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शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

शिव--सूत्र--(ओशो) प्रवचन--08

जिन जागा तिन मानिक पाइया(प्रवचनआठवां)

दिनांक 18 सितंबर,1974;
प्रात:काल, श्री ओशो आश्रम,पूना।
सूत्र:

त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेव्यम्
मग्‍न: स्वचित्ते प्रविशेत्
प्राणसमाचारे समदर्शनम्
शिवतुल्यो जायते

 तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश करे। प्राणसमाचार (अर्थात सर्वत्र परमात्म—ऊर्जा का प्रस्‍फुरण है—ऐसा अनुभव कर) से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और वह शिवतुल्य हो जाता है!

 जाग्रत, स्‍वप्‍न, सुषुप्‍ति—इन तीनों अवस्थाओं में भी चौथी तुरीय ऐसी ही पिरोई हुई है जैसे माला के मनकों में धागा। सोये हुए भी तुम्हारे भीतर कोई जागा हुआ है। स्‍वप्‍न देखते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई देखनेवाला रूप के बाहर है। जागते, दिन के काम करते समय भी, दैनंदिन जागरण में भी, तुम्हारे भीतर कोई साक्षी मौजूद है।
ऐसा होगा भी; क्योंकि जो तुम्हारा स्वभाव है, उसे तुम, कितने ही गहरे सो जाओ, तो भी खो न सकोगे। जो तुम हो, वह तो मौजूद ही रहेगा; दब जाए, छिप जाए, विस्मरण हो जाए, नष्ट नहीं हो सकता।
तो चाहे नींद हो, चाहे स्‍वप्‍न, चाहे तथाकथित दैनंदिन जागरण, पीछे गहरे में तुरीय सदा मौजूद है; गहरे में तुम सदा ही बुद्ध हो; ऊपर तुम कितने ही भटक जाओ, वह सब भटकाव परिधि का और लहरों का है। गहरे में तुम कभी भी भटके नहीं हो; क्योंकि गहरे में भटकने का कोई उपाय नहीं।
इसलिए तुरीय को पाना नहीं है, केवल आविष्कृत करना है। तुरीय को उपलब्ध नहीं करना है, केवल अनावृत्त करना है। वह छिपी पड़ी है; जैसे कोई खजाना दबा हो, सिर्फ मिट्टी की थोडी—सी परतें हटा दें और तुम सम्राट हो जाओ। कहीं खोजने नहीं जाना है; तुम्हारा खजाना तुम्हारे भीतर है। और इसकी झलक भी तुम्हें निरंतर मिलती रहती है, लेकिन तुम उस झलक पर ध्यान नहीं देते।
सुबह उठकर तुम कहते हो कि रात बड़ी गहरी नींद आयी, बड़ा आनंद हुआ, नींद बड़ी सुखद थी। जब तुम यह कहते हो, क्या तुमने कभी खयाल किया कि कौन है जो जानता है कि नींद बड़ी सुखद थी? अगर तुम पूरे ही सो गये थे, तो सुबह कौन याद करेगा? अगर तुम बिलकुल ही सो गये थे, तो स्मृति किसको होगी? यह कौन कहता है कि रात नींद बहुत गहरी आयी, बड़ी आनदपूर्ण थी? कोई जरूर नींद की गहराई में भी देखता रहा। नींद की गहराई में भी कोई टिमटिमाता प्रकाश जलता रहा है। अंधकार पूरा नहीं था; अंधकार देखा गया है।
रात तुम सपने देखते हो; सुबह उनकी याद, उनकी झलक कायम रह जाती है। सुबह उठकर तुम कहते हो, रात बड़ा दुखद रूप देखा। तो देखनेवाला अलग था; सपने में तुम खो नहीं गये थे। तुम सपना ही नहीं हो गये थे। तुम दर्शक थे। सपना चला होगा अंतरात्मा के रंगमंच पर; लेकिन तुम नाटक के बाहर थे, अन्यथा याद न बनती।
दिन में भी क्रोध पकडता है, तो ऐसा नहीं कि तुम बिलकुल ही सोये हुए हो; भीतर झलकें आती हैं। जब क्रोध पकड़ता है, तब भी तुम जानते हो कि क्रोध पकड़ रहा है। पकड़ने के पहले भी जब धुआं अभी आने के करीब हुआ है, तब भी तुम जानते हो कि अब क्रोध आने को है। जैसे वर्षा आने के पहले आकाश बादल से घिर जाता है, वैसे तुम्हें भी लगने लगता है, अब क्रोध आने के करीब है।
जब तुम मोह से भरते हो, तब भी; जब तुम शांत होते हो, तब भी; जब अशांत होते हो तब भी, तुम्हारे भीतर कोई देख रहा है। लेकिन इस देखनेवाले पर तुमने ध्यान नहीं दिया। तुम्हारा ध्यान दृश्य की तरफ बह रहा है। जो दिखाई पड़ता है, तुम उसमें ही लीन हो। जो देखता है, उस तरफ मुड़कर तुमने नहीं देखा। बस, इतना ही करने का है और तुम्हारी बेहोशी टूट जायेगी, तुरीय उपलब्ध हो जायेगा; और जिसे मिल गया तुरीय, उसे सब मिल गया। जिसे नहीं मिला तुरीय—वह चौथी ध्यान की जागृत अवस्था न मिली—वह जीवन में सब कुछ कमा ले, सब कुछ इकट्ठा कर ले, मृत्यु के क्षण में पायेगा कि वह सब कमाना, सब इकट्ठा करना, दो कौड़ी का सिद्ध हुआ है। मैने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन भागा हुआ नदी के तट पर पहुंचा। यात्रा पर जाना था। जल्दी में था। और डर था कि कहीं नाव छूट न जाए। खुश हो गया। कुछ ही कदम दूर था कि देखा कि नाव बस छूटी ही है। छलांग लगाकर नाव पर सवार हो गया। पैर फिसला; गिर पड़ा—चारों खाने चित्त। कपड़े फट गये। कुहनियां खून से रक्तरंजित हो गईं। फिर भी खुशी से उठकर खड़ा हो गया और आनंद—भाव से चकित यात्रियों से कहा, ' आखिर पहुंच ही गया। थोड़ी देर हो गयी थी, लेकिन नाव पकड़ ली।यात्री कहने लगे, ' हम समझ नहीं पाते, नसरुद्दीन! इतनी जल्दी क्या है? यह नाव जा नहीं रही है, आ रही है।
मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे कि जिंदगी भर जो दौड़ तुमने की, भागे, पहुंच गये—वह नाव जाने वाली नहीं है; वह किनार पर ही आ रही है। लेकिन तब बहुत देर हो जायेगी। तब कुछ करते न बनेगा। अभी समय है। अभी कुछ किया जा सकता है।
और मौत के पहले जो जाग गया, उसकी फिर कोई मौत नहीं। और जो मौत तक सोया रहा उसका कोई जीवन नहीं; उसका जीवन एक लंबा स्‍वप्‍न है, जो मृत्यु तोड़ देगी। जो जाग गया जीते जी, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं; क्योंकि जो जाग गया, उसने अपने भीतर के स्वभाव को देखा और अनुभव किया कि वह अमृत है।
लेकिन जिंदगी बेहोश—बेहोश चलती है। तुम नशे—नशे में चलते हो। तुम कहां जा रहे हो, यह बहुत साफ नहीं; क्यों जा रहे हो, यह भी बहुत साफ नहीं।
दो भिखमंगे राह के किनारे बैठे बात करते थे। मैंने उनकी बात अचानक सुन ली। उनमें से एक पूछ रहा था कि जिंदगी का प्रयोजन क्या है, किसलिए है जिंदगी? दूसरे ने कहा, जीने के सिवाय और कुछ कर भी क्या सकते हो।
तुम भी उस दूसरे से राजी हो कि जिंदगी में जीने के सिवाय और कर भी क्या सकते हो। और जीना भी तुम्हारे हाथ में नहीं है; अनंत—अनंत स्थितियों पर निर्भर है। वह सब अचेतन है। क्यों तुम्हारे भीतर कामवासना उठी; क्यों तुमने परिवार बनाया; क्यों लोभ जगा; क्यों तुमने धन इकट्ठा किया; क्यों क्रोध उठा; क्यों तुमने शत्रु निर्मित किये; क्यों तुमसे अपराध हुआ; क्यों तुमने बेईमानी की—कुछ भी साफ नहीं है। तुम जैसे एक कठपुतली हो, धागे किसी और के हाथ में हैं; जैसे कोई और तुम्हें नचाता है और तुम नाचते हो। तुम्हें वहम भर है कि मैं नाच रहा हूं।
अपनी जिंदगी को गौर से देखो तो तुम पाओगे, तुम कठपुतली से ज्यादा नहीं हो। और ऐसी कठपुतली की जिंदगी में क्या सत्य की कोई घटना घट सकती है जो अपना मालिक भी न हो?
एक संध्या ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसके दो मित्र भागे ट्रेन पकड़ने को। नसरुद्दीन चूक गया; पैर फिसला, गिर गया। दो चढ़ गये। स्टेशन मास्टर ने आकर उसे उठाया और कहा, 'नसरुद्दीन, दुख की बात है कि तुम चूक गये! 'नसरुद्दीन ने कहा, 'मेरे लिए दुखी मत हो। वे दो जो चढ़ गये हैं, मुझे पहुंचाने आये थे। मैं तो दूसरी ट्रेन भी पकड़ लूंगा; उनका क्या होगा?'
