हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा
न्यूजर्सी—दुर्ग (अध्याय—05)
न्यूजर्सी—दुर्ग (अध्याय—05)
ओशो ने
लगभग बीस शिष्यों
के साथ भारत
छोड़ दिया।
अलविदा कहते
हुए उनके संन्यासी
हाथ जोड़े
उनके द्वार के
बाहर रास्ते, कार
पोर्च में तथा
आश्रम की सड़क
के दोनों और कतार
में खड़े थे।
विवेक और निजी
चिकित्सक
देवराज के साथ
उन्होंने
मरसीडीज़ से
प्रस्थान
किया।
विवेक, जिसमें
बच्चों जैसी
सुकुमार
चंचलता थी जो
उसके चारित्र्य
बल और किसी भी
परिस्थिति
को संभालने की
उसकी योग्यता
को छिपाए रखती
और देवराज जो
एक लम्बा उँचा
चाँदी जैसे
बालों वाला
सुशिष्ट-सुरुचिपूर्ण
युवक था-दोनों
एक सुंदर
जोड़ी बना रहे
थे।
मैंने एक
घंटे के
उपरांत प्रस्थान
किया,
मुझे लगा कि
आश्रम का अंत
हो जाएगा और
एक प्रकार से
हो ही चुका था; क्योंकि
वह पुन: कभी
वैसा न हो
पाया। हो भी
कैसे सकता था।
कम्यून एक
उर्जा एक देह
की भांति था; हम सब उर्जा
दर्शनों और ध्यान
के माध्यम से
एक दूसरे से
जुड़े हुए थे।
और यह सोचकर
कि अब हम विश्व
भर में बिखर
जाएंगे। मैं
उदास हो गई।
अब मेरा मार्ग—शेष जगत में क्या हो रहा है उससे बेखबर और बेपरवाह—लम्बे चोगे पहने एक जादुई तराशा जा रहा था और यह तराशना किसी शल्य चिकित्सा की भांति हो रहा था। मेरे अंतर्जगत का हीरा तराशा जा रहा था और यह तराशना किसी शल्यचिकित्सा की भांति हो रहा था।
अब मेरा मार्ग—शेष जगत में क्या हो रहा है उससे बेखबर और बेपरवाह—लम्बे चोगे पहने एक जादुई तराशा जा रहा था और यह तराशना किसी शल्य चिकित्सा की भांति हो रहा था। मेरे अंतर्जगत का हीरा तराशा जा रहा था और यह तराशना किसी शल्यचिकित्सा की भांति हो रहा था।
पैन एम
विमान में ओशो
देवराज और
विवेक, ओशो के लिए
खाना पकाने
वाले और उनके
कमरे की सफाई
करने वाली
निरूपा सभी
प्रथम दर्जे
में बैठ गए।
ओशो पूना के
जीवाणु-मुक्त
परिवेश से
पहली बार बाहर
आए थे। हमने
केबिन को अच्छी
तरह साफ करने
का प्रयत्न
किया था पिछली
उड़ान के
यात्रियों की
इत्र या
सिगरेट की गंध
को कम करने के
लिए हमने सब
सीटों पर श्वेत
स्वच्छ
चादरें बिछा
दी गई थी।
भारत को और
अपने मित्रों
को
अश्रुपूर्ण
विदाई देने के
बावजूद परिस्थिति
की नवीनता—ओशो
के साथ विमान
से कहीं और
नहीं बल्कि यात्रियों
की इत्र या
सिगरेट की गंध
को कम करने के
लिए हमने सब
सीटों पर श्वेत
स्वच्छ
चादरें बिछा
दी थी।
भारत को और
आपने मित्रों
को
अश्रुपूर्ण
विदाई देने के
बावजूद परिस्थिति
की नवीनता—ओशो
के साथ विमान
से कहीं ओर
नहीं बल्कि
अमरीका जाना—उमंगपूर्ण
लग ही थी। दो
भाई जो पूना
में कराटे सिखाते
थे, वे
भी हमारे साथ
थे। संयोग से
वे दोनों
फोटोग्राफर
थे। वे ओशो के
हर कृत्य का
चित्र खींच
रहे थे। ऊपर
नीचे आते जाते
वे वहां की
ऐसी बातें
सुना रहे थे
जिनकी कम कल्पना
भी नहीं कर
सकते थे। जैसे
शैम्पेन
पीना—पीना
नहीं तो कम से
कम गिलास का
हाथ में
पकड़ना इत्यादि।
शीला भी
वहां थी।
अमरीका की
यात्रा के
दौरान वह ओशो
की सचिव होने
वाली थी। पहले
उसने एक परिचायक
का अपमान
किया। फिर एक
परिचारिका
का। कुछ ही
मिनटों में
दूसरे दर्जे
