामर्थ्य प्रगट होगी। लेकिन मैं किसी अकल्पनीय शिखर की बात ही नहीं कर रहा हूं। इसलिए मेरे पास जो आते हैं, उन्हें बौनेपन की बात ही नहीं उठानी चाहिए। तुम और बौने—असंभव! तुम और छोटे, क्षुद्र, लंगड़े, अंधे—असंभव! क्योंकि तुम अंधे और लंगड़े और बौने, तो परमात्मा अंधा, लंगड़ा और बौना हो जाएगा! यह तो परमात्मा का अपमान हो जाएगा।
जरा समझना मेरी बात को! जब मैं कह रहा हूं, तुम बौने नहीं, तुम लंगड़े नहीं, तुम क्षुद्र नहीं, तो जल्दी से दूसरी यात्रा पर मत निकल जाना—कि मैं महान, कि मैं विराट, कि देखो, मैं बैठा गौरीशंकर के शिखर पर! मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम महान, कि तुम बड़े, कि तुम श्रेष्ठ।
मैं तो सिर्फ यही कह रहा हूं, यह तुलना की भाषा ही गलत है। न तुम छोटे, न तुम बड़े; तुम वही, जो हो। और वही है परमात्मा—जो है। परमात्मा, जो है, उसका नाम है। अहंकार सदा द्वंद्व खड़ा करता है; जहां बिलकुल निर्द्वंद्वता है, वहां द्वंद्व खड़ा करता है।
प्रिय, कितना व्यापक अंतरिक्ष,
ये मेरे कितने शिथिल गान!
प्रिय, कितना व्यापक अंतरिक्ष,
पहले आकाश कितना बड़ा, फिर गान मेरे कितने छोटे, फिर पंख मेरे कितने छोटे, फिर कंठ मेरा कितना छोटा!
प्रिय, कितना व्यापक अंतरिक्ष,
ये मेरे कितने शिथिल गान!
युगऱ्युग के अगणित झोंकों में
इन दो सांसों का क्या प्रमान!
कल इन दो नयनों में अपने
भरकर असीमता के सपने
मैंने गुरुता की एक नजर
डाली थी दुनिया के ऊपर!
फिर अपना मस्तक ऊंचा कर,
अपनी गर्वान्ध खुदी में भर,
मैं बोल उठा था गर्वोन्नत
"मैं हूं समर्थ, मैं हूं महान।'
पर आज थका—सा, हारा—सा,
मैं फिरता हूं मारा—मारा।
बैठा छोटे—से कमरे में
वह भी न बन सकेगा अपना
कहता उसका कोना—कोना!
कितने ही आए, चले गए,
है कितनों को आना—जाना!
होंठों पर ले विषाद—रेखा,
गत जीवन की छायाओं से
मैं घिरा हुआ हूं सोच रहा
कितना नीचा मेरा मस्तक,
कितना ऊंचा है आसमान!
इस कविता को सुनते समय या पढ़ते समय तुम्हें लगेगा—पहली बात गलत थी, दूसरी बात सही है। तुम्हें लगेगा—जिस क्षण कवि ने कहा:
फिर अपना मस्तक ऊंचा कर,
अपनी गर्वान्ध खुदी में भर,
मैं बोल उठा था गर्वोन्नत
"मैं हूं समर्थ, मैं हूं महान।'
तुम्हें लगेगा यह अहंकार की बात है। और दूसरी बात, हारा—थका, वृद्धावस्था में जीर्ण—शीर्ण, मौत आने लगी, पत्ता पीला पड़ने लगा जीवन का, हाथ कंपने लगे, पैर डगमगाने लगे, अब खड़े होने की भी ठीक—ठीक सामर्थ्य न रही। अब इस हताशा में कवि कहता है:
होंठों पर ले विषाद—रेखा,
गत जीवन की छायाओं से
मैं घिरा हुआ हूं सोच रहा
कितना नीचा मेरा मस्तक,
कितना ऊंचा है आसमान!
तुम सोचोगे दूसरी बात सच है। मैं कहता हूं, दोनों बात गलत हैं। दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पहले सोचोगे महान, तो फिर एक न एक दिन हीनता का पता चलेगा। मैं कहता हूं: न तुम महान, न तुम हीन; तुम बस वही हो—जो है, जैसा है। यहां दो हैं ही नहीं, किससे तौलो? किसको कहो बड़ा, किसको कहो छोटा? दो होते तो तौल हो सकती थी। दो होते तो तराजू काम में आ जाता। यहां एक का ही वास है। वही बाहर, वही भीतर, वही मुझमें, वही तुझमें, वही वृक्षों में, वही चांदत्तारों में, वही पहाड़ों में, वही छोटे से छोटे कण में, और वही विराट से विराट आकाश में—एक का ही वास है, एक का ही विस्तार है। तौलोगे कैसे? तुलना किससे करोगे?
मगर हमारी भाषा में यह तुलना भरी है, जगह—जगह भरी है। एक मित्र कल ही मुझे कहते थे कि मैं बहुत परतंत्र हूं, मुझे स्वतंत्र होना है। सभी को लगती है परतंत्रता, तो स्वतंत्रता का भाव पैदा होता है। और मैं तुमसे कहता हूं, परतंत्रता भी परतंत्रता है और स्वतंत्रता भी परतंत्रता है। क्योंकि तुमने एक बात तो मान ही ली कि दूसरा है। परतंत्रता का मतलब होता है कि दूसरा है। अभी उससे बंधे हो, इच्छा हो रही है—कैसे छूट जाएं। मगर दोनों ही बातों की बुनियाद में एक ही भ्रांति है कि दूसरा है।
यहां दूसरा है ही नहीं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, न तो कोई परतंत्र है और न कोई स्वतंत्र है। परतंत्रता—स्वतंत्रता दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक आदमी आसक्त है और दूसरा आदमी कहता है मैं विरक्त हूं—ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कैसी आसक्ति, कैसी विरक्ति? एक आदमी कहता है मैं भोगी हूं, एक आदमी कहता है मैं योगी हूं। कैसा भोग, कैसा योग? भोगी और योगी में जरा भी फर्क नहीं है, रत्ती—भर का फर्क नहीं है।
हालांकि भाषाकोश में फर्क लिखा है, और तुम्हारे चित्त में भी लिखा है। सदियों से तुम्हें समझाया गया है कि भोगी और योगी—विपरीत। होंगे विपरीत ऐसे ही जैसे ठंडा और गरम। मगर ठंडा और गरम में क्या भेद है? ठंडक गर्मी का ही एक माप है और गर्मी ठंडक का ही दूसरा माप है।
कभी एक छोटा—सा प्रयोग करके देखो, एक बाल्टी में पानी भरकर रख लो। एक हाथ को सिगड़ी पर तपाओ और दूसरे हाथ को बरफ पर रखो। एक हाथ को खूब ठंडा हो जाने दो, एक को खूब गरम हो जाने दो। फिर दोनों हाथों को बाल्टी के पानी में डाल दो। अब मैं तुमसे अगर पूछूं कि बाल्टी का पानी ठंडा है या गरम? तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, एक हाथ कहेगा गरम, एक हाथ कहेगा ठंडा। पानी एक—सा ही है, पानी वही है, बाल्टी में एक ही तापमान का पानी है। लेकिन जो हाथ ठंडा हो गया है, वह कहेगा पानी गरम है; और जो हाथ गरम हो गया है, वह कहेगा पानी ठंडा है।
जैसे ठंडक और गर्मी एक ही थर्मामीटर से नापे जाते हैं, वैसा ही तुम्हारा भोग और योग है, वैसी ही विरक्ति और आसक्ति है, वैसी ही परतंत्रता—स्वतंत्रता है, वैसी ही अहंकार और विनम्रता है। जरा भी भेद नहीं है। यह एक ही द्वंद्व का विस्तार है। मगर सदियों तक हमें समझाया गया है तो हमारा संस्कार गहरा हो गया है। हम कहते हैं देखो, फलां आदमी कितना विनम्र! कैसा विनम्र!
मगर तुम विनम्र आदमी के भीतर झांककर देखो, तो पाओगे—वही अहंकार शीर्षासन कर रहा है अब। शीर्षासन करने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। पहले अकड़ थी कि मैं बहुत कुछ हूं, सब कुछ हूं, अब अकड़ है कि मैं ना—कुछ हूं; मगर अकड़ कायम है, अकड़ जरा भी नहीं बदली। पहले धन के लिए दीवाना था, अब ऐसा डर गया है कि कहीं धन पड़ा हो, तो कंपने लगता है।
चीन में बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक फकीर की बड़ी ख्याति हो गई। ख्याति हो गई कि वह निर्भय हो गया है। और निर्भयता अंतिम लक्षण है। एक दूसरा फकीर उसके दर्शन को आया। वह फकीर जो निर्भय हो गया था, समस्त भयों से मुक्त हो गया था, बैठा था एक चट्टान पर। सांझ का वक्त, और पास ही सिंह दहाड़ रहे थे। मगर वह बैठा था शांत, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है। दूसरा फकीर आया, तो सिंहों की दहाड़ सुनकर कंपने लगा, दूसरा फकीर कंपने लगा। निर्भय हो गया फकीर बोला: तो अरे, तो तुम्हें अभी भी भय लगता है! तुम अभी भी भयभीत हो! फिर क्या खाक साधना की, क्या ध्यान साधा, क्या समाधि पाई! कंप रहे हो सिंह की आवाज से, तो अभी अमृत का तुम्हें दर्शन नहीं हुआ, अभी मृत्यु तुम्हें पकड़े हुए है! उस कंपते फकीर ने कहा कि मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है, पहले पानी, फिर बात हो सके। मेरा कंठ सूख रहा है, मैं बोल न सकूंगा।
निर्भय हो गया फकीर अपनी गुफा में गया पानी लेने। जब तक वह भीतर गया, उस दूसरे फकीर ने, जहां बैठा था निर्भय फकीर, उस पत्थर पर लिख दिया बड़े—बड़े अक्षरों में: नमो बुद्धाय—बुद्ध को हो नमस्कार। आया फकीर पानी लेकर। जैसे ही उसने पैर रखा चट्टान पर, देखा नमो बुद्धाय पर पैर पड़ गया, मंत्र पर पैर पड़ गया; झिझक गया एक क्षण। आगंतुक फकीर हंसने लगा और उसने कहा: डर तो अभी तुम्हारे भीतर भी है। सिंह से न डरते होओ, लेकिन पत्थर पर मैंने एक शब्द लिख दिया—नमो बुद्धाय, इस पर पैर रखने से तुम कंप गए! भय तो अभी तुम्हें भी है। भय ने सिर्फ रूप बदला है, बाहर से भीतर जा छिपा है, चेतन से अचेतन हो गया है। भय कहीं गया नहीं है।
निर्भय आदमी में भय नहीं जाता, सिर्फ भय नए रूप ले लेता है, निर्भयता का आवरण ओढ़ लेता है। जो व्यक्ति समाधिस्थ होता है, न तो भयभीत होता है, न निर्भय होता है। निर्भय होने के लिए भी भय का होना जरूरी है, नहीं तो निर्भय कैसे होओगे? विरक्त होने के लिए आसक्ति का होना जरूरी है, नहीं तो विरक्त कैसे होओगे?
विनोबा भावे, अगर तुम सामने उनके रुपए ले जाओ, तो आंख बंद कर लेते हैं। आंख बंद करने की क्या जरूरत? मुंह फेर लेते हैं; रुपए से ऐसा क्या भय है? रुपए में ऐसा क्या है? ऐसे भी लोग तुम जानते हो जिंदगी में जिनको रुपया देखकर एकदम लार टपकने लगती है।
जिसको रुपया देखकर लार टपकती है उसमें और जो रुपया देखकर आंख बंद करता है, इसमें कुछ भेद है? दोनों पर रुपया हावी है। दोनों को रुपया प्रभावित करता है। रुपए का बल दोनों के ऊपर है, दोनों से कुछ करवा लेता है। किसी की जीभ से, किसी की आंख से, मगर दोनों से कुछ करवा लेता है। इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर आंख भी क्यों बंद कर रहे हो? शायद कहीं भय होगा, ज्यादा देर देखा तो लार न टपकने लगे। नहीं तो आंख बंद करने की क्या जरूरत है?