तीनों नशे में धुत्त थे।
यहां बड़ी हैरानी की बात है, जो चढ़ गया है, जो सफल हो गया है, पका मत समझना कि वह कहीं पहुंच जायेगा। जो असफल हो गया, नहीं चढ़ पाया, पका मत समझना कि उसका कुछ खो गया है। यहां चढ़नेवाला, चढ़नेवाला, सफल असफल, जीत गया, हारा हुआ—सब एक—से बेहोश हैं। जिंदगी के आखिर में हिसाब बराबर हो जाता है। सफल—असफल सब बराबर हो जाते है। धनी—गरीब सब बराबर हो जाते हैं। मौत तुम्हें बिलकुल साफ कोरी स्लेट की भांति कर देती है।
सिर्फ एक व्यक्ति को मौत नहीं बराबर कर पाती—वह वह है, जिसने तीन के भीतर छिपे हुए चौथे को पहचान लिया; क्योंकि उसकी कोई मृत्यु नहीं। वही, बस सफल हुआ, शेष सभी असफल हैं—चाहे नेपोलियन, चाहे सिकंदर—वे सभी असफल हैं। सिर्फ कोई बुद्ध—पुरुष कभी सफल होता है।
यहां सफलता बस एक है कि तुमने उसे जान लिया जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। जो मृत्यु से नष्ट हो जाये, उसे तुम असफलता समझना; इसे असफलता की व्याख्या बना लेना। तुम्हारे पास कुछ है, जो मृत्यु तुमसे न छीन पायेगी? इस पर निरंतर विचार करना—मेरे पास कुछ है, जो मृत्यु मुझसे न छीन पायेगी? और अगर तुम पाओ, कुछ भी नहीं है, तो जल्दी करना। अगर तुम पाओ कि सभी कुछ ऐसा है जो मृत्यु छीन लेगी, तो समय खोना अब उचित नहीं; जागने की घड़ी आ गयी!
दिन—जिसको तुम जागरण कहते हो, तुम्हारा दिन; स्‍वप्‍न, तुम्हारी रात और तुम्हारी निद्रा जहां स्‍वप्‍न भी खो जाते है—ये तीनों ही मृत्यु में बुझ जायेंगी। इन तीनों का तुमसे कोई संबंध नहीं। जैसे सूरज के चारों तरफ बादल घिर गये हों, ऐसे ही इन तीनों ने तुम्हारे सूरज को घेरा है। और अगर इन तीनों में ही तुमने अपने जीवन को नियोजित कर दिया तो मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे कि तुम दीन—दरिद्र मर रहे हो। लेकिन अगर तुमने सूरज की किरण पकड़ लीं—स्थ किरण भी पकड़ ली—तो सूरज ज्यादा दूर नहीं है। तब बादलों की तरफ तुम्हारी पीठ हो जायेगी और सूरज की तरफ तुम्हारा मुंह हो जायेगा।
पहला सूत्र है : तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए। तीनों अवस्थाओं में—चाहे जागो, चाहे सोओ, चाहे सपना देखो—चौथे की स्मृति को जगाते रहना चाहिए, ध्यान चौथे पर रहे। परिधि पर कुछ भी घटता रहे, नजर केंद्र पर लगी रहे। होश उठते—बैठते संभाले रखना। भोजन करते, घर जाते, दुकान जाते—होश संभाले रखना। एक बात खयाल रखना कि मैं द्रष्टा हूं कर्ता नहीं हूं। जीवन को एक अभिनय से ज्यादा मत समझना। अभिनय के साथ बहुत एकात्म मत हो जाना।
तुम पति हो या पली हो, दुकानदार हो कि गाहक हो—इसमें बहुत मत खो जाना। तुम्हारा पति होना या पत्नी होना, दुकानदार या ग्राहक होना एक अभिनय का हिस्सा है। लेकिन भीतर तुम बाहर बने रहना। जाना दुकान; जरूरी है, खेल प्यारा है, कुछ तोड्ने की जरूरत भी नहीं; मगर खेल की तरह प्यारा है, जीवन की तरह घातक है। ठीक है, जो खेल मिला है, उसे पूरा कर देना; भगोड़े मत बनना; बीच में भागने की कोई जरूरत नहीं।
भगोडे हमेशा कमजोर हैं। और जिन्हें तुम साधु—संन्यासी कहते हो, वे अक्सर भगोड़े हैं। वे कमजोर हैं, जो जिंदगी में टिक न पाये और जो जिंदगी में द्रष्टा को न संभाल पाये, इसलिए भाग गये हैं। भागने से कोई संन्यासी नहीं होता। भागने से केवल इतना ही बताता है कि संसार ज्यादा ताकतवार था और वह कमजोर था। दुकान पर न जाग सका, काम— धंधा करते हुए न जाग सका, इसलिए भाग गया है।
लेकिन, अगर तुम दुकान पर न जाग सकोगे, तो पहाड़ में कैसे जाग जाओगे? जागने की क्रिया तो एक ही है। तुम कहां हो इससे कोई भी संबंध नहीं है। तुम क्या कर रहे हो, इससे भी कोई संबंध नहीं है। यह असंगत है। जागने की क्रिया तो एक है—चाहे तुम दुकान पर बैठकर जागो; चाहे तुम मंदिर मैं बैठकर जागो; चाहे तुम मखमल की गद्दियों पर बैठकर जागो; चाहे वृक्ष के नीचे बैठकर जागो—जागने की क्रिया तो एक है। जागने की क्रिया यह है कि जो भी कृत्य हो रहा है, मैं उस कृत्य से पृथक हूं—वह कृत्य दुकान का है, काम का है, प्रार्थना का है, पूजा का है, कोई फर्क नहीं पडता। कृत्य मुझसे अलग है, वह संसार का हिस्सा है और मैं देखनेवाला हूं। कृत्य में इतने लीन न हो जाना कि कृत्य ही बचे और साक्षी खो जाये। अभी ऐसा ही हुआ है।
यह सूत्र कहता है : तीनों अवस्था में चौथी को सिंचन करते रहना। धीरे— धीरे सींचते—सींचते चौथी का वृक्ष खड़ा हो जायेगा। पहले शुरू करना जाग्रत से; क्योंकि वही चौथी के निकटतम है। उसमें थोड़ी—सी किरण जागने की है। थोड़ा—सा होश है। उस किरण का उपयोग करना। नींद में तो तुम कैसे जाग सकोगे एकदम से? सपने में कैसे जागोगे?
तो पहले जागने से शुरू करना। जागने में एक प्रतिशत होश है, निन्यानबे प्रतिशत बेहोशी है। इस एक प्रतिशत का उपयोग करना; इसको सींचना। जब भी दिन में मौका आ जाये, तो अपने को झकझोरकर जगा लेना। बार—बार खो जायेगी स्थिति। फिर तुम भूल जाओगे। फिर एक झटका देना और अपने को जगा लेना। जैसे कोई आदमी बाजार जाता है सामान खरीदने, भूल न जाये, कपडे पर गांठ लगा लेता है, ऐसे तुम भूल न जाओ, तो हर जगह अपनी चेतना पर एक गांठ लगा लेना। हर जगह—कुछ भी कर रहे हो—एक दफा खयाल कर लेना, कि मैं करनेवाला नहीं हूं सिर्फ देखनेवाला हूं।
ऐसा खयाल आते ही तुम पाओगे, सब तनाव खो गया। सब तनाव कर्तृत्व का है, अहंकार का है। जैसे ही तुम्हें लगेगा, मैं देखनेवाला हूं तनाव खो जायेगा। एक क्षण को भी खोयेगा, तो भी झलक आयेगी। भीतर सागर लहरें लेने लगेगा। बार—बार खोयेगा क्योंकि जन्मों—जन्मों से तुमने बेहोशी साधी है, तोड्ने में समय लगेगा। मगर अगर तुमने सतत सिंचन किया और दिन में दस—बीस मौके पर भी तुम जरा—सी भी देर को जाग गये, रास्ते पर चलते हुए खड़े हो गये और तुमने साक्षी—भाव से देखा; भोजन करते हुए अपने को हिला लिया, जगा लिया; और साक्षी भाव से देखा, दुकान पर बैठे हुए, गाहक से बात करते हुए, भूले ही जा रहे थे कि तुमने अपने को संभाल लिया—तो तुम धीरे— धीरे पाओगे कि आसान होती जाती है बात; रोज—रोज आसान होती जाती है। और दिन में कभी—कभी झलकें आने लगेंगी तुरीय की।
जब दिन में तुरीय सरल हो जायेगा, तब तुम सपने में भी उसका उपयोग कर सकोगे। तब रात सोते वक्त, एक ही खयाल रखकर सोना कि मैं देखनेवाला हूं मैं द्रष्टा हूं। नींद आने लगे, आने लगे, तुम्हारे भीतर एक ही स्वर गूंजता रहे कि मैं साक्षी हूं मैं साक्षी हूं मैं साक्षी हूं। इस भाव को पुनरुक्त करते हुए तुम सो जाना। तुम्हें पता भी न चले कि कब नींद लग गयी और कब यह भाव— धारा टूटी। अगर तुम इस भाव— धारा को संभालते चले गये, संभालते चले गये, नींद आ जायेगी, भाव— धारा जारी रहेगी। क्योंकि भाव— धारा तुम्हारे भीतर चल रही है, नींद तो शरीर को आती है। अगर भाव— धारा भीतर जारी रही तो एक दिन तुम अचानक स्‍वप्‍न में भी अनुभव करोगे कि मैं देखनेवाला हूं।