का सारा दल
हमारा शत्रु
हो गया। उसने
समझाने की
पूरी कोशिश की
कि ज्यूबॉय
कहकर उस
परिचारक का
अपमान करने का
उनका कोई
इरादा नहीं
था। उसका
विवाह एक
यहूदी से हुआ
है। और वह
स्वयं एक यहूदी
है। लेकिन तब
तक बहुत देर
हो चुकी थी।
उसकी तीखी ज़ुबान
काम कर चुकी
थी। मेरे लिए
यह शीला के
चरित्र या व्यक्तित्व
की खास बात
थी। वह एक
अनगढ़ हीरा
थी। ओशो और लोगों
पर काम करने
के उनके ढंग
के बारे में
मेरी समझ यह
है कि वे व्यक्तित्व
के पार देखते
है। वे हमारी
सम्भावना, हमारे
बुद्धत्व को
देखते है। और
हमारी महान क्षमताओं
में वे पूर्ण
आस्था रखते
है। ‘मुझे
अपने प्रेम पर
भरोसा है,’
मैंने उन्हें
कहते सूना है।
‘मुझे विश्वास
है कि मेरा
प्रेम तुम्हें
बदल देगा।’
न्यूयॉर्क
हवाई अड्डे पर
हमारा मिलना
सुशीला से
हुआ। उसके व्यक्तित्व
और डील-डोल को
देखते हुए उसे
धरती मां के
रूप में
वर्णित किया
जा सकता है।
बाहर सतह पर
से बहुत कठोर
और मुंहफट। इस
अवसर पर वह
कस्टम विभाग
और पूरे सामान
की देख-रेख का
कार्य भार
संभाल रही थी।
सब कुली उसके
लिए काम कर
रहे थे। और जब
सामान का
विवरण देने का
समय आया तो वह
सब जगह दिखाई
दे रही थी। ओशो
को इस
कोलाहलपूर्ण
हवाई अड्डे से
निकाल कर ले जाना
और सब तरह गी
गंध से बचाना
ताकि उन्हें
दमे का दौरा न
पड़ जाए कितनी
चिंता का विषय
था। मुझे पता
था कि पूना
में इत्र की
हल्की सी गंध
से उन्हे दमे
का दौरा पड़
गया था। एक
बार तो नए
पर्दों के
कपड़े की गंध
से भी। उनका
शरीर बहुत ही
नाजुक था और
विशेषकर अब तो
कमर और पीठ के
दर्द के कारण
और भी दुर्बल
हो गया था।
अगर किसी
अधिकारी ने
उन्हें रोक
लिया और
प्रतीक्षा
करने को कहा
तो हम क्या
करेंगे।
लेकिन ओशो पर
इन चिन्ताओं
की हल्की सी
छाया भी दिखाई
नहीं दे रही
थी। वे शांत भाव
से बिना
दाएं-बाएं
देखे हवाई
अड्डे से बाहर
आ गए। मेरा
विचार है कि
वे स्वयं में
इतने संतुष्ट
और निश्चिंत
थे कि आस-पास
का वातावरण
उन्हें कभी
छू ही नहीं
पाता था।
हवाई अड्डे
के बाहर—न्यूयॉर्क, मुझे
विश्वास ही
नही आ रहा था।
न्यूजर्सी
तक का कार का
सफर स्तब्ध
कर देनेवाला
था। सड़को पर
कोई व्यक्ति
नहीं था। एक
आवारा कुत्ता
तक दिखाई नहीं
दिया। मीलों
तक घर ही घर
थे। कारें थी; लेकिन
जीवन का कोई
चिन्ह नहीं
था। आकाश शांत
और सुरमई था।
बादल न थे। न
सूर्य। यह
भारत के
बिलकुल
विपरीत था।
जहां बढ़ती
जनसंख्या और
निर्धनता के
बीच भी जीवन
और रंगों से
भरपूर एक
ह्रदय धड़कता
है। मैंने न्यूजर्सी
की निर्जन
सड़कों को देखा
और एक क्षण के
लिए इस विचार
से आतंकित हो
गई कि हो सकता
है। कोई अणु
विस्फोट हो
गया हो और सब
मर गये हो।
हम पहाड़ी
पर देवदार के
वृक्षों के
बीच से गुजरती
हुई एक
घुमावदार
सड़क से होते
हुए एक दुर्ग
से पहुंचे। वह
एक छोटी सी
पहाड़ी की
चोटी पर स्थित
था और उसके
चारों और लॉन
के और फिर
जंगल था। उसमे
एक मीनार थी, जंगला था, गोल शीशे
वाली और रंगीन
कांच वाली
खिड़कियां थी।
उसी घुमावदार जंगल
की सड़क पर प्रवेश
द्वार से ठीक
पहले एक मठ था
और उसके वासी
श्वेत
परिधान में
जंगल में
विहार कर रहे
थे। वह मठ न्यूजर्सी