एक सुंदर स्त्री पास से तुम्हारे गुजरती है, तुम झट से नीचा सिर कर लेते हो। क्या तुम सोचते हो यह ब्रह्मचर्य है? अगर यह ब्रह्मचर्य है, तो आंख नीची क्यों हो गई? चट्टान को देखकर तो तुम ऐसी आंख नीची नहीं करते, वृक्ष को देखकर तो आंख नीची नहीं करते, सुंदर स्त्री को देखकर ही आंख नीची क्यों हो गई?
गांधी जिंदा थे, और विनोबा गांधी को रामायण पढ़कर सुनाते थे। कथा है रामायण की कि जब सीता को रावण चोरी ले गया, तो सीता ने रावण के रथ से या विमान से अपने गहने, अपने आभूषण जंगल में फेंक दिए—रास्ता राम को मिल सके कि सीता किस रास्ते से चुराई गई है, कहां से ले जाई गई है, किस दिशा में ले जाई गई। तो वह धीरे—धीरे अपने गहने फेंकती गई।
फिर कथा कहती है कि जब राम को गहने मिले, तो उन्होंने लक्ष्मण से पूछा कि तू पहचान सकता है ये गहने सीता के ही हैं? क्योंकि मैं उसके इतने प्रेम में था कि मैंने उसे देखकर कभी उसके गहनों पर ध्यान ही नहीं दिया, मुझे समझ में नहीं आ रहा। फिर मेरा अभी चित्त भी बहुत विह्वल है, मेरी आंखें आंसुओं से भरी हैं, मैं पहचान भी नहीं सकता कि ये गहने सीता के ही हैं या किसी और के। लक्ष्मण ने कहा कि मैं सिर्फ पैर के गहने पहचान सकता हूं।
महात्मा गांधी ने पूछा विनोबा को—पैर के ही गहने क्यों लक्ष्मण पहचान सकता है? आश्रम में इस पर खूब चर्चा चली। अलग—अलग लोगों ने अलग—अलग उत्तर दिए। अंततः विनोबा ने कहा कि इसलिए कि लक्ष्मण सीता को मां की तरह मानता है, इसलिए कभी उसने चरणों से ऊपर आंख नहीं उठाई। सदाचारी है, सीता के प्रति उसके मन में कोई वासना नहीं है। इसलिए सिर्फ पैर के गहने पहचान सकता है। और महात्मा गांधी इस उत्तर से बड़े संतुष्ट हुए।
मैं बहुत हैरान हूं! महात्मा गांधी से भी और विनोबा से भी। क्योंकि अगर लक्ष्मण सीता को मां की तरह मानता है, तो चेहरा क्यों देखने में डर है? कोई मां का चेहरा देखने में डरता है? नहीं, कहीं कोई भीतर वासना दबी होगी।
जरा पन्ने उलटो, पीछे लौटो। जब पहली दफा राम और लक्ष्मण ने सीता को देखा, विवाह के पहले, बगिया में फूल चुनते, तो लक्ष्मण भी मोहित हो आया था। फिर और पन्ने पलटो। स्वयंवर रचा है, राम तो शांत बैठे हैं, अपने समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं, मगर लक्ष्मण बीच—बीच में खड़ा हो जाता है कि मैं धनुष तोड़ दूं। लक्ष्मण बड़ा आतुर था धनुष तोड़ने को। उसको रोकना पड़ रहा है बार—बार कि तू ठहर, बड़े भाई के रहते तू कैसे धनुष तोड़ेगा? फिर यह पैर ही देखता है सीता के। जरूर भय होगा, जरूर डर होगा, जरूर वासना होगी।
अगर विनोबा की व्याख्या सही है, तो यह लक्ष्मण की निंदा हो जाएगी। विनोबा ने तो व्याख्या ऐसी की जिसमें लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य प्रगट हो। मगर विनोबा जो व्याख्या करेंगे, विनोबा का ही चित्त तो उस व्याख्या में होगा! और गांधी जो व्याख्या स्वीकार कर लिए, उसमें भी गांधी का चित्त है। दोनों राजी हो गए इस बात से। और मैं मानता हूं, इसमें लक्ष्मण का अपमान है।
मैं तो इतना ही कहना चाहता हूं, लक्ष्मण चेहरा भी देखता होगा सीता का, कोई कारण नहीं है कि न देखे चेहरा; लेकिन जब सीता जैसी सुंदर स्त्री का कोई चेहरा देखता है तो गहने दिखाई नहीं पड़ते। गहने तो सिर्फ कुरूप स्त्रियों के दिखाई पड़ते हैं। सौंदर्य की आभा ऐसी होती है कि कहां गहने! सौंदर्य का प्रकाश ऐसा होता है, दीप्ति ऐसी होती है कि कहां गहने! हां, रोज पैर छूता होगा सीता के, जो कि उन दिनों का सामाजिक नियम था, चरणों में सिर रखता होगा, वे गहने परिचित हैं। और चरणों के गहने हैं, वहां कोई चेहरे की दीप्ति नहीं है, आंखों के जलते हुए तारे नहीं हैं, वहां सीता का वह सौंदर्य नहीं है; अपूर्व सौंदर्य और प्रसाद नहीं है, पैर ही पैर हैं। पैरों में क्या रखा है, न आंख है, न भाव है। तो पैरों के गहने पहचान लिए होंगे। फिर पैरों पर रोज सिर रखता था, वे गहने रोज—रोज देखे होंगे, खयाल में आए होंगे। मैं यह नहीं मान सकता हूं कि लक्ष्मण सीता का चेहरा देखने में डरता रहा होगा। इतना कमजोर लक्ष्मण नहीं है। यह कमजोरी विनोबा और गांधी की है। यह व्याख्या उनकी है।
तुम जब किसी सुंदर स्त्री को देखकर सिर झुका लेते हो या दूसरी तरफ देखने लगते हो, यह तुम्हारा सिर झुकाना और दूसरी तरफ देखना, सिर्फ तुम्हारे भीतर जलती हुई वासना की खबर देता है और कुछ भी नहीं—सिर्फ प्रज्वलित वासना की। तो जो आदमी संसार छोड़कर भागता है, सिर्फ इतनी ही खबर देता है कि संसार में उसे बड़ी आसक्ति है; उसको हम विरक्त कहते हैं। जो आदमी स्त्री—बच्चों को छोड़कर चला जाता है, उसको हम ब्रह्मचारी कहते हैं। छोड़कर जाने की जरूरत क्या थी? छोड़कर जाने का अर्थ है कि डर है, भय है।
मैं तुम्हें यह याद दिलाना चाहता हूं: स्वतंत्रता और परतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, विरक्ति—आसक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भोगऱ्योग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब बोध होता है तो पूरा सिक्का गिर जाता है। एक पहलू तो कोई गिरा भी नहीं सकता; या कि तुम सोचते हो गिरा सकोगे? सिक्के का एक पहलू नहीं गिराया जा सकता। या तो पूरा सिक्का रखना होगा हाथ में, या पूरा छोड़ देना होगा, तुम बचा नहीं सकते आधा। तुम यह नहीं कह सकते कि हम एक तरफ का बचा लेंगे। एक तरफ का बचाओगे, तो दूसरी तरफ का भी बच जाएगा। हां, यह हो सकता है कि एक पहलू ऊपर रहे और दूसरा पहलू नीचे छिपा रहे, दिखाई न पड़े।
त्यागी में भोग छिपा रहता है, दिखाई नहीं पड़ता। भोगी में त्याग छिपा रहता है, दिखाई नहीं पड़ता। मैं तुम्हें एक बड़ी क्रांति की दृष्टि दे रहा हूं—यह पूरा सिक्का ही व्यर्थ है। न तो परमात्मा ऊंचा है, न तुम नीचे हो। ऊंच—नीच की बात ही व्यर्थ है। मैं तुम्हें कोई गौरीशंकर के शिखर नहीं दिखा रहा हूं।
और तुम्हारे मन की चालबाजी है इसमें मीरा! ऐसा मानकर कि ये तो बहुत ऊंचाइयां हैं, अपने से कैसे पहुंची जा सकेंगी, हम अपने को बचा भी लेते हैं। यह बचाने की भी तरकीब हो सकती है। इतनी ऊंचाई हम से कैसे हो सकेगी पूर्ण? इतनी लंबी यात्रा हमसे कैसे होगी? इसलिए नहीं हो पाती है तो पीड़ा लेने का भी कोई कारण नहीं मालूम होता। मामला ही कठिन है। जहां बड़े—बड़े डूब रहे हैं, हम तिनकों का क्या, हम तिनकों की क्या बिसात? और फिर स्वभावतः अपना बौनापन लगेगा, चोट भी पड़ेगी। और दोनों का खेल तुमने ही पैदा कर लिया है। पहले शिखर बड़े खड़े कर लिए, फिर उसके अनुपात में अपना बौनापन खड़ा कर लिया।
न शिखर सच्चे, न तुम्हारा बौनापन सच्चा। पूरा सिक्का जाने दो। न परमात्मा बड़ा है, न तुम छोटे हो, क्योंकि परमात्मा और तुम एक हो। द्वैत अज्ञान है, अद्वैत ज्ञान है। न यहां कुछ छोड़ना है, न कुछ त्यागना है, न कुछ पकड़ना है, न किसी से भागना है—बस जागना है। भागो नहीं, जागो!
पूछा मीरा ने: आपने इतने ऊंचे, इतने अकल्पनीय शिखर दिखा दिए हैं कि उससे अपनी बौनी और लंगड़ी सामर्थ्य प्रगट हो गई।
यह तो उलटा हो गया मीरा। मैं तो चाहता था कि तुम्हारा सम्यक रूप प्रगट हो। तुम्हारी बौनी सामर्थ्य प्रगट हो जाए, यह तो मैंने नहीं चाहा। यद्यपि यही पंडित और पुरोहित सदियों से करते रहे हैं। वे यही करते रहे हैं कि परमात्मा को बताओ बहुत बड़ा और तुमको करो बहुत छोटा। और जितना बड़ा परमात्मा हो, उतने ही तुम छोटे हो जाते हो अनुपात में।
तुम्हें कहानी तो मालूम है न अकबर की! उसने दरबार में एक लकीर खींच दी आकर और दरबारियों को कहा, इसे बिना छुए छोटा कर दो। बहुत सिर मारा, कोई छोटा न कर सका। क्योंकि छोटा करोगे कैसे बिना छुए? और तब बीरबल उठा और उसने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। उस लकीर को छुआ नहीं, एक बड़ी लकीर नीचे खींच दी। बिना छुए लकीर छोटी हो गई!