और जैसे ही तुम अनुभव करोगे, अनूठी प्रतीति होगी; स्‍वप्‍न तत्‍क्षण टूट जायेगा। जैसे ही तुम्हें यह खयाल आयेगा स्‍वप्‍न में कि मैं देखनेवाला हूं वैसे ही स्‍वप्‍न बंद हो जायेगा। स्‍वप्‍न चलता ही तुम्हारी बेहोशी से है। और जब ऐसा रूप में होने लगे, तब तीसरी घटना संभव होती है कि तब तुम रूप को देखते रहना, और भीतर स्मरण करते रहना कि मैं साक्षी हूं स्‍वप्‍न खो जायेगा। तुम भीतर स्मरण जारी रखना कि मैं साक्षी हूं मैं साक्षी हूं नींद पुन: आ जायेगी और अब नींद में भी यह धारा प्रविष्ट हो जायेगी। और जिस दिन नींद में यह धारा प्रविष्ट हो जाती है कि मैं साक्षी हूं तुम्हारे हाथ परम खजाने की कुंजी लग गयी। अब तुम्हें कोई भी बेहोश न कर पायेगा। जो नींद में एक क्षण को भी जाग गया, अब उसकी बेहोशी बिलकुल टूट जायेगी।
जिस दिन तुम नींद में जागोगे, उस दिन तुम योगी हो गये। योगी कोई आसन करने से नहीं होता। वह सब व्यायाम है; अच्छा है; शरीर के लिए स्वास्थ्यप्रद है; करें तो बुरा नहीं। लेकिन शरीर के व्यायाम को ही अगर कोई योग समझ लेता हो तो वह बड़ी भांति में पड़ गया है। योग का अर्थ है. निद्रा में जो जाग्रत हो जाये, वही योगी है। उसके पहले कोई योगी नहीं है।
यह सूत्र कहता है : तीनों अवस्थाओं में चौथे का तेल की भांति सिंचन करते रहना। एक न एक दिन वह अनूठी घटना घट जायेगी! जब तुम्हें नींद में भी जागरण होगा तो चौथे में थिर हो जाओगे। जब कोई चौथे में थिर हो जाता है, तो ऐसी अवस्था हो जाती है, जैसे दीया जल रहा हो और कोई हवा का झोंका न हो और दीये की ली अकंप हो जाये, जरा भी न कंपती हो—ऐसी तुम्हारी प्रज्ञा होगी; ऐसा तुम्हारा ज्ञान होगा; ऐसी तुम्हारी आत्मा होगी— अकंप, प्रकाश से भरी। फिर तुम उठोगे, जागोगे, सोओगे, कई बातों में रूपांतरण हो जायेगा।
पहली बात—जो नींद में जाग जायेगा उसके स्‍वप्‍न सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे। बुद्ध पुरुष स्‍वप्‍न नहीं देखते। तो पहली घटना यह घटेगी—नींद में जागने पर, स्‍वप्‍न में जागने पर, जिस स्‍वप्‍न में जागने, वह टूट जायेगा, लेकिन दूसरे सपने जारी रहेंगे। निद्रा में जागने पर, जब कोई स्‍वप्‍न भी न था, सिर्फ सुषुप्ति थी, तब जागने पर फिर सभी सपने खो जायेंगे। फिर तुम रात सपने न देखोगे
यह घटना घटेगी। स्‍वप्‍न सब गिर जायेंगे, क्योंकि स्‍वप्‍न वासना से घिरा हुआ चित्त देखता है।
रूप है क्या?—जिसे तुम दिन में पूरा नहीं कर पाते, उसे तुम रात सपने में पूरा कर लेते हो। सभी सम्राट नहीं हो सकते; बड़ा संघर्ष है, बड़ी प्रतियोगिता है; तो भिखारी रात सपना देख लेते हैं सम्राट होने का। और कुल जोड़ बराबर हो जाता है। क्योंकि कोई आदमी दिन भर सम्राट रहा, आठ घंटे रात सोयेगा तो, सपना तो देखेगा। तब उसका सब साम्राज्य खो जायेगा। भिखमंगा रात आठ घंटे सोता है, वह सपना देखता है कि मैं सम्राट हूं। आखिरी हिसाब बराबर है।
ऐसा हुआ कि औरंगजेब एक फकीर पर बहुत नाराज था। और एक दिन उसने फकीर को पकड़वा कर महल बुलवा लिया। और लोगों ने कहा था, इस फकीर को नाराज करना तक मुश्किल है। औरंगजेब ने कहा, देखेंगे। सर्द रात थी—दिल्ली की सर्द रात। महल में राग—रंग चलता रहा और फकीर को नग्न करवाकर यमुना में खड़ा करवा दिया। और औरंगजेब ने कहा कि सुबह पूछेंगे।
रातभर फकीर नग्न बर्फीली नदी में खड़ा रहा। सुबह औरंगजेब ने पूछा, 'कहो, कैसी बात?' फकीर ने कहा, 'कुछ तुम जैसी, कुछ तुमसे अच्छी! 'औरंगजेब ने पूछा, 'मैं समझा नहीं', फकीर ने कहा, 'सपने आते रहे। उनमें मै सम्राट था। महलों में था, राग—रंग चल रहा था। उन सपनों में और तुम्हारे राग—रंग में जो महल में चल रहा था, जरा भी भेद नहीं है। मैंने उतना ही मजा लिया, जितना तुम लिये। तो कुछ तुम जैसी, कुछ तुमसे अच्छी; क्योंकि बीच—बीच में होश आ गया और सपना टूट गया। तुम्हें अभी होश जरा भी नहीं आया।
रात तुम वही तो पूरा करते हो, जो दिन में चूक जाता है। दिन के अधूरे कृत्य रात में पूरे किये जाते हैं। दिन में जो वासनाएं तुम पूरी न कर पाये, क्योंकि कठिनाइयां हैं। और वासनाएं पूरी करना आसान नहीं है, क्योंकि वासनाएं दुष्‍पूर हैं। और ऐसी हैं कि उनके पूरे होने का कोई उपाय ही नहीं, उनका स्वभाव ही पूरा होना नहीं है। तुम्हें सारी दुनिया की संपत्ति मिल जाये, तो भी पूरी न होगी।
कहते हैं, सिकंदर को डायोजनीज ने कहा, 'सिकंदर, जिस दिन तू सारी दुनिया जीत लेगा, बड़ी मुश्किल में पड़ेगा। यह काम छोड़ ही दे। जब तक जीता नहीं, तब तक मुश्‍किल में हो, जब जीत लेगा तो और भी मुश्किल में पड़ेगा।सिकंदर—कहते हैं—उदास हो गया। और उसने डायोजनीज से कहा, 'ऐसी बातें मत करो। क्योंकि यह खयाल ही कि सारी दुनिया मैंने जीत ली, मुझे उदास करता है; क्योंकि फिर कोई और दूसरी दुनिया तो जीतने को है नहीं। सारी दुनिया जीतकर भी मन भरेगा नहीं। मन कहेगा—अब क्या? अब क्या जीते? और मन उदास होगा।
सपने सम्राट भी देखते हैं, भिखमंगे भी देखते हैं। क्योंकि अधूरा जो रह गया, वह सपने में पूरा कर लेना पड़ता है। सपने का एक गुण है। सपना बड़ा दयालु है। सपना तुम पर बड़ी कृपा करता है। अगर तुमने दिन में उपवास किया है, किन्हीं साधु—संन्यासियों के चक्कर में पड़कर और तुम भूखे मरे, तो रात तुम राज—भोज में सम्मिलित हो जाओगे। सपना तुम्हारे साधुओं से ज्यादा दयालु है। वह तुम्हें राज—भोज में बुला लेगा। बढ़िया से बढ़िया मिष्ठान्न जो तुम्हें कभी नहीं मिले, सुंदर से सुंदर भोजन, तुम कर पाओगे। और उनके स्वाद में और असली भोजन के स्वाद में जरा भी अंतर नहीं है। शायद थोड़ा उनका स्वाद ज्यादा ही है। तुम अगर स्रियों के पीछे दौड़ते रहे और तुम उन्हें नहीं पा सके तो सपने में तुम उन्हें पा लोगे। दुनिया की सुंदरतम स्रियां तुम्हारी हो जायेंगी या सुंदरतम पुरुष तुम्हारे हो जायेंगे।
सपना, तुम्हें द्वार खोल देता है—तुम्हारी सारी वासनाओं को पूरा कर लो। और आदमी अगर साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। बीस साल जागता है। बीस साल दूसरे कामों में व्यतीत होते हैं। अगर बीस साल सपने में तुम सम्राट रहते हो और कोई आदमी जागकर सम्राट रहता है, तो फर्क क्या है? हिसाब बराबर है। शायद जागने में जो सम्राट रहता है, वह झंझटों में सम्राट रह भी नहीं पाता; तुम निश्‍चित भाव से सम्राट रहते हो सपनों में।