उपनगर के ठीक
मध्य में स्थित
था। ऐसा लगा
रहा था कि कोई
ग्रिमज की परी
कथाओं को सूना
रहा हो। मैं
लगभग तीन संन्यासियों
के साथ लॉन
में बैठ गई। मैं
बहुत थकी हुई
थी। ओशो के
आने की
प्रतीक्षा
करते हम सब
औंधे लेट गए
और सो गए। तभी
कोई चिल्लाया
कि वे आ रहे
है। हमने अपने
सोये हुए शरीर
उठाए और उन्हें
नमस्कार
करने के लिए
हाथ उठाए।
सबकुछ कितना
नया लग रहा
था। मुझे ख्याल
भी न रहा कि
मैं भी तो ओशो
के साथ विमान
से आई थी,
मैं लॉन में
बैठी उनके आने
की प्रतीक्षा कर
रही थी जैसे
कि उन्हें
पहली बार देख
रही होऊं।
वर्षों तक
पूना मे हमने
ओशो को एक ही
ढंग का रोब
(चोगा) पहने
देखा था सफेद और
ऊपर से नीचे
तक सीधा। में
घंटों रोब की
आस्तीन पर
छुरी सी तीखी
तह (क्रीज़)
बिठाने के लिए
इस्तिरी
करती रहती क्योंकि
ऐसा ही करने
का निर्देश
था। अब उन्होंने
रोब के ऊपर
बुनी हुई सफेद
काले किनारे वाली
लम्बी जैकेट
और सिर पर
बुनी हुई काली
टोपी पहन रखी
थी। वे सबको
देखकर सदा
इतना ही
पुलकित होते।
जैसे ही उन्होंने
हमें नमस्कार
किया
उनकी आंखों
में एक चमक आई
और मुस्कराते
हुए
गरिमापूर्ण
ढंग से प्रवेश
द्वार तक जाती
पत्थर की
सीढ़ियों की
और चले गए। वे
हमारे साथ कुछ
क्षणों के लिए
आंखें मूंदे
बैठे रहे......मुझे
स्मरण हो आया
कि भारत में
या अमरीका में
जब मेरी आंखें
मूंदी होती है, मैं उसी
जगह होती हूं।
जब मेरी आंखें
बंद होती है
तब में भारत
में होऊं या
अमरीका में
मैं वही उसी
जगह होती हूं।
भारत में
आश्रम में किए
ध्यान की मौन
शांति मैं
अपने भीतर लिए
चल रही थी। जब
मेरा मन शांत
होता वहां कोई
देश न होता।
कोई संसार न होता।
ओशो के
कमरे अभी
तैयार हो रहे
थे। इस लिए
दुर्ग के शिखर
वाले भाग के
दो छोटे कमरों
में उनके रहने
की अस्थायी
रूप से व्यवस्था
कर दी गई थी।
जहां वह लिफ्ट
द्वारा पहुंच
सकते थे।
पूना के
साफ-सुथरे
आश्रम की हलचल
से दूर शांत धुलाई
कक्ष में काम
करने के कारण
में जरा बिगड़
गई थी। वास्तव
में किसी को
भी उस
धुलाई-कक्ष
में प्रवेश की
अनुमति नहीं
थी। मा अवश्य
अपने को महत्वपूर्ण
समझने लगी थी।
क्योंकि अब
यह जानकर कि
मेरा धुलाई
कक्ष तहख़ाने
में है। वे
घबरा गई।
यद्यपि एक भाग
साफ कर दिया
गया था। फिर
भी तहखाना तो
तहखाना ही था।
कूड़े-कबाड़
ओर मकड़ी के
जालों से भरे
हुए तहख़ाने
से गुजर रहे
पाईप बीच-बीच
में फट जाते
और उनमें भाप
या गैस के फ़व्वारे
फूट पड़ते।
जब मुझे
पता चला कि
मेरे लिए एक
बाल्टी तक
नहीं है तो
मैंने अच्छा
विरेचन कर
डाला;
लेकिन साथ ही
आधुनिक जगत के
चमत्कार
देखकर आश्चर्यचकित
हो गई जब उसी
दिन बाल्टी
ही नहीं बल्कि
धुलाई मशीन भी
आ गई। महल की
मीनार पर
मैंने कपड़े
सुखाने के लिए
एक रस्सी
बाँध दी। घुमावदार
सीढ़ियों से
ऊपर जाते हुए
मुझे स्मरण
हो आया कि
कितनी बार मैं
पेरिस के नॉस्त्रेडेम
चर्च की मीनार
पर चढ़ी थी।
(नहीं,
कुबड़े की तरह
नहीं) ऐसी
सीढ़ियों पर
चढ़ते या
उतरते हुए एक
विशेष स्थान
पर (लन्दन
में कुछ
भूमिगत स्टेशन
है जो ऐसा ही
एहसास देते
है।) एक आवाज़
मेरे भीतर
कहती है, ‘ये सीढ़ियां
अनंत है,
ये कभी समाप्त
नहीं होंगी।’ और हमेशा एक