अब थोड़ा सोचो, लकीर उतनी की उतनी है; जरा भी न तो बड़ी हुई है, न छोटी हुई है। जैसी है वैसी की वैसी है, जस की तस। मगर एक दूसरी लकीर नीचे खड़ी कर दी, बड़ी लकीर खड़ी कर दी, वह छोटी हो गई।
पंडित और पुरोहित परमात्मा का खूब गुणगान करते रहे हैं, स्तुति करते रहे हैं, उसको बहुत ऊंचा बताते रहे हैं। स्वभावतः उसके अनुपात में तुम नीचे होते चले गए। जितना परमात्मा आकाश में दूर निकल गया, उतने ही तुम जमीन में गड़ गए। जितना परमात्मा आकाश में उड़ा, उतने ही तुम जमीन पर रेंगने लगे। तुम कीड़े—मकोड़े हो गए! तुम्हारे कीड़े—मकोड़े हो जाने में पुरोहित को शोषण का मौका मिला। तुम कीड़े—मकोड़े हो! तुम्हारी सामर्थ्य क्या है? पुरोहित ने कहा कि मैं मध्यस्थ होऊंगा। तुम तो उस शिखर तक नहीं पहुंच सकते, लेकिन मैं सहारा दूंगा और पहुंचाऊंगा। मैं तुम्हें अपने कंधे पर ले चलूंगा। मैं तुम्हें अपने पंखों पर उड़ाऊंगा। मैं तुम्हारा वाहन बनूंगा। मैं तुम्हारे लिए उपकरण बनूंगा। मैं साधन हूं तुम्हारा।
और निश्चित ही तुम इतने छोटे हो गए थे कि तुम्हें कोई भी सहारा मिल जाए, तो तुम तैयार थे। तुम्हें अपने पर बस खो गया। तुम्हारे भीतर कोई भी गौरव—गरिमा न रही। तुम ऐसे दीनऱ्हीन, ऐसे अपराधी भाव से भर गए, तुम ऐसे पापी अनुभव करने लगे अपने को—कि अपने से क्या होगा, चाहिए कोई जो बीच में बिचवइया हो। पुरोहित ने ऐसे तुम्हारा शोषण किया। पुरोहित ने दलाली की तुम्हारे और परमात्मा के बीच! ये तुम्हारे सभी संगठित धर्म दलाली के धर्म हैं।
मैं चाहता हूं, दलालों को बीच से विदा कर दो। तुम छोटे नहीं हो। परमात्मा दूर नहीं है। परमात्मा कोई अकल्पनीय शिखर नहीं है। परमात्मा तुम्हारी हड्डी—मांस—मज्जा है।
और इसी उपाय का प्रयोग किया गया है बहुत—बहुत अर्थों में। इसलिए जब कोई सदगुरु जीवित होता है, तो तुम उसे सदगुरु की तरह स्वीकार नहीं कर पाते। कारण? क्योंकि जीवित व्यक्ति जैसे व्यक्ति होने चाहिए वैसा होता है। उसे भूख लगती है। वह तुम्हारे जैसा ही भूखा होता है। तुम्हारे जैसी ही प्यास लगती है। तुम्हारे जैसा ही बूढ़ा होगा। तुम्हारे जैसा ही एक दिन बीमार भी पड़ता है। उसे दवा की भी जरूरत होती है। सदगुरु जीवित होगा तो ठीक तुम्हारे जैसा होगा न!
और तुम अपने ही जैसे व्यक्ति को कैसे सदगुरु स्वीकार कर सकते हो? तुम इतने दीनऱ्हीन हो, तुम इतने आत्मनिंदित हो, तुम इतने अपनी आंखों के सामने गिर गए हो कि तुम अपने ही जैसे व्यक्ति को तो सदगुरु स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए मर जाने के बाद, जब पुरोहित सदगुरु को नए—नए रंग देता है, झूठे ढंग देता है, व्यर्थ की और काल्पनिक बातों में सजा देता है, तब तुम स्वीकार करते हो।
महावीर जिंदा हों, तुम स्वीकार नहीं करते। अब तुम करते हो, क्योंकि पुरोहित ने ढाई हजार सालों में महावीर को खूब सजा दिया। सांप काटता है तो खून नहीं निकलता अब, दूध निकलता है। मुझे सांप काटेगा तो खून निकलेगा। स्वभावतः, खून ही निकलना चाहिए। महावीर को सांप काटता है तो खून नहीं निकलता, दूध निकलता है। मगर इसके लिए दो हजार साल, ढाई हजार साल पुरोहितों को उपाय करना पड़ा है।
मैं तो जानता हूं महावीर को भलीभांति, खून ही निकला था। कहीं पैर में काटने से दूध निकलता है! पागल हो गए हो! पैर में से दूध तो सिर्फ दो कारणों से निकल सकता है—या तो भीतर मवाद हो, तो दूध जैसी मालूम पड़े। सड़ गए हों बिलकुल भीतर! और दूसरा उपाय यह है कि पैरों में कोई ग्रंथि हो, जैसा कि मां के स्तन में होती है, जिससे कि खून दूध बनता है। दोनों बातें बेहूदी हैं: महावीर के पैर में स्तन की ग्रंथि, या महावीर का पैर भीतर सड़ा हुआ। और तुम थोड़ा सोचो तो, अगर महावीर में दूध भरा होता, तो कब का दही न बन गया होता! दूर से गंधाते! कहीं भी निकल जाते, तो लगता कि कोई सड़ी, पुरानी दही की मटकी चली जा रही है! कोई उसी दिन अचानक दूध निकल आता—पहले से भरा होना चाहिए! कि सांप को देखकर एकदम दूध बन गया!
महावीर को पसीना नहीं निकलता।
पागल हो गए हो! शरीर में सात करोड़ छिद्र हैं। उन छिद्रों से शरीर श्वास लेता है। तुम नाक से ही श्वास नहीं लेते, इस भ्रांति में मत रहना कि तुम नाक की ही श्वास से जी रहे हो। अगर तुम्हारे पूरे शरीर पर डामल पोत दी जाए सिर्फ नाक को छोड़कर और तुमको नाक से श्वास लेने दी जाए, तो भी तुम तीन घंटे में मर जाओगे, तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकोगे। अकेले नाक के सहारे बस तीन घंटे जिंदा रह सकते हो, अगर तुम्हारे सारे छिद्र बंद कर दिए जाएं डामल पोतकर।
उन्हीं छिद्रों से पसीना बहता है। पसीना उन छिद्रों को साफ करने का उपाय है—उन पर धूल न जम जाए। जैसे आंख के पीछे आंसुओं की ग्रंथि है; आंख में जरा सी धूल पहुंच जाए, तत्क्षण आंख गीली हो जाती है, आंसू उतर आता है। वह आंसू उपाय है धूल को बहा ले जाने का। ऐसे ही जब तुम्हारे छिद्रों पर धूल जम जाती है, जो कि प्रतिक्षण जमती है; और जितनी महावीर को जमती होगी, उतनी और किसको जमेगी! नंग—धड़ंग घूमोगे बिना जूते और उस जमाने की भारत की सड़कें। अभी भी नहीं सुधरी हैं! उस जमाने की तुम सोचो, बिहार में और धूल ही धूल उड़ती रही होगी। धूप—धाप में नग्न घूमते महावीर—धूल से लद जाते होंगे। और शास्त्र कहते हैं, पसीना नहीं बहता। पत्थर के हैं? तो पसीना नहीं बहेगा।
महावीर को तो पसीना बहता है, लेकिन शास्त्रों के महावीर को नहीं बहता। महावीर तो बूढ़े भी होते हैं, रुग्ण भी होते हैं; मरे ही पेचिश की बीमारी से। अब तुम थोड़ा सोचो, महावीर को और पेचिश की बीमारी! जिसने जीवन—भर उपवास किए, उसको और पेट की पेचिश की बीमारी! छह महीने पेचिश की बीमारी से परेशान रहे और मरे। लेकिन शास्त्रों के महावीर को हमने लीप—पोतकर खड़ा कर दिया है। न उन्हें भूख लगती है, न उन्हें प्यास लगती है, न पसीना बहता है, न मल—मूत्र का निष्कासन होता है!
अब तुम्हें लगता है कि यह व्यक्ति हमसे ऊपर उठ गया, दूर चला गया, बहुत दूर चला गया। अब इसकी काया साधारण काया न रही, देव—काया हो गई!
ऐसी ही कहानी तुम बुद्ध के बाबत कहते हो, ऐसी ही कहानी तुम जीसस के बाबत कहते हो। तुम झूठी कहानियां गढ़ने में कुशल हो। तुम झूठी कहानियों को मानने में कुशल हो। झूठी कहानियां पुरोहित की इसलिए मान ली जाती हैं कि एक बात पक्की हो जाती है झूठी कहानियों से कि वे तुम्हारे जैसे नहीं थे। तुम तो निंदित हो। तुम तो सड़े—गले, पापी! वे तुमसे भिन्न थे। तो जीसस को मानने वालों ने कहानी गढ़ रखी है कि वे क्वांरी मरियम से पैदा हुए! पागल हो गए हो, क्वांरी लड़कियों से कोई पैदा होता है? लेकिन ये कहानियों का एक राज है। ये कहानियां उन्हें विशिष्ट बना देती हैं; तुम्हारे जैसा नहीं रहने देतीं; इनकी यही खूबी है। और जैसे ही वे तुम्हारे जैसे नहीं रह जाते, तुम्हारे दलित, पद—दलित चित्त, आत्मनिंदित भाव अंगीकार कर लेते हैं कि वे सदगुरु होंगे, तीर्थंकर होंगे, अवतार होंगे!
जीवित सदगुरु स्वीकार नहीं होता। जीवित जीसस को तो सूली लगाते हो तुम। जीवित महावीर के कानों में खीलें ठोंकते हो, पत्थर मारते हो। जीवित बुद्ध का तो तुम जगह—जगह अपमान करते हो। हां, मर जाने पर, पंडित—पुरोहित ठीक से ढांचा खड़ा करते हैं। साज—संवारकर एक झूठी प्रतिमा निर्मित करते हैं। फिर उस झूठी प्रतिमा की पूजा चलती है। और इसके पीछे राज इतना ही है कि तुम निंदित किए गए हो।
मैं तुम्हारा सम्मान करता हूं, क्योंकि मुझे लगता है—तुम्हारी निंदा तुम्हारे भीतर बैठे परमात्मा की निंदा है। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम्हें असाधारण हो जाना है। मैं तुमसे कहता हूं, तुम साधारण हो जाओ, तो सब मिल जाए। असाधारण होने की दौड़ अहंकार की दौड़ है। कौन नहीं असाधारण होना चाहता? मैं तो संन्यासी उसको कहता हूं जो साधारण होने में तृप्त है।
झेन फकीर कहते हैं: जब भूख लगे तो खा लेना, जब प्यास लगे तो पी लेना, और जब नींद आए तो सो जाना। इतने सरल हो जाओ, इतने सीधे हो जाओ।
मैं तुम्हें दूर के लक्ष्य नहीं दे रहा हूं मीरा, मैं तुम्हें वही स्मरण करा रहा हूं जो तुम हो। मैं साधारण मनुष्य की भगवत्ता घोषित कर रहा हूं। तुम्हारा चित्त मानने को राजी नहीं होता कि मैं और भगवान! साधारण मनुष्य, मेरे जैसा मनुष्य और भगवान! नहीं—नहीं! सदियों के पुरोहित चिल्ला रहे हैं कि तुम और भगवान! तुम नरक में सड़ोगे। तुम कड़ाहों में जलाए जाओगे। कीड़े—मकोड़े पड़ेंगे तुम्हारी देह में। तुम और भगवान! सदियों के पुरोहितों के खिलाफ, सदियों की उनकी गूंज के खिलाफ, मैं तुम्हें एक नई बात कह रहा हूं।
लेकिन यह नई बात, नई भी है और नई नहीं भी है। क्योंकि यही सदा बुद्धों ने कहा है। उपनिषद यही कहते हैं; वेद यही कहते हैं; बाइबिल यही कहती है। सारे शास्त्रों का सार यही है कि परमात्मा तुम्हारे भीतर उतरा है। वही तुम्हारा चैतन्य है। वही तुम्हारे भीतर छिपा बैठा है। जरा तलाशो! और तलाश का उपाय क्या है? पहाड़ मत चढ़ने लगना, तीर्थऱ्यात्राओं पर मत निकल जाना—अंतर्यात्रा पर जाना। न काशी, न काबा—अपने भीतर।
ऊंचे शिखर, कल्पना के शिखर, असाधारण धारणाएं, निश्चित ही तुम्हें बौना कर जाएंगी, लंगड़ी सामर्थ्य प्रगट हो जाएगी। मगर यह तुमने अपने ही साथ घात कर लिया, यह तुमने आत्मघात कर लिया!