सपने उसी दिन खोते हैं, जिस दिन कोई नींद में जाग जाता है—तब सपने व्यर्थ हो जाते हैं। क्योंकि नींद में जो जाग गया, अब उसकी कोई वासना न रही। सब वासनाएं मूर्च्छा के हिस्से हैं, बेहोशी के हिस्से हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन ट्रेन से उतरा। चक्कर खाता हुआ—सा मालूम होता था। किसी मित्र ने पूछा कि बीमार लग रहे हो, क्या बात है। नसरुद्दीन ने कहा कि जब भी मैं ट्रेन में सवार होता हूं और कभी उलटी यात्रा करनी पड़ती है—जिस तरफ ट्रेन जा रही है, उस तरफ मुझे पीठ रखनी पड़ती है—तो मुझे वमन, और चक्कर और सिरदर्द पैदा हो जाता है। तो उस मित्र ने कहा, 'भले आदमी, सामने के आदमी से पूछा लिया होता कि भई मै जरा तकलीफ में हूं जगह बदल लें।नसरुद्दीन ने कहा, 'वह मैंने भी सोचा था, लेकिन सामने की सीट खाली थी, वहां कोई आदमी नहीं था। पूछने का मैंने भी सोचा था।
जिंदगी में तुम जो कर रहे हो, करीब—करीब ऐसा ही बेहोश है। धुत्त हो एक नशे में। इस नशे को कहीं न कहीं से तोड़ना जरूरी है।
कहां से तुम शुरू करोगे? जागृति से शुरू करो। सुबह उठो, एक ही भाव से उठो कि आज दिन साक्षी का प्रयोग करूंगा। और जब पहली दफा तुम्हें सुबह नींद खुलती है, तब चित्त बड़ा ताजा होता है, हलका होता है; न विचार होते हैं, न सपने होते हैं। रातभर के विश्राम के बाद, तुम्हारे भीतर भी एक सुबह होती है, बाहर भी एक सुबह होती है। तनाव नहीं होते। आकाश में बादल नहीं होते। तुम हलके होते हो। जल्दी ही काम की, दौड़ की दुनिया शुरू होगी, फिर मुश्किल होगा।
तो जैसे ही तुम्हें पता चले, सुबह की नींद टूट गयी, आंख मत खोलना। उस वक्त चित्त बहुत संवेदनशील है। जैसे ही पता चले कि नींद टूट गयी, पहला ध्यान करना कि मैं साक्षी हूं। रोज सुबह उठते समय पांच मिनट आंख बंद किये ही पड़े रहना। आंख मत खोलना। आंख खोलते ही संसार दिखाई पड़ा कि तुम खो जाओगे। आंख बंद ही रखना और भीतर एक भाव करना कि मैं साक्षी हूं कर्त्ता नहीं हूं। और यह साक्षी— भाव दिन भर सधे, बारबार इसका मैं स्मरण कर सकूं—ऐसे भाव में डूबे हुए तुम उठना और थोड़ी देर इसे संभालने की कोशिश करना; क्योंकि शुरू—शुरू में सबसे ज्यादा आसान होगा। उठो, बिस्तर के नीचे पैर रखो—होशपूर्वक रखना; खान करने जाओ—होशपूर्वक सान करना; सुबह का नाश्ता करो—होशपूर्वक नाश्ता करना।
होशपूर्वक का अर्थ है कि यह सब मेरे बाहर हो रहा है। शरीर की जरूरत हैं मेरी नहीं। मेरी कोई जरूरत ही नहीं है। है भी नहीं; क्योंकि तुम स्वयं परमात्मा हो, तुम्हारी क्या जरूरत हो सकती है? तुम पूर्ण हो। तुम ब्रह्मस्वरूप हो। सब कुछ तुम्हारा है। तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं। आत्मा किसी जरूरत से नहीं चलती। उसके लिए कोई ईंधन की जरूरत नहीं है—बिना बाती बिन तेल। मेरी कोई जरूरत नहीं है; शरीर की जरूरत है—स्नान, भोजन, उठना, काम।
इसे संभालने की कोशिश करना। इस धागे को जितनी देर तक खींच सको, खींचना। जल्दी यह खो जाएगा। काम— धाम की दुनिया है। पुरानी आदत है। मगर रोज—रोज इसको सींचना। यह पौधा धीरे— धीरे बड़ा होगा। दिखाई भी नहीं पड़ेगा कि कब बड़ा हो रहा है, क्योंकि इतने धीमे— धीमे बढ़ेगा। लेकिन अचानक एक दिन तुम पाओगे कि दिनभर एक धागे की तरह, तुम्हारे भीतर प्रकाश की एक किरण बनी रहती है। और वह प्रकाश की किरण तुम्हारे जीवन को रासायनिक रूप से बदल देगी। क्रोध कम आयेगा; क्योंकि साक्षी को कैसा क्रोध! मोह कम पकड़ेगा; क्योंकि साक्षी को कैसा मोह! चीजें घटेंगी—सफलता—असफलता होगी, सुख—दुख आयेंगे; लेकिन तुम कम डावांडोल होओगे क्योंकि साक्षी का कैसा कंपन। सुख आयेगा, उसे भी तुम देख लोगे; दुख आयेगा, उसे भी देख लोगे और तुम्हारे भीतर सतत धारा बनी रहेगी कि मैं देखनेवाला हूं भोक्ता नहीं हूं।
कोई भी नहीं कह सकता कि कितना समय लगेगा। तुम्हारी त्वरा, तीव्रता, तुम्हारी सघन आकांक्षा, अभीप्सा पर निर्भर करेगा। कैसे तुम चलते हो; दौड़ते हो कि चींटी की चाल चलते हो; क्योंकि अक्सर धर्म की दुनिया में लोग बाराती की चाल चलते हैं। बाराती की चाल से कहीं पहुंचोगे नहीं। बाराती की चाल ठीक है; क्योंकि बारात को कहीं पहुंचना ही नहीं है। वे ऐसे ही गांव का चक्कर लगाकर वहीं के वहीं आ जाते हैं।
ईसप हुआ—स्थ बोध कथाकार, उसने जैसी बोध—कथाएं लिखीं, दुनिया में किसी ने भी नहीं लिखीं। वह आदमी बड़ी प्रज्ञा का था। एक किनारे बैठा था रास्ते के एक दिन। एक आदमी निकला और उसने पूछा कि भाई मेरे, बता सकोगे कि गांव कितना दूर है और मैं कितनी देर में पहुंच जाऊंगा। ईसप कुछ भी न बोला; सिर्फ, उठकर उस आदमी के साथ चलने लगा। वह आदमी थोड़ा डरा भी। उसने कहा कि मैंने पूछा है कि गांव कितनी दूर है, मैं कितनी देर में पहुंच जाऊंगा। तुम कुछ उत्तर दो, तुम्हें चलने की कोई जरूरत नहीं है मेरे साथ।
लेकिन ईसप चुपचाप उसके साथ चलता रहा। कोई पंद्रह मिनट बाद ईसप ने कहा कि दो घंटे लगेंगे। उस आदमी ने कहा कि पागल आदमी हो। यह बात तुम वहीं कह सकते थे। मेरे साथ मील भर आने की जरूरत न थी। ईसप ने कहा कि जब तक तुम्हारी चाल न देख लूं तब तक कैसे बताऊं कि कितनी देर लगेगी। रास्ते की लंबाई से थोड़ी तय होता है; आदमी की चाल...! अब मैं निशित भाव से कहता हूं कि दो घंटे लगेंगे।
तुम्हारी चाल पर निर्भर करेगा। तुम दौड़ भी सकते हो—तुम जल्दी पहुंच जाओगे। तुम बाराती की चाल से भी चल सकते हो—तब तुम कब पहुंचोगे, कुछ कहना मुश्किल है। तुम्हारी तेजी इतनी भी हो सकती है कि एक क्षण में तुम छलांग लगा जाओ। और तुम इतने मंदेमंदे भी, कुनकुने भी उबल सकते हो कि अनंत जन्म लग जाएं और तुम न पहुंचो। अगर तुम पूरी त्वरा से, समग्र भाव से, पूरे प्राणों से, कुछ भी न बचाओ भीतर और सभी दांव पर लगा दो, तो अभी पहुंच जाओगे—इसी क्षण; क्योंकि यह यात्रा कोई बाहर की यात्रा नहीं है। यह यात्रा तो भीतर की है—जहां तुम हो ही, सिर्फ नजर फेरने की बात है। फासला जरा भी नहीं है। मगर अगर नजर ही फेरने में तुम देर लगाओ; स्थगन करो, कहो कि कल करेंगे, परसों करेंगे, तो फिर ऐसे अनंत जन्म जा चुके हैं, अनंत और जा सकते हैं।
और ध्यान रहे, प्रकृति को तुम्हारी धार्मिक उपलब्धि में कोई उत्सुकता नहीं है। मनुष्य जहां तक आ गया है, वहां तक प्रकृति ले आती है; इसके पार तुम्हें जाना हो, तो तुम्हारा ही श्रम ले जायेगा। प्रकृति तुम्हें पशु बनाती है, उससे आगे नहीं। उतना काम प्रकृति कर देती है। मनुष्यत्व तो अर्जित करना होता है। और इसलिए आदमी बड़े संकट में है; बड़े संकट में जीता है!