घड़ी के लिए
मैं इस पर
विश्वास कर
लेती हूं और
अपने जीवन को
सदा के लिए
अपने समक्ष
पत्थर की
सीढ़ियों पर
फैला हुआ
देखती हूं।
लेकिन घुमावदार
तंग सीढ़ियों
का अंतिम मोड़
भी है। जहां
मैं जल्दी से
लकड़ी के भारी
दरवाजे के
निकल मीनार के
शिखर पर खड़ी
हो जाती हूं।
मेरे नीचे है
हरे खेतों और
घरों का समुद्र
और फिर घना
कोहरा और
कोहरे में
तैरता हुआ एक
और ग्रह जिसे
न्यूयॉर्क
शहर कहते है।
में इसे साफ़
देख सकती हूं। और पीछे
है सुलगाते
हुआ गुलाबी
पुट लिए
केसरिया
आकाश।
ओशो ने बच्चों
जैसे उत्साह
के साथ अपने
नई अमेरिकन
जीवन शैली को
परखा और उस पर
प्रयोग किया।
वर्षों से
उन्होंने एक
ही प्रकार का
भोजन खाया था:
चावल,
दाल और तीन
सब्जियां।
उनके आहार का
सख्ती से
निरीक्षण
किया जाता थ
ताकि मधुमेह के
रोग जिससे वे
पीड़ित थे—को
नियंत्रण में
रखा जा सके।
देवराज रसोई
में कुर्सी पर
बैठ कैलोरी की
मात्रा निश्चित
करने के लिए
खाद्यान्न
के प्रत्येक
ग्राम को
तोलता। ओशो के
दुर्बल,
नाजुक स्वास्थ्य
को समझना मेरे
लिए मुश्किल
था। मुझे स्मरण
है, लंदन
में ध्यान
केंद्र की
सफेद सुरंग
में बैठे हुए
जब मैंने ओशो
के हाथ का एक
चित्र देखा था; मैंने कहा
था कि वे
बुद्ध पुरूष
हो ही नहीं सकते।
क्योंकि
उनकी जीवन
रेखा बहुत
छोटी है। वे
अवश्य मेरे
ईसाई संस्कार
होंगे। जिनके
कारण मैं
सोचती थी कि
बुद्धत्व का
अर्थ है कि व्यक्ति
अमर हो गया
है।
यह हमारे
लिए बहुत बड़ी
बात थी कि ओशो
नए-नए भोज्य
पदार्थों के
साथ प्रयोग कर
रहे थे—अमेरिकी
सीरियल, आमलेट और एक
बार स्पघैटी भी, जिसे उन्होंने
बिना छुए ही
यह कहकर लौटा
दिया था कि यह
भारतीय कीड़े
केचुओं जैसी
लगती है।
वे कुछ समय
के लिए
टेलीविज़न
देखते और न्यूयॉर्क
शहर तक घूमने
जाते।
ओशो पूरे
घर में घूमते
और ऐसे स्थानों
पर जा पहुंचते
जहां किसी ने
सोचा भी नहीं
था। हम स्तब्ध
रह जाते। और
हर्ष-ध्वनि
करते चीख़
उठते क्योंकि
हमनें उन्हें
बुद्धा हाल
में जाकर
कुर्सी में
बैठने के
अतिरिक्त
कहीं देखा ही
नहीं था। वे
तहख़ाने में
मेरे धुलाई
कक्ष में आए।
जब मैं मुड़ी
उन्हें
द्वार पर खड़े
पाया। मैं
इतनी चकित हुई
कि गर्म इस्तरी
अपने हाथ पर
रख दी।
दुर्भाग्य
से सही समय पर
सही स्थान पर
न होने के
कारण अनीश
(इटालियन) को
दुर्ग में सैर
के समय ओशो के दर्शन
नहीं हुए। तो
उसने ओशो को
लिखा कि क्या
वे जान बूझकर
उससे दूर रह
रहे थे। वे
उससे मिलने
गए। वह सफाई
कर रही थी।
उन्होंने
बड़े स्नेह पूर्वक
उसके गिर्द
अपनी बाजू डाल
दी।
ओशो सदैव
हमारे लिए
बहुत दूर रहे।
सदैव एक बुद्ध, जिन्होंने
हमे मंच से
सम्बोधित
किया था अथवा
ऊर्जा दर्शन
में हमें
अज्ञात लोको
में गति करने
में सहायता की
थी। इसीलिए यह
सब हमारे लिए
अनुभव था। वे
कहीं भी अकस्मात
प्रकट हो
जाते। और मैं
दिन के समय और
भी सजग रहने
लगी। मुझे उन
ज़ेन सदगुरूओं
की कथाएं स्मरण
हो आती। जो
अचानक छड़ी
लिए प्रकट हो
जाते और शिष्यों
पर चोट करते—भेद
इतना था कि
ओशो छड़ी नहीं
एक प्रेम भरी
मुस्कान
लिये आते।
लेकिन मैं
उन्हें कभी
चौंका नहीं
पाई। एक बार
मैंने उनसे पूछा
था कि क्या