एक ओर, मीरा कहती है, उनके दिखने का आनंद है, तो दूसरी ओर तड़फने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता।
स्वभावतः, ऊंचे शिखर देखकर आनंद मिल रहा है कि इतनी ऊंचाइयों पर होना हो सकता है, असाधारण होना हो सकता है, अद्वितीय होना हो सकता है। और तड़फ भी हो रही है कि हो कैसे पाएंगे, अपनी सामर्थ्य बहुत छोटी है। अपने पंख बहुत छोटे हैं, आकाश इतना बड़ा, कैसे तर पाएंगे, कैसे तैर पाएंगे? तो पीड़ा हो रही है।
मगर यह पीड़ा और यह आनंद दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह पूरा सिक्का जाने दो। न तो यह आनंद लो सपने का, न यह पीड़ा भोगो। मैं कहता हूं, अभी और यहीं तुम परमात्मा हो। जैसे हो बस ऐसे ही परमात्मा हो, इसमें रत्ती—भर कुछ करने की जरूरत नहीं है। परमात्मा होना तुम्हारा स्वभाव है। इससे अन्यथा तुम होना भी चाहो तो नहीं हो सकते हो। जब तुम्हारे भीतर भूख लगती, तो परमात्मा को ही भूख लगती है; और जब प्यास लगती है, तब परमात्मा को ही प्यास लगती है। तुम्हारी सामान्यता में रचा है, पचा है परमात्मा। इसलिए मैं कहता हूं, यहां कुछ भी सामान्य नहीं है, क्योंकि सभी सामान्य से सामान्य में परमात्मा की छाया पड़ रही है, उसका निवास है, उसकी उपस्थिति है।
मेरा संदेश बहुत सीधा—साफ है। शायद इसीलिए कठिन मालूम होता है। अगर मैं तुम्हें रास्ते बताऊं सिर के बल खड़े होने के, आसन—व्यायाम करने के, प्राणायाम करने के, उपवास करने के, तो बात कठिन न मालूम हो, क्योंकि तुम्हारी सुनी हुई बातों के अनुकूल हो। लेकिन मैं कहता हूं कि तुम परमात्मा हो ही। यह बड़ी कठिन बात मालूम हो जाती है। इतनी सीधी—सादी बात, अत्यंत कठिन हो जाती है। सरल और सुगम बात, अत्यंत कठिन मालूम होती है, क्योंकि तुम्हारे संस्कार के विपरीत पड़ती है।
मगर तुम्हारे संस्कार भ्रांत हैं। मेरे प्रेम में उन संस्कारों को मीरा पिघल जाने दो। अगर मेरा प्रेम इतना कर सके कि तुम्हारे संस्कारों को पिघला दे, तो पर्याप्त है। पुरानी धारणाओं को बह जाने दो इस बाढ़ में। आने दो मुझे एक बाढ़ की तरह, ले जाने दो तुम्हारा सारा कूड़ा—करकट! वही मैं कर रहा हूं प्रतिदिन, सुबह—सांझ। आता हूं एक बाढ़ की तरह, तुम्हारे कूड़े—करकट को बहा ले जाना चाहता हूं। तुम सिर्फ पकड़ो मत उस कूड़ा—करकट को, बस इतना ही करो। मैं तुम्हारे चित्त को साफ कर लूंगा, क्योंकि वे संस्कार असत्य हैं। उनको बहा ले जाना कठिन नहीं है। सिर्फ सत्य को नहीं बहाया जा सकता, असत्य को बहा ले जाना तो बहुत आसान है। असत्य की कोई जड़ें नहीं होतीं। असत्य तो कल्पना का जाल है।
तेरे मन में मेरी बातों के प्रति प्रेम जगा, यह शुभ है। अब इतना कर, यह बाढ़ जब तेरे भीतर कचरे को बहा ले जाने लगे—संस्कारों का कचरा...। और ध्यान रखना, उस कचरे को अब तक तूने संपत्ति समझा है। तेरे ऊंचे—ऊंचे ख्याल, ऊंचे—ऊंचे शिखर, अध्यात्म की बड़ी—बड़ी बातें, सब कचरा हैं। क्योंकि जब तक अनुभव नहीं हुआ है, तब तक सब व्यर्थ है, बकवास है। तेरा ज्ञान कूडा—कचरा है। इसलिए मन पकड़ने का होगा, जोर से पकड़ने का होगा।
मेरे साथ जो होने को राजी हुए हैं, उनको सिर्फ एक काम करना है—अपने मन की किसी धारणा को पकड़ना नहीं है; और जब बाढ़ उसे ले जाने लगे, तो नमस्कार कर लेना है कि जाओ; चुपचाप बह जाने देना है। धीरे—धीरे चित्त निर्भार हो जाएगा। धीरे—धीरे चित्त निर्मल हो जाएगा। समाज ने जो छाप छोड़ी है चित्त पर, मिट जाएगी। चित्त कोरा हो जाएगा।
उसी कोरे चित्त में परमात्मा का अनुभव होता है। ज्ञान से नहीं होता परमात्मा का अनुभव, अज्ञान से होता है। इसलिए शास्त्रों के जानने वाले चूकते रहते हैं।
मैं तुम्हारे शास्त्र छीन लेना चाहता हूं, तुम्हारा ज्ञान छीन लेना चाहता हूं। तुम्हें निर्दोष छोटे बच्चे की भांति हो जाने की जरूरत है कि फिर अवाक और आश्चर्यचकित तुम तितलियों के पीछे दौड़ सको, कि फूल बटोर सको, कि सागरत्तट पर सीपियां इकट्ठी कर सको। छोटे बच्चों की भांति हो जाना है, कि घास की पत्ती पर सरकती हुई ओस की बूंद तुम्हें फिर मोती मालूम होने लगे! कि तुम्हारा मन यह न कहे, ज्ञानी मन यह न कहे कि यह क्या है, पानी की बूंद है। कि उड़ती तितली तुम्हारे चित्त को ऐसा आकर्षित कर ले, जैसे कोहिनूर! और तुम्हारा तथाकथित ज्ञान यह न कहे, इसमें क्या रखा है, तितली है। तुम्हें इस जीवन के रंगों में परमात्मा की पिचकारी का अनुभव होने लगे! यह होली खेली जा रही है! ये इतने रंग वृक्षों के, ये फूलों के, ये तितलियों के, इंद्रधनुषों के, यह सुबह—सांझ की भिन्न—भिन्न भाव—भंगिमाएं, यह एक उत्सव चल रहा है। इस उत्सव को तुम आश्चर्यचकित, विस्मय—विमुग्ध फिर से देख पाओ, तो सब हो जाए। ज्ञान जाने दो।
यह आग मेरी यूं कजला न जाती मेरे सीने में
अगर इस आग को भी तापने वाले मिले होते
तुम्हारे जीवन में बड़ी अदभुत आग है; लेकिन कजला जाती है, काली पड़ जाती है। क्योंकि सत्संग नहीं मिलता, प्रेम नहीं मिलता, किसी सदगुरु का सान्निध्य नहीं मिलता। मैं मिल गया तुम्हारी आग को तापने वाला, कजला जाने की जरूरत नहीं है—निखरो! इस आग को उजलने दो।
क्या यही दरमाने—गम था जिसने ऐ चश्मे—करम!
और भी कुछ दर्दे—महरूमी को रुसवा कर दिया
हुस्ने—खुदबीं को अजल से थी किसी की जुस्तजू
जिंदगी ने क्यों मेरी जानिब इशारा कर दिया?
हुस्न के रुख पर तो ऐ मंसूर! पर्दा ही रहा
इश्क की मजबूरियों को तूने रुसवा कर दिया
परमात्मा खुद अपना जलवा दिखाने को उत्सुक है, अपना सौंदर्य प्रगट करने को उत्सुक है।
हुस्ने—खुदबीं को अजल से थी किसी की जुस्तजू
तुम ही नहीं खोज रहे हो परमात्मा को, परमात्मा भी प्रारंभ से तुम्हें खोज रहा है, चाहता है—आओ, उसका घूंघट उठाओ।
हुस्ने—खुदबीं को अजल से थी किसी की जुस्तजू
किसी की तलाश है उसे भी कि कोई प्रेमी मिले।
जिंदगी ने क्यों मेरी जानिब इशारा कर दिया?
और मीरा, यह सौभाग्य है कि जिंदगी ने तेरी तरफ इशारा कर दिया है। मैं यही इशारा कर रहा हूं। जो मेरे पास हैं, उनसे मैं यही इशारा कर रहा हूं कि परमात्मा तुम्हें खोज रहा है। तुम किसकी तलाश में जा रहे हो? रुक जाओ, उसे खोज लेने दो!
हुस्न के रुख पर तो ऐ मंसूर! पर्दा ही रहा
इश्क की मजबूरियों को तूने रुसवा कर दिया
जान—जानकर भी परमात्मा जाना नहीं जा सकता। पा—पाकर भी पाने को शेष रह जाता है।
हुस्न के रुख पर तो ऐ मंसूर! पर्दा ही रहा
उठाते जाओ घूंघट पर घूंघट—और—और घूंघट, और—और घूंघट! हटाते जाओ पर्दों पर पर्दे—और—और पर्दे, रहस्यों पर रहस्यों की पर्त है! परमात्मा का रहस्य अनंत है। इसलिए कभी कोई उसे चुकता नहीं कर पाएगा। लेकिन जो व्यक्ति पर्दे उठाने लगता है, उसकी जिंदगी में महोत्सव घटने लगता है। उसकी जिंदगी रोज—रोज रस से भरती जाती है।
वहशते—दिल ने हिजाबाते—जहां चाक किए
एक पर्दा रुखे—जानां से उठाया न गया
और ऐसे—ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने प्रकृति के सारे के सारे वस्त्र फाड़ डाले, प्रकृति के सारे रहस्य उघाड़ दिए।
वहशते—दिल ने हिजाबाते—जहां चाक किए
एक पर्दा रुखे—जानां से उठाया न गया
लेकिन उस प्यारे के मुंह पर जो एक पर्दा था, वह भी उठ न सका। कोई कभी उसे जान नहीं पाता। कोई उसके संबंध में ज्ञानी नहीं हो पाता। हां, उसे जी सकते हो, जान नहीं सकते। उसमें डूब सकते हो, उसे अपने में डूब जाने दे सकते हो, लेकिन जानने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि जानने के लिए द्वैत चाहिए। जानने वाला और जो जाना जाए, इनके बीच फासला चाहिए। परमात्मा और तुम्हारे बीच कोई फासला नहीं है। वही है जानने वाला, वही है जाना जाने वाला। वही एक खेल रहा है, नाच रहा है। सभी भाव—भंगिमाएं उसी की हैं। सभी मुद्राएं उसी की हैं।
गुबार उठ—उठ के सुस्त जर्रों को उनकी मंजिल दिखा रहा है
बहार आ—आ के हर हकीकत को इक तबस्सुम बना रही है
जरा देखो!
गुबार उठ—उठ के सुस्त जर्रों को उनकी मंजिल दिखा रहा है
बहार आ—आ के हर हकीकत को इक तबस्सुम बना रही है
चला न शमओं का जोर जिस पर, बनी सितारों की कब्र जिसमें
तपिश दिलों की उसी अंधेरे से एक सूरज उगा रही है
बस यह प्रेम का भाव जगे। यह तपिश, यह आग प्रज्वलित हो जाए।
चला न शमओं का जोर जिस पर, बनी सितारों की कब्र जिसमें
तपिश दिलों की उसी अंधेरे से एक सूरज उगा रही है
मीरा, यह प्रेम का ताप तेरे भीतर एक सूरज बन जाएगा।
लेकिन कुछ गलत धारणाएं छोड़ देनी पड़ेंगी। परमात्मा कोई असाधारण चीज नहीं है, साधारण से भी साधारण। परमात्मा कोई दुर्गम और कठिन दूर का शिखर नहीं है। तेरे भीतर चेतना की उपस्थिति, तेरे भीतर जो साक्षी है, वही परमात्मा है। परमात्मा को खोजने की फिक्र छोड़ो, परमात्मा को जीना शुरू करो। तुम परमात्मा हो, ऐसे जीना शुरू करो।
पहले बहुत अड़चन होगी, क्योंकि अब तक मानकर जीये कि पापी हूं। एकदम से परमात्मा मानकर कैसे जीओगे? मगर मैं कहता हूं, पापी मानकर इतने दिन जी लिए, मेरी भी सुनो; परिवर्तन के लिए ही सही, इस बात का भी रस लो, परमात्मा मानकर जीना शुरू करो। हालांकि तुम्हारी धारणाएं बाधा डालेंगी। तुम्हारी धारणाएं तुम्हारी जान लिए ले रही हैं, फांसी बनी हैं।
छोटी—छोटी बातों में अड़चन आएगी, क्योंकि वे धारणाएं कहेंगी...। अगर मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्मा मानकर जीना शुरू करो, तुम कहोगे—ठीक है। चले रास्ते पर, एक सुंदर स्त्री दिख गई; मोह पैदा हुआ। अब तुम कहोगे: मैं कैसा परमात्मा! बात गड़बड़ हो गई। मैं तो चला था परमात्मा मानकर जीने और यह क्या हो गया? तुम्हारी धारणा बीच में आ गई।
और मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा सौंदर्य पर बहुत मोहित है, इसीलिए तो सौंदर्य पैदा करता है। यह तुमसे कहा किसने कि परमात्मा सुंदर के विरोध में है? नहीं तो ये सुंदर फूल कौन रचता है? इनमें गंध कौन भरता है? कौन बैठा तूलिका से इनमें रंग भरता है? कौन बनाता है ये प्यारे इंद्रधनुष? ये सारी मृग—मरीचिकाएं कौन निर्मित करता है? कौन तारों में ज्योति भरता है? कौन चमकती हुई आंखों को निर्माण करता है? यह इतना प्रसाद, इतना लालित्य जगत में, कौन भरता है? परमात्मा सौंदर्य का प्रेमी है।
मगर तुम्हें छोटी—सी बात आ जाएगी, और अड़चन है। क्योंकि तुम्हारे पंडित—पुरोहित तुमसे कहते रहे हैं कि परमात्मा तुम कब हो, जब तुम्हारे भीतर सारे सौंदर्य का भाव मर जाए, तब तुम परमात्मा हो। जब तुम बिलकुल रूखे—सूखे ठूंठ रह जाओ; न पत्ती ऊगे, न फूल लगे—तब तुम परमात्मा हो। अभी तुममें पत्ती लगेगी, तुम कहोगे, यह क्या मामला है, यह पत्ती क्यों लग रही है?