सभी पशु शांत है, आदमी को छोड़कर; क्योंकि प्रकृति ने काम पूरा कर दिया और उन्हें कहीं जाना नहीं है। तुम किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते हो कि तुम दूसरे कुत्तों से कम कुत्ते हो। सभी कुत्ते बराबर कुत्ते हैं; दुबले हों, मोटे हों, ताकतवर हों, कमजोर हों, लेकिन कुत्तेपन में कोई फर्क नहीं है। लेकिन सभी आदमी बराबर आदमी नहीं है। आदमीयत में फर्क है। दुबला—पतला आदमी भी बहुत बड़ा आदमी हो सकता है। मोटा—तगड़ा आदमी भी बिलकुल छोटा आदमी हो सकता है।
एक नया गुणधर्म शुरू होता है आदमी के साथ। किस बात से तय होता है? जितना होश हज़ेग्र, उतनी ही ज्यादा मनुष्यता फलित होगी। और जिस दिन तुम परिपूर्ण होश से भर जाओगे, उस क्षण दिव्य हो जाओगे। खतरा भी बडा है; क्योंकि जो ऊपर उठ सकता है, वह नीचे भी गिर सकता है। सिर्फ वही नीचे गिर सकता है जो ऊपर उठ सकता है; जो ऊपर नहीं उठ सकता, वह नीचे भी नहीं गिर सकता है। इसलिए तुम जानवरों में बुद्ध, महावीर, कृष्ण को न पाओगे; लेकिन तुम्हें वहां हिटलर, स्टैलिन, नेपोलियन और चंगेज खां भी न, मिलेंगे। क्योंकि जब बुद्धत्व नहीं हो सकता, तो चंगेज खां होने का भी उपाय नहीं है। जहां पर्वत—शिखर होते हैं, वहीं खाइयां होती हैं।
टोकियो में एक अजायबघर है। सारी दुनिया के पशु वहां इकट्ठे हैं। बड़ा अजायबघर है, बड़े से बड़ा अजायबघर है। खतरनाक से खतरनाक पशु—सिंह, बर्बर सिंह, चीते, हाथी, गैंडे, जंगली जानवर, हिपोपोटैमस और सब तरह के जानवरों का बड़ा विस्तार है। पूरे अजायबघर को घूमने के बाद आखिरी जो कठघरा है, उस पर एक तख्ती लगी है—दि मोस्ट डेंजरस एगइनमल आफ आल, सब जानवरों से खतरनाक जानवर। तुम एकदम तेजी से कदम बढ़ाओगे कि कौन—सा जानवर वहां बंद है। और वहां तुम सिर्फ एक दर्पण पाओगे, जिसमें तुम्हारी तस्वीर दिखाई पड़ेगी। वह कठघरा खाली है।
आदमी निश्‍चित ही सबसे खतरनाक जानवर है। क्योंकि उसमें दिव्य होने की क्षमता है, इसलिए नीचे गिरने का उपाय है। अगर तुम ऊपर न चढे, तो तुम जहां हो वहीं न रह सकोगे; तुम नीचे गिरोगे। यहां ठहराव नहीं है जगत में। यहां कोई ठहर नहीं सकता। या तो बढ़ो ऊपर या नीचे गिरोगे। यहां मध्य में रुकने की कोई जगह नहीं है। और इसलिए अगर तुम चेतना की तरफ नहीं जा रहे हो, तो तुम धीरे— धीरे मूर्च्छा की तरफ जाओगे।
बड़ी आश्चर्य की और बड़ी दुख की घटना है कि छोटे बच्चे ज्यादा चेतन होते हैं बजाय को के। क्या घटना घट जाती है? होना तो चाहिए उलटा कि जीवनभर के अनुभव के बाद बूढ़ा आदमी ज्यादा सचेत हो जाये, सावधान हो जाये लेकिन होता उलटा है—ज्यादा चालाक हो जाता है। अनुभव से ज्यादा बेईमान हो जाता है; ज्यादा चोर, ज्यादा कुशल हो जाता है संसार में।
एक बूढ़ा कौआ अपने बेटे को शिक्षा दे रहा था और उससे कह रहा था कि 'देख अनुभव की बात है—आदमी से सावधान रहना; आदमी भरोसे के नहीं है। और अगर किसी आदमी को तू झुकते देखे, फौरन उड़ जाना; वह पत्थर उठा रहा होगा।बेटे ने कहा, ' और अगर वह पत्थर पहले से ही बगल में दबाये आ रहा हो तो?' यह सुनते ही बूढ़ा कौआ उड़ गया और उसने कहा कि यह लड़का भी खतरनाक है; इसके पास रुकना उचित नहीं
बूढ़े आदमी सिर्फ जीवन के अनुभव से ज्यादा जागरूक तो नहीं होते, ज्यादा बेईमान हो जाते हैं, चालाक हो जाते हैं। लेकिन चालाकी से क्या मिलेगा? यहां कुछ मिलने को ही नहीं है। न तो भोलेपन से यहां कुछ खोने को है, न चालाकी से यहां कुछ मिलने को है। यहां जो भी हम बना रहे हैं, वे रेत पर बनाये हुए भवन हैं; बन जायें तो भी मिटेंगे, न बनें तो भी कुछ हर्ज नहीं है।
बच्चे ज्यादा चेतन मालूम पड़ते हैं। बच्चों को देखें! उनकी आंखें ज्यादा होशपूर्ण मालूम पड़ती हैं। वे ज्यादा सजा मालूम पड़ते हैं। उन्हें सुलाने के लिए हमें उपाय करने पड़ते हैं। सब भांति हम उनकी इंद्रियों को काटते हैं, ताकि उनकी सचेतना कम हो जाये। जोर से हंसने नहीं देते; जोर से रोने नहीं देते; दौड़ने, उछलने, कूदने नहीं देते—उनकी जीवन—ऊर्जा को हम सब तरफ से कैद करते हैं। उन्हें हम जल्दी से जल्दी बेईमान बना लेना चाहते है।
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे से मैंने पूछा कि तेरी उम्र कितनी है। उसने कहा, 'घर में सात साल और बस में पांच साल।इस बेटे को बाप ने रास्ते पर लगा दिया!
एक घर में मैं मेहमान था। और ऐसे मेरे कान में सुनायी पड़ गया। घर की गृहणी अपने बच्चे को सुला रही थी, बगल के कमरे में। वह सो नहीं रहा था; उसको थपका रही थी। और उससे बोली, कि 'सो जा! रात कोई जरूरत हो— भूख लगे, प्यास लगे—कुछ भी जरूरत हो तो जोर से मां को आवाज देना और पिताजी फौरन आयेंगे! 'मां को आवाज देना और पिताजी फौरन आयेंगे।
सभी माताएं यही कर रही है। लेकिन इस बच्चे को क्या सिखाया जा रहा है—एक झूठ, एक बेईमानी, एक चालाकी! दूध के साथ हम जहर पिलाना शुरू कर देते हैं। और हमारी पूरी कोशिश यह होती है कि बच्चा जल्दी से जल्दी बेईमान, चालाक—हमारी कोशिश यह नहीं होती कि ज्यादा होशपूर्ण हो जाये। दुनिया में जब कभी सचमुच संस्कृति पैदा होगी और शिक्षा का ढंग होगा, तो पहली बात जो सिखाने की है बच्चे को, वह यह है कि ज्यादा होशपूर्ण हो। तुरीय सिखाने की बात है; और सब तो सिखाने जैसा नहीं है। बाकी सब कामचलाऊ है। और बच्चा जैसा ताजा है—जैसे सुबह तुम ताजे होते हो थोड़े—से—ऐसा बच्चा बहुत ताजा है; उसके जीवन की सुबह है। अगर वहीं उसे तुरीय का सूत्र मिल जाये और जागने की कला सिखायी जाये, तो का होते—होते शिखर पर पहुंच जायेगा, बुद्धत्व को उपलब्ध हो जायेगा।
एक ही चीज साधने जैसी है, और वह है : तीनों अवस्थाओं में तेल की भांति सिंचन करना—तुरीय का, होश का, विवेक का, जागरण का, अमूर्च्छा का, अप्रमाद का।
'ऐसा मग्‍न हुआ, स्व—चित्त में प्रवेश करे।ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश कर ही जाता है। मग्‍न: स्व—चित्ते प्रविशेत। और जो इस तुरीय में मग्न हो गया, और इससे बड़ी और कोई मग्नता नहीं है। तुम्हारी सब शराबें क्षणभर को रस देती होंगी, फिर रस सूख जाता है। तुरीय का रस कभी नहीं सूखता। वह रसधारा शाश्वत है। और जो उसमें मग्‍न हुआ; जो उसमें नाच गया; जो उससे भर गया; जिसके रोएंरोएं में तुरीय समा गया; जिसके होने का ढंग जागना हो गया; जिसके उठने—बैठने में तुरीय उठा और बैठा; जिसके चलने—फिरने में तुरीय चला और फिरा; जिसके जीवन का कण—कण तुरीय में सान कर गया; जो ऐसा मग्‍न हो गया वही स्व—चित्त में प्रवेश करता है। अन्यथा तुम स्वयं से अपरिचित रह जाओगे। इस संसार में सबसे परिचित हो जाओगे, बस स्वयं से अपरिचित हो जाओगे। यह सारा संसार तुम्हारा परिवार हो जाएगा, लेकिन अपने प्रति तुम अजनबी रह जाओगे।
तुम बता सकते हो बहुत कुछ दूसरों के बाबत, उनके नाम— धाम, पते—ठिकाने, तुम्हें मालूम है; लेकिन अपने संबंध में तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। और जब तक कोई स्वयं को न जान ले, उसका सब जानना दो कौड़ी का है। उस जानने का कोई भी मूल्य नहीं, क्योंकि आधार में अज्ञान है।
ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश करे। अगर तुम तीनों अवस्थाओं में सींचते रहोगे तुरीय को, तो जल्दी ही तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन के पौधे में तुरीय आ गया।
बुद्ध का चलना, उठना, बैठना भिन्न है। वे उठते भी हैं तो एक जागरण है; चलते है तो एक जागरण है। उनसे जो भी घटित होता है, वह मूर्च्छा में घटित नहीं हो रहा है। होश है। वे जो भी कर रहे हैं, सचेतन है।