वे कभी चोंके
है।
ओशो: ‘’कोई है ही
नहीं जो चौंक
उठे। मैं ऐसे
अनुपस्थित
हूं जैसे में
मृत्यु के
पश्चात
होऊंगा। अंतर
केवल इतना
होगा कि अब
मेरी अनुपस्थिति
देह युक्त है
और तब मेरी
अनुपस्थिति
देह मुक्त
होगी।‘’
कुछ भी हो
मैं तो निश्चित
रूप से हैरान
ही नहीं बल्कि
अपने परिवेश के
परिवर्तन से
स्थाई रूप से
घबराई हुई थी।
मुझे कम्यून
की याद आती थी।
हालांकि मुझे
ओशो के साथ
होने का
सौभाग्य भी
प्राप्त था।
मुझे हमेशा
ऐसा लगा कि
अमेरिका अभी
जन्मा ही
नहीं;
एक आकारहीन
आभूषण की
भांति है
जिसमें अभी
आत्मा का
प्रवेश नहीं
हुआ; जबकि
भारत में एक
एहसास है
पुरातन का,
जादुई गहराई
का।
टेलीविज़न
देखने का मेरा
अपना अनुभव यह
है कि यह किसी
नशीले पदार्थ
की भांति व्यसन
भी है और
खतरनाक भी है।
पहल कुछ दिन
मैंने टेलीविज़न
देखा। प्रत्येक
रात्रि में
दुःख स्वप्न
से चीख़ती हुई
जाग जाती। एक
रात तो मैंने
दुर्ग के
प्रत्येक व्यक्ति
को जगा दिया।
जब मैंने
आंखें खोली तो
निरूपा मेरी
सिर सहला रही
थी। और यह
कहकर मुझे शांत
कर रही थी कि
सब ठीक है: सब
ठीक है। मैंने
टेलीविजन
देखना बंद कर
दिया। और अब
मुझे इस बात का
आश्चर्य
नहीं होता कि
कैसे लोगों के
मस्तिष्क
टेलीविज़न
देख-देखकर
कचरे और हिंसा
से भरे पड़े
है।
मैं मीनार
पर अकेली आंखें
मूंदकर बैठ
जाती लेकिन ध्यान
उतनी गहराई से
न घटता। उन
दिनों प्रेम
में पड़ जाने
की हवा चल रही
थी। मैं और
विवेक एक ही व्यक्ति
के प्रेम में
पड़ गई; लेकिन कही
कोई झगड़ा कोई
ईर्ष्या
नहीं थी;
बल्कि हम इस
बात को लेकर
हंसा करती थी।
मैं जानती हूं
कि साधारणतया
इस बात को
विचित्र समझा
जाता है।
विचित्र ही
नहीं बल्कि
ऐसा माना जाता
है कि यदि
ईर्ष्या ही
नहीं तो व्यक्ति
वास्तव में
प्रेम ही नहीं
करता। परंतु
मेरी समझ में
यह नहीं आ रहा
था कि सत्य
इसके विपरीत
है। जहां
ईर्ष्या है
वहां प्रेम
नहीं है। आनन्दो
जो मुझे लंदन
के ध्यान
केंद्र में
मिली थी—तथा
ओशो के चिकित्सक
देवराज को भी
यहां से मिलना
था और ऐ दूसरे
के प्रेम में
पड़ना था-उस
प्रेम में जो
कई वर्षों तक
चला।
पिछले छह
वर्षों से मैं
वैसे ही
बेढंगे गैरिक रोब
पहन रही थी
जैसे अन्य
लोग पहन रहे
थे। और स्वयं
को नए परिवेश
के अनुसार
ढालने का समय
आ गया था। हमारे
वस्त्र अब भी
चढ़ते सूर्य
के रंगों के
थे और अब भी हम
माला पहन रहे
थे लेकिन अब
हम अमेरिकन
वस्त्र
पहनने लगे थे।
जहां तक मेरा
सवाल था मेरी पोशाक
अत्यधिक
आधुनिक थी।
जब हम
छोटी-छोटी
टोलियों में
किसी भी चीज़ को
देखकर उत्तेजित
हो हंसते हुए
अपने इन नए
इलाक़े को
देखने निकल
पड़ते तो मुझे
पक्का है कि
हम बहुत
विचित्र लगते
होंगे। वास्तव
में हम किसी
दूसरे ही जगत
से आ रहे थे।
ओशो ने
अपना ड्राइविंग
प्रशिक्षण
आरम्भ किया।
एक दिन शिला
और उसका पति जयानंद
एक काली कनवर्ट
(परिवर्तनीय)
रॉल्स रॉयस
में आए। ओशो
विवेक के साथ
महल की सीढ़ियों
से उतर कर
नीचे आए। उन्होंने
गुरजिएफ की स्टाइल
की तीन काली
रूसी टोपियों
गाड़ी में
बैठे व्यक्तियों
के सिर पर
रखीं और फिर
कार का स्टीयरिंग
संभाल लिया।
कार पहाड़ी से
नीचे की और
दौड़ना शुरू