स्वामी योग चिन्मय ने पूछा है कि आप कहते हैं सदगुरु के पास जब हीरे—जवाहरात मिल जाते हैं तो कंकड़—पत्थर छूट जाते हैं। तो फिर भी हमारी वासनाएं क्यों नहीं छूट रही हैं?

ही धारणाएं, वही पिटी—पिटाई धारणाएं, वही कचरा तुम्हारे सिर में भरा हुआ है!
मैं तुमसे कुछ छोड़ने को कह कहां रहा हूं? मैं तुमसे यह कह रहा हूं, सब उसका है ऐसे जीयो। वह सुंदर स्त्री भी वही है, और तुम्हारी आंख में उस सुंदर स्त्री के कारण जो ओज आ गया है, वह भी वही है—ऐसे जीयो। तुम यह भेद क्यों मानकर चल रहे हो? इस भेद को कब छोड़ोगे? मुझे रोज सुनते हो, चिन्मय सुनते हैं वर्षों से, मगर कहीं भीतर पुरानी धारणाएं बचाए बैठे हैं, छाती से लगाए बैठे हैं। तो नापत्तौल करते रहते हैं उन्हीं से कि अभी तक ऐसा नहीं हुआ। अभी तक वीतरागता पैदा नहीं हुई, अभी तो राग पैदा हो रहा है। मैं तुमसे कहता हूं, राग भी उसी का है। जिस दिन तुम सब उसी का है, ऐसा समर्पण कर दोगे, उसी को मैं वीतरागता कहता हूं। राग मरेगा नहीं वीतरागता में, सिर्फ अहंकार केंद्र न रह जाएगा राग का, परमात्मा राग का केंद्र हो जाएगा। सब उसका है।

स्वामी अरुण ने पूछा है कि आप कहते हैं सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें। मगर यह कैसे पता चले कि कौन—सी हमारी मर्जी है और कौन—सी उसकी मर्जी है?

खूब मजे की बात कर रहे हो! अपनी मर्जी अभी भी बचाए हुए हो! पुराने संस्कार बाधा डालते हैं। पुराने संस्कार कहते हैं कि यह तो ठीक बात है—सब उसकी मर्जी पर छोड़ दें। मगर यह कैसे पता चलेगा कि यह मर्जी हमारी है कि उसकी?
तुम हो ही नहीं, वही है; तुम्हारी मर्जी हो कैसे सकती है? तुम मेरी बात समझ नहीं पाते, क्योंकि वे सारे जाल जो तुम्हारे चित्त में बैठे हैं, उनके बीच से ही मेरी बात को गुजरना पड़ता है। वह जाल मेरी बात को विकृत कर देता है। मैं कह रहा था—उसके सिवाय और कुछ है ही नहीं; उसकी ही मर्जी है। अब तुम्हारे सामने एक नया सवाल खड़ा हो गया कि यह पक्का कैसे पता चलेगा कि यह उसकी मर्जी है कि मेरी मर्जी है? तुम हो ही नहीं, इसलिए जो भी है उसी की मर्जी है।
नए—नए सवाल उठते जाएंगे तुम्हारे भीतर, क्योंकि धारणाएं तैयार हैं, अभी गई नहीं हैं। तो सवाल उठेगा, फिर कोई बुरा काम करने का सवाल उठा, फिर मैं क्या करूंगा? जैसे कि चोरी करने का सवाल उठा, फिर मैं क्या करूंगा? जिसने सच में सब कुछ छोड़ दिया है, वह चोरी का ख्याल भी उसी पर छोड़ेगा। वह कहेगा—तेरी मर्जी, चोरी करवाना है, चोरी करवा।
इसका यह मतलब नहीं है कि चोरी में पकड़े नहीं जाओगे। क्योंकि परमात्मा ने करवाई, तो पकड़े क्यों गए? अब पकड़ाए जाना भी उसकी मर्जी है, तो पकड़े गए। इसका यह मतलब नहीं है कि मजिस्ट्रेट छोड़ देगा; कि हमने तो परमात्मा की मर्जी से किया था। मजिस्ट्रेट में भी उसी की मर्जी है।
एक सदगुरु के पास एक शिष्य वर्षों रहा, रहा होगा योग चिन्मय जैसा शिष्य! वह सुनता था कि सबमें परमात्मा है, कण—कण में उसी का वास है। एक दिन राह पर भीख मांगने गया था, एक पागल हाथी भागा उस गरीब शिष्य की तरफ। मगर उसने सोचा कि गुरु कहते हैं, आज प्रयोग ही करके देख लें कि सबमें उसी का वास है। कण—कण में है, तो इतने बड़े हाथी में तो होगा ही, निश्चित होगा, बड़ी मात्रा में होगा। गणित ऐसा ही चलता है, कि जब कण—कण में है तो इस हाथी में तो सोचो कितना नहीं होगा। एकदम लबालब भरा है! खड़ा ही रहा! डर तो लगा बहुत। भीतर से कई बार भाव भी उठा कि भाग जाऊं। उसने कहा लेकिन आज अपनी नहीं सुनना है। भीतर बहुत बार चित्त हुआ कि भाग जाऊं, यह मार डालेगा। यह चला आ रहा है बिलकुल पागल; पता नहीं रुकेगा कि नहीं रुकेगा! मगर उसने कहा, अब आज प्रयोग ही करके देख लें, जब वही है। महावत भी चिल्ला रहा है हाथी का कि भाई, रास्ता हट। भाग जा, पागल है हाथी। बच जा कहीं भी। दुकान में प्रवेश कर जा। आसपास के किसी भी मकान में छिप जा। मगर उसने कहा कि चिल्लाते रहो! महावत की कौन सुने, जब वही सब में है।
जो होना था वह हुआ, हाथी ने उसे बांधा अपनी सूंड़ में और फेंका। कोई तीस गज दूर जाकर गिरा। हड्डी—पसली चकनाचूर हो गई। बड़ा दुखी हुआ कि यह क्या मामला है? कण—कण में उसी का वास, इतने बड़े हाथी में नहीं! लंगड़ाता, टूटा—फूटा वापिस गुरु के पास पहुंचा, बोला कि सब वेदांत व्यर्थ, सब बकवास है! कण—कण में क्या, हाथी में भी उसका वास नहीं है।
गुरु ने पूछा: लेकिन महावत ने कुछ कहा था?
कहा: हां चिल्ला रहा था कि पागल है।
और तेरे हृदय में कुछ हुआ था?
कहा: हां, हृदय भी चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। मगर मैंने कहा, एक बार तो प्रयोग करके देख लें! उसकी मर्जी।
उस गुरु ने कहा: महावत में भी उसी की मर्जी थी, और तेरे भीतर भी वही चिल्ला रहा था। अगर तूने उसकी ही मर्जी सुनी होती, तो तू भाग गया होता। तूने उसकी नहीं सुनी। और हाथी तुझसे कह नहीं रहा था कि रास्ते पर खड़ा रह। महावत कह रहा था, भाग जा। तेरा हृदय कह रहा था, भाग जा। और हाथी कुछ कह नहीं रहा था। हाथी की तूने सुनी, जो कुछ कह ही नहीं रहा था। हाथी कह नहीं रहा था कि भाई, खड़े रहो, कहां जा रहे हो? जरा मुलाकात करनी है। कहां जाते हो, हाथ तो मिला लो, जय राम जी तो हो जाने दो। हाथी तो कुछ बोल ही नहीं रहा था। जो नहीं बोल रहा था उसकी तूने सुनी! और तेरा हृदय जोर—जोर से चिल्ला रहा था।
उसने कहा: हां, बहुत जोर—जोर से चिल्ला रहा था कि हट जाओ, भाग जाओ। जान ले लेगा यह। कहां के वेदांत में पड़े हो! फिर कभी प्रयोग कर लेना, आज ही क्या जिद्द ठानी है! और महावत भी चिल्ला रहा था। आसपास के लोग भी चिल्ला रहे थे सड़क के कि भाई, बीच में क्यों खड़ा है रास्ते के, भाग जा।
गुरु ने कहा: सारा संसार चिल्ला रहा था...!
मजिस्टे्रट सजा देगा। लेकिन तब जिसने सब उस पर छोड़ दिया है, वह सजा भी स्वीकार करेगा—उसी की सजा है। उसी ने चोरी करवाई। उसी ने चोरी की। उसी का धन था, जिसकी चोरी की गई। वही मजिस्ट्रेट में है। जिसने सब उस पर छोड़ा, उसका अर्थ यह होता है कि अब मेरी मर्जी जैसी कोई चीज ही नहीं है। अब जो होगा, जैसा होगा। यह बड़ी गहन अवस्था की बात है।
तुम हिसाब लगाते हो कि इसमें मेरी मर्जी कहां है, उसकी मर्जी कहां है? जैसे कि दो मर्जी हो सकती हैं। लहर की कोई मर्जी होती है? मर्जी तो सब सागर की होती है। क्षण—भर को लहर उठती है, नाचती है, गीत गा लेती है, शोरगुल मचा लेती है, फिर खो जाती है। मगर जब लहर नाचती है उत्तुंग, हवाओं से बात करती है, बादलों को छूने की आकांक्षा रखती है, तब भी सागर की ही मर्जी है।
ऐसा जान लेने वाला निर्विचार हो जाता है। तो फिर यह सवाल नहीं उठता कि ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? वैसा क्यों नहीं हो रहा है? फिर जैसा हो रहा है, यही उसकी मर्जी है। अगर उसके मन में यही है कि मेरे हाथ में कंकड़—पत्थर ही रहें, हीरे—जवाहरात नहीं, तो कंकड़—पत्थर ही ठीक। तो कंकड़—पत्थर हीरे—जवाहरात हैं, क्योंकि उसकी मर्जी है। उसकी मर्जी से ज्यादा मूल्यवान थोड़े ही हीरे—जवाहरात होते हैं। उसकी मर्जी से हो, तो मौत भी जीवन है। उसकी मर्जी से हो, तो जहर भी अमृत है।
तुम्हारा कूड़ा—करकट जाने दो, आने दो मेरी बाढ़। और तुम्हारे भीतर जल्दी ही, जैसे ही समाज के द्वारा दिए गए संस्कार बह जाएंगे, ज्योति जलेगी।
सखि, वन—वन घन गरजे!
श्रवण निनाद—मगन मन उन्मन प्राण—पवन—कण लरजे!