तुमने अब तक जो भी किया है, अचेतन है। हालांकि तुम कहते हो कि मैंने जानकर किया, वह भी झूठ है। तुम्हारा बच्चा कपडे फाड़कर घर लौट आया है, कि स्लेट तोड़कर घर लौट आया है और तुमने उसे मारा है, डांटा है, डपटा है। तुमसे अगर कोई पूछे तो तुम कहोगे कि मैंने होशपूर्वक किया; बच्चे के सुधारने के लिए किया। लेकिन तुम थोड़ा विश्लेषण करना। सच में तुमने सोचकर किया है? सच में तुम होशपूर्वक थे कि तुम कुद्ध हो गये, तुम नाराज हो गये और तुमने बच्चे से बदला लिया है? बच्चे ने तुम्हारी आज्ञा तोड़ी, तुम उससे नाराज हो। अगर तुम नाराज हो तो तुम जो भी कर रहे हो, वह बेहोशी में है; क्योंकि क्रोध बेहोशी है। और तुम जो कह रहे हो, वह केवल समझाने की बातें हैं—तुम जो कह रहे हो, 'इसके सुधार के लिए...।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को मार रहा था। और कह रहा था— 'तेरे सुधार के लिए।और कह रहा था कि देख, एक तू है कि रोज दिन में दो बार तुझे न पीटूं तो कोई रास्ता नहीं निकलता और एक मैं भी था अपने बचपन में कि मेरे बाप ने मुझे कभी नहीं मारा। उसके लड़के ने उसकी तरफ देखते हुए कहा, 'इससे सिद्ध होता है कि तुम्हारे बाप भले आदमी रहे होंगे।
तुम भला मार रहे हो बेटे को, तुम समझ रहे हो कि तुम भला कर रहे हो; बेटा कुछ और समझ रहा है क्योंकि बेटा तुम्हारे मारने को नहीं देख रहा है, तुम्हारे क्रोध को देख रहा है। तुम जो भी कर रहे हो, तुम रैशनलाइजेशन, तुम उसके आस—पास तर्क खड़ा करते हो। तुम समझाते हो अपने को कि मैं बिलकुल ठीक कर रहा हूं।
कल ही एक मित्र अपनी पत्‍नी को लेकर मेरे पास आये। पत्नी उन्हें ध्यान नहीं करने देती। सोचती पली यही है कि यह ध्यान ढंग का नहीं है; पुराण—पंथी विचार हैं। लेकिन यह तो ऊपर—ऊपर है; अचेतन कारण बिलकुल दूसरा है। कोई पत्नी नहीं चाहती कि पति ध्यान करे। कोई पति नहीं चाहता कि पली ध्यान करे। क्योंकि जैसे ही कोई ध्यान करता है कि पुराना संबंध खतरे में पड जाता है। जैसे ही कोई ध्यान में गया कि वैसे ही काम से उसका रस कम हो जायेगा। यह अचेतन कारण है। बाकी सब बहाने हैं। बाकी सब ऊपर—ऊपर हैं। पत्नी यह पसंद भी कर सकती है कि पति वेश्यालय चला जाये; इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पति संन्यास की तरफ उत्सुक हो जाये, इससे फर्क पड़ता है। वेश्यालय जाकर भी पत्नी के बहुत विरोध में नहीं जा रहा है, क्योंकि स्‍त्री में अभी भी उत्सुक है। लेकिन ध्यान में उत्सुकता बढ़ने का अर्थ हुआ कि स्‍त्री में उत्सुकता खो जायेगी।
तो अगर पत्नी के सामने चुनाव ही हो कि पति वेश्याघर जाये कि संन्यास में उतरे तो पत्नी चुनेगी कि वेश्याघर चला जाये—अगर यही चुनाव हो। लेकिन पत्नी सोचेगी यह कि घर में बच्चे हैं, उनको पालना है और ध्यान में लग जाओगे तो कैसे पालोगे? ध्यान से बच्चों के पालने में कोई विरोध नहीं है; न ध्यान से दुकान में काम करने में कोई विरोध है। सच तो यह है कि ध्यानी जितनी कुशलता से कर पाता है, कोई भी नहीं कर पाता, क्योंकि ध्यान संसार से तोड़ता है भीतर गहरे में, बाहर से नहीं तोडता। बाहर तो सब खेल वैसा ही चलता रहता है, लेकिन खेल हो जाता है। भीतर एक नयी ज्योति जगने लगती है। बाहर का अभिनय तो जारी रहता है। लेकिन पति—पत्नी को कष्ट होते हैं। ऊपर से वे कुछ भी कहें और उनकी खुद की भी समझ यही होगी कि ठीक इसी कारण रुकावट डाल रहे हैं; लेकिन भीतर कारण दूसरा होता है—काम—वासना का संबंध है।
ध्यान में जाने का अर्थ हुआ कि काम—वासना का संबंध शिथिल होने लगेगा। पति की उत्सुकता धीरे— धीरे काम—वासना में कम हो जायेगी।
इधर मेरे पास रोज इस तरह के मित्र आते हैं, जो कहते हैं कि मेरी पत्नी की उत्सुकता ही नहीं थी काम में बिलकुल; लेकिन जबसे मैं ध्यान में उत्सुक हुआ तब से वह एकदम आक्रमक हो गयी है काम के लिए। आमतौर से स्रियों की उत्सुकता नहीं होती; क्योंकि निश्‍चित हैं, कोई भय नहीं, कोई खतरा नहीं है। वे इतनी भी उत्सुकता नहीं दिखाती काम में, बल्कि वे काम—वासना में ऐसी रहती हैं कि ठीक है तुम्हारे लिए। यह भी झूठ है। यह सरासर झूठ है। लेकिन जब पति खुद ही चारों तरफ चक्कर लगा रहा है, तो क्यों उत्सुकता दिखायें! तब वे अपने शील और चरित्र का भी भाव बनाये रखती है कि पति के लिए उनको इस गर्हित कृत्य में उतरना पड़ता है। लेकिन जैसे ही पति ध्यान में उत्सुक हो जाये, फिर बेचैनी खड़ी हो जाती है। अब खतरा है, और अब पति को खींच लेना शरीर में जरूरी है। और ऐसा ही पति को भी घटता है।
कुछ ही दिन पहले एक पली मेरे पास आयी। वह उत्सुक है, सच में उत्सुक है और परिणाम गहरे हो सकते हैं। उनके पति मेरी किताबें जला देते हैं घर के बाहर फेंक देते हैं। पति कहते हैं कि मेरे रहते हुए तुझे किसी और से पूछने जाने की जरूरत क्या है। पूछ, तुझे क्या पूछना है? जब मैं मौजूद हूं. .जब मैं न बता सकूं कुछ...! और पत्नी भलीभांति जानती है पति को कि वे क्या बता सकते हैं। लेकिन पति के अहंकार को चोट लगती है। पत्नी अगर किसी गुरु में उत्सुक हो जाये तो पति के अहंकार को भारी चोट लगती है कि कोई उनसे भी ऊपर कोई पत्नी के हृदय में बैठा जा रहा है। कष्ट है, लेकिन उस कष्ट को सीधा नहीं कहा जाएगा।
तुम जो भी कर रहे हो, जो भी कह रहे हो, वह कहना पका सच्चा नहीं है; भीतर कारण कुछ और होंगे। ध्यानी को सदा कारण खोजने चाहिए भीतर। उसे मूल कारण को पकड़ना चाहिए क्योंकि मूल कारण को बदला जा सकता है। अगर तुमने मूल कारण की जगह कुछ और कारण समझ रखा है, जो सच्चा नहीं है, तब तो कोई बदलाहट नहीं हो सकती। जैसे—जैसे तुम जागोगे, वैसे—वैसे तुम्हें जीवन में मूल कारण दिखायी पड़ेंगे। तब तुम पाओगे कि तुम बेटे पर इसलिए नाराज नहीं हो रहे कि उसने गलती की; तुम इसलिए नाराज हो रहे हो कि तुम्हें नाराज होने में रस है। गलती बहाना है। तुम नाराज दफ्तर से लौटे हो। तुम नाराज मालिक पर होना चाहते थे, लेकिन वहां तुम नाराज न हो सके। क्योंकि मालिक से नाराज होना महंगा धंधा है। नाराज अब तुम कहीं भी होना चाहते हो। पत्नी पर तुम नाराज हो नहीं सकते, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर, नाराजगी में वह मात कर देती है पति को। महंगा धंधा वह भी है; क्योंकि अगर वह नाराज हो गयी तो वह दो—चार दिन तक सिलसिला जारी रखती है। तो तुम बेटे को पकड़ लेते हो; और अब बेटा बेटा है! वह किताबें फाड़कर लौटेगा ही; अभी कोई बूढ़ा नहीं हुआ है। वह गलत बच्चों के साथ खेलेगा ही; क्योंकि अपने बच्चे को छोड़कर सभी बच्चे गलत हैं।
मैंने एक छोटे—से बच्चे से पूछा की तू अच्छा बच्चा है; सब लोग तुझे अच्छा मानते हैं? उसने कहा कि अगर मैं सच बताऊं तो मैं उस तरह का बच्चा हूं जिस के साथ मेरी मां मुझे खेलने न देगी। उसने कहा कि मैं उस तरह का बच्चा हूं कि जिसके साथ मेरी मां मुझे खेलने न देगी—अगर मैं सच बताऊं
तुम्हारे बच्चे को छोड़कर सब बच्चे गलत हैं! तो वह किसी के साथ खेला होगा; कपड़े फाड़े होंगे; किताब फट गयी होगी; पैर में चोट लग गयी होगी—तुम उसे पकड़ लोगे; वह कमजोर है! तुम रेचन अपने क्रोध का उस पर कर डालोगे। लेकिन तुम कहोगे, उसके सुधार के लिए कर रहे हैं।
जैसे—जैसे तुम जागोगे, तुम पाओगे, असली कारण दिखाई पड़ने शुरू हो गये। और जब असली कारण दिखाई पड़ते हैं, तो उन्हें छोड़ देना एकदम आसान है। फिर कोई कठिनाई नहीं है। तब तुम हंसोगे कि तुमने कैसा झूठा जीवन अपने चारों तरफ इकट्ठा कर रखा है! तुम एक झूठ हो गये हो! और इस झूठ को लेकर तुम सत्य तक पहुंचना चाहते हो; परमात्मा तक पहुंचना चाहते हो, तुम कभी न पहुंच पाओगे।
मेरे हृदय में संन्यास का अर्थ है—झूठ का जो जाल तुमने खड़ा किया है, उसे विसर्जित कर देना और जीवन को वास्तविक और प्रामाणिक—जैसे तुम हो, बुरे तो बुरे, क्रोधी तो क्रोधी; क्रोध को लीपा—पोती करके सुंदर मत बनाओ। घाव को फूलों से छिपाने से कुछ भी न होगा, घाव और बड़ा होगा। अपने को डांको मत, अपने को उघाड़ दो; कह दो ऐसा हूं मै—जो बुरा हूं तो बुरा, भला हूं तो भला। लेकिन इसके लिए कोई रैशनलाइजेशन, कोई तर्क, कोई विचार कि प्रक्रिया से छिपाने की कोशिश मत करो। और बुराइयों के लिए अच्छे कारण मत खोजो; क्योंकि तब बुराइयां कभी भी न मर सकेंगी, अगर तुमने अच्छे कारण खोज लिये।
तुम क्रोध भी करते हो तो अच्छे कारण खोजते हो। फिर क्रोध कैसे मरेगा? अच्छे कारण से तुम सहारा दे रहे हो; तुम क्रोध को भी अच्छा कर ले रहे हो; तुमने सजावट कर ली। तुमने कारागृह को भी घर जैसा बना लिया; चारों तरफ फूल—पत्ती सजाकर, अब तुम बड़े मजे में हो। तुम बीमारी को भी स्वास्थ्य जैसा समझकर बैठे हो! तब फिर छुटकारा नहीं हो सकता!