हो गई। उसका हुड
ऊपर नीचे, नीचे-ऊपर
होता जा रहा
था। कार चलाते
हुए ओशो ने
कार के एक-एक
बटन को दबाकर
देखा। हम सब
दर्शक स्तब्ध
थे क्योंकि
हमने सोचा भी
न था कि वे स्वयं
कार चलाएँगे।
उन्होंने
कोई बीस वर्ष
पहले कार चलाई
होगी। वह भी
कोई भारतीय
छोटी गाड़ी और
भारत में सड़क
के दूसरी और।
लेकिन कैसा अद्भुत
दृश्य था।
प्रतिदिन ओशो
दो व्यक्तियों
को अपने और
विवेक के साथ
कार की सवारी
के लिए आमन्त्रित
करते। कई व्यक्तियों
के लिए तो यह
अनुभव उनकी
उपेक्षा से
कहीं अधिक
होता और वे
सफ़ेद चेहरा
लिए कांपते
हुए लौटते। कई
बार वापस
लौटने पर
विवेक ने अपनी
घबराहट शांत
करने के लिए
तेज़ व्हिस्की
का प्याला
मांगा।
ओशो कार को
तेज़ चलाना
पसन्द करते
थे। यह भूलते
हुए कि केवल
वे ही जो सड़क पर
कार चला रहे
है वास्तव
में ‘जाग्रत’ पुरूष है और
दूसरों से
कहीं अधिक
सुरक्षित है।
जब मोड़ों पर
कार तेज़ी से
फिसलती
निकलती,
उनके साथ बैठे
व्यक्ति
अपनी हाँफती
सांस और दबी चीख़ों
को रोक न
पाते। वे
हमेशा सड़क की
तेज गति लेन का
चुनाव करते।
कई अवसरों पर
ओशो ने कहां
कि कार में
अत्यधिक भय
विद्यमान है।
एक बार तो उन्होंने
कार रोक दी और
कहने लगे कि
अगर लोग शांत
और तनाव रहित
नहीं हुए तो
वे कार चलाना
बिल्कुल बंद
कर देंगे। कार
की पिछली सीट
पर बैठकर भी
कार चलाने का
निर्देश
देनेवाली
प्रवृति के एक
व्यक्ति ने
चिल्लाकर
कहा,
अभी-अभी आप उस
कार से बचे
है। और उनका
उत्तर था,
‘वह तुम्हारा
अनुमान है।’ ओशो के लिए
खाना पकाने
वाली एक साठ
वर्षीया बहुत
ही जीवट वाली, बहादुर
संन्यासिन
निर्गुण ने
बताया कि उस
काली तूफ़ानी
रात में कार
की सवारी का
अनुभव उसके
जीवन का सबसे
अधिक
आह्लादित
करने वाला
अनुभव था। बाद
में ओशो ने
उसे संदेश
भेजा कि अब तक
वही एक ऐसी व्यक्ति
थी जो वास्तव
में वर्तमान
(के क्षण) में
मौजूद थी।
जैसे ओशो दिन
में दो बार
कार की सवारी
के लिए जाते
हम लोग पत्थर
की सीढ़ियों
के तले लॉन
में नीले
फूलों से लदी
हाइड्रेंजिया
की झाड़ी के
समीप बैठ उन्हें
संगीत से
विदाई देते। निवेदनों—ब्राजील
का एक श्याम
वर्ण और रहस्यपूर्ण
युवक जिसने
अभी-अभी संन्यास
लिया था वहीं
था। वर्षों
बाद अब भी ओशो
के लिए संगीत
बजाते हुए
उसने अपनी एक
अन्य
प्रतिभा योग्यता
का परिचय दिया—जल
प्रपात
निर्माण करने
का। वहां गोविंद
दास था, एक
पीत वर्ण
जर्मन जो किसी
भारतीय
सितारवादक की
भांति अच्छी
सितार बजाता
था। और वह स्पेन
की जिप्सी यीशु
भी थी जो
एकसाथ दो
बांसुरियो
बजाती ओर उसकी
तीन वर्षीया
पुत्री कविया
उसके साथ
घंटिया बजाती।
रूपेश (ओशो का
तबला वादक)
मानो ऊर्जा का
डायनेमो था और
जब वह आया तो
उसे देखकर मैं
इतनी प्रसन्न
हुई कि उत्साह
से भरी उस पर
कूदकर चढ़ गई।
और अपना सामने
का दाँत उसके
सिर में गड़ा
दिया। हमारे
पड़ोसी
मठवासियों ने
संगीत सुना तो
पागल हो चिल्लाने
लगे ओर हम पर
काला जादू
करने तथा ‘’बलि
की रस्में’’ करने का
आरोप लगाया।
शीली अब तक
ओशो की सचिव
के रूप में
अच्छी तरह से
जम गई थी। और
लक्ष्मी को
जिसने भारत
में यह कार्य
किया था, छुट्टी दे
दी गई थी। ओशो
ने उसे शांत
हो कुछ भी न