परम अगम प्रियतमा गगन की शंख—ध्वनि आई
मंथर गति रति चरण चारु की चाप गगन में छाई
अम्बर कंपित पवन संचरित संसृति अति सरसाई
मंद्र—मंद्र आगमन सूचना हिय में आन समाई
क्षण में प्राण हुए उन्मादी, कौन इन्हें अब बरजे?
सखि, वन—वन घन गरजे!
मेरा गगन और मम आंगन आज सिहरकर कांपा
मेरी यह आह्लाद बिथा सखि, बना असीम अमापा
आवेंगे वे चरण जिन्होंने इस त्रिलोक को नापा
सखि, मैंने ऐसा आमंत्रण—श्रुति स्वर कब आलापा?
लगता है मानो ये बादल कुछ यूं ही हैं तरजे!
सखि, वन—वन घन गरजे!
श्रवण निनाद—मगन मन उन्मन प्राण—पवन—कण लरजे!
सखि, वन—वन घन गरजे!
एक बार जाने दो व्यर्थ के कूड़ा—करकट को। और होगी वर्षा बहुत। उसके आनंद के घन घिरेंगे। आएगा आषाढ़ जीवन का। नाचेंगे मोर। जीवन ऊर्जा होगी हरी।
मंद्र—मंद्र आगमन सूचना हिय में आन समाई
क्षण में प्राण हुए उन्मादी, कौन इन्हें अब बरजे?
होगा खूब उन्मत्त रूप! छाएगी खूब मादकता! बहेगा रस अपार! लेकिन एक बार चित्त के सारे जाल—जंजाल को जाने दो। न कुछ छोटा है, न कुछ बड़ा है; न कुछ भला है, न कुछ बुरा है। एक ही है।
इसलिए मैं कहता हूं, नीति बड़ी छोटी बात है, धर्म बड़ी और—भिन्न, बड़ी भिन्न। धार्मिक व्यक्ति नीति—अनीति के पार होता है। धार्मिक व्यक्ति द्वंद्व के पार होता है।


दूसरा प्रश्न:

विरह—अवस्था में भक्त दुखी होता है या सुखी?

विरह की अवस्था बड़ी विरोधाभासी अवस्था है, क्योंकि भक्त दुखी भी होता है और सुखी भी; और दोनों साथ—साथ होता है। विरह की अवस्था में सुखी होता है, क्योंकि उसकी याद आने लगी। प्राणों में उसकी पीड़ा समाने लगी। सुखी होता है, क्योंकि उसकी पुकार, उसकी टेर सुनाई पड़ने लगी। सुखी होता है, क्योंकि चरण उस मंजिल की तरफ पड़ने लगे। और दुखी होता है कि मिलन कब होगा? होगा कि नहीं होगा? सुखी होता है कि सुबह का आभास मिलने लगा। और दुखी होता है कि रात अभी बड़ी अंधेरी है। न मालूम कितने कदम उठाने होंगे। न मालूम कितनी और प्रतीक्षा करनी होगी। और मैं तो हूं अपात्र; पा भी सकूंगा? मेरी योग्यता क्या है? मेरी योग्यता तो ना—कुछ है। मेरा प्रयास क्या है? मेरा प्रयास तो ना—कुछ है। उसका प्रसाद मुझ पर बरसेगा कि नहीं बरसेगा?
विरह की अवस्था बड़ी अदभुत अवस्था है। भक्त रोता भी है और हंसता भी। इसलिए भक्त अक्सर पागल मालूम होता है। हंसता है, क्योंकि उसकी टेर सुनाई पड़ने लगी, उसकी बांसुरी की टेर कान में आने लगी। यमुनात्तट पर वह आ गया। वंशीवट में उसकी धुन सुनाई पड़ने लगी है। तड़प उठने लगी है जाने की। भाव जगने लगे। पैर नृत्य को आतुर हो रहे हैं। लेकिन हजार बाधाएं खड़ी हैं। अपने ही चित्त की, अपने ही विचार की, अपनी ही कल्पनाओं, कामनाओं की हजार बाधाएं खड़ी हैं, हजार पहाड़ हैं। पहुंच पाऊंगा या नहीं? यह यात्रा पूरी हो पाएगी? इससे छाती बैठी जाती है।
तुम पास नहीं, कोई पास नहीं
अब मुझे जिंदगी की आस नहीं
छाती बैठी जाती है।
लाज छुटी, गेहौ छुटयो, सबसे छुटयो सनेह
साखी कहियौ वा निठुर सों रही छुटिबें देह।
बस सब छूट गया है, अब देह के छूटने की ही बात रह गई है।
साखी कहियौ वा निठुर सों रही छुटिबें देह।
तड़पता है, बेचैन होता है भक्त।
दुनिया ये दुखी है फिर भी मगर, थककर ही सही, सो जाती है
तेरी ही मुकद्दर में ऐ दिल, क्यों चैन नहीं आराम नहीं
विरह में तड़पता भक्त; न सो पाता, न ठीक से बैठ पाता, न ठीक से खा पाता। उजड़ गया, यह दुनिया तो उसकी उजड़ गई। यहां से समायोजन टूट गया। यहां अब उसका छंद नहीं बैठता। उसका छंद परमात्मा से बैठने लगा। और परमात्मा पता नहीं कहां है? है भी या नहीं, कौन जाने?
यूं दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आखिर
या दर्द ने करवट ली है या तुमने इधर देखा
क्या जानिए क्या गुजरी, हंगामे—जुनूं लेकिन
कुछ होश जो आया तो उजड़ा हुआ घर देखा
एक तरफ उसकी नजर!
यूं दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आखिर
या दर्द ने करवट ली है या तुमने इधर देखा
जरूर तुमने देखा होगा, नहीं तो दिल ऐसा न तड़प उठता। जरूर तुम पास से गुजर गए होओगे। तुम्हारी भीनी महक श्वासों में भर गई है। तुम कहीं पास ही हो। तुम्हारे पैरों की ध्वनि, पगध्वनि सुनाई पड़ती है।
क्या जानिए क्या गुजरी, हंगामे—जुनूं लेकिन
लेकिन बड़ी पागलपन की अवस्था हो जाती है। उन्माद के समय में क्या गुजरती है हालत। इधर तुमने देखा, बड़े सुख की खबर आ गई। तुम्हारी प्रेम—पाती आ पहुंची।
कुछ होश जो आया तो उजड़ा हुआ घर देखा
और फिर जब लौटकर देखा जिंदगी को, जिसको अब तक बसाया था, तो पाया कि वहां सब उजड़ गया है। क्योंकि वहां तो सपने ही सपने थे। जब सुबह जागोगे, तो सपने तो टूटेंगे। जागरण के साथ ही सपने टूटेंगे। और हो सकता है उन सपनों में खूब—खूब श्रम उठाया हो। वे सपने के भवन न मालूम कितने जन्मों में खड़े किए हों। न मालूम कितनी चेष्टा, न मालूम कितना प्रयास, न मालूम कितना जीवन, कितनी आकांक्षाएं, अभीप्साएं उन सपनों में दबी पड़ी हैं। और वे सब सपने गए! जागने की एक किरण आई, और सपने टूटे। एक तरफ रोना। लेकिन रोना भी प्रीतिकर लगता है, क्योंकि रोना भी उसके मार्ग में है। और हर आंसू उसकी सीढ़ी बनता है।
दिल को क्योंकर न दावते गम दूं
लुत्फ आता है गम उठाने में
और मजा भी आता है। रोने में और मजा आता है! रुदन पहली बार आनंद के विपरीत नहीं मालूम पड़ता। यह रहस्य की घटना है, जो विरह की अवस्था में घटती है। पहली दफे आंसू और मुस्कुराहटों में एक तालमेल मालूम होता है। आंसू भी मुस्कुराते मालूम पड़ते हैं। आंसू भी नाचते मालूम पड़ते हैं! साधारणतः तो हमने आंसू दुख के ही जाने हैं, भक्त आनंद के आंसुओं से परिचित होता है। पीड़ा भी सालती है; लेकिन पीड़ा में एक माधुर्य भी होता है, एक मिठास भी। मीठी पीड़ा कहें—मधुसिक्त, उन्मत्त करने वाली! कलेजे में चुभता है तीर भी विरह का और रसधार भी बहती है! यह साथ—साथ होता है।
मुझको वो लज्जत मिली, एहसास मुश्किल हो गया
रहते—रहते दिल में तेरा दर्द भी दिल हो गया
इब्तिदा वो थी कि था जीना मोहब्बत में मुहाल
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया
बड़ी दुविधा है, पर बड़ी प्रीतिकर दुविधा!
मुझको वो लज्जत मिली...
वह आनंद मिला!
...एहसास मुश्किल हो गया
इतना आनंद मिला कि आनंद का अनुभव करना भी मुश्किल हो गया। एक सीमा होती है, जब आनंद सीमा के पार बरसता है, तो अनुभव करना मुश्किल हो जाता है। हमारी सामर्थ्य, हमारा हृदय का पात्र छोटा है, जब सागर इसमें उतरता है, तो समाना मुश्किल हो जाता है।
मुझको वो लज्जत मिली, एहसास मुश्किल हो गया
रहते—रहते दिल में तेरा दर्द भी दिल हो गया
और फिर पीड़ा बसते—बसते इतनी प्यारी हो जाती है कि वही हमारा हृदय बन जाती है, वही हमारी आत्मा बन जाती है। फिर तो उस पीड़ा को विदा देने में भी कष्ट होता है।
इब्तिदा वो थी कि था जीना मोहब्बत में मुहाल
वह थी शुरुआत प्रेम की कि जीना मुश्किल था।
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया
और अब आखिरी घड़ी ऐसी है कि न जीना संभव है, न मरना संभव है। कुछ भी संभव नहीं है। सब असंभव हो गया। ऐसी घड़ी में भक्त अवाक हो जाता है। सन्नाटा छा जाता है। शून्य उतर आता है। कुछ करने को नहीं सूझता। कुछ किया नहीं जा सकता। कर्म सारे व्यर्थ हो जाते हैं। कृत्य असंभव हो जाता है। और जहां कृत्य असंभव होता है, वहीं कर्ता समाप्त हो जाता है। जहां कर्ता गया, वहीं अहंकार गया। विनम्रता भी गई, अहंकार भी गया। पूरा सिक्का गिर गया!
क्यों कलेजे की तड़प धीमी पड़ी
फिर तो दुख को छोड़ने में भी कठिनाई होती है, क्योंकि दुख भी प्यारा हो जाता है। उसके मार्ग पर मिला दुख भी प्यारा हो जाता है। संसार के मार्ग पर मिले सुखों का भी कोई मूल्य नहीं है।
क्यों कलेजे की तड़प धीमी पड़ी
आज दिल सुनसान—सा क्यों हो गया
आंख के अव्यक्त भावों की लड़ी
तोड़ दी किसने, कहां धन खो गया?
इस विषमता की सरलता सूखकर
किस सरोवर में तिरोहित हो गई
इस विपिन की वह कुहुकनी कूककर
किस निनादित वेणु—वन में सो गई?
सिसकने में ही मजा मिलता रहा
कसक की उस वेदनामय आह से
हम विपन्नों का कमल खिलता रहा
दर्द को दिल से लगाया चाह से!
हाय, पर वह दर्द मेरा क्या हुआ
किस निठुर ने हाय पट्टी बांध दी
लोल लोचन—बिंदु तुम अब हो कहां
सूखता है यह विटप लो, देख लो!
क्यों कलेजे की तड़प धीमी पड़ी
आज दिल सुनसान—सा क्यों हो गया
आंख के अव्यक्त भावों की लड़ी
तोड़ दी किसने, कहां धन खो गया?