जागृत हुआ व्यक्ति जैसे—जैसे जागेगा, वैसे—वैसे पायेगा, उसका जागरण झूठ है; वैसे—वैसे पायेगा उसके सपने विकृत है; उसकी निद्रा अशांत है। उन तीनों तलों पर एक बेचैनी, एक परेशानी, एक उपद्रव चल रहा है। और जैसे—जैसे वह देखने लगेगा सचाई को और झूठे कारणों को हटा देगा, वैसे—वैसे वह पायेगा कि झूठे कारणों के हटते ही, सचाई के दिखाई पड़ते ही, उसका होश और सघन होने लगा।
तुम्हारी हालत वैसी है, कि मैने सुना है कि एक आदमी रात सोया। भूकंप आ गया आधी रात में; जोर के बादल गरजे, बिजलियां चमकी। पत्नी घबडा गयी। उसने पति को उठाकर कहा कि 'उठो जी! लगता है, मकान गिरेगा।उस आदमी ने कहा कि 'हम सिर्फ किराये से रहते है। शांति से सो जा। मकान अपना नहीं है।
तुम जिस मकान में रह रहे हो, वह भला तुम्हारा न हो, लेकिन गिरेगा तो तुम मरोगे। तुमने जो झूठ खड़ी कर रखी हैं—वें भला तुम्हारी न हों, क्योंकि बहुत—सी झूठ भी उधार है; कुछ गुरुओं से सीखी हैं तुमने, कुछ शास्त्रों से सीखी है, कुछ संप्रदायों से सीखी है; वे तुम्हारी भी नहीं हैं—मगर गिरेंगी तो मरोगे तुम। और तुम झूठ से घिरे हो। लेकिन झूठ कारगर मालूम होती है अभी; क्योंकि उससे तुम्हें चेहरे को सुंदर बनाने में सुविधा मिलती है। झूठ से तुम सजेसजे लगते हो। भीतर तो दुख है, पीड़ा है, ऊपर मुत्कुराहटें है। वे सब झूठी हैं। बेहतर है, तुम रोओ, आंसू गिरने दो। बह जाने दो रंग—रोगन, जो तुमने लगाया है ऊपर से। कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि केवल सचाई से ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है।
जैसे—जैसे तुम जागने को सींचोगे, वैसे—वैसे सब रंग—रोगन बहने लगेगा। इस रंग—रोगन के बह जाने का नाम ही संन्यास है। और जैसे—जैसे तुम भीतर सच्चे होते जाओगे, वैसे—वैसे तुम पाओगे कि बीमारी को मिटाना जरा भी कठिन नहीं है। लेकिन झूठी बीमारी को मिटाना बहुत कठिन है।
ऐसा समझो कि तुम कैंसर के मरीज हो। लेकिन डर के मारे तुम यह स्वीकार नहीं करते कि मैं कैंसर का मरीज हूं। क्योंकि फिर कैंसर घबड़ाता है; तो तुम समझते हो कि सर्दी—जुकाम है। फिर कुछ नहीं, सर्दी—जुकाम है! और तुम सर्दी—जुकाम का इलाज करते रहते हो। इससे क्या होगा? इससे कितनी देर तुम धोखा दोगे?
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि पहली बात साधक के लिए जान लेनी जरूरी है कि उसकी असली बीमारी क्या है। और सभी साधक उसको छिपाते है। और जो असली बीमारी को छिपा लेता है, उसका निदान ही नहीं हो पाता, डायग्नोसिस ही नहीं हो पति।। और तब तुम झूठी बीमारी का इलाज करते रहते हो। उस इलाज से भी तुम मरते हो, बच नहीं सकते; क्योंकि वह बीमारी ही कभी तुम्हारी बीमारी न थी।
मेरे पास लोग आते है। कोई पूछता है, ईश्वर की खोज करनी है; कोई कहता है, आत्मा की खोज करनी है। उनके चेहरे पर ऐसी किसी खोज का कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ता। यह खोज झूठी है। वे किसी और चीज की खोज में है। लेकिन ईश्वर के नाम के नीचे उसको छिपा रहे है।
एक मित्र आये—बूढ़े हैं—और कहा कि बस ईश्वर की तलाश कर रहा हूं तीस साल से। मैंने कहा, 'तीस साल काफी लंबा वक्त है! अगर ईश्वर तुमसे बच ही न रहा हो, तो अब तक मिल जाना चाहिए। ऐसा डर लगता है कि ईश्वर तुमसे बच रहा है। अगर वह बच रहा है, तो तीस जन्म भी...। और या फिर तुम कहीं और खोज रहे हो; उसके घर की तरफ तुम जाते नहीं। या तो तुम उससे बच रहे हो, या वह तुमसे बच रहा है। तुम मुझे ठीक—ठीक बताओ, मामला क्या है?'
'नहीं', उन्होंने कहा, 'मैं बिलकुल खोज कर रहा हूं ईश्वर की; और ध्यान—साधना सब कर रहा हूं। लेकिन कुछ फल नहीं होता।
'क्या फल चाहते हो?'
'कोई सिद्धि नहीं हाथ आती।
अब यह आदमी ईश्वर को खोज ही नहीं रहा है। यह आदमी सिद्धि खोज रहा है। ईश्वर का नाम रखा हुआ है इसने। सिद्धि भीतर खोज रहा है, ऊपर से ईश्वर का नाम रखा हुआ है। तुम बाजार में ही न पाओगे कि डिब्बों पर कुछ और लिखा है, भीतर कुछ और; तुम मंदिरों में भी ऐसे आदमी पाओगे, डिब्बे पर कुछ लिखा है, भीतर कुछ और।
एक पति चौके में नमक खोज रहा था। बड़ी देर हो गयी, तो उसकी पली ने कहा, 'इतनी देर लगाने की क्या जरूरत है? क्या तुम्हें नमक दिखाई नहीं पड़ता?' उसने कहा कि मैं खोज रहा हूं मुझे दिखाई ही नहीं पड़ता। उस ने कहा कि 'वह बिलकुल सामने रखा है—जिस डिब्बे पर हल्दी लिखी है। आंख के सामने रखा है। अंधे हो?'