करने के लिए
कहा। एक वर्ष
बाद उसने कहा
था कि यदि
वास्तव में
उसने उनकी बात
सुनी होती तो
अब तक बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
गई होती। उसने
संगीतकारों
के साथ
गाने-बजाने का
प्रयत्न किया।
लेकिन असफल
रही; तो
उसने रसोइया
बनने का निश्चय
किया। लेकिन
दुःख की बात
यह कि जब तक
दोपहर का भोजन
तैयार हुआ,संध्या
हो चुकी थी।
अत: वह बात भी न
बन पाई।
बेचारी लक्ष्मी
तब उसने स्थानीय
लोगों के बारे
में जानकारी
बढ़ाने के लिए
उद्यान
पार्टी में
शराब पीकर यह
दिखाने का
प्रयत्न
किया कि वह
दूसरों की
भांति एक
साधारण व्यक्ति
थी। लेकिन
शराब उस को
चढ़ गई। और
मेज़ के नीचे
लुढ़क गई। बाद
में(उसने स्वयं
ही दूसरा रास्ता
चून लिया) उसे
कम्यून से
अलग हो अपने
कुछ शिष्यों
को एकत्र कर
ओशो के लिए एक
नया कम्यून
प्रारम्भ
करने का
प्रयत्न
करना था।
सद्गुरू के
साथ रहते हुए
जब परिस्थितियां
बदलती है तो
कुछ नहीं किया
जा सकता। सिवाय
इसके कि उन्हें
स्वीकार कर
लिया जाए। क्योंकि
अस्तित्व
में प्रतिपल
सब कुछ बदल
रहा है और
सद्गुरू के
साथ रहते हुए
परिवर्तन को
स्वीकार
करने पर बल
है। पूना में
कुछ लोगों के
पास ऐसे काम
थे जिनके कारण
उनके हाथ में
कुछ शक्ति
थी। प्रतिष्ठा
थी, उन्हें
नई परिस्थितियों
से समझौता
करना असम्भव
लग रहा था।
कुछ अपने रास्ते
चले गए। और
ओशो के आसपास
रहने वाले
लोगों का समूह
ऐसे बदल गया
जैसे तेज़ हवाएँ
चलती है और
मृत शाखाएं
पेड़ों से
टूटकर गिर
जाती है।
देवराज से बात
करने पर मुझे
समझ में आया
था कि शीला
मात्र सुविधा
के कारण ओशो
की सचिव नही बनी
थी। भारतीय
होते हुए भी
वह अपने पहले
विवाह के कारण
अमरीकन
नागरिक थी। और
उसने बहुत समय
अमरीका में व्यतीत
किया था।
मामला इससे भी
कहीं अधिक
उलझा हुआ था
और यह सब पूना
में चार-पाँच
माह पूर्व ही
प्रारम्भ हो
चुका था।
देवराज ने
एक पुस्तक
लिखी थी और
इसमे वह लिखता
है:
‘शीला, हमारी
सक्रिय अथवा
निष्क्रिय
सहायता से ‘बॉस’ बन
गई है। ऐसा
नहीं है कि
ओशो ने एक दिन
कहा था। ‘इस
कार्य के लिए
तुम श्रेष्ठ
व्यक्ति
थे।’ उन्होंने
तो केवल इस
बात की पुष्टि
की थी कि उसने
वास्तव में
कार्यभार
संभाल लिया
है। उनके
द्वारा अन्य
किसी व्यक्ति
का चुनाव हम
पर आरोपण
होता। बौद्ध
संदर्भ में
इसे ‘चुनाव
रित’ बोध
कहा गया है।’
‘किसी
को चुनना’
उनकी कार्य
शैली के
बिलकुल
विरूद्ध था।
वे एक प्रयोगात्मक
समुदाय में रह
रहे थे। और
इसे जीवित
रखने के लिए, उसमें अपने
प्रकार की
अखंडता,
ईमानदारी,
का होना अनिवार्य
था। घटनाओं के
प्रवाह के
विरूद्ध मात्र
अपनी पसंद से
चुनाव उनका
ढंग नहीं था।
वे हमेशा धारा
के साथ बहते; अस्तित्व
जो भी उन्हें
प्रदान करता वे
उसके प्रति पूर्णतया
समर्पित होते और
उसे कार्य करने
में शत-प्रतिशत
सहयोग देते। अगर
अस्तित्व शीला
को शिखर पर ल आया
था तो इसका भी कोई
प्रयोजन होगा।
कुछ ऐसा अवश्य
होगा जिससे हमें
कुछ सीखना जरूरी
था—और कैसे।
‘जैसे
ओशो ने अपना जीवन
पूर्ण विश्वास
के साथ अपने चिकित्सकों
के हाथों सौंप
दिया था, वैसा
ही उन्होंने अपने
जीवन के कार्य
को अधिकारियों
के हाथों पूर्ण
विश्वास के साथ
सुपुर्द कर दिया।
और जबकि उन्हें
बोध है कि अज्ञानी
अप्रबुद्ध व्यक्ति
में बेहोशी और
कुरूपता की सम्भावना
है, वे इस तथ्य
से भी परिचित है
कि अप्रबुद्ध व्यक्ति
में सौंदर्य और
होश की सम्भावना
भी है। उन्हें
पूर्ण विश्वास
है कि भले ही कितना
समय लगे एक दिन
हम सबमें अंत में
होश-बेहोशी को मिटा देगी।
जैसे प्रकाश अंधकार
को मिटा देता है।’ (ओशो: द मोस्ट
गॉड लैस येट द गॉडली
मैंने डॉ जॉज मैरिडिथ)
मैं नहीं समझती
की ओशो ने किसी
को चूना। ऐसा नहीं
है कि वे दर्शन
में या प्रवचन
में बैठे चारों
ओर देखते और सबसे
अधिक प्रदीप्त
आभा मंडल युक्त
या सबसे अधिक क्षमता
वाले व्यक्ति
को ढूंढते और कहते, ‘वह मेरे
कपड़े धो सकता
है। या वह मेरे
लिए भोजन पका सकता
है।’ मुझे
लगता है कि जो भी
उनकी राह में आ
गया। उसे उन्होंने
आस्थापूर्वक
स्वीकार कर लिया।
उदाहरणार्थ,मुझे कभी यह पता
न चल सकेगा क्योंकि
मैंने कभी पूछा
नहीं कि ओशो ने
यह निर्णय लिया
या विवेक ने कि
मुझे कपड़े धोने
का अवसर क्यों
दिया गया। और तदोपरांत
ओशो के परिवार
का एक हिस्सा
बन जाऊं......लेकिन
मेरा अनुमान है
कि यह विवेक ही
थी। ऐसा लगता है
कि ‘मात्र संयोगवश’ मैं सही समय पर
सही स्थान पर
थी।
महल दुर्ग के
आस-पास के जंगल
चीड़ और नील स्प्रूस
पेड़ों से भरे
हुए थे। और झींगुर
इतनी तीखी और तेज़
आवाज़ में गाते
कि लबता खिड़कियाँ
टूट जाएंगी। एक
बार मैने एक झींगुर
पेड़ के तने पर
देखा;सह
छह इंच लम्बा
और हरे रंग का था।
मैंने सोचा आश्चर्य
की बात नहीं कि
यह इतनी ऊंची आवाज़
में कैसे गाता
है।
मुझे जंगल में
सोना अच्छा लगता।
एक सतर्कता चौकन्नापन
जो निद्रा के साथ
जुड़ गई। वह पशुओं
जैसी थी। वहां
कितनी ही आवाजें
थी—पत्तों की
सरसराहट थी। वह
थोड़ी डरावनी थी।
लेकिन मुझे इसमे
भी मज़ा आता।
एक महिला, जिसे कोई भी
नहीं जानता था, जर्मनी से वहां
आई। वह एक कट्टर
ईसाई थी। और उसने
शहर में ओशो के
संबंध में अफ़वाह
फैला दी। शीध्र
गुंडे रात्रि में
दुर्ग पर आने
लगे। उन्होंने
दीवारों पर लिख
दिया ‘घर जाओ....।’ और पेपर बमों
के विस्फोट किए।
ये बहुत ज़ोरदार
आवाज करते थे और
हम उछल कर बिस्तरों
से बाहर आ जाते।
सोचते कि जैसे
सचमुच के बम फट
रहे है।
खिड़कियों पर
पत्थर फेंक कांच
चकनाचूर कर देते।
हमने पहरा देना
आरम्भ कर दिया।
और मैंने जंगल
में सोना बंद
कर दिया। गढ़
वासियों का अपने
सफ़ेद चोगे पहन
प्रात: कालीन कोहरे
में खिसक जाना
और कारों से भरकर
आए गुंडों का चिल्लाना
मुझे बेचैन करने
लगा। हम अपने
काम से मतलब रखते, किसी को तंग
न करते और भी लोग
हमें पसंद न करते।
हम सर्वथा भिन्न
थे। हम महल में
तीन माह तक रहे।
शीला जगह की तलाश
में अधिकांश समय
बाहर रहती। वह
मध्य ऑरेगान में
‘द बिग मंडी
रैंच’ नामक
चौंसठ हजार एकड़
बंजर रेतीली भूमि
का सौदा करके लौटी, जो एक पुरानी
चरागाह थी। और
उसके जन्म दिवस
पर उसने इसके कागज़ों
पर इसके हस्ताक्षर
कर दिए। कम-से-कम
ऐसा उसका कहना
था
मां
प्रेम शुन्यों
(माई डायमंड
डे विद ओशो)
हीरा पायो
गांठ गठियायो)
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