फिर तो इस परमात्मा के मार्ग पर मिली पीड़ा में भी एक ऐसा रस हो जाता है कि इसे भी छोड़ते नहीं बनता। न जीते बनता है, न मरते बनता है। लेकिन पीड़ा भी बड़ी प्रीतिकर।
मेरे जवाब में झुकीं नजरें सवाल पर
क्या—क्या न कह गई हैं निगाहे—हिजाब में।
मिजराब ही से साज में है सारी नगमगी,
है जिंदगी का लुत्फ निहां इजतिराब में।।
ख्याल करना, मिजराब ही से—मिजराब ही से साज में है सारी नगमगी—सितार को बजाते हैं न, जिस अंगूठी से सितार को छेड़ते हैं, तारों पर चोट पड़ती है; लेकिन उसी चोट पड़ने से तो नगमे पैदा होते हैं। उसी चोट से, उसी कचोट से तो सितार गीत गाने लगता है, सितार गुनगुनाता है।
मिजराब ही से साज में है सारी नगमगी,
सारा लय, सौंदर्य उसी चोट से है, उसी आघात से है—सितार बजाने की अंगूठी की चोट।
मिजराब ही से साज में है सारी नगमगी,
है जिंदगी का लुत्फ निहां इजतिराब में।।
और जिंदगी का सारा मजा, उसके लिए बेचैन होने में है। धन्यभागी हैं वे, जो उसके लिए बेचैन हैं। अभागे हैं वे, जिनके भीतर कोई बेचैनी नहीं उसके लिए। जिनके भीतर परमात्मा की प्यास ही नहीं उठी, पुकार ही नहीं उठी—अंधे हैं, बहरे हैं! उन्हें कुछ भी पता नहीं कि जीवन कितना बड़ा दान देने को तत्पर है। मगर उन्होंने अपनी झोली भी नहीं फैलाई है। उन्होंने अपने हाथ भी इबादत में नहीं उठाए हैं।
राहे—वफा में तेरे कदम डगमगाएं क्यूं,
देखा है मैंने तेरा करम भी इताब में।
डरने की तो कोई जरूरत ही नहीं है। परमात्मा की तरफ से मिला हुआ दुख भी इतना सुख है। उसकी अगर क्रोध की नजर भी पड़ जाए, तो ऐसे आनंद की वर्षा हो जाती है कि उसकी कृपा—दृष्टि का तो कहना ही क्या!
राहे—वफा में तेरे कदम डगमगाएं क्यूं,
देखा है मैंने तेरा करम भी इताब में।
उसके क्रोध में भी उसकी कृपा ही बरसती है। अगर उसकी क्रोध से भरी हुई आंख भी किसी ने देख ली, तो धन्यभागी है, क्योंकि वहीं से प्रसाद का संबंध जुड़ जाता है।
सदके निगाहे नाज के हूं बेनियाजे जाम,
यह आए कैफे हुस्न कहां से शराब में।
भक्त को जैसी शराब पीने मिलती है, जैसे आनंद की मदिरा, वैसी तुम्हारी तथाकथित शराबखानों में बिकती हुई शराब में लुत्फ नहीं हो सकता।
सदके निगाहे नाज के हूं बेनियाजे जाम,
यह आए कैफे हुस्न...
यह सौंदर्य आए कहां से तुम्हारी शराब में?
यह आए कैफे हुस्न कहां से शराब में।
जिन्होंने उसको पीया है, वे ही संसार की शराबों से बच सकते हैं। जिन्होंने उसको नहीं पीया, वे किसी न किसी तरह की संसार की शराब में उलझे ही रहेंगे। उलझे ही रहना होगा। हो सकता है कोई जाकर शराबखानों में पीते हों शराब। और हो सकता है कोई राजनीति की और पदों की और प्रतिष्ठा की शराब पीते हों—इसलिए तो पद—मद कहा है। या कोई धन की शराब पीते हों—धन—मद कहा है। लेकिन ये सब शराबें हैं, जो आदमी को भुलाए रखती हैं, उलझाए रखती हैं। सिर्फ एक उसकी शराब है, जो बेहोश करती है और साथ ही होश भी देती है। उसकी शराब बड़ी विरोधाभासी है। दुख भी देती है और सुख भी, आंसू भी ले आती है और मुस्कुराहटें भी। अवाक भी कर देती है और नृत्य का जन्म भी उसी से होता है।
पर विरह की इस अवस्था को तुम जानोगे तो ही जानोगे। मेरे वर्णन करने से कुछ भी न होगा। यह बात वर्णन की है भी नहीं, व्याख्या की है भी नहीं, विचार—विमर्श की है भी नहीं। क्यों न अनुभव करो! थोड़े डगमगाओ। थोड़ा पुकारो। थोड़े नाचो। थोड़ा पीयो उसकी शराब। थोड़ा हंसो। थोड़े रोओ। चलो दो कदम, और तुम्हारी जिंदगी सदा के लिए दूसरी हो जाएगी। फिर तुम वही न हो सकोगे, जो तुम अब तक रहे हो। पहली बार तुम्हारा ठीक—ठीक जन्म होगा। अभी तो जन्म हुआ कहां, अभी तो गर्भ में हो। अभी तो पैदा भी नहीं हुए। पैदा ही कोई तभी होता है, जब परमात्मा की पहली झलक मिलनी शुरू हो जाती है। खोलो झरोखा, और झरोखा तुम्हारे हृदय में है।


तीसरा प्रश्न:

भक्त की चाह क्या है—पुण्य, या ज्ञान, या स्वर्ग?

तो पुण्य, न ज्ञान, न स्वर्ग—भक्त की चाह भगवान है। भगवान से कम कुछ भी नहीं! और इतना ही नहीं कि भक्त भगवान को देख ले। नहीं, भक्त की आत्यंतिक चाह तो यह है—भगवान में लीन हो जाए; भगवानमय हो जाए। जरा—सा भी फासला भक्त नहीं चाहता, रत्ती—मात्र का फासला नहीं भक्त चाहता। जैसे सरिता सागर में उतर जाती है और एक हो जाती है, ऐसा परमात्मा में उतरकर एक हो जाना चाहता है। उसकी और कोई चाह नहीं है।
साकी, मन—घन—गन घिर आए उमड़ी श्याम मेघ माला
अब कैसा विलंब, तू भी भर—भर ला गहरी गुल्लाला।
भक्त तो चाहता है परमात्मा की शराब पीए, और ऐसा गिरे बेहोश होकर कि फिर कभी न उठे।
साकी, मन—घन—गन घिर आए उमड़ी श्याम मेघ माला
अब कैसा विलंब, तू भी भर—भर ला गहरी गुल्लाला।
तन के रोम—रोम पुलकित हों, लोचन दोनों अरुण चकित हों
नस—नस नव झंकार कर उठे, हृदय विकंपित हो हुलसित हो
कब से तड़प रहे हैं, खाली पड़ा हमारा यह प्याला!
अब कैसा विलंब, साकी भर—भर ला तू अपनी हाला!
और—और मत पूछ, दिए जा, मुंह मांगे वरदान लिए जा
तू बस इतना ही कह साकी, "और पीए जा, और पीए जा!'
हम अलमस्त देखने आए हैं तेरी यह मधुशाला
अब कैसा विलंब, साकी भर—भर ला तन्मयता हाला!
बड़े विकट हम पीने वाले, तेरे गृह आए मतवाले
इसमें क्या संकोच, लाज क्या, भर—भर ला प्याले पर प्याले
हम—से बेढब प्यासों से पड़ गया आज तेरा पाला
अब कैसा विलंब, साकी भर—भर ला तू अपनी हाला।
हो जाने दे गर्क नशे में, मत आने दे फर्क नशे में
ज्ञान ध्यान पूजा पोथी के फट जाने दे वर्क नशे में
ऐसी पिला कि विश्व हो उठे एक बार तो मतवाला
साकी अब कैसा विलंब, भर—भर ला तन्मयता हाला!
तू फैला दे मादक परिमल, जग में उठे मदिर रस छल—छल
अतल—वितल, चल—अचल जग में मदिरा झलक उठे झल—झल
कल—कल छल—छल करती हिय तल से उमड़े मदिरा बाला!
अब कैसा विलंब, साकी भर—भर ला तू अपनी हाला!
कूजे दो कूजे में बुझने वाली मेरी प्यास नहीं
बार—बार "ला, ला' कहने का समय नहीं, अभ्यास नहीं
अरे बहा दे अविरत धारा, बूंद—बूंद का कौन सहारा
मन भर जाए, जिया उतरावे, डूबे जग सारा का सारा
ऐसी गहरी ऐसी लहराती ढलवा दे गुल्लाला,
साकी अब कैसा विलंब, ढरका दे तन्मयता हाला!
भक्त छोटी—मोटी बातें नहीं मांगता—पुण्य, ज्ञान, स्वर्ग।
कूजे दो कूजे में बुझने वाली मेरी प्यास नहीं
बार—बार "ला, ला' कहने का समय नहीं, अभ्यास नहीं
अरे बहा दे अविरत धारा, बूंद—बूंद का कौन सहारा
मन भर जाए, जिया उतरावे, डूबे जग सारा का सारा
ऐसी गहरी ऐसी लहराती ढलवा दे गुल्लाला,
साकी अब कैसा विलंब, ढरका दे तन्मयता हाला!
भक्त की मांग भगवान के लिए है। वह पूरा डूब जाना चाहता है। रत्ती—भर बचना नहीं चाहता।
जो पुण्य मांगते हैं, वे तो अहंकार ही मांग रहे हैं—हमारे अहंकार को पुण्य के आभूषण दो। जो ज्ञान मांगते हैं, वे भी अहंकार ही मांग रहे हैं—हमारे अहंकार को ज्ञान के आभूषण दो। हम ज्ञानी हों, हम पुण्यात्मा हों, मगर हम हों। अज्ञान काटता है। अज्ञान से अहंकार को चोट लगती है—ज्ञान दो। पाप से भी अहंकार को चोट लगती है—पुण्य दो। साधु बनाओ हमें, संत बनाओ हमें, पाप से छुड़ाओ हमें। प्रतिष्ठा दो पुण्य की, प्रतिष्ठा दो साधुता की। या जो मांगते हैं स्वर्ग, वे क्या मांगते हैं? वे मांगते हैं फिर यही संसार, परलोक में। उनकी आकांक्षाएं वस्तुतः धर्म की आकांक्षाएं नहीं हैं।
भक्त की मांग तो सिर्फ एक है—तू मिले। और मिलन भी ऐसा हो कि मैं न रहे, मैंत्तू न रहे। मैंत्तू के बीच फासला न रहे। ऐसी पिला दे कि मैं मिट जाए, ऐसी पिला दे कि जरा—सा भी भेद न बचे। भक्त भगवान हो जाए, भगवान भक्त हो जाए—ऐसी आकांक्षा है। और ऐसा हो जाता है। मांगो, मिलेगा। खटखटाओ, द्वार खुल जाएंगे।
मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।
हहर उठा विजन पवन,
सुन अश्रुत आमंत्रण;
डोला वह यों उन्मन,
ज्यों अधीर स्नेही मन;
पावस के गीत जगे, गीत की कड़ी जगी।
तड़त्तड़त्तड़ तड़ित चमक—
दिशि—दिशि भर रही दमक;
घन—गर्जन गूंज गमक—
जल—धारा झूम—झमक,
भर रही विषाद हिये चकित कल्पना—खगी।
ध्यान—मग्न नीलांबर
ओढ़े बादर—चादर;
अर्घ्य दे रहा सादर—
जल—सागर पर गागर,
भक्ति नीर, सिक्त भूमि स्नेह सर्जना पगी।
अम्बर से भूतल तक,
तुमको खोजा अपलक;
क्यों न मिले अब तक?
ओ मेरे अलख—झलक!
बुद्धि मलिन, प्राण चकित, व्यंजना ठगी—ठगी;
मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।
लग जाती झड़ी, लग जाती घड़ी, आ जाता समय। पुकारो, मिलेगा। मांगो, मिलेगा। खटखटाओ द्वार, वह प्रतीक्षा ही कर रहा है। और द्वार तुम्हारे हृदय में है, और द्वार तुम्हारे प्रेम का है, और द्वार तुम्हारी प्रार्थना का है।
मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।
देर नहीं, वर्षा हो सकती है। किसी भी क्षण हो सकती है। कल पर मत टालो, अभी होने दो, यहीं होने दो।
मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।
हहर उठा विजन पवन,
सुन अश्रुत आमंत्रण;
डोला वह यों उन्मन,
ज्यों अधीर स्नेही मन;
पावस के गीत जगे, गीत की कड़ी जगी।
जगने दो, उमगने दो। आने दो कोंपल तुम्हारे प्रेम के बीज में। खिलने दो फूल हृदय का!