सारी खोज ऐसी चल रही है! तुम्हें पका पता नहीं, तुम क्या खोज रहे हो; क्यों खोज रहे हो? जागने को जैसे—जैसे सींचोगे, तुम्हारे जीवन में एक दिशा आयेगी। व्यर्थ गिरेगा, सार्थक बचेगा। और जिस दिन बिलकुल सार्थक बच जाता है, उस दिन मंजिल दूर नहीं है।
ऐसा मग्‍न हुआ.... और जैसे—जैसे यह तुरीय की मग्रता भरेगी जैसे—जैसे यह मस्ती तुम्हारे जीवन में आयेगी... .यह मस्ती बड़ी अलग है! भाषा में तो हमें उन्हीं शब्दों का उपयोग करना पड़ता है, जिनका उपयोग होता है। शराब जब कोई आदमी पी लेता है, तो उसकी भी एक मस्ती है; लेकिन उस मस्ती में पैर डगमगाते है। यह मस्ती बिलकुल उलटी है। यहां डगमगाते पैर ठहर जाते है। शराब की एक मस्ती है; उसमें आदमी अपने को भूल जाता है। यह मस्ती बिलकुल उलटी है; यहां आदमी अपने को याद करता है। सेल्फ—रिमेम्बरिग, सुरति आ जाती है, स्मृति आ जाती है। एक मस्ती शराब की है कि उस नशे में आदमी भूल—चूक करता है। गलत भटक जाता है। और एक मस्ती तुरीय की है, जहां आदमी से भूल—चूक होनी असंभव हो जाती है।
अकबर निकलता था एक दिन, हाथी पर सवार और एक आदमी खड़े होकर उसे गाली देने लगा। छप्पर पर खड़ा था। निश्‍चित उसी वक्त पकड़वा लिया गया। दूसरे दिन दरबार में हाजिर किया गया। अकबर ने पूछा कि 'नासमझ! यह तू क्या कर रहा था?' उसने कहा कि मैं था ही नहीं। मैंने शराब पी ली थी। मैंने गाली दी ही नहीं; वह शराब ही गाली दे रही थी। अब तो मैं खुद ही पछता रहा हूं जब से होश आया। और आप मुझे सजा मत दें, क्योंकि मै था ही नहीं।
और अकबर ने स्थिति समझी, क्योंकि अकबर तुरीय में बहुत उत्सुक था। अकबर बड़ी खोज में था कि कहीं से सूत्र मिल जाये जागृति का। उसने बात समझी कि बेहोश आदमी को क्या सजा देनी! उससे गलती होगी, यह निश्‍चित है। उससे ठीक हो जाये, यह चमत्कार है।
तुमसे कभी कुछ ठीक हो जाता है तो यह चमत्कार है। तुमसे गलत होता है, यह स्वाभाविक है; क्योंकि तुम होश में नहीं हो। गुरजिएफ कहता था कि तुमने जो पाप किये हैं, इनके कारण परमात्मा तुम्हें नरक नहीं भेज सकता, क्योंकि ये सब तुमने बेहोशी में किये हैं। बेहोश आदमी को तो अदालत भी माफ कर देती है। परमात्मा तुम्हें नरक नहीं भेज सकता, तुमने ये जो पाप किये हैं, इनके लिए क्योंकि तुमने ये सब बेहोशी में किये है वह इतना समझदार तो होगा ही, जितनी अदालते है। अगर यह सिद्ध हो जाए कि आदमी ने शराब की हालत में किसी की हत्या भी कर दी, तो भी अदालत उसे माफ करेगी; क्योंकि वह होश में त्रहीं था। कम सजा देगी। सजा भला शराब पीने के लिए दे, लेकिन हत्या के लिए क्या सजा देनी! वह आदमी था ही नहीं।
तुमने पाप भी किये है, वे भी बेहोशी में; तुमने पुण्य भी किये है, वे भी बेहोशी में। इसलिए तुम्हारे पाप और पुण्यों में बहुत फर्क नहीं है। उनका गुणधर्म एक—सा ही है। तुम घर बसाओ कि तुम संन्यास लेकर मुनि हो जाओ, कोई फर्क नहीं है। तुम बेहोश हो! तुम दुकान में बेहोश हो, तुम मंदिर में भी। तुम दफ्तर में बेहोश हो, स्थानक में भी बेहोश ही रहोगे। कोई फर्क पड़नेवाला नहीं। कपड़े पहनकर बेहोश हो, नग्न होकर बेहोश रहोगे। असली सवाल बेहोशी के तोड्ने का है; असली सवाल कृत्यों को बदलने का नहीं है। कृत्यों को बदलना तो बिलकुल आसान है। लेकिन एक कृत्य में बेहोशी है, दूसरे कृत्य में बेहोशी आ जायेगी।
और जिसने, ऐसा मग्‍न हुआ, तुरीय को साधा, वह स्व—चित्त में प्रवेश कर जाता है।
जैसे ही कोई स्व—चित्त में प्रवेश करता है, उसके जीवन में पहली बार प्राण समाचार का उदय होता है। प्राण समाचार से अर्थात सर्वत्र परमात्म—ऊर्जा का ही स्फुरण है, ऐसे अनुभव से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और जैसे ही कोई व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, तत्क्षण वह जान लेता है यही दीया सबमें जल रहा है।
जब तक तुमने अपने को नहीं देखा, तभी तक दूसरा तुम्हें पराया मालूम पड़ रहा है। जब तक तुमने खुद को नहीं पहचाना, तभी तक तुम दूसरे को भी दुश्मन समझ रहे हो। जैसे ही तुमने स्वयं को देखा, वैसे ही तुम सभी के मिट्टी की दीवारों में घिरे हुए प्रकाश के दीये को देख लोगे; समदर्शन को उपलब्ध हो जाओगे। फिर न कोई मित्र है, न कोई शत्रु न कोई अपना, न कोई पराया। तब वस्तुत: तुम ही सबके भीतर छाये हुए हो। तब एक ही विराजमान है।
प्राण—समाचार—इसे शिव—सूत्र में कहा है कि अब तुम्हें वह समाचार मिल गया कि सब तरफ एक ही प्राण है। सभी दीयों में एक ज्योति है। सभी बूंदों में एक ही सागर का निवास है। किसी का दीया काला है, किसी का गोरा है; कोई लाल मिट्टी का बना, कोई पीली मिट्टी का बना; कोई इस शक्ल, कोई उस शक्ल; कोई यह नाम, कोई वह रूप; लेकिन भीतर की ज्योति का न कोई नाम है, न कोई रूप है। जिसने अपने को जाना, उसने अपने को सबमें जान लिया।
पहली घटना घटती है, तुरीय से, कि तुम स्वयं को जानते हो; तत्क्षण दूसरी घटना घटती है कि तुम परमात्मा को जान लेते हो। आत्मा को जाना इधर, उधर परमात्मा उघड गया।
परमात्मा को सीधा मत खोजो। सीधा तुम खोजोगे तो वह कल्पना ही होगी। तुम बैठे कल्पना कर सकते हो कि कृष्ण बाँसुरी बजा रहे है; इससे कोई परमात्मा न मिल जायेगा। यह सपना है। अच्छा सपना है। मगर इस सपने में और दूसरे सपनों में कोई भी भेद नहीं है; मन कल्पना कर रहा है। तुम कल्पना कर सकते हो कि महावीर के दर्शन हो रहे है; कि बुद्ध के दर्शन हो रहे हैं; कि राम के दर्शन हो रहे है। और कई लोग यही कल्पना करते रहते है; बैठे हुए सपने देखते रहते है। धार्मिक सपने है, मगर सपने ही हैं।
परमात्मा को सीधा खोजने का कोई उपाय ही नहीं है; क्योंकि तुम ही उसके द्वार हो। जब तक तुम अपने द्वार से न गुजरोगे, उसका द्वार बंद है। आत्मा परमात्मा का द्वार है। इधर खुला द्वार, इधर तुमने जाना अपने को कि परमात्मा प्रकट हो गया। तब तुम्हें सब तरफ वही दिखाई पड़ने लगेगा। वृक्ष में, पत्थर में, चट्टान में वही आबद्ध है। कहीं बहुत सोया है। कहीं बहुत जागा है। कहीं सपने में खोया है। कहीं नींद है, कही होश है; लेकिन वही है। उस एक की प्रतीति को शिव ने प्राण—समाचार कहा है। वह बडे—से—बडा समाचार है। लेकिन स्वयं को जाननेवाले को उपलब्ध होता है।
और जब कोई व्यक्ति समदर्शन में ठहर जाता है, वह शिवतुल्य हो जाता है—शिवतुल्यो जायते। फिर वह स्वयं परमात्मा हो गया। तुम तभी तक 'मैं' हो, जब तक तुम्हें अपना पता नहीं है। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगती है। तुम तभी तक चिल्लाये चले जा रहे हो मैं—मैं—मैं, जब तक तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। जिस दिन तुम्हें पता लगेगा, उसी दिन 'मैं' भी गिर जायेगा, 'तू, भी गिर जायेगा। उस दिन तुम शिवतुल्य हो जाओगे। उस दिन तुम स्वयं परमात्मा हो। उस दिन अहर्निश नाद उठेगा—अहम् ब्रह्मास्मि। उस दिन तुम यह दोहराओगे नहीं, यह तुम जानोगे। उस दिन यह तुम्हें समझना नहीं पड़ेगा; यह तुम्हारा अस्तित्व होगा, यह तुम्हारी अनुभूति होगी। उस दिन सब तरफ एक का ही नाद, एक का ही निनाद होगा। जैसे बूंद सागर में खो जाये, सीमा मिट जाये, असीम हो जाये! तब तुम शिवतुल्य हो जाओगे।
शिव की यही चेष्टा है। बुद्धों का यही प्रयास है कि तुम भी उन जैसे हो जाओ। उन्होंने जो जाना है—परमानंद, वह तुम्हारी भी संपदा है। तुम अभी बीज हो, वे वृक्ष हो गये हैं। वे वृक्ष तुम से यही कहे चले जा रहे है कि तुम बीज मत बने रही, तुम भी वृक्ष हो जाओ। और तब तक तुम्हें शांति न मिलेगी जब तक तुम शिवतुल्य न हो जाओ।
इससे कम में आदमी राजी होनेवाला नहीं। इससे कम में आत्मा तृप्त न होगी। प्यास बनी ही रहेगी, कितना ही पियो संसार का पानी, प्यास बुझेगी नहीं, जब तक कि परमात्मा के घट से न पी लो। तब प्यास सदा के लिए खो जाती है। सब वासनाएं सब दौड़, सब आपाधापी समाप्त हो जाती है; क्योंकि तुम वह हो गये, जो परम है। उसके ऊपर फिर कुछ और नहीं।
तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था को तेल की तरह सिंचन करो, ताकि ऐसे मग्‍न हो जाओ कि स्व—चित्त में प्रवेश हो; ताकि प्राण—समाचार मिले; ताकि तुम जान सको कि सबमें एक ही विराजमान है; समदर्शन हो; ताकि तुम शिवतुल्य हो जाओ।

 आज इतना ही।

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