भक्त कुछ और मांगता नहीं। जो कुछ और मांगते हैं, भगवान से चूकते चले जाते हैं। भक्त कुछ और मांगता नहीं। भक्त सिर्फ भगवान को मांगता है। और जो सिर्फ भगवान को मांगता है, वही भगवान को पाने में समर्थ हो पाता है। जल्दी ही ऐसा समय आ जाता है, जब भरोसा भी नहीं आता कि जो हो रहा है यह वस्तुतः हो रहा है! जो हो रहा है, यह हो सकता है!
वक्त आता है इक ऐसा भी मोहब्बत में कि जब
दिल पे एहसासे—मोहब्बत भी गरां होता है
कहीं ऐसा तो नहीं वो भी हो कोई आजार
तुझ को जिस चीज पे राहत का गुमां होता है
लगता है कि जो आनंद घट रहा है, सपना तो नहीं। कहीं मैं फिर धोखा तो नहीं खा रहा हूं! यह भी कोई मन का ही खेल तो नहीं!
वक्त आता है इक ऐसा भी मोहब्बत में कि जब
दिल पे एहसासे—मोहब्बत भी गरां होता है
इतना गहन प्रेम का क्षण आ जाता है कि प्रेम को भी हृदय पर रखने में भार मालूम पड़ता है। प्रेम का भी बोझ मालूम पड़ता है। अब तो प्रेमी से बिलकुल एक हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं बचता।
कहीं ऐसा तो नहीं वो भी हो कोई आजार
तुझ को जिस चीज पे राहत का गुमां होता है
और सवाल उठता है कि कहीं यह भी तो मन का कोई खेल नहीं। मुझ अपात्र को इतना अमृत मिल सकता है! मैंने कुछ कमाए नहीं पुण्य। मैंने कुछ साधना नहीं की; योग, जपत्तप नहीं किया। यह घड़ी सिर्फ भक्त को आती है—विस्मय की घड़ी! क्योंकि भक्त कुछ और किया ही नहीं, सिर्फ मांगा है, सिर्फ पुकारा है, सिर्फ रोया है। मगर प्रेम से बड़ी कोई और चीज है भी नहीं जगत में। सब उपवास फीके हैं, प्रेम का एक आंसू काफी है।
जिसमें आबाद थी दुनियाए—मोहब्बत
हाय उस अश्क का आंखों से जुदा होना
एक छोटा—सा आंसू!
जिसमें आबाद थी दुनियाए—मोहब्बत
एक छोटे—से आंसू में प्रेम का पूरा संसार बसा होता है।
हाय उस अश्क का आंखों से जुदा होना
उस आंसू का आंख से गिर जाना बड़ी पीड़ा दे जाता है, क्योंकि उसी आंसू में तो सारे प्रेम का संसार बसा था। भक्त जानता है आंसू का मूल्य—केवल भक्त ही जानता है! प्रेमियों को थोड़ी—थोड़ी खबर मिलती है, भक्त को पूरा—पूरा अनुभव होता है। नहीं, भक्त को कोई प्रयोजन नहीं है पुण्य से, न ज्ञान से, न स्वर्ग से। भक्त मांगता है: मुझे रुदन दो। मुझे विरह दो। मैं रोऊं तुम्हारे लिए। मैं तड़पूं, मुझे तड़पन दो। मुझे प्यास दो। जलाओ मेरी प्यास को। मुझे उत्तप्त करो।
गुलशन परस्त क्यों हूं, मेरी बात तो सुनो,
जलवा किसी का आके छुपा है गुलाब में।
कुल कायनात आई दिले अक्सयाब में,
जर्रे में क्या नहीं है जो है आफताब में।
दुनियाए—एतकादोऱ्यकीं में थी रौशनी,
तारीकियां मिली हैं सवालो—जवाब में।
कुछ और ही मुकाम मेरी बंदगी का है,
क्यों खींचते हो मुझको गुनाहो—सबाब में।
गुलशन परस्त क्यों हूं...
भक्त परमात्मा के प्रेम में पड़ते—पड़ते सारे अस्तित्व के प्रेम में पड़ जाता है।
गुलशन परस्त क्यों हूं, मेरी बात तो सुनो,
जलवा किसी का आके छुपा है गुलाब में।
छोटे—से गुलाब के फूल में भी उस एक परमात्मा की विराट ऊर्जा, सौंदर्य, गरिमा का अनुभव होने लगता है। वह क्यों स्वर्ग मांगे, उसे तो फूल—फूल स्वर्ग हो जाता है! उसे तो पत्ते—पत्ते पर बैकुंठ हो जाता है! उसे तो बूंद—बूंद में उसी के अमृत की छवि झलकने लगती है।
कुल कायनात आई दिले अक्सयाब में,
सारी सृष्टि उसके हृदय में झलकने लगती है।
जर्रे में क्या नहीं है जो है आफताब में।
वह तो एक छोटे से कण में भी देखने लगता है वही, जो बड़े से बड़े सूरज में है।
जर्रे में क्या नहीं है जो है आफताब में।
दुनियाए—एतकादोऱ्यकीं में थी रौशनी,
श्रद्धा और विश्वास में उसे रोशनी मिलती है।
तारीकियां मिली हैं सवालो—जवाब में।
ज्ञान वह क्यों मांगे? तर्क क्यों मांगे? पांडित्य क्यों मांगे?
तारीकियां मिली हैं सवालो—जवाब में।
जितना ही सोचा—विचारा, जितना ही दर्शनशास्त्र में गया, उतने ही अंधेरे मिले। रोशनी तो मिली है श्रद्धा में।
दुनियाए—एतकादोऱ्यकीं में थी रौशनी,
तारीकियां मिली हैं सवालो—जवाब में।
इसलिए अब ज्ञान नहीं मांगना। ज्ञान अंधकार है।
भक्त तो मांगता है—निर्दोष भाव, छोटे बच्चे जैसा भाव, प्रेम की निर्मलता। ज्ञान चालाक है। ज्ञान सिर्फ अंधेरे बढ़ाता है। इसलिए देखते हो, यह दुनिया बहुत ज्ञानी हो गई है आज। इतनी ज्ञानी बुद्ध के समय में न थी। इतनी ज्ञानी निश्चित ही कृष्ण के समय में न थी। जैसे—जैसे पीछे जाओ, लोग सरल थे, निर्दोष थे। आज दुनिया ज्ञानी हो गई है। सार्वभौम शिक्षा का प्रसार है। सभी के पास पदवियां हैं। सभी विश्वविद्यालय जा रहे हैं। बड़ी ज्ञानी हो गई है दुनिया!
और साथ ही देखते हो, कितनी चालाक, कितनी बेईमान हो गई है! कितना अंधेरा हो गया है! श्रद्धा में दीया है। श्रद्धा में रोशनी है, तर्क में अंधेरा है।
दुनियाए—एतकादोऱ्यकीं में थी रौशनी,
तारीकियां मिली हैं सवालो—जवाब में।
कुछ और ही मुकाम मेरी बंदगी का है,
मेरी प्रार्थनाओं का मुकाम कुछ और है, मेरी प्रार्थनाओं की मंजिल कुछ और है—न पुण्य, न ज्ञान, न स्वर्ग।
कुछ और ही मुकाम मेरी बंदगी का है,
क्यों खींचते हो मुझको गुनाहो—सबाब में।
मुझे पाप—पुण्य के विचार में क्यों खींचते हो? मुझे चिंता नहीं है पाप—पुण्य की। जो सब सम्हाल रहा है, वही यह भी सम्हाले।
कुछ और ही मुकाम मेरी बंदगी का है,
क्यों खींचते हो मुझको गुनाहो—सबाब में।
मैं न साधु होना चाहता, न मुझे असाधु होने की आकांक्षा है। ये साधु—असाधु, ये पाप और पुण्य, ये धार्मिक और अधार्मिक—भक्त को इनसे कुछ लेना—देना नहीं। भक्त तो कहता है, सिर्फ परमात्मा से मेरा लगाव है। मैं जान लेना चाहता हूं, वह जो है। परमात्मा यानी वह जो है। भीतर और बाहर, ऊपर और नीचे, प्रगट और अप्रगट, व्यक्त और अव्यक्त, यह जो सारा अस्तित्व तुम्हें घेरे हुए है, इस अस्तित्व के साथ लीनता हो जाए, छंदोबद्धता हो जाए। बस भक्त छंदबद्ध हो जाना चाहता है अस्तित्व के साथ। अस्तित्व से भिन्न मेरे पैर न पड़ें। अस्तित्व से पृथक मेरी कोई चाह न हो। मैं अस्तित्व के हाथ बन जाऊं। मैं अस्तित्व के हाथ एक कठपुतली हो जाऊं। मैं अस्तित्व के हाथ समग्र रूप से समर्पित हो जाऊं।
और जो समर्पित है, वह उपलब्ध हो जाता है। परमात्मा से कुछ और मत मांगना। कुछ और मांगा, तो तुम्हारी प्रार्थना उस तक पहुंचेगी ही नहीं। परमात्मा से बस परमात्मा मांगना। इससे कम की मांग भक्त करता ही नहीं। इससे कम की मांग दो कौड़ी की है। उसी को मांग लो।
मैंने सुना है, एक सम्राट विश्वविजय की यात्रा पर गया। जब सारी दुनिया को जीतकर लौटता था, तो उसने अपनी रानियों को पत्र भेजे—सौ रानियां थीं उसकी—कि जिसकी जो चाह हो खबर कर दे, तो मैं ले आऊं। निन्यानबे रानियों ने अपनी—अपनी चाहें लिखीं। किसी को हीरे चाहिए, किसी को मोती चाहिए, किसी को आभूषण, किसी को साड़ियां, किसी को कुछ, किसी को कुछ। सिर्फ एक रानी ने, सबसे छोटी रानी ने, सबसे कम—उम्र रानी ने इतना लिखा—जब आप आ रहे हैं, तो और क्या चाहिए?
निन्यानबे रानियों को उनके हीरे—जवाहरात, साड़ियां मिल गईं, सौवीं रानी को सम्राट मिल गया। और जिसे सम्राट मिल गया, उसे सब मिल गया। और जिन्हें सिर्फ हीरे—जवाहरात मिले और साड़ियां मिलीं और आभूषण मिले, उनको क्या खाक मिला! चूक गईं। भूल हो गई उनसे।
मगर सबसे छोटी रानी सबसे कम समझदार थी, सबसे कम चालाक थी। सबसे छोटी रानी अभी नादान थी।
नादान हो जाओ, दाना बनने की कोशिश मत करना। नासमझ हो जाओ। छोटे बच्चे की भांति—जीसस ने कहा—जो होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर पाएंगे।
निर्दोष हो जाओ, और मांगो सिर्फ उसको। तुम्हारी श्वास—श्वास में बस एक ही मांग बस जाए। तुम्हारी धड़कन—धड़कन में बस एक ही—एक ही—स्मरण बस जाए। जीओ तो उसे, जागो तो उसमें, सोओ तो उसमें, उठो तो उसमें, बैठो तो उसमें, चलो तो उसमें, और तब एक दिन घटना घटती है। घटना रुकेगी नहीं, सदा घटती रही है।
मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।
हहर उठा विजन पवन,
सुन अश्रुत आमंत्रण;
डोला वह यों उन्मन,
ज्यों अधीर स्नेही मन;
पावस के गीत जगे, गीत की कड़ी जगी।
ध्यान—मग्न नीलांबर
ओढ़े बादर—चादर;
अर्घ्य दे रहा सादर—
जल—सागर पर गागर,
भक्ति नीर, सिक्त भूमि स्नेह सर्जना पगी।
अम्बर से भूतल तक,
तुमको खोजा अपलक;
क्यों न मिले अब तक?
ओ मेरे अलख—झलक!
बुद्धि मलिन, प्राण चकित, व्यंजना ठगी—ठगी;
मